संसाधन किसे कहते हैं? - परिभाषा, प्रकार, महत्व - सम्पूर्ण अध्ययन | sansadhan kise kahate hain

संसाधन की परिभाषा एवं अर्थ

हमारे पर्यावरण में उपलब्ध प्रत्येक वस्तु जो हमारी आवश्यकताओं को पूरा करने में प्रयुक्त की जा सकती है और जिसकों बनाने के लिए प्रौद्योगिकी उपलब्ध है, जो आर्थिक रूप से संभाव्य और सांस्कृतिक रूप से मान्य है, एक 'संसाधन' है। sansadhan kise kahate hain
संसाधन मानवीय क्रियाओं का परिणाम है। मानव स्वयं संसाधनों का महत्वपूर्ण हिस्सा है। वे पर्यावरण में पाए जाने वाले पदार्थो को संसाधनों में परिवर्तित करते हैं तथा उन्हें प्रयोग करते हैं।
sansadhan-kise-kahate-hain
भूमि, जल, वनस्पति और खनिज प्रकृति के उपहार हैं। इन्हें प्राकृतिक संसाधन कहते हैं। ये उपहार, राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के आधार हैं। ये लोगों की आर्थिक शक्ति और संपन्नता के आधार स्तंभ है। आदि मानव अपने भरण-पोषण के लिए प्रत्यक्ष रूप से जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों पर ही निर्भर था। धीरे-धीरे उसने औजारों, उपकरणों, तकनीकों और कुशलताओं का विकास किया। पर्यावरण के साथ अंत:क्रियाएँ करते हुए, उसने अपने लिए उपयोगी वस्तुएँ प्राप्त की। ये प्राकृतिक वस्तुएँ उसके लिए प्राकृतिक साधन बने। इन्हीं प्राकृतिक संसाधनों ने मानव का आर्थिक विकास का आधार प्रदान किया है।
मानव ने प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग कर, अपने लिए रहने योग्य दुनिया बनाई। उसने मकानों, भवनों, सड़कों, रेलमार्गो, गावों, कस्बों, नगरों, मशीनों, उद्योगों और कई अन्य वस्तुओं की रचना की। ये सभी वस्तुएँ भी बहुत उपयोगी है। इन्हें मानव निर्मित संसाधन कहते हैं। प्राकृतिक और मानव-निर्मित दोनों ही संसाधन जीवन के लिए अति आवश्यक हैं।
संसाधनों की कई विशेषताएँ हैं, उनकी भारी उपयोगिता है। सामान्यतः संसाधन सीमित मात्रा में उपलब्ध है। ये उपयोगी वस्तुएँ बनाने में हमारी मदद करते हैं अथवा सेवाएँ प्रदान करते हैं। संसाधनों को उपयोगी बनाने के लिए हमें प्रयास करने पड़ते हैं। संसाधनों की उपयोगिता अथवा उनका प्रयोजन विज्ञान और प्रौद्योगिकी में सुधार के साथ बदलता रहता है।
  • स्मिथ एवं फिलिप्स के अनुसार : “भौतिक रूप से संसाधन वातावरण की वे प्रक्रियायें हैं जो मानव के उपयोग में आती हैं”
  • जिम्मरमैन के अनुसार संसाधन की परिभाषा : “संसाधन पर्यावरण की वे विशेषताएं हैं जो मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम मानी जाती हैं, जैसे ही उन्हे मानव की आवश्यकताओं और क्षमताओं द्वारा उपयोगिता प्रदान की जाती हैं.”
  • जेम्स फिशर के अनुसार संसाधन की परिभाषा : ” संसाधन वह कोई भी वस्तु हैं जो मानवीय आवश्यकतों और इच्छाओं की पूर्ति करती हैं.”

संसाधन (Resources)

इच्छा

आपकी आवश्यकता क्या है और आप उसे प्राप्त करने के लिए क्या करेंगे

आप एक पोशाक खरीदना चाहते हैं

धन

sansadhan-kise-kahate-hain

आप एक फिल्म देखना चाहते हैं। आप वहाँ कैसे पहुँचेंगे?

