जीवाणु | Bacteria in hindi

जीवाणु (Bacteria)

जीवाणु की खोज सर्वप्रथम हालैण्ड निवासी एण्टोनी वान ल्यवेन हॉक ने की थी , इन्होंने 1676 में अपने द्वारा निर्मित सूक्ष्मदर्शी से जीवाणुओं को पानी में तथा अपने दातों के मेल में देखा तथा एनीमलक्यूल्स का नाम दिया, इनको जीवाणु विज्ञान का जनक भी कहते हैं।
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जीवाणु के सामान्य लक्षण (General Characters of Bacteria)

  1. जीवाणु अत्यंत सरल व एक कोशिकीय सूक्ष्मजीव है।
  2. जीवाणु जल, थल, वायु आदि सभी स्थानों पर मिलते हैं अधिकांश जीवाणु क्लोरोफिल न होने के कारण अपना भोजन स्वंय नहीं बना सकते हैं।
  3. इनकी कोशिका की संरचना सरल होती होती है ये अकेले व समूह में मिलते हैं। इनकी कोशिका प्रोकेरियोटिक होते हैं।
  4. जीवाणु कोशिका में नीले हरे शैवालों की तरह वास्तविक केन्द्रक नहीं मिलते हैं
  5. इनमें RNA व DNA मिलते हैं।
  6. जीवाणु कोशिका में माइट्रोकॉन्ड्रिया, एण्डोप्लाज्मिक रेटीकुलम गाल्जी एपरेटस नहीं मिलते है।
  7. इनकी कोशिका में मीजोसोम होते हैं।
  8. DNA में हिस्टोन प्रोटीन नहीं मिलता है।
  9. इसमें 70S राइबोसोम मिलते हैं।

प्रकृति व आवास (Hofit and Hoditat)
जीवाणु सर्वव्यापी होते हैं ये जल, थल, वायु, धूल मनुष्य व जंतुओं के शरीर में बर्फ से ढके स्थानों में उष्ण स्रोतों में भी मिलते हैं। ये दूध, दूध से बने पदार्थों में आलू, फलों सब्जियों पौधों की जड़ों के निकट वाली मिट्टी आदि में प्रमुखता से मिलते हैं।

माप (Size)
जीवाणुओं का अध्ययन सूक्ष्मदर्शी द्वारा किया जाता है। इसके माप की इकाई माइकान है। इनका माप इनके आकार पर निर्भर करता है। आकार (Shaps) आकार के अनुसार जीवाणु कई प्रकार के होते हैं। एक जाति के सभी जीवाणु के आकार समान होते हैं।
मुख्य रूप से इनके प्रकार निम्न हैं -

(अ) कोकस (Coccus)
ये जीवाणु गोलाकार होते हैं तथा इनका व्यास 0.5 से 1.25 माइकान तक हो सकता है। ये निम्न प्रकार के होते हैं-
  • (i) माइक्राकोकाई
  • (ii) डिप्लोकोकाई
  • (iii) स्ट्रेप्टोकोकाई
  • (iv) टेट्राड
  • (v) स्टेफाइलोकोकाई
  • (vi) सासनी

(ब) बैसीलस (Bacillus)
ये जीवाणु छड़ या डन्डे के आकार के होते हैं। ये चल या अचल हो सकते हैं। ये निम्न प्रकार के होते हैं-
  • (i) डिप्लोबैसीलस
  • (ii) स्टेप्टोबैसीलस

(स) सर्पिल या कुण्डलित (Spirial or Helical)
ये जीवाणु सर्पिल या हेलिकल आकार के होते हैं इनका आकार कोकस व बैसीलस से बड़ा होता हैं। इसमें प्लेजेला भी मिलते हैं -
  • कोमा
  • फिलामेन्टस
  • बहुरूपी

जीवाणु कोशिका की रचना (Structure of Bacterial cell)

जीवाणु एक कोशिकीय सूक्ष्मजीव है। कोशिका प्रोकेरियोटिव होते हैं। कोशिका भित्ति स्पष्ट होती है तथा एक आवरण अथवा कैप्सूल से ढकी रहती है। इसकी संरचना का अध्ययन करने में e सूक्ष्मदर्शी व नयी विकसित स्टेनिंग तकनीकों से बहुत सहायता मिलती है।


