आपातकालीन प्रावधान | Emergency Provisions in hindi

आपातकालीन प्रावधान

आपातकाल वह है जब कार्यपालिका किसी राजनीतिक व्यवस्था में व्यक्तियों की स्वतंत्रता के अधिकार पर प्रतिबंध लगाती है। भारत में, इस प्रकार के प्रतिबंध संविधान के प्रावधान के तहत लगाये जाते है। जिन्हें हम आपातकालीन प्रावधान कहते हैं। आपातकाल कुछ गंभीर परिस्थितियों में लगाया जाता है। जैसे - युद्ध, बाहरी आक्रमण, आंतरिक उथल-पुथल, सैनिक विद्रोह या वित्तिय संकट, इत्यादि। यह लोगों की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाता है।
Emergency Provisions in hindi
भारतीय संविधान में आपातकालीन प्रावधानों को भाग 18 में अनुच्छेद 352 से 360 के बीच रखा गया है। आपातकाल की घोषणा का आदेश राष्टपति द्वारा पारित किया जाता है। राष्ट्रपति मंत्रिमंडल की सलाह पर यह घोषणा करता है। हालांकि आपातकाल के दौरान वास्तविक शक्तियों का प्रयोग प्रधानमंत्री करता है। आपातकाल के दौरान संघीय कार्यपालिका राज्यों की कार्यपालिका को निर्देश भी दे सकती है तथा परिस्थिति संसद कानून भी बना सकती है जो कि संघीय सूची में शामिल न हो। आपातकाल के दौरान राज्य की सत्ता केन्द्र की सत्ता के अधीन कार्य करती है।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
आपातकालीन प्रावधानों को शामिल करने की जरूरत भारत में कठिन राजनीतिक परिस्थितियों में महसूस की गयी थी। भारत के संविधान में आपातकालीन प्रावधानों का विवरण है जो कि विश्व के अन्य संविधानों से लिया गया था, विशेषकर जर्मनी से एवं भारत सरकार अधिनियम 1935 से। भारतीय संविधान में भारत सरकार अधिनियम 1935 के प्रावधान सम्मिलित किये गये हैं जिसमें आपातकालीन प्रावधान थे। केन्द्र के मामले में खण्ड 45 तथा प्रांतों में खण्ड 93 का प्रावधान दिया गया था। इसमें मुख्य कार्यपालिका को आपातकाल की घोषणा करने का अधिकार दिया गया था। भारत सरकार अधिनियम 1935 का मकसद था भारत में प्रांतीय स्वायत्ता प्रदान करना। लेकिन इसके आपातकालीन प्रावधान भी थे जिसमें प्रांतों की स्वायत्ता पर प्रतिबंध का भी प्रावधान था। इसके अंदर केन्द्र एवं प्रांतों की इकाइयों के बीच संबंधों का प्रश्न था। अधिनियम ने यह सुझाव दिया कि केन्द्र को प्रांतों के मामलों में दखल देना चाहिये यदि कोई आपातकालीन स्थिति पैदा हो गयी हो जैसे कि युद्ध, आंतरिक अशांति इत्यादि। ऐसे मामलों में जहां प्रशासन की कार्यप्रणाली ठप्प हो गयी हो। ऐसे समय में, जब केन्द्र के पास कानून बनाने की शक्ति आ जाती है तब केन्द्र को सभी मामलों में कानून बनाने का अधिकार आ जाता है। प्रांतीय विषयों में भी केन्द्र कानून बनाने का अधिकार रखता है। प्रांतों में गवर्नर जनरल को आपातकाल की घोषणा करने का अधिकार दिया गया था। भारत सरकार अधिनियम 1935 के अलावा जर्मनी के संविधान से भी आपातकालीन प्रावधानों को भारतीय संविधान में शामिल करने में काफी योगदान रहा। गवर्नर जनरल के पास विशेष जिम्मेदारी दी, भारत में शांति एवं व्यवस्था कायम करने की। वे प्रांतीय सरकारों में स्वतंत्र रूप से कार्य करने को अधिकृत थे। तथा वे राज्यपाल के प्रमुख सूचना के स्त्रोत भी थे।

संविधान सभा में बहस
संविधान में आपातकालीन प्रावधानों को शामिल करने के उपर संविधान सभा के सदस्यों के बीच काफी मतभेद थे। ग्रेनविल ऑस्टिन के अनुसार, ए. के. अय्यर, और के. एम. मुंशी स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के समर्थक थे। के. एम. मुंशी ने इस बात का समर्थन किया कि आपातकाल के समय केन्द्र सरकार को यह अधिकार होना चाहिये कि वह स्वतंत्रता के अधिकार को निरस्त कर सके। उनके विचारों को "अधिकारों की उप-समिति' ने भी समर्थन किया। एक या दो को छोड़कर। अय्यर ने यह सुझाव दिया कि संविधान में उल्लेखित अधिकार लोक सम्मत, सुरक्षा एवं रक्षा तक महत्व रखते है। उन्होंने अपने विचारों को इन उदाहरणों से सही साबित किया कि बंगाल एवं असम में काफी गड़बड़ी थी तथा पंजाब एवं उत्तर पूर्वी प्रांतों में सांप्रदायिक दंगे थे। हालांकि मूल अधिकारों को निरस्त करने के सुझाव का तीन लोगों ने विरोध किया था। वे थे के. टी. साह, एच. वी. कामथ तथा एच, एन.कुजरू।
वित्तिय आपात के संदर्भ में एच. एन. कुन्जरू ने कहा कि ये राज्य ने एक नया संस्करण तैयार किया। ताकि आपातकाल के समय अधिकारों को निरस्त करने को समर्थन नहीं किया। इस नये संस्करण ने अनुच्छेद 32 के अंतर्गत संविधानिक उपचारों के तहत् संसाधनों के निरस्तीकरण को मंजूरी दी। मौलिक अधिकारों के निरस्तरीकरण को न्यायिक समीक्षा की परिधि से दूर रखा गया जब तक कि 1978 में 44वां संविधान संशोधन पारित नहीं हुआ।

आपातकाल के प्रकार

जैसा कि आप पढ़ चुके हैं भारत में आपातकाल की घोषणा राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। यहां यह जानना महत्वपूर्ण है कि आपातकाल के दौरान, सभी कार्य राष्ट्रपति के नाम पर किये जाते है, लेकिन वास्तव में असली शक्तियां केन्द्र सरकार या प्रधानमंत्री के पास होती है। हमारे यहां तीन प्रकार की आपातकालीन व्यवस्था है जो कि विभिन्न आधारों पर घोषित की जाती है।
ये तीन आपातकाल है -
  1. राष्ट्रीय आपातकाल
  2. राज्यों के अंदर आपातकाल
  3. वित्तिय आपातकाल
आये इनके बारे में नीचे विस्तार से पढ़ेगे।

राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352)