पैदल चलकर या बस में।

sansadhan-kise-kahate-hain

परिवार अपने लिए एक घर बनाना चाहता है।

भूमि तथा धन

sansadhan-kise-kahate-hain

मित्र को जन्मदिन का कार्ड भेजना चाहते हैं।

डाक टिकट और लिफाफा

sansadhan-kise-kahate-hain

परीक्षा पास करना चाहते हैं।

ज्ञान तथा पुस्तकें।

sansadhan-kise-kahate-hain


संसाधनों का प्रयोग

हमें अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अपने संसाधनों का प्रबंधन करना पड़ता है। कई बार हमें सीमित समय में कई लक्ष्यों को पूरा करना होता है। आप अपने समय का प्रबंधन किस प्रकार करेंगे ताकि आप एक दिन में निम्नलिखित सभी कार्यों को पूरा कर सकें जैसे परीक्षा के लिए पढाई. अपने मित्र से मिलना, अपनी छोटी बहन को पढ़ाना तथा परिवार के लिए रात्रि का भोजन तैयार करने में माता-पिता की सहायता करना।
अतः आपको इन सभी कार्यों को पूरा करने के लिए निम्न में से किसी उपाय का सहारा लेना पड़ेगाः
  • अधिक समय का प्रयोग करें,
  • अपने समय का उपयोग कुशलतापूर्वक करें, तथा
  • किए जाने वाले कार्यों को कम करें।
इन तीन संभव विकल्पों में से पहले विकल्प का सहारा नहीं लिया जा सकता है। आप जानते हैं कि समय सीमित संसाधन है; आपके पास एक दिन में केवल 24 घंटे ही हैं। अब आप क्या करेंगे? क्या आप अपने काम की मात्रा को कम करेंगे? जी नहीं, ये सभी महत्वपूर्ण लक्ष्य हैं जिन्हें आप पूरा करना चाहते हैं। अब आपके पास केवल एक ही विकल्प बाकी है। इस विकल्प के अनुसार आपको अपने समय का प्रबंधन इस प्रकार करना होगा जिससे कि आप अपने सभी लक्ष्यों को प्राप्त कर सकें।
sansadhan-kise-kahate-hain
यह केवल एक उदाहरण है। हम सभी को अपने दिन-प्रति-दिन के जीवन में अन्य संसाधनों के संबंध में भी इसी प्रकार की परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। इस समस्या का एकमात्र समाधान है- संसाधनों का इष्टतम उपयोग। यह सभी संसाधनों पर लागू होता है। चूँकि संसाधन सीमित हैं, इस लिए हमें उनके उपयोग की योजना इस प्रकार बनानी होती है ताकि उनसे हमें अधिकतम लाभ प्राप्त हो सके। यह केवल उचित नियोजन से ही संभव है।

संसाधनों के प्रकार

संसाधनों को कई प्रकार से बांटा गया है जैसे प्राकृतिक और मानव-निर्मित, नवीकरणीय और अनवीकरणीय तथा निजी, सामुदायिक च राष्ट्रीय संसाधन।

प्राकृतिक और मानव-निर्मित संसाधन
संसाधनों को सामान्यतः प्राकृतिक और मानव-निर्मित (सांस्कृतिक) वर्गों में बांटा जा सकता है। प्राकृतिक संसाधन प्रकृति प्रदत्त है। भूमि, जल, खनिजों और वनों की गणना प्राकृतिक साधनों में की जाती है।

ये ससांधन भी दो प्रकार के है:-
  1. जैविक संसाधन
  2. अजैविक संसाधन
भूमि, जल और मृदा अजैविक संसाधन है। जबकि वन और जीव-जंतु जैविक संसाधन है। कुछ खनिज भी जैविक है जैसे कोयला और कुछ खनिज अजैविक है। जैसे लोह-अयस्क। इंजीनियरिंग, प्रौद्योगिकी, मशीने, भवन, स्मारक, चित्रकलाएँ और सामाजिक संस्थाएँ कुछ मानव-निर्मित संसाधन हैं। इनके अतिरिक्त मनुष्य में अपनी वृद्धि विवेक, और कुशलताएँ हैं। उसमें स्वास्थ्य और अन्य कई गुण भी है। ये सभी उसके संसाधन हैं। प्राकृतिक संसाधनों के विकास के लिए मानव संसाधनों का होना आवश्यक है।

जैविक संसाधन

इन संसाधनों में पर्यावरण के समस्त जीवित तत्व सम्मिलित हैं। वन, वनोत्पाद, फसलें, पछी, वन्य जीव, मछलियां व अन्य समुद्री जीव जैव संसाधनों के उदाहरण हैं।
sansadhan-kise-kahate-hain
ये संसाधन नवीकरणीय है क्योंकि ये स्वयं को पुनरूत्पादित व पुनर्जीवित कर सकते हैं। कोयला और खनिज तेल भी जैविक संसाधन है, परंतु ये नवीकरणीय नहीं हैं।

अजैविक संसाधन

इन संसाधनों में पर्यावरण के समस्त निर्जीव पदार्थ सम्मिलित है। भूमि, जल, वायु और खनिज यथा लोहा, ताँबा, सोना आदि अजैविक संसाधन हैं। ये समाप्त होने योग्य हैं व पुनर्नवीनीकरण के योग्य नहीं है, क्योंकि ये न तो नवीनीकृत हो सकते हैं और न ही पुनरूपादित।
sansadhan-kise-kahate-hain
  • प्राकृतिक संसाधन मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं, ये प्रकृति के मुफ्त उपहार हैं। उदाहरणार्थ - भूमि, जल, मृदा आदि।
  • कोई पदार्थ जो कि मनुष्य के लिए मूल्यवान व उपयोगी है, संसाधन कहलाता है।
  • संसाधन प्राकृतिक पर्यावरण जैसे कि वायु, जल, वन और विभिन्न जैव रूप का निर्माण करते हैं, जो कि मानव के जीवन यापन व विकास के लिए आवश्यक है।
  • संसाधन उत्पत्ति, पुनर्नवीकरण व उपयोग के आधार पर वर्गीकृत किए जा सकते हैं।

प्राकृतिक संसाधन

परिभाषा - वे सभी संसाधन जो प्रकृति प्रदत्त हैं प्राकृतिक संसाधन कहलाते हैं। जैसे- भूमि, जल, वनस्पति, जन्तु, हवा, प्रकाश, खनिज, इत्यादि।
भारतीय परम्परा में प्रकृति को माता माना गया है चूँकि यह मानव की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। आदिकाल से ही हमनें अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति के संसाधनों का उपयोग ही नहीं बल्कि दोहन किया है इन संसाधनों का हमारी सभ्यता के विकास में उल्लेखनीय योगदान है।

