गरीबी
किसी भी समाज में गरीबी एक गंभीर समस्या है। गरीबी का असमानता के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। तीसरी दुनिया के देशों में जहाँ प्रति व्यक्ति आय का स्तर अत्यन्त निम्न है, आय और सम्पत्ति के वितरण की असमानताओं ने अनेक समस्याओं को जन्म दिया है, जिनमें सबसे गंभीर समस्या गरीबी है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि स्वतंत्रता के बाद भारत में आर्थिक प्रगति हुई है। लेकिन जनसाधारण की गरीबी पर इसका कोई अपेक्षित प्रभाव नहीं पड़ पाया है। व्यापक गरीबी अभी भी देश के लिए गंभीर समस्या बनी हुई है। देश में आज लगभग छह दशक के आयोजन के बाद भी जनसंख्या का लगभग 30 प्रतिशत भाग गरीबी से ग्रस्त है और भयानक अभावों में जी रहा है।
गरीबी की परिभाषा
गरीबी का अर्थ उस सामाजिक क्रिया से है जिसमें समाज का एक हिस्सा अपने जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं को भी पूरा नहीं कर पाता और न्यूनतम जीवन स्तर निर्वाह करने से वंचित रहता है। दूसरे शब्दों में, गरीबी का अभिप्राय जीवन, स्वास्थ्य तथा कार्यकुशलता के लिए न्यूनतम उपभोग आवश्यकताओं की प्राप्ति की अयोग्यता से है। सामान्यतः गरीबी का आशय लोगों के निम्न जीवन-निर्वाह स्तर से लगाया जाता है। जीवन निर्वाह की न्यूनतम आवश्यकताओं के पूरा न होने से व्यक्ति का जीवन कष्टमय हो जाता है। उसके स्वास्थ्य तथा कार्यकुशलता की हानि होती है जिससे उत्पादन में वृद्धि करना तथा भविष्य में निर्धनता से छुटकारा पाना कठिन हो जाता है। परिणामतः व्यक्ति गरीबी के दलदल में फंस जाता है।
देश इसलिए निर्धन बना रहता है क्योंकि व्यक्ति निर्धन है। एक निर्धन व्यक्ति को, उसकी गरीबी के कारण, भरपेट व संतुलित भोजन नहीं मिल पाता। उसका स्वास्थ्य कमजोर होता है। उसमें काम करने और कमाने की शक्ति कम होती है। अतः आय कम होती है और वह गरीब बना रहता है। गरीबी का यह कुचक्र चलता रहता है। चूँकि व्यक्ति गरीब होता है, इसलिए वह विकास नहीं कर पाता। व्यक्ति का विकस बाधित होता है तो देश का विकास अवरूद्ध हो जाता है और देश गरीब बना रहता है। तीसरी दुनिया के अन्य देशों की तरह भारत के लिए भी गरीबी एक गंभीर चुनौती है।
गरीबी के प्रकार
- गरीबी को मुख्यत : सापेक्ष और निरपेक्ष दृष्टि से देखा जा सकता है। आर्थात् गरीबी के दो रूप या प्रकार हैं-
- सापेक्ष गरीबी : सापेक्ष गरीबी से अभिप्राय विभिन्न वर्गों, प्रदेशों या दूसरे देशों की तुलना में पायी जाने वाली गरीबी से है। जिस देश या वर्ग के लोगों का जीवन-निर्वाह स्तर नीचा होता है, वे उच्च निर्वाह स्तर के लोगों या देश की तुलना में या सापेक्ष रूप से गरीब माने जाते हैं। यू. एन. ओ. की एक रिपोर्ट के अनुसार उन देशों को सापेक्ष रूप से निर्धन माना जाता है जिनकी प्रति व्यक्ति कुल आय 1 डालर प्रतिदिन से कम है। भारत की प्रति व्यक्ति आय 330 डालर प्रति वर्ष के लगभग है। अमरीका, जापान और स्वीटजलैण्ड ही नहीं बल्कि मिस्र, श्रीलंका, पाकिस्तान की प्रति व्यक्ति आय भी भारत की प्रति व्यक्ति आय से अधिक है। इसीलिए भारत का निर्धन देशों में भी नीचा स्थान है।
- निरपेक्ष गरीबी : निरपेक्ष दृष्टि से उन लोगों को गरीब कहा जाता है जिनका निर्वाह स्तर इतना नीचा होता है कि जीवन की न्यूनतम आवश्यकताएं भी पूरी नहीं हो पातीं। इन आवश्यकताओं को शरीर चलाने के लिए जरूरी न्यूनतम पोषक आहार के रूप में व्यक्त किया जाता है। गरीब लोगों की पहचान के लिए भारत में इसी मापदण्ड को अपनाया गया है। इस संदर्भ में योमना आयोग द्वारा प्रतिदिन के हिसाब से आवश्यक आहार की न्यूनतम मात्रा ग्रामीण क्षेत्रों के लिए 2400 कैलोरी और शहरी क्षेत्रों के लिए 2100 कैलोरी निर्धारित की गई है।
गरीबी रेखा