स्लाइम परत (Slime layer)
यह कोशिका भित्ति के बाहर एक आवरण के रूप में मिलती है । इसमें पानी की अधिकता होन के कारण आवश्यकता पड़ने पर यह जीवाणु कोशिका की पानी की कमी को पूरा करने की क्षमता रखती है। इसकी संरचना जीवाणु की विभिन्न जातियों में अलग-अलग होती है। इसमें पोलीसैकराइड जैसे डेक्सट्रान, लेवान तथा अमीनोअम्ल से निर्मित पालीपेप्टाइन चैन हो सकती है।

कोशिका भित्ति (Cell wall)
कोशिकाभित्ति की संरचना यूकेरियोटिक कोशिका से भिन्न होती है। कोशिकाभित्ति प्रबल तथा दृढ़ होती है। ग्राम पोजिटिव तथा ग्राम निगेटिव जीवाणु की भित्ति की मोटाई व रासायनिक संरचना में भी अंतर होता है।

जीव द्रब्यकला (Plasma Membrane)
यह लीपोप्रोटीन की बनी होती है यह पोषक पदार्थो तथा उत्सर्जी पदार्थो के आदान-प्रदान पर नियंत्रण रखती है। यी झिल्ली अर्द्धपारगम्य होती है। इसकी इन्फोल्डिंगस से मिजोसोम बनते हैं, कोशिकाभित्ति तथा जीव द्रब्यकला के बीच स्थान को पेरिप्लाज्मिक स्थान कहते हैं। इसमें लगभग 60 प्रतिशत प्रोटीन, 30 प्रतिशत लिपिड तथा 10 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट मिल सकते हैं।

मीजोसोम (Mesosome)
अधिकांश मीजोसोम ग्राम पोजिटिव जीवाणुओं में मिलते हैं। इनके कई आकर सम्भव है। आमतौर पर ये नलीकावत या वेशीकुलर होते हैं। इनकी रासायनिक संरचना जीवद्रव्य कला के समान होती है। इसमें श्वसन के लिए आवश्यक एन्जाइम मिलते हैं।

कोशिका द्रव्य (Cytaplasma)
कोशिक द्रब्य में जल, प्रोटीन, अमीनो अम्ल, एनजाइम, न्यूक्लिक अम्ल (DNA , RNA Both) कार्बोहाइड्रेटस, लिपिड, विटामीन्स, खनिज तत्व मिल सकते हैं।

राइबोसोम (Ribosome)
ये प्रोटीन तथा RNA के बने होते हैं। जीवाणु कोशिका में राइबोसोम 70S का होता है। यह 30S तथा 50S की दो उपइकाईयों का बना होता है।

केन्द्र- काभ (Nucllaid)
जीवणु की कोशिका में सत्य केन्द्रक नहीं मिलता है। केन्द्रक कला न होने के कारण इसका आकार निश्चित नहीं होता हैं। न्यूक्लियोलस भी अनुपस्थित होता है । इस प्रकार के केन्द्रक को न्यूकिलयोइड या इन्सीपिएन्ट न्यूक्लियस कहते हैं तथा DNA में हिस्टोन प्रोटीन नहीं मिलता है।

फ्लेजेला (Flagella)
फ्लेजेला, फ्लैजिन प्रोटीन के बने होते हैं तथा इनके द्वारा जीवाणुओं में चलन होता है। इनमें यूकेरियोटिक फ्लेजेला की तरह (9+2) की संरचना नहीं मिलती है। फ्लेजेलम पाँच भागों से मिलकर बना होता है -
  1. बेसल ग्रेन्यूल
  2. हुक
  3. मुख्य तंतु
जीवाणुओं में फ्लेजेला अनुपस्थित होता है उनको एट्राइकस कहते हैं ये अचल होते हैं। जैसे- पास्चुरैला आदि जिनमें फ्लेजेला मिलते हैं , वे जीवाणु ट्राइकस कहलाते हैं तथा ये गतिशील होते हैं इनके निम्न प्रकार हो सकते हैं -
  • (अ) मोनोट्राइकस - कोशिका के एक सिरे पर एक ही प्लेजेलम मिलता है जैसे -स्यूडोमोनास आदि।
  • (ब) एम्फीट्राइकस - जब जीवाणु कोशिका के दोनों सिरों पर एक या एक से अधिक फ्लेजेला हो तो उसे एम्फीट्राइकस कहते हैं जैसे - नाइट्रोसोमानास।
  • (स) लोफोट्राइकस - इसमें कोशिका के एक सिरे पर फ्लेजेला गुच्छे के रूप में मिलते हैं जैसे – स्पाइरिलम वाल्यूटेन्स आदि।
  • (द) पेरीट्राइकस - जब कोशिका के चारों तरफ फ्लेजेला उपस्थित हो तो इस प्रकार के विन्यास को पेरीट्राइकस कहते हैं जैसे - क्लोस्ट्रीडियम।