अर्थ
जैसा कि स्पष्ट है कि प्राकृतिक संसाधनों का अभिप्राय प्रकृति से है। इन संसाधनों की सतत् उपलब्धता तभी सम्भव है जब उनका बहुत ही सावधानी से उपयोग किया जायें अर्थात् जिस गति से इनको प्रक्ति से निकाला जाये लगभग उसी गति से प्रकृति में इनके संचयन की पद्धति भी अपनायी जाये। संचयन की विधि में इनके संरक्षण की एक अहम भूमिका होगी। संरक्षण से अभिप्राय अपनी अत्यावश्यक आवश्यकताओं के लिए प्राकृतिक संसाधनों का मात्र उपयोग ही है न कि दोहन (Exploitation) या दुरुपयोग। राष्ट्रपिता महत्मा गाँधी ने कहा था कि "प्रकृति हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम है किन्तु हमारे लालच की पूर्ति में वह अक्षम है (The nature is sufficient for our needs but it is insufficient for our greeds)" उक्त संसाधनों की सतत् उपलब्धता विशिष्ट चक्रो जैसे-जल चक्र, 02 चक्र, N2 चक्र, खनिज चक्र इत्यादि के माध्यम से प्रकृति द्वारा की है। मानव का अनावश्यक व अविवेकपूर्ण हस्ताक्षेप उक्त चक्रो को प्रभावित करता है।

वर्गीकरण (Classification)
प्राकृतिक संसाधनों को मुख्य रुप से दो भागों में बाँटा गया है।

नवीकरणीय संसाधन (Renewable resources)
ये वे संसाधन है जिनका लगातार नवीनीकरण ( उत्पादन)
प्रकृति में होता रहता है फलतः प्रकृति में इनकी उपस्थिति बहुत लम्बे समय तक बनी रहेगी। इनकी उपस्थिति का सन्तुलन तभी बिगड़ सकता है जब इनका केवल अति दोहन ही किया जाये एवम् इनके पुर्नभरण (Recharge) के बारे में पहल न की जाये। जैसे– वायु, जल, मिट्टी, वन, खनिज, खाद्य, अपारम्परिक ऊर्जा स्त्रोत, जीव-जन्तु इत्यादि।

अनवीकरणीय संसाधन (Non-Renewable resource)
वे संसाधन जिनका नवीनीकरण एक लम्बे काल चक्र में होता है। अर्थात् यूँ कहें कि इनके नवीनीकरण की गति अति धीमी होती है। इसलिए आवश्यक परिस्थितियों में भी इन प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग अति सावधानी के साथ किया जाये। जैसे- कोयला, प्राकृतिक गैस खनिज, पदार्थ, पेट्रोलियम इत्यादि ।

नवीकरणीय संसाधन
  • (i) वायु - वायु एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन है जिसमें विभिन्न गैसों की मात्रा निश्चित है। इन गैसों की प्रतिशत में परिवर्तन से जीवों हेतु आवश्यक परिस्थितियाँ प्रभावित होती है। जैसे वर्तमान समय में मानवीय गतिविधियों के कारण वायु में co2 की मात्रा बढ़ने के कारण हरित गृह प्रभाव एवं वैश्विक उष्णता जैसी विश्वव्यापी समस्याएँ उत्पन्न हो रही है। वायु में अन्य हानिकारक गैसों की मात्रा बढ़ने से वायु प्रदूषण की समस्या तैयार हो रही है।
  • (ii) जल - यह प्रकृति का अनमोल संसाधन है। जीवधारियों की पृथ्वी गृह में उपस्थिति केवल पानी की उपलब्धता पर निर्भर है। पृथ्वी पर लगभग 75 प्रतिशत भाग जल है। इसी करण से इसे नील ग्रह कहा जाता है। उक्त जल का 97.4% समुद्रों में 2%, ध्रुवों पर बर्फ के रूप में, 59% भू-जल के रूप एवं 0.01% सतही जल के रूप में उपलब्ध है। अर्थात् 0.6% जल ही पीने के योग्य है। इसी कारण से इसका विवेकपूर्ण उपयोग अति आवश्यक है।
  • (iii) मिट्टी - पृथ्वी के ऊपरी परत को मिट्टी या भूमि कहते हैं जो कि एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन हैं। हमारे लिए खाद्यान, सब्जियाँ, औषधियाँ, लकड़ी, इत्यादि के पूर्ति मिट्टी में उगने वाले पौधों के द्वारा होती है। वैसे तो यह असमाप्त प्राकृतिक संसाधन है किन्तु विभिन्न कारणों से यह भी प्रदूषित हो रही है। फलतः इसकी उर्वरा क्षमता लगतार कम हो रही है।
  • (iv) वन - वन अति महत्वपूर्ण प्रातिक संसाधन हैं। वनों से हम जलाऊ व इमारती लकडी, औषधियॉ, अनेक वन उत्पाद, प्राणवायु (आक्सीजन) इत्यादि पाते हैं। वन्यजीवों से विभिन्न सामग्री हमको प्राप्त होती है। एक स्वस्थ पर्यावरण हेतु 33% भूमि में वन होने चाहिए आज हमारे देश में यह केवल लगभग 12% है। वनोन्मूलन से पूरे वन पारिस्थितिक तन्त्र की क्रिया पद्धति प्रभावित होती है। जिन सभ्यताओं ने वन संसाधनों का उपयोग सावधानी से किया है वे फली फूली हैं जबकि उनका विनाश करने वाली सभ्यताओं का धीरे-2 रस होता चला गया है। वनों के संरक्षण व विकास हेतु पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने 1988 में एक राष्टीय वन नीति बनाई जिसमें संयुक्त वन प्रबन्धन (Joint forest management) को महत्व दिया गया। इसमें वनों के निर्वहनीय प्रबन्धन के लिए स्थानीय ग्रामीण समुदाय और वन विभाग मिलकर कार्य करते हैं।
  • (v) खनिज - खनिज एक सुनिश्चित रासायनिक संरचना और सुस्पष्ट भौतिक गुणों वाला रासायनिक पदार्थ है जिससे धातु या अन्य उपयोगी पदार्थ प्राप्त किए जाते हैं। पृथ्वी की पर्पटी में खनिज को बनने में लाखों वर्षों का समय लगता है। धात्विक खनिजों में लोहा, ताँबा, जस्ता, एल्यूमिनियम, मैगनीज, सोना, चाँदी, प्लैटिनम इत्यादि तथा अधात्विक खनिजों में तेल, गैस, कोयला, नमक, मिट्टी, सिलिका, चूना, ग्रेनाइट, संगमरमर आदि शामिल हैं।
  • (vi) अपारम्परिक ऊर्जा स्त्रोत - हमारे दैनिक जीवन में ऊर्जा का अति महत्व है। नवीनीकरणीय या गैर पारम्परिक स्त्रोतो में सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, सागरीय ऊर्जा, नाभिकीय ऊर्जा इत्यादि, इनका उपयोग भविष्य के लिए लाभप्रद होगा।
  • (vii) पौधे एवं जन्तु - पेड़ पौधे सौर ऊर्जा को ग्रहण करके सम्पूर्ण जगत हेतु भोजन का निर्माण करते हैं। इन्हीं से हमको ईंधन, वस्तु, चमड़ा, खाद इत्यादि प्राप्त होता है। मानव की आवश्यकता के साथ ही ये पर्यावरणीय सन्तुलन के लिए भी अनिवार्य है। इनके संरक्षण से ही अनेक प्राकृतिक संसाधन स्वमेय संरक्षित हो जाते हैं।