गरीबी रेखा को सामान्य अर्थों में इस प्रकार परिभाषित किया जाता है। गरीबी वितरण रेखा का विभाजक बिन्दु है जो जनसंख्या को दो भागों में विभाजित करता है, ऐसे लोग जो गरीब हैं तथा ऐसे जो गरीब नहीं हैं। लेकिन भारत में इसकी परिभाषा लोगों की न्यूनतम उपभोग आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर की जाती है। इसके अनुसार प्रायः वे लोग गरीब माने जाते हैं जो एक निश्चित न्यूनतम उपभोग का स्तर प्राप्त करने में असफल रहते हैं। दूसरे शब्दों में, गरीबी रेखा वह रेखा है जो उस प्रति व्यक्ति औसत मासिक व्यय को प्रकट करती है जिसके द्वारा लोग अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं को संतुष्ट कर सकते हैं। 1999-2000 की कीमतों पर 328 रूपये ग्रामीण क्षेत्र में तथा 459 रूपये शहरी क्षेत्र में प्रतिमास उपभोग का गरीबी रेखा माना जाता है। जिन लोगों का प्रतिमाह उपभोग व्यय इससे कम है उन्हें निर्धन माना जाता है। योजना आयोग ने गरीबी रेखा की परिभाषा आहार संबंधी जरूरतों को ध्यान में रखकर किया है। योजना आयोग के अनुसार ग्रामीण क्षेत्र में एक व्यक्ति के प्रतिदिन के भोजन में 2400 कैलोरी तथा शहरी क्षेत्र में एक व्यक्ति के प्रतिदिन के भोजन में 2100 कैलोरी होनी चाहिए।
योजना आयोग ने देश में निर्धनता की माप के लिए 1989 में प्रो. डी. टी. लकडवाला की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ दल का गठन किया जिसने 1993 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। इस आयोग ने प्रत्येक राज्य में मूल्य स्तर के आधार पर अलग-अलग निर्धनता रेखा का निर्धारण किया। इसका अभिप्राय यह है कि प्रत्येक राज्य में निर्धनता रेखा भिन्न-भिन्न होगी।
इस आयोग ने प्रत्येक राज्य में ग्रामीण व शहरी निर्धनता के लिए अलग-अलग मूल्य सूचकांकों की बात की, जो निम्न हैं -
- ग्रामीण क्षेत्र में निर्धनता रेखा - इसके लिए लकड़वाला विशेषज्ञ दल द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में कृषि श्रमिकों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक का सुझाव दिया।
- शहरी क्षेत्र में निर्धनता रेखा - लकड़वाला समिति ने औद्योगिक श्रमिकों के लिये उपभोक्ता मूल्य सूचकांक और शहरी भिन्न कर्मचारियों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक का सुझाव दिया। योजना आयोग ने लकड़वाला समिति की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया। लकड़ावाला समिति की सिफारिशों के परिणामस्वरूप अब कोई विशिष्ट या निर्धारित निर्धनता रेखा नहीं होगी, बल्कि इसके स्थान पर एक अखिल भारतीय निर्धनता रेखा का निर्धारण किया जा सकता है।
गरीबी रेखा का निर्धारण
गरीबी रेखा का निर्धारण आय और उपभोग के रूप में किया जाता है। लेकिन आय की तुलना में उपभोग गरीबी रेखा सीमा का एक बेहतर पैरामीटर है। इसका कारण यह है कि उपभोग किसी व्यक्ति द्वारा वस्तुओं तथा सेवाओं के वास्तविक प्रयोग को दिखलाता है, जबकि आय केवल खरीदने की क्षमता व्यक्त करती है। इसके अतिरिक्त आय के वितरण आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। जबकि उपभोग से संबंधित व्यापक आँकड़े उपलब्ध हैं। यही कारण है कि भारत में गरीबी रेखा की सीमा निर्धारण के लिए उपभोग को आधार के रूप में अपनाया गया है।
गरीबी रेखा निर्धारण की कार्यविधि
भारत में गरीबी रेखा निर्धारित करने के लिए उपभोग की सीमा को आधार बनाया जाता है। इसके लिए निम्नलिखित कार्यविधि अपनायी जाती है-
- उपभोग सीमा का अनुमान लगाते समय, सार्वजनिक व्यय अथवा उपभोक्ता वस्तुओं पर सरकार द्वारा किए जाने वाले व्यय को शामिल नहीं किया जाता। केवल निजी उपभोग व्यय को ही ध्यान में रखा जाता है।
- निजी उपभोग व्यय घटकों के रूप में न केवल खाद्य पदार्थ मदों को बल्कि गैर खाद्य पदार्थों को भी ध्यान में रखा जाता है।
- खाद्य पदार्थ मदों के उपभोग के लिए कैलोरी के प्रति व्यक्ति उपभोग का अनुमान किया जाता है। आवृति के बंटवारे को उस विभिन्न वर्ग अन्तराल के साथ ग्रहण किया जाता है जो कैलोरी उपभोग की सीमा तथा कैलोरी उपभोग के स्तर को प्रकट करती है। प्रत्येक वर्ग अंतराल के बदले आवृत्ति को रिकार्ड किया जाता है।
- प्रत्येक आवृत्ति एक विशेष उपभोग-वर्ग से संबंधित शीर्षक की संख्या को प्रकट करती है।
अंतत: व्यक्ति गणना अनुपात निकाला जाता है जो निर्धन तथा अनिर्धन को (निर्धनता रेखा सीमा से संबंधित) ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों के लिए अलग से दर्शाता है। यह अनुपात निर्धनता रेखा से नीचे की जनसंख्या के प्रतिशत
को प्रकट करता है।
