लोकतंत्र किसे कहते हैं? | Loktantra kise kahate hain

लोकतंत्र

समकालीन युग लोकतंत्र का युग है। सत्ता तथा जनता के बीच घनिष्ठ एवं अत्यंतिक संबंध स्थापित करने वाली एक प्रणाली के रूप में लोकतंत्र सभी देशों में एक अनिवार्य एवं नितांत वांचित आवश्यकता के रूप में है। सत्ता में जन सहभागिता सुनिश्चित कराने वाली यह व्यवस्था लोकप्रिय संप्रभुता की द्योतक तक है।
loktantra-kise-kahate-hain
प्लेटो से लेकर अब तक राजनीतिक सिद्धांत में लोकतंत्र सर्वाधिक चर चर्चित विषय रहा है। रोबोट. ए. डॉहल ने लोकतंत्र को बहुलतंत्र कहा है। अन्य विद्वानों ने इसे जनतंत्र, लोकतंत्र, राष्ट्रीय प्रजातंत्र, पंचायती प्रजातंत्र इत्यादि कई नामों से पुकारा है। इस विभिन्न नामों के प्रयोग के कारण लोकतंत्र के स्वरूप में अस्पष्टता, अनिश्चितता, भ्रांति तथा वैचारिक कठिनाइयां उत्पन्न हो रही है। इसलिए सारटोरी ने वर्तमान अवस्था को "लोकतंत्रात्मक भ्रांति का युग" कहा।

लोकतंत्रः अर्थ व परिभाषा

लोकतंत्र की संकल्पना का इतिहास इतना लम्बा है कि इसका कोई निश्चित अर्थ नहीं बताया जा सकता। प्लेटो से लेकर आज तक राजनीति विज्ञान में लोकतंत्र चर्चा का विषय रहा है।
प्लेटों ने लोकतंत्र को उपयुक्त शासन के रूप में अमान्य करार दिया वहीं अरस्तु ने सीमित लोकंतत्र को उचित शासन माना। हालांक प्राचीन काल में लोकतत्र को सराहा नहीं गया किन्तु फिर भी यहां इक्का -दुक्का प्रत्यक्ष लोकतंत्र के उदाहरण दिखायी दिये। इसप्रकार प्राचीन काल से 18 वीं सदी तक के काल का ऐतिहासिक अवलोकन किया जाए तो लोकतंत्र कहीं भी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं कर सका बल्कि इसे बहुत घृणित व निन्दनीय दृष्टि से देखा जाता रहा। किन्तु जॉन लॉक (1632-1704) जो ब्रिटिश क्रांति के दार्शनिक कहे जाते है, ने व्यक्ति के महत्व को इतना बढ़ा दिया कि निरंकुश राजतंत्र की जड़ें हिल गई।
लॉक ने व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों को सर्वश्रेष्ठ स्थान प्रदान किया और इसीलिए 17वीं सदी प्राकृतिक अधिकारों की सदी कही जाने लगी जिनके आधार पर लोकतंत्र का समर्थन किया गया। और इस प्रकार 20वीं सदी आते-आते लोकतंत्र सर्वश्रेष्ठ सम्मानीय शब्द में परिवर्तित हो गया। 1776 की अमेरिकी क्रांति व 1789 की फ्रांसीसी क्रांति आधुनिक लोकतंत्र के विकास की क्रमशः पहली और दुसरी महत्वपूर्ण क्रांतियों थी।
लोकतंत्र के अंग्रेजी पर्याय डेमोक्रेसी शब्द की उत्पत्ति ग्रीक शब्द डेमोस जिसका अर्थ है जनसाधारण व क्रेटिया जिसका अर्थ हैं शासन या शक्ति, से मिलकर हुई है। जिसका अर्थ है जनसाधारण का शासन या शक्ति। अतः संक्षिप्त रूप में लोकतंत्र वह शासन प्रणाली है जिसमें सत्ता का अंतिम सूत्र जनता के हाथों में होता है ताकि उसका प्रयोग जनता के हित में किया जा सके। किन्तु अपने व्यपक अर्थ में लोकतंत्र जनता के शासन से कहीं अधिक है।
लोकतंत्र को व्यापक दृष्टि से समझने के लिए आवश्यक है कि उसका संकल्पनात्मक आशय स्पष्ट किया जाएं। संकल्पनात्मक दृष्टि से लोकतंत्र के निम्न भावार्थ है

लोकतंत्र निर्णय करने की विधा है
लोकतंत्र को निर्णय करने के ढंग के आधार पर सर्वप्रथम अरस्तु ने परिभाषित किया था। वही निर्णय लोकतांत्रिक ढंग से लिए हुए कहे जाते है जिनमें विचार-विनिमय व अनुनयता हो, जन सहभागिता हो अर्थात विचार विमर्श प्रक्रिया में सम्पूर्ण जन समाज का सहभागी होना आवश्यक है। उल्लेखनीय है कि लोकतंत्र में भागीदार होना उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना की अवसर की उपलब्धता अर्थात सारे जनसमाज को लोकतांत्रिक निर्णय लेने में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सहभागी होने का अवसर प्राप्त होना चाहिए। और नियत कालिक चुनाव तथा व्यस्क मताधिकार जन सहभागिता के उपकरण है। हालांकि सम्पूर्ण जनता का सहभागी होना निर्णय प्रक्रिया के लिए आदर्श कहा जाता किन्तु सभी निर्णयों में सभी को भागीदारी असम्भव है इसलिए व्यवहार में बहुमत के आधार पर निर्णय लिए जाते है और इन्हीं को लोकतांत्रिक मान लिया जाता है। बहुमत पर आधारित निर्णय में यह सम्मभव है कि कुछ लोगों का हित न हो, तो ऐसी अवस्था में बहुमत के निर्णय अल्पसंख्यकों के हित को ध्यान में रख कर होने चाहिए।

लोकतंत्र निर्णय लेने की सिद्धांत के रूप में
लोकतांत्रिक व्यवस्था में कोई भी राजनीतिक निर्णय सिद्धांतों के आधार पर लिए जाने चाहिए अन्यथा निर्णय तो समरूपी रहेंगे और मैं ही दिशात्मक एकतायुक्त बन पाएंगे। लोकतांत्रिक व्यवस्था का अस्तित्व उसी राजनीतिक व्यवस्था में सम्भव है जहां समाज के संबंध में निर्णय लेने के आधार स्वरूप कुछ सिद्धांत व्यवहार में प्रयक्त होते हैं जैसे:-
  • (क) प्रतिनिधि सरकार का सिद्धांत:- राजनीतिक व्यवस्था में निर्णय लेने का कार्य जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा ही संपादित होना चाहिए।
  • (ख) उत्तरदायी सरकार का सिद्धांत:- प्रतिनिधियों को सत्ता जनता द्वारा प्राप्त होती है अतः उनका जनता के प्रति उत्तरदायी होना आवश्यक है।
  • (ग) संवैधानिक सरकार का सिद्धांत:- शासन व्यवस्था को लोकतांत्रिक आधार प्रदान करने के लिए आवश्यक है कि इसकी संरचनात्मक व्यवस्था व कार्य प्रणाली संविधान द्वारा निरूपित होनी चाहिए उल्लेखनीय है कि संविधान के साथ साथ संवैधानिक सरकार भी हो जो संविधान को व्यवस्थाओं के अनुसार संगठित, सीमित, और नियंत्रित होती हो तथा किसी व्यक्ति विशेष को इच्छाओं के स्थान पर केवल विधि के अनुरूप ही संचालित हो।
  • (घ) प्रतियोगी राजनीति का सिद्धांत:- लोकतांत्रिक व्यवस्था की जीवन रेखा प्रतियोगी राजनीति है। राजनीति को प्रतियोगी बनाने के लिए आवश्यक है कि दो या दो से अधिक संगठन दलीय समूहों के रूप में वैकल्पिक पसदों की विद्यमानता, हो सर्वव्यापी व्यस्क मताधिकार हो, प्रतिनिधित्व की अधिकतम एकरूपता हो तथा नियतकालिक चुनाव को व्यवस्था हो।

लोकतंत्र आदर्श मूल्यों के समूह के रूप में
मूल्य या आदर्श लोकतांत्रिक व्यवस्था की कसौटी के आधारभूत तत्व होते हैं जिनके आधार पर कोई भी राजनीतिक या सामाजिक व्यवस्था लोकतांत्रिक या अलोकतांत्रिक रूप धारण करती है। कोरी तथा अब्राह्य ने निम्न मूल्यों को लोकतांत्रिक समाज के लिए आधारभूत माना है-
  • व्यक्तिगत व्यक्तित्व का सम्मान
  • व्यक्तिगत स्वतंत्रता
  • विवेक में विश्वास
  • समानता
  • न्याय
  • विधि का शासन