प्राकृतिक संसाधनों का मानवीय सम्बन्ध
मानव और समस्त प्राकृतिक संसाधनों (पृथ्वी, जल, ऊर्जा) के बीच एक घनिष्ट सम्बन्ध है मानव के समस्त आवश्यकताओं यहाँ तक कि मानव जाति के अस्तित्व के लिए इन संसाधनों की उपस्थिति अनिवार्य है। राम चरित मानस में आया है कि उक्त प्राकृतिक संसाधनों (पृथ्वी, जल, ऊर्जा, आकाश एवं वायुमण्डल हवा) के द्वारा ही मानव का अस्तित्व सम्भव है।
अतः अपने अस्तित्व बनाए रखने के लिए हमको सदैव यह चिन्तन व प्रयास करना चाहिए की हमारी उपस्थिति से प्राकृतिक संसाधनों में उपरोक्त हास के बजाय वृद्धि हो रही है।

प्राकृतिक ससाधनो की उपलब्धता व शुद्धता को बनाए रखने हेतु निम्नलिखित प्रयास होने चाहिए :
  • वृक्षारोपण एवं वर्षा जल संचयन।
  • औद्योगिक, नगरीय व प्रदूषित घरेलू अपशिष्ट जल को आवश्यक उपचार के बाद ही जमीन या जलाशय मे छोडा जाना।
  • नदियों, तालाबों, कुओं, झीलों, बाँधों एवं अन्य जल स्त्रोतों के संरक्षण हेतु सघन प्रयास।
  • उघोगों व अन्य कार्यों से उत्पन्न दूषित व विषैली गैसों के सीमित उत्सर्जन हेतु आवश्यक उपकरणों या संयत्रों की स्थापना।
  • वाहनो व घरेलू कार्यो मे कम वायु प्रदूषण उत्पन्न करने वाले ईंधनों (जैसे CNG, LPG इत्यादि) का उपयोग।
  • कार्बनडाई आक्साइड के न्यूनतम उत्सर्जन के प्रयास (जैसे प्राकृतिक जीवनशैली अपनाना, स्वचालित वाहनों इत्यादि का अति सीमित उपयोग, अपनी आवश्यकताओं को कम करना, कोई भी पदार्थ त्याग करने के पूर्व उसके पुनचक्रण व पुर्नउपयोग की सम्भावना को तलाशने की आदत पैदा करना इत्यादि।
  • परम्परागत उर्जा स्रोतों (कोयला पेट्रोलियम व प्राकृतिक गैस) का संरक्षण तथा उनका सीमित व विवेकपूर्ण उपयोग साथ ही गैर परम्परागत ऊर्जा के उत्पादन एवं उपयोग को बढ़ावा देना।
  • जैव विविधता का संरक्षण व संवर्धन
  • प्राकृतिक संसाधनों का आवश्यकतानुसार विवेकपूर्ण उपयोग।