गरीबी रेखा के निर्धारण तथा गरीबी के अनुमान के सन्दर्भ में सामान्यतया योजना आयोग के ही माप तथा दृष्टिकोण को स्वीकार किया जाता है। किन्तु विश्व बैंक आय के आधार पर गरीबी रेखा का निर्धारण करता है जिसे 'डॉलर गरीबी रेखा' कहा जाता है। विश्व बैंक $1 या $2 न्यूनतम आय के आधार पर गरीबी रेखा निर्धारित करता है। इसके अनुसार $2 से कम आय वाले लोग गरीब तथा $1 से कम आय वाले लोग गरीबी रेखा से नीचे माने जाते हैं। विश्व बैंक की 'विश्व विकास सूचक' शीर्षक से प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार विश्व में निर्धन लोगों की सर्वाधिक संख्या भारत में है। विश्व की 1.3 अरब निर्धन जनसंख्या का सर्वाधिक 36% भाग भारत में निवास करता है। इन निर्धन लोगों की आय 1 डॉलर प्रतिदिन से कम है।
भारत में गरीबी की प्रवृत्तियाँ
देश में आय एवं धन वितरण के सम्बन्ध में भारी असमानता है। धन वितरण की असमानताएं अपेक्षाकृत अधिक हैं। इसका मुख्य कारण आय की असमानता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राष्ट्रीय सरकार ने इस बात को स्पष्ट स्वीकार किया कि राष्ट्रीय आय में तेजी से वृद्धि लाने के साथ-साथ असमानताओं को घटाना भी आवश्यक है। देश के विकास के लिए अपनाए गए आर्थिक आयोजन में इस बात पर विशेष बल दिया गया है कि केवल राष्ट्रीय आय में वृद्धि लाना ही पर्याप्त न होगा, बल्कि साथ ही न्यायसंगत ढंग से राष्ट्रीय आय के वितरण की दिशा में भी प्रयास करना होगा। समाजवादी समाज की स्थापना के लिए, जो कि हमारा मूल उद्देश्य है, ऐसा किया जाना अपरिहार्य है।
योजना आयोग द्वारा निर्धनता की स्थिति का अनुमान राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन द्वारा घरेलू उपभोक्ता व्यय के संबंध में किए गए व्यापक नमूना सर्वेक्षण के आधार पर लगाया जाता है। भारत में 1960-61 में लगभग 17 करोड़ लोग अर्थात् कुल जनसंख्या का 34 प्रतिशत गरीबी रेखा से नीचे रह रहा था। 1993-94 में 32 करोड़ लोग निर्धनता रेखा से नीचे रह रहे थे। परन्तु यह जनसंख्या का केवल 36 प्रतिशत भाग था। नौवीं योजना के अनुसार 2000-2001 में 26 करोड़ लोग अर्थात् कुल जनसंख्या का 26 प्रतिशत भाग निर्धनता रेखा से नीचे निवास कर रहा था। भारत में विभिन्न राज्यों में निर्धनों की संख्या भी असमान है। यह अनुमान लगाया गया है कि तलिनाडु, उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा तथा मध्य प्रदेश में निर्धनों की संख्या सबसे अधिक है। उत्तर प्रदेश की 41 प्रतिशत, बिहार की 55 प्रतिशत, उड़ीसा की 49 प्रतिशत, मध्य प्रदेश की 42 प्रतिशत जनसंख्या निर्धनता रेखा से नीचे रह रही है। पंजाब में 12 प्रतिशत अर्थात् सब राज्यों से कम जनसंख्या तथा हरियाणा में 25 प्रतिशत जनसंख्या तथा हिमाचल की 27 प्रतिशत जनसंख्या निर्धनता रेखा से नीचे रह रही है। तालिका से भारत में निर्धनता की प्रवृत्तियों को स्पष्ट किया जा सकता है।
इसके साथ ही ग्रामीण और शहरी निर्धनता की प्रवृत्तियों को जान लेना आवश्यक है। ग्रामीण क्षेत्र में पायी जाने वाली निर्धनता शहरी निर्धनता की तुलना में अभी भी अधिक है, बेशक समय के साथ-साथ दोनों में काफी कमी आई है। ग्रामीण निर्धनता 1972-73 में 54 प्रतिशत से घटकर 1999-2000 में 27.09 प्रतिशत हो गई है, शहरी निर्धनता भी इसी अवधि में 42 प्रतिशत कमी को कुल कमी के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए। 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में ग्रामीण क्षेत्र में 21 प्रतिशत और शहरी क्षेत्र में 15 प्रतिशत जनसंख्या गरीब है। समय के साथ जनसंख्या में विस्फोटक वृद्धि के कारण ग्रामीण तथा शहरी दोनों क्षेत्रों में निर्धनता रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की कुल जनसंख्या में काफी वृद्धि हुई है, बेशक उनके प्रतिशत मूल्य में कमी क्यों न आई हो।
गरीबी के कारण
भारत में गरीबी के लिए उत्तरदायी कारणों की विवेचना दो भागों में बांटकर की जा सकती है:- प्रथम अल्पविकसित अर्थव्यवस्था और द्वितीय आय का असमान वितरण
भारतीय अर्थव्यवस्था की अल्पविकसितता के सन्दर्भ में गरीबी
भारत की अर्थव्यवस्था का अल्पविकसित होना निर्धनता का मुख्य कारण है। इस संदर्भ में निम्नलिखित कारणों का उल्लेख किया जा सकता है
- राष्ट्रीय उत्पाद का निम्न स्तर - भारत का कुल राष्ट्रीय उत्पादन जनसंख्या की तुलना में काफी कम है। इस कारण प्रति व्यक्ति आय भी कम रही है। भारत का शुद्ध राष्ट्रीय उत्पादन 2004-2005 में उसी वर्ष की कीमतों के आधार पर 25, 35, 627 करोड़ रूपये था तथा प्रति व्यक्ति आय केवल 23, 241 रूपये थी, जो यू. एन. ओ. द्वारा निर्धारित (1 डॉलर प्रतिदिन आय) मानदण्ड के अनुसार बहुत अधिक निर्धन देशों की है।
