सामाजिक समस्या - अर्थ एवं परिभाषा, प्रकार, कारण, विशेषताएँ, उत्पत्ति, समाधान | samajik samasya

सामाजिक समस्या

समाजशास्त्र एक विशुद्ध विज्ञान है अथवा व्यावहारिक विज्ञान? यह प्रश्न समाजशास्त्र में अत्यधिक चर्चित रहा है। कुछ विद्वानों का मत है कि समाजशास्त्र का उद्देश्य केवल सामाजिक घटनाओं के बारे में नवीन ज्ञान प्राप्त करना है तथा किसी प्रकार का निर्णय देना या समस्याओं का समाधान करना कदापि नहीं है। ऐसे विद्वान् समाजशास्त्र को विशुद्ध विज्ञान मानते हैं। दूसरी ओर, आज अधिकांश विद्वानों का यह मत है कि समाजशास्त्र सहित सभी सामाजिक विज्ञानों का उद्देश्य सामाजिक जीवन को प्रगतिशील बनाना है। यह तभी सम्भव है जब समाज में विद्यमान समस्याओं का का अध्ययन किया जाए। इस दृष्टि से समाजशास्त्र एक व्यावहारिक विज्ञान है।
समाजशास्त्र में सामाजिक समस्याओं, सामाजिक विघटन, सामाजिक व्याधिकी जैसे विषयों का अध्ययन इस बात का द्योतक है कि समाजशास्त्र एक व्यावहारिक विज्ञान है तथा नीति-निर्धारक समाजशास्त्रियों से सामाजिक समस्याओं के कारणों को समझने तथा उनके समाधान हेतु उपाय सुझाने की आशा रखते हैं।
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सामाजिक नियोजन की दृष्टि से भी आज समाजशास्त्र एक महत्त्वपूर्ण विषय हो गया है। प्रारम्भिक समाजशास्त्रियों ने भी तत्कालीन समाजों में विद्यमान समस्याओं का अध्ययन कर यह दर्शाने का प्रयास किया कि समाजशास्त्री इन समस्याओं को समझने से विमुख नहीं हो सकते। इसीलिए आज भारत के लगभग सभी विश्वविद्यालयों में भारत में विद्यमान प्रमुख समस्याओं से सम्बन्धित किसी-न-किसी नाम से एक प्रश्न-पत्र पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाता है। चूँकि समाजशास्त्र में क्षेत्रीय दृष्टिकोण अपनाया जाता है इसलिए यह विषय सामाजिक समस्याओं के कारणों को समझने में सहायक है। सामाजिक समस्याओं के कारणों को समझना उनके समाधान हेतु आवश्यक माना जाता है।

सामाजिक समस्या का अर्थ एवं परिभाषाएँ

'सामाजिक समस्या' का अर्थ समझने के लिए हमें 'सामाजिक' तथा 'समस्या' शब्द का अर्थ समझ लेना उचित होगा। जब भी हम 'सामाजिक' शब्द का प्रयोग करते हैं तो इससे हमारा अभिप्राय मानवीय सम्बन्धों, सामाजिक संरचना (ढाँचे), संगठन आदि से होता है। समस्या का अभिप्राय ऐसे अवांछनीय एवं अनुचित व्यवहारों अथवा प्रचलनों से है, जो सामाजिक व्यवस्था में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न कर देते हैं।
अत: सामाजिक संगठन, सामाजिक संरचना या मानवीय सम्बन्धों में जो समस्याएँ उत्पन्न होती हैं उन्हें हम सामाजिक समस्याएँ कहते हैं। सामाजिक समस्या सदैव विघटनमूलक होती है। इससे सामाजिक संगठन में उथल-पुथल हो सकती है तथा नियमित एवं सामान्य जीवन बुरी तरह से प्रभावित हो सकता है। सामाजिक समस्या केवल किसी विशेष स्थिति की ही सूचक नहीं होती अपितु उस स्थिति की गम्भीरता के बारे में सामाजिक चेतना या सामाजिक चिन्ता की अभिवृत्ति को भी व्यक्त करती है।
सामाजिक समस्या के अर्थ को स्पष्ट करने हेतु इसकी प्रमुख परिभाषाओं का ज्ञान होना आवश्यक है।

राब एवं सेल्जनिक (Raab and Selznick) के अनुसार, “यह मानवीय सम्बन्धों की वह समस्या है जो स्वयं समाज को गम्भीर चुनौती देती है अथवा अनेक लोगों की महत्त्वपूर्ण आकांक्षाओं में बाधा पैदा करती है।"