जीवाणु मे पोषण (Ribosome)

इसे निम्न भागों में बांटा गया है-

(A) स्वंयपोषी
ये जीवाणु अपने भोजन की आवश्यकता को स्वंय पूरा करते है-
(1) स्वंयप्रकाश संशलेषी - कुछ जीवाणुओं में क्लोरोफिल से मिलते जलते वर्णक मिलते हैं, बैगनी जीवाणुओं में बैक्टिरियोपरप्यूरिन मिलते हैं।
ये दो प्रकार के होते हैं -
(i) प्रकाशसंश्लेषी अकार्बनिक पोषक - इन जीवाणुओं के लिए H2 दाता अकार्बनिक पदार्थ होते हैं।

(a) हरे गंधक जीवाणु - इनमें क्लोरोबियम क्लोरोफिल नाम वर्णक मिलता है।
इस वर्णक सहायता में CO2 का ऑक्सीकरण H2S द्वारा होता है। तथा सल्फर इस क्रिया में इस क्रिया में प्राप्त होता है। उदाहरण- क्लोरोबियम।
6CO2 + 12H2S     C6H12O6 + 6H2O +12S

(b) बैगनी गंधक जीवाणु - इनमे बैक्ट्रिरियोक्लोरोफिल मिलता है ये जीवाणु सल्फर यौगिकों से ऊर्जा प्राप्त कर भोजन निर्माण करते हैं। जैसे – क्रोमेटियम।
6CO2 + 15H2S + 3Na2S2O3 → C6H12O6 + 6H2O + 6NaHSO4

(ii) प्रकाश सश्लेषी कार्बनिक पोषण - इनके प्रकाश संश्लेषण में कार्बनिक पदार्थ H2 दाता कार्य करते हैं।

बैगनी गैर गंधक जीवाणु - इस प्रकार के जीवाणु एल्कोहल तथा कार्बनक अम्ल आदि का उपयोग करते हैं। जैसे- रोडोस्पीरीयम।
6CO2 + 12CH3CHOCH3 → C6H12O6 + 12CH3COCH3 + 6H2O

रसायन संश्लेषी जीवाणु
ये जीवाणु कार्बनिक तथा अकार्बनिक पदार्थो के आक्सीकरण द्वारा प्राप्त ऊर्जा का उपयोग करते है। इनको वर्णकों तथा की आवश्यकता नहीं होती, इनके दो प्रकार होते हैं।

(i) रसायन अकार्बनिक पोषण - इस प्रकार के जीवाणु अकार्बनिक पदार्थो के आकसीकरण से प्राप्त ऊर्जा का उपयोग करते है। इनके मुख्य प्रकार निम्न हैं -

(a) नाइट्रीकरण जीवाणु - ये जीवाणु दो प्रकार से ऊर्जा प्राप्त करने में सक्षम होते हैं। नाइट्रोसोमोनास जीवाणु अमोनिया का आक्सीकरण करके ऊर्जा प्राप्त करते हैं।

2NH3 + 3O2 → 2NO2 + 2H + 2H2O + Energy↑

नाइट्रोगैक्टर जीवाणु – नाइट्राइट को नाइट्रेट में परिवर्तित करके ऊर्जा प्राप्त करते हैं।

(b) गंधक जीवाणु – ये जीवाणु गंधक युक्त H2S में से गंधक को पृथक कर देते हैं, फिर इससे गंधक का अम्ल H2SO4 बनता है। जीवाणु इस क्रिया में निकलने वाली ऊर्जा का उपयोग करते है। जैसे बेगियाटोआ।

