लोक प्रशासन क्या है, अर्थ एवं परिभाषा, महत्त्व, क्षेत्र | lok prashasan

लोक प्रशासन

मानव एक सामाजिक प्राणी है। वह सदैव समाज में रहता है। प्रत्येक समाज को बनाये रखने के लिए कोई न कोई राजनीतिक व्यवस्था अवश्य होती है इसलिये यह माना जा सकता है कि उसके लिये समाज तथा राजनीतिक व्यवस्था अनादि काल से अनिवार्य रही है। अरस्तू ने कहा है कि "यदि कोई मनुष्य ऐसा है, जो समाज में न रह सकता हो, या जिसे समाज की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह अपने आप में पूर्ण है, तो वह अवश्य ही एक जंगली जानवर या देवता होगा।" प्रत्येक समाज में व्यवस्था बनाये रखने के लिये कोई न कोई निकाय या संस्था होती है, चाहे उसे नगर-राज्य कहें अथवा राष्ट्र-राज्य राज्य, सरकार और प्रशासन के माध्यम से कार्य करता है।
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राज्य के उद्देश्य और नीतियाँ कितनी भी प्रभावशाली, आकर्षक और उपयोगी क्यों न हों, उनसे उस समय तक कोई लाभ नहीं हो सकता, जब तक कि उनको प्रशासन के द्वारा कार्य रूप में परिणित नहीं किया जाये। इसलिये प्रशासन के संगठन, व्यवहार और प्रक्रियाओं का अध्ययन करना आवश्यक हो जाता है। चार्ल्स बियर्ड ने कहा है कि कोई भी विषय इतना अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना कि प्रशासन है। राज्य एवं सरकार का, यहाँ तक कि, स्वयं सभ्यता का भविष्य, सभ्य समाज के कार्यों का निष्पादन करने में सक्षम प्रशासन के विज्ञान, दर्शन और कला के विकास करने की हमारी योग्यता पर निर्भर है।" डॉनहम ने विश्वासपूर्वक बताया कि “यदि हमारी सभ्यता असफल होगी तो यह मुख्यतः प्रशासन की असफलता का कारण होगी। यदि किसी सैनिक अधिकारी की गलती से अणु बम छूट जाये तो तृतीय विश्व युद्ध शुरू हो जायेगा, और कुछ ही क्षणों में विकसित सभ्यताओं के नष्ट होने की सम्भावनाएँ उत्पन्न हो जायेंगी।"

ज्यों-ज्यों राज्य के स्वरूप और गतिविधियों का विस्तार होता गया है, त्यों-त्यों प्रशासन का महत्त्व बढ़ता गया है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि हम प्रशासन की गोद में पैदा होते हैं, पलते है, बड़े होते हैं, मित्रता करते, एवं टकराते हैं, और मर जाते हैं। आज की बढ़ती हुई जटिलताओं का सामना करने में, व्यक्ति एवं समुदाय, अपनी सीमित क्षमताओं और साधनों के कारण, स्वयं को असमर्थ पाते हैं। चाहे अकाल, बाढ़, युद्ध या मलेरिया की रोकथाम करने की समस्या हो अथवा अज्ञान, शोषण, असमानता या भ्रष्टाचार को मिटाने का प्रश्न हो, प्रशासन की सहायता के बिना अधिक कुछ नहीं किया जा सकता । स्थिति यह है कि प्रशासन के अभाव में हमारा अपना जीवन, मृत्यु के समान भयावह और टूटे तारे के समान असहाय लगता है। हम उसे अपने वर्तमान का ही सहारा नहीं समझते, वरन् एक नयी सभ्यता, संस्कृति, व्यवस्था और विश्व के निर्माण का आधार मानते हैं। हमें अपना भविष्य प्रशासन के हाथों में सौंप देने में अधिक संकोच नहीं होता।

प्रशासन की आवश्यकता सभी निजी और सार्वजनिक संगठनों को होती है। डिमॉक एवं कोइंग ने कहा है कि "वही (प्रशासन) यह निर्धारण करता है कि हम किस तरह का सामान्य जीवन बितायेंगे और हम अपनी कार्यकुशलताओं के साथ कितनी स्वाधीनताओं का उपभोग करने में समर्थ होंगे। प्रशासन स्वप्न और उनकी पूर्ति के बीच की दुनिया है। उसे हमारी व्यवस्था, स्वास्थ्य और जीवनशक्ति की कुन्जी माना जा सकता है।
जहाँ स्मिथबर्ग, साइमन एवं थॉमसन उसे "सहयोगपूर्ण समूह व्यवहार" का पर्याय मानते हैं, वहाँ मोस्टन मार्क्स के लिये वह “प्रत्येक का कार्य है। वस्तुतः प्रशासन सभी नियोजित कार्यों में विद्यमान होता है, चाहे वे निजी हों अथवा सार्वजनिक। उसे प्रत्येक जनसमुदाय की सामान्य इच्छाओं की पूर्ति में निरत व्यवस्था माना जा सकता है।

प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था को प्रशासन की आवश्यकता होती है, चाहे वह लोकतंत्रात्मक हो अथवा समाजवादी या तानाशाही । एक दृष्टि से, प्रशासन की आवश्यकता लोकतंत्र से भी अधिक समाजवादी व्यवस्थाओं को रहती है। समाजवादी व्यवस्थाओं के सभी कार्य प्रशासकों द्वारा ही सम्पन्न किये जाते हैं। लोकतंत्रात्मक व्यवस्थाओं में व्यक्ति निजी तोर पर तथा सूचना समुदाय भी सार्वजनिक जीवन में अपना योगदान देते हैं। यद्यपि यह कहा जा सकता है कि प्रशासन का कार्य समाजवाद की अपेक्षा लोकतंत्र में अधिक कठिन होता है। समाजवाद में प्रशासन पूरी तरह से एक राजनीतिक दल द्वारा नियन्त्रित और निर्देशित रहता है। इससे प्रशासन का नीतिगत एवं निर्णय संबंधी दायित्व अपेक्षाकृत कम हो जाता है। प्रजातंत्र में प्रशासन के बिना लोकतंत्र की सफलता मृगतृष्णा मात्र होती है। ए. डी. गोरवाला के अनुसार प्रजातंत्र में योजनाओं की सफलता के लिये एक स्वच्छ, कुशल एवं निष्पक्ष प्रशासन का होना अत्यन्त आवश्यक है।

प्रशासन सामान्य लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु नीतियों एवं निर्णयों के क्रियान्वयन में संलग्न रहता है। वह इनके सन्दर्भ में प्रत्येक नागरिक और समुदाय के आचरण का नियंत्रण, नियमन और निर्देशन करता है अर्थात वह व्यक्ति और समुदाय को सामान्य लक्ष्यों की ओर अभिमुख करता है। साथ ही साथ प्रशासन इन सामान्य लक्ष्यों एवं नीतियों की क्रियान्विति दशाओं का निर्माण भी करता चलता है। ऑर्डवे टीड़ ने सही कहा है कि "प्रशासन एक नैतिक कार्य है और प्रशासक एक नैतिक अभिकर्ता है।" प्रशासन अपनी क्रियाओं द्वारा सामान्य जीवन को नैतिकता एवं उच्च आदर्शों की दिशा में ले जाने का प्रयास करता है। बाह्य कार्यों तक सीमित होते हुए भी उसे “सामूहिक नैतिकीकरण" की व्यापक प्रक्रिया के रूप में देखा जा सकता है। प्रशासन को साँचों में ढाल कर जीवन्त एवं मूर्त बनाये बिना अध्यात्म और नैतिकता कोरी कवि-कल्पना अथवा अमूर्त चिन्तन मात्र है। यदि कोई व्यक्ति आध्यात्म और नैतिकता में विश्वास न भी करे तो भी सांसारिक जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिये उसको प्रशासन एवं प्रबन्ध का ज्ञान प्राप्त करना पड़ेगा। आधुनिक राज्य, समाज और उद्योग एवं अन्य क्षेत्र भी इन्हीं के माध्यम से कार्य करते हैं।

प्रशासन का क्षेत्र इतना व्यापक हो गया है कि सोशर के अनुसार, उसे एक-दो वाक्यों वाली परिभाषाओं में नहीं बांधा जा सकता। विस्तृत परिभाषाओं पर यदि दूसरे लोग मजाक उड़ायेंगे, तो संकुचित परिभाषाओं को देखकर प्रशासन के विद्यार्थियों का दम घुट जायेगा। साइमन ने भी इसी तरह व्यापक दृष्टिकोण अपनाया है उनका कहना है कि "प्रशासन सभी सहयोगपूर्ण व्यवहार के प्रतिमानों से संबद्ध होता है अतः कोई भी व्यक्ति जो दूसरे व्यक्तियों के साथ किसी गतिविधि में सहयोग करता है, वह प्रशासन में लगा हुआ है।

प्रशासन का अर्थ एवं परिभाषा

“सरकार” या “शासन” (Government) किसी राजनीतिक व्यवस्था की सबसे बड़ी इकाई का नाम है। प्रशासन उसके अधीन रहकर शासन के लक्ष्यों को विस्तारपूर्वक कार्य रूप में परिणित करता है। इसी कारण राज्य के लक्ष्य प्रशासन के लक्ष्य कहे जाते हैं। किन्तु दोनों का अन्तर स्पष्ट और स्थायी है। प्रशासन शासन के अधीनस्थ रहकर कार्य करने वाला विशिष्ट मानवीय संयंत्र है। प्रशासन शब्द अंग्रेजी भाषा के “एडमिनिस्ट्रेशन" (Administration) का हिन्दी अनुवाद है| Administration शब्द की व्युत्पति, लैटिन भाषा के दो शब्दों 'Ad' तथा 'Ministrare' से हुई है। इनका अर्थ है – “सेवा करना" या "प्रबन्ध करना। शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से "प्रशासन" का अर्थ है, “कार्यों का प्रबन्ध करना | अच्छे ढंग से, कम समय और कम खर्चे में सामूहिक रूप से कार्य करने की व्यवस्था को 'प्रशासन' कहा जाता है।

प्रशासन के स्वरूप को अच्छी तरह से समझने के लिए उसके अग्रलिखित चार रूपों का ध्यान रखना चाहिये-
  • प्रथम : उसे सरकार या कार्यपालिका का पर्याय माना जाता है।
  • द्वितीय : यही एक ऐसा ज्ञान है जो किसी व्यापारिक, औद्योगिक अथवा राजनीतिक संस्था के अध्ययन से संबंधित होता है।
  • तृतीय : सार्वजनिक नीतियों अथवा लक्ष्यों को क्रियान्वित करने वाली क्रियाओं के समूह को भी प्रशासन कहा जाता है। ऐसी निरन्तर की जाने वाली क्रियाओं की दृष्टि से उसे "प्रक्रिया तथा, क्रियाओं का निष्पादन करने वाले व व्यक्ति समूह की दृष्टि से उसे एक निकाय, संस्था या संरचना माना जा सकता है।
  • चतुर्थ : प्रशासन एक ऐसी कला है जिसका संबंध "प्रबन्ध करने" से है।

मूलतः प्रशासन एक ऐसी "प्रक्रिया" है जो सभी सामूहिक प्रयासों में चाहे वे सार्वजनिक, निजी, सैनिक या असैनिक हो, पायी जाती है। लेपावस्की के अनुसार, चाहे उसे प्रबन्ध कहें या संगठन, कार्यपालिका कहें या लोक प्रशासन, एक कला और प्रविधि के रूप में वह सभ्य मानव के अनुभव के साथ ही सदा ही जुड़ा रहा है। साइमन ने कहा है कि "अति विस्तृत अर्थ में, समान लक्ष्यों को पूरा करने के लिये समूहों द्वारा सहयोगपूर्ण ढंग से की गयी क्रियाएँ ही प्रशासन है। गुलिक ने सुपरिभाषित उद्देश्यों की पूर्ति को उपलब्ध कराने को प्रशासन कहा है। स्मिथबर्ग, साइमन आदि ने समान लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये सहयोग करने वाले समूहों की गतिविधि को प्रशासन माना है। फिफनर व प्रिस्थस के मतानुसार, प्रशासन “वांछित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये मानवीय तथा भौतिक साधनों का संगठन एवं संचालन है।" एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका ने उसे “कार्यों के प्रबन्ध अथवा उनको पूरा करने की क्रिया बताया है। नीग्रो के अनुसार, "प्रशासन लक्ष्य की प्राप्ति के लिये मनुष्य तथा सामग्री का उपयोग एवं संगठन है। व्हाइट के विचारों में, वह "किसी विशिष्ट उद्देश्य अथवा लक्ष्य की प्राप्ति के लिये बहुत से व्यक्तियों का निर्देशन, नियन्त्रण तथा समन्वयन की कला है।"

उपर्युक्त परिभाषाओं की दृष्टि से, प्रशासन के सामान्य लक्षण अग्रलिखित रूप से बताये जा सकते हैं-
  1. मनुष्य तथा भौतिक साधनों का समन्वयन ।
  2. सामान्य लक्ष्यों अथवा नीति का पूर्व निर्धारण ।
  3. संगठन एवं मानवीय सहयोग ।
  4. मानवीय गतिविधियों का निर्देशन और नियंत्रण,
  5. लक्ष्यों की प्राप्ति ।
इन सभी लक्षणों को टीड की परिभाषा में देखा जा सकता है कि "प्रशासन वांछित परिणाम की प्राप्ति के लिये मानव प्रयासों के एकीकरण की समावेशी प्रक्रिया है।

इन सभी परिभाषाओं में प्रशासन की बड़ी व्यापक व्याख्याएँ की गयी हैं। हमारा उद्देश्य सभी प्रकार के मानव समूहों में पाये जाने वाले “प्रशासन" का अध्ययन करना नहीं है। हम केवल सार्वजनिक अथवा लोकनीतियों के क्रियान्वयन से संबंधित प्रशासन का अध्ययन करना चाहते हैं। इसी कारण, हमारे विषय । को “सार्वजनिक या लोक प्रशासन' कहा गया है। यहीं लोक प्रशासन सामान्य प्रशासन से पृथक् एवं विशिष्ट हो जाता है। लोक प्रशासन के सिद्धान्त एवं कार्यप्रणालियाँ अन्य क्षेत्रों में उपलब्ध प्रशासनों को अधिकाधिक मात्रा में प्रभावित करती जा रही हैं।

लोक प्रशासन का अर्थ एवं परिभाषाएँ

प्रशासन का वह भाग जो सामान्य जनता के लाभ के लिये । होता है, लोक प्रशासन कहलाता है। लोक प्रशासन का संबंध सामान्य अथवा सार्वजनिक नीतियों से होता है।

व्हाइट के शब्दों में, लोक प्रशासन में “वे गतिविधियाँ आती है जिनका प्रयोजन सार्वजनिक नीति को पूरा करना अथवा क्रियान्वित करना होता है।"

वुडरो विल्सन के अनुसार, "लोक प्रशासन विधि अथवा कानून को विस्तृत एवं क्रमबद्ध रूप में कियान्वित करने का काम है। कानून को क्रियान्वित करने की प्रत्येक क्रिया प्रशासकीय क्रिया है।

डिमॉक ने बताया कि प्रशासन का संबंध सरकार के "क्या" और "कैसे" से है। “क्या” से अभिप्राय विषय में निहित ज्ञान से है, अर्थात् वह विशिष्ट ज्ञान, जो किसी भी प्रशासकीय क्षेत्र में प्रशासक को अपना कार्य करने की क्षमता प्रदान करता हो। “कैसे" से अभिप्राय प्रबन्ध करने की उस कला एवं सिद्धान्तों से है, जिसके अनुसार, सामूहिक योजनाओं को सफलता की ओर ले जाया जाता है।