ग्रीन (Green) के अनुसार, “सामाजिक समस्या ऐसी परिस्थितियों का पुंज है जिसे समाज में बहुसंख्यक अथवा पर्याप्त अल्पसंख्यक द्वारा नैतिकतया गलत समझा जा सकता है।”

इसी भाँति, होर्टन एवं लेस्ले (Horton and Leslie) के अनुसार, “सामाजिक समस्या एक ऐसी स्थिति है जो बहुत से लोगों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती है तथा जिसका हल सामूहिक सामाजिक क्रिया द्वारा ही हो सकता है।"

फुल्लर एवं मेयर्स (Fuller and Myers) ने सामाजिक समस्या को परिभाषित करते हुए लिखा है कि, “जब समाज के अधिकांश सदस्य किसी विशिष्ट दशा एवं व्यवहार प्रतिमानों को अवांछित और आपत्तिजनक मान लेते हैं तब उसे सामाजिक समस्या कहा जाता है।"

मर्टन एवं निस्बेत (Merton and Nisbet) के अनुसार, “(सामाजिक समस्या) व्यवहार का वह ढंग है जोकि सामाजिक व्यवस्था के अधिकांश भाग द्वारा सामान्य रूप से स्वीकृत या अनुमोदित आदर्शों के उल्लंघन के रूप में माना जाता है।” इनके अनुसार सामाजिक समस्या का सीधा सम्बन्ध मानवीय सम्बन्धों और समाज की स्वीकृत व्यवस्था से होता है। ऐसे व्यवहार को हम समस्या इसलिए कहते हैं क्योंकि यह अपेक्षित योजनाओं में बाधा उत्पन्न करता है तथा समाज के नियमित जीवन में उथल-पुथल की ओर संकेत करता है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक समस्या सामान्य स्थापित एवं प्रचलित मूल्यों के अस्तित्व में संकट एवं उथल-पुथल उत्पन्न करने वाली दशा है। अतः सामाजिक समस्याएँ सामाजिक जीवन में पैदा होने वाली अवांछनीय स्थितियाँ हैं जो सार्वजनिक चिन्ता का विषय होती हैं।

इसकी परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि सामाजिक समस्या में अग्रलिखित तीन प्रमुख तत्त्व पाए जाते हैं -
1. समाज के अधिकांश सदस्यों से इसका सम्बन्ध होना,

2. दबावकारी या तनावपूर्ण सामाजिक स्थिति
बर्नार्ड के अनुसार स्थिति को तीन हिस्सों में बाँटा जा सकता है-
  1. तनाव कारक, जो समाज के किसी मूल्य के लिए चुनौती का कारण होते हैं,
  2. सामाजिक मूल्य, जिसको चुनौती दी जा रही है, तथा
  3. चुनौती के प्रति व्यक्तियों या समूहों की तीव्र प्रतिक्रियाएँ अर्थात् समाज के संगठन एवं कल्याण के लिए भय, आशंका की स्थिति तथा

3. समुचित सामूहिक क्रियाएँ जो समस्या को हल कर सकती हैं अर्थात् सामूहिक प्रयत्न द्वारा इसके समाधान की आशा।
अत: सामाजिक समस्या वास्तव में वे दशाएँ हैं जो सामाजिक मूल्यों को चुनौती देती हैं, समाज का महत्त्वपूर्ण भाग उनसे दबाव या तनाव महसूस करता है, वे उस दबाव के कारण को जानते हैं और यह विश्वास करते हैं कि सामूहिक प्रयासों से इस दबाव को दूर किया जा सकता है। सामाजिक समस्या सामाजिक आदर्श और यथार्थ में भारी अन्तर की सूचक है जिसे मिटाने के
लिए सामाजिक कार्यवाही जरूरी हो जाती है। अपराध, बाल अपराध, मद्यपान, मादक द्रव्य व्यसन, वेश्यावृत्ति, टूटते परिवार, बेरोजगारी, गरीबी, मानसिक रोग इत्यादि सामाजिक समस्याओं के ही उदाहरण हैं।

सामाजिक समस्याओं के प्रकार

सामाजिक समस्याएँ अनेक प्रकार की होती हैं तथा इनका वर्गीकरण विभिन्न प्रकार से किया जा सकता है।
प्रमुख प्रकार निम्नलिखित हैं-

(अ) सम्बन्धित पक्ष एवं क्षेत्र के आधार पर सामाजिक समस्या
  • वैयक्तिक- (यथा मद्यपान, वेश्यावृत्ति, जुआ, आत्महत्या आदि)
  • पारिवारिक- (यथा पारिवारिक कलह, घरेलू हिंसा एवं तलाक आदि)
  • सामुदायिक- (यथा जातिवाद, वर्ग संघर्ष, साम्प्रदायिकता आदि)
  • राष्ट्रीय- (यथा अपराध, बालापराध, भाषावाद, जनाधिक्य आदि)
  • अन्तर्राष्ट्रीय - (यथा युद्ध, शीतयुद्ध आतंकवाद आदि)
क्षेत्रीय आधार पर इन्हें क्षेत्रीय, प्रादेशिक, देशव्यापी तथा अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं में विभाजित किया जा सकता है।