H2SO4 + 302 - 2S + 2H + H2O + Energyt↑

2S + 8H2O + 3002 - 2H2SO4+3(CHO2) + 3H2O+Energy

(c) हाइड्रोजन जीवाणु - इस प्रकार के जीवाणु हाइड्रोजन को जल में परिवर्तित कर देते हैं जैसे हाइड्रोजीमोनाज आदि।

(d) आयरन जीवाणु - ये जीवाणु फैरस यौगिकों को फैरिक यौगिकों में परिवर्तित कर देते हैं। जैसे –' फैरोसीलस आदि।

(ii) रासायनिक कार्बनिक पोषण -

मीथेन जीवाणु - इस प्रकार के जीवाणु मीथेन को CO2 तथा H20 में आक्सीकृत कर देता है, जैसे मीथेन – कोकस आदि।

(B) परपोषित जीवाणु - ये जीवाणु अपने भोजन के लिए परजीवी की तरह अन्य जीवों या मृतोपजीवी जीवों की तरह सड़े गले कार्बनिक पदार्थो पर या मृत जीवों पर निर्भर रहते हैं।
  • (i) परजीवी - इस वर्ग के जीवाणु अपना भोजन जीवित जीव जंतुओं पर भोजन के लिए निर्भर रहते हैं।
  • (ii) मृतोपजीवी - ये जीवाणु मृत सड़े गले पेड़ पौधों या जीव जंतुओं पर भोजन के लिए निर्भर रहते हैं।

(C) सहजीवी जीवाणु - कुछ जीवाणु जैसे राइजोबियम पौधों की जड़ों में उपस्थित ग्रंथियों में मिलते हैं। इससे जीवाणु पौधा एक दूसरे से लाभान्वित होते हैं।

जीवाणुओं में जनन

जीवाणु में दो प्रकार का जनन होता है -
  • (A) कायिक जनन
  • (B) अलैंगिक जनन

(A) कायिक जनन - इस प्रकार का जनन विखन्डन मुकुलन द्वारा होता है।
  • (i) विखण्ड द्वारा - उचित व अनुकूल वातावरण में जीवाणु कोशिका एक अनुप्रस्थ भित्ति द्वारा दो संतति कोशिकाओं में बंट जाती है। विखंडन से पूर्व कोशिका अपने आकार में बढ़ती है।
  • (ii) मुकुलन द्वारा - इस विधि में जीवाणु कोशिका से एक उभार के समान रचना निकलती है। फिर इसमें कोशिका द्रब्य तथा केन्द्रकीय पदार्थ आ जाते है। पूर्ण विकसित होने पर मुकुलन जनन कोशिका से संकीर्णन द्वारा प्रथक होकर नयी कोशिका के रूप में कार्य करती है। जैसे- हाइफोमाइक्रोबियम आदि में।
(B) अलैगिंक जनन - यह अनेक प्रकार के होते हैं।
जो निम्न हैं -
  • (i) बीजाणु द्वारा - ये एक प्रकार के प्रतिरोधी स्पोर है जो बैसीलस तथा क्लॉस्ट्रीडियम प्रकार के जीवाणु में अधिकता से बनते हैं। एण्डोस्पोर प्रायः जीवाणु के सिरे पर या सिरे के पास या मध्य भाग में बन सकते हैं।
  • (ii) कोनेडिया द्वारा - स्टेप्टोमाइसीज की संरचना तंतुमय होते हैं। तंतुओं में अनप्रस्थ भित्तियां बनने से श्रृंखला में कोनेडिया बनते हैं।
  • (iii) जूस्पोर द्वारा - कुछ जीवाणु जैसे राइजाबियम में जस्पोर का निर्माण होता है जिनसे नये जीवाणु बनते हैं। यह एक असमान्य विधि है।
  • (iv) सिस्ट द्वारा - एजोबेक्टर जीवाणु में कोशिका के चारों तरफ एक मोटी भित्ति बन जाती है जिससे यह एक सिस्ट का रूप धारण कर लेती है। अनुकूल वातावरण में सिस्ट अंकुरित होकर नये जीवाणुओं को जन्म देती है।