हार्वे वाकर ने कहा कि “कानून को क्रियात्मक रूप प्रदान करने के लिये सरकार जो कार्य करती है, वही प्रशासन है। विलोबी के मतानुसार, "प्रशासन का कार्य वास्तव में सरकार के व्यवस्थापिका अंग द्वारा घोषित और न्यायपालिका द्वारा निर्मित कानून को प्रशासित करने से सम्बद्ध है।"

पर्सी मेक्वीन ने बताया कि "लोक प्रशासन सरकार के कार्यों से संबंधित होता है, चाहे वे केन्द्र द्वारा सम्पादित हों अथवा स्थानीय द्वारा ।

व्यापक गतिविधि (Generic activity) के रूप में वाल्डो ने इसे “बौद्धिकता की उच्च मात्रा युक्त सहयोगपूर्ण मानवीय-क्रिया" कहा है।

सिद्धान्त एवं विश्लेषण की दृष्टि से लोक प्रशासन एवं निजी प्रशासन, सामान्य प्रशासन के ही दो विशिष्ट रूप हैं किन्तु इन दोनों रूपों में मौलिक समानताएँ पायी जाती हैं। वर्तमान समय में, इनके मध्य चली आ रही असमानताएँ क्रमशः कम होती जा रही हैं। इसी प्रकार, प्रबन्ध भी प्रशासन से भिन्न न होकर उसी का संचालन एवं निर्देशात्मक भाग है। इस अध्याय की केन्द्रीय धारणा है कि निजी व सार्वजनिक प्रशासन तथा प्रबन्ध में बड़ा घनिष्ठ संबंध है। उनकी असमानताओं के बजाय समानताएँ अधिक महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी हैं। भारत तथा अन्य विकासशील देशों को प्रशासन का व्यापक परिप्रेक्ष्य ही अपनाना चाहिये।

लोक प्रशासन को संकुचित एवं व्यापक दृष्टिकोणों के आधार पर भी विभिन्न प्रकार से परिभाषित किया गया है।

व्यापक दृष्टिकोण के अनुसार, कुछ परिभाषाएँ इस प्रकार है-
  • "राजनीति-विज्ञान" में प्रशासन शब्द का दो अर्थों में प्रयोग किया जाता है। अतिव्यापक अर्थों में यह शब्द शासकीय मामलों का वास्तविक संचालन प्रकट करता है। इस प्रकार, शासन की विधायी शाखा व्यवस्थापिका का प्रशासन, न्यायिक कार्यों या न्यायपालिका के प्रशासन तथा शासन की प्रशासकीय शाखा से संबधित कार्यों का प्रशासन या सामान्यतः शासन के सभी कार्यों को चलाने के बारे में कहना उचित है। अति संकुचित अर्थो में, यह केवल प्रशासकीय शाखा की क्रियाओं को ही सूचित करता है।" - विलोबी
  • "लोक प्रशासन प्रशासकीय विज्ञान का वह भाग है, जिसका संबंध शासन से है। इस कारण वह मुख्यतः कार्यपालिका शाखा से, जहाँ शासन का कार्य किया जाता है। सम्बद्ध रहता है, यद्यपि स्पष्ट तौर पर व्यवस्थापिका और न्याय शाखाओं से संबंधि त समस्याएँ भी प्रशासनिक समस्याएँ होती हैं। - लूथर गुलिक 
  • "सामान्य प्रयोग में लोक प्रशासन से अभिप्राय उन क्रियाओं से है जो केन्द्र, राज्य अथवा स्थानीय सरकारों द्वारा सम्पन्न की जाती है। – साइमन
  • "लोक प्रशासन" के शाब्दिक अर्थों में, न्याय प्रशासन में न्यायालयों के कार्य, सरकार की कार्यकारिणी शाखा में- सैनिक तथा असैनिक, सभी अभिकरणों के कार्य शामिल किये जाते हैं। लोक प्रशासन के किसी पूर्ण ग्रंथ में, विधायी प्रबन्ध के अतिरिक्त, न्यायिक संरचनाओं तथा क्रियाविधि पर विचार करने के साथ-साथ सेनाओं द्वारा प्रयुक्त विशेष तंत्र तथा पद्धतियों का अध्ययन करना पड़ेगा। - मोर्टीन मार्क्स
इस प्रकार व्यापक अर्थों में दी गयी परिभाषाएँ लोक प्रशासन में, सरकार की तीनों शाखाओं- कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका द्वारा निष्पादित सभी क्रियाओं को शामिल कर लेती हैं किन्तु अनेक प्रशासन-वेत्ता इस समावेशी दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार लोक प्रशासन में केवल उन्हीं गतिविधियों का समावेश किया जाना चाहिये, जिनका निष्पादन कार्यपालिका अथवा प्रशासकीय शाखा के द्वारा किया जाता है। साइमन के अनुसार, “साधारण भाषा में लोक प्रशासन का अर्थ राष्ट्रीय, प्रान्तीय तथा स्थानीय सरकारों, स्वतंत्र आयोगों तथा सरकारी निगमों की कार्यपालिका शाखाओं से होता है परन्तु उसमें न्यायिक एवं विधायी अभिकरणों को शामिल नहीं किया जाता।

संकुचित दृष्टिकोण को अपनाकर दी गयी कुछ परिभाषाएँ इस प्रकार हैं-
"लोक प्रशासन में वे सभी क्रियाएँ आ जाती हैं, जिनका प्रयोजन सक्षम सत्ता द्वारा घोषित प्रशासकीय नीतियों को पूरा करना अथवा कार्यान्वित करना है।' – व्हाइट
"लोक प्रशासन विधि (Law) का विस्तृत एवं व्यवस्थित रूप से क्रियान्वयन है। विधि को क्रियान्वित करने की प्रत्येक प्रशासकीय क्रिया प्रशासन है। – वुडरो विल्सन
"जब प्रशासन का संबंध राज्य के अथवा म्युनिसिपल बोर्ड, काउन्टी कौंसिल अथवा जिला बोर्ड जैसी छोटी राजनीतिक संस्थाओं के कामों के साथ होता है, तो उसे “लोक प्रशासन" की संज्ञा प्रदान की जाती है। – एम. रत्नास्वामी
"किसी कार्य को पूरा करना और उसका उद्देश्य ऐसी योजनाओं को बनाना है जिसके अनुसार सरकार की कोई भी नीति सफलतापूर्वक क्रियान्वित हो सके। - मर्सन

परिभाषाओं का वर्गीकरण

उपर्युक्त परिभाषाओं का वर्गीकरण लोकप्रशासन की प्रकृति एवं क्षेत्र की दृष्टि से किया जा सकता है। डॉ. एम.पी. शर्मा ने इनके चार वर्ग बताये हैं-

प्रकृति व्यापक, किन्तु क्षेत्र संकुचित
इसमें व्हाइट की परिभाषा को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। उसके अनुसार, लोक प्रशासन में सभी (प्रकृति) क्रियाएँ है किन्तु उनका प्रयोजन घोषित नीतियों का क्रियान्वयन (क्षेत्र) है।

प्रकृति एवं क्षेत्र दोनों संकुचित
इस वर्ग में मार्क्स, साइमन और मर्सन शामिल किये जा सकते हैं।

प्रकृति संकुचित एवं क्षेत्र व्यापक
लूथर गुलिक इस वर्ग में आते हैं। उनके अनुसार, "प्रशासन का संबंध निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये (प्रकृति) कार्य की पूर्ति (क्षेत्र) से है।"

प्रकृति एवं क्षेत्र दोनों व्यापक
इस वर्ग का प्रतिनिधित्व डिमॉक और फिफनर करते है।

निष्कर्ष यह है कि सिद्धान्त रूप में लोक प्रशासन का क्षेत्र बहुत व्यापक है। उसमें कार्यपालिका, व्यवस्थापिका तथा न्यायपालिका के कार्यों का प्रशासनिक दृष्टि से अध्ययन किया जा सकता है किन्तु व्यवहार में वह केवल कार्यपालिका शाखा के कार्यकलापों के अध्ययन को प्राथमिकता देता है।
मार्क्स और साइमन ने इस स्थिति का समर्थन करते हुए बताया है कि लोक प्रशासन से हमारा अभिप्राय मुख्यतः संगठन, सेवी वर्ग के कार्यों तथा कार्य करने की उन प्रणालियों से होता है, जो कार्यपालिका को सौंपे गये नागरिक तथा असैनिक कार्यों को प्रभावशाली ढंग से पूरा करने के लिये आवश्यक होते हैं परन्तु लोक प्रशासन अन्य अंगों के कार्यों से सर्वथा उदासीन नहीं रह सकता। यह कहा जा सकता है कि कानून बनाने व न्याय करने का काम भी लोक प्रशासन के स्वरूप और गतिविधियों की गहरी जानकारी चाहता है। ऐसा ज्ञान होने पर विधायक क्रियान्वयन योग्य विधि का निर्माण करने, तथा न्यायाधीश जानकारी व प्रभावपूर्ण न्याय प्रदान करने का कार्य कुशलतापूर्वक कर सकते हैं।

आजकल गैर सरकारी क्षेत्र की लगभग सभी गतिविधियों का आकार-प्रकार सार्वजनिक, सामाजिक एवं उत्तरदायित्वपूर्ण होता जा रहा है। यह कहा जा सकता है कि निजी क्षेत्र सार्वजनिक क्षेत्र के निकट आता जा रहा है। इस दृष्टि से लोक प्रशासन की गतिविधियाँ एवं स्वरूप निजी क्षेत्र को भी प्रभावित करती जा रही हैं। लूथर गुलिक ने कहा है कि प्रशासन का संबंध कार्यों का निष्पादन करने, तथा साथ ही साथ निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति से होता है। प्रशासन में वे सभी कार्य आ जाते हैं, जो लक्ष्य को पूरा करने के लिये सम्पादित किये जाते हैं। वह सहयोगपूर्ण समूह व्यवहार है। सभी जगह लक्ष्य को पूरा करा सकने वाली प्रशासनिक योग्यता की आवश्यकता होती है। हेनरी फेयोल के अनुसार “यह वही प्रशासनिक योग्यता है जिसकी आवश्यकता उद्योग, सरकार और घरेलू प्रबन्ध में आवश्यक होती है। प्रशासनिक प्रयास सब जगह एक सा होता है।'

लोक प्रशासन का संबंध सरकार की उन सभी क्रियाओं एवं गतिविधियों से है जिन्हें विधि तथा लोकनीति के क्रियान्वयन हेतु सम्पन्न किया जाता है। परन्तु इसके साथ ही वह एक संरचना या संगठन, एक प्रक्रिया तथा व्यवसाय (Vocation) भी है। एक संरचना या संगठन के रूप में अभिप्राय उसके निर्धारित स्वरूप तथा मानवीय गठन से लिया जाता है। एक प्रक्रिया के रूप में वह लोकनीति के क्रियान्वयन हेतु, प्रारम्भ से अन्तिम स्तर तक उठाये जाने वाली क्रियाओं की लम्बी श्रृंखला है। एक धन्धे के रूप में वह एक आजीविका का साधन, कलाकौशल, या सामाजिक आर्थिक गतिविधि है। इन तीनों रूपों का अध्ययन हम एक शैक्षिक विषय या अनुशासन (Discipline) के रूप में करते हैं और इसके संबंध में ज्ञानवर्धन विचारों का आदान प्रदान, चिन्तन, अध्ययन, शोध आदि हमारा व्यवसाय (Profession) हो जाता है। हम प्रशासन का शासन के लिये उपयोग या प्रयोग करने के बजाय स्वतंत्र अध्ययन करते हैं। इन सभी स्थितियों के बारे में, वाल्डो के अनुसार कहा जा सकता है कि "लोक प्रशासन मानवीय सहयोग का एक पहलू तथा विभिन्न वर्गों वाले प्रशासन से संबंधित एक वर्ग है।" यह वर्ग "उच्च कोटि की विचार-शक्ति से युक्त” सामूहिक मानवीय प्रयत्नों में लगा हुआ है।

ग्लेडन के अनुसार, भले ही “प्रशासन लम्बा और भारी-भरकम शब्द लगता है किन्तु इसका एक विनयपूर्ण अर्थ है,-लोगों की देखभाल करना और कार्यों का प्रबन्ध करना। यह जनता का स्वामी न होकर सेवक है। पूर्व बताये गये प्रशासन के लक्षणों में, अग्रलिखित को और जोड़कर लोक प्रशासन के लक्षणों को पूरी तरह से निम्न प्रकार से बताया जा सकता है कि-
  • लोक प्रशासन का संबंध सार्वजनिक समस्याओं से है,
  • लोक प्रशासन का संबंध सरकारी कार्यों से होता है, तथा
  • उसका लक्ष्य सार्वजनिक विधियों एवं नीतियों को कार्यान्वित करना है।

एकीकृत एवं प्रबन्धात्मक दृष्टिकोण

प्रशासन में किन-किन गतिविधियों, कार्यकलापों अथवा प्रक्रियाओं को शामिल किया जाए, तथा उसको किस दृष्टि से देखा जाए जैसे प्रश्नों का व्यापक एवं विशिष्ट दृष्टिकोण से उत्तर दिया जा सकता है। इन्हें एकीकृत (Integrated) तथा प्रबन्धात्मक (Managerial Views) दृष्टिकोण कहा गया है। एकीकृत दृष्टिकोण के अनुसार प्रशासन में वे सभी क्रियाएँ जो निर्धारित लक्ष्यों एवं उद्देश्यों की पूर्ति के लिये की जाती हैं, शामिल की जाती हैं। उदाहरण के लिये साइमन ने कहा है कि "सामान्य लक्ष्यों की पूर्ति के लिए सहयोग करने वाले वर्गों की क्रियाएँ ही प्रशासन है।"

प्रबन्धात्मक दृष्टिकोण के अनुसार प्रशासन में केवल नियोजन, संगठन, समन्वयन, निर्देशन, नियन्त्रण, पर्यवेक्षण आदि कार्य ही शामिल किये जाने चाहिये। उसमें नैत्यिक व शारीरिक कार्य सम्मिलित नहीं किये जाते। एक अध्यापक, यान्त्रिक, लिपिक या चपरासी को प्रशासक नहीं कहा जा सकता। दूसरों से काम लेने या काम कराने को प्रशासन कहा जाता है। उसमें कुछ वांछित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये मनुष्यों और सामग्री के उचित संगठन, निर्देशन और प्रबन्ध को ही शामिल किया जाना चाहिये। आर्डवे टीड ने कहा कि "किसी संगठन के उन व्यक्तियों की आवश्यक क्रियाओं को प्रशासन माना जाता है, जिन्हें अधिकार होता है कि वे कुछ निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति के लिये एक साथ एकत्रित व्यक्तियों के वर्ग के सामूहिक प्रयत्नों के संबंध में आदेश दे सके, उन्हें आगे बढ़ा सके तथा सुविधाजनक बना सके।