लोकतंत्र जीवनशैली के रूप में

शास्त्रीय उदारवादी के समर्थक लोकतंत्र को जीवन शैली के रूप में चित्रित करते हैं। लोकतांत्रिक जीवन शैली का आशय दूसरों के विचारों के प्रति सहिष्णु होना है। मिल के अनुसार "दूसरों के विचारों का सम्मान करना ही लोकतांत्रिक जीवन शैली है। इसी प्रकार अमेरिकी दार्शनिक जॉन डयूई जो कि इस विचार संप्रदाय के प्रमख विचारक माने जाते हैं इन्होंने अपनी पस्तक "डेमोकेसी एंड एजकेशन' में लिखा है की "जब बहत सारे नागरिक एक दूसरे से मिलते है परस्पर संवाद स्थापित करते हैं विचारों का आदान प्रदान करते हैं और उनके प्रभाव की जांच करने के लिए उन्हें कार्य रूप देते हैं तब सही अर्थ में लोकतांत्रिक समुदाय अस्तित्व में आता है।

लोकतंत्र की परिभाषा

विभिन्न विचारकों ने लोकतंत्र को विभिन्न रूपों में परिभाषित किया है यथा-
  • "लोकतंत्र ऐसा शासन है जिसमें राज्य की सर्वोच्च सत्ता सम्पूर्ण जाति को प्राप्त हो' – हेरोडोटस
  • "लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा शासन है।' – अब्राहम लिंकन
  • "जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में लोकतंत्र का एक संदर्भ है और प्रत्येक क्षेत्र में यह कई ऐसी विशेष समस्याएँ उठाता है जिन्हें सर्वव्यापक स्तर पर संतोषजनक ढंग से हल नहीं किया जा सकता।'- लास्की
  • "लोकतंत्रीय व्यवस्था वह है जो सरकार को उत्तरदायी तथा नियंत्रणकारी बनाती हो तथा जिसकी प्रभावकारिता मुख्यतः इसके नेतृत्व की योग्यता तथा कार्यशीलता पर निर्भर हो।"- सारटोरी
  • "लोकतंत्र शासन का वह प्रकार हैं, जिसमें शासक समुदाय संपूर्ण राष्ट का अपेक्षाकृत एक बड़ा भाग हो।" - डायसी
  • "लोकतंत्र ऐसी शासन प्रणाली हैं जिसमें कानून की दृष्टि से राजय की नियामक सत्ता किसी विशेष वर्ग या वर्गों के हाथों में नहीं रहती, बल्कि समुदाय के सभी सदस्यों में निहित होती है।" - ब्राइस
  • "लोकतंत्र शासन का वह रूप है जिसमें राज्य के अधिकार विशेषज्ञ श्रेणी के लोगों को नहीं बिल्कि समूचे समाज के लोगों को प्रदान किये जाते हैं।''- ब्राइस
  • "लोकतंत्र सरकार का वह शासन है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति की भागीदारी होती है।'- सीले
  • "वह राज्य शासन जिसमें सर्वोच्च सत्ता में भाग लेने का अधिकार केवल जनता को ही प्राप्त हो लोकतंत्र कहलाता है।" - गैटेल
इस प्रकार स्पष्ट है कि ज्यों-ज्यों राजव्यवस्थाओं और समाज का परिवर्तन होता रहा है त्यों-त्यों लोकतंत्र का रूप बदलता रहा है अतः इसकी कोई सर्वमान्य परिभाषा देना अत्यंत दुष्कर कार्य हो गया है। एक लेखक ने कहा है कि लोकतंत्र मस्तिष्क की उपज हैं और जितने अधिक मस्तिष्क होंगे लोकतंत्र उतना ही बिखरा होगा।

लोकतंत्र के दृष्टिकोण

लोकतंत्र की अवधारणा को मान्यताओं की समानता व प्रचलन के आधार पर तीन वर्गों में बांटा जा सकता है- पश्चिमी या उदारवादी अवधारणा, समाजवादी अवधारणा व साम्यवादी अवधारणा।

लोकतंत्र का पश्चिमी या उदारवादी दृष्टिकोण
लोकतंत्र की पश्चिमी अवधारणा के प्रमुख विचारक रोबोट सी. बोन., एलेन बाल, जीन ब्लोडले. पीटर मर्कल को माना जाता है। लोकतंत्र की पश्चिमी अवधारणा मख्यत: व्यक्ति की स्वतंत्रता राजनीतिक समानता, सामाजिक आर्थिक न्याय तथा लोक कल्याण कि सिद्धि पर जोर देती है। उदारवाद और लोकतंत्र के इस संयोग में ऐतिहासिक परिस्थितियों का विशेष हाथ रहा है। 17वी शताब्दी के समाज के आर्थिक जीवन में पूंजीवाद को बढ़ावा दिया जिसमें उत्पादन वितरण व नियमित के साधन पूंजीपतियों के हाथों में केंद्रित हो गए इससे बड़े पैमाने पर औद्योगिकीकरण और शहरीकरण को बढ़ावा मिला परिणाम यह हुआ कि एक विशाल कामगार वर्ग बड़े-बड़े औद्योगिक नगरों में केंद्रित हो गया खुले बाजार में प्रतिस्पर्धा में कामगार वर्ग की दशा लगातार खराब हो गई परंतु यह वर्ग अपनी विशाल संख्या से जुड़ी हुई शक्ति के प्रति भी सजग हो गया तब कामगार वर्ग ने अपनी दुर्दशा से उबने के लिए राजनीतिक अधिकारों की मांग की अतः उदारवादी राज्य ने मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था के साथ साथ धीरे धीरे सार्वजनिक व्यस्क मताधिकार के सिद्धांत को अपना लिया व उदार लोकतंत्र की उत्पत्ति हुई। उदार लोकतंत्र के समर्थक लोकतंत्र की व्यवस्थाओं व प्रक्रियाओं पर विशेष बल देते हैं। उदार लोकतंत्र के समर्थक लोकतंत्र की व्यवस्थाओं व प्रक्रियाओं पर विशेष बल देते हैं।
पश्चिमी उदार लोकतंत्र के आधार : पश्चिमी उदार लोकतंत्र में मुख्यतः तीन आधार स्वीकार किए जाते हैं-
  1. दार्शनिक
  2. सैद्धान्तिक
  3. संस्थागत

दार्शनिक आधार : ये उदार लोकतांत्रिक समाजों को साध्यों, आदर्शों या मूल्यों का संकेत करते हैं। ये राजनीतिक व्यवस्थाओं के गन्तव्यों से सम्बन्ध रखते हैं। मुख्यत: उदार लोकतांत्रिक राज्यों में चार दार्शनिक आधार स्वीकार किए जाते हैं:
  1. व्यक्ति की स्वतंत्रता
  2. सामाजिक व आर्थिक न्याय
  3. राजनीतिक समानता
  4. लोक कल्याण

सैद्धान्तिक आधार : ये आधार भी दार्शनिक आधारों की भाँति साघ्यों, आदर्शों या मूल्यों की ओर संकेत करते हैं तथा दार्शनिक आधारों को व्यवहार में ठोस रूप प्राप्त कराने की व्यवस्था करते हैं तथा दार्शनिक आधारों को व्यवहार में ठोस रूप प्रापत कराने की व्यवस्था करते हैं। इसमें निम्न सिद्धान्तों को आवश्यक रूप से अपनाया जाता है।
  1. प्रतिनिधि सरकार का सिद्धान्त
  2. उत्तरदायी सरकार का सिद्धान्त
  3. संवैधानिक सरकार सिद्धान्त
  4. प्रतियोगी राजनीति का सिद्धान्त
  5. जन संप्रभुता का सिद्धान्त

संस्थागत आधार : संस्थागत आधार साध्यों को व्यवहार में प्राप्त करने के साधनों की व्यवस्था करता है। सामान्यतः उदार लोकतंत्रों में निम्नसंस्थागत पाई जाती है :
  1. प्रतियोगी राजनीतिक दल
  2. सर्वव्यापी वयस्क मताधिकार
  3. स्वतंत्र तथा नियमित चुनाव
  4. स्वाधीन तथा निष्पक्षक न्यायपालिका
  5. बहुमत के आधार पर निर्णय