- विकास की कम दर - भारत की पंचवर्षीय योजनाओं में विकास की दर अत्यंत निम्न रही है। योजनाओं की अवधि में सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर लगभग 4 प्रतिशत रही है परन्तु जनसंख्या की वृद्धि दर लगभग 2 प्रतिशत होने से प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि केवल 2-4 प्रतिशत हो गई है। अतः जनसंख्या वृद्धि दर की तुलना में विकास की दर बहुत कम बढ़ रही है जो गरीबी को जारी रखने में सहायक है।
- जनसंख्या में भारी वृद्धि - भारत में जनसंख्या अत्यन्त द्रुत गति से बढ़ रही है जिसका गरीबी को गंभीर रूप देने में महत्वपूर्ण योगदान है। जनसंख्या में भारी वृद्धि से गरीब लोगों के उपभोग-स्तर पर और भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। उनके आय का अधिकांश हिस्सा परिवार में बढ़े बच्चों के पालन-पोषण में खर्च हो जाता है। जनसंख्या की वृद्धि दर 1941-51 में 1.0 प्रतिशत थी, जो 1991-2001 में बढ़कर 2.1 प्रतिशत हो गई है। 1991 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या 84.63 करोड. थी, जबकि 2001 में यह बढ़कर 102.87 करोड़ हो गई। जनसंख्या का अधिक दबाव निर्धनता भार को बढ़ा देता है जो गरीबी बढ़ाने में सहायक होता है।
- मुद्रा स्फीतिक दवाब - उत्पादन की नीची दर तथा जनसंख्या वृद्धि की ऊँची दर के फलस्वरूप भारत जैसी अल्पविकसित अर्थव्यवस्थाएं स्फीतिक दबाव के जाल में फंस जाती हैं। मुद्रा स्फीति भारतीय अर्थव्यवस्था का एक स्थायी लक्षण बना हुआ है। इसका तात्पर्य है कीमतों में निरंतर वृद्धि की स्थिति। कीमतों में वृद्धि से कम आय वाले लोग बुरी तरह प्रभावित होते हैं। अत: गरीब के और अधिक गरीब होने की प्रवृत्ति बढ़ती चली जाती है।
- निरन्तर रहने वाली बेरोजगारी - भारत में लम्बे समय से बेरोजगारी व अर्द्ध बेरोजगारी की स्थिति बनी हुई है। एक ओर जहाँ श्रमिकों की संख्या तेजी से बढ़ती रही, वहीं दूसरी ओर उनके लिए कार्य या रोजगार के अवसर उतनी तेजी से नहीं बढ़े। यहाँ शिक्षित बेरोजगारी की समस्या तो है ही, उससे बढ़कर कृषि में अदृश्य बेरोजगारी की समस्या है। बेरोजगारी की समस्या गरीबी के मुख्य कारणों में से एक है।
- अपर्याप्त पूंजी-निर्माण - पूँजी-निर्माण आर्थिक विकास का एक सहायक तत्व है। पूंजी संचय को उत्पादन क्षमता के सूचक के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
- अपर्याप्त पूंजी- निर्माण के फलस्वरूप अपेक्षित मात्रा में उत्पादक रोजगार के अवसरों में वृद्धि नहीं हो सकती। दुर्भाग्यवश भारत में अभी भी पूंजी का स्टॉक तथा पूंजी का निर्माण निष्क्रिय अवस्था में चल रहा है। निम्न पूंजी निर्माण का अर्थ है कम उत्पादन क्षमता और इसका प्रत्यक्ष प्रभाव गरीबी पर पड़ता है।
- योग्य एवं निपुण उद्यमकर्ताओं का अभाव - किसी भी देश में औद्योगिक विकास की प्रारंभिक अवस्था में साहस और कल्पनाशक्ति रखने वाले, जोखिम उठाने की योग्यता रखने वाले तथा अपने कार्य में दक्ष, निपुण एवं चतुर उद्यमकत्ताओं की आवश्यकता होती है, किन्तु दुर्भाग्यवश भारत में ऐसे लोगों का अभाव रहा है। परिणाम यह हुआ कि देश में उत्पादन प्रक्रिया बहुत निम्न स्तर पर रही है। उत्पादन प्रक्रिया के निम्न स्तर का अर्थ रोजगार का निम्न स्तर तथा निर्धनता का उच्च स्तर है।
- पुरानी सामाजिक संस्थाएं - भारत की अर्थव्यवस्था का मूल सामाजिक आधार, पुरानी संस्थाएं तथा रूढ़ियां हैं जैसे- जाति प्रथा, संयुक्त परिवार प्रथा और उत्तराधिकार के नियम आदि। ये सब हमारी अर्थव्यवस्था के गत्यात्मक परिवर्तनों में अवरोध उपस्थित करते हैं। इससे विकास दर में बाधा उत्पन्न होती है जिसका परिणाम गरीबी होता है।
- आधारिक संरचना का अभाव - भारत में आर्थिक आधारिक संरचना के प्रमुख घटक ऊर्जा, यातायात तथा संचार और सामाजिक आधारिक सरंचना के प्रमुख घटक शिक्षा, स्वास्थ्य तथा निवास सेवाएं बहुत ही बुरी अवस्था में हैं। संवृद्धि तथा विकास के कार्यक्रम में ये सभी एक आधारशिला का कार्य करते हैं। परन्तु दुर्भाग्यवश 60 वर्षों की योजना अवधि के बावजूद भी यह आधारशिला अभी भी अपनी शैशवास्था में है। विकास प्रवृत्तियों में धीमी प्रगति तथा निर्धनता का निरन्तर बने रहना इसके प्रत्यक्ष परिणाम हैं।