प्रशासन के संबंध में उपर्युक्त दोनों दृष्टिकोण एकतरफा, एकांगी और अपूर्ण हैं। प्रशासन में, कार्यों की व्यवस्था कराने वाले तथा कार्यों को क्रियान्वित करने वाले दोनों महत्त्वपूर्ण हैं। प्रबन्ध यदि कुशल और योग्य है, तो भी यदि शारीरिक व नैत्यिक कार्य करने वाले ठीक नहीं हैं, तो सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती। सिपाही की समस्याओं एवं क्षमताओं पर ध्यान न देने वाला सेनापति सफल नहीं हो सकता। वस्तुतः प्रशासन में दोनों ही प्रकार की गतिविधियाँ होती हैं। उच्च स्तर पर यदि प्रशासन अथवा प्रबन्ध का कार्य अधिक नैत्यिक यान्त्रिक कार्य कम होता है, तो निम्न स्तरों पर क्रमशः प्रबन्धात्मक कार्य कम तथा नैत्यिक या यान्त्रिक कार्य अधिक हो जाता है। प्रबन्धात्मक कार्यों का अत्यधिक महत्त्व है, किन्तु क्रियान्वयन भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं होता।

प्रबन्धात्मक दृष्टिकोण "तकनीकी' होने के कारण स्पष्टता लिये हुए है। यह वाणिज्य, उद्योग तथा उच्च सेवाओं में अधिक लोकप्रिय है। इसकी लोकप्रियता का कारण सरलता और सूक्ष्मता है। किन्तु लोक प्रशासन की गतिविधियों को प्रबन्ध तक सीमित रखना अवास्तविक, अव्यवहारिक तथा एकांगी कार्य होगा।
इससे प्रशासन का अध्ययन अमूर्त हो जायेगा। यह दृष्टिकोण क्षेत्र से संबंधित “पोस्डकॉर्ब" विचारधारा से मिलता-जुलता है, जो इस प्रकार से गृह प्रबन्धात्मक गतिविधियों का समूहन है। इस कारण यह दृष्टिकोण स्वेच्छारिता लिये हुए है। इस दृष्टिकोण को अपना कर प्रशासन के "हृदय" तक नहीं पहुंचा जा सकता।

लोक प्रशासन की प्रकृति : कला अथवा विज्ञान

लोक प्रशासन का प्रयोग दो दृष्टिकोणों या परिप्रेक्ष्यों को अपनाकर किया जाता है। एक दृष्टिकोण से वह प्रक्रिया, गतिविधियों या कार्यों का प्रतिमान है। इस अर्थ में वह शासकीय मामलों के संचालन से संबद्ध है। दूसरे दृष्टिकोण से प्रशासन की गतिविधियों अथवा कार्यों का बौद्धिक या वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन किया जाता है और निष्कर्ष निकाले जाते हैं। प्रथम परिप्रेक्ष्य के अनुसार लोक प्रशासन कला है। चार्ल्सवर्थ के अनुसार, वह कला इसलिये है कि उसके संचालन के लिए अत्यधिक कुशल नेतृत्व, उत्साह तथा उच्च आस्थाओं की आवश्यकता होती है। आर्डवे टीड की दृष्टि से, प्रशासन “एक ललित कला (Fine Art) है क्योंकि वही सभ्य जीवन बिताने के लिये सहयोगपूर्ण रचना हेतु विशिष्ट प्रतिभा की मांग करती है। डॉ. एम.पी.शर्मा ने इसे “कलाओं में सर्वश्रेष्ठ" (The highest of Arts) माना है। एक कला के रूप में उसे अनादि काल से पहचाना और काम में लिया जा रहा है। कौटिल्य, अकबर, टोडरमल, बिस्मार्क, सरदार वल्लभभाई पटेल, नेपोलियन आदि को प्रशासन के महान कलाकार माना जा सकता है। मानव जीवन के उच्चतम लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये उन्होंने मानवीय, भौतिक तथा अन्य साधनों का कुशल प्रयोग किया। प्रशासन को उपलब्ध मानवीय एवं सामाजिक साधनों द्वारा सामूहिक जीवन का एक विशेष ढंग से निर्माण करने वाला कलाकार माना जा सकता है।

अच्छे गायक, कलाकार, संगीतकार, कवि, चित्रकार आदि की तरह, इस धारणा के अनुसार, अच्छे प्रशासक भी “पैदा होते है, बनाये नहीं जाते" । प्रशासन, विज्ञान के सिद्धान्तों, नियमों आदि को कितना ही सीख लेने का प्रयत्न क्यों न किया जावे, किन्तु उसके परिणामस्वरूप कोई व्यक्ति एक अच्छा प्रशासक नहीं बन पाता। जिस प्रकार एक कलाकार, कवि या चित्रकार, कला के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति करता है, उसी प्रकार एक प्रशासक प्रशासन के माध्यम से अपनी आत्माभिव्यक्ति करता है। उर्विक, ग्लैडन, टीड (Tead) ने भी इसी प्रकार का समर्थन किया है। एक कला के रूप में, प्रशासन, अरस्तू से लेकर वर्तमान समय तक लगातार बना हुआ है।

ग्लेडन ने लिखा है कि "कला मानव की योग्यता से संबंधित ऐसा ज्ञान है जिसमें सिद्धान्त की अपेक्षा अभ्यास पर विशेष बल दिया जाता है। प्रशासन एक ऐसी कला है, जिसका प्रेरणा स्रोत व्यक्ति का अन्तःकरण है। वह व्यक्ति के अनुभव, चातुर्य, निरन्तर विकास, तथा कतिपय सर्वव्यापी निश्चित नियमों के बारम्बार अभ्यास का परिणाम होती है। उसके साक्षात्कार के लिये विशेष पद्धतियों एवं सामग्री की आवश्यकता होती है। ग्लैडन ने उसे एक ऐसी क्रिया माना है जिसे विशेष प्रकार की कुशलता की आवश्यकता होती है। प्लेटो ने "रिपब्लिक" में प्रशासन के लिये लम्बी अवधि के शिक्षण-प्रशिक्षण का प्रावधान किया है। प्रत्येक कला की तरह प्रशासन भी व्यक्ति के जीवन को अधिक सुखद व अधिक सुन्दर बनाना चाहता है अर्थात् वह भी सत्यम, शिवम् और सुन्दरम् की साधना है। उसके लिये एक प्रशासक को कठिन परिश्रम तथा एक दीर्घ कालीन साधना की आवश्यकता होती है।

किन्तु कला विषयक विचार कुछ अतिशयोक्तिपूर्ण है। जन्म से कोई व्यक्ति सफल प्रशासक नहीं होता। प्रशासन एक ऐसी कला है, जो निपुणता, कुशलता, साधना व अभ्यास द्वारा ही प्राप्त होती है। उसके लिये कठिन साधना व अभ्यास की आवश्यकता होती है किन्तु यह सत्य है कि एक अच्छा प्रशासक बनने के लिये भाव-भरा हृदय, मानवता के प्रति विश्वास, दूरदृष्टि, विवेक आदि गुणों का होना आवश्यक है। एक दृष्टि से प्रशासक अन्य कलाकारों की अपेक्षा अधिक ऊँचा है। अन्य कलाएँ, साहित्य, संगीत आदि अधिकांशतः अमूर्त, अस्थायी, एकांगी और समसामयिक होती है। प्रशासन ठोस और मूर्त रूप से जीवन को अधिक सुन्दर, अधिक आकर्षक तथा अधिक विकासमान बनाने का प्रयास करता है। वह सपनों की दुनिया मे रहने वाला या खो जाने वाला प्राणी न होकर, सपनों को धरती पर उतारने वाला समाजसेवी है। प्रशासक मानव को परलोक के बजाय इसी लोक में सुखी बनाने का सतत् प्रयत्न करता है।

लोक प्रशासन : एक विज्ञान

प्राचीनकाल में लोक प्रशासन मूल रूप से एक कला मात्र ही था किन्तु वर्तमान काल मे वह “विज्ञान" कहलाने के योग्य बन गया है। इस विषय में सभी विद्वान एक मत नहीं हैं और उनके विचार अलग अलग हैं। एक शैक्षिक विषय या ज्ञान की शाखा के रूप में लोक प्रशासन को विज्ञान" के संबंध में तीन स्थितियाँ अथवा मत पाये जाते हैं

(क) लोक प्रशासन अभी विज्ञान नहीं है
इस विचार को एफ.डब्ल्यू. टेलर ने वर्तमान शताब्दी के प्रारम्भ में रखा था। उसके अनुसार प्रबन्ध मनमानी, स्वेच्छाचारी एवं दाब धौंस वाली युक्तियों से काम लेता है। उसके वास्तविक दायित्व प्रत्येक कार्य तथा उसके अंश के लिये एक वैज्ञानिक माप अथवा "सर्वोत्तम रीति" (One best Way) का विकास करना चाहिये। उर्विक का विचार है कि हमें अभी भी एक सुसंगत और युक्तिसंगत प्रतिमान (Pattern) की आवश्यकता है। इस संबंध में डॉ. एम.पी. शर्मा का मत है कि वर्तमान अवस्था में एक विज्ञान के रूप में वह तथ्य संग्रह मात्र से कुछ अधिक नहीं है।

(ख) लोक प्रशासन विज्ञान बनने की प्रक्रिया में है
चार्ल्स बियर्ड ने कहा है कि लोक प्रशासन में पर्याप्त मात्रा में सूक्ष्मता, निश्चितता, एवं पूर्वकथनीयता पायी जाती है। हम जानते हैं कि अच्छे बजट या लेखांकन संबंधी नियमों को पालने का क्या परिणाम होता है ? हम यह भी जानते हैं कि नागरिक सेवा के गठन संबंधी सिद्धान्त का पालन न करने पर प्रशासन का क्या हाल होता है ? हर्बर्ट साइमन ने "प्रशासनिक व्यवहार' (Administrative Behaviour) में परम्परागत धारणाओं की आलोचना करते समय यही दृष्टिकोण अपनाया है। उन्होंने प्रशासन को विज्ञान बनाने के लिये निर्णय प्रक्रिया (decisionmaking) सिद्धान्त का विकास किया । जीव विज्ञान या चिकित्सा विज्ञान का दृष्टान्त देते हुये उन्होंने आग्रह किया है कि एक विज्ञान के रूप में लोक प्रशासन को, संगठन में व्यक्तियों के व्यवहार का अध्ययन करना चाहिये, तथा उसे प्रशासन को चलाने के लिये क्रियात्मक सुझाव देने चाहिये। एक उभरते विज्ञान के रूप में रे जिनाल्ड ई. गिल्मोर ने लोक प्रशासन को "अन्ततोगत्वा विज्ञान" (An Ultimate Science) कहा है। यह मत "विज्ञान" शब्द को पूर्ण विशुद्धता या सूक्ष्मता से ग्रहण न करके उसे अनुभव व अवलोकन द्वारा प्राप्त क्रमबद्ध ज्ञान के रूप में देखता है।

(ग) लोक प्रशासन विज्ञान है
एफ.मर्सन और गुलिक का यही विचार है। विल्सन और विलोबी उसे बहुत पहले से ही विज्ञान मानते रहे हैं। विलोबी के अनुसार प्रशासन में सामान्यतः प्रयोग किये जाने वाले ऐसे मूलभूत सिद्धान्त हैं जो किसी भी विज्ञान की विशिष्टता का वर्णन करने वाले लक्षणों के अनुरूप हैं।” सन् 1937 में लूथर, गुलिक तथा एल. उर्विक ने प्रशासन को विज्ञान मानते हुए विद्वानों के लेखों को एकत्रित कर "प्रशासन -विज्ञान पर निबन्ध (Papers on Sience ofAdministration) नामक पुस्तक लिखी। संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रशासन एवं प्रबन्ध दोनों को, "विज्ञान" माना जाता है। ड्रवाइट वाल्डो ने शासकों को "सामान्यीकरण का विशेषज्ञ कहा है। ग्लेन नेग्ली ने पूरे जोरदार समर्थन के साथ प्रशासन को विज्ञानों के पद सोपान पर सर्वोच्च स्थान प्रदान किया है। प्रशासन में मानव-ज्ञान का उच्चतम संगठन पाया जाता है। प्रायः ये सभी विद्वान लोक प्रशासन को भौतिक विज्ञान की तरह न मानकर “समाज विज्ञान" के रूप में देखते हैं। उनके अनुसार लोक प्रशासन मे विज्ञानत्व की विशेषताएँ विद्यमान हैं।

उपर्युक्त वाद विवाद की समस्या के समाधान का मूल आधार "विज्ञान" संबंधी धारणा है। "विज्ञान" शब्द की परिभाषाएँ अनेक प्रकार से दी गई हैं। “विज्ञान” का अर्थ है -"विशेष या क्रमबद्ध ज्ञान” वह एक दृष्टिकोण, एक प्रमाणित एवं व्यवस्थित ज्ञान तथा खोज करने की पद्धति है। गार्नर के अनुसार, विज्ञान किसी विषय से संबधित उस ज्ञान राशि को कहते हैं जो विधिवत पर्यवेक्षण, अनुभव एवं अध्ययन के आधार पर प्राप्त की गयी हो, तथा जिसके तथ्य परस्पर सम्बद्ध, क्रमबद्ध और वर्गीकृत किये गये हों। विज्ञान इस प्रकार, वह ज्ञान है जो पर्यवेक्षण और प्रयोग पर आधारित हो, भली-भाँति परिक्षित तथा क्रमबद्ध हो, और सामान्य सिद्धान्तों में समाहित हो। वैज्ञानिक ज्ञान तथ्यों के अवलोकन, निश्चित एवं मान्य पद्धतियों के अनुगमन, जाँच तथा निष्पक्ष निष्कर्षण या सामान्य नियमों की प्राप्ति द्वारा उपलब्ध किया जाता है। लोक प्रशासन में ये विषमताएँ काफी मात्रा में पायी जाती हैं। यद्यपि वह भौतिक शास्त्र अथवा रसायन शास्त्र की तरह नहीं है, फिर भी वह ऋतु विज्ञान, खगोल विज्ञान आदि की तरह अवश्य है। लोक प्रशासन में व्यवहारवाद तथा आधुनिक उपागमों के प्रवेश और प्रयोग के पश्चात् विज्ञानत्व की मात्रा निरन्तर बढ़ती जा रही है। अब एक "प्रशासन विज्ञान" के बजाय प्रशासन विज्ञानों का युग आ गया है।

विज्ञानत्व का निषेध
लोक प्रशासन की प्रकृति के विषय में इसे चौथा मत भी मान सकते हैं। कुछ प्रशासनवेत्ता लोक प्रशासन को विज्ञान नहीं मानते। उनका यह भी विश्वास है कि वह कभी भी विज्ञान नहीं बन सकता। मार्शल ई. डिमॉक तथा ड्वाइट वाल्डो का यही विचार है। मोरिस कोहेन व फाइनर प्रशासन को "विज्ञान" के रूप में नहीं मानते। उर्विक के अनुसार लोक प्रशासन केवल एक कला है तथा अन्य कलाओं की भाँति प्रशासन की कला भी खरीदी नहीं जा सकती। प्रशासन को विज्ञान न मानने के अनेक कारण बताये जाते हैं, यथा-
  1. उसके सिद्धान्तों में निश्चितता का अभाव है;
  2. उसमें वैज्ञानिक पद्धतियों के अनुसार, पर्यवेक्षण तथा तथ्यों के परीक्षण एवं प्रयोग नहीं किये जा सकते।
  3. लोकप्रशासन के सिद्धान्तों में एकरूपता, जाँचशीलता या सत्यापन के गुण नहीं पाये जाते
  4. उसमें तथ्य-मूल्यों की पृथकता नहीं पायी जाती, तथा आदर्शों, भावनाओं आदि का मिश्रण पाया जाता है।
  5. उसकी मूल विषय-वस्तु "मानव" तथा उसकी स्वेच्छा अत्यन्त स्वतंत्र, गतिमय, परिवर्तनशील तथा अनेक कारणों से प्रभावित होती है। लोक प्रशासन के निष्कर्ष, सिद्धान्त, मान्यताएँ आदि प्रत्येक प्रशासनवेत्ता के साथ बदलती रहती हैं। व्हाइट ने तो यहाँ तक कहा है कि प्रशासन में सिद्धान्तों (Principles) की खोज को भविष्य में किसी अनिश्चित तिथि तक के लिये छोड़ देना चाहिये।