लोकतंत्र का साम्यवादी मार्क्सवादी दृष्टिकोण
यह अवधारणा 20 वीं शताब्दी में उभर कर सबके सामने आई। वस्तुतः उदारवादी और साम्यवादी (मार्क्सवादी) दोनों लोकतंत्र का समर्थन करते हैं और दोनों ही लोकतंत्र को जनता का शासन मानते हैं। परंतु व्यवहार के धरातल पर जनता के शासन को कैसे सार्थक किया जा सकता है इस विषय पर दोनों में मतभेद हैं उदारवाद के समर्थक लोकतंत्र को उसकी संस्थाओं और प्रक्रियाओं से पहचानते हैं जिसमें निर्वाचित विधानमंडल, व्यस्क मताधिकार, सत्ता प्राप्ति के लिए अनेक राजनीतिक दलों की प्रतिस्पर्धा, नियतकालिक चुनाव, विचार अभिव्यक्ति संगठन सभा करने की स्वतंत्रा इत्यादि शामिल है। जबकि सम्यवाद के समर्थक लोकतंत्र के सिद्धांत या लक्ष्य को प्रमुख स्थान देते हैं और इसकी कसौटी यह है कि शासन जनसाधारण के हित में कार्य करें और उसमें जनसाधारण का शोषण ना हो दूसरे शब्दों उदारवादी विचारक लोकतंत्र व पूंजीवाद संस्थाओं में कोई विरोध नहीं देखते। परन्तु मार्क्सवादी विचारक समाज की आर्थिक संरचना को सारे सामाजिक सम्बन्धों का आधार मानते हुए यह तक्र देते है कि जब तक समाज की संरचना लोकतंत्रीय नहीं होगी तब तक राजनीतिक स्तर पर लोकतंत्र केवल आडम्बर बना रहेगा। अतः वे लोकतंत्र की सार्थकता के लिए समाजवाद को अनिवार्य मानते है। उनका दावा है कि उत्पादन के प्रमुख साधनों पर समाज का स्वामित्व व नियंत्रण स्थापित कर देने से धनवान व निर्धन वर्गों की दूरी मिट जाएगी और समाज का स्वरूप लोकतांत्रिक हो जाएगा। इसके लिए साम्यवादी निम्न व्यवस्थाओं को स्थापित करना चाहते है-
  1. उत्पादन व वितरण के साधनों पर सार्वजनिक स्वामित्व
  2. सम्पत्ति का समान वितरण
  3. सर्वहारा वर्ग का अधिनामकतंत्र
  4. साम्यवादी कल (लोकतांत्रिक केन्द्रवाद)
इन सभी व्यवस्थाओं में साम्यवादी सर्वहारा वर्ग के अधिनायकतंत्र को सर्वाधिक महत्व देते हुए इसे ठोस लोकतंत्र को संज्ञा देते है। सर्वहारा का अधिनायकतंत्र एक ऐसे राज्य की ओर संकेत है जिसमें सर्वहारा अर्थात निर्धन बहुसंख्यक कामगार वर्ग का प्रभुत्व होगा। इस अधिनायकवाद की स्थापना तब होती है जब सर्वहारा वर्ग के लोग क्रांति करके पूंजीवादी व्यवस्था को धराशाही कर देते है। साम्यवादियों का मानना है यदि लोकतंत्र का अर्थ बहुमत का शासन है तो पूंजीवादी व्यवस्था में लोकतंत्र सम्भव ही नहीं है क्योंकि वहां मुट्ठीभर पूंजीपति बहुत बड़े कामगार वर्ग पर शासन करते है। यह प्रभुत्व मानवीय स्वतंत्रता के लिए घातक है। इसके विपरित सर्वहारा के अधिनायकतंत्र में समाजवादी उत्पादन प्रणाली के अन्तर्गत अल्पमत (पूंजीपति वर्ग) पर बहुमत (कामगार वर्ग) का प्रभुत्व रहेगा। अत: सर्वहारा का अधिनायकतंत्र इसलिए ठोस लोकतंत्र है क्योंकि इसका ध्येय लोक शक्ति का प्रभुत्व स्थपित करना है। साम्यवादियों का मानना है कि सर्वहारावर्ग के अधिनायकतंत्र के अन्तर्गत शासन लोकतंत्रीय केन्द्रवाद के सिद्धात के अनरूप चलाया जायेगा। इस सिद्धान्त का प्रयोग साम्यवाद दल द्वारा किया जायेगा। इस सिद्धान्त की नींव सोवियत संघ के संस्थापक नेता वी.आई लेनिन ने रखी थी तथा इसका तात्पर्य यह है कि दल या शासन के निचले अंग क्रमशः अपने ऊचे अंगों का निर्वाचन करेंगें व निर्णयों का पालन करने को बाध्य होंगें।

लोकतंत्र का समाजवादी दृष्टिकोण
अभी हमने पहली (उदारवादी) और दूसरी (साम्यवादी) दुनिया के देशों में लोकतंत्र के प्रति दृष्टिकोण की चर्चा की किन्तु तीसरी दुनिया (विकासशील देश) में लोकतंत्र के प्रति कुछ भिन्न प्रकार का दृष्टिकोण देखा गया। इसमें उदारवादी व साम्यवादी दोनों दृष्टिकोणों की मान्यताओं व लक्षणों को अपनाया गया। समाजवादी लोकतंत्रों में राजनीतिक समाजों के मूलय उदारवादी लोकतंत्रों की संकल्पना के समान स्वतंत्रता, राजनीतिक समानता, सामाजिक व आर्थिक न्याय तथा लोक कल्याण को साधना के होते है किन्तु साधनों को दृष्टि से ये लोकतंत्र साम्यवादी संकल्पना के समीप होते है। यही कारण है क अनेक नवोदित राज्यों में लोकतंत्र का एक नया रूप विकसित होता हुआ दिखाई देता है किन्तु यह नया रूप सभी राज्यों में समान नहीं होता। कई ऐसे राज्य हैं जहां लोकतंत्र की संस्थागत व्यवस्थाए व राजनीतिक समाज के आदर्श एक ही दिशा में जाने वाले होते जा रहे हैं। इन्हीं राज्यों के लोकतंत्र को समाजवादी लोकतंत्र के नाम से जाना जाता है। लोकतंत्र का समाजवादी दृष्टिकोण के तहत लोकतंत्र को अनेक रूपों में देखा गया है। जैसे जनवादी लोकतंत्र, बुनियादी लोकतंत्र, निर्देशित लोकतंत्र इत्यादि ।
दूसरे विश्व युद्ध (1939-45) के बाद जब पूर्वी यूरोप के देशों मुख्यतः हंगरी पोलैंड पूर्वी जर्मनी चेकोस्लोवाकिया रोमानिया में तत्कालीन सोवियतसंघ की छत्रछाया में समाजवादी प्रणालियां स्थापित की गई तो उन्हे "जनवादी लोकतंत्र' की संज्ञा दी गई। इसे उदार लोकतंत्र से अलग माना गया क्योंकि उसमें पूंजीवादी राजनीतिक दलों व पूंजीपतियों के हितों की प्रधानता रहती है। दूसरी ओर इसे सोवियत संघ के सर्वहारा लोकतंत्र के साथ भी नहीं मिलाना चाहिए क्योंकि इसके अंतर्गत सर्वहारा वर्ग अपनी शक्ति का प्रयोग किसी अन्य वर्ग के साथ मिल बाट कर नहीं करता अर्थात वहां सर्वहारा वर्ग का एक छत्र राज रहता है। परंतु जनवादी लोकतंत्र के अंतर्गत बुजफ्रआ, निम्न बुजफआ, किसान और सर्वहारा वर्ग अपनी मिली जुली सरकार बनाते हैं हालांकि उसमें सर्वहारा वर्ग की प्रधानता रहती है। मतलब यह है कि पूर्वी यूरोप के जनवादी लोकतंत्र की सरकारों में साम्यवादी दलों के साथ साथ गैरसाम्यवादी दलों को भी सम्मिलित कर लिया गया था। इसी प्रकार के एक और लोकतंत्र “निर्देशित लोकतंत्र का विचार 1957 में इंडोनेशिया के तत्कालीन राष्ट्रपति सुकर्ण ने रखा था। यह लोकतंत्र का एक संशोधित रूप माना जा सकता है जिसमें प्रतिनिधित्व की जगह परामर्श को विशेष महत्व दिया जाता है। राष्ट्रपति सुकर्ण ने तक्र दिया की लोकतंत्र का पश्चिमी प्रतिरूप ऐसे देश के लिए उपयुक्त नहीं होगा जिस में साक्षरता और समृद्धि का स्तर बहुत निम्न हो। तथाकथित निर्देशित लोकतंत्र लोकतंत्र के अंतर्गत लोकप्रिय नेता विभिन्न व्यवसायों के प्रतिनिधियों से परामर्श करके अधिकांश निर्णय अपने विवेक से करता है।