संविधान के अनुच्छेद 352 के अनुसार भारत में राष्ट्रीय आपातकाल इन परिस्थितियों में लगाया जा सकता है :- युद्ध, बाहरी आक्रमण, आंतरिक उथल-पुथल या सशस्त्र विद्रोह संपूर्ण भारत में या भारत के किसी भाग में 44 वे संशोधन में 'आंतरिक उथल-पुथल' शब्द का बदलकर सशस्त्र विद्रोह कर दिया गया। राष्ट्रपति केबिनेट के निर्णय के पश्चात् आपातकाल की घोषणा कर सकते हैं। कैबिनेट लिखित में आपातकाल के पक्ष में यह निर्णय लेती है फिर वह राष्ट्रपति को बताती है। राष्ट्रपति राष्ट्र के हित को ध्यान में रखते हुए एवं अपने आप को संतुष्ट मानते हुए ऐसी घोषणा करते हैं। अनुच्छेद 359 एवं 359 के अनुसार राष्ट्रपति को मूल अधिकारों को निरस्त करने का अधिकार है सिवाय अनुच्छेद 20 एवं अनुच्छेद 21 के। (जुर्म के मामले में सुरक्षा करने का अधिकार तथा जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान केन्द्र सरकार की शक्तियां राज्यों के विधायी एवं कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र तक पहुंच जाती है। केन्द्र, राज्यों को कार्यपालिका शक्तियों को ठीक से इस्तेमाल करने का निर्देश दे सकता है। अनुच्छेद 353 में संसद को यह अधिकार दिया गया है कि वह संघ सूची में शामिल नहीं किये विषयों पर भी कानून बना सके। इसमें राज्य सूची के अंतर्गत आने वाले विषय भी शामिल है (अनुच्छेद 250)।
आपातकाल के दौरान राष्ट्रपति को यह अधिकार दिया गया है कि वे केन्द्र एवं राज्यों के बीच वित्तिय संसाधनों का आंवटन कर सके (अनुच्छेद 253)। किसी भी प्रकार की आपातकाल को संसद के दोनों सदनों के समक्ष रखना आवश्यक है। यदि दोनों सदन एक महीने के अंदर आपातकाल की घोषणा को मंजूरी नहीं देते है तो ऐसी स्थिति में आपातकाल निरस्त माना जायेगा। यदि आपातकाल की घोषणा के दौरान लोकसभा भंग हो जाती है तो ऐसी स्थिति में भी आपातकाल को समाप्त कर दिया जायेगा। यदि यह मामला राज्य सभा में पारित हो लेकिन लोकसभा में नहीं तो भी घोषणा निरस्त मानी जायेगी। इसके लिए एक महीने का समय निर्धारित किया गया है। आपातकाल की घोषणा यदि दोनों सदनों द्वारा पारित कर दी जाती है तो यह छ: महीने पश्चात् समाप्त हो जायेगी। इसे छ: महीने के लिये आगे और बढ़ाया जा सकता है। आपातकाल की घोषणा को मंजूरी के लिए दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है। दोनों सदनों में उपस्थित सदस्य इस पर मतदान करते हैं। इसके अलावा यदि लोक सभा आपातकाल की घोषणा के खिलाफ एक प्रस्ताव पारित कर दे तो यह अमान्य हो जायेगी। यदि ऐसे प्रस्ताव का नोटिस सदन के कुल सदस्यों को दसवाँ भाग इस पर हस्ताक्षर करके राष्टपति को दे या लोकसभा अध्यक्ष को दे तो इसपर 14 दिनों के अंदर एक विशेष सत्र बुलाया जाता है ताकि इस पर चर्चा हो सके।
भारतीय संविधान में न्यायिक पुनरावलोकन का प्रावधान है। इसका अर्थ है कि न्यायपालिका को यह अधिकार दिया गया है कि वह विधायिका द्वारा पारित किसी भी कानून की समीक्षा कर सकती है तथा संविधान की व्याख्या भी कर सकती है। यदि कानून संविधान के प्रावधानों के अनुसार नहीं है तो वह ऐसे कानून को अमान्य घोषित कर सकती है। लेकिन आपातकाल की घोषणा को 42वें संविधान संशोधन द्वारा न्यायिक समीक्षा की परिधि से हटा दिया गया है। लेकिन 1978 में फिर से 44वें संशोधन द्वारा इसे बहाल कर दिया गया। आपातकाल की घोषणा का संसद के दोनों सदनों द्वारा दो महीने के भीतर मंजूरी लेना जरूरी है। यदि इस समय के अंतर्गत संसद से मंजूरी नहीं ली गयी तो यह आपातकाल निस्प्रभावी माना जायेगा। एक बार संसद से मंजूरी लेने के बाद आपातकाल छ: महीने तक जारी रहता है जब तक कि राष्ट्रपति इसे समय पूर्व हटा नहीं लेते।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, तीन बार देश में राष्ट्रीय आपातकाल लगाया गया है। पहला, 1962 से 1968 तक, जब भारत एवं चीन के बीच युद्ध हुआ था। दूसरी बार 1971 से 1977 तक जब भारत एवं पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ था तथा तीसरी बार 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक। पहले दो बार आपातकाल युद्ध की वजह से लगाया गया था लेकिन तीसरी बार आपातकाल केन्द्र सरकार द्वारा आंतरिक उथल-पुथल की वजह से लगाया गया था।

राष्ट्रीय आपातकाल का प्रभाव

राष्ट्रीय संकट की घोषणा से व्यक्तियों के अधिकारों व राज्यों की स्वायत्तता पर दूरगामी प्रभाव पड़ता है, जो इस प्रकार हैं:-
सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रभाव यह है कि संघीय संविधान का स्वरुप एकात्मक में बदल जाता है। केंद्र की सत्ता में वृद्धि हो जाती है। संसद को राज्य सूची में वर्णित विषयों पर भी संपूर्ण देश अथवा उसके किसी भाग के लिए कानून निर्माण की शक्ति प्राप्त हो जाती है।
भारत का राष्ट्रपति राज्यों को कार्यपालिका संबंधी शक्ति के प्रयोग के तरीके के बारे में निर्देश दे सकता है।
इस आपातकाल के दौरान लोकसभा एक बार में अपने कार्यकाल में एक वर्ष तक की वृद्धि कर सकती है। परंतु घोषणा का प्रभाव समाप्त होने पर छह महीने से अधिक की वृद्धि नहीं की जा सकती है। इसी प्रकार राज्यों के विधानमण्डलों का कार्यकाल भी बढ़ाया जा सकता है।
आपातकाल के दौरान राष्ट्रपति को केन्द्र व राज्यों के बीच राजस्व के बंटवारे से संबंधित प्रावधानों में फेर बदल करने की शक्ति भी प्राप्त हो जाती है।
अनुच्छेद 19 के अंतर्गत आने वाले मौलिक अधिकार, जिनके बारे में आप पहले पढ़ चुके हैं, स्वतः स्थगित हो जाते हैं। यह स्थगन आपातकाल की समाप्ति तक जारी रहता है। परंतु 44वें संशोधन के अनुसार केवल युद्ध या बाहरी आक्रमण के आधार पर ही इन स्वतंत्रताओं को स्थगित किया जा सकता है।
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि संकटकाल में केवल राज्यों की स्वायत्तता ही स्थगित नहीं होती है, बल्कि भारतीय संघीय संरचना भी एकात्मक ढांचे में बदल जाती है। इसे आवश्यक माना जाता है, जिससे केंद्र सरकार को असामान्य स्थितियों का सामना करने के लिए पर्याप्त शक्तियां मिल सके। परंतु 25 जून 1975 को घोषित राष्ट्रीय संकट के समय क्या हुआ? कुछ आलोचकों का कहना है कि इस काल में सत्ता का दुरुपयोग हुआ। लोकतांत्रिक परंपराओं का अतिक्रमण हुआ, विरोधी दलों के नेताओं को जेलों में बंद कर दिया गया, चुनाव टाल दिए गए, लोकसभा की अवधि बढ़ा दी गई तथा प्रेस का गला घोंट दिया गया।
सत्ता के इसी दुरुपयोग के परिणामस्वरूप 1977 में जनता सरकार का गठन हुआ, तथा उसने वह संविधान संशोधन विधेयक पास कराया, जिसमें संकटकालीन शक्तियों के मनमाने प्रयोग के विरुद्ध अनेक प्रावधान जोड़े गए हैं।

राज्य आपातकाल (अनुच्छेद 356)

राज्य आपातकाल प्रायः राष्ट्रपति शासन के नाम से भी जाना जाता है। राज्यों के अंतर्गत आपातकाल तब लगाया जाता है. जब राज्यों में संविधानिक संकट उत्पन्न हो लगभग सभी राज्यों में केवल दो राज्यों को छोडकर छत्तीसगढ़ और तेलंगाना जो कि अभी नये राज्य बनाये गये हैं अलग-अलग समय पर आपातकाल लगाया जा चुका है। राज्यों में आपातकाल राष्ट्रपति द्वारा लगाया जाता है जब वे राज्यपाल द्वारा दी गयी रिपोर्ट से संतुष्ट हो गये हो कि राज्य में संविधानिक तंत्र पूरी तरह से विफल हो गया है शासन इन परिस्थितियों में लगाया जाता है :- यदि राज्य विधानमंडल अपने नेता यानी मुख्यमंत्री चुनने में असफल हो गया हो, गठबंधन का बिखर जाना, यदि कुछ कारणों से चुनाव नहीं कराये जा सके हों तथा विधान सभा में सरकार का बहुमत खो देना। हालांकि राज्यों में आपातकाल राष्ट्रपति द्वारा लगाया जाता है लेकिन राज्यपाल ही राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में राज्य की बागडोर संभालते है। इसे हम राज्यों में केन्द्र शासन भी कहते है। केन्द्र शासन को राष्ट्रपति शासन कहते है। यह जम्मू एवं कश्मीर में नहीं लगाया जाता, उसमें केवल राज्यपाल का शासन होता है। राष्ट्रपति, राज्यपाल के द्वारा कार्यपालिका एवं विधायिका की शक्तियों का इस्तेमाल करता है। लेकिन उनके कार्यों में न्यायपालिका के कार्य नहीं आते है।

राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने के प्रभाव
राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता के कारण घोषित आपातकाल के निम्नलिखित प्रभाव होते हैं:-
  • राष्ट्रपति राज्य सरकार के सभी कार्यो अथवा किसी एक कार्य को अपने हाथ में ले सकता है, अथवा उनको राज्यपाल या किसी अन्य कार्यकारी अधिकारी को सौंप सकता है।
  • राष्ट्रपति राज्य विधानसभा को स्थगित अथवा भंग कर सकता है। वह संसद को राज्य विधानमंडल के स्थान पर कानून निर्माण के लिए प्राधिकृत भी कर सकता है।
  • घोषित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए राष्ट्रपति कोई अन्य आवश्यक प्रावधान भी लागू कर सकता है।
जिस प्रकार अनेक अवसरों पर राष्ट्रपति शासन लागू किया गया है. उसने अनेक प्रश्नों को जन्म दिया है। कई बार तो यह परिस्थिति की मांग थी। कई अवसरों पर राष्ट्रपति शासन केवल राजनैतिक आधार पर केन्द्र से भिन्न राजनैतिक दल की सरकार को गिराने के लिए लागू किया गया, यद्यपि उस दल का विधान सभा में पूर्ण बहुमत था। विधान सभाओं को स्थगित अथवा भंग करने तथा अन्य राजनैतिक दलों को राज्यों में सरकारों के निर्माण का अवसर न देना केंद्रीय सरकार के पक्षपातपूर्ण व्यवहार के कारण हुआ है, जिसके लिए अनुच्छेद 356 का स्पष्टतया दुरुपयोग हुआ है।
उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए भारतीय संविधान का अनुच्छेद 356 विवादग्रस्त रहा है। इसका अत्यधिक दुरुपयोग किया गया है। 44 वें संशोधन अधिनियम में दिए गए सुरक्षात्मक उपायों के बावजूद इस प्रावधान का केन्द्र सरकार द्वारा दुरुपयोग किए जाने का अरोप लगाया गया है। इसी कारण, इस अनुच्छेद को संविधान में से हटाने अथवा इसके दुरुपयोग को समाप्त करने के प्रावधान बनाने की मांग सामने आई है। सरकारिया आयोग ने, जिसे केंद्र-राज्य संबंधों का पुनर्निर्धारण करने के लिए नियुक्त किया गया था, अनुच्छेद 356 को अंतिम हथियार के रूप में प्रयोग करने की सिफारिश की है। आयोग के सुझाव के अनुसार, राज्य विधानसभा को उस समय तक भंग न किया जाए, जब तक संसद आपातकाल की घोषणा को स्वीकृत न करे। सरकारिया आयोग ने यह भी सुझाव दिया कि केन्द्र द्वारा राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता के आधार पर आपातकाल की घोषणा से पहले वैकल्पिक सरकार निर्माण की सभी संभावनाओं के लिए समुचित प्रयास अत्यंत आवश्यक है।

वित्तीय आपातकाल (अनुच्छेद-360)

अनुच्छेद 360 के अनुसार वित्तीय आपातकाल भारत में वित्तीय अस्थिरता या संकट की स्थिति में लगाया जाता है। अभी तक भारत में वित्तीय आपातकाल नहीं लगाया गया है। यदि भारत में वित्तीय आपातकाल लगाने की नौबत आई तो इसे संसद द्वारा पारित किया जाना आवश्यक है। इसे संसद के दोनों सदनों के समक्ष रखना होगा। यदि इस दौरान लोकसभा का विघटन हो जाये तो वित्तीय आपात भी स्वतः ही समाप्त हो जायेगा। तीस दिनों की समाप्ति के बाद तथा यह पुनर्गठन तक जारी रहेगा। वित्तीय आयात के दौरान राष्ट्रपति सरकारी अफसरों के वेतन एवं भत्तों में कटौती करने का आदेश दे सकता है उनमें उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश भी शामिल होंगे। यहां तक कि अनुच्छेद 207 के अधीन धन विधेयकों तथा अन्य विधेयकों को राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रखा जाए जब वे राज्य विधानमंडलो द्वारा पारित कर दिये जाएँ। जम्मू और कश्मीर के मामले में वित्तीय आपातकाल नहीं लगाया जा सकता क्योंकि उसे अनुच्छेद 370 के तहत् विशेष राज्य का दर्जा दिया गया है।

वित्तीय संकट के प्रभाव
वित्तीय संकट की घोषणा के निम्नलिखित प्रभाव हो सकते हैं:-
  • (क) केन्द्र सरकार किसी भी राज्य को वित्तीय मामलों से संबंधित निर्देश दे सकती है।
  • (ख) राष्ट्रपति राज्य के सरकारी कर्मचारियों के वेतन व भत्तों को कम करने की सिफारिश कर सकता है।
  • (ग) राज्य विधान मण्डल द्वारा पारित वित्त विधेयकों को संसद में विचार के लिए राष्ट्रपति, राज्य से सुरक्षित रखने के लिए कह सकता है।
  • (घ) राष्ट्रपति केन्द्रीय कर्मचारियों जिनमें उच्च और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश शामिल हैं, उनके वेतन व भत्ते कम करने का निर्देश दे सकता है।
सौभाग्य से अभी तक भारत में वित्तीय आपातकाल की स्थिति पैदा नहीं हुई है।