आय के असमान वितरण के संदर्भ में गरीबी
विकसित देशों की तुलना में अल्पविकसित देशों में आय और सम्पत्ति के वितरण में अधिक असमानताएं होती हैं। विकसित देशों में कराधान की प्रगतिशील प्रणाली, सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था, शिक्षा व प्रशिक्षण और रोजगार की दृष्टि से समान अवसरों के कारण आर्थिक असमानताएं कम हुई हैं, वहीं अल्पविकसित देशों में व्यापक सामाजिक विषमता तथा बेरोजगारी व्याप्त है। भारत में भी आय का असमान वितरण एक गंभीर समस्या है। आय और सम्पत्ति के असमान वितरण की समस्या के प्रश्न को ध्यान में रखकर ही भारत सरकार ने 1960 में प्रो. पी. सी. महालनोबिस की अध्यक्षता में एक समिति की नियुक्ति की थी जिसका प्रमुख कार्य आयोजन काल में जीवन स्तर में हुए परिवर्तनों को मालूम करना तथा आय एवं सम्पत्ति के वितरण की वर्तमान प्रवृत्तियों का अध्ययन करना था। लेकिन इसका कोई अपेक्षित परिणाम नहीं निकला। योजनाओं के प्रगतिशील कर प्रणाली तथा दूसरे उपायों द्वारा भी आय के असमान वितरण को दूर करने का प्रयत्न किया गया है, परन्तु इन उपायों के बावजूद आय तथा धन के वितरण सम्बन्धी असमानता बढ़ती जा रही है। आर्थिक अनुसंधान परिषद् की एक रिपोर्ट के अनुसार देश के 20 प्रतिशत व्यक्ति 41 प्रतिशत राष्ट्रीय आय के स्वामी हैं। एकाधिकार जाँच आयोग के अनुसार देश की 1536 कम्पनियां 75 परिवारों के नियंत्रण में हैं। आय का असमान वितरण न केवल निर्धनता प्रकट करता है बल्कि निर्धनता के व्यापकता और विस्तार को आधार प्रदान करता है।
गरीबी दूर करने के उपाय
भारत के लिए गरीबी एक गंभीर समस्या है। यहाँ लाखों-करोड़ों लोग अतिनिर्धन हैं, जिनका जीवन संघर्षपूर्ण है। वे जीवन की मूल आवश्यकताएं भी पूरी करने में अपने को असमर्थ पाते हैं। ऐसी स्थिति भारत की स्थायी प्रगति में बाधक है। इसलिए गरीबी उन्मूलन के लिए समुचित उपायों की व्यवस्था आवश्यक है।
गरीबी दूर करने के लिए निम्न उपाय किये जा सकते हैं-
- आर्थिक विकास की वृद्धि की गति को बढ़ाना
- आय की असमानता को दूर करना
- जनसंख्या की वृद्धि दर में कमी
- अन्य उपाय
आर्थिक विकास की वृद्धि की गति को बढ़ाना
भारत में गरीबी की समस्या को दूर करने के लिए विकास की गति को तेज करना एक मूलभूत उपाय है। विकास की गति में तेजी आने से खेतों तथा कारखानों में अधिक मजदूरों को रोजगार के अवसर उपलब्ध होंगे। रोजगार का अवसर जितना अधिक होगा निर्धनता उतनी ही कम होगी।
आय की असमानता को कम करना
गरीबी दूर करने के लिए आर्थिक विकास की ऊँची दर के साथ-साथ आय का समान वितरण भी आवश्यक है। इसके लिए परिसम्पत्तियों में गरीब लोगों के भाग को बढ़ाना अनिवार्य होगा। सबसे महत्वपूर्ण परिसम्पत्ति, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, कृषि भूमि है। भूमिहीनों में पुनर्वितरण कर सरकार इसका समाधान कर सकती है। परिसम्पत्ति का एक अन्य रूप उत्पादन-इकाइयों की सम्पत्ति है जैसे कि इमारत, मशीन, उपकरण आदि। अनुदान अथवा रियायती ऋण उपलब्ध करा कर भी गरीबों को इस सम्बन्ध में मदद दी जा सकती है।
एक अन्य आवश्यक उपाय उचित लगान तथा न्यूनतम मजदूरी के निर्धारण से सम्बन्धित है। यह जरूरी है कि गरीब श्रमिकों को जो भुगतान किया जाय, वह उचित हो। कृषि-क्षेत्र में काश्तकारों को शोषण से बचाने के लिए कानूनी व्यवस्था होनी चाहिए। निर्धन परिवारों को शिक्षा तथा स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं निःशुल्क उपलब्ध कराई जानी चाहिए। इसके फलस्वरूप आय का समान वितरण संभव हो सकेगा तथा उनकी निर्धनता में कमी आएगी।
जनसंख्या की वृद्धि दर में कमी
गरीबी दूर करने के लिए जनसंख्या की वृद्धि दर पर रोक लगाना एक आवश्यक उपाय है। भारत का अभी तक का अनुभव यही रहा है कि जनसंख्या में वृद्धि के कारण राष्ट्रीय आय में वृद्धि धीमी अथवा बाधित रही है। यही कारण है कि प्रतिव्यक्ति आय निम्न बनी हुई है। गरीबी के चक्रव्यूह को जनसंख्या पर रोक लगाकर ही तोड़ा जा सकता है। विशेषकर गरीब परिवारों में जन्म-दर बहुत ऊँची है। इस पर अंकुश लगाना बहुत जरूरी है। इसके लिए यह जरूरी है कि उन्हें शिक्षा और प्रचार के माध्यम से छोटे परिवार के महत्व की जानकारी दी जाए। दूसरे परिवार नियोजन को अपनाने के लिए हर संभव तरीके के उन्हें प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। साथ ही यह भी जरूरी है कि जन्म-नियंत्रण के विभिन्न उपाय इन्हें निःशुल्क या सस्ती दरों पर उपलब्ध कराया जाए। वस्तुतः जनसंख्या वृद्धि पर रोक लगाने पर राष्ट्रीय आय में वृद्धि का प्रतिबिम्ब प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि के रूप में दिखलाई देगा। प्रति व्यक्ति आय में जैसे ही वृद्धि होगी, इसका अधिक बचत तथा निवेश के माध्यम से आय में वृद्धि पर गुणक प्रभाव पड़ेगा। अधिक आय (प्रतिव्यक्ति) का अर्थ होगा अधिक बचत, अधिक निवेश, अधिक उत्पादन, अधिक रोजगार और अंतत: कम निर्धनता।