जीवाणुओं का आर्थिक महत्व

जीवाणुओं से मनुष्य जाति को लाभ व हानियां दोनों होती हैं इनका वर्णन निम्न है -

लाभप्रद क्रियायें -
  • 1. डेयरी में - जीवाणुओं का उपयोग मक्खन, पनीर, दही आदि प्राप्त करने में किया जाता है। दूध से दही प्राप्त करने हेतु स्ट्रेप्टोकोकस लैक्टिस तथा पनीर बनाने में लैक्टोबैसिलस लैक्टिस जीवाणु सहायक होता है।
  • 2. कृषि में - भूमि की उर्वरकता बढाने में जीवाणु सहयोग करते हैं -
(i) अमोनिकारक जीवाणु
(ii) नाइट्रोजन का स्थिरीकरण
(iii) नाइट्रीकारक जीवाणु

3. जीवाणु अनेक प्रकार के उद्योगों से सम्बन्धित हैं जैसे कॉफी, कोक, और चाय आदि के उत्पादन तम्बाकू आदि उद्योगों मे।

4 जीवाणु में बी कॉम्प्लैक्स समूह के विटामीन तथा प्रतिजैविक औषधियों के निर्माण में योगदान करते हैं।

जीवाणुओं की हानिकारक क्रियायें
  • 1. खाद विषाक्तता - कुछ मृतभोजी जीवाणुओं विषैले पदार्थ स्रवित होते है इससे खाद्य विषाक्तता हो जाती है।
  • 2. विनाइट्रीकरण - कुछ जीवाणु मृदा में उपस्थित नाइट्रेटस को स्वतंत्र नाइटाजन में बदलकर मृदा की उर्वरकता क्षीण करते हैं।
  • 3. मानव रोग - कुछ अनेक परजीवी जीवाणुओं के कारण मनष्य में अनेक रोग हो जाते हैं जैये क्षय रोग, हैजा आदि।
  • 4. पादप रोग - अनेक परजीवी जीवाणु पौधों में अनेक रोग उत्पन्न करते हैं जैसे – नीबू का केकर, आलू का शेथिल्य रोग आदि।

आर्की बैक्टीरिया
ये आद्य प्रोकैरियोटस समूह है इसके सदस्य पृथ्वी पर होने वाले प्रथम जीव थे। ये संरचना में जीवाणु के समान होते हैं। इनमें जटिल कोशिकांगों सहित संगठित केन्द्रक का अभाव होता है किन्तु यूवैक्टीरिया की तुलना में इनमें अनेक अन्तर होते हैं जो निम्न हैं -
  1. इनकी कोशिका भित्ति प्रोटीन एवं नान से ल्यूलोसिक पोलिसेकैराइडस की बनी होती है।
  2. कोशिका भित्ति में लिपिड की शाखित श्रृंखलायें होती हैं। जो इनको वातावरण के अधिकतम ताप तथा अम्लीय परिस्थितयों में बिना हानि के जीवित रह सकने में समर्थ बनाती हैं।
  3. राइबोसोमल RNA (r-RNA) में न्यूक्लियोटाइडस का अनुकम यूबैक्टीरिया से भिन्न होता है।
  4. प्रतिजैविकों के प्रति इनकी संवेदिता भी यूबैक्टीरिया से भिन्न होती है। मीथेन उत्पन्न करने में सक्षम होते हैं।

आर्की बैक्टीरिया से तीन समूह में विभाजित किया जाता हैं।
  1. मीथेनोजन - ये दल-दल वाले स्थानों पर पाये जाने वाले अनाक्सी जीवाणु हैं। इन जीवाणुओं में CO2 अथवा फ्यूमेरिक अम्ल से मीथेन उत्पन्न काने का गुण होता है। अतः इनको मीथेननोजन कहते हैं।
  2. हैलोफिल्लस - इन आर्की बैक्टीरिया को परम हैलोफिलस भी कहते हैं ये अतिलवणीय जल में रहते हैं।
  3. थर्मोएसिडोफिल - ये आर्की बैक्टीरिया गर्म गंधकयुक्त झरनों में रहते हैं। जहां तापमान लगभग 80 डिग्री होता हैं। ये जीवाणु ऑक्सी परिस्थितियों में गंधक को ऑक्सीकृत करके गंधक अम्ल बनाते हैं जिससे माध्यम अत्यधिक अम्लीय हो जाता है।
25 + 2H2O + 3O2 = 2H2SO4 (सल्फ्यूरिक अम्ल)