राबर्ट ए. डाहल (Robert A. Dahl) ने अपने लेख "Science of Administration" में बताया है कि लोक प्रशासन का तुलनात्मक रूप से अध्ययन किये बिना विज्ञान बनाना संभव नही है। विभिन्न देशों के लोक प्रशासनों का अध्ययन करने के पश्चात् ही उसके विषय में सार्वलौकिक एवं व्यापक सिद्धान्तों को मान्यता प्रदान की जा सकती है। हम उस समय तक लोक प्रशासन को विज्ञान नहीं कह सकते "जब तक कि-
  • (क) मानकीय मूल्यों (Normative Values) का स्थान क्या होगा" यह स्पष्ट न किया जाये।
  • (ख) लोक प्रशासन के क्षेत्र में मानव का स्वभाव अच्छी प्रकार न समझा जाये और उसके आचरण को अधिक अच्छी तरह प्रारम्भ से ही अभिव्यक्त न किया जा सके, और
  • (ग) तुलनात्मक अध्ययनों का एक ऐसा निकाय स्थापित किया हो कि जिसके द्वारा ऐसे सिद्धान्तों एवं सामान्य निष्कर्षों का पता लगाना सम्भव हो सके जो राष्ट्रीय सीमाओं तथा विशिष्ट ऐतिहासिक अनुभवों का भी अतिक्रमण कर सकें और उनसे श्रेष्ठ सिद्ध हो। “उर्विक ने भी प्रतिरोध किया है कि लोक प्रशासन में सार्वदेशिक मान्यता प्राप्त सिद्धान्तों का अभाव है। वे प्रायः “लगभग ठीक या संभावित अथवा हो सकता है" जैसी प्रकृति वाले होते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि यदि वैज्ञानिक पद्धति की कसौटी पर विभिन्न "तथाकथित" सिद्धान्तों को परखा जाये, तो बहुत कम खरे उतरेंगे। वैज्ञानिक पद्धति के चरण हैं - अवलोकन, तथ्य संग्रह, प्राक्कथन या परिकल्पना (Hypothesis) का निर्माण, प्रयोग या तथ्यों के द्वारा परिकल्पना की जाँच, सारणीकरण, वर्गीकरण, सहसंबंधों (Co-relations) की खोज, तथा जाँच या सत्यापन प्रकाशन अनेक बाह्म कारणों, अबौद्धिक तत्वों तथा अपनी बौद्धिकता, विशेषता और अज्ञान संबंधी त्रुटियों से प्रभावित होता है। उसकी अपनी राजनीति के प्रति अधीनता भी एक बड़ी भारी बाधा है।

विज्ञान बनाना हानिप्रद
एक विचार यह भी प्रकट किया गया है कि लोक प्रशासन को "विज्ञान" बनाने या मानने का प्रयास नहीं किया जाना चाहिये। उनके अनुसार मानव व्यवहार का पूर्णतः वैज्ञानिक विश्लेषण कभी भी नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा होना संभव भी हुआ तो उससे प्रशासन में कठोरता, रूढ़िवादिता और जड़ता आ जायेगी, जिसमें व्यक्ति को स्वतंत्र चिन्तन के लिये दण्डित किया जायेगा। प्रशासन पूरी तरह अमानवीय होकर कृत्रिम और विखंडित हो जायेगा। शूलर ने उसे "विज्ञान" की संज्ञा प्रदान करने के प्रति खतरों से सचेत किया है कि ऐसा करने से उसका विकास रुक जायेगा। अभी लोक प्रशासन में सर्वत्र प्रयोग किये जा सकने वाले पूर्णतः सत्यापित सामान्य नियम (Principles) नहीं पाये जाते।

वालेस ने अपनी पुस्तक “संघीय विभागीकरण" (Federal Departmentalization) में बताया है कि लोक प्रशासन के सिद्धान्त कोरी काम चलाऊ प्राकल्पनाएँ, प्रस्तावनाएँ, और मान्यताएँ मात्र है। यदि इन्हें वैज्ञानिक नियमों, निष्कर्षों या सामान्यीकरण का रूप दे दिया गया तो इससे प्रशासन में जड़त्व आ जायेगा।
उन्हें थोप देना या उनके आधार पर संगठनों का निर्माण एवं संचालन करना सरासर गलत होगा। लोक प्रशासन में व्यापक आधार पर लागू किए जाने योग्य सर्वमान्य या शाश्वत सिद्धान्त नहीं हैं। उसकी शब्दावली अनिश्चित तथा उसकी मान्यताएँ अपरिपक्व हैं। उसे "विज्ञान" कहना अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा मात्र है। लोक प्रशासन को विज्ञान बनाने के लिए जिन सिद्धान्तों की बात की गयी है, उसका मजाक उड़ाते हुए हर्बर्ट साइमन कहते है कि इस आधार पर लोक प्रशासन को विज्ञान नहीं बनाया जा सकता, ये सिद्धान्त नहीं अपितु ये तो मात्र कहावतें हैं।

लोक प्रशासन की विशेषताएँ

लोक प्रशासन सरकारी क्रिया कलापों का ही एक हिस्सा है। शासकीय नीति को क्रियान्वित करने के लिये लोक प्रशासन विभिन्न गतिविधियों, उद्देश्यों एवं कार्यक्रमों का सहारा लेता है। लोक प्रशासन की प्रमुख विशेषताएँ निम्नांकित हैं-
  • लोक प्रशासन सरकारी तंत्र का ही एक हिस्सा है।
  • लोक प्रशासन विशेष रूप से कानून के क्रियान्वयन से जुड़ा है तथा सरकार की तीनों शाखाओं तथा उनके पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन करता है।
  • लोक प्रशासन संवैधानिक एवं वैधानिक कानूनों के अन्तर्गत कार्य करता है।
  • लोक प्रशासन में पद सोपानिक व्यवस्था, आदेश की एकता जैसे सिद्धान्तों का कठोरता से पालन होता है।
  • लोक प्रशासन में वित्तीय मामलों पर संसदीय नियंत्रण होता है। नीति निर्माण में महती भूमिका के कारण राजनीतिक प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण अंग है।
  • लोक प्रशासन का अन्तिम उद्देश्य जनता का सर्वत्र कल्याण है।
  • लोक प्रशासन पर राजनीतिक नेतृत्व का प्रत्यक्ष एवं परोक्ष नियंत्रण रहता है।
  • बदलते समय में सेवा भावना मूल मंत्र की सिद्धि हेतु लोक प्रशासन निजी समुदायों एवं वर्गों से घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है।
  • समयानुकूल लोक प्रशासन मानवीय विचारधारा से भी अत्यधिक प्रभावित हुआ है।
  • लोक प्रशासन वैश्वीकरण, उदारीकरण, निजीकरण के दौर में मानवीय विचारधारा के साथ-साथ कार्यकुशलता एवं मितव्ययता पर पुनः ध्यान दे रहा है।

लोक प्रशासन का महत्त्व

लोक प्रशासन का हस्तक्षेप हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में बढ़ता जा रहा है। पिछली शताब्दी तक लोक प्रशासन का कार्य शान्ति एवं व्यवस्था बनाये रखने तक ही सीमित था। परन्तु वर्तमान समय में लोक प्रशासन लोक कल्याणकारी कार्यों में अधिकाधिक रुचि लेने लगा है। अतः वह पुलिस राज्य से जन कल्याणकारी राज्य की ओर अभिमुख हुआ है। सरकार के सभी कार्यों का संचालन लोक प्रशासन द्वारा ही होता है, इसलिये आज राज्य को प्रशासकीय राज्य की संज्ञा दी जाने लगी है। जन्म से लेकर मृत्यु और मृत्यु पश्चात् भी लोक प्रशासन व्यक्ति के कल्याण के लिये कार्य करता है। भोजन, स्वास्थ्य, चिकित्सा, बेरोज़गारी, बाढ़, भूकम्प आदि के समय लोक प्रशासन व्यक्ति की सहायता करता है। आज लोक प्रशासन के बढ़े हुये कार्य एवं जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसके महत्त्व को इंगित करते हुऐ डोनहम लिखते हैं कि “यदि हमारी सभ्यता असफल होती है तो ऐसा मुख्यतः प्रशासन के पतन के कारण होगा।

लोक प्रशासन के महत्त्व को निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा समझा जा सकता है-

(1) राष्ट्र की रक्षा, शान्ति एवं व्यवस्था बनाए रखने में
प्रायोजित आतंकवाद, नक्सलवाद, छात्र, मजदूर आन्दोलन आये दिन राज्य के समक्ष नित्य नयी चुनौतियाँ पैदा करते हैं। इन सबसे निपटना एवं कानून एवं व्यवस्था बनाये रखना सिविल प्रशासन का सर्वोपरि दायित्व है । शान्तिकाल में सीमाओं की रक्षा करते हुये राष्ट्र की आन्तरिक सुरक्षा व्यवस्था, अखण्डता, साम्प्रदायिक सौहार्द्र, समरसता बनाए रखना लोक प्रशासन का गुरुतर दायित्व है। न्याय, पुलिस, सशस्त्र बल, हथियार, निर्माण, अंतरिक्ष, परमाणु ऊर्जा, खनिज दोहन, विदेशी सम्बंध, गुप्तचर आदि ऐसी गतिविधियाँ है जो किसी राष्ट्र की बाहरी एवं आन्तरिक सुरक्षा को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती हैं। इन सब पर नियंत्रण एवं निर्देशन का कार्य लोक प्रशासन करता है।

(2) लोक कल्याण का माध्यम
वर्तमान में राज्य द्वारा अधिकाँश योजनाएँ, जनता के सुखी एवं खुशहाल जीवन के लिये संचालित की जाती हैं। राज्य शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा, आवास आदि की विभिन्न योजनाओं का क्रियान्वयन करता है ताकि लोगों के जीवन स्तर में गुणात्मक परिवर्तन लाया जा सके। राज्य की अहस्तक्षेपवादी धारणा अब पुरानी हो चुकी है। आम जनता अब प्रशासन से अधिकाधिक सहयोग की आशा करती है | भारतीय संविधान के नीति निर्देशक तत्व, लोक कल्याणकारी राज्य को सशक्त आधार प्रदान करते हैं तथा सामाजिक सुरक्षा ग्रामीण विकास, गरीबी उन्मूलन, उद्योग, कुटीर उद्योग, सिंचाई, पशुपालन, संचार, सड़क, बिजली आदि मूलभूत सेवाओं के संचालन के लिये आवश्यक मंतव्यों को पूरा करने के लिये पथ प्रदर्शक का कार्य करते हैं। लोक कल्याणकारी दायित्वों की पूर्ति प्रशासन की प्रकृति पर निर्भर करती है। अतः वर्तमान राज्य को 'प्रशासकीय राज्य' से संज्ञापित किया जाता है।

(3) सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन का माध्यम
सामाजिक मान्यताओं, प्रथाओं, अन्धविश्वासों, रूढ़ियों, कुरीतियों आदि में समयानुकूल परिवर्तन लाना सामाजिक परिवर्तन कहलाता है। लोक प्रशासन का दायित्व है कि वह उक्त परिवर्तन के अभिकर्ता के रूप में कार्य करे। लोक प्रशासन गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, बालश्रम, शोषण, महिला अत्याचार, बाल अपराध, दहेज, छुआछूत, सती प्रथा के लिये उपयुक्त कानूनों के माध्यम से कार्य करता है। साथ ही देशवासियों के जीवन स्तर को उन्नत बनाना, विद्यमान विषमताओं को दूर करना, एकाधिकारी, कालाबाजारी को रोकना तथा देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने के प्रयासों में लोक प्रशासन की महती भूमिका रहती है।

(4) प्रजातंत्र का प्रहरी
प्रजातंत्र की अवधारणा का क्रियान्वयन एक सजग एवं निष्पक्ष प्रशासनिक तंत्र के बिना असंभव है। मानवाधिकारों की रक्षा, सूचना का अधिकार, निष्पक्ष चुनाव, जन शिकायतों का निराकरण, राजनीतिक चेतना में वृद्धि एवं शासकीय कार्यों में जनसहभागिता में वृद्धि प्रशासन के सहयोग से ही संभव है।

(5) कला एवं संस्कृति का संरक्षक
संगीत, साहित्य, वास्तुकला, चित्रकला एवं लोक संस्कृति के संरक्षण एवं विकास का दायित्व राज्य पर है। राज्य यह कार्य प्रशासन के द्वारा सम्पन्न करवाता है। वह कला, साहित्य, संस्कृ ति की रक्षा एवं संवर्धन के लिये अनेक अकादमिक पुरस्कारों की स्थापना में सहयोग प्रदान करता है ताकि परम्परागत मूल्यों के प्रति जन सामान्य का आकर्षण बरकरार रहे। सांस्कृतिक मूल्यों के संरक्षण में लोक प्रशासन सशक्त भूमिका का निर्वाह कर सकता है।

(6) विकास एवं परिवर्तन के यंत्र के रूप में
आज लोक प्रशासन केवल नियामकीय कार्यों तक ही सीमित नहीं है बल्कि वह विकास के कार्यों में भी अत्यधिक रूचि लेने लगा है। वह समाज में सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन के लिये नियोजित रूप से सामूहिक प्रयास करता है। आज लोक प्रशासन लक्ष्योन्मुखी, परिणामोन्मुखी, परिवर्तनोन्मुखी, ग्राहकोन्मुखी होने लगा है। यद्यपि उद्योगों एवं आर्थिक क्षेत्र का एक बड़ा भाग निजी प्रशासन के अधीन है तथापि राष्ट्र के लिये महत्त्वपूर्ण उद्यमों यथा संचार, परिवहन, मौलिक शोध, रक्षा सम्बन्धी क्षेत्रों के विकास एवं परिवर्तन के यंत्र के रूप में लोक प्रशासन ही क्रियाशील रहता है।

(7) अध्ययन के विषय के रूप में लोक प्रशासन का महत्त्व
लोक प्रशासन लोक कल्याणकारी राज्य के उददेश्यों को सार्थक बनाता है। सरकार की विभिन्न योजनाओं एवं कार्यक्रमों की सफलता या असफलता प्रशासन पर ही निर्भर करती है। अतः अध्ययन विषय के रूप में लोक प्रशासन का स्वयं ही महत्त्व बढ़ जाता है। पश्चिमी देशों में लोक प्रशासन का अध्ययन 1887 से ही हो रहा है जबकि भारत में 1937 से ही इस दिशा में प्रयास प्रारम्भ हुए । लेकिन 1950 के पश्चात् ही लोक प्रशासन के व्यवस्थित अध्ययन को बढ़ावा मिला, फिर भी इस दिशा में अधिक प्रयासों की आवश्यकता है।