अन्य उपाय
गरीबी दूर करने के कुछ अन्य उपाय निम्न हैं-
कृषि का विकास
मिन्हास के विचारानुसार गरीबी दूर करने के लिए कृषि के विकास के लिए विशेष प्रयत्न किया जाना चाहिए। इसके लिए विशेष प्रयत्न किया जाना चाहिए। इसके लिए कृषि का आधुनिकीकरण किया जाना जरूरी है। उन्नत बीज, उपकरण, सिंचाई के साधनों तथा रासायनिक कम्पोस्ट खाद का प्रयोग किया जाना चाहिए, छोटे किसानों को उचित प्रकार की आर्थिक सहायता दी जानी चाहिए। इन प्रयासों से गरीबी को कम या दूर किया जा सकता है।
कीमत स्तर में स्थिरता
गरीबी दूर करने के लिए कीमत स्तर को स्थिर बनाये रखना एक आवश्यक शर्त है। यदि कीमतों में निरन्तर वृद्धि पर अंकुश नहीं लगाया जाएगा तो निर्धन लोगों का जीवन स्तर और निम्नतर होता जाएगा। कीमतों में स्थिरता लाना तभी संभव हो सकेगा जब खाद्य तथा अन्य आम उपभोग की वस्तुओं का उत्पादन बढ़ाया जाएगा और सामान्य उपभोग वाली वस्तुओं का निर्धन वर्ग में वितरण सरकारी संरक्षण में उचित मूल्य पर कराया जाएगा।
बेरोजगारी का उन्मूलन
यदि गरीबी को दूर करना है तो बेरोजगारी के उन्मूलन के लिए विशेष उपाय करने होंगे। ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार बढ़ाने के अधिक अवसर हैं, उनका लाभ उठाना चाहिए। विशेष रूप से कुटीर उद्योग, निर्माण आदि को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। शिक्षित बेरोजगारी को कम करने के लिए शिक्षा प्रणाली को व्यावसायिक बनाना अनिवार्य रूप से आवश्यक होगा।
उत्पादन तकनीक में परिवर्तन
प्रो. गुन्नर मिर्डल के अनुसार भारत में उत्पादन को श्रम प्रधान तकनीक अपनायी जानी चाहिए। इस तकनीक के अपनाने से रोजगार की मात्रा बढ़ेगी और गरीबी को कम किया जा सकेगा।
न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति- सरकार द्वारा गरीब लोगों की न्यूनतम आवश्यकताओं जैसे पीने का पानी, प्राथमिक चिकित्सा, प्राथमिक शिक्षा आदि की पूर्ति के लिए प्रयत्न किए जाने चाहिए।
पिछड़े क्षेत्रों पर विशेष ध्यान
भारत के कुछ राज्यों जैसे उड़ीसा, बिहार, नगालैण्ड, उत्तर प्रदेश आदि में गरीबों का अनुपात अन्य प्रदेशों की तुलना में अधिक है। सरकार को पिछड़े इलाकों में विशेष सुविधाएँ देनी चाहिए जिससे निजी पूंजी उन प्रदेशों में निवेश की जा सके।
स्वरोजगार के लिए अवसर
भारत में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र उतना सक्षम नहीं हो सका है जिससे बेरोजगारी दूर किया जा सके। इसलिए स्वरोजगार के अवसर पैदा करना आवश्यक होगा। इसके लिए अधिक से अधिक औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान खोले जाने चाहिए तथा लघु उद्यम स्थापित करने के लिए कम व्याज दरों पर बैंकों पर अन्य वित्तीय संस्थाओं द्वारा ऋण उपलब्ध कराए जाने चाहिए।
गरीबी दूर करने के लिए सरकार द्वारा लागू किए गए कार्यक्रम
स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना
गाँवों में रहने वाले गरीब लोगों के लिए 1 अप्रैल, 1999 को 'स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना' शुरू की गई। इस योजना में 1980 में लागू की गयी समन्वित गाम विकास कार्यक्रम (IRDP) को शामिल कर लिया गया है। यह ग्रामीण गरीबों के लिए स्वरोजगार सृजन का एकमात्र कार्यक्रम है। इस योजना के अंतर्गत गांवों में छोटे-छोटे उद्यम स्थापित किए गए हैं। इन उद्यमों को व्यक्तिगत और सामूहिक रूप में आत्मनिर्भर समूहों के आधार पर संगठित किया जाता है। इन उद्यमों को स्थापित करने के लिए निर्धन लोगों को बैंकों द्वारा ऋण तथा आर्थिक सहायता उपलब्ध करायी जाती है। यह केन्द्र प्रायोजित योजना है, जिसमें राज्य का भी सहयोग है। योजना पर खर्च किये जाने वाले धन का अनुपात क्रमशः 75:25 (केन्द्र एवं राज्य) है।