लोकतंत्र के चरण या लहरें

सैमुअल हटिग्टन ने अपनी रचना "The Third wave Democratization in the late Twentieth Century' में लिखा है कि विश्व मे लोकतंत्र के विकास की तीन चरण या लहरे रही है
  1. पहली लहर (1828–1926)– इस चरण में 30 देशों ने न्यूनतम रूप से लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्थापना की। इसमें फ्रांस, अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, जर्मनी, न्यूजीलैंड जैसे देश लोकतांत्रिक हुए।
  2. दूसरी लहर (1943-1962)- इस चरण में इटली, पश्चिमी जर्मनी, भारत, जापान, इजराइल जैसे देश लोकतांत्रिक हुए हैं। इस काल में निर्मित नई लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं इतनी मजबूत नहीं थी।
  3. तीसरी लहर (1974)- स्पेन पुर्तगाल चीली अर्जेंटीना और पूर्वी यूरोप के अन्य देश लोकतांत्रिक जो पहले साम्यवाद थे।
  • अरब वसंत (Arab spring) व लोकतंत्र की चौथी लहर- लोकतंत्र की चौथी लहर या अरब बसंत की अवधारणा अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश जूनियर द्वारा प्रस्तुत की गई थी। जिसके तहत अरब देशों में 2010-13 तक प्रजातंत्र, स्वतंत्र चुनाव, मानव अधिकार, बेरोजगारी एवं शासन परिवर्तन के लिए किए गए प्रदर्शन विरोध व क्रांतिकारी जन आंदोलनों को स्वीकार किया गया था अरब बसंत नाम का प्रयोग प्रथम बार 6 जन 2011 को अमेरिकी जर्नल "The Foreign Policy" में माक्रलिंच ने अपने लेख में किया। इस आंदोलन की शुरुआत ट्यूनीशिया की क्रांति से हुई और शीघ्र ही यह आंदोलन मिश्र लीबिया, यमन, बहरीन, सीरिया, अल्जीरिया, इराक, जार्डन, मोरक्को, सूडान, ओमान, सऊदीअरब इत्यादि देशों में फैल गया। कुछ विद्वानों ने इसे लोकतंत्र की चौथी लहर का नाम भी दिया। अरब देशों में चली आ रही तत्कालीन प्रशासन व्यवस्था एवं सरकार में बदलाव लाना अरब बसंत का मुख्य उद्देश्य था और इस आंदोलन के लिए निम्न कारण उत्तरदायी रहे जैसे अधिनायक वादी शासन व्यवस्थाएं, मानवाधिकारों का उल्लंघन, राजनैतिक भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, आर्थिक असमानता, प्रशासन में नौकरशाही का हावी होना इत्यादि। अरब आंदोलनकारियों ने विरोध के लिए अहिंसात्मक वह हिंसात्मक दोनों तरीके अपनाएं यमन के तवकॉल करमान को 2011 का नोबेल शांति पुरस्कार अरब वसंत में शांतिपूर्ण विरोध के आयोजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए संयुक्त रूप से दिया गया। अरब बसंत के माध्यम से अरब देशों में जो प्रजातंत्र व सुधारों की क्रांतिकारी लहर चली उससे वर्षों से चली आ रही तानाशाही सरकारों का अंत हुआ और सभी अरब देशों में सुधारात्मक दृष्टिकोण की ओर ध्यान दिया जाने लगा जैसे-
  • ट्यूनीशिया के जैनुअल आब्दीन अली मिश्र के होस्नी मुबारक, लीबिया के कर्नल गददफी एवं यमन के शाह अब्दुल्ला का तख्ता पलट दिया गया व नई सरकारे बनी।
  • कुवैत, लेबनान, ओमान व बहरीन ने भी विरोध प्रदर्शनों को देखते हुए अपने प्रशासन में कई सुधार किए।
  • मोरक्को एवं जॉर्डन में संवैधानिक सुधारों की क्रियान्विती हुई।
  • अल्जीरिया में 19 वर्ष पूर्व लागू की गई आपातकालीन स्थिति को हटाया गया।

लोकतंत्र के सिद्धांत

लोकतंत्र के विकास की एक लंबी परंपरा है किंतु कार्य रूप में लोकतंत्र की संभावना प्रतिनिधित्व एवं निर्वाचन के विचार नियमों को स्वीकार करने के कारण हो सकी। इस दिशा में जे. एस. मिल सहित अनेक उपयोगिता वादियों ने योगदान दिया। इन सब के परिणाम स्वरूप पश्चिम में लोकतंत्र को एक सर्वमान्य शासन व्यवस्था के रूप में स्वीकार एवं आत्मसात कर लिया गया ज्यो ज्यो लोकतंत्र को कार्य रूप दिया गया त्यो त्यो उसकी अनेक दुर्बलताएं, सीमाएं एवं बाधाएं भी सामने आयी। राजवेत्तओं ने विभिन्न दृष्टिकोणों से इन पर विस्तार से विचार किया और अनेक वैचारिक व क्रियात्मक समाधान सुझाए इस व्यापक विचार मंथन के फल स्वरुप लोकतंत्र के अनेक सिद्धांत सामने आए-
  • लोकतंत्र का परंपरागत सिद्धांत
  • लोकतंत्र का नव उदारवादी सिद्धांत
  • लोकतंत्र का विशिष्ट वर्गीय सिद्धांत
  • लोकतंत्र का बहुलवादी सिद्धांत
  • लोकतंत्र का सहभागी सिद्धांत
  • लोकतंत्र का वकर्सवादी सिद्धांत
प्लेटो और अरस्तु ने कुछ प्राचीन यूनानी नगर राज्य में विशेषतः एथेंसे में लोकतंत्र को सक्रिय रूप में देखा परंतु प्राचीन यूनानी नगर राज्यों में लोकतंत्र का जो रूप प्रचलित था उसे आदर्श शासन प्रणाली नहीं माना जा सकता था। प्लेटो ने स्वयं कहा था कि "जनसाधारण इतने शिक्षित नहीं होते कि वे सर्वोत्तम शासकों व सबसे बुद्धितापूर्ण नीतियों का चयन कर सके।" फिर अरस्तु ने भी लोकतंत्र को "बहुत सारे लोगों के शासन" के रूप में पहचाना। यह बहुत सारे लोग साधारणतः निर्धन अशिक्षित और असंस्कृत थे जिसमें योग्यता का नितांत अभाव था। एक आदर्श तथा स्थिर शासन प्रणाली की तलाश करते करते अरस्तु इस निष्कर्ष पर पहुंचा की आदर्श शासन प्रणाली "अभिजात तंत्र" और लोकतंत्र का मिश्रण होना चाहिए जिसे उसने "मिश्रित संविधान" (Mixed constitution) का नाम दिया। अर्थात आदर्श शासन प्रणाली वह होगी जिसमें सत्ता तो कुलीन वर्ग के हाथ में रहेगी परंतु शासन की नीतियों के लिए जनसाधारण की सहमति आवश्यक होगी। इस प्रकार अरस्तू ने स्वयं तो लोकतंत्र को नहीं सराहा किंतु आदर्श शासन प्रणाली में उसे उपयुक्त स्थान देने का समर्थन अवश्य करता है।

लोकतंत्र का परंपरागत सिद्धांत
लोकतंत्र के उदारवादी या परंपरागत (चिरसम्मत) सिद्धांत की परंपरा में स्वतंत्रता, समानता, अधिकार, धर्मनिरपेक्षता तथा न्याय जैसी अवधारणाओं का प्रमुख स्थान रहा है। उदारवादी चिन्तक आरंभ से ही इन अवधारणाओं को मूर्त रूप से देने वाली सर्वोत्तम प्रणाली के रूप में लोकतंत्र की वकालत करते रहे हैं। सामंतवाद से मुक्ति के बाद समाज के संचालन की दृष्टि से लोकतंत्र को स्वभाविक राजनीतिक प्रणाली के रूप में स्वीकार किया गया। लोकतांत्रिक भावना की सही शुरुआत सामाजिक संविदा के जन्म के साथ हुई थॉमस हॉब्स ने अपनी पुस्तक लेवियाथन (1651) में प्रमुख लोकतांत्रिक सिद्धांतों की वकालत करते हुए लिखा कि सरकार का निर्माण जनता द्वारा एक सामाजिक संविदा के तहत होती है। लॉक ने लिखा कि सरकार को सत्ता प्राप्त करने के लिए लगातार नागरिकों की सहमति प्राप्त करनी चाहिए। इसी प्रकार से एडम स्मिथ ने मुक्त बाजार का प्रतिमान इस लोकतांत्रिक आधार पर प्रस्तुत किया कि प्रत्येक व्यक्ति को उत्पादन करने, खरीदने और बेचने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। रूसो ने लोकतंत्र की आत्मा के रूप में अपना "सामान्य इच्छा का सिद्धांत" प्रतिपादित किया प्रसिद्ध उपयोगिता वादी दार्शनिक बेथम व मिल ने पूरी तरह से लोकतंत्र का समर्थन किया और उपयोगितावाद के माध्यम से लोकतंत्र को प्रभावी बोधिक का आधार प्रदान किया। उनके अनुसार लोकतंत्र "अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख' को अधिकतम संरक्षण प्रदान करता है। जे .एस. मिल ने प्रतिपादित किया की लोकतंत्र किसी भी अन्य शासन की तुलना में मानव जाति के नैतिक विकास में सर्वाधिक योगदान प्रदान करता है। इन उपयोगिता वादी विचारको ने प्रतिनिधिमूलक लोकतंत्र, संवैधानिक सरकार, बहुमत का शासन, गुप्त मतदान इत्यादि कई तरीके बताएं जिनके द्वारा लोकतंत्र को सुनिश्चित किया जा सकता है। 20वीं शताब्दी में अर्नेस्ट बाक्रर, लिंडसे, लास्की, पिनोक आदि विचारक इस सिद्धांत के प्रबल समर्थक माने जा सकते हैं। 18वीं शताब्दी की अमेरिकी एवं फ्रांसीसी क्रांतीयों द्वारा लोकतंत्र के सिद्धांतों को व्यवहारिक रूप प्रदान करने का प्रयास किया गया।

लोकतंत्र के इस सिद्धांत के निम्न बुनियादी तत्व है:
  • मनुष्य विवेकशील है इसलिए अपना अच्छा बुरा जानता है।
  • राजनैतिक सत्ता जनता की अमानत है।
  • सराकर का उद्देश्य सामान्य जन का भला करना तथा व्यक्ति का चंहमुखी विकास करना है।
  • सरकार सीमित व जनता के प्रति उत्तरदायी होनी चाहिए
  • विचार व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होनी चाहिए व सरकार द्वारा लोकमत का आदर किया जाना चाहिए।