(8) प्रशासनिक उपकरण के रूप में महत्त्व
लोक प्रशासन का महत्त्व अध्ययन के विषय के रूप में ही नहीं बल्कि प्रशासनिक तंत्र के रूप में भी है। एक प्रशासनिक तंत्र के रूप में लोक प्रशासन सरकार के समस्त कार्यों को अंजाम देता है। चाहे यह कार्य नीति निर्धारण से, क्रियान्वयन से, नीति की समीक्षा से सम्बद्ध हो या व्यवस्था को बनाने, जीवन स्तर को उन्नत बनाने से सम्बद्ध हो, प्रशासन प्रशासनिक तंत्र के रूप में समाज में अपनी भूमिका अदा करता है।

(9) विद्यार्थियों के लिये महत्त्व
छात्रों के लिये भी लोक प्रशासन के अध्ययन का महत्त्व सर्वविदित है। विद्यार्थी के रूप में वह प्रशासन के विभिन्न सिद्धान्तों, कार्य रीतियों एवं सकारात्मक भूमिका की जानकारी प्राप्त करता है। इससे एक तरफ विद्यार्थियों को प्रशासन की जानकारी मिलती है वहीं दूसरी ओर अच्छे नागरिक के रूप में शासन की गतिविधियों में सहयोग देने की प्रवृत्ति का भी विकास होता है।

(10) नीति क्रियान्वयन का उत्तरदायित्व
गोरवाला का मत है कि "लोकतंत्र में योजनाओं की सफलता के लिए कुशल एवं निष्पक्ष प्रशासन का होना आवश्यक है। राज्य की नीतियों का क्रियान्वयन करने का दायित्व लोक प्रशासन का ही है। नीतियाँ चाहे कितनी भी अच्छी एवं व्यावहारिक क्यों न हो उनकी समाज में प्रभावशीलता, प्रशासकों की दक्षता, कुशलता एवं सत्यनिष्ठा पर ही निर्भर करती है। सरकार के कार्यक्रम एवं नीतियाँ एक आकार के रूप में होती हैं जिसे प्रशासक अपनी क्षमता एवं दक्षता से रंग रूप प्रदान कर समाज के लिये उपयोगी एवं व्यावहारिक बनाता है।

इस संदर्भ में मार्शल ई. डिमॉक का कथन महत्त्वपूर्ण है "प्रशासन प्रत्येक नागरिक के लिये महत्त्व का विषय है, क्योंकि जो सेवाएँ उसे मिलती हैं, जो कर , वह देता है और जिन व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं का वह उपयोग करता है, प्रशासन के सफल और असफल कार्यकरण पर निर्भर करती है। आधुनिक युग की बहुत सी महत्त्वपूर्ण समस्याएँ, जैसे-स्वतत्रंता और संगठन में समन्वय कैसे हो, इत्यादि प्रशासन के इर्द-गिर्द घूमती रहती है। यही कारण है कि लोक प्रशासन राजनीतिक सिद्धान्त और दर्शन का मुख्य विषय बन गया है।

(11) प्रशासकीय राज्य की सार्थकता
मार्शल ई. डिमॉक की मान्यता है कि 'लोक प्रशासन सभ्य समाज का आवश्यक अंग तथा आधुनिक युग में जीवन का एक तत्व है। उसमें राज्य के उस स्वरूप ने जन्म लिया है जिसे प्रशासकीय राज्य कहा जाता है। प्रशासकीय राज्य में लोक प्रशासन जन्म से पूर्व एवं मृत्यु के पश्चात् भी व्यक्ति के जीवन से जुड़ा रहता है। गर्भवती स्त्री के समुचित आहार, चिकित्सा सुविधा उपलब्ध करवाने से लेकर व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात् उसका सरकारी अभिलेख करवाने तक लोक प्रशासन की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है। अकाल, महामारी आपदाओं में भी लोक प्रशासन के द्वारा प्रदत्त सहायता उसके महत्त्व को उत्तरोत्तर बढ़ाती है।

उपर्युक्त अध्ययन से स्पष्ट है कि शासन की पद्धति या सरकार किसी भी प्रकार की हो लोक प्रशासन की भूमिका व महत्त्व में कमी नहीं आयेगी। यद्यपि बदलते परिवेश में उसकी भूमिका रूपान्तरित हो रही है परन्तु कम नहीं। आज लोक प्रशासन नीति निर्माण एवं उसके क्रियान्वयन, सामाजिक आर्थिक परिवर्तन, स्थायित्व, नागरिकों के अधिकारों की रक्षा, विकास एवं परिवर्तन को समयानुकूल बनाकर समाज को सही दिशा व दशा प्रदान करता है, इसलिये लोक प्रशासन को सभ्य जीवन का रक्षक तथा परिवर्तन एवं विकास का पथ प्रदर्शक माना जाता है।

लोक प्रशासन - एक समाज विज्ञान

वास्तव में, लोक प्रशासन प्राकृतिक विज्ञानों की श्रेणी में न आकर, समाज विज्ञानों की श्रेणी में आता है। विज्ञान की इन श्रेणियों या वर्गो में "विज्ञानत्व" की मात्रा का ही अन्तर है। लोक प्रशासन को समाज विज्ञान कहने से तात्पर्य यह है कि-
  • उसकी गतिविधियाँ तथा संरचनाएँ समाज में रहकर ही तथा समाज के लिये काम करती है। उसका परिवेश एवं पारिस्थितिकी (Ecology) सामाजिक है, तथा समाज का उस पर प्रभाव पड़ता है।
  • प्रशासन में कार्यशील मनुष्य मूलतः सामाजिक हैं।
  • राज्य के माध्यम से प्राप्त प्रशासन के लक्ष्य समाज के सामान्य लक्ष्यों एवं उद्देश्यों से मेल खाते हैं।
  • समाज विज्ञानों से ही लोक प्रशासन का यथार्थ अध्ययन करते हुए पद्धतियाँ, उपागम, सिद्धान्त आदि उपलब्ध तथा विकसित किये जा रहे हैं; तथा
  • लोक प्रशासन का, कार्यान्वयन से संबंधित होने के कारण समाज विज्ञानों की सार्थकता, एकता तथा यथार्थता प्रकट होती है।
एक सामाजिक विज्ञान के रूप में लोक प्रशासन की अपनी कुछ विशेषताएँ हैं। अन्य अनुशासनों या शैक्षिक विषयों की तुलना में उसकी आयु बहुत कम है और वह अभी तक लगभग शतायु हो पाया है। यद्यपि प्रशासनिक विचारधारा किसी न किसी रूप में सदैव विद्यमान रही है लेकिन एक विषय का स्वरूप कुछ वर्ष पूर्व ही प्राप्त किया है। इस कारण उसे अभी अर्धविकसित विज्ञान अथवा एक विकासमान युवा विज्ञान के रूप में देखा जाना चाहिये। विल्सन के शब्दों में यह “अपनी ही पीढ़ी” में प्राप्त राजनीति विज्ञान का सबसे ताजा फल है। इसके पास रिपब्लिक, पॉलिटिक्स, लेवियाथन जैसे शास्त्रीय (Classical) ग्रंथ नही हैं। दूसरी बात यह है कि यह एक पर्यवेक्षणात्मक विज्ञान है और इसमें प्रयोग के लिये सीमित स्थान है। तीसरे यह “है" और "चाहिये' (is and ought) अथवा तथ्य एवं मूल्य दोनों से संबध रखता हैं। दूसरे शब्दों में यह विधेयकात्मक होने के साथ साथ आदर्शात्मक भी है। अन्त में, इसे एक प्रगतिशील विज्ञान माना जाना चाहिये, जिसके निष्कर्ष, सामान्यीकरण, नियम और सिद्धान्त नये तथ्यों के सन्दर्भ में बार-बार दोहराये जायेंगे। उन्हें विकसित और संशोधित किया जायेगा। एक समन्वयात्मक समाज विज्ञान के रूप में उसका महत्त्व दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है और विभिन्न क्षेत्रों के समाज वैज्ञानिक इसकी ओर आकर्षित होते जा रहे हैं।

लोक प्रशासन का क्षेत्र

लोक प्रशासन के अध्ययन क्षेत्र के विषय में दो शर्तों का ध्यान रखना चाहिये- प्रथम, एक गतिविधि के रूप में तथा दूसरा शैक्षिक विषय के रूप में। गतिविधि के रूप में लोक प्रशासन उतना ही पुराना है जितना स्वयं समाज तथा राज्य । एक शैक्षिक विषय के रूप में लोक प्रशासन अभी हाल ही में पैदा हुआ विषय है। लोक प्रशासन एक शैक्षिक विषय के रूप में सन् 1887 मे पैदा हुआ। इसका जनक वुडरो विल्सन (W.Wilson) को माना जाता है। विल्सन के एक लेख “प्रशासन का अध्ययन" (The Study of Administration) से लोक प्रशासन का प्रारम्भ माना जाता है। लोक प्रशासन में पुनः दो दृष्टिकोण पाये जाते हैं- (1) पोस्डकॉर्ब (POSDCORB) या संकुचित दृष्टिकोण, तथा (2) विषयवस्तु (Subject Matter) या व्यापक दृष्टिकोण।

"पोस्डकॉर्ब' (POSDCORB View) दृष्टिकोण
इसे प्रबन्धकीय, इंजीनियरी या अभियांत्रिकी, तकनीकी या सीमित दृष्टिकोण भी कहा जाता है। इसमें लोक प्रशासन की गृह प्रबन्धात्मक या प्रक्रियात्मक गतिविधियाँ शामिल की जाती हैं। लूथर गुलिक ने इन्हें सात अंग्रेजी शब्दों के प्रथम अक्षर से नया शब्द (POSDCORB) बनाकर अभिव्यक्त किया है-
  1. (P-Planning) योजना बनाना - किसी भी कार्य को करने या संगठन को बनाने से पूर्व पहले एक मोटी रूपरेखा बना ली जाती है।
  2. (0-Organising) संगठित करना - इसमें अधिकारी एवं अधीनस्थ वर्गों का एक संगठन तैयार किया जाता है तथा उसके लक्ष्यों को उपलक्ष्यों में विभाजित किया जाता है।
  3. (S-Staffing) सेवीवर्ग व्यवस्था - संगठन के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये, उसमें लोकसेवकों की नियुक्ति, प्रशिक्षण, वित्त आदि की व्यवस्था की जाती है।
  4. (D-Directing) निर्देशन - इसका सम्बन्ध प्रशासनिक निर्णय लेने, आदेश-निर्देश देने, सूचना प्राप्त करने आदि से है।
  5. (Co-Ordinating) समन्वयन - इसके द्वारा संगठन के विभिन्न भागों, क्रियाओं एवं गतिविधियों में तालमेल बिठाया जाता है।
  6. (R-Reporting) प्रतिवेदन तैयार करना - इसमें प्रशासनिक अधिकारी अपने उच्चाधिकारियों को अपने कार्यों के संबंध में प्रतिवेदन देते रहते है। इसका उद्देश्य जाँच, अनुसंधान, निरीक्षण आदि होता है।
  7. (B-Budgeting) बजट बनाना - इसके अन्तर्गत आगामी समय के लिये प्रशासनिक कार्यो के लिये आय-व्यय का ब्यौरा तैयार किया जाता है। प्रत्येक लोकनीति को कार्यान्वित करने के लिये वित्त की आवश्यकता होती है।
पोस्डकोई विचारधारा प्रशासन के "कैसे" (how) से संबंध रखती है। इसका समर्थन हेनरी फेयोल, उर्विक, मूने, रिले, विलोबी आदि के विचारों में भी पाया जाता है। पर्सी मैक्वीन ने भी प्रशासन को “मनुष्य, सामग्री एवं पद्धति का अधिकतम उपयोग बताया है। यह प्रबन्धात्मक दृष्टिकोण है जिसका उद्देश्य “कार्य कराने से है। विलोबी अपने विचारों को प्रशासन के सिद्धान्त या नियम कहता है। वह प्रशासन में निम्नलिखित बातें शामिल करता है।
  • सामान्य या गृह प्रबन्धात्मक प्रशासन
  • संगठन
  • सेवीवर्ग प्रबन्ध
  • सामग्री प्रदाय (Supply) तथा,
  • वित्त प्रबन्ध
इसमें कोई सन्देह नहीं है कि संगठनों के प्रशासन में ये सभी क्रियाएँ सामान्य रूप से पायी जाती हैं। प्रायः प्रबन्ध इन्हीं कार्यों पर अधिक ध्यान देता है
किन्तु पोस्डकॉर्ब विचार की कड़ी आलोचना की जाती है। लेविस मेरियम का विचार है कि "प्रशासन का जिन विषयों से सम्बन्ध होता है, उनका पूर्ण ज्ञान प्रशासन की वास्तविकता को समझने के लिये आवश्यक होता है, जबकि लूथर गुलिक ने विषय के ज्ञान के बारे में कुछ नहीं कहा है। प्रशासन, दो फलकों वाली कैंची के समान है। एक फलक, पोस्डकॉर्ब द्वारा बताया जाने वाला ज्ञान हो सकता है, किन्तु दूसरा फलक उस विषय-सामग्री का ज्ञान है जिस पर इन प्राविधियों का उपयोग किया जाता है। उस औजार को प्रभावशील बनाने के लिये दोनों फलकों का अच्छा होना आवश्यक है। वस्तुतः लूथर गुलिक का विचार सैद्धान्तिक अधिक है। विषय-सामग्री के ज्ञान के बिना सफलता की अधिक आशा नहीं की जा सकती। प्रशासन में मानवीय तत्व का भी बड़ा महत्त्व है। सन् 1927 से 1932 के मध्य किये हॉथोर्न प्रयोगों का यही परिणाम था | उत्पादकता पर तकनीकों के बजाय सामाजिक पर्यावरण, परिवर्तनों तथा नेतृत्व का अधिक प्रभाव पड़ता है। गुलिक ने स्वयं स्वीकार किया है कि सन् 1930 और सन् 1940 का लोक प्रशासन सन् 1960 में सफल नहीं हो सकता । इन सबके अतिरिक्त लोक प्रशासन में सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों (ecology) का अध्ययन शामिल किया जाना चाहिए।

विषय-सामग्री दृष्टिकोण (Subject Matter Views)
यह दृष्टिकोण संयुक्त राज्य अमेरिका के बाहर अधिक अपनाया गया है। इसमें पोस्डकॉर्ब की अधिकांशतः गृह प्रबंधात्मक सेवाओं का ज्ञान तो शामिल किया ही जाता है, परन्तु साथ ही साथ उसमें सेवाओं, सूत्र तथा उनके कार्यक्रमों को भी महत्त्व दिया जाता है। वह इन प्रक्रियाओं को शाश्वत अथवा सार्वभौम नहीं मानता उसका विश्वास है कि विभाग या संगठन की प्रकृति एवं आवश्यकता के अनुसार इनके स्वरुप में भी परिवर्तन होता रहता है। इसे लोक प्रशासन के अध्ययन का क्रियात्मक अथवा प्रयोगात्मक दृष्टिकोण कहा जा सकता है। वाकर ने लोक प्रशासन में अनेक विषयों एवं विभागों के अध ययनों को शामिल किया है, यथा-राजनीतिक, विधायी, वित्तीय, प्रतिरक्षात्मक, शिक्षा, अर्थशास्त्र, सामाजिक, विदेश नीति साम्राज्य सम्बन्धी तथा स्थानीय ।

