ऊष्मागतिकी के नियम (Laws of Thermodynamics)
आप अपने दैनिक जीवन में गर्मी व ठंडक के संवेदनों से परिचित हैं। जब आप अपने हाथों को आपस में रगड़ते हैं तो गरमाहट अनुभव करते हैं। आप इस बात को मानेंगे कि इस घटना में गरमाहट का कारण यांत्रिक कार्य है। यह दर्शाता है कि यांत्रिक कार्य व तापीय प्रभाव में कुछ संबंध है। विभिन्न तापमानों पर वस्तुओं के बीच ऊष्मीय (तापीय) ऊर्जा का स्थानान्तरण ऊष्मागतिकी की विषय वस्तु है जो कि अनुभवों पर आधारित घटनाओं का विज्ञान है। तापीय घटना के मात्रात्मक वर्णन के लिये ताप,ऊष्मा और आंतरिक ऊर्जा को परिभाषित करना आवश्यक है। ऊष्मागतिकी के नियम किसी निकाय में ऊष्मा प्रवाह, किए गए कार्य और आंतरिक ऊर्जा के बीच संबंध बताते हैं।
इस पाठ में आप ऊष्मागतिकी के तीन नियमों-शून्य कोटि नियम, ऊष्मागतिकी के प्रथम व द्वितीय नियमों के बारे में ज्ञान प्राप्त करेंगे। ये नियम अनुभव पर आधारित हैं और इन्हें किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है।
ऊष्मा गतिकी के शून्य कोटि नियम, प्रथम एवं द्वितीय नियम क्रमशः ताप, आंतरिक ऊर्जा व एन्ट्रॉपी की संकल्पनाओं को प्रस्तुत करते हैं। प्रथम नियम वस्तुतः एक ऊष्मागतिक निकाय के लिए ऊर्जा संरक्षण का सिद्धान्त है। दूसरा नियम कार्य व ऊष्मा के पारस्परिक रूपान्तरण से संबंधित है। आप यह भी जानेंगे कि ऊष्मा ऊर्जा को कार्य में परिणित करने में कार्नो इंजन की दक्षता सर्वाधिक होती है।
ऊष्मागतिकी के तीन नियम
- ऊष्मागतिकी का शुन्यकोटि का नियम
- ऊष्मागतिकी का प्रथम नियम
- ऊष्मागतिकी का दूसरा नियम
ऊष्मागतिकी का शुन्यकोटि का नियम
माना धातु के तीन गुटके A, B, C हैं। गुटका A गुटके B के साथ तापीय साम्य में है और गुटका A गुटके C के साथ भी साम्य में है। इसका आशय यह है कि गुटके A का ताप गुटकों B एवं C के ताप के समान है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि गुटकों B एवं C के ताप समान है। हम इस परिमाण को शून्य कोटि के नियम के रूप में संक्षेप में इस प्रकार व्यक्त करते है।
यदि दो पिंड या निकाय A एवं B एक तीसरे पिंड या निकाय C के साथ अलग-अलग तापीय साम्यावस्था में हों तो वे परस्पर भी तापीय साम्य अवस्था में होंगे।
ऊष्मागतिकी का प्रथम नियम
अब आप जानते हैं कि ऊष्मागतिकी का शून्य कोटि का नियम हमें विभिन्न निकायों के बीच तापीय साम्य के बारे में जानकारी देता है जिसका अभिलक्षण उनका ताप समान होना है। तथापि यह नियम असाम्य अवस्था के विषय में कोई जानकारी नहीं देता है।
हम दो उदाहरणों के बारे में विचार करते हैं-
- दो विभिन्न तापों वाले निकाय तापीय संपर्क में रखे जाते हैं।
- दो निकायों के बीच यांत्रिक घर्षण।
इन दोनों स्थितियों में उनके तापमानों में परिवर्तन आता है लेकिन शून्यकोटि के नियम द्वारा इसकी व्याख्या नहीं की जा सकती, इन प्रक्रमों की व्याख्या करने के लिये ऊष्मागतिकी के प्रथम नियम की पूर्वधारणा की गयी।
ऊष्मागतिकी का प्रथम नियम वस्तुतः एक ऊष्मागतिक निकाय के लिये ऊर्जा संरक्षण का सिद्धान्त है। इसके अनुसार किसी ऊष्मागतिक प्रक्रम में आंतरिक ऊर्जा परिवर्तन उसको दी गयी ऊष्मा व इस पर किये गये कार्य के योग के बराबर होती है।