मानव निर्मित संसाधन

मानव निर्मित संसाधन प्रकृति द्वारा प्रदत्त संसाधनों का प्रयोग कर उत्पादित माल व सेवाएँ हैं। प्रायः, संसाधन मनुष्य के लिए उपयोगी तभी बन पाते हैं जब उनका मूल रूप बदल दिया जाता है। ऐसी वस्तुएं प्राकृतिक रूप से नहीं होतीं बल्कि मानव द्वारा उपभोग हेतु उत्पादित की जाती हैं। औषधियों, जैसे कुछ मानव निर्मित संसाधन आधुनिक मानव जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक हैं, क्योंकि, टीका-द्रव्य जैसी औषधियों के बिना लोग रोग एवं मृत्यु के शिकार हो जाएँगे। किंतु, पीड़कनाशी जैसे कुछ मानव निर्मित संसाधन वैज्ञानिक रूप से प्रयोग न किए जाने पर प्राकृतिक पर्यावरण को हानि भी पहुंचा सकते हैं।
कुछ मानव निर्मित संसाधन प्राकृतिक संसाधनों की भाँति ही होते हैं। उदाहरण के लिए, झीलें और ताल मानव-निर्मित संसाधन हैं। जबकि उनमें जल और मछलियाँ प्राकृतिक संसाधन हैं, किंतु उनमें जल मानव प्रयास द्वारा ही एकत्र होता है। ऐसे संसाधन अनेक लोगों के लिए खाद्य, आय और आमोद-प्रमोद अवसर पैदा करते हैं। इसी प्रकार, खेत भी प्रकृति से उपलब्ध पौधे एवं मृदा प्रयोग करने वाले मानव निर्मित संसाधन हैं। कागज जैसे कुछ अन्य मानव निर्मित संसाधन प्रायः पुस्तकों एवं तश्तरियों जैसे अन्य संसाधन तैयार करने के लिए प्रयोग किए जाते हैं। तारों एवं अर्धचालकों जैसे उच्च-प्रौद्योगिक उत्पाद मानव के प्रयोग हेतु बनी अन्य वस्तुएँ हैं। अन्य मानव निर्मित संसाधनों के उदाहरण हैं- अस्पताल, अनुसंधान केंद्र, शैक्षणिक संस्थान, आदि। ये सामुदायिक विकास हेतु संसाधनों के रूप में काम करते हैं। कुल मिलाकर वे अवसंरचना बन जाते हैं जो आर्थिक संवृद्धि एवं विकास की रीढ़ कहलाते हैं।

संसाधनों के उपयोग के मार्गदर्शन

संसाधन सदैव ही समित होते हैं। हमारे पास धन की उपलब्धता भी सीमित ही होती है। हर व्यक्ति के पास एक दिन में उपलब्ध घंटों की संख्या भी 24 तक सीमित है। पृथ्वी पर भूमि की उपलब्धता भी सीमित ही है। अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए हमें अपने सीमित संसाधनों के साथ ही प्रबंधन करना पड़ता है। इसलिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि उनका उपयोग विवेकपूर्ण रूप से किया जाए।
संसाधनों को कुशलतापूर्वक प्रयोग करने के कुछ मार्गदर्शन निम्नलिखित हैं:-
  • संसाधनों को व्यर्थ न करें।
  • संसाधनों का संरक्षण करें।
  • संसाधनों के प्रयोग के लिए वैकल्पिक माध्यमों का प्रयोग
  • संसाधनों को लंबे समय तब बनाए रखने के तरीकों को सीखें।
  • संसाधनों का संरक्षण करते समय ध्यान रखें कि आप दूसरों के लिए संसाधनों की कमी न कर रहे हों।

संसाधनों का विकास

संसाधन जिस प्रकार, मनुष्य के जीवन यापन के लिए अति आवश्यक हैं, उसी प्रकार जीवन की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण हैं। ऐसा विश्वास किया जाता था कि संसाधन प्रकृति की देन है। परिणामस्वरूप, मानव ने इनका अंधाधुंध उपयोग किया है, जिससे निम्नलिखित मुख्य समस्याएँ पैदा हो गई है।
  • कुछ व्यक्तियों के लालचवश संसाधनों का ह्रास
  • संसाधन समाज के कुछ ही लोगों के हाथ में आ गए हैं, जिससे समाज दो हिस्सों संसाधन संपन्न एवं संसाधनहीन अर्थात अमीर और गरीब में बँट गया।
  • संसाधनों के अंधाधुंध दोहन से वैश्विक पारिस्थतिकी संकट पैदा हो गया है जैसे भूमडलीय तापन, ओजोन परत अपक्षय, पर्यावरण प्रदूषण और भूमि निम्नीकरण आदि है।
मानव जीवन की गुणवत्ता और विश्व शांति बनाए रखने के लिए संसाधनों की समाज में न्यायसंगत बँटवारा आवश्यक हो गया है। यदि कुछ ही व्यक्तियों तथा देशों द्वारा संसाधनों का वर्तमान दोहन जारी रहता है, तो हमारी पृथ्वी का भविष्य खतरे में पड़ सकता है।
इसलिए, हर तरह के जीवन का अस्तित्व बनाए रखने के लिए संसाधनों के उपयोग की योजना बनाना अति आवश्यक है। सतत् अस्तित्व सही अर्थ में सतत् पोषणीय विकास का ही एक हिस्सा है।

संसाधनों का वर्गीकरण

  • उत्पति के आधार पर - जैव और अजैव
  • समाप्यता के आधार पर - नवीकरण योग्य और अनवीकरण योग्य
  • स्वामित्व के आधार पर - व्यक्तिगत, सामुदायिक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय
  • विकास के स्तर के आधार पर - संभावी, विकसित भंडार पर संचित कोष

संसाधनों का वर्गीकरण

उत्पति के आधार पर

1-    जैव संसाधन

2-    अजैव संसाधन

स्वामित्व के आधार पर

1-    व्यक्तिगत संसाधन

2-    सामुदायिक संसाधन

3-    राष्टीय संसाधन

4-    अंतराष्टीय संसाधन

समाप्यता के आधार पर

1-    नवीकरणीय संसाधन

2-    अनवीकरणीय संसाधन

विकास स्तर के आधार पर

1-    संभावी संसाधन

2-    विकसित संसाधन

3-    भंडार

4-    संचित कोष


उत्पति के आधार पर
  • जैविक संसाधन - इन संसाधनों की प्राप्ति जीवमंडल से होती है। और इनमें जीवन व्याप्त है। जैसे- मनुष्य, वनस्पति, जन्तु आदि।
  • अजैविक संसाधन - वे सारे संसाधन जो निर्जीव वस्तुओं से बने है। अजैविक संसाधन कहलाते है। उदाहरणार्थ, धातु, कोयला, मिट टी, जल आदि।