एम. मार्क्स के शब्दों में "अपनी पूर्णतम परिधि में लोक प्रशासन में वे सभी क्षेत्र आ जाते हैं, जिनका सम्बन्ध सार्वजनिक नीति के साथ है। परन्तु स्थापित चलन के अनुसार, “लोक प्रशासन से ऐसे संगठन सेवी वर्ग-व्यवहार, तथा प्रक्रियाओं की अभिव्यक्ति होती है, जो कार्यपालिका शाखा को सौंपे गये असैनिक कार्यों के प्रभावपूर्ण निष्पादन के लिये आवश्यक है।" फिफनर ने लिखा है कि उसका सम्बन्ध सरकार के "क्या" और "कैसे" के साथ हैं। "क्या" के अन्तर्गत क्षेत्र की विषयवस्तु और तकनीकी ज्ञान शामिल है, जिससे प्रशासन को अपने कार्यों के निष्पादन की क्षमता प्राप्त होती है। "कैसे" से प्रबन्ध की तकनीकियों का बोध होता है। आजकल विषय-सामग्री दृष्टिकोण को अधिक प्राथमिकता दी जाती है।

आदर्शात्मक दृष्टिकोण (Idealistic Views)
आदर्शवादी दृष्टिकोण लोक प्रशासन में दर्शनशास्त्रीय, मूल्यांकन अथवा नैतिक भाग को अधिक महत्त्वपूर्ण मानता है। वह लोक प्रशासन के विचारात्मक अथवा विश्लेषणात्मक तत्वों पर अधिक बल देता है। उसके अनुसार, प्रशासन के लक्ष्य और राज्य के लक्ष्यों में समानताएँ होती हैं, किन्तु उसमें अन्तर भी पाया जाता है। "प्रशासन” को एक पृथक संगठन मानना चाहिए। उसका उद्देश्य कतिपय मूल्यों को क्रियान्वित करना होता है। प्रशासन को इन मूल्यों की दृष्टि से गठित, संचालित, एवं अभिप्रेरित किया जाना चाहिए।
उक्त सभी दृष्टिकोणों में समन्वय स्थापित किया जा सकता है। वस्तुतः ये एक दूसरे के पूरक हैं। फेलिक्स ए. नीग्रो द्वारा बताये गये पहलुओं को जानने के पश्चात् लोक प्रशासन का क्षेत्र निम्न प्रकार से अंकित किया जाना चाहिये-
  1. लोक प्रशासन सरकारी ढाँचे में एक सहकारी समूहात्मक प्रयत्न है।
  2. यह कार्यपालिका, व्यवस्थापिका तथा न्यायपालिका तीनों शाखाओं तथा उनके परस्पर सम्बन्धों का अध्ययन करता है।
  3. यह सरकारी नीति के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान करता है और इस प्रकार यह राजनीतिक प्रक्रिया का एक अंग है।
  4. यह निजी प्रशासन से अधिक महत्त्वपूर्ण है तथा उल्लेखनीय रूप से उससे भिन्न भी है।
  5. वह मानव सम्बन्धवादी दृष्टिकोण से बहुत प्रभावित हुआ है,
  6. समाज को सेवाएँ प्रदान करने में, वह अनेक निजी वर्गों एवं व्यक्तियों से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित रहता है।

लोक प्रशासन में इस प्रकार निम्नलिखित विषयों का अध्ययन किया जाता है-
  • कार्यपालिका का स्वरूप, प्रक्रिया तथा दायित्व
  • सरकार का “क्या" और "कैसे", अर्थात् विषय-सामग्री एवं तकनीकों आदि का अध्ययन,
  • सामान्य प्रशासन – अर्थात् प्रशासन के ऊपर निर्देशन, निरीक्षण तथा नियन्त्रण,
  • लक्ष्यों को प्राप्त कराने वाले विभिन्न प्रकार के संगठन
  • सेवी-वर्ग प्रबन्ध,
  • अपने दायित्वों को पूरा करने के लिये सेवी-वर्ग को दी जाने वाली सामग्री, यन्त्र, साज-सज्जा आदि।
  • वित्त,
  • प्रशासकीय उत्तरदायित्व का लेखा (Accountabilitly),
  • मानव-व्यवहार तथा मानव-सम्बन्ध
  • प्रशासन-विज्ञान द्वारा विकसित विभिन्न सिद्धान्त, उपागम, प्राविधियाँ आदि,
  • प्रशासन के लक्ष्यों, मानकों एवं मूल्यों का अध्ययन,
  • प्रशासन के पर्यावरण तथा अन्य समाज व्यवस्थाओं से उसके सम्बन्ध,

राजनीति और लोक प्रशासन
प्रशासन को कार्यकुशल और मितव्ययी बनाने के लिये उसे राजनीति से पृथक रखना आवश्यक माना जाता है। कतिपय प्रशासन-वेत्ताओं का विचार है कि लोक-प्रशासन को एक "विज्ञान" का स्तर तब ही प्राप्त हो सकता है, जबकि वह अपने आपको राजनीति से अलग रखे। लोक प्रशासन एवं राजनीति का पृथक्करण अमेरिकी संरक्षणता विरोधी (Anti Patronage Movement) अथवा लूट प्रणाली विरोधी आन्दोलन, शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त का परिणाम है। राष्ट्रपति के परिवर्तन के साथ समस्त कर्मचारियों का दलीय आधार पर परिवर्तन करने से अमेरिकी प्रशासन रसातल में पहुँच गया था। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप प्रशासन को सर्वथा तटस्थ (Neutral) बनाने का आन्दोलन प्रारम्भ हुआ। इसकी प्रेरणा मुख्यतः यूरोपीय देशों से प्राप्त हुई। धीरे-धीरे यह विचारधारा बनती गयी कि "राजनीति" और "प्रशासन" अर्थात् नीति-निर्धारण" और "नीति-क्रियान्वयन" की प्रकृति अलग-अलग है तथा उनके क्षेत्र भी पृथक हैं। ऐसा कर लेने से प्रशासन की कार्यकुशलता बढ़ जायेगी।
इस प्रकार, राजनीति और प्रशासन के सम्बन्धों को लेकर दो दृष्टिकोण पाये जाते हैं - एक उनको पृथक मानता है तो दूसरा उनमें घनिष्ठ सम्बन्ध पाता है। यहाँ इसी राजनीति–प्रशासन द्विभाजन (Politics Administration Dichotomy) पर विचार किया जायेगा।

पृथक्करण सम्भव एवं वांछनीय
राजनीति और प्रशासन के पृथक्करण का सबसे बड़ा प्रवक्ता वुडरो विल्सन है। उसने कहा है कि प्रशासन राजनीति के क्षेत्र से बाहर है। वह व्यापार के क्षेत्र के समान है और उसका कार्य कानूनों का क्रियान्वयन है। प्रशासनिक प्रश्न राजनीतिक प्रश्न नहीं होते । भले ही राजनीति प्रशासन को कार्य एवं लक्ष्य बताती हो, किन्तु उसे कार्य में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होना चाहिए। ब्लंश्ली ने बताया है कि "राजनीति महान और शाश्वत विषयों में राज्य की क्रिया है, प्रशासन व्यक्तिगत और छोटे विषयों में राज्य की क्रिया है। प्रो. गुडनाउ ने भी कहा है कि "सत्य यह है कि प्रशासन का एक बहुत बड़ा भाग राजनीति से असम्बन्धित है।" राजनीति और राजनीतिज्ञ की प्रकृति, कार्यक्षेत्र तथा लक्ष्य अलग होते हैं। राजनीति दलीय, परिवर्तनशील शक्ति व प्रभाव से सम्बद्ध, तथा प्रशासन की अपेक्षा उच्चस्तरीय एवं सामान्य जन से सम्बन्धित होती है। उसकी प्रमुख विशेषता सामान्य जनता के विचारों और संकल्पों को जानना, उसकी इच्छाओं में ऐक्य व समीकरण स्थापित करना तथा उसका विशेष लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये नेतृत्व करना होता है। राजनीति औपचारिक सत्ता प्राप्त करके प्रशासन पर नियन्त्रण स्थापित कर लेती है और फिर उसका अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिये निर्देशन करती रहती है। राजनीतिज्ञ जन आकांक्षाओं के पारखी होते हैं और अब जन-नेतृत्व के द्वारा सत्ता प्राप्ति के लिये शक्ति संघर्ष में जुटे रहते हैं। प्रशासन की दृष्टि से उनका ज्ञान सामान्य होता है। वे बदलते हुए सत्तारूढ़ नौसिखिये होते हैं। राजनीतिज्ञों का लक्ष्य जन-समर्थन के माध्यम से शक्ति प्रदान करना होता है।

प्रशासन का सम्बन्ध विधि के कुशल एवं मितव्ययी क्रियान्वयन से होता है। प्रशासक प्रशिक्षित, विशेषज्ञ एवं दक्ष होता है। उसका परिपेक्ष्य सीमित, समस्याएँ विशिष्ट, तथा समाधान सुपरिभाषित होते हैं। जनता का उसके साथ एक विशेष अंश या क्षेत्र में ही सम्पर्क होता है। वह राजनीतिज्ञों के अर्थात् नीति-निर्माताओं के अधीन रहता है, और अपनी विशेषता एवं अनुभव के आधार पर उनको परामर्श देता है। वह नीति निर्माण में सहायता देने के लिये तथ्य, आँकड़े तथा जनता की प्रतिक्रियाओं के अभिलेख रखता है। वे विशिष्ट सेवा नियमों के अधीन रहते हुए एक वेतनभोगी लोकसेवक के रुप में आजीवन अर्थात् सेवानिवृत्त होने तक विभिन्न पदों पर कार्य करते रहते हैं। उनका लक्ष्य निर्धारित लक्ष्यों का कुशल क्रियान्वयन करते हुए पदों के सोपान पर ऊँचे चढ़ते जाना होता है।

इस तरह दोनों के लक्ष्य, कार्य, प्रकृति और क्षेत्र सर्वथा अलग-अलग दिखायी पडते हैं। दोनों एक दूसरे का कार्य नहीं कर सकते। एक साथ ही व्यक्ति का प्रभावशाली राजनेता होना, साथ ही कुशल प्रशासक भी होना एक दुर्लभ बात है। प्रशासन, एक प्रशासक या लोक सेवक को राजनीतिज्ञ या राजनेता बनने की अनुमति नहीं देता। इसी प्रकार राजनीति की प्रकृति और क्षेत्र एक लम्बी अवधि तक लोक सेवक रह चुकने वाले व्यक्ति को राजनेता बनने के अयोग्य बना देती है। राजनीति में प्रति माह वेतन, सैकड़ों अधीनस्थों की सेवा और "जी-हजूरी", मोटर और मकान की सुविधाएँ, सुरक्षित भविष्य आदि नहीं मिलते। राजनीतिज्ञ अपने सिर मौत और अनिश्चित भविष्य का साया, अपमान और विरोध की छाया, तथा आर्थिक संकटों को साथ लिये घूमता है। तात्पर्य यह है कि प्रशासन और राजनीति अलग-अलग प्रकृति के हैं, और उन्हें अलग-अलग ही रखा जाना चाहिए। ऐसा करना दोनों के हित में है तथा ऐसा न करना दोनों को लक्ष्यों से पथभ्रष्ट कर देना है। प्रशासन का राजनीतिकरण तथा राजनीति का प्रशासनीकरण नहीं होना चाहिए। नीति निर्माण सामान्य होता है, प्रशासन विशिष्ट।

राजनीति और प्रशासन में घनिष्ठ सम्बन्ध
दूसरा दृष्टिकोण यह है कि राजनीति और प्रशासन का घनिष्ठ सम्बन्ध है और रहना चाहिए। इन्हें एक दूसरे से पृथक नहीं किया जा सकता। इनके पृथक्करण को सम्भव मानना या ऐसा करना अवास्तविकता के अंधेरे में सिर टकराने के बराबर है। लूथर गुलिक ने राजनीति को जनता के नियन्त्रण के रूप में देखकर कहा है कि “राजनीति को प्रशासन से बाहर नहीं किया जा सकता और न प्रशासन को राजनीति से, क्योंकि निश्चित रूप से कोई भी नियन्त्रण को समाप्त नहीं करना चाहता और प्रशासकों को स्वेच्छा से कार्य करने के लिये स्वतन्त्र नहीं छोड़ना चाहता। ऐसा करना घड़ी को पीछे घुमाने की तरह होगा, और वर्षों के पश्चात् मानव जाति को प्राप्त एक मूल्यवान् पारितोषिक को फेंक देना होगा।" विलोबी ने स्वविवेक (Discretion) की दृष्टि से बताया है कि राजनीति में स्वविवेक की मात्रा अधिक होती है किन्तु प्रशासन के संचालन के लिये भी कुछ न कुछ मात्रा में स्वविवेक का त्याग किया जाना अनिवार्य होता है। स्वविवेक का प्रयोग करते समय दोनों समान हो जाते हैं। लेसली लिपसन ने कहा है कि शासन के कार्यों को दो भागों में विभाजित किया ही नहीं जा सकता। शासन एक निरन्तर प्रक्रिया है। नीति-निर्धारण उसका एक पहलू है और नीति का क्रियान्वयन करना दूसरा।

जब तक सरकार के द्वारा लोकनीति के निर्धारण की प्रक्रिया पूरी की जाती है तब तक उसके कार्य राजनीति के अन्तर्गत आते हैं और लोक नीति के निर्धारण के पश्चात् उसके कार्यान्वयन की प्रक्रिया लोक प्रशासन के अन्तर्गत मानी जाती है। यह अन्तर केवल सैद्धान्तिक है। लोकनीति के निर्धारण में प्रशासन सहायता करता और परामर्श देता है। राजनीतिज्ञ मन्त्री के रूप में विभागों और मन्त्रालयों को सम्भालता है और लोक प्रशासक का काम करता है। विधानमंडल प्रायः कानून की मोटी-मोटी रूपरेखाएँ ही बना पाते हैं, उनको विस्तार देने तथा उनके अन्तर्गत नियम-उपनियम बनाने का काम प्रशासक ही करते हैं। ऐसा करते समय उन्हें राजनीतिज्ञों के दृष्टिकोण को सामने रखना होता है। प्रशासन करते समय उनकी स्थिति "निर्णय-कार्य-निर्णय कार्य” की होती है। वस्तुतः अब शासन का स्वरूप अधिकाधिक आर्थिक होता जा रहा है और उसमें "राजनीति" और "प्रशासन” जैसे भेद के लिये कोई स्थान नहीं है। अब तो प्रशासन को ही बहुत कुछ करना होगा।