समन्वित ग्राम विकास कार्यक्रम (IRDP) से संबद्ध अन्य प्रमुख कार्यक्रम थे: -
- ट्राइसेम (TRYSEM) : स्वरोजगार हेतु ग्रामीण युवाओं के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम
- डवाकारा (OWCRA) : ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं और बच्चों का विकास
- जी. के. वाई. (GKY) : गंगा कल्याण योजना
- एम. डब्ल्यू. एस. (Aws) : मिलियन कूप योजना
- सिट्रा (SITRA) : ग्रामीण कारीगरों के लिए बेहतर उपकरण आपूर्ति
उल्लेखनीय है कि सरकार ने 1999 में उपरोक्त 6 प्रमुख योजनाओं (आई. आर. डी. बी. ट्राइसेम, डवाकरा, जी. के. वाई. एम. डबल्यू. एस. और सिट्रा) के स्थान पर स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना' नामक एकल योजना को प्रारंभ किया था।
प्रधानमंत्री ग्रामोदय योजना
यह योजना 2001 में आरम्भ की गयी थी। इसका उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्र में लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाने के लिए पांच महत्वपूर्ण क्षेत्रों-स्वास्थ्य, प्राथमिक शिक्षा, पेयजल, आवास तथा सड़कों का विकास करना है।
इस योजना के अंतर्गत तीन योजनाएं शामिल की गई हैं
- प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना
- प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना
- प्रधानमंत्री ग्रामीण पेयजल योजना।
न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम
पांचवी योजना में निर्धन लोगों के जीवन स्तर को ऊँचा उठाने के लिए न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम को लागू किया गया है। इसके द्वारा प्रारंभिक शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, ग्रामीण स्वास्थ्य, ग्रामीण जल आपूर्ति, ग्रामीण सड़कें, ग्रामीण विद्युतीकरण, ग्रामीण आवास, शहरी तंग बस्तियों के पर्यावरण का सुधार तथा पोषाहार पर ध्यान दिया जाता है। यह कार्यक्रम निर्धन तथा कमजोर वर्ग के लोगों के लिए काफी उपयोगी है।
राष्ट्रीय सामाजिक सहायता योजना
यह योजना भी निर्धनता रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों लिए 15 अगस्त, 1995 को शुरू की गई। इस योजना के तीन घटक हैं-
65 वर्ष से अधिक आयु वाले सभी व्यक्तियों को 400 रूपये प्रतिमाह की वृद्धा पेंशन देना
परिवार के मुख्य आय अर्जक की मृत्यु की स्थिति में 10,000 रूपये की एकमुश्त सहायता तथा 19 वर्ष से अधिक आयु की महिलाओं का पहले दो प्रसवों के अवसरों पर प्रसवपूर्व व प्रसवोपरांत पोषाहार हेतु 500 रूपए की वित्तीय सहायता।
सामूहिक जीवन बीमा योजना
यह योजना ग्रामीण क्षेत्रों के लिए 1995-96 के दौरान प्रारंभ की गई। इस योजना के तहत पंजीकरण के समय 40 वर्ष से कम आयु के व्यक्तियों के लिए 60 रूपए वार्षिक प्रीमियम तथा 40 वर्ष से 50 वर्ष तक की आयु के व्यक्तियों के लिए 70 रूपये वार्षिक प्रीमियम के भुगतान पर 5,000 रूपये का जीवन सुरक्षा कवच उपलब्ध कराया जाता है। प्रीमियम की आधी राशि बीमाधारक को चुकानी पड़ती है और आधी राशि केन्द्र और राज्य सरकार मिलकर वहन करते हैं।
बीस सूत्री आर्थिक कार्यक्रम
आम जनता को गरीबी के बंधन से मुक्त कराने के लिए यह कार्यक्रम 1975 में आरंभ किया गया एवं पहले इसे 1982 तथा दूसरी बार 1986 एवं तीसरी बार 2006 में संशोधित किया गया। नये आर्थिक बीस सूत्रीय कार्यक्रम को 1 अप्रैल. 2007 से लागू किया गया है। इस कार्यक्रम के 20 सूत्र हैं जो निम्न हैं -
- ग्रामीण निर्धनता पर हमला
- वर्षा पर निर्भर कृषि की व्यूह रचना
- सिंचाई के पानी का अच्छा उपयोग
- अच्छी फसलें
- भूमि सुधारों की प्रभावशीलता
- ग्रामीण श्रम के लिए विशिष्ट कार्यक्रम
- पीने का साफ पानी
- सबके लिये स्वास्थ्य
- दो बच्चों का मानक
- शिक्षा का विस्तार
- अनु. जाति एवं अनु. जनजाति के लिए न्याय
- महिलाओं के लिए समानता
- युवाओं के लिए नये अवसर
- व्यक्तियों के लिए आवास
- शहरी मलिन बस्तियों का सुधार
- वानिकी की नयी व्यूह रचना
- पर्यावरण का संरक्षण
- उपभोक्ता का समुत्थान
- गांवों के लिए ऊर्जा
- एक उत्तरदायी प्रशासन
निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रम : मूल्यांकन