मान लीजिए कि किसी निकाय को ΔQ मात्रा प्रदान की जाती है। – ΔW वस्तु पर किया गया कार्य है, तब ऊष्मागतिकी के प्रथम नियम के अनुसार आंतरिक ऊर्जा में वृद्धि
ΔU = ΔQ – ΔW
यह ऊष्मागतिकी के प्रथम नियम का गणितीय रूप है। यहाँ ΔQ, ΔU और ΔW SI मात्रकों में हैं। ऊष्मागतिकी के प्रथम नियम को निम्न प्रकार भी लिख सकते हैं।
ΔQ = ΔU + ΔW
ΔQ, ΔU और ΔW के चिह्न निम्न परिपाटी के अनुसार हैं-
किसी निकाय द्वारा किया गया कार्य (AW) धनात्मक और किसी निकाय पर किया गया कार्य ऋणात्मक लिया जाता है। निकाय के प्रसार में कार्य धनात्मक व संपीडन में ऋणात्मक लिया जाता है। किया गया कार्य प्रारंभिक व अंतिम ऊष्मागतिक अवस्थाओं पर निर्भर नहीं करता यह परिवर्तन के लिये अपनाये गये पथ पर निर्भर करता है।
निकाय द्वारा प्राप्त की गयी ऊष्मा धनात्मक तथा उसके द्वारा खोई गयी ऊष्मा ऋणात्मक ली जाती है।
आंतरिक ऊर्जा में वृद्धि धनात्मक व ह्रास ऋणात्मक लिया जाता है।
यदि एक निकाय को स्थिति 1 से स्थिति 2 में ले जाया जाता है तो यह पाया जाता है कि ΔQ और ΔW अवस्था परिवर्तन के पथ पर निर्भर करते हैं। तथापि (ΔQ – ΔW) का मान सभी अवस्था परिवर्तन के पथों के लिये समान रहता है। अतः हम कह सकते हैं कि आंतरिक ऊर्जा ΔU किसी निकाय के ऊष्मागतिकीय परिवर्तन के पथ पर निर्भर नहीं करती।
ऊष्मागतिकी के प्रथम नियम की सीमाएं
ऊष्मागतिकी का प्रथम नियम ऊष्मा एवं अन्य प्रकार की ऊर्जा की तुल्यता पर जोर देता है। इस तुल्यता के आधार पर ही हमारी आपकी गतिविधियां संभव है। विद्युत ऊर्जा जिससे हमारे घरों में प्रकाश होता है, मशीनें काम करती हैं, रेलगाड़ियां चलती है उस ऊष्मा से प्राप्त होती है जो कि जैवाश्म ईंधन या नाभिकीय ईंधन को जलाने से प्राप्त होती है। एक दृष्टि से यह नियम सार्वभौमिक है। यह ऊंचाई बढ़ने के साथ तापमान की गिरावट (रूद्धोष्म ह्रास दर) को समझाता है। प्रवाह प्रक्रमों और रासायनिक क्रियाओं में भी इनके अनुप्रयोग काफी मनोरंजक है। तथापि निम्न प्रक्रमों पर विचार करें।
- आप जानते हैं कि ऊष्मा सदैव गर्म पदार्थ से ठंडे पदार्थ की ओर प्रवाहित होती है लेकिन ऊष्मागतिकी का प्रथम नियम यह स्पष्टीकरण देने में असमर्थ है कि ऊष्मा अपेक्षाकृत ठंडी वस्तु से गर्म वस्तु की ओर प्रवाहित क्यों नहीं हो सकती है। इसका अर्थ यह हुआ कि इस नियम से ऊष्मा प्रवाह की दिशा के बारे में कोई संकेत नहीं मिलता है।
- आप जानते हैं जब एक गोली लक्ष्य को बेधती है तो गोली की गतिज ऊर्जा ऊष्मा में रूपान्तरित हो जाती है। इस नियम से इस बात का स्पष्टीकरण नहीं होता कि निशाने पर गोली लगने से उत्पन्न ऊष्मा गोली की गतिज ऊर्जा में क्यों रूपान्तरित नहीं हो जाती है ताकि गोली उड़ कर दूर चली जाती। इसका अर्थ यह हुआ कि यह नियम उस परिस्थिति का ज्ञान देने में असमर्थ है जिसमें ऊष्मा कार्य में रूपान्तरित हो सकती है।
इसके अलावा इसकी एक और स्पष्ट सीमा यह है कि इस नियम से यह ज्ञान नहीं होता कि ऊष्मा किस सीमा तक कार्य में रूपान्तरित हो सकती है, साथ ही इस नियम से यह भी इंगित नहीं होता कि किस सीमा तक ऊष्मा कार्य में रूपान्तरित हो सकती है।
ऊष्मागतिकी का दूसरा नियम