(ब) समय के आधार पर सामाजिक समस्या - थात्कालिक, अल्पकालिक, दीर्घकालिक

(स) प्रकृति के आधार पर सामाजिक समस्या बहिर्मुखी (जिन्हें स्पष्टतः देखा जा सकता है;
जैसे निर्धनता, बेरोजगारी, अपराध आदि) अन्तर्मुखी (जिन्हें स्पष्टतः देखा नहीं जा सकता है; जैसे जातीय पूर्वाग्रह, वेश्यावृति, मद्यपान आदि)

सामाजिक समस्याओं के उपर्युक्त वर्गीकरण स्पष्ट करते हैं कि इन्हें अनेक आधारों पर विभाजित किया गया है। समाजशास्त्र में सामाजिक समस्याओं एवं सामाजिक विघटन की दृष्टि से सम्बन्धित पक्ष एवं क्षेत्र के आधार पर किए गए वर्गीकरण को ही सर्वाधिक प्रयोग में लाया जाता है।

सामाजिक समस्या की विशेषताएँ

सामाजिक समस्या की प्रमुख विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं-
  1. सामाजिक समस्या वह दशा या स्थिति है जिसे समाज हानिकारक मानता है तथा उसके समाधान की आवश्यकता महसूस करता है।
  2. सामाजिक समस्या का सम्बन्ध सामाजिक संरचना से होता है। इसीलिए वही समस्याएँ सामाजिक समस्याएँ कही जाती हैं जो या तो सामाजिक संरचना पर कुप्रभाव डालती हैं अथवा जिनका कारण समाज की विद्यमान सामाजिक संरचना में होता है।
  3. सामाजिक समस्या में सामूहिकता का तत्त्व निहित होता है। यदि केवल कुछ व्यक्ति किसी स्थिति को अवांछनीय मानते हैं तो वह सामाजिक समस्या नहीं कही जाएगी। अधिकांश व्यक्तियों द्वारा अमुक समस्या को किसी-न-किसी प्रकार की बाधा मानने पर ही वह समस्या सामाजिक समस्या कही जाएगी।
  4. सामाजिक समस्या वह अवांछनीय स्थिति है जिसे सुधारने का प्रयास किया जाता है। यदि कोई समस्या अवांछनीय तो है परन्तु समाज के सदस्य उसमें किसी प्रकार के सुधार की न तो आशा करते हैं और न ही प्रयास करते हैं तो ऐसी समस्या सामाजिक समस्या नहीं कही जाएगी।
  5. सामाजिक समस्या समाज कल्याण की धारणा से सम्बन्धित होती है। समाज कल्याण को अवरुद्ध करने वाली समस्याएँ ही अधिकतर सामाजिक समस्याएँ मानी जाती हैं।
  6. फुल्लर तथा मेयर के मतानुसार जागरूकता, नीति-निर्धारण तथा सुधार सामाजिक समस्या से सम्बन्धित वे चरण हैं जिनके द्वारा किसी समुदाय में इनका निर्धारण सम्भव होता है।