आपातकाल की घोषणा

12 जून 1975 के दिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने एक फैसला सुनाया। इस फैसले में उन्होंने लोकसभा के लिए इंदिरा गाँधी के निर्वाचन को अवैधानिक करार दिया। न्यायमूर्ति ने यह फैसला समाजवादी नेता राजनारायण द्वारा दायर एक चुनाव याचिका के मामले में सुनाया था। राजनारायण, इंदिरा गाँधी के खिलाफ़ 1971 में बतौर उम्मीदवार चुनाव में खड़े हुए थे। याचिका में इंदिरा गाँधी के निर्वाचन को चुनौती देते हुए तर्क दिया गया था कि उन्होंने चुनाव प्रचार में सरकारी कर्मचारियों की सेवाओं का इस्तेमाल किया था। उच्च न्यायालय के इस फैसले का मतलब यह था कि कानूनन अब इंदिरा गाँधी सांसद नहीं रहीं और अगर अगले छह महीने की अवधि में दोबारा सांसद निर्वाचित नहीं होतीं, तो प्रधानमंत्री के पद पर कायम नहीं रह सकतीं। 24 जून 1975 को सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के इस फैसले पर आशिक स्थगनादेश सुनाते हुए कहा कि जब तक इस फैसले को लेकर की गई अपील की सुनवाई नहीं होती तब तक इंदिरा गाँधी सांसद बनी रहेंगी। लेकिन वे लोकसभा की कार्रवाई में भाग नहीं ले सकती हैं।
संकट और सरकार का फैसला एक बड़े राजनीतिक संघर्ष के लिए अब मैदान तैयार हो चुका था। जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में विपक्षी दलों ने इंदिरा गाँधी के इस्तीफ़े के लिए दबाव डाला। इन दलों ने 25 जून । 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में एक विशाल प्रदर्शन किया। जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गाँधी से इस्तीफे की माँग करते हुए राष्ट्रव्यापी सत्याग्रह की घोषणा की। जेपी ने सेना, पुलिस और सरकारी कर्मचारियों का आह्वान किया कि वे सरकार के अनैतिक और अवैधानिक आदेशों का पालन न करें। इससे भी सरकारी कामकाज के ठप्प हो जाने का अंदेशा पैदा हुआ। देश का राजनीतिक मिजाज़ अब पहले से कहीं ज्यादा कांग्रेस के खिलाफ़ हो गया।
सरकार ने इन घटनाओं के मद्देनजर जवाब में 'आपातकाल' की घोषणा कर दी। 25 जून 1975 के दिन सरकार ने घोषणा की कि देश में गड़बड़ी की आशंका है और इस तर्क के साथ उसने संविधान के अनुच्छेद 352 को लागू कर दिया। इस अनुच्छेद के अंतर्गत प्रावधान किया गया है कि बाहरी अथवा अंदरूनी गड़बड़ी की आशंका होने पर सरकार आपातकाल लागू कर सकती है। सरकार का निर्णय था कि गंभीर संकट की घड़ी आन पड़ी है और इस वजह से आपातकाल की घोषणा ज़रूरी हो गई है। तकनीकी रूप से देखें तो ऐसा करना सरकार की शक्तियों के दायरे में था क्योंकि हमारे संविधान में सरकार को आपातकाल की स्थिति में विशेष शक्तियाँ प्रदान की गई हैं।
आपातकाल की घोषणा के साथ ही शक्तियों के बँटवारे का संघीय ढाँचा व्यावहारिक तौर पर निष्प्रभावी हो जाता है और सारी शक्तियाँ केंद्र सरकार के हाथ में चली आती हैं। दूसरे, सरकार चाहे तो ऐसी स्थिति में किसी एक अथवा सभी मौलिक अधिकारों पर रोक लगा सकती है अथवा उनमें कटौती कर सकती है। संविधान के प्रावधान में आए शब्दों से यह स्पष्ट हो जाता है कि आपातकाल को वहाँ एक असाधारण स्थिति के रूप में देखा गया है जब सामान्य लोकतांत्रिक राजनीति के कामकाज नहीं किए जा सकते। इसी कारण सरकार को आपातकाल की स्थिति में विशेष शक्तियाँ प्रदान की गई हैं।
25 जून 1975 की रात में प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से आपातकाल लागू करने की सिफारिश की। राष्ट्रपति ने तुरंत यह उद्घोषणा कर दी। आधी रात के बाद सभी बड़े अखबारों के दफ्तर की बिजली काट दी गई। तड़के सबेरे बड़े पैमाने पर विपक्षी दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी हुई। 26 जून की सुबह 6 बजे एक विशेष बैठक में मंत्रिमंडल को इन बातों की सूचना दी गई, लेकिन तब तक बहुत कुछ हो चुका था।
परिणाम सरकार के इस फैसले से विरोध-आंदोलन एकबारगी रुक गया; हड़तालों पर रोक लगा दी गई। अनेक विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया। राजनीतिक माहौल में तनाव भरा एक गहरा सन्नाटा छा गया।
आपातकालीन प्रावधानों के अंतर्गत प्राप्त अपनी शक्तियों पर अमल करते हुए सरकार ने प्रेस की आजादी पर रोक लगा दी। समाचारपत्रों को कहा गया कि कुछ भी छापने से पहले अनुमति लेना जरूरी है। इसे प्रेस सेंसरशिप के नाम से जाना जाता है। सामाजिक और सांप्रदायिक गड़बड़ी की आशंका के मद्देनजर सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और जमात-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध लगा दिया। धरना, प्रदर्शन और हड़ताल की भी अनुमति नहीं थी। सबसे बड़ी बात यह हुई कि आपातकालीन प्रावधानों के अंतर्गत नागरिकों के विभिन्न मौलिक अधिकार निष्प्रभावी हो गए। उनके पास अब यह अधिकार भी नहीं रहा कि मौलिक अधिकारों की बहाली के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाएँ।
सरकार ने निवारक नजरबंदी का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया। इस प्रावधान के अंतर्गत लोगों को गिरफ्तार इसलिए नहीं किया जाता कि उन्होंने कोई अपराध किया है बल्कि इसके विपरीत, इस प्रावधान के अंतर्गत लोगों को इस आशंका से गिरफ्तार किया जाता है कि वे कोई अपराध कर सकते हैं। सरकार ने आपातकाल के दौरान निवारक नजरबंदी अधिनियमों का प्रयोग करके बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियाँ कीं। जिन राजनीतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया। वे बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका का सहारा लेकर अपनी गिरफ्तारी को चुनौती भी नहीं दे सकते थे। गिरफ्तार लोगों अथवा उनके पक्ष से किन्हीं और ने उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में कई मामले दायर किए, लेकिन सरकार का कहना था कि गिरफ्तार लोगों को गिरफ्तारी का कारण बताना कतई ज़रूरी नहीं है। अनेक उच्च न्यायालयों ने फ़ैसला दिया कि आपातकाल की घोषणा के बावजूद अदालत किसी व्यक्ति द्वारा दायर की गई ऐसी बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को विचार के लिए स्वीकार कर सकती है जिसमें उसने अपनी गिरफ्तारी को चुनौती दी हो। 1976 के अप्रैल माह में सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने उच्च न्यायालयों के फैसले को उलट दिया और सरकार की दलील मान ली। इसका आशय यह था कि सरकार आपातकाल के दौरान नागरिक से जीवन और आजादी का अधिकार वापस ले सकती है। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से नागरिकों के लिए अदालत के दरवाजे बंद हो गए। इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय के सर्वाधिक विवादास्पद फैसलों में एक माना गया।
आपातकाल की मुखालफत और प्रतिरोध की कई घटनाएँ घटी। पहली लहर में जो राजनीतिक कार्यकर्ता गिरफ्तारी से बच गए थे वे 'भूमिगत' हो गए और उन्होंने सरकार के खिलाफ मुहिम चलायी। 'इंडियन एक्सप्रेस' और 'स्टेट्समैन' जैसे अखबारों ने प्रेस पर लगी सेंसरशिप का विरोध किया। जिन समाचारों को छापने से रोका जाता था उनकी जगह ये अखबार खाली छोड़ देते थे। 'सेमिनार' और 'मेनस्ट्रीम' जैसी पत्रिकाओं ने सेंसरशिप के आगे घुटने टेकने की जगह बंद होना मुनासिब समझा। सेंसरशिप को धत्ता बताते हुए गुपचुप तरीके से अनेक न्यूजलेटर और लीफ़लेट्स निकले। पद्मभूषण से सम्मानित कन्नड़ लेखक शिवराम कारंत और पद्मश्री से सम्मानित हिंदी लेखक फणीश्वरनाथ 'रेणु' ने लोकतंत्र के दमन के विरोध में अपनी-अपनी पदवी लौटा दी। बहरहाल, मुखालफत और प्रतिरोध के इतने प्रकट कदम कुछ ही लोगों ने उठाए।
संसद ने संविधान के सामने कई नयी चुनौतियाँ खडी कीं। इंदिरा गाँधी के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले की पृष्ठभूमि में संविधान में संशोधन हुआ। इस संशोधन के द्वारा प्रावधान किया गया कि प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद के निर्वाचन को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती।
आपातकाल के दौरान ही संविधान का 42वाँ संशोधन पारित हुआ। आप पढ़ चुके हैं कि इस संशोधन के जरिए संविधान के अनेक हिस्सों में बदलाव किए गए। 42वें संशोधन के जरिए हुए अनेक बदलावों में एक था देश की विधायिका के कार्यकाल को 5 से बढ़ाकर 6 साल करना। यह व्यवस्था मात्र आपातकाल की अवधि भर के लिए नहीं की गई थी। इसे आगे के दिनों में भी स्थायी रूप से लागू किया जाना था। इसके अतिरिक्त अब आपातकाल के दौरान चुनाव को एक साल के लिए स्थगित किया जा सकता था। इस तरह देखें तो 1971 के बाद अब चुनाव 1976 के बदले 1978 में करवाए जा सकते थे।