आलोचना
  • यह सिद्धान्त मानकर चलता है कि सभी मनुष्य विवेकशील है इसलिए शासन के संचालन में जन सहभागिता होनी चाहिए। जबकि लार्ड ब्राइस, ग्राहम वाल्स इत्यादि विचारक मानते है कि मनुष्य उतना विवेकशील, तटस्थ व सक्रिय नहीं है जितना कि इस सिद्धान्त के तहत उसे मान लिया गया है। आलोचक कहते हैं कि यदि लोकतंत्र को बचाना है तो उसे जनता को शासन से दूर रखो।
  • लोकतंत्र से यह अपेक्षा की जाती है कि वह सामान्य हित मे काम करेगा लेकिन किसी भी समाज में सामान्य हित विभिन्न लोगों के लिए विभिनन अर्थ रख सकता है।
  • यह सिद्धान्त मूल्यों तथा आदर्शों पर अधिक ध्यान देता है राजनैतिक वास्तविकताओं पर कम। यह ऊंचे आदर्शों जैसे सामान्य इच्छा, लोगो का शासन, सामान्य कल्याण आदि से भरा पड़ा है। जिन्हें प्रयोगात्मक परीक्षण का विषय नहीं बनाया जा सकता। ये सभी शब्द भ्रामक है।
  • यह सिद्धान्त राजनीतिक समानता पर बल देता है जबकि व्यावहारिक स्तर पर राजनैतिक समानता का हो पाना सम्भव नहीं होता।
  • यह सिद्धान्त राजनीति में नेताओं, शासन करने वाले विशिष्ट वर्ग तथा संगठित संस्थाओं को उचित महत्व प्रदान नहीं करता।

लोकतंत्र का विशिष्ट वर्गीय सिद्धान्त
लोकतंत्र के परम्परागत उदारवादी सिद्धान्त ने सरकार के कार्यों में राजनीतिक समानता और व्यक्तिगत भागीदारी को जो केन्द्रिय महत्व दिया था वह 20वीं शताब्दी के लेखकों द्वारा आलोचाना का शिकार हो गया। 20वी शताब्दी के आरम्भिक दौर में इटली के दो प्रसिद्ध समाज वैज्ञानिक- विल्फेडो पैरेटो (1848-1923) और गीतानो मोस्का (1858–1941) ने यह सिद्धान्त प्रस्तुत किया कि किसी भी समाज या संगठन के अन्तर्गत महत्वपूर्ण निर्णय केवल गिने-चुने लोग ही करते है, चाहे उस संगठन का बाहरी रूप कैसा भी क्यों ना हो। यह सिद्धान्त विशिष्ट वर्गीय सिद्धान्त कहलाया। मूलतः विशिष्ट वर्गीय सिद्धान्त समाज विज्ञान के क्षेत्र में यह व्याख्या देने के लिए विकसित किया गया कि सामाजिक संगठन के भीतर मनुष्य किस तरह व्यवहार करते है। इसीप्रकार जर्मन समाज वैज्ञानिक रार्बट मिशेल्स (1876-1936) ने "गुटतंत्र का लोह नियम" (Iron law of oligarchy) का प्रतिपादन किया और उन्होने तक्र दिया कि अधिकांश मनुष्य स्वभाव से जड़ आलसी और दब्बू होते है। जो अपना शासन स्वयं चलाने में समर्थ नहीं होते। परन्तु उनके नेता बड़े कर्मठ दबंग और चतुर होते है जो अपनी वाक्पटुता एवं वक्तृत्व के बल पर लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ करके सत्ता पर अधिकार जमा लेते है। अतः इस प्रकार समाज में चाहे कोई भी शासन प्रणाली क्यो ना अपनाई जाए वह अवश्य ही गुटतंत्र (Oligrachy) या इने-गिने लोगों के शासन का रूप धारण कर लेती है।
अतः इस प्रकार से यह सिद्धांत विशिष्ट वर्ग या अभिजन शब्द का प्रयोग किसी समूह के ऐसे अलपसंख्यक वर्ग के लिए करता है जो कुछ कारकों की वजह से समुदाय में विशिष्ट हैसियत रखते है। यह अल्संख्यक वर्ग समाज में सत्ता के वितरण में अग्रणी भूमिका निभाता हैं। इस सिद्धान्त का मुख्य आधार यह मान्यता है कि समाज में दो तरह के लोग होते है- गिने चुने विशिष्ट (अभिजन) लोग तथा विशाल जनसमूह। विशिष्ट लोग हमेशा शिखर तक पहुंचते है क्योंकि वे सारी अर्हताओं से सम्पन्न सर्वोत्तम लोग होते है। बहुसंख्यक समूह विशिष्ट वर्ग द्वारा मनमाने ढंग से नियंत्रित व निर्देशित होता है। इन समाजवैज्ञानिक सिद्धान्तों ने लोकतंत्र की संभावनाओं को चुनौति देते हुए इस समस्या पर नए सिरे से विचार करते हुए उदार लोकतंत्र की नई व्याख्या प्रस्तुत की जिसमें इस विशिष्टवर्गीय सिद्धान्त की मान्यताओं को भी उपयुक्त स्थान दिया गया। उन्होंने जो विचार प्रस्तुत किए उन्हें सामूहिक रूप से "लोकतंत्र का विशिष्टवर्गीय सिद्धांत' कहा जाता है। इसमें मैन्हाइम, शुम्पीटर, आरों तथा सारटोरी के विचार विशेष स्थान रखते है। सारटोरी ने लोकतंत्र में नेताओं की भूमिका को विशेष महत्व दिया। उन्होंने अपनी पुस्तक 'The Democratic Theory" (1958) में लिखा कि "लोकतंत्र को असली खतरा नेतृत्व के अस्तित्व से नहीं, बल्कि नेतृत्व के अभाव से है।" इसी प्रकार मैन्हाइम ने विशिष्टवर्ग के शासन व लोकतांत्रिक शासन में तालमेल बैठाने के लिए सुझाव दिया कि नेताओं का चुनाव योग्यता के आधार पर होना चाहिए तथा जनसाधारण व विशिष्ट वर्ग के बीच की दूरी कम की जानी चाहिए।

लोकतंत्र के विशिष्टवर्गीय सिद्धान्त की मुख्य विशेषताएं:
  • लोग समान रूप से योग्य नहीं होते अतः विशिष्ट वर्ग व जन साधारण का निर्माण अपरिहार्य है।
  • अपनी उच्चतर योग्यताओं के बल पर विशिष्ट वर्ग सत्ता नियंत्रण व सत्ता वितरण में मुख्य भूमिका निभाता है।
  • विशिष्ट वर्ग अनवरत एक जैसा नहीं रहता । इस वर्ग में नए लोग शमिल होते है और पुराने बाहर हो जाते है।
  • बहुसंख्यक जनसमुदाय में अधिकांश भाव शून्य, आलसी व उदासीन होते है इसलिए एक ऐसा अल्पसंख्यक वर्ग का होना आवश्यक है जो नेतृत्व प्रदान कर सके।
  • आधुनिक युग में विशिष्ट वर्ग में मुख्य रूप से बुद्धिजीवी, औद्योगिक प्रबंधक व नौकरशाह होते है।
अतः इसप्रकार यह सिद्धान्त मानता है कि राजनैतिक तत्व चुनिंदा सक्षम लोगों के हाथ में होना चाहिए। यह सिद्धान्त लोगों की अति सहभागिता को भी खतरनाक मानता है इसलिए इस सिद्धान्त की मान्यता है कि लोकतांत्रिक व उदारवादी मुल्यों को बचाए रखने के लिए जनसमूह को राजनीति से अलग रखना जरूरी हैं यह सिद्धान्त लोकतंत्र को विशिष्ट वर्गों के बीच होने वाली प्रतिद्वन्दिता व प्रतिस्पर्धा के रूप में देखता है। और जिसमें जनता द्वारा केवल यह निर्णय लिया जाता है कि कौनसा विशिष्ट वर्ग उन पर शासन करेगा।

लोकतंत्र के विशिष्टवर्गीय सिद्धान्त की कई विचारकों ने आलोचना की जिनमें सी. बी मैक्फर्सन, बैरी होल्डन, राबर्ट डाहल, क्रिश्चियन बे, बाटोमोर, गोल्ड स्मिथ आदि प्रमुख हैं इस सिद्धान्त के विरूद्ध निम्न आपत्तियां प्रतिपादित की गयी है:-
  1. यह सिद्धान्त लोकतंत्र का अर्थ ही विकृत कर देता है। इसके अनुसार लोकतंत्र का अर्थ केवल जनता द्वारा प्रतिनिधियों को चुनना भर है। जबकि लोकतंत्र का अर्थ जनसहभागिता व उत्तरदायित्व को सुनिश्चित करना है। यह सिद्धान्त लोकतंत्र के इस पक्ष की अवहेलना कर केवल ऐकांगी व एक पक्षीय अध्ययन को प्रस्तुत करता है।
  2. यह सिद्धान्त लोकतंत्र की पुरातन अवधारणा के नैतिक पक्ष को समाप्त कर देता है। पुरातन अवधारणा के अनुसार लोकतंत्र का लक्ष्य जनकल्याण व मानवजाति का उन्नयन हैं। जबकि यह सिद्धान्त अल्पसंख्यक विशिष्टवर्ग के लाभ व हितों पर ही समस्त चिन्तन केन्द्रित करता है।
  3. विशिष्टवर्गीय सिद्धान्त सहभागिता, जो लोकतांत्रिक शासन का केन्द्रिय तत्व है, का तहत्व घटा देता है और दावा करता है कि जन सहभागिता सम्भव है ही नहीं।
  4. यह सिद्धांत एक सामान्य व्यक्ति को राजनैतिक दृष्टि से अक्षम और निष्क्रिय मानता है जिसका कार्य केवल विशिष्ट वर्ग का चुनाव करना होता हैं मनुष्य से सम्बन्धित यह विश्लेषण एकांकी व एक पक्षीय है।
  5. यह सिद्धान्त लोकतांत्रिक प्रक्रिया के द्वारा मौलिक परिवर्तन लाने के स्थान पर स्थायित्व बनाए रखने पर विशेष बल दते हैं यह सामाजिक आन्दोलनों को लोकतंत्र के लिए खतरा मानता है।
  6. यह सिद्धान्त लोकतांत्रिक प्रक्रिया के द्वारा मौलिक परिवर्तन लाने के स्थान पर स्थायित्व बनाए रखने पर विशेष बल दते हैं यह सामाजिक आन्दोलनों को लोकतंत्र के लिए खतरा मानता है।