सामाजिक समस्या की उत्पत्ति

सामाजिक समस्या की उत्पत्ति अनेक कारणों से होती है। जब सामाजिक संगठन में सामंजस्य समाप्त हो जाता है और समाज द्वारा प्रचलित मूल्यों, आदर्शों व नियमों में अव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हो जाती है तो सामाजिक समस्या जन्म लेती है। जॉन केन के अनुसार जब कभी समाज द्वारा प्रचलित मूल्यों एवं आदर्शों के प्रतिकूल परिस्थितियाँ विकसित हो जाती हैं तो अनेक प्रकार की समस्याएँ जन्म लेने लगती हैं। सामाजिक समस्याओं की उत्पत्ति यद्यपि अनेक कारणों एवं परिस्थितियों के कारण होती है फिर भी प्रत्येक सामाजिक समस्या कुछ निश्चित चरणों में से गुजर कर ही विकसित होती है। फुल्लर एवं मेयर्स ने सामाजिक समस्या के स्वाभाविक एवं प्राकृतिक विकास के चरणों की विस्तृत विवेचना की है।
प्रमुख चरण निम्नलिखित हैं -
  • चेतना की स्थिति - सामाजिक समस्या के विकास का प्रथम चरण समाज के व्यक्तियों में सामाजिक व्यवस्था एवं सामान्य जीवन को अवरुद्ध करने वाली कठिनाइयों के बारे में चेतना है। समाज के अधिकांश सदस्य इन्हें महसूस करने लगते हैं और उनके बारे में सोच विचार शुरू कर देते हैं।
  • कठिनाइयों का स्पष्टीकरण - द्वितीय चरण में कठिनाइयाँ अधिक स्पष्ट हो जाती हैं और सामान्य जनता इनसे असुविधा महसूस करने लगती है और इनकी ओर स्पष्ट इशारा किया जाने लगता है।
  • सुधार कार्यक्रमों या लक्ष्यों का निर्धारण - समस्या स्पष्ट हो जाने के पश्चात् इसके समाधान के लिए कार्यक्रमों एवं लक्ष्यों के निर्धारण का कार्य तृतीय चरण में होता है।
  • संगठन का विकास - लक्ष्य निर्धारित करने के पश्चात् इन्हें पूरा करने के लिए आवश्यक संगठन का विकास किया जाता है तथा आवश्यक साधनों को एकत्र किया जाता है ताकि सुधार कार्यक्रमों को लागू किया जा सके।
  • सुधार का प्रबन्ध - सामाजिक समस्याओं के स्वाभाविक विकास का अन्तिम चरण इसके समाधान के लिए सुधार कार्यक्रमों को लागू करना है तथा अगर आवश्यक हो तो इसके लिए अनिवार्य संस्था का विकास करना है।

रोबर्ट ए० निस्बेत ने सामाजिक समस्या की उत्पत्ति में चार सहायक कारक बताए हैं-
  1. संस्थाओं में संघर्ष - कई बार अनेक संस्थाओं के उद्देश्यों, लक्ष्यों व साधनों में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। प्राचीन एवं नवीन संस्थाओं में यह संघर्ष अधिक पाया जाता है क्योंकि प्राचीन संस्थाएँ व्यवस्था को यथारूप बनाए रखने पर बल देती हैं जबकि नवीन संस्थाएँ सामाजिक गतिशीलता पर अधिक बल देती हैं।
  2. सामाजिक गतिशीलता - यह प्रथम कारक से जुड़ा हुआ कारक है। गतिशीलता की सामाजिक समस्याओं को उत्पन्न करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका है क्योंकि गतिशीलता के कारण व्यक्ति को नवीन प्रस्थितियों, मूल्यों आदि से काफी संघर्ष करना पड़ता है और कई बार लोग तंग आकर अवैधानिक, अनैतिक व अस्वीकृत तरीकों द्वारा अपनी प्रस्थिति ऊँचा करने का प्रयास करते हैं।
  3. व्यक्तिवाद - आज के युग में निरन्तर बढ़ता हुआ व्यक्तिवाद भी सामाजिक समस्याओं का कारण है। परम्परागत समाजों में जीवन सामूहिक होता था परन्तु आज व्यक्ति अपने में ही खोता जा रहा है और सामूहिकता समाप्त होती जा रही है। इससे प्राथमिक नियन्त्रण शिथिल हो जाता है और व्यक्ति के पथभ्रष्ट होने की सम्भावना बढ़ जाती है। सामाजिक एकता में कमी हो जाती है, व्यक्तिवाद के कारण व्यक्ति मनचाहा व्यवहार करने लगता है तथा वह समाज के रीति-रिवाजों की चिन्ता नहीं करता।
  4. व्याधिकीय स्थिति - व्याधिकीय स्थिति भी सामाजिक समस्याओं को विकसित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इस स्थिति में व्यक्ति समाज के मूल्यों की चिन्ता किए बिना, जो उन्हें अच्छा लगता है वह करने लगते हैं और इससे समाज में अव्यवस्था और सामाजिक समस्याएँ बढ़ जाती हैं। व्याधिकीय स्थिति एक प्रकार से आदर्शविहीनता की स्थिति है जिसमें समाज में पाए जाने वाले आदर्श नियम व्यवहार को नियमित करने में असफल रहते हैं। लोग मनमाना व्यवहार करने लगते हैं तथा इससे अनेक नवीन सामाजिक समस्याएँ विकसित हो जाती हैं।