आपातकाल के संदर्भ में विवाद

आपातकाल भारतीय राजनीति का सर्वाधिक विवादास्पद प्रकरण है। इसका एक कारण है आपातकाल की घोषणा की ज़रूरत को लेकर विभिन्न दृष्टिकोणों का होना। दूसरा कारण यह है कि सरकार ने संविधान प्रदत्त अधिकारों का इस्तेमाल करके व्यावहारिक तौर पर लोकतांत्रिक कामकाज को ठप्प कर दिया था। आपातकाल के बाद शाह आयोग ने अपनी जाँच में पाया कि इस अवधि में बहुत सारी 'अति' हुई। इसके अतिरिक्त भारत में लोकतंत्र पर अमल के लिहाज से आपातकाल से क्या-क्या सबक सीखे जा सकते हैं, इस पर भी अलग-अलग राय मिलती है। आइए, इन पर एक-एक करके नज़र दौड़ाएँ।
क्या 'आपातकाल' ज़रूरी था? आपातकाल की घोषणा के कारण का उल्लेख करते हुए संविधान में बड़े सादे ढंग से 'अंदरूनी गड़बड़ी' जैसे शब्द का व्यवहार किया गया है। 1975 से पहले कभी भी 'अंदरूनी गड़बड़ी' को आधार बनाकर आपातकाल की घोषणा नही की गई थी। हम पढ़ चुके हैं कि देश के कई हिस्सों में विरोध-आंदोलन चल रहे थे। क्या इसे आपातकाल लागू करने का पर्याप्त कारण माना जा सकता है? सरकार का तर्क था कि भारत में लोकतंत्र है और इसके अनुकूल विपक्षी दलों को चाहिए कि वे निर्वाचित शासक दल को अपनी नीतियों के अनुसार शासन चलाने दें। सरकार का मानना था कि बार-बार का धरना-प्रदर्शन और सामूहिक कार्रवाई लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है। इंदिरा गाँधी के समर्थक यह भी मानते थे कि लोकतंत्र में सरकार पर निशाना साधने के लिए लगातार गैर-संसदीय राजनीति का सहारा नहीं लिया जा सकता। इससे अस्थिरता पैदा होती है और प्रशासन का ध्यान विकास के कामों से भंग हो जाता है। सारी ताकत कानून-व्यवस्था की बहाली पर लगानी पडती है। इंदिरा गाँधी ने शाह आयोग को चिट्ठी में लिखा कि विनाशकारी ताकतें सरकार के प्रगतिशील कार्यक्रमों में अड्गे डाल रही थीं और मुझे गैर-संवैधानिक साधनों के बूते सत्ता से बेदखल करना चाहती थीं।
कुछ अन्य दलों, मसलन सीपीआई (इसने आपातकाल के दौरान कांग्रेस को समर्थन देना जारी रखा था) का विश्वास था कि भारत की एकता के विरुद्ध अंतर्राष्ट्रीय साजिश की जा रही है। सीपीआई का मानना था कि ऐसी सूरत में विरोध पर एक हद तक प्रतिबंध लगाना उचित है। सीपीआई का मानना था कि जेपी ने जिस जन आंदोलन की अगुवाई की, वह मुख्यतया मध्यवर्ग का आंदोलन था और यह मध्यवर्ग कांग्रेस की परिवर्तनकामी नीतियों के विरोध में था। आपातकाल के बाद सीपीआई ने महसूस किया कि उसका मूल्यांकन गलत था और आपातकाल का समर्थन करना एक गलती थी।
दूसरी तरफ़, आपातकाल के आलोचकों का तर्क था कि आजादी के आंदोलन से लेकर लगातार भारत में जन आंदोलन का एक सिलसिला रहा है। जेपी सहित विपक्ष के अन्य नेताओं का खयाल था कि लोकतंत्र में लोगों को सार्वजनिक तौर पर सरकार के विरोध का अधिकार होना चाहिए। बिहार और गुजरात में चले विरोध-आंदोलन ज्यादातर समय अहिंसक और शांतिपूर्ण रहे। जिन लोगों को गिरफ्तार किया गया था, उन पर कभी भी राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों में लिप्त रहने का मुकदमा नहीं चला। अधिकतर बंदियों के खिलाफ कोई मुकदमा दर्ज नहीं हुआ था। देश के अंदरूनी मामलों की देख-रेख का जिम्मा गृह मंत्रालय का होता है। गृह मंत्रालय ने भी कानून व्यवस्था की बाबत कोई चिंता नहीं जतायी थी। अगर कुछ आंदोलन अपनी हद से बाहर जा रहे थे, तो सरकार के पास अपनी रोजमर्रा की अमल में आने वाली इतनी शक्तियाँ थीं कि वह ऐसे आंदोलनों को हद में ला सकती थी। लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली को ठप्प करके 'आपातकाल' लागू करने जैसे अतिचारी कदम उठाने की जरूरत कतई न थी। दरअसल खतरा देश की एकता और अखंडता को नहीं, बल्कि शासक दल और स्वयं प्रधानमंत्री को था। आलोचक कहते हैं कि देश को बचाने के लिए बनाए गए संवैधानिक प्रावधान का दुरुपयोग इंदिरा गाँधी ने निजी ताकत को बचाने के लिए किया।

आपातकाल के दौरान क्या-क्या हुआ?

आपातकाल का वास्तविक क्रियान्वयन भी अपने-आप में विवाद का एक मुद्दा रहा है। क्या सरकार ने अपनी आपातकालीन शक्तियों का दुरुपयोग किया? क्या इस दौरान सत्ता का दुरुपयोग हुआ और उसके बूते ज्यादतियाँ की गई? सरकार ने कहा कि वह आपातकाल के जरिए कानून व्यवस्था को बहाल करना चाहती थी, कार्यकुशलता बढ़ाना चाहती थी और गरीबों के हित के कार्यक्रम लागू करना चाहती थी। इस उद्देश्य से सरकार ने एक बीस-सूत्री कार्यक्रम की घोषणा की और इसे लागू करने का अपना दृढ़ संकल्प दोहराया। बीस सूत्री कार्यक्रम में भूमि-सुधार, भू-पुनर्वितरण, खेतिहर मजदूरों के पारिश्रमिक पर पुनर्विचार, प्रबंधन में कामगारों की भागीदारी, बंधुआ मजदूरी की समाप्ति, आदि मसले शामिल थे। आपातकाल की घोषणा के बाद, शुरुआती महीनों में मध्यवर्ग इस बात से बड़ा खुश था कि विरोध-आंदोलन समाप्त हो गया और सरकारी कर्मचारियों पर अनुशासन लागू हुआ। गरीब और ग्रामीण जनता को भी उम्मीद थी कि सरकार जिन कल्याण कार्यक्रमों को लागू करने के वायदे कर रही है, उन्हें अब कारगर तरीके से लागू किया जाएगा। समाज के विभिन्न वर्गों की अलग-अलग अपेक्षाएँ थीं और इस कारण आपातकाल को लेकर उनके दृष्टिकोण भी अलग-अलग थे।
आपातकाल के आलोचकों ने ध्यान दिलाया है कि सरकार के ज्यादातर वायदे पूरे नहीं हुए। आलोचकों का कहना है कि सरकार अपने वायदों की ओट लेकर ज्यादतियों से लोगों का __ ध्यान हटाना चाहती थी। आलोचकों ने निवारक नज़रबंदी के बड़े पैमाने के इस्तेमाल पर भी सवाल उठाए। हम पढ़ चुके हैं कि आपातकाल के दौरान अनेक प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था। दरअसल, कुल 676 नेताओं की गिरफ्तारी हुई थी। शाह आयोग का आकलन था कि निवारक नज़रबंदी के कानूनों के तहत लगभग एक लाख ग्यारह हजार लोगों को गिरफ्तार किया गया। प्रेस पर कई तरह की पाबंदी लगाई गई। इसमें कई पाबंदियाँ - गैरकानूनी थीं। शाह आयोग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि दिल्ली बिजली आपूर्ति निगम के महाप्रबंधक को दिल्ली के लेफ्टिनेंट-गवर्नर के दफ्तर से 26 जून 1975 की रात 2 बजे मौखिक आदेश मिला कि सभी अखबारों की बिजली आपूर्ति काट दी जाए। अखबारों को बिजली आपूर्ति दो-तीन दिन बाद फिर बहाल की गई, लेकिन तब तक सेंसरशिप का पूरा ढाँचा खड़ा किया जा चुका था।
इसके अलावा कुछ और भी गंभीर आरोप ऐसे लोगों को लेकर लगे थे जो किसी आधिकारिक पद पर नहीं थे, लेकिन सरकारी ताकत का इन लोगों ने इस्तेमाल किया था। प्रधानमंत्री के छोटे बेटे संजय गाँधी उस वक्त किसी आधिकारिक पद पर नहीं थे। फिर भी, प्रशासन पर उनका असर था और आरोप लगाया जाता है कि उन्होंने सरकारी कामकाज में दखल दिया। दिल्ली में झुग्गी बस्तियों को हटाने तथा ज़बरन नसबंदी करने की मुहिम में उनकी भूमिका को लेकर बड़े विवाद उठे।
राजनीतिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी और प्रेस पर लगी पाबंदी के अतिरिक्त, आपातकाल का बुरा असर आमलोगों को भी भुगतना पड़ा। आपातकाल के दौरान पुलिस हिरासत में मौत और यातना की घटनाएं घटीं। गरीब लोगों को मनमाने ढंग से एक जगह से उजाड़कर दूसरी जगह बसाने की भी घटनाएँ हुईं। जनसंख्या नियंत्रण के अति उत्साह में लोगों को अनिवार्य रूप से नसबंदी के लिए मजबूर किया गया। इन उदाहरणों से समझा जा सकता है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया के ठप्प पड़ने पर लोगों पर क्या गुजरती है।

आपातकाल के सबक

आपातकाल से एकबारगी भारतीय लोकतंत्र की ताकत और कमजोरियाँ उजागर हो गई। हालाँकि बहुत-से पर्यवेक्षक मानते हैं कि आपातकाल के दौरान भारत लोकतांत्रिक नहीं रह गया था, लेकिन यह भी ध्यान देने की बात है कि थोड़े ही दिनों के अंदर कामकाज फिर से लोकतांत्रिक ढरे पर लौट आया। इस तरह आपातकाल का एक सबक तो यही है कि भारत से लोकतंत्र को विदा कर पाना बहुत कठिन है।

दूसरे, आपातकाल से संविधान में वर्णित आपातकाल के प्रावधानों के कुछ अर्थगत उलझाव भी प्रकट हुए, जिन्हें बाद में सुधार लिया गया। अब ‘अंदरूनी' आपातकाल सिर्फ 'सशस्त्र विद्रोह' की स्थिति में लगाया जा सकता है। इसके लिए यह भी जरूरी है कि आपातकाल की घोषणा की सलाह मंत्रिमंडल राष्ट्रपति को लिखित में दे।