लोकतंत्र का बहुलवादी सिद्धान्त
बहुलवादी सिद्धान्त की उत्पत्ति विशिष्टवर्गीय सिद्धान्त की आंशिक प्रतिक्रिया के रूप में हुई। विशिष्टवर्गीय सिद्धान्त एक ऐसी स्थिति के निर्माण से सन्तुष्ट है जिसमें सत्ता ऐसे विशिष्ट वर्ग में निहित होती है जो महत्वपूर्ण निर्णय लेता हैं जबकि बहुलवाद का मानना है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपेक्षाकृत स्वायत्त समूहों के बीच सौदेबाजी की प्रक्रिया है। जिसके अन्तर्गत ये समूह आपस सौदेबाजी करके ऐसी नीतियों के लिए अपनी सहमति व्यक्त करते है जिनसे उनके परस्पर विरोधी हितों में समायोजन स्थापित हो सके। बहुलवाद की अवधारणा वैसे तो पुरानी है किन्तु इसको सशक्त अभिव्यक्ति 20वीं शताब्दी में देखी गयी। सामान्य अर्थ में बहुलवाद सत्ता को समाज में एक छोटे से समूह तक सीमित करने के बदले उसे प्रसारित और विकेन्द्रीत मानता है। आधुनिक औद्योगिक और प्रौद्योगिक काल में बहुवादियों के अनुसार सत्ता विखण्डित हो गयी है और इसमें प्रतियोगी सार्वजनिक और निजी समूहों की साझेदारी बढ़ गयी है। उच्च स्थानों पर आसीन लोगों के पास पूर्व की भांति सत्ता नहीं रह गयी हैं। लोकतंत्र की बहुलवादी अवधारणा का विकास मुख्य रूप से अमेरिका में हुआ। इसके प्रणेताओं में एस.एम लिण्डसेर, राबर्ट डाहल, प्रेस्थस, एफ हंटर आदि प्रमुख हैं। एफ. ए बेंटली ने अपनी पुस्तक The Process of government (1908) में विचार दिया कि लोकतंत्र एक ऐसा राजनीति खेल है जिसमें तरह-तरह के समूह हिस्सा लेते है। बहुलवादी विचारकों का मानना है कि राजनीतिक सत्ता उतनी सरल नहीं होती जितनी वह दिखई देती है। यह विभिन्न समूहों, संगठनों, वर्गों, संघों सहित विशिष्ट वर्ग जो आमतोर पर समाज का नेतृत्व प्रदान करता है, के बीच बंटी हुई है।

बहुलवादी सिद्धान्त की विशेषताएँ
  1. यह सिद्धान्त राज्य को एक समुदाय मानता है। मानव जीवन के अनेक पहलुओं पर विभिन्न संघों का नियंत्रण रहता है। ये संघ राज्य की शाक्ति पर रोक लगाते हैं तथा इन संघों से पृथक राज्य विशिष्ट कार्यों का सम्पादन करता है। यह सिद्धान्त साधारण समाज की निष्क्रियता को केवल एक तथ्य ही नहीं बल्कि राजनीतिक व्यवस्था के स्थायित्व के लिए आवश्यक भी मानना है।
  2. यह सिद्धान्त नागरिकों को ताड़ना का अधिकार देता हैं जो राजनीतिक विशिष्ट जनों के व्यवहार को सन्तुलित बनाए रखने व उन्हें निरंकुश बनने से रोकता है।

आलोचना
  • यह सिद्धान्त रूढ़िवाद को बढ़ावा देता है।
  • यथास्थितिवादी है।
  • माननीय विकास के लिए उपयुक्त नहीं।

लोकतंत्र का सहभागी सिद्धान्त
इस सिद्धान्त की उत्पत्ति का श्रेय 1960 के बाद मैक्फर्सन, फैरोल, पैटमैन तथा पोनांजे जैसे विचारकों को जाता है। इस सिद्धान्त का विकास विशिष्टवर्गीय तथा बहुलवादी सिद्धान्तों के विरूद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप हुआ। यह दृष्टिकोण प्रशासन के चलाने में नागरिकों के अधिक से अधिक भागीदारी को बढ़ाये जाने पर बल देता हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार राजनीतिक सहभागिता लोकतंत्र का बुनियादी लक्षण है। यह एक ऐसी गतिविधि है, जिससे अन्तर्गत कोई व्यक्ति सार्वजनिक नीतियाँ व निर्णयों के निर्माण, निरूपण, तथा क्रियान्वयन की प्रक्रिया में सक्रिय भाग लेता है।

सहभागी लोकतंत्र की विशेषताएँ :
  1. विधायिकाओं, लोकसेवाओं, राजनीतिक दलों का लोकतांत्रिकरण हो जिससे समाज को उत्तरदायी युक्त बनाए जा सके।
  2. शक्तियों का विकेन्द्रीकरण हों व नीतियों के निर्माण व शासन कार्यों में लोगों की भागीदारी बढ़े।
  3. राजनीतिक मुद्दों व निर्णयों का समाजीकरण हो ताकि समाज के सभी व्यक्ति उसमें अपने हितों का निरीक्षण सके।
  4. लोकतांत्रिक निर्णय में नए आयामों की संभावना को सुरक्षित करने के लिए राज्य की संस्थात्मक व्यवस्था खली होनी चाहिए।

आलोचना
  1. समाज को राजनीति के प्रति जागरूक बनाने के लिए सहभागिता को बढ़ावा देना आवश्यक है किन्तु सहभागिता हमेशा सकारात्मक हो यह आवश्यक नहीं।
  2. सहभागिता बढ़ जाने से गुणात्मकता का अभाव हो सकता है। जिससे निर्णय लेने की समस्या बढ़ सकती है।
  3. राजनीतिक सहभागिता बढ़ जाने से राजनीतिक व्यवस्था के अतिभार होने की आशंका बढ़ जाती है। ऐसी स्थिति में व्यवस्था सभी कार्यों को निपटाने में असक्षम हो सकती है।

लोकतंत्र के प्रकार

सामान्यतः लोकतंत्र के दो भेद मान्य है:-

विशुद्ध लोकतंत्र या प्रत्यक्ष लोकतंत्र
यह लोकतंत्र का वह रूप है जिसमें जनता शासन में स्वयं भाग लेती हैं। शासन का संचालन करती हैं एवं समस्त नागरिक जनता परिषद या सभा के रूप में एकत्रित होकर स्वयं शासन सम्बन्धी नीतियों, योजनाओं व विधिया का निर्माण करती हैं। लोकतंत्र का यह रूप प्राचीन काल में यूनान व रोम में प्रचलित था। वर्तमान में यह कवेल स्विट्जरलैण्ड में केवल कुछ कैण्टनों (ग्लॉरस, इनरअपेनजैल, आउटर अपेनजैल, ओब वाल्डेन व निड़ वाल्डेन) में प्रचलित हैं प्रत्यक्ष लोकतंत्र की क्रियान्विति निम्न साधनों से की जाती है :
  • लोक निर्णय - इसका अभिप्राय है कि किसी विषय को जनता के समक्ष निर्णय के लिए प्रस्तुत किया जाए। विधायिका द्वारा कोई कानून बनाने या संविधान में संशोधन करने से पहले ऐसे विधेयकों को जनता से सहमति के लिए प्रस्तुत किया जाता है।
  • आरम्भक (उपक्रम) - इस प्रक्रिया में कानून निर्माण की पहल जनता की ओर से भी हो सकती है। यह लोक निर्णय के विपरित है। लोक निर्णय में जनता किसी अनावश्यक कानून का खण्डन कर सकती है। वही आरम्भक के माध्यम से किसी आवश्यक कानून को बनवाने की पहल कर सकती है।
  • प्रत्यावाहन - प्रत्यावाह्न से अभिप्राय जनता के उस अधिकार से है जिसके द्वारा निर्वाचकों को अपने प्रतिनिधियों को वापस बुलाने या पदच्युत करने का अधिकार है।
  • जनमत संग्रह - किसी राजनीतिक या राष्ट्रीय महत्त्व के विषय पर जनता की जब प्रत्यक्ष राय ली जाती है तो उसे जनमत संग्रह कहते है। लोकनिर्णय व जनमत संग्रह में अन्तर यह है कि पहला कानून या संविधान से सम्बन्धित है वहीं दूसरा राजनीतिक या राष्ट्रीय महत्त्व के प्रश्नों या मुद्दों से सम्बन्धित है।