सामाजिक समस्याओं के कारण

सामाजिक समस्याओं के लिए कोई एक कारण उत्तरदायी नहीं है अपितु प्रत्येक समस्या के पीछे एक जटिल इतिहास रहता है। उदाहरणार्थ, बेरोजगारी, आत्महत्या, अपराध आदि समस्याओं के पीछे एक कारण न होकर अनेक कारण होते हैं।
सामाजिक समस्याओं के कारणों का संक्षिप्त वर्णन निम्न प्रकार से किया जा सकता है-
1. राब एवं सेल्जनिक के अनुसार, “एक सामाजिक समस्या तब पैदा होती है जबकि एक संगठित समाज की योग्यता लोगों के सम्बन्धों को व्यवस्थित करने में असफल सी प्रतीत होती हैं और तब इसकी संस्थाएँ विचलित होने लगती हैं, कानूनों का उल्लंघन होने लगता है, मूल्य एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित नहीं होते तथा आकांक्षाओं का ढाँचा लड़खड़ाने लगता है।
2. सामाजिक समस्याएँ मनुष्यों के व्यवहार, जोकि अनेक प्राणिशास्त्रीय, मनोवैज्ञानिक तथा सामाजिक कारकों पर निर्भर करता है, में परिवर्तन के कारण उत्पन्न होती हैं। यदि व्यवहार सामाजिक मूल्यों के विरुद्ध होने लगता है तो सामाजिक समस्याएँ पैदा होने लगती हैं।
3. सामाजिक परिवर्तन की तीव्र गति के कारण प्राय: सामाजिक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं क्योंकि कई बार व्यक्ति नवीन परिस्थितियों से अनुकूलन करने में असमर्थ होते हैं।
4. सामाजिक समस्या का प्रमुख कारण आर्थिक होता है। बेरोजगारी न केवल व्यक्तिगत समस्या है वरन् यह आर्थिक समस्या भी है।
5. पारसन्स के अनुसार मनुष्य का भौतिक साधनों के साथ अधूरा समायोजन ही मनुष्य की समस्याओं के लिए प्रमुख रूप से उत्तरदायी है।
6. वोल्फ ने जनसंख्या की वृद्धि को ही सामाजिक समस्या का प्रमुख कारण बताया है।
7. इलियट एवं मैरिल ने सामाजिक विघटन को सामाजिक समस्याओं का प्रमुख कारण माना है।
8. ऑगबन ने भौतिक एवं अभौतिक संस्कृति में असमान गति के कारण उत्पन्न सांस्कृतिक विलम्बना को सामाजिक समस्याओं का प्रमुख कारण बताया है।

सामाजिक समस्याओं के अध्ययन की पद्धतियाँ

सामाजिक समस्याओं का अध्ययन विविध प्रकार की पद्धतियों द्वारा किया गया है। इन पद्धतियों को हम दो श्रेणियों में विभाजित कर सकते हैं-

गुणात्मक पद्धतियाँ
प्रमुख गुणात्मक पद्धतियाँ निम्नलिखित हैं-
  1. ऐतिहासिक पद्धति - यह पद्धति समाजों, सभ्यताओं, समुदायों, घटनाओं, संस्थाओं व समस्याओं के विकास-क्रम या समय-क्रम में अध्ययन करने की पद्धति है जिसका प्रयोग उत्पत्ति, विकास या रूपान्तर से सम्बन्धित अध्ययनों में किया जाता है। प्रारम्भिक समाजशास्त्रियों ने अपने अध्ययनों में इसी पद्धति को अधिकतर अपनाया है। सामाजिक समस्याओं की उत्पत्ति एवं विकास के अध्ययन में यह पद्धति अत्यधिक उपयोगी है।
  2. वैयक्तिक अध्ययन पद्धति - यह किसी सामाजिक इकाई या समस्या के गहन एवं विस्तृत अध्ययन करने की प्रमुख पद्धति है। गुड एवं हैट के अनुसार, “वैयक्तिक अध्ययन पद्धति सामाजिक तथ्यों को संगठित करने का वह ढंग है जिससे अध्ययन किए जाने वाले विषय के एकात्मक स्वभाव का संरक्षण हो सके। थोड़े से भिन्न रूप में यह वह पद्धति है जिसमें किसी इकाई को एक समग्र के रूप में देखा जाता है।” सामाजिक समस्याओं के अध्ययन में यह पद्धति अत्यधिक उपयोगी है, क्योंकि इससे सामाजिक समस्या के सभी पक्ष स्पष्ट हो जाते हैं।
  3. सामुदायिक अध्ययन पद्धति - यह अध्ययन पद्धति जनजातीय समस्याओं एवं विभिन्न सम्प्रदायों की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को समझने के लिए प्रयुक्त की जाती है। इसके द्वारा जनजातीय कल्याण, श्रम कल्याण, हरिजन कल्याण, महिला कल्याण इत्यादि सामुदायिक समस्याओं का अध्ययन सफलतापूर्वक किया गया है।
  4. आदर्श-प्ररूप विश्लेषण पद्धति - यह पद्धति भी कार्य-कारण सम्बन्धों का अध्ययन करने में मैक्स वेबर जैसे विद्वानों द्वारा प्रयुक्त की गई है। आदर्श-प्ररूप एक प्रकार का अवधारणात्मक ढाँचा है जोकि अन्वेषणकर्ता को वास्तविक घटनाओं में समानताओं एवं असमानताओं को मापने में सहायता प्रदान करता है। जो समस्याएँ विश्लेषणात्मक एवं वर्णनात्मक प्रकृति की होती हैं, उनके अध्ययन में यह पद्धति अधिक उपयोगी है।