तीसरे, आपातकाल से हर कोई नागरिक अधिकारों के प्रति ज्यादा सचेत हुआ। आपातकाल की समाप्ति के बाद अदालतों ने व्यक्ति के नागरिक अधिकारों की रक्षा में सक्रिय भूमिका निभाई। न्यायपालिका आपातकाल के वक्त नागरिक अधिकारों की कारगर तरीके से रक्षा नहीं कर पाई थी। इसे महसूस करके अब वह नागरिक अधिकारों की रक्षा में तत्पर हो गई। आपातकाल के बाद नागरिक अधिकारों के कई संगठन वजूद में आए।

बहरहाल, आपातकाल के संकटपूर्ण वर्षों ने कई ऐसे सवाल छोड़े हैं जिन पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। इस अध्याय में हम पढ़ चुके हैं कि लोकतांत्रिक सरकार के रोजमर्रा के कामकाज और विभिन्न दलों और समूहों के निरंतर जारी राजनीतिक विरोध के बीच तनाव की स्थिति बनती है। ऐसे में दोनों के बीच एक सधा हुआ संतुलन क्या हो सकता है? क्या नागरिकों को विरोध की कार्रवाई में शामिल होने की पूरी आजादी होनी चाहिए अथवा उन्हें इसका कोई अधिकार ही नहीं होना चाहिए। ऐसे विरोध की सीमा क्या मानी जाए?

दूसरे, आपातकाल का वास्तविक क्रियान्वयन पुलिस और प्रशासन के जरिए हुआ। ये संस्थाएँ स्वतंत्र होकर काम नहीं कर पाई। इन्हें शासक दल ने अपना राजनीतिक औजार बनाकर इस्तेमाल किया। शाह कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार पुलिस और प्रशासन राजनीतिक दबाव की चपेट में आ गए थे। यह समस्या आपातकाल के बाद भी खत्म नहीं हुई।


आपातकाल के बाद की राजनीति

जैसे ही आपातकाल खत्म हुआ और लोकसभा के चुनावों की घोषणा हुई, वैसे ही आपातकाल का सबसे जरूरी और कीमती सबक राजव्यवस्था ने सीख लिया। 1977 के चुनाव एक तरह से आपातकाल के अनुभवों के बारे में जनमत-संग्रह थे। उत्तर भारत में तो खासतौर पर क्योंकि यहाँ आपातकाल का असर सबसे ज्यादा महसूस किया गया था। विपक्ष ने 'लोकतंत्र बचाओ' के नारे पर चुनाव लड़ा। जनादेश निर्णायक तौर पर आपातकाल के विरुद्ध था। सबक एकदम साफ़ था और कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी स्थिति यही रही। जिन सरकारों को जनता ने लोकतंत्र-विरोधी माना उसे मतदाता के रूप में उसने भारी दंड दिया। इस अर्थ में देखें तो 1975-77 के अनुभवों की एक परिणति भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद को पुख्ता बनाने में हुई।

लोकसभा के चुनाव-1977
18 महीने के आपातकाल के बाद 1977 के जनवरी माह में सरकार ने चुनाव कराने का फैसला किया। इसी के मुताबिक सभी नेताओं और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को जेल से रिहा कर दिया गया। 1977 के मार्च में चुनाव हुए। ऐसे में विपक्ष को चुनावी तैयारी का बड़ा कम समय मिला, लेकिन राजनीतिक बदलाव की गति बड़ी तेज़ थी। आपातकाल लागू होने के पहले ही बड़ी विपक्षी पार्टियाँ एक-दूसरे के नजदीक आ रही थीं। चुनाव के ऐन पहले इन पार्टियों ने एकजुट होकर जनता पार्टी नाम से एक नया दल बनाया। नयी पार्टी ने जयप्रकाश नारायण का नेतृत्व स्वीकार किया। कांग्रेस के कुछ नेता भी, जो आपातकाल के खिलाफ़ थे, इस पार्टी में शामिल हुए। कांग्रेस के कुछ अन्य नेताओं ने जगजीवन राम के नेतृत्व में एक नयी पार्टी बनाई। इस पार्टी का नाम 'कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी' था और बाद में यह पार्टी भी जनता पार्टी में शामिल हो गई।
1977 के चुनावों को जनता पार्टी ने आपातकाल के ऊपर जनमत संग्रह का रूप दिया। इस पार्टी ने चुनाव-प्रचार में शासन के अलोकतांत्रिक चरित्र और आपातकाल के दौरान की गई ज्यादतियों पर जोर दिया। हजारों लोगों की गिरफ्तारी और प्रेस की सेंसरशिप की पृष्ठभूमि में जनमत कांग्रेस के विरुद्ध था। जनता पार्टी के गठन के कारण यह भी सुनिश्चित हो गया कि गैर-कांग्रेसी वोट एक ही जगह पड़ेंगे। बात बिलकुल साफ़ थी कि कांग्रेस के लिए अब बड़ी मुश्किल आ पड़ी थी।
लेकिन चनाव के अंतिम नतीजों ने सबको चौंका दिया। आजादी के बाद पहली बार ऐसा हुआ कि कांग्रेस लोकसभा का चुनाव हार गई। कांग्रेस को लोकसभा की मात्र 154 सीटें मिली थीं। उसे 35 प्रतिशत से भी कम वोट हासिल हुए। जनता पार्टी और उसके साथी दलों को लोकसभा की कुल 542 सीटों में से 330 सीटें मिलीं। खुद जनता पार्टी अकेले 295 सीटों पर जीत गई थी और उसे स्पष्ट बहुमत मिला था। उत्तर भारत में चुनावी माहौल कांग्रेस के एकदम खिलाफ़ था। कांग्रेस बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा और पंजाब में एक भी सीट न पा सकी। राजस्थान और मध्य प्रदेश में उसे महज एक-एक सीट मिली। इंदिरा गाँधी रायबरेली से और उनके पुत्र संजय गाँधी अमेठी से चुनाव हार गए।
बहरहाल अगर आप चुनावी नतीजों के नक्शे पर नजर दौड़ाएँ, तो पाएंगे कि कांग्रेस देश में हर जगह चुनाव नहीं हारी थी। महाराष्ट्र, गुजरात और उड़ीसा में उसने कई सीटों पर अपना कब्जा बरकरार रखा था और दक्षिण भारत के राज्यों में तो एक तरह से उसकी चुनावी विजय का चक्का बेरोक-टोक चला था। इसके कई कारण रहे। पहली बात तो यह थी कि आपातकाल का प्रभाव हर राज्य पर एकसमान नहीं पड़ा था। लोगों को जबरन उजाड़ने और विस्थापित करने अथवा जबरन नसबंदी करने का काम ज्यादातर उत्तर भारत के राज्यों में हुआ था, लेकिन इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि उत्तर भारत में राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता की प्रकृति में दूरगामी बदलाव आए थे। उत्तर भारत का मध्यवर्ग कांग्रेस से दूर जाने लगा था और मध्यवर्ग के कई तबके जनता पार्टी को एक मंच के रूप में पाकर इससे आ जड़े। इस अर्थ में देखें, तो 1977 के चुनाव सिर्फ आपातकाल की कथा नहीं कहते हैं, बल्कि इसके आगे की भी कुछ बातों का संकेत करते हैं।

जनता सरकार
1977 के चुनावों के बाद बनी जनता पार्टी की सरकार में कोई खास तालमेल नहीं था। चुनाव के बाद नेताओं के बीच प्रधानमंत्री के पद के लिए होड़ मची। इस होड़ में मोरारजी देसाई, चरण सिंह और जगजीवन राम शामिल थे। मोरारजी देसाई 1966-67 से ही इंदिरा गाँधी के प्रतिद्वंद्वी थे। चरण सिंह, भारतीय लोकदल के प्रमुख और उत्तर प्रदेश के किसान नेता थे। जगजीवन राम को कांग्रेसी सरकारों में मंत्री पद पर रहने का विशाल अनुभव था। बहरहाल मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने, लेकिन इससे जनता पार्टी के भीतर सत्ता की खींचतान खत्म न हुई।
आपातकाल का विरोध जनता पार्टी को कुछ ही दिनों के लिए एकजुट रख सका। इस पार्टी के आलोचकों ने कहा कि जनता पार्टी के पास किसी दिशा, नेतृत्व अथवा एक साझे कार्यक्रम का अभाव था। जनता पार्टी की सरकार कांग्रेस द्वारा अपनाई गई नीतियों में कोई बुनियादी बदलाव नहीं ला सकी। जनता पार्टी बिखर गई और मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली सरकार ने 18 माह में ही अपना बहुमत खो दिया। कांग्रेस पार्टी के समर्थन पर दूसरी सरकार चरण सिंह के नेतृत्व में बनी। लेकिन बाद में कांग्रेस पार्टी ने समर्थन वापस लेने का फैसला किया। इस वजह से चरण सिंह की सरकार मात्र चार महीने तक सत्ता में रही। 1980 के जनवरी में लोकसभा के लिए नए सिरे से चुनाव हुए। इस चुनाव में जनता पार्टी बुरी तरह परास्त हुई। जनता पार्टी को उत्तर भारत में करारी शिकस्त मिली, जबकि 1977 के चुनाव में उत्तर भारत में इस पार्टी को ज़बरदस्त सफलता मिली थी। इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी ने 1980 के चुनाव में एक बार फिर 1971 के चुनावों वाली कहानी दुहराते हुए भारी सफलता हासिल की। कांग्रेस पार्टी को 353 सीटें मिलीं और वह सत्ता में आई। 1977-79 के चुनावों ने लोकतांत्रिक राजनीति का एक और सबक सिखाया-सरकार अगर अस्थिर हो और उसके भीतर कलह हो, तो मतदाता ऐसी सरकार को कड़ा दंड देते हैं।