आप जानते हैं कि ऊष्मागतिकी के प्रथम नियम में ऊष्मा प्रवाह, व रूपान्तरण की क्षमता (अर्थात् ऊष्मा को कार्य में परिवर्तित करने की क्षमता) के संदर्भ में स्वाभाविक सीमायें हैं। इस प्रकार आपके मस्तिष्क में एक विचार उठ सकता है कि क्या ऊष्मा को कार्य में बदला जा सकता है। रूपान्तरण की क्या शर्ते है? इन सभी प्रश्नों के उत्तर ऊष्मागतिकी के दूसरे नियम की संकल्पना में शामिल है। ऊष्मागतिकी के द्वितीय नियम के अनेक प्रक्कथन (Statements) हैं। तथापि आप ऊष्मागतिकी के दूसरे नियम के केल्विन प्लाँक (Kelvin Plank) तथा कलॉसियस (Classius) के प्रक्कथन के बारे में अध्ययन करेंगे।
केल्विन-प्लाँक प्रक्कथन
यह ऊष्मा इंजनों की क्षमताओं के बारे में अनुभव पर आधारित है। ऊष्मा इंजन के बारे में अगले परिच्छेद में विवेचना की गयी है। एक ऊष्मा इंजन में, कार्यकारी पदार्थ स्रोत (गर्म पदार्थ) से ऊष्मा लेता है और इसके कुछ अंश को कार्य में रूपान्तरित करने के पश्चात ऊष्मा के शेष भाग को सिंक (ठंडी वस्तु या वातावरण) को दे देता है। ऐसा कोई इंजन नहीं है जो सम्पूर्ण ऊष्मा को, बिना सिंक को कुछ ऊष्मा प्रदान किये, कार्य में बदल सकता है। इन प्रेक्षणों के आधार पर केल्विन व प्लाँक ने ऊष्मागतिकी के दूसरे नियम के बारे में यह कथन दिया।
किसी निकाय के लिये नियत ताप पर किसी स्रोत से ऊष्मा अवशोषित करके उसकी संपूर्ण मात्रा को कार्य में रूपान्तरित करना असंभव है।
क्लॉसियस द्वारा दिया गया ऊष्मागतिकी का दूसरा नियम
यह रेफ्रीजरेटर के कार्य पर आधारित है। रेफ्रीजरेटर विपरीत दिशा में कार्य करने वाला ऊष्मा इंजन है। जब इस पर कार्य किया जाता है तो यह अपेक्षाकृत ठंडी वस्तु से अपेक्षाकृत गर्म वस्तु को ऊष्मा हस्तान्तरित कर देता है। यहाँ निकाय पर किये गये बाह्य कार्य की संकल्पना महत्वपूर्ण है। इस बाह्य कार्य को करने के लिये किसी बाह्य स्रोत द्वारा ऊर्जा आपूर्ति आवश्यक हैं इन तथ्यों के आधार पर क्लासियस ने ऊष्मागतिकी के दूसरे नियम के बारे में यह प्रक्कथन दिया।
किसी प्रक्रम में बाह्य कार्य किये बिना अपेक्षाकृत ठंडी वस्तु से ऊष्मा गर्म वस्तु में रूपांतरित करना असंभव है।
अतः ऊष्मागतिकी के दूसरे नियम की भूमिका प्रायोगिक रूप से उपयोगी जैसे ऊष्मा इंजन और रेफ्रीजरेटर में बेजोड़ है।
- ऊष्मागतिकी के पहले नियम का संबंध द्रव्य और ऊर्जा के संरक्षण से है। इसके अनुसार, ऊर्जा का न तो सृजन हो सकता है और न ही यह नष्ट हो सकती है बल्कि यह एक स्वरूप से दूसरे स्वरूप में परिवर्तित हो सकती है। अधिकतर ऊर्जा का उपयोग सजीव जीवधारियों के उपापचय, गति तथा अन्य क्रियाकलापों में होता है।
- ऊष्मागतिकी के दूसरे नियम के अनुसार, प्रत्येक ऊर्जा रूपांतरण के दौरान उपयोगी ऊर्जा की कुछ मात्रा अनुपयोगी अपशिष्ट के रूप में निम्नीकृत हो जाती है।
- जीवों की कोशिकाओं को लगातार ऊर्जा की आवश्यकता होती है जो मुख्यतः एडीनोसिन ट्राइफॉस्फेट के रूप में उपलब्ध होती है और उसी दौरान कुछ ऊर्जा अनुपयोगी ऊष्मा में बदल जाती है। चूँकि ऊष्मा ऊर्जा से कोई उपयोगी कार्य नहीं हो सकते इसलिये इस अवश्यंभावी ऊर्जा हानि की क्षतिपूर्ति के लिये जैविक तंत्र को बाहर से ऊर्जा की आपूर्ति करना आवश्यक होता है।
- यदि विश्व के समस्त लोग शाकाहारी हो जाएँ तो शैवाल अनेक खाद्य शृंखलाओं से गायब हो जाएंगे जिससे खाद्य जाल विकृत हो जाएगा और पारिस्थितिक संकट उत्पन्न हो जाएगा।