भारत में गरीबी उन्मूलन के लिए समय-समय पर पंचवर्षीय योजनाओं के कार्य काल में अनेक ऐसे कार्यक्रम शुरू किए गए जिनसे गरीबी कम करने की दिशा में सकारात्मक सहायता मिली है। हालांकि इन कार्यक्रमों के कार्यान्वयन में किए गए कुछ नवीन परिवर्तनों के कारण कुछ पारदर्शिता अवश्य आई है, फिर भी इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना शेष है। बेहतर अभिशासन और बेहतर सेवा-सपर्दगी पर अधिक बल दिया जाना जरूरी है ताकि लक्षित-जन-समूह केन्द्र और राज्यों द्वारा कार्यान्वित की जा रही इन योजनाओं से सचमुच ही लाभान्वित हो सके। स्थानीय समुदायों और पंचायती राज संस्थाओं को भी यथासंभव शामिल करने की जरूरत है ताकि स्थानीय लोगों की अपने कल्याण और उद्धार की योजनाएं बनाने में हिस्सेदारी हो। इससे योजनाओं के कार्यान्वयन में उनके उद्देश्य और लाभा नुमोनियों के परस्पर-व्यापन के रूप में लाभों के लक्ष्य से अन्यत्र पहुँचने तथा होने वाली बरबादी से बचा जा सकेगा।
इस दृष्टि से निर्धनता दूर करने के लिए लागू किए गए कार्यक्रमों की मुख्य उपलब्धियां इस प्रकार हैं -
निर्धनता रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के प्रतिशत में कमी हुई है। वर्ष 1973-74 में यह 55 प्रतिशत थी जो वर्ष 1999-2000 में कम होकर 26 प्रतिशत हो गई।
निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रमों के कारण गरीब लोगों की मजदूरी अर्थात् आय में वृद्धि हुई है। इससे उनके पोषण स्तर में वृद्धि को सहायता प्राप्त हुई है।
किन्तु सरकार द्वारा लागू किए गए कार्यक्रमों से स्थायी एवं वांछित परिणाम नहीं प्राप्त हो सके जिसके लिए उत्तरदायी प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-
- जटिल कार्यविधि के कारण प्रशासन तथा कार्यान्वित कर्मचारीगण प्रभावपूर्ण ढंग से अपना कार्य सम्पन्न करने में असफल रहे। उनकी प्रगति को देखने का भी कोई प्रबन्ध नहीं था।
- कार्यक्रम को चलाने वाले अधिकारी भी निर्धन व्यक्तियों की अपेक्षा धनी, शिक्षित तथा साधन सम्पन्न व्यक्तियों को संरक्षण प्रदान करते थे।
- दूरस्थ क्षेत्रों तथा वास्तविक निर्धन लोगों जो गावों में निम्न जीवन स्तर में रहते थे, उनकी अवहेलना की गई।
- साख, विपणन, आदि सुविधाएं प्रदान करने वाली जिन संस्थाओं की आवश्यकता थी, उनसे विशेष समर्थन प्राप्त नहीं हो सका।
- 'निर्धन' की परिभाषा स्पष्ट न होने के कारण गैर निर्धन लोगों ने कार्यक्रमों का लाभ उठाया। गांवों के शक्तिशाली समूहों ने कार्यक्रम को कार्यान्वित करने वाले अधिकारियों से मिल कर वितरण प्रणाली को अपने पक्ष में कर लिया। फलस्वरूप, वास्तव में जो निर्धन हैं वह समूह कार्यक्रम के लाभों से वंचित रहा।
- निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रम सरकार द्वारा समर्थित कार्यक्रम थे, आम जनता का इसे समर्थन प्राप्त नहीं था।
- निर्धनता उन्मूलन रणनीति को समूची विकास रणनीति के साथ नहीं जोड़ा गया। दूसरे इन कार्यक्रमों ने समूची अर्थव्यवस्था की कार्यप्रणाली को संशोधित करने का कोई प्रयत्न नहीं किया, जो कि निर्धनता का मूल कारण है। इस तथ्य पर कोई विचार नहीं किया गया कि निर्धन व्यक्ति इस कार्यक्रम का लाभ उठाने में असमर्थ रहेंगे। क्योंकि उनमें कौशल तथा पहल शक्ति का नितान्त अभाव पाया जाता है।
- गरीबी निवारण के कार्यक्रमों की सफलता को जांचने के लिए इस कसौटी का प्रयोग करना कि गरीबी की रेखा को कितने लोग पार कर सके हैं, उपर्युक्त नहीं है। इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि गरीबी . की रेखा से नीचे रह रहे विभिन्न लोगों के आय स्तरों पर क्या प्रभाव पड़ रहा है।
निष्कर्ष
इसमें कोई सन्देह नहीं कि सरकार ने बहुत अधिक राशि निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रमों पर खर्च किए हैं। किन्तु इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि उन कार्यक्रमों ने अच्छे परिणाम नहीं दिखाए। तुच्छ परिणामों का मुख्य कारण सरकारी मशीनरी का दोषपूर्ण होना है। इसी संदर्भ में स्वर्गीय प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि सरकार द्वारा निर्धन व्यक्तियों के लिए जो सहायता जारी की जाती, है उसका केवल 15 प्रतिशत ही वास्तव में उन तक पहुँचता है। आशय यह है कि संरचना में आमूल परिवर्तन किये जाने के साथ-साथ निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रमों को और अधिक प्रभावी बनाने की आवश्यकता है।