विरासत
लेकिन क्या 1980 के चुनाव में सिर्फ इंदिरा गाँधी की वापसी हुई थी? क्या मामला इतना भर था? 1977 और 1980 के चुनावों के बीच दलगत प्रणाली में नाटकीय बदलाव आए। 1969 के बाद से कांग्रेस का सबको समाहित करके चलने वाला स्वभाव बदलना शुरू हुआ। 1969 से पहले तक कांग्रेस विविध विचारधारात्मक गति-मति के नेताओं और कार्यकर्ताओं को एक में समेटकर चलती थी। अपने बदले हुए स्वभाव में कांग्रेस ने स्वयं को विशेष विचारधारा से जोड़ा। उसने अपने को देश की एकमात्र समाजवादी और गरीबों की हिमायती पार्टी बताना शुरू किया। इस तरह 1970 के दशक के शुरुआती सालों से कांग्रेस की सफलता इस बात पर निर्भर रही कि वह गहरे सामाजिक और विचारधारात्मक विभाजन के आधार पर लोगों को अपनी तरफ कितना खींच पाती है। इसके साथ-साथ यह पार्टी अब एक नेता यानी इंदिरा गाँधी की लोकप्रियता पर भी निर्भर हुई। कांग्रेस की प्रकृति में आए बदलावों के मद्देनजर अन्य विपक्षी दल 'गैर-कांग्रेसवाद' की राजनीति की तरफ़ मुड़े। विपक्ष के नेताओं को अब यह बात साफ़-साफ़ नज़र आने लगी कि चुनावों में गैर-कांग्रेसी वोट बिखरने नहीं चाहिए। इस चीज़ ने 1977 के चुनावों में एक बड़ी भूमिका निभाई।
अप्रत्यक्ष रूप से 1977 के बाद पिछड़े वर्गों की भलाई का मुद्दा भारतीय राजनीति पर हावी होना शुरू हुआ। हमने ऊपर गौर किया था कि 1977 के चुनाव परिणामों पर पिछड़ी जातियों के मतदान का असर पड़ा था, खासकर उत्तर भारत में। लोकसभा के चुनावों के बाद, 1977 में कई राज्यों में विधानसभा के भी चुनाव हुए। इसमें भी उत्तर भारत के राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं। इन सरकारों के बनने में पिछड़ी जाति के नेताओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। बिहार में अन्य पिछड़ी जातियों' के आरक्षण के सवाल पर बहुत शोर मचा। इसके बाद केंद्र की जनता पार्टी की सरकार ने मंडल आयोग नियुक्त किया। इस आयोग और पिछड़ी जातियों की राजनीति की भूमिका के बारे में ज्यादा विस्तार से आप अंतिम अध्याय में पढ़ेंगे। आपातकाल के बाद हुए चुनावों ने दलीय व्यवस्था के भीतर इस बदलाव की प्रक्रिया शुरू कर दी।
आपातकाल और इसके आसपास की अवधि को हम संवैधानिक संकट की अवधि के रूप में भी देख सकते हैं। संसद और न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र को लेकर छिड़ा संवैधानिक संघर्ष भी आपातकाल के मूल में था। दूसरी तरफ़ यह राजनीतिक संकट का भी दौर था। सत्ताधारी पार्टी के पास पूर्ण बहुमत था। फिर भी, इसके नेतृत्व ने लोकतंत्र को ठप्प करने का फैसला किया। भारतीय संविधान के निर्माताओं को विश्वास था कि सभी राजनीतिक दल लोकतांत्रिक मानकों का पालन करेंगे। उन्हें यह भी विश्वास था कि आपातकाल की स्थिति में भी सरकार अपनी असाधारण शक्तियों का इस्तेमाल विधि के शासन के दायरे में रहते हुए ही करेगी। इसी उम्मीद में सरकार को आपातकाल से जुड़े प्रावधानों के अंतर्गत व्यापक और चहुँमुखी शक्तियाँ दे दी गईं। इन शक्तियों का आपातकाल के दौरान दुरुपयोग हुआ। यह राजनीतिक संकट तत्कालीन संवैधानिक संकट से कहीं ज्यादा संगीन था।

आपात प्रावधानों का दुरूपयोग

जैसा कि आपने पढ़ा होगा कि आपातकालीन प्रावधानों का प्रयोग भारत में राष्ट्रीय आपातकाल लगाने एवं राष्ट्रपति शासन लगाने में किया गया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में तीन बार राष्ट्रीय आपातकाल लगाया जा चुका है। दो बार देश में बाहरी आक्रमण से सुरक्षा करने के लिए राष्ट्रीय आपातकाल लगाया जिसमें 1962 में भारत-चीन युद्ध के समय तथा 1971 में भारत-पाक युद्ध के समय । लेकिन 1975 में इसे राजनीतिक कारणों से इसका प्रयोग किया गया था। असली समस्या तब खड़ी हुई जब अनुच्छेद 352 का प्रयोग किया गया था। जब श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व में केन्द्र सरकार ने 1975 में भाषण की आजादी एवं संगठन पर पाबंदी लगाने की कोशिश की। राष्ट्रीय आपातकाल की उस समय बहुत आलोचना हुई थी। श्रीमती इंदिरा गाँधी ने ऐसा इसलिये किया क्योंकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसला श्रीमती इंदिरा गाँधी के विपरीत था। इन परिस्थितियों में जयप्रकाश नारायण ने सेना, पुलिस तथा सरकारी कर्मचारियों को इस आदेश को मानने से मना किया। क्योंकि ये आदेश उनकी राय में गलत था। उन्होंने मुख्य न्यायाधीश पी. एन. राय को भी चुनाव की अपील सुनने से मना किया था। सभी विपक्षी दलों ने लोक संघर्ष समिति का गठन किया, जिसके अध्यक्ष जय प्रकाश नारायण थे। उन्होंने संपूर्ण क्रांति का नारा दिया जिसे जनता का व्यापक समर्थन भी मिला। भारत के संविधान निर्माताओं ने यह इच्छा जताई थी कि आपातकालीन प्रावधान केवल आपातकालीन परिस्थितियों - युद्ध, बाहरी आक्रमण, आंतरिक उथल-पुथल, सैनिक विद्रोह या वित्तीय संकट में ही लागू किये जायेंगे। अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग की आशंका के बारे में चेतावनी देते हुए डॉ. बी. आर. अम्बेडकर ने कहा "कभी इसका प्रयोग न किया जाए, सिवाय अंतिम विकल्प के रूप में जब अन्य सभी विकल्प असफल हो गए हों।" आपातकालीन प्रावधान स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् 1990 तक केवल राजनीतिक दुर्भावना के लिये दुरुपयोग किये गये थे। हालांकि 21वीं सदी में, इनके दुरुपयोग में कमी आई है। कुछ राजनीतिक दलों द्वारा जो कि केन्द्र सरकार में शासन में थे, इन प्रावधानों का दुरुपयोग किया है। इन दलों द्वारा राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारों को हराने के लिये अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग किया तथा वहां पर राष्ट्रपति शासन लगाया गया। कई अवसरों पर भारत में, इन प्रावधानों का केन्द्र सरकार द्वारा दुरुपयोग किया गया चाहे कांग्रेस हो या फिर गैर-कांग्रेस दोनों ही द्वारा। सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण है केरल में कम्युनिष्ट पार्टी के नेता ई. एम. एस. नम्बूदीरीपाद की सरकार को केन्द्र ने 1957 में बर्खास्त कर दिया था। यह सबसे पहला उदाहरण था किसी चुनी हुई सरकार को बर्खास्त करने तथा आपातकालीन प्रावधान का उपयोग करने का। 1980 में, इंदिरा गाँधी सरकार ने विभिन्न राज्यों में विपक्षी पार्टियों की सरकारों को बर्खास्त किया था। गैर कांगेसी सरकारों ने भी इस प्रावधान का दुरुपयोग किया है। यहां पर इसके दो प्रमुख उदाहरण हैं। पहला उदाहरण 1977 में जनता पार्टी सरकार का है जब मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री थे। दूसरा उदाहरण जनता दल सरकार का जब वी. पी. सिंह प्रधानमंत्री थे। इन दोनों उदाहरणों में कांग्रेसी सरकारों को बर्खास्त किया गया था।
राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाने की प्रायः आलोचना हुई है। प्रायः यह आरोप लगाया जाता है कि केन्द्र सरकार ने अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग करके विपक्षी दलों की सरकारों को बर्खास्त किया और राष्ट्रपति शासन लगाया। 1994 के बाद राष्ट्रपति शासन लगाने में कमी आई हैं। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने बोमई केस में अपना फैसला सुनाया था। बोमई फैसले के अनुसार किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने के प्रस्ताव को संसद के दोनों सदनों द्वारा मंजूरी मिलनी चाहिए। इसने धारा 356 के दुरुपयोग को कठिन बना दिया है।