गौस ने "शासन की प्रक्रिया के सिद्धान्त" में तीन बातें-निदान या पहचानना (Diagnosis), नीति-निर्धारण, तथा सुधार (Revision) बताते हुए कहा कि विधायी नेताओं को केवल कानून बनाकर ही नहीं रह जाना चाहिए, अपितु उन्हें कानूनों के क्रियान्वयन, तथा प्रशासनिक अनुभव के आधार पर उनके सुधार के लिये भी उत्तरदायी बनाया जाना चाहिए। डिमॉक ने लोक प्रशासन के विषय के रूखे-सूखे लगने का कारण उनके राजनैतिक तथा आर्थिक पहलुओं को भूल जाना बताया है। यह राजनीति विज्ञान को समझने के लिये अत्यावश्यक विषय है। लोक प्रशासन राजनैतिक प्रक्रिया का अभिन्न भाग है। सार्वजनिक नीति-निर्माण में विभिन्न हितों एवं दृष्टिकोणों को समाहित किया जाता है, किन्तु समूहों और व्यक्तियों के हित विधानमंडलों के द्वार तक सीमित नहीं रह जाते । वे अन्तिम छोर तक उसका पीछा करते हैं। प्रशासन भी कदम-कदम पर प्रदत्त स्वविवेक का प्रयोग कानूनों का निर्वचन करता है। इन क्षेत्रों में वह जनहित के प्रति उत्तरदायी होता है। इस उत्तरदायित्व को निभाने के लिये वह भी अनेक पद्धतियों एवं प्रविधियों का उपयोग करता है। लोक प्रशासन स्वयं एक मानव समूह भी होता है, जिसकी अपनी महत्त्वाकांक्षा, लक्ष्य और दावे होते हैं, तथा वह इन्हें प्राप्त करने का प्रयत्न करता है।

"प्रशासन की राजनीति के विषय में डिमॉक ने बताया है कि "लोक प्रशासन को समझने के लिये राजनीति को समझना आवश्यक है।" प्रशासन नीति-निर्माण और (कई बार) विधायन में पहल करता है, तथा निर्मित विधि को विस्तार देता है। वह एक ओर दबाव समूहों का प्रतिनिधित्व करता है तो दूसरी ओर स्वयं भी एक दबाव-समूह होता है। उसे राजनीतिक दलों के द्वन्द्वों में अपनी अलग समरनीति बनानी तथा मोर्चाबन्दी करनी पड़ती है। वस्तुतः प्रशासन को राजनीति से अलग किया ही नहीं जा सकता। समस्त शासन ही एक प्रकार से “राजनीति" होता है। प्रशासकों को भी विधायकों, अपने सदस्यों और जनता का समर्थन प्राप्त करना पड़ता है। अपने क्रियान्वयन तथा अपने आपको प्रभावपूर्ण बनाने के लिये उसे चारों ओर निगाहें दौड़ानी पड़ती हैं। नीति निर्माता या प्रशासक एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। “राजनीति और नीति-निर्माण का न प्रारम्भ होता है और न अन्त होता है।" पॉल एपिलबी ने भी कहा है कि सफल प्रशासक राजनीतिज्ञ भी होता है। “शासकीय होने के कारण, समस्त प्रशासन तथा समस्त नीति-निर्माण राजनैतिक होता है, यद्यपि जनता उसके एक विशेष भाग को ही ऐसा मानती है।" व्हाइट ने सही कहा है कि प्रशासन के प्रयोजन, अन्ततोगत्वा स्वयं राज्य के ही प्रयोजन होते हैं। राजनीति विभिन्न स्तरों पर प्रशासन को समर्थन व सहायता देती है। इनमें एक निरन्तरता पायी जाती है। सरकार एक निरन्तर प्रक्रिया "A continuous Process" है। नीति-निर्माण में भाग लेने एवं स्वविवेकीय शक्तियों का प्रयोग करने की दृष्टि से प्रशासन राजनीतिपूर्ण तो हो ही जाता है, साथ ही लोक सेवक जब मंत्रियों, विधायकों एवं हित-समूह को भी प्रभावित करना शुरू कर देते हैं, उस समय भी उनका राजनीतिक स्वरूप छिपा नहीं रहता।

सन्तुलित मत (Balanced View)
निष्कर्ष यह है कि राजनीति और प्रशासन में घनिष्ठ सम्बन्ध है। ये एक दूसरे के सहयोग पर निर्भर है। एक दूसरे को समझे बिना वे प्रभावपूर्ण ढंग से कार्य नहीं कर सकते। राजनीतिज्ञों को चाहिए कि वे प्रशासन के स्वरूप और आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर नीति-निर्माण करें। इसी प्रकार प्रशासक को चाहिए कि वे नीतियों एवं विधियों के क्रियान्वयन में राजनीतिज्ञों एवं उससे सम्बन्धित जन-आकांक्षाओं को ध्यान में रखे। यद्यपि राजनीति की स्थिति सत्ता, प्रभाव, नियन्त्रण आदि की दृष्टि से प्रशासन के ऊपर होती है, किन्तु प्रशासन अर्थात संगठन, विशेषज्ञता, कार्य-विभाजन तथा क्रियान्वयन के बिना वह निष्फल हो जाती है।

फिर भी, जनहित की पूर्ति एवं प्रभावपूर्ण क्रियान्वयन की दृष्टि से आवश्यक है कि प्रशासन से मंत्रणा करने तथा विवेकपूर्ण नीति-निर्माण कर चुकने के बाद राजनीतिज्ञों को, क्रियान्वयन में हस्तक्षेप, विशेष परिस्थितियों को छोड़कर, नहीं करना चाहिए। ये विशेष परिस्थितियाँ नीतियों के प्रभावपूर्ण कार्यान्वयन से ही सम्बद्ध होनी चाहिए। बिना कारण हस्तक्षेप करना अपने ही पाँव में कुल्हाड़ी मारने के बराबर है, क्योंकि इससे उनकी तथा शासन की प्रतिष्ठा गिर जाती है। भविष्य में, वे प्रशासन के औजारों से काम नहीं ले सकते क्योंकि वे भौंटे हो चुकते हैं। उन्हें अपने अस्त्रों को तेज करना चाहिए, भौटा नहीं। प्रशासकीय शस्त्रों पर पूरी तरह नियन्त्रण भी रखना चाहिए। प्रशासकीय राजनीति को सामान्य राजनीति के अधीन रहना चाहिए।

मितव्ययता और कार्यकुशलता की ओट में छिपे प्रशासन को राजनीति से दूर मानना एक भारी भूल है। ऐसा प्रशासन स्वेच्छाचारी एवं निरंकुश हो जाता है। विधानमण्डल तो सामान्य एवं अमूर्त कानून बनाकर रह जाता है, जबकि प्रशासन सैकड़ों हजारों व्यक्तिगत मामलों में निजी रूप से उन्हें अगणित रंगों एवं उतार-चढ़ावों के साथ लागू करता है। निर्धारित विधि और प्रक्रिया को लागू करते समय प्रशासन न्यायपालिका की तुलना में अधिक स्वतन्त्र तथा प्रभावपूर्ण होता है।

नव लोक प्रशासन

पश्चिम, विशेषतया संयुक्त राज्य अमेरिका में गत शताब्दी के सातवें और आठवें दशक अशांति के समय थे। अन्य सामाजिक विज्ञानों, जैसे-मनोविज्ञान, समाज शास्त्र तथा राजनीति विज्ञान की भाँति लोक प्रशासन भी इस क्रांतिकारी समय से प्रभावित तथा झकझोरित हुआ। राबर्ट टी. गोलमब्यूस्की के अनुसार, लोक प्रशासन के लिए इस शताब्दी का सातवाँ दशक युद्ध के समान था। लोक-प्रशासन के पुराने सिद्धान्तों- मितव्ययिता तथा कार्य कुशलता को लोक प्रशासन के क्रिया-कलापों के ध्येयों के रूप में अपर्याप्त और अपूर्ण पाया गया।

सातवें दशक के अंतिम वर्षों में कुछ विद्वानों, विशेषतया युवा वर्ग ने लोक-प्रशासन के मूल्यों और नैतिकता पर विशेष बल देना आरम्भ कर दिया। यह कहा जाने लगा कि कार्यकुशलता ही समूचा लोक प्रशासन नहीं है। समस्त प्रशासनिक क्रिया-कलापों का केन्द्र है - "मनुष्य” जो एक बहुत ही जटिल प्राणी है और यह जरूरी नहीं है कि वह सदा उन आर्थिक कानूनों जिनका प्रतीक “कार्यकुशलता" है, के अधीन हो। अतः लोक प्रशासन को मूल्योन्मुखी होना चाहिए। इस प्रवृत्ति को “नव लोक प्रशासन" का नाम दिया गया।

1971 में एक पुस्तक प्रकाशित हुई जिसका शीर्षक था - टुवर्ड ए न्यू पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन : दि मिन्नोब्रुक परस्पेक्टिव ("Toward a New Public Administration": The Minnowbrook Perspective) जिसका सम्पादन फ्रेंक मेरीनी (Frank Marini) ने किया था। इसी प्रवृत्ति को आगे बढ़ाते हुए लगभग इसी समय अर्थात् 1971 में एक अन्य पुस्तक प्रकाशित हुई। इसका शीर्ष था – पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन इन ए टाइम ऑफ टरब्यूलेन्स "Public Administration in time of Turbulance जिसका सम्पादन डूवाइट वाल्डो ने किया था। ये पुस्तकें उन विचारों का प्रतिनिधित्व करती थीं जिनको लोक प्रशासन पर 1968 में हुए शैक्षिक सम्मेलन, मिन्नोब्रुक कान्फ्रेंस (Minnowbrook Conference) में व्यक्त किया गया था। यह आन्दोलन उस समय की सामाजिक खलबली का अंग था।

यद्यपि गोलमब्यूस्की का विचार था कि नया लोक प्रशासन एक अस्थायी या अल्पकालीन घटना है और बुद्धिमता इसी में है कि इसकी याददाश्त को और अधिक ओझल होने के लिए छोड़ दिया जाए। किन्तु यह अभी तक स्थिर है, जैसा कि इस आन्दोलन के एक नेता एच. जॉर्ज फ्रेडरिक्सन (George Frederickson) के द्वारा सन् 1980 में प्रकाशित एक पुस्तक से पता चलता है।

लोक प्रशासन की भाँति, नया लोक प्रशासन लक्ष्योन्मुखी तथा परिवर्तनोन्मुखी है। किन्तु विकास प्रशासन के विपरीत नया लोक प्रशासन उन प्रक्रियाओं पर ध्यान केन्द्रित करता है जो लोक प्रशासनिक संगठनों को, विशेषतया पश्चिमी देशों में, अधिक सकारात्मक तथा क्रियाशील बना सकें।

ऐसा कोई सिद्धान्त नहीं जिस पर नये लोक प्रशासन के सभी समर्थक सहमत हो। यहां तक कि केन्द्रीय मुद्दों और मुख्य विशेषताओं पर भी उनमें असहमति है। किन्तु गोलमब्यूस्की नये लोक प्रशासन के तीन “प्रतिलक्ष्य" (Antigoals) जिनको वे रद्द करते हैं और पाँच "लक्ष्य" (जिनका वे समर्थन करते हैं) मानते हैं। तीन “प्रतिलक्ष्य” इस प्रकार हैं-
(1) लोक प्रशासन का साहित्य प्रत्यक्षवाद का विरोधी है, जिसका अभिप्राय है-
  • (क) वे लोक प्रशासन की इस परिभाषा को, कि यह मूल्य रहित है, रद्द करते हैं।
  • (ख) वे मानव जाति के बुद्धिवादी और सम्भवतः निश्चयवादी दृष्टिकोण को रद्द करते हैं।
  • (ग) वे लोक प्रशासन की कोई भी ऐसी परिभाषा जो अच्छी प्रकार नीति में लिपटी हुई न हो (जैसा कि राजनीति-लोक प्रशासन विभाजन में था) रद्द करते हैं।

(2) नया लोक प्रशासन तकनीकी-विरोधी हैं, अर्थात् वे इस बात को बुरा मानते हैं कि मनुष्य को मशीन के तर्क तथा व्यवस्था पर बलिदान कर दिया जाए।

(3) नया लोक प्रशासन नौकरशाही और पदानुक्रम का भी थोड़ा बहुत विरोधी है।

गोलमब्यूस्की के अनुसार सकारात्मक दृष्टि से नये लोक प्रशासन की पाँच विशेषताएँ अथवा लक्ष्य हैं-
  1. नया लोक प्रशासन यह मानता है कि मानव जाति में सम्पूर्ण बनने की सामर्थ्य है। यह उस दृष्टिकोण के विपरीत है, जो मनुष्यों को उत्पादन का कमोबेश गतिहीन या स्थिर तत्व मानता है।
  2. मानव स्वभाव का उपर्युक्त दृष्टिकोण जो “सम्भव होना" या "विकास होना” पर भी बल देता है संस्थानों की सतर्कता के प्रश्न को सामने लाता है। विलियम (William) का कथन है कि "नये लोक प्रशासन की अनिवार्य विशेषता यह है कि वह प्रशासनिक यत्नों की प्रक्रियाओं, ढाँचों तथा उसके लक्ष्यों के पारस्परिक सम्बन्धों पर अधिक स्पष्ट और सच्चा चिन्तन करता है। साथ ही यह उन लक्ष्यों का नैतिक आधार पर चयन अधिक सचेत और सूझ-बूझ द्वारा करता है।" यह व्यक्तिगत तथा संगठनात्मक मूल्यों या नैतिकता की केन्द्रीय भूमिका पर भी बल देता है।
  3. नये लोक प्रशासन के समर्थकों ने “सामाजिक न्याय" को मानवीय विकास का पथ-प्रदर्शन करने हेतु सर्वोत्तम सामान्य वाहक समझा। अतः सामाजिक न्याय की प्राप्ति ही लोक प्रशासन का ध्येय होना चाहिए। सामाजिक न्याय का अर्थ है कि लोक प्रशासकों को चाहिए कि वह समाज के अल्प सुविधा वाले वर्गों के हिमायती बनें। वे सामाजिक व आर्थिक परिवर्तन के सक्रिय एजेन्ट होने चाहिए। भूतकाल में लोक प्रशासन ने सरकार के सामाजिक उद्देश्यों के क्षेत्र में मूल्यों के प्रश्न की अवहेलना की है और सरकारी अधिकारियों ने सामाजिक न्याय की उपेक्षा करके कार्य-कुशलता तथा कार्यों की मितव्ययिता पर प्रायः बल दिया है। फ्रेडरिक्सन (Fredrickson) का विचार है कि लोक सेवाओं का प्रभाव सेवाओं का फल प्राप्त करने वाले नागरिकों पर एक जैसा नहीं होता, वह उनके सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक स्थिति के आधार पर भिन्न-भिन्न होता है। जिनकी सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक स्थिति ऊँची होती है, गुणवत्ता की दृष्टि से उनको अधिक सेवाएँ प्राप्त होती हैं। लोक प्रशासन का यह नैतिक कर्त्तव्य है कि वह इस प्रवृत्ति का विरोध करे। सरकारी अधिकारी को चाहिए कि वह निष्पक्षता का आवरण हटा दें। सामाजिक और अन्य कार्यक्रमों को लागू करते हुए उन्हें चाहिए कि वह अपनी स्वेच्छा का प्रयोग समाज में अल्प सुविधाओं वाले समूहों के हितों की रक्षा करने और बढ़ावा देने के लिये करें।
  4. नया लोक प्रशासन निश्चित रूप से सम्बन्धात्मक है। यह ग्राहक केन्द्रित दृष्टिकोण पर बल देता है। न केवल ग्राहकों अथवा नागरिकों की आवश्यकताओं को सेवा और सामान द्वारा पूरा करने पर बल देता है, अपितु वह इस बात पर भी बल देता है कि नागरिकों को यह बताने का अधिकार होना चाहिए कि उनको क्या, किस प्रकार और कब चाहिए। नीग्रो और नीग्रो (Nigro & Nigro) के शब्दों में "लोक सेवाओं के अधिक प्रभावशाली तथा मानवीय वितरण के हित में वे इस बात की सिफारिश करते हैं कि ग्राहक केन्द्रित प्रशासन के साथ-साथ प्रशासनिक प्रक्रिया में विकेन्द्रीकरण, लोकतांत्रिक ढंग से निर्णय करना और नौकरशाही प्रवृत्ति को दूर करना भी होना चाहिए।" नये लोक प्रशासन के संबंधनात्मक दबाव का अभिप्राय प्रशासनिक अध्ययन और व्यवहार को एक बड़ा मोड़ प्रदान करना है। यह प्रशासनिक कार्य के परिणामों की ओर ध्यान आकर्षित करता है कि नागरिकों के व्यवहार और चरित्र पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है। गोलमब्यूस्की का कहना है कि "इसका अर्थ यदि समूचे तौर पर नहीं, तो केन्द्रीय विषय की दृष्टि से लोक प्रशासन को सिर के बल खड़ा कर देना होगा कि प्रशासन महत्त्वपूर्ण मार्गों में राजनीति को बदल सकता है, न कि राजनीति, प्रशासन को।"
  5. फ्रेडरिकसन का यह भी कथन है कि नये लोक-प्रशासन के सिद्धांत के अधीन कार्यपालिका और विधानमण्डल के परम्परागत कार्यों में परिवर्तन ही किया जायेगा।