गणनात्मक या संख्यात्मक पद्धतियाँ
प्रमुख गणनात्मक या संख्यात्मक पद्धतियाँ निम्नलिखित हैं-
1. सामाजिक सर्वेक्षण पद्धति- व्यावहारिक समस्याओं के अध्ययन के लिए यह सबसे उपयुक्त पद्धति मानी जाती है तथा इसके द्वारा अपराध, भिक्षावृत्ति, बेरोजगारी, निर्धनता, जनसंख्या वृद्धि आदि विविध प्रकार की समस्याओं का सफल अध्ययन किया गया है। वेल्स ने तो सामाजिक सर्वेक्षण की परिभाषा ही इसी अर्थ में की है। इनके शब्दों में, “श्रमिक वर्ग की निर्धनता तथा समुदाय की प्रकृति और समस्याओं सम्बन्धी तथ्य खोजने वाला अध्ययन ही सामाजिक सर्वेक्षण है।”
2. सांख्यिकीय पद्धति- सांख्यिकीय अनुसन्धान का उद्देश्य भूत और भविष्य की तुलना करना है। सामाजिक समस्याओं के प्रभाव का अध्ययन इस पद्धति द्वारा किया गया है। पी० वी० यंग के अनुसार वैयक्तिक अध्ययन पद्धति और सांख्यिकीय पद्धति एक-दूसरे की पूरक हैं यद्यपि दोनों ही सामाजिक परिस्थिति को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखती हैं तथा उस परिस्थिति में प्रभाव
डालने वाले सामाजिक कारणों पर पृथक् रूप से बल देती हैं।
3. समाजमिति- इस पद्धति द्वारा सामाजिक दूरी एवं व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों को मापने का प्रयास किया जाता है। असन्तोष एवं बैर, वैमनस्य जैसी समस्याओं को इसके द्वारा समझा जा सकता है। जे० एल० मोरीनो तथा हेलन हाल जेनिंग्स ने इस पद्धति का निर्माण सामाजिक दूरी एवं पारस्परिक सम्बन्धों के अध्ययन के लिए किया है। फ्रैंज के अनुसार, “समाजमिति एक ऐसी पद्धति है जिसे कि समूह में विभिन्न व्यक्तियों के बीच पाए जाने वाले आकर्षण एवं विकर्षण के माप द्वारा सामाजिक स्वरूपों के अन्वेषण एवं संचालन के लिए प्रयोग किया जाता है।"