सारांश
आपातकाल वह स्थिति है जब लोगों के प्रजातांत्रिक अधिकार निरस्त कर दिये जाते है तथा केन्द्र सरकार राज्य सरकारों की शक्तियाँ अपने पास ले लेती है। आपातकाल की घोषणा का अधिकार राष्ट्रपति के पास हैं। राष्ट्रपति मंत्रीमंडल की सलाह पर आपातकाल की घोषणा कर सकते हैं। आपातकाल तब लगाया जाता है जब युद्ध, बाहरी या आंतरिक उथल-पुथल या वित्तीय संकट उत्पन्न हो गया हो। भारतीय संविधान में आपातकाल के प्रावधानों को भाग 18 में, अनुच्छेद 352-360 के मध्य रखा गया हैं। तीन प्रकार के आपातकाल का प्रावधान है :- राष्ट्रीय, राज्य एवं वित्तीय आपातकाल । अनुच्छेद 352 के अंतर्गत राष्ट्रीय आपातकाल का प्रावधान है और यह तभी लगाया जाता है जब बाहरी आक्रमण या आंतरिक विद्रोह की स्थिति उत्पन्न हो गयी हो। राज्यों के अंदर आपातकाल अनुच्छेद 360 का संबंध वित्तीय आपातकाल से है। राष्ट्रीय आपातकाल के मामले में राष्ट्रपति मंत्रीमंडल की सलाह पर ही अध्यादेश ला सकते हैं। राष्ट्रपति राज्यों में भी राज्यपालों की रिपोर्ट के आधार पर आपातकाल की घोषणा कर सकते हैं। वित्तीय आपात आर्थिक संकट को दूर करने के लिये लगाया जाता हैं। भारत में राष्ट्रीय आपात तीन बार लगाया गया है। लेकिन अनुच्छेद 356 का प्रयोग कई बार किया जा चुका है। वित्तीय आपात का अभी तक कोई मामला सामने नहीं आया हैं। अनुच्छेद 360 का प्रयोग संपूर्ण भारत में किया जा सकता है सिवाय जम्मू और कश्मीर को छोड़कर। इस प्रावधान का प्रयोग प्रायः राजनीतिक स्वार्थ पूरा करने के लिये भी किया जाता है। भारतीय लोकतंत्र की सफलता के लिये, आपातकाल के प्रावधानों का प्रयोग बहुत सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिये।

आपने क्या सीखा
भारतीय संविधान में राष्ट्रपति को कुछ असामान्य परिस्थितियों में देश की सुरक्षा, अखंडता व स्थायित्व की रक्षा के लिए असाधारण शक्तियां प्रदान की गई हैं। इसके लिए तीन प्रकार के आपातकाल होते हैं, जिनकी घोषणा राष्ट्रपति केंद्रीय मंत्रिमण्डल के लिखित परामर्श पर कर सकता है। ये तीन प्रकार के संकट इस प्रकार हैं:-
  • (अ) राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352)
  • (ब) राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता से उत्पन्न आपातकाल (अनुच्छेद 356)
  • (स) वित्तीय संकट (अनुच्छेद 360)
अनुच्छेद 352 के अंतर्गत राष्ट्रीय आपातकाल अब तक तीन बार घोषित हो चुका है। चीन द्वारा आक्रमण करने पर 26 अक्टूबर 1962 से 10 जनवरी 1968 तक, पाकिस्तान द्वारा आक्रमण के कारण 3 दिसम्बर 1971 से 21 मार्च 1977 तक तथा आंतरिक उपद्रव की आशंका के आधार पर केवल एक बार लागू किया गया। इस संकट की घोषणा 25 जून 1975 को की गई थी। संवैधानिक तंत्र की विफलता से उत्पन्न आपातकाल की घोषणा कभी न कभी प्रायः सभी राज्यों में हो चुकी है। परंतु वित्तीय संकट अभी तक घोषित नहीं हुआ है।
आपातकाल लागू होने के बाद नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर प्रभाव पड़ता है। यह राज्य सरकारों की स्वायत्तता को भी प्रभावित करता है। केंद्र सरकार की शक्तियां बढ़ जाती हैं तथा संसद राज्य सूची के विषयों पर भी कानून बना सकती है। केंद्र राज्य सरकारों को निर्देश जारी करता है। संविधान का संघीय स्वरूप वास्तविक रूप में एकात्मक हो जाता है। यहां तक कि राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा के दौरान संविधान द्वारा प्रदत्त कुछ मौलिक अधिकार भी स्थगित रहते हैं।
अनुच्छेद 356 के अंतर्गत दूसरे प्रकार का आपातकाल सर्वाधिक लागू किया गया है। इसके अंतर्गत कोई भी राज्य राष्ट्रपति शासन के अंतर्गत आ जाता है। यदि वहां के निर्वाचित प्रतिनिधि राज्य की सरकार (संविधान के अनुसार) बनाने या चलाने में असमर्थ हो जाते हैं। इस प्रकार के संकट का सर्वाधिक दुरुपयोग हुआ है जिस कारण अनेक लोगों ने इसकी अत्यधिक आलोचना की है। तीसरे प्रकार का आपातकाल वित्तीय संकट है, जो कि अभी तक हमारे देश में घोषित नहीं किया गया है। इस प्रकार के आपातकाल में भारत के राष्ट्रपति केन्द्र व राज्य सरकारों के न्यायाधीशों सहित अपने कर्मचारियों के वेतन व भत्तों में कटौती के आदेश जारी कर सकता है। इस प्रकार के संकट की घोषणा का उद्देश्य वित्तीय कठिनाइयों को हल करना है।
प्रत्येक प्रकार के संकट की घोषणा राष्ट्रपति केंद्रीय मंत्रिमण्डल के लिखित परामर्श पर करता है। ऐसी घोषणा का संसद के दोनों सदनों द्वारा एक महीने के अंदर स्वीकृत करना अनिवार्य है। यदि यह राष्ट्रीय आपातकाल है, तथा अन्य दो प्रकार के संकटों के लागू करने को यदि संसद दो महीनो के अंदर स्वीकृति दे देती है तो यह घोषणा की तिथि से छह माह तक जारी रहती है। यदि इसे छह माह से आगे बढ़ाना है तो इसके लिए संसद को फिर से प्रस्ताव पास करना होगा। वित्तीय संकट के मामले में एक बार घोषणा होने पर इसको जितने समय तक आवश्यक हो, उतने समय के लिए जारी रखा जा सकता है।
आपातकालीन प्रावधान राष्ट्रपति को असाधारण स्थितियों का सामना करने के लिए विस्तृत शक्तियां प्रदान करते हैं। इन शक्तियों का दुरुपयोग लोकतंत्र को आसानी से पंगु बना सकता है। परंतु गत 57 वर्षों के संविधान की वास्तविक कार्यप्रणाली ने यह दिखा दिया है कि आमतौर पर आपातकालीन शक्तियों का प्रयोग देश हित में ही हुआ है; केवल कुछ मामलों को छोड़कर, जिनमें राजनैतिक कारणों से आपातकाल की घोषणा लागू की गई। कुछ राज्यों में आपातकालीन प्रावधानों के दुरुपयोग के बावजूद, आम सहमति यह है कि भारत की वर्तमान परिस्थितियों में आपातकालीन प्रावधानों की भूमिका सार्थक है।।

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