अप्रत्यक्ष लोकतंत्र या प्रतिनिध्यात्मक लोकतंत्र
अप्रत्यक्ष लोकतंत्र उसे कहते है जिसमें शासन का संचालन जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है। इसी कारण इसे प्रतिनिध्यात्मक लोकतंत्र भी कहते हैं। विश्व के अधिकांश देशों (भारत, अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, इत्यादि) में यही लोकतंत्र का रूप देखने को मिलता हैं इसके भी दो रूप देखे जाते हैं- संसदीय लोकतंत्र व अध्यक्षात्मक लोकतंत्र । संसदात्मक लोकतंत्र में वास्तविक शासन सत्ता, जनता द्वारा निर्वाचित संसद व मंत्रिमण्उल में निवास करती हैं। जैसे–ब्रिटेन व भारत में। वहीं अध्यक्षात्मक लोकतंत्र में सम्पूर्ण सत्ता जनता द्वारा चुने हुए राष्ट्राध्यक्ष में निवास करती है। यथा-अमेरिकी राष्ट्रपति।

लोकतंत्र के गुण व दोष

  • जनता का शासन - प्रजातंत्र के कुछ मौलिक गुण हैं जिनके कारण ही वह आज श्रद्धा का पात्र बना हुआ है। हर जगह उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की जा रही है। प्रजातंत्र का बसे बड़ा गुण यह है कि यह जनता की सरकार है। यह जनता के सहयोग पर आधारित है। राजतंत्र में तो शासक एक राजा होता है। कुलीनतंत्र में कुछ व्यक्ति ही शासक हाते हैं किन्तु प्रजातंत्र में हर व्यक्ति शासक होता है। राज्य की सार्वभौम सत्ता जनता के हाथों में रहती है।
  • जनमत पर आधारित - प्रजातंत्र जनमत पर आधारित होता है। यह वैसा राज्य है जिसमें जनमत का स्थान सर्वोपरि होता है। राजतंत्र, कुलीनतंत्र एवं अधिनायकवाद में जनमत की अपेक्षा भी की जा सकती है। किन्तु प्रजातंत्र में उसकी अवहेलना नहीं की जा सकती है। "पूर्ण प्रजातंत्र में कोई भी यह शिकायत नहीं कर सकता है कि उसे अपनी बात कहने का अवसर नहीं मिला।
  • लोक-कल्याण - प्रजातंत्र का मुख्य उद्देश्य है लोक-कल्याण। लोक-कल्याण के लिए हो प्रजातंत्र सरकार की स्थापना की जाती है। इसमें किसी वर्ग-विशेष के कल्याण पर जोर नहीं दिया जाता है। जाति, धम, भाषा, प्रान्त, रंग, लिंग के आधार पर पक्षपात नहीं किया जाता है। अधिक से अधिक लोगों की अधिक से अधिक भलाई पर जो दिया जाता है। अतः इसमें लोक-कल्याण की भावना सर्वोपरि होती है।
  • समानता - प्रजातंत्र समानता का पोषक है। यह सामनता के आधार पर ही टिका हुआ है। इसमें सभी व्यक्ति समान हैं अमीर-गरीब, ऊँच-नीच, स्त्री-पुरुष, गोरा-काला एवं जाति का भेदभाव नहीं किया जाता है। कानून की दृष्टि में सभी समान है। राजनीतिक दृष्टि से भी समान है। किसी को विशेषाधिकार नहीं दिया जाता है। सभी को समान अधिकार प्राप्त होते है।
  • स्वतंत्रता - प्रजातांत्रिक सरकार में व्यक्ति स्वतंत्रता मिलती है। उसे बोलने की एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिलती है। घूमने, पेशा चुनने, संघ बनाने, सभा करने, जुलूस निकालने की भी स्वतंत्रता मिती हे। उसे अपनी वैयक्तिक सम्पत्तिने की भी स्वतंत्र दी जाती हैं राज्य की ओर से किसी भी प्रकार बन्धन नहीं रहता है। राजतंत्र, कुलीनतन्त्र, एवं अधिनायक तंत्र में तो व्यक्ति की नामामत्र की स्वतंत्रता दी जाती है।
  • आत्म-विकास - प्रजातंत्र ही एक ऐसा राज्य है जिसमें हर व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए पूरा मौका मिलता है। सामाजिक व्यवस्था समानता के आधार पर आधारित होती है।, अर्थात् सभी को समान अवसर दिया जाता है। इसके अतिरिक्त, व्यक्ति को विभिन्न प्रकार की स्वतंत्रताएँ भी दी जाती हैं इन स्वतंत्रताओं का उपयोग कर, कोई सामानय व्यक्ति की ओर बढ़ सकता है। अतः हम देखते हैं कि प्रजातंत्र में आत्म-विकास की सारी सुविधाएँ उपलब्ध रहती है।
  • राष्ट्रीय प्रेम - प्रजातंत्र सरकार जनता की इच्छा पर आधारित होती हैं यह जनता की सरकार होती हैं। अतः जनता के हृदय में स्वतः राष्ट्रीय प्रेम का उद्रेक हो जाता है। चूंकि राष्ट्र की सुरक्षा में ही व्यक्ति की सुरक्षा निहित है। राष्ट्र की रक्षा के लिए व्यक्ति तैयार रहते हे राष्ट्र की अवनति का अर्थ है कि व्यक्ति की अनवति। इसलिए राष्ट्र के सम्मान को बढ़ाने के लिए हर व्यक्ति सतत् प्रयत्नशीलज रहता हैं प्रजातंत्र राज्य में राष्ट्रीयता की भावना हर व्यक्ति के हृदय में कूट-कूटकर भरी होती है।
  • राजनीतिक शिक्षा - प्रजातंत्र वह शेर है जिसकी गर्जन से सभी व्यक्ति जाग उठते हैं राजनीतिक दल का इसमें प्रमुख हाथ रहता है। सरकार का निर्माण दल के ही आधार पर होता है। राजनीतिक दल चुनाव में भाग लेना, सही मतदान पत्र का उपयोग करना, इत्यादि की जानकारी भी लोगों को होती है।
  • क्रान्ति नहीं - प्रजातंत्र सरकार जनता की इच्छा पर आधारित होती है। शासन का संचालन भी उसी की इच्दा के अनुसार होता है। हमेशा सांविधानिक तरीकों का प्रयोग किया जाता है। जिस कारण इसमें क्रान्ति होने की सम्भावना बहुत कम रहती है। गिलक्राइस्ट के शब्दों में, "लोकप्रिय सरकार सर्वसम्मति की सरकार है इसलिए स्वभाव से ही वह क्रान्तिकारी नहीं होती।
  • प्रजातंत्र उत्तरदायी सरकार हैं यह हमेशा जनता के प्रति उत्तरदायी रहती हैं जिस समय यह जनता का विश्वास खो देती है, उसका विघटन हो जाता है। जनता के चुने हुए प्रतिनिधि हमेशा जनता के प्रति उत्तरदाय रहते हैं।

लोकतंत्र के अवगुण

प्रजातंत्र के जितने गुण हैं, उतने ही दोष भी। प्लेटो एवं अरस्तु ने प्रजातंत्र का निकृष्ट दृष्टि से देखा। लेकी, सिजविक, गिडिग्स, हेनरीमेन वेल्स एवं अन्य विद्वानों ने इसकी काफी आलोचना की है। अर्थात इन्होंने हम लोगों का ध्यान उसके दोषों की ओर आकृष्ट किया है।