नव लोक प्रबन्ध

लगभग 20 वीं शताब्दी के आठवें दशक के अन्त में और नौवें दशक के प्रारम्भ में लोक प्रशासन में लोक प्रबन्ध (Public Management) जैसी प्रवृत्तियां दृष्टिगोचर होने लगी। नव लोक प्रबन्ध का जन्म डेविड ओसबर्न और टेड गेब्लर (David Osborne and Ted Gaebler द्वारा लिखित और 1992 में प्रकाशित पुस्तक रि-इन्वेटिंग गवर्नमेण्ट (Re-Inventing Government) से माना है। नव लोक प्रबन्ध के दृष्टिकोण के विकास में हार्वर्ड स्कूल का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इस स्कूल के सदस्यों ने सार्वजनिक क्षेत्र के लिए प्रबन्धकीय मामलों के विकास में गहरी रूचि दिखाई। नौवें दशक के प्रारम्भ में दुनिया में वैश्वीकरण, उदारीकरण एवं निजीकरण की प्रक्रिया शुरू हो गयी। इस प्रक्रिया में लोक प्रशासन में कुछ नवीन प्रबन्धकीय दृष्टिकोणों जैसे मैनेजरिलिज्म (Managerialism), नव लोक प्रबन्ध (New Public Management) तथा बाजार आधारित लोक प्रशासन (Market Based Public Administration) आदि अवधारणाओं का सूत्रपात हुआ। नवीन लोक प्रबन्ध मुख्यतः इस बात पर जोर देता है कि लोक प्रशासन को पहले सेवा पर जोर देना चाहिए और इसे और अधिक लचीला बनाना चाहिए तथा उसमें निरन्तर सुधार करते रहना चाहिए। नव लोक प्रबन्ध का जोर प्रबन्ध, कार्य निष्पादन तथा दक्षता पर है न कि नीति पर। यह कुशलता, मितव्ययता तथा प्रभावशीलता का पक्षधर है।

मोहित भट्टाचार्य ने नवीन लोक प्रबन्ध की नियोजित विशेषताओं का उल्लेख किया है-
  • नीति के स्थान पर प्रबन्ध, निष्पादन, मूल्यांकन और कार्यकुशलता पर ध्यान केन्द्रित करना ।
  • सार्वजनिक नौकरशाही का ऐसे अभिकरणों में विघटन जो ठेके/संविदा के आधार पर कार्य करती है।
  • अर्द्ध बाजारों का प्रयोग और ठेके द्वारा प्रतिस्पर्धा का प्रोत्साहन।
  • लागत व्यय को कम करके लोक प्रशासन को मितव्ययी बनाना
  • प्रबन्ध की ऐसी व्यवस्था जिसमें निर्गत लक्ष्यों, अल्पकालिक ठेके, आर्थिक प्रोत्साहन और प्रबन्ध सम्बन्धी स्वायत्तता पाई जाती है।

मूल्यांकन

यह कहा जाता है कि नये लोक प्रशासन की भिन्नता केवल परिभाषा के कारण ही है। उदाहरणतया कैम्बेल (Campbell) का तर्क है कि "यह पुराने” लोक प्रशासन से भिन्न केवल इसलिए है कि अन्य युगों की अपेक्षा एक भिन्न प्रकार की सामाजिक समस्याओं के प्रति सहानुभूतिपूर्ण है। राबर्ट टी. गोलब्यूस्की का मत है कि अधिक से अधिक नये लोक प्रशासन को अंशतः ही सफल मानना चाहिए, संभवतः यह आकांक्षाओं और अनुपालन के क्षेत्र में जो अन्तर है, उसका निर्मम स्मरण कराना मात्र है।" वे कहते हैं कि “यह शब्दों में क्रांति का उग्रवाद है पर तकनीकों अथवा कौशल में अधिक से अधिक यथापूर्व स्थिति ही है।

किन्तु नीग्रो और नीग्रो का मत है कि नये लोक प्रशासन ने निश्चित रूप से नये क्षेत्र में पदार्पण किया है और लोक प्रशासन के पाठ्यक्रम को नयी विषय वस्तु प्रदान की है। इसमें नवीनता यह है कि प्रशासक के लिये सामाजिक न्याय की भूमिका निभाने की सिफारिश का समर्थन किया गया है, क्योंकि "सामान्यतया सरकारी अधिकारी के लिए यह उचित नहीं समझा जाता कि वह पक्षपात करे और समाज में किसी विशेष समूह के हितों को बढ़ावा दे।" नये लोक प्रशासन के सिद्धान्तों के आलोचकों को यह भय है कि सामाजिक न्याय के अनुकरण में प्रशासक आसानी से विधानमण्डल तथा जनता की बहुसंख्या के विचारों की अवज्ञा कर सकता है। इसके अतिरिक्त, इस विषय पर मतभेद है कि सामाजिक न्याय का अर्थ क्या है और सार्वजनिक कार्यक्रमों में यह क्या चाहता है।
नये लोक प्रशासन के आलोचकों का यह भी कहना है कि प्रशासक वर्तमान कार्यक्रमों को प्रशासित करते हुए प्रायः नयी नीति का निर्माण करते हैं, यह अनिवार्य नहीं कि वह निर्वाचित अधिकारियों और जनता के अधिकतर भाग की इच्छाओं के अनुकूल हो। फिर भी “नये” लोक प्रशासन ने जो दिशा दिखाई है, उससे इन्कार नहीं किया जा सकता। अन्त में नीग्रो के विचारों को देना उचित रहेगा, उनका कथन है

"स्पष्टतया नये लोक प्रशासन के समर्थकों ने रचनात्मक वाद-विवाद को प्रेरित किया है तथा वे प्रशासन के सकारात्मक व नैतिक उद्देश्यों पर जो बल देते हैं, उसका स्थायी प्रभाव पड़ेगा। जब से नये लोक प्रशासन का उदय हुआ है, मूल्यों और नैतिकता के प्रश्न लोक प्रशासन में मुख्य विषय रहे हैं।"

महत्त्वपूर्ण बिन्दु

  • राजनीतिक व्यवस्था का संचालन करने के लिए एक निश्चित सरकार तथा लोक प्रशासन होता है।
  • लोक प्रशासन की सफलता अथवा असफलता द्वारा सरकार, राज्य एवं समाज की सफलता एवं असफलता निर्धारित होती है।
  • डॉनहम का यह कथन समीचीन प्रतीत होता है कि 'यदि हमारी सभ्यता विफल होती है तो यह मुख्यतः प्रशासन की विफलता के कारण होगी।
  • राज्य के स्वरूप एवं गतिविधियों के विस्तार से प्रशासन का महत्त्व बढ़ता गया।
  • प्रशासन के बढ़ते महत्त्व एवं उसकी इस अपरिहार्यता के कारण वर्तमान राज्य को प्रशासनिक राज्य' की संज्ञा से विभूषित किया गया है।
  • लोक प्रशासन का साधारण शब्दों में अर्थ है, एक ऐसी प्रक्रिया जो सभी सामूहिक प्रयासों में (चाहे वह सार्वजनिक हो अथवा निजी, सैनिक हो अथवा असैनिक) पायी जाती है।
  • प्रशासन वह कला है, जिसमें किसी विशिष्ट उद्देश्य अथवा लक्ष्य की प्राप्ति के लिए बहुत से व्यक्तियों का निर्देशन, नियंत्रण तथा समन्वयन किया जाता है।
  • प्रशासन का वह भाग, जो सामान्य जनता के लाभ के लिए, सामान्य हित संवर्द्धन के लिए अथवा सार्वजनिक सेवा से संबंधित हो, उसे लोक प्रशासन कहा जाता है।
  • लोक प्रशासन का सम्बन्ध सामान्य अथवा सार्वजनिक नीतियों के निर्माण एवं क्रियान्वयन से होता है।
  • लोक प्रशासन का सम्बन्ध सरकार के 'क्या' तथा 'कैसे' से है।
  • लोक प्रशासन के अर्थ का सीमित तथा व्यापक दोनों रूपों में अध्ययन किया जाता है।
  • लोक प्रशासन के सीमित अर्थ में लोक प्रशासन कार्यपालिका की शाखा अथवा कार्यपालिका का अध्ययन है जबकि व्यापक अर्थ में लोक प्रशासन में कार्यपालिका, व्यवस्थापिका, न्यायपालिका आदि सभी के कार्यों का प्रशासनिक दृष्टि से अध्ययन किया जाता है।
  • लोक प्रशासन का एकीकृत दृष्टिकोण व प्रबन्धात्मक दोनों दृष्टिकोणों से अध्ययन किया जाता है।
  • लोक प्रशासन के एकीकृत दृष्टिकोण के अनुसार प्रशासन में वे सभी क्रियाएँ (शारीरिक, मानसिक, दैनन्दिन (Routine) अथवा प्रबन्धात्मक (Managerial), जिनका लक्ष्य सार्वजनिक सेवा हो, शामिल की जाती हैं। इस सन्दर्भ में साइमन का यह कथन उचित प्रतीत होता है कि लोक प्रशासन में सामान्य लक्ष्यों की पूर्ति के लिए सहयोग करने वाले वर्गों की सभी क्रियाएँ सम्मिलित होती हैं।
  • लोक प्रशासन के प्रबन्धात्मक दृष्टिकोण के अनुसार, प्रशासन में केवल नियोजन, संगठन, निर्देशन, नियंत्रण, पर्यवेक्षण, समन्वयन आदि कार्य ही शामिल किये जाते हैं। इनमें शारीरिक, दैनन्दिन आदि कार्य शामिल नहीं किये जाते हैं।
  • प्रशासन के सम्बन्ध में उपर्युक्त दोनों दृष्टिकोण एकतरफा, एकांगी तथा अपूर्ण हैं। दोनों दृष्टिकोण मिलकर लोक प्रशासन का पूर्ण अर्थ स्पष्ट करते हैं।
  • लोक प्रशासन कला तथा विज्ञान दोनों हैं उर्विक, टीड, ग्लैडन आदि विचारकों का मानना है कि जिस प्रकार एक कलाकार, कवि अथवा चित्रकार कला के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति करता है, उसी प्रकार एक प्रशासक, प्रशासन के माध्यम से अपनी आत्माभिव्यक्ति करता है।
  • लोक प्रशासन की वैज्ञानिकता के सन्दर्भ में सभी विचारक एक मत नहीं हैं।
  • कुछ विचारकों का मानना है कि लोक प्रशासन पहले से ही एक विज्ञान है। (विल्सन और विलोबी)
  • कुछ विचारकों का कहना है कि लोक प्रशासन विज्ञान बनने की प्रक्रिया में है।
  • कुछ विचारकों का कहना है कि लोक प्रशासन विज्ञान है ही नहीं।
  • एक अन्य श्रेणी उन विचारकों की है जिनका विश्वास हैं कि लोक प्रशासन कभी विज्ञान बन ही नहीं सकता इसलिए इस सन्दर्भ में कोई भी प्रयास बेकार है। (मार्शल ई. डिमोक तथा डी. वाल्डो)
  • लोक प्रशासन को समाज विज्ञान कहा जाना उचित होगा।
  • लोक प्रशासन का प्रारम्भ में क्षेत्र बहुत सीमित था लेकिन द्वितीय महायुद्ध के बाद घटित होने वाली घटनाओं एवं उसके द्वारा सम्पादित की जाने वाली गतिविधियों एवं कार्यों ने उसके क्षेत्र में अभूतपूर्व वृद्धि कर दी है।
  • लोक प्रशासन के क्षेत्र का अध्ययन दो बिन्दुओं (1) गतिविधि, तथा (2) शैक्षिक विषय के रूप में किया जा सकता है।
  • गतिविधि के रूप में लोक प्रशासन का आविर्भाव तभी हो गया था जब समाज अथवा राज्य अस्तित्व में आये। लेकिन एक शैक्षिक विषय के रूप में लोक प्रशासन का जन्म अभी हाल ही में सन् 1887 में वुड्रो विल्सन के एक लेख 'द स्टडी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन (The Study of Administration) में हुआ है। इसलिए वुड्रो विल्सन को लोक प्रशासन का जनक कहा जाता है।
  • पोस्डकॉर्ब (POSDCORB) विचार का प्रतिपादन लूथर गुलिक ने किया।
  • पोस्डकॉर्ब विचारधारा लोक प्रशासन के 'कैसे' से सम्बन्धित है।
  • वुडरो विल्सन जैसे विचारकों का मानना हैं कि राजनीति और प्रशासन दोनों का क्षेत्र पृथक-पृथक होता है। दोनों के लक्ष्य, कार्य एवं प्रकृति भी अलग-अलग दिखायी देती है।
  • एक अन्य दृष्टिकोण के अनुसार, राजनीति और प्रशासन का घनिष्ठ सम्बन्ध है। इन्हें एक दूसरे से पृथक नहीं किया जा सकता। लूथर गुलिक, लैसली लिपसन और विलोबी आदि को इस दृष्टिकोण के प्रमुख समर्थक विचारक कहा जा सकता है।
  • दोनों दृष्टिकोणों के सन्दर्भ में संतुलित मत यह है कि राजनीति और प्रशासन में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। ये एक दूसरे के सहयोग पर निर्भर हैं। एक दूसरे को समझे बिना वे प्रभावपूर्ण ढंग से कार्य नहीं कर सकते। राजनीतिज्ञों को चाहिए कि वे प्रशासन के स्वरूप और आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर नीति निर्माण करें। इसी प्रकार प्रशासकों को चाहिए कि वे नीतियों एवं विधियों को ध्यान में रखें।
  • सातवें दशक के बाद लोक प्रशासन में नव लोक प्रशासन के युग का सूत्रपात होता है। लोक प्रशासन के पुराने सिद्धान्तों – मितव्ययता तथा कार्यकुशलता को अपर्याप्त और अपूर्ण माना गया।
  • सातवें दशक के अन्तिम वर्षों में कुछ विद्वानों विशेषकर युवा वर्ग ने लोक प्रशासन में मूल्यों, मान्यताओं, नैतिकता, सामाजिक न्याय, सामाजिक परिवर्तन, सरकार तथा प्रशासन में नवाचारों (Innovations) तथा सुधारों (Reforms) आदि की ओर ध्यान आकर्षित किया। इन्हीं प्रवृत्तियों को नव लोक प्रशासन का नाम दिया गया।

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