सामाजिक समस्याओं का समाधान

सामाजिक समस्याओं के हल में निम्न उपाय प्रभावकारी हो सकते हैं-
  1. 'तनावपूर्ण समस्यात्मक' स्थितियों की पुनर्व्याख्या - तनावपूर्ण एवं समस्याजनक परिस्थितियों पर पूर्व नियन्त्रण द्वारा सामाजिक समस्या को हल किया जा सकता है। हमारे समाज की अनेक अन्तः समूह सम्बन्धों की समस्याएँ, भेदभाव की भावना, भ्रान्तिपूर्ण विश्वासों तथा अपमानजनक प्रवृत्तियों का परिणाम होती हैं। जिन समूहों के प्रति भेदभाव की भावना समाज में पाई जाती है, यदि उनकी नए सिरे से परिभाषा की जाए तो प्राय: अनेक अन्तः समूहों के सम्बन्धों की समस्याएँ हल हो सकती हैं। कुछ स्थितियों को यदि सामाजिक समस्या के रूप में स्वीकार न किया जाए तो ये स्थितियाँ स्वयं समाप्त हो सकती हैं। उदाहरणार्थ अमेरिका में व्यापारिक वेश्यावृत्ति समाप्त हो गई है क्योंकि वेश्याओं की माँग बहुत कम हो गई है तथा स्त्रियों ने अपनी आय बढ़ाने के लिए अच्छे संस्थानों में नौकरी करनी शुरू कर दी है।
  2. व्यक्तियों के व्यवहारों में परिवर्तन - क्योंकि अनेक समस्याएँ मूल्यों से सम्बन्धित हैं अत: इन मूल्यों एवं व्यक्तियों के व्यवहार को परिवर्तित करके भी सामाजिक समस्या के प्रभाव को कम किया जा सकता है। मनुष्य के समस्याजनक व्यवहार को तार्किक दृष्टि से समझाकर उसे प्रचार के साधनों द्वारा बदला जा सकता है। कभी-कभी व्यक्तियों के समस्याजनक व्यवहार को बदलना कठिन होता है। ऐसी स्थिति में समुचित शिक्षा व मानसिक परिवर्तन के द्वारा कम से कम बच्चों के व्यवहार को परिवर्तित उन्हें समस्या से मुक्त किया जा सकता है।
  3. समस्याजनक व्यवहार पर वैधानिक नियन्त्रण - विभिन्न कानूनों को सख्ती से लागू करके या वर्तमान कानूनों में समुचित संशोधन कर अनेक समस्याजनक व्यवहारों को नियन्त्रित किया जा सकता है। समस्याजनक व्यवहार के लिए सरकार दण्ड तो देती ही है, लेकिन साथ ही दण्डनीय व्यवहार करने वाले व्यक्तियों की पुापना का प्रयत्न भी करती है। यह दोहरी नीति समस्याओं को सुलझाने की अपेक्षा उन्हें प्रोत्साहन देती है। अतः ऐसे व्यवहारों पर रोक लगाने के लिए प्रभावकारी कानून अनिवार्य है।
  4. विद्वानों की सेवाओं का उपयोग - सामाजिक समस्याओं का समाधान करने में विभिन्न विद्वानों (जैसे मनोचिकित्सक, सामाजिक कार्यकर्ता, समूह संगठनकर्ता, समूह कार्यकर्ता, समूह प्रशासक, शिक्षावेत्ताओं आदि) की सेवाओं को उपयोग में लाया जा सकता है। ये विद्वान् विभिन्न समस्याओं का विश्लेषण कर सामाजिक समस्या के उपचार के साधन बता सकते हैं। हमारे समाज में सामाजिक वैज्ञानिक की पूर्ण क्षमताओं का प्रयोग सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए नहीं किया जा रहा है।
  5. सामाजिक संरचना में परिवर्तन - प्राय: सामाजिक संरचना व्यक्ति के व्यवहार को निर्देशित करती है। कुछ सामाजिक समस्याओं का हल सामाजिक संरचना में परिवर्तन द्वारा सम्भव हो सकता है। समूह की संरचना में ऐसी स्थितियाँ सर्जित की जा सकती हैं जिनसे कि समूह के सदस्य सदैव सद्भावनापूर्ण वातावरण में आपस में सहयोगात्मक रूप से रहें तथा समाज की मान्यताओं के प्रतिकूल व्यवहार ही न करें।
  6. समाजवादी समाज की स्थापना - कार्ल मार्क्स ने समस्याओं से युक्त समाज के निर्माण के लिए पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के स्थान पर साम्यवादी अर्थव्यवस्था की स्थापना का सुझाव दिया है, लेकिन केवल मात्र अर्थव्यवस्था को बदल देने से समाज की समस्त समस्याओं का हल नहीं हो सकता। इसके लिए वास्तविक समाजवादी समाज की स्थापना सहायक हो सकती है जिसमें आर्थिक एवं अन्य असमानताएँ कम से कम हों।
  7. धार्मिक शिक्षा - कुछ विद्वानों का विचार है कि धार्मिक शिक्षा के प्रसार द्वारा भी अनेक समस्याओं को हल किया जा सकता है। सोरोकिन तथा टॉयनबी आदि विद्वानों ने यह मत व्यक्त किया है कि धार्मिक मूल्यों को स्वीकार करके ही अनेक समस्याओं से मुक्ति मिल सकती है।
  8. सामाजिक सेवाएँ - विभिन्न प्रकार की सामाजिक सेवाओं के द्वारा भी समाज की समस्याओं को हल करने में सहायता मिलती है क्योंकि ये तनावपूर्ण स्थितियों के प्रभाव को कम करने के महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान कर सकती हैं। सामाजिक समस्याओं से पीड़ित व्यक्ति सामाजिक सेवाओं का संरक्षण प्राप्त कर सकते हैं और समस्याजनक स्थिति के प्रभाव से मुक्त हो सकते हैं।
वास्तव में, सामाजिक समस्याओं का समाधान इतना सरल नहीं है जितना कि यह लगता है। अगर इतना सरल होता तो अनेक समाज समस्याओं से मुक्त होते। अनेक समस्याओं की जड़ें हमारी भ्रांतियाँ एवं अन्धविश्वास हैं। अतः उचित शिक्षा एवं ज्ञान के प्रसार से ऐसे अन्धविश्वासों को समाप्त करने के लिए उपयुक्त वातावरण बनाया जा सकता है तथा अनेक समस्याओं का समाधान हो सकता है। इस सन्दर्भ में यही बात अत्यन्त उल्लेखनीय है कि समस्याओं का समाधान केवल मात्र सरकारी प्रयासों द्वारा सम्भव नहीं है क्योंकि इसके लिए जन-सहयोग का होना अत्यन्त आवश्यक है।