सयनोबैक्टीरिया
ये सरल पादप है, इनमें मिलने वाले निलहरित वर्णक फाइकोसइमिन के कारण इन्हें निलहरित शैवाल कहते हैं।

सयनोबैक्टीरिया के मुख्य लक्षण
  • इनमें लवक नहीं पाये जाते हैं अतः थाइलाकाइट कोशिका द्रब्य में बिखरे रहते हैं।
  • इनमें पाइनिराइट अनपस्थित रहती है, सचिव भोजन साइनोफीसियन स्टार्च अथवा ग्लाइकोजन तथा सायनाफाइसिन ग्रेन्यूल के रूप में मिलती है।
  • जीवन चक की किसी भी अवस्था में कशाभिकायें नहीं मिलती है।
  • जनज कायिक तथा अलैंगिक होता है सत्य लैंगिक जनन नहीं पाया जाता है।
  • इनमें असूत्री कोशिका विभाजन पाया जाता है।
  • कोशिका प्रोकैरियोटिक होती है।

प्रकृति एवं आवास
  • अलवणीय जल में - तालाब, पोखर, गड्ढ़ों, नल, नलकूपों के शैवाल है नास्टॉक, एनाबीना।
  • लवणीय जल में - समुद्र के अन्दर पाये जाने वाले जीव डरमोकार्प तथा ट्राकोडेस्मियम, प्लूरोकेप्सा आदि है।
  • स्थलीय - नमी वाले स्थानों पर पाये जाते हैं जैसे नास्टॉक अदि।
  • अधिपादप - डरमोकार्पा प्रासिना समुद्री पौधों के ऊपर पाया जाता है।
  • अन्तःपादप - गनेरा की पत्तियों तथा तने में एजाला तथा एंथोसिरास के सूकाय में साइकस की कोरेलाइड जड़ों में मिलने वाले नील हरित शैवाल नास्टॉक, एनाबीना ग्ल्यिोकेप्सा आदि हैं।
  • सहजीवी - लाइकेन में ग्ल्यिोकेप्सा कवक के साथ सहजीवन में मिलती है। कोलेमा तथा पेल्टीजेरा आदि लिवरपर्ट के सूकाय में सहजीवी के रूप में ये वातावरणीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करती है।
  • अन्तः जान्तव - आसिलेटोरिया तथा साइमनसिएला आदि मनुष्य के आतों में मिलती हैं।
  • गर्म पानी के श्रोतों में - माइकसिस्टम, फारमीडियम कोकेकस तथा साइटो आदि 65 डिग्री – 70 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान वाले गर्म पानी के श्रोतों में मिलता है।
  • बर्फ पर - कुछ नील हरित शैवाल जैसे फारमीडियम की कुछ जातियां बर्फ पर भी मिलती हैं।
  • अधिशिलावासी - केलोथ्रिक्स पेराइटिना साइटोनीमा आदि चट्टानों पर मिलती हैं।
  • प्लवकंटुक रूप - टोलोपिथ्रिक्स तथा साइटोनीमा ढीली गेंद के आकार में गुच्छों में मिलते हैं।
  • पूतिपंकी - लिंग्ख्या तथा आसिलेटोरिया एन्गुस्टा आदि पूतिपकं जीवी के रूप में मिलते हैं।
  • जीवाश्म - कुछ साइनोबैक्टीरिया जीवाश्म के रूप में 3 अरब वर्ष पहले प्रथम प्रकाश संश्लेषी जीव के रूप में उपस्थित थे जैसे – नास्टासाट्स।

सायनोबैक्टीरिया मे गति –
ये मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं -
  1. दोलन गति
  2. ग्लाइडिंग गति
पोषण - ये स्वपोषी होते हैं, इनमें प्रकाश संश्लेषी भोज्य पदार्थ अन्य हरे पौधों से भिन्न होते हैं। संचित भोज्य पदार्थ तेल गोलिकायें हैं।

जनन - नील हरित शैवालों में सत्य लैंगिक जनन नहीं पाया जाता है, केवल कायिक अलैंगिक जनन पाया जाता है।