समाप्यता के आधार पर
  • नवीकरण योग्य संसाधन - वे संसाधन जिन्हें भौतिक, रासायनिक या यांत्रिक प्रक्रियाओं द्वारा नवीकृत या पुनः उत्पन्न किया जा सकता है, उन्हें नवीकरण योग्य अथवा पुनः पुर्ति योग्य संसाधन कहा जाता है। उदारहणार्थ, सौर तथा पवन ऊर्जा, जल, वन, वन्य जीवन। इन संसाधनों को सतत् अथवा प्रवाह संसाधनों में विभाजित किया गया है।
  • अनवीकरण योग्य संसाधन - इन संसाधनों का विकास एक लंबे भू-वैज्ञानिक अंतराल में होता है। खनिज और जीवाश्म ईधन इस प्रकार के संसाधनों के उदाहरण हैं। इनके बनने में लाखों वर्ष लग जाते हैं। इनमें से कुछ संसाधन जैसे धातुएँ पुनः चक्रीय हैं और कुछ संसाधन जैसे जीवाश्म ईधन अचक्रीय हैं व एक बार के प्रयोग के साथ ही खत्म हो जाते हैं।

स्वामित्व के आधार पर
  • व्यक्तिगत संसाधन - संसाधन निजी व्यक्तियों में भी होते हैं। बहुत से किसानों के पास सरकार द्वारा आवंटित भूमि होती है। जिसके बदले में वे सरकार को लगान चुकाते है। गाँव में बहुत से लोग भूमि के स्वामी भी होते है और बहुत से लोग भूमिहीन होते है। शहरों में लोग भूखंड, घरों व अन्य जायदाद के मालिक होते हैं। बाग, चारागाह, तालाब और कुओं का जल आदि संसाधनों के निजी स्वामित्वस के कुछ उदाहरण हैं।
  • सामुदायिक स्वामित्व वाले संसाधन - ये ससाधन समुदाय के सभी सदस्यों को उपलब्ध होते हैं। गांव की शामिल भूमि (चारण भूमि, शमशान भूमि, तालाब इत्यादि) और नगरीय क्षेत्रों के सार्वजनिक पार्क, पिकनिक स्थल और खेल के मैदान, वहाँ रहने वाले सभी लोगों के लिए उपलब्ध है।

रियो डी जेनेरो पृथ्वी सम्मेलन, 1992

जून, 1992 में 100 से भी अधिक राष्ट्राध्यक्ष ब्राजील के शहर रियो डी जेनेरो में प्रथम अंतर्राष्ट्रीय पृथ्वी सम्मेलन में एकत्रित हुएँ सम्मेलन का आयोजन विश्व स्तर पर उभरते पर्यावरण संरक्षण और सामाजिक-आर्थिक विकास की समस्याओं का हल ढूँढने के लिए किया गया था। इस सम्मेलन में एकत्रित नेताओं ने भूमंडलीय जलवायु परिवर्तन और जैविक विविधता पर एक घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किया। रियो सम्मेलन में भूमडलीय वन सिद्धांतों (Forest Principles) पर सहमति जताई और 21 वीं शताब्दी में सतत् पोषणीय विकास के लिए एजेंडा 21 को स्वीकृति प्रदान की।


एजेंडा 21

यह एक घोषणा है जिसे 1992 में ब्राजील के शहर रियो डी जेनेरो में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण और विकास सम्मेलन (UNCED) के तत्वाधान में राष्ट्राध्यक्षों द्वारा स्वीकृत किया गया था। इसका उद्देश्य भूमंडलीय सतत् पोषणीय विकास हासिल करना है। यह यह कार्यसूची है। जिसका उद्देश्य समान हितों, पारस्परिक आवश्यकताओं एवं सम्मिलित जिम्मेदारियों के अनुसार विश्व सहयोग के द्वारा पर्यावरणीय क्षति, गरीबी और रोगों से निपटना है। एजेंडा 21 का मुख्य उद्देश्य यह है कि प्रत्येक स्थानीय निकाय अपना स्थानीय एजेंडा 21 तैयार करें।


राष्ट्रीय संसाधन

तकनीकी तौर पर देश में पाये जाने वाले सारे संसाधन राष्ट्रीय हैं। देश की सरकार को कानूनी अधिकार है कि वह व्यक्तिगत संसाधनों को भी आम जनता के हित में अधिग्रहित कर सकती है। आपने देखा होगा कि सड़कें नहरें और रेल लाइनें व्यक्तिगत स्वामित्व को सरकार ने भूमि अधिग्रहण का अधिकार दिया हुआ है। सारे खनिज पदार्थ, जल संसाधन, वन, वन्य जीवन, राजनीतिक सीमाओं के अंदर सारी भूमि और 12 समुद्र मील (19.2 किमी०) तक महासागरीय क्षेत्र (भू-भागीय समुद्र) व इसमें पाए जाने वाले संरक्षण राष्ट्र की संपदा है।