शब्दावली
  • सामाजिक समस्या - सामाजिक समस्या से अभिप्राय उस परिस्थिति अथवा दशा से है जिसे समाज हानिकारक मानता है तथा उसमें सुधार की आवश्यकता महसूस करता है। यह ऐसी दशाओं की समग्रता है जिन्हें नैतिक आधार पर समाज में अधिकांश व्यक्ति अनुचित मानते हैं।
  • विशुद्ध विज्ञान - जिस विज्ञान का उद्देश्य केवल नवीन ज्ञान प्राप्त करना अथवा प्राप्त ज्ञान में किसी प्रकार का संशोधन करना होता है उसे विशुद्ध विज्ञान कहा जाता है।
  • व्यावहारिक विज्ञान - व्यावहारिक विज्ञान उस विज्ञान को कहा जाता है जिसका उद्देश्य प्राप्त ज्ञान का प्रयोग सामाजिक समस्याओं के समाधान हेतु करना होता है। ऐसे विज्ञानों में ज्ञान प्राप्ति एक साधन है, जबकि समस्या का समाधान साध्य है। 
  • सामाजिक विघटन - सामाजिक विघटन वह प्रक्रिया है, जिसके कारण समूह के सदस्यों के बीच पाए जाने वाले सम्बन्ध टूट जाते हैं अथवा नष्ट हो जाते हैं। सामाजिक विघटन की स्थिति में मतैक्य एवं उसके उद्देश्य की एकता भंग हो जाती है तथा सामाजिक संरचना के अस्त-व्यस्त होने के कारण व्यक्तियों को जोड़ने वाले सम्बन्ध नष्ट होने लगते हैं।
  • सामाजिक संरचना - किसी वस्तु की संरचना से हमारा तात्पर्य उसके भागों में सापेक्षिक रूप से पाए जाने वाले स्थायी अन्तर्सम्बन्धों से होता है। सामाजिक संरचना का निर्माण अन्तक्रिया के परिणामस्वरूप व्यक्तियों में विकसित सामाजिक सम्बन्धों द्वारा होता है।
  • अप्रतिमानता - अप्रतिमानता आदर्शविहीनता अथवा आदर्शात्मक संरचना के अव्यवस्थापन की एक सामाजिक दशा है अर्थात् यह आत्यन्तिक अभिलाषा, लालच व अनगिनत आकांक्षाओं की सामूहिक नैतिक व्यवस्था द्वारा नियन्त्रण की असफलता है। इस अवधारणा के साथ दुखीम, मर्टन तथा पारसन्स जैसे प्रमुख समाजशास्त्रियों के नाम जुड़े हुए हैं।
  • सांस्कृतिक विलम्बना - सांस्कृतिक विलम्बना ऑगबर्न द्वारा प्रतिपादित अवधारणा है। भौतिक संस्कृति में तीव्रता से परिवर्तन होते हैं, जबकि अभौतिक संस्कृति में धीमी गति से। इसीलिए भौतिक संस्कृति अभौतिक संस्कृति से आगे निकल जाती है। इन दोनों में होने वाले अन्तराल अथवा पिछड़ को सांस्कृतिक विलम्बना कहते हैं। इस स्थिति में अभौतिक संस्कृति भौतिक संस्कृति के साथ तालमेल बनाने का प्रयास करती है।
  • परिप्रेक्ष्य - परिप्रेक्ष्य का अर्थ एक विशिष्ट नजरिया (देखने का तरीका) है जिसके द्वारा समाजशास्त्री अपने अध्ययन को समन्वित व सुव्यवस्थित करता है। प्रत्येक समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य समस्या के अध्ययन के लिए कुछ सैद्धान्तिक कल्पनाओं का सहारा लेता है जिनसे अगर समस्या या इकाई के सम्पूर्ण व्यवहार का नहीं तो कम-से-कम उसकी प्रमुख विशेषताओं व प्रकृति का पता लग जाता है। परिप्रेक्ष्य के आधार पर ही समाजशास्त्री सामाजिक यथार्थता में पाई जाने वाली नियमबद्धता अथवा अनियमबद्धता की व्याख्या करता है।

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