कायिक जनन – ये निम्न विधियों से होता है -
  1. असूत्र विभाजन द्वारा - इस प्रकार के जनन में किशिका मध्य से संकुचित होकर दो एक कोशिकाओं में विभाजित हो जाती है।
  2. तंतुओं का विखण्डन - तंतु छोटे- छोटे खण्डों में टूट जाते हैं, प्रत्येक तंतु नया पादप बन जाता है, जैसे – पालीसिस्टिम।
  3. कॉलोनी का विखण्डन - कॉलोनी छोटे -छोटे खण्डों में विभाजित होती है, प्रत्येक खण्ड नई कॉलानी बनाती है।
  4. हारमोगोन द्वारा - जब तंतु का आच्छद के भीतर ही विखण्डन हो जाता तब हारमोगोन बनते हैं, प्रत्येक हारमोगोन से नया पादप विकसित होता है जैसे आसिलेटोरिया।
  5. हारमोसिस्ट द्वारा - प्रतिकूल परिस्थितियों में हारमोगोन के चारों बहुत मोटी भित्ति अन जाती है इन्हें हारमोसिस्ट कहते हैं।
  6. एकाइनीट द्वारा - प्रतिकूल परिस्थितियों में तंतु की कुछ कोशिकाओं में भोजन एकत्र हो जाता है, तथा भित्ति मोटी व सख्त हो जाती है। इन कोशिकाओं को एकाइनीअ कहते हैं।

अलैंगिक जनन – ये दो प्रकार के होते हैं -
  1. अन्तः जनज द्वारा - अनुकूल परिस्थितियों में कोशिका का कोशिका द्रब्य भित्ति से अलग होकर एकत्र हो जाता है, ये एक से कई टुकड़ों में असूत्री विभाजन से विभाजित हो जाता है, प्रत्येक खण्ड एक अन्तः बीजाणु है जो पादन को जन्म दे सकता है।
  2. वाह्य बीजाणु द्वारा - इस प्रकार के बीजाणु कोशिका के बाहर की ओर संकुचन से बनते हैं।

साइनोबैक्टीरिया का आर्थिक महत्व -

लाभप्रद प्रभाव
  • उत्पादक – स्वपोषी होने के कारण प्रकाशसंश्लेषण में CO2 तथा O2 निकालते हैं।
  • खाद्य पदार्थ – स्वपोषी मनुष्य के लिए इनका खाद्य के रूप में अधिक महत्व नहीं होता स्पुरीला, प्रोटीन, विटामिन्स खनिजों का अच्छा श्रोत है।
  • चारे के रूप में – ये मछली के मुख्य भोज्य पदार्थ हैं इसके अतिरिक्त घोंघे भी इन पर निर्भर रहते हैं।
  • खाद्य के रूप में – आदि की अधिकता के कारण इनको फास्फोट की कमी की कमी के कारण मृदा में मिलाया जाता है। कृहित्रम खाद से निलहरित शैवाल की जैविक खाद अधिकतम उत्तम है।
  • बंजर जमीनों के लिए - अधिक क्षारीय मृदा के लिए बेकार होती है, इनमें कुछ नहीं उगाया जाता है, इनमें नोसटोक, साइटोनिमा आदि उगाये तो ये मृदा की क्षरिता को कम कर सकते हैं।
  • मृदा संरक्षण में - अधिक साइटोनिया, एलोसाइरा, ऐनाबीन आदि मृदा के कणों को बांधने का काम करती है।
  • प्रयोगशाला में शोध कार्यो के लिए - अधिकसिपलिना तथा एनासिस्टम प्रयोगशाला में विभिन्न शोध कार्यो के जिए प्रयोग में आते हैं।

हानिकारक प्रभाव -
  • पानी की टंकियो का क्षरण - अधिकपानी की टंकी में अधिक मात्रा में इनकी वृद्धि होन से पानी का स्वाद खराब हो जाता है, तथा पानी पीने से संक्रमण का डर रहता है।
  • वाटर ब्लूम - एनाबीना फ्लास एक्वे,एनीबीनोप्सिस आदि की अधिकता से पानी में CO2 की मात्रा बढ़ जाती है। पानी सड़ने लगता है। इससे पानी में रहने वाले जीवाणुओं को सांस लेने में कठिनाई होती है। जल विषाक्त हो जाता है तथा मछली व जंतु मर जाते हैं।

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