अंतर्राष्ट्रीय संसाधन

कुछ अंतर्राष्ट्रीयय संस्थाएँ संसाधनों को नियंत्रित करती है। तट रेखा से 200 समुद्री मील की दूरी (अपवर्जक आर्थिक क्षेत्र) से परे खुले महासागरीय संसाधनों पर किसी देश का अधिकार नहीं है। इन संसाधनों को अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की सहमति के बिना उपयोग नहीं किया जा सकता।

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यवस्थित तरीके से संसाधन संरक्षण की वकालत 1968 में क्लब ऑफ रोम ने की। तत्पश्चात् 1974 में शुमेसर ने अपनी पुस्तक स्माल इज ब्यूटीफुल में इस विषय पर

गांधी जी के दर्शन की एक बार फिर से पुनरावृत्ति की है। 1987 में बुन्डटलैंड आयोग रिपोर्ट द्वारा वैश्विक स्तर पर संसाधन संरक्षण में मूलाधार योगदान किया गया। इस रिपोर्ट ने सतत् पोषणीय विकास (Sustainable Development) की संकल्पना प्रस्तुत की और संसाधन संरक्षण की वकालत की।

यह रिपोर्ट बाद में हमारा सांझा भविष्य (Our Common Future) शीर्षक से पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुई। इस संदर्भ में एक और महत्वपूर्ण योगदान रियो डी जेनेरो, ब्राजील में 1992 में आयोजित पृथ्वी सम्मेलन द्वारा किया गया।


विकास के स्तर के आधार पर

संभावी संसाधन
यह वे संसाधन हैं जो किसी प्रदेश में विद्यमान होते हैं परंतु इनका उपयोग नहीं किया गया है। उदाहरण के तौर पर भारत के पश्चिमी भाग, विशेषकर राजस्थान और गुजरात में पवन और सौर ऊर्जा संसाधनों की अपार संभावना है, परंतु इनका सही ढंग से विकास नहीं हुआ है।

विकसित संसाधन
वे संसाधन जिनका सर्वेक्षण किया जा चुका है। और उनके उपयोग की गुणवत्ता और मात्रा निर्धारित की जा चुकी है। विकसित संसाधन कहलाते हैं। संसाधनों का विकास प्रौद्योगिकी और उनकी संभाव्यता के स्तर पर निर्भर करता है।

भंडार
पर्यावरण में उपलब्ध वे पदार्थ जो मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकते हैं परंतु उपयुक्त प्रौद्योगिकी के अभाव में उसकी पहुँच से बाहर हैं. भंडार में शामिल है। उदाहरण के लिए, जल दो ज्वलनशील गैसों, हाइड्रोजन और ऑक्सीजन का यौगिक है तथा यह ऊर्जा का मुख्य स्रोत बन सकता है। परंतु इस उद्देश्य से, इनका प्रयोग करने के लिए हमारे पास आवश्यक तकनीकी ज्ञान नही है।

संचित कोष
यह संसाधन भंडार का ही हिस्सा है, जिन्हें उपलब्ध तकनीकी ज्ञान की सहायता से प्रयोग में लाया जा सकता है। परंतु इनका उपयोग अभी आरंभ नहीं हुआ है। इनका उपयोग भविष्य में आवश्यकता पूर्ति के लिए किया जा सकता है। नदियों के जल को विद्युत पैदा करने में प्रयुक्त किया जा सकता है। परंतु वर्तमान समय में इसका उपयोग सीमित पैमाने पर ही हो रहा है। इस प्रकार बाँधों में जल, वन आदि संचित कोष हैं जिनका उपयोग भविष्य में किया जा सकता है।

संसाधन नियोजन

संसाधन नियोजन एक जटिल प्रक्रिया है, जिसमें निम्नलिखित सोपान हैं-
  • देश के विभिन्न प्रदेशों में संसाधनों की पहचान कर उनकी तालिका बनाना। इस कार्य में क्षेत्रीय सर्वेक्षण, मानचित्र बनाना और संसाधनों का गुणात्मक एवं मात्रात्मक अनुमान लगाना व मापन करना है।
  • संसाधन विकास योजनाएं लागू करने के लिए उपर्युक्त प्रौद्योगिकी, कौशल और संस्थागत नियोजन ढाँचा तैयार करना।
  • संसाधन विकास योजनाओं और राष्ट्रीय विकास योजना में समन्वय स्थापित करना।
संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग के लिए नियोजन एक सर्वमान्य रणनीति है। इसलिए भारत जैसे देश में जहाँ संसाधनों की उपलब्धता में बहुत अधिक विविधता है, यह और भी महत्पवपूर्ण है। यहाँ ऐसे प्रदेश भी है जहाँ एक तरह के संसाधनों की प्रचुरता है, परंतु दूसरे तरह के संसाधनों की कमी है। कुछ ऐसे प्रदेश भी हैं जो संसाधनों की उपलब्धता के संदर्भ में आत्मनिर्भर है और कुछ ऐसे भी प्रदेश है जहाँ महत्वपूर्ण संसाधनों की अत्यधिक कमी है। उदाहरणार्थ, झारखंड, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ आदि प्रांतों में खनिजों और कोयले के प्रचुर भंडार है। अरूणाचल प्रदेश में जल संसाधन प्रचुर मात्रा में पाए जाते है। परंतु मूल विकास की कमी है। राजस्थान में पवन और ऊर्जा संसाधनों की बहुतायत है, लेकिन जल संसाधनों की कमी है। लद्दाख का शीत मरूस्थल देश के अन्य भाग से अलग-थलग पड़ता है। यह प्रदेश सांस्कृतिक विरासत का धनी है परंतु यहाँ जल, आधारभूत अवसंरचना तथा कुछ महत्वपूर्ण खनिजों की कमी है। इसलिए राष्ट्रीय प्रांतीय प्रादेशिक और स्थानीय स्तर पर संतुलित संसाधन नियोजन की आवश्यकता है।
  • स्वाधीनता के बाद भारत में संसाधन नियोजन के उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रथम पंचवर्षीय योजना से ही प्रयास किए गएँ
किसी क्षेत्र के विकास के लिए संसाधनों की उपलब्धता एक आवश्यक शर्त है परंतु प्रौद्योगिकी और संस्थाओं में तदनरूपी परिवर्तनों के अभाव में मात्र संसाधनों की उपलब्धता से ही विकास संभव नहीं है। देश में बहुत से क्षेत्र है जो संसाधन समृद्ध होते हुए भी आर्थिक रूप से पिछड़े प्रदेशों की गिनती में आते है। इसके विपरीत कुछ ऐसे प्रदेश है जो संसाधनों की कमी होते हुए भी आर्थिक रूप से विकसित हैं।
उपनिवेश का इतिहास हमें बताता है कि उपनिवेशों में संसाधन संपन्न प्रदेश, विदेशी आक्रमणकारियों के लिए मुख्य आकर्षण रहे हैं। उपनिवेशकारी देशों ने बेहतर प्रौद्योगिकी के सहारे उपनिवेश के संसाधनों का शोषण किया तथा उन पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। अतः संसाधन किसी प्रदेश के विकास में तभी योगदान दे सकते हैं, जब वहाँ उपयुक्त प्रौद्योगिकी विकास और संस्थागत परिवर्तन किए जाए। उपनिवेश के विभिन्न चरणों में भारत ने इन सबका अनुभव किया है। अतः भारत में संसाधन विकास लोगों के मुख्यतः संसाधनों की उपलब्धता पर ही आधारित नहीं था बल्कि इसमें प्रौद्योगिकी, मानव संसाधन की गुणवत्ता और ऐतिहासिक अनुभव का भी योगदान रहा है।

संसाधन नियोजन की आवश्यकता

  • संसाधनों का विवेकपूर्ण प्रयोग करने के लिए नियोजन करना चाहिए जिससे भावी पीढी भी उपयोग कर सके ।
  • वर्तमान की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए भविष्य के लिए संसाधन बचाना सतत पोषणीय विकास कहलाता हैं।
  • संसाधन सीमित मात्रा में उपलब हैं इसलिए उनका नियोजन आवश्यक हैं। जिससे उन्हें स्वयं भी उचित ढंग से प्रयोग करे और आने वाली पीढ़ीयों के लिए सुरक्षित रखें।
  • संसाधन न केवल सीमित मात्रा में ही उपलब्ध हैं। वरन उनकी उपलब्धता में काफी भिन्नता और विविधता पायी जाती हैं। भरत जैसे देशा में बहुत से क्षेत्र ऐसे भी है जहाँ एक तरह से संसाधनों की प्रचुरता हैं परन्तु दूसरी तरफ से संसाधनों की कमी : परन्तु संसाधन नियोजन की प्रकिया से देश के प्रत्येक राज्य का सामान और सन्तुलित विकास संभव हो सकता हैं।
  • संसाधनों के नियोजन से उनका विनाश रोका जा सकता हैं देश की मूल्यवान सम्पदा का संरक्षण किया जा सकता है। इस प्रकिया से वृक्षों का अन्धाधुन्ध कटना और वन्य प्राणियों का विनाश रोका जा सकता है। अन्यथा ऐसे लोग अपने लालच के लिए संसाधनों का दुष्प्रयोग कर सकते हैं। और राष्ट्रीय सम्पदा का विनाश कर सकते हैं।
  • संसाधनों के नियोजन से पंचवर्षीय योजनाओं को सफल बनाया जा सकता हैं।


संसाधनों का संरक्षण

संसाधनों की समाप्ति के पश्चात मानव जीवन की कल्पना मात्र भी दुष्कर है। संसाधनों का विवेकहीन उपभोग और अति उपयोग के कारण कई सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय समस्याएँ पैदा हो सकती हैं जो मानव जाति की तबाही क लिए भी उत्तरदायी हो सकता है। इन समस्याओं से बचाव के लिए विभिन्न स्तरों पर संसाधनों का संरक्षण आवश्यक है। संसाधनों की समस्या के इतने भयावह रूप लेने से पहले ही कुछ महान लोगों ने संसाधनों के संरक्षण के महत्व को समझ लिया था और आजीवन लोगों को प्रेरित भी करते रहे उदाहरणस्वरूप गांधी जी ने संसाधनों के संरक्षण पर अपनी चिंता इन शब्दों में व्यक्त की है- "हमारे पास हर व्यक्ति की आवश्यकता पूर्ति के लिए बहुत कुछ है, लेकिन किसी के लालच की संतुष्टि के लिए नहीं। अर्थात् हमारे पास पेट भरने के लिए बहुत है लेकिन पेटी भरने के लिए नहीं। " उनके अनुसार विश्व स्तर पर संसाधन ह्रास के लिए लालची और स्वार्थी व्यक्ति तथा आधुनिक प्रौद्योगिकी की शोषाणात्मक प्रवृत्ति जिम्मेदार है। वे अत्यधिक उत्पादन के विरुद्ध थे और इसके स्थान पर अधिक बड़े जनसमुदाय द्वारा उत्पादन के पक्षधर थे।

1 Comments

  1. Dhanyawad sir aapne bahut help Kiya is topic ko etne acche se explain karke

    ReplyDelete
Newer Older