  1. मुखों का शासन :- प्रजातंत्र राज्य का सबसे बड़ा दोष्ज्ञ यह है कि यह मूल् एवं अयोग्य व्यक्तियों का शासन है।, वेल्स ने बुद्धिहीनों एवं अज्ञानियों का शासन बतिाया हैं चूँकि चुनाव में विद्वान एवं पढ़े-लिखे व्यक्ति शायद ही खड़े होते हैं खड़े भी होते हैं तो हार जाते हैं। लेकी का मत है कि "प्रजातंत्र का सबसे बड़ा दोष यह है कि यह सबसे अधिक दरिद्र, सबसे अधिक अज्ञानी और अयोग्य लोगों का शासन हैं चूंकि स्वभवतः वे ही अधिक संख्या में पाए जाते हैं।'
  2. भीड़तन्त्र :- प्रजातंत्र को भीड़तंत्र भी कहा जाता है। चूँकि इसका शासन भीड़ के द्वारा होता है। शासक में भीड़ मनोवृत्ति पाई जाती हैं मगरा–बुधुआ सभी शासन के क्षेत्र में आ जाते हैं जिनको शासन का भी अर्थ समझ में नहीं आता है।
  3. अल्पमत का शासन :- प्रजातंत्र में तो सरकार गठन बहुमत दल करता है किन्तु जब हम व्यावहारिकता की और दृष्टिपात करते हैं तो पता चलता है कि अल्पमत प्राप्त दल ही सरकार की स्थापना करता है। कल्पना कीजिए कि एक लाख मतदाता है। 'अ', 'ब', 'स', 'द चार उम्मीदवार है। 'अ को चालीस हजार, "ब को तीस हजार, ‘स को बीस हजार, एवं 'द को दस हजार वोट मिलते हैं। 'अ को चालीस हजार प्राप्त हुए है, इसलिए वह निर्वाचित घोषित किया जाता है यदि हम सभी मतों की गणना करें तो पता चलेगा कि एक लाख में चालीस हजार ही 'अ को मिले हैं साठ हजार दूसरे को मिले। अतः यह सिद्ध है कि अल्पमत द्वारा ही सरकार का गठन होता है।
  4. उत्तरदायित्व नहीं :- प्रजातंत्र को उत्तरदायी सरकार कहा जाता है, किन्तु व्यवहार में यह अनुत्तरदायी सरकार है। चूंकि सरकार हमेशा बदलती रहती हैं, अतः किसी निश्चित नीति या योजना के लिए किसको दोष्ज्ञी ठहराया जाए। बक्र का कहना है कि "संसार में विशुद्ध प्रजातंत्र सबसे अधिक लज्जाशून्य वस्तु है और चूंकि यह लज्जाहीन होती है। अतः सबसे निर्भय होती है।''
  5. दलबन्दी :- प्रजातंत्र सरकार की स्थापना दल पर होती हैं एक राजनीतिक दल के अन्दर भी बहुत से छोटे-छोटे दल होते हैं जो अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए कभी-कभी राष्ट्र-हित की बातों को भी टकरा देते हैं। दल-हित की भावना ही उसके सामने काम करती रहती हैं।
  6. धन का अपव्यय :- प्रजातंत्र में धन का काफी अपव्यय होता है। एक तो चुनाव में काफी रुपये बर्बाद किए जाते हैं दूसरे आवश्यक से अधीक व्यक्ति शासन के काम में लिए जाते हैं, जिस काम को दस व्यक्ति कर सकते हैं, उसके लिए पचास व्यक्तियों को नियुक्ति की जाती हैं प्रजातंत्र में धन को कोइ देखने वाला नहीं होता है। मूर्ख जनता कहती है कि सरकार का रूपया बर्बाद हो रहा है। सरकार (कुछ बड़े पदाधिकारी) कहते है कि मारो गोली, जनता का पैसा जा रहा हैं इसमें हमार क्या बिगड़ता है ?
  7. समय की बर्बादी :- प्रजातंत्र राज्य में समय की भी काफी बर्बादी होती हैं किसी भी काम को करने के पहले उस पर काफी सोच-समझ लिया जाता है। जनता की राय लेनी वांछनीय है। एक साधार काम के के लिए भी वाद-विवाद करना पड़ता है। इसलिए प्रजातंत्र राज्य में लालफीताशाही मशहूर है।
  8. पेशा :- बहुत से लोग राजनीति को पेशा बना लेते हैं वे इस पेशे को खानदानी समझते हैं वे कभी भी छोड़ने का नाम नहीं लते हे। बड़े दुःख की बात है कि भारत में पिता के मरने पर उसके पुत्र को मंत्रिमण्डल में स्थान दिया जाता है।
लार्ड ब्राइस ने प्रजातंत्र के मुख्यतः छह दोष बताए है :-
  1. शासन तथा व्यवस्थापन पर धन का अनुचित प्रभाव।
  2. राजनीतिक का वैयक्तिक लाभ के लिए प्रयोग।
  3. शासन में अपव्यय।
  4. समानता के सिद्धान्त का दुरुपयोग और प्रशासकीय विशेषता की उपेक्षा करना।
  5. राजनीतिक दलों को अनुचित मात्रा में शक्ति मिलती है तथा दल की भक्ति के सामने राजभक्ति गौण हो जाती है।
  6. व्यवस्थापकगण चुनाव में नागरिकों से मत प्राप्त करने के लिए विशेष राज्य-नियम बनाते हैं तथा राजाज्ञा के विरूद्ध चलने वालों को उचित दण्ड से बचाते हैं।

लोकतंत्र की सफलता के लिए आवश्यक शर्ते

हमने लोकतंत्र के अवगुणों पर विचार कर लिया। प्रत्येक समस्य का निदान हैं लोकतंत्र में कुछ दोष है। बर्न्स का विचार है कि "कोई भी इस बात को मानने से इन्कार नहीं कर सकता कि मौजूदा प्रतिनिधि सभाएँ दोषपूर्ण है परन्तु अगर कोई मोटरगाड़ी खराब हो जाए तो उसे छोड़ बैलगाड़ी को अपनाना मुर्खता ही होगी चाहे वह कितनी ही आकर्षक क्यों न हो।"

शिक्षा :- लोकतंत्र जनता की सरकार है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति के सहयोग की आवश्यकता होती है। ऐसी स्थिति में प्रत्येक व्यक्ति का शिक्षित होना आवश्यक हैं शासन एक कला है। हर कोई शासन को नहीं चला सकता। जबकि वहाँ पर हर व्यक्ति के लिए उचित शिक्षा की व्यवस्था हो। शिक्षा अनिवार्य एवं निःशुल्क हो। हर व्यक्ति को राजनीतिक शिक्षा मिनी चाहिए जिससे वह वोट के महत्व को समझ सके। अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों को पहचान सके तथा राजनीकि दलों के कार्यों से अवगत हो सके।

स्वतंत्रता:- स्वतंत्रता लोकतंत्र की आत्मा है। लोकतंत्र राज्य में वस्तुतः हर व्यक्ति को बोलने की, भाषण की एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिनी चाहिए। घूमने, संघ बनाने, सभा करने एवं किसी भी पेशे को चुनने की स्वतंत्रता हर इन्सान को मिलनी चाहिए। उस पर किसी भी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं लगाना चाहिए। समाचार पत्रों, पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो, दूरदर्शन इत्यादि को भी पूरी स्वतंत्रता देनी चाहिए। चूँकि जनमत निर्माण के ये ही मुख्य साधन है।

आर्थिक समानता :- लोकतंत्र राज्य में तो अर्थ की समानता होनी चाहिए। चूंकि आर्थिक समानता के अभाव में राजनीतिक समानता का कोई महत्व नहीं। एक भूखे व्यक्ति के लिए वोट का कोई महत्त्व नहीं है। आर्थिक समानता का लोग गलत अर्थ समझ लेते हैं इसका यह अर्थ नहीं कि सभी को समान मात्रा में अर्थ का वितरण हो। वस्तुतः इसका सही अर्थ यह है कि कम से कम सभी को भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा एवं चिकित्सा का उचित प्रबन्ध हो। दरिद्र देश में कभी भी प्रजातंत्र सफल नहीं हो सकता है। अतः अमीर-गरीब के बीच में जो बहुत बड़ी आर्थिक खाई है उसको पाटना है।

स्वस्थ राजनीतिक दल :- राजनीतिक दल ही लोकतंत्र राज्य में सरकार का गठन करता है। अतः उसका उद्देश्य महान होना चाहिए। उसके सिद्धान्त में जनहित निहित हो। उसका निर्माण संकुचित सिद्धान्तों पर नहीं होना चाहिए। बहुत से दलों का निर्माण भाषा, जाति, एवं सम्प्रदाय पर होता हैं उसमें सभी जाति के व्यक्तियों का स्थान रहना चाहिए। वस्तुतः राजनीतिक दल तो लोकतंत्र की आत्मा है।

सशक्त विरोधी दल :- एक राजनीतिक दल से लोकतंत्र शासन का काम नहीं चलता। एक दल के द्वारा तो अधिनायकवाद का प्रादुर्भाव होता हैं अत: लोकतंत्र राज्य में कम से कम दो दलों का रहना अति आवश्यक हैं एक दल सरकार का गठन करता है। जहाँ पर अनेक दल होते हैं वहाँ पर सशक्त विरोधी दल का अभाव रहता हैं किन्तु लोकतंत्र राज्य में विरोधी दल का रहना आवश्यक है। चूंकि जब एक दल की सरकार असफल हो जाती है तो ऐसी स्थिति में विरोधी दल ही सरकार का गठन करता हैं अतः सशक्त विरोधी दल समय की माँग है।

स्वस्थ जनमत :- जनमत का स्थान लोकतंत्र में सर्वोपरि है। जनमत के आधार पर ही प्रतिनिधि चुने जाते हैं और वही प्रतिनिधि सरकार का निर्माण करते हैं। ऐसी स्थिति में देश के अन्दर स्वस्थ जनमत का प्रचार करना आवश्यक है। उसी के बल पर ही योग्य प्रतिनिधियों का चुनाव हो सकता हैं सही जनमत के अभाव में जनता अयोग्य प्रतिनिधियों को चुन लेती है।

निष्पक्ष समाचार पत्र :- समाचार पत्रों के जरिए ही देश-विदेश की खबरों को प्रसारित किया जाता है, सरकार की नीतियों का प्रचार यिका जाता हैं, जनता के विचारों को सरकार के पास पहुँचाया जाता हैं अतः समाचार पत्रों का निष्पक्ष, स्वतंत्र एवं निर्भय होना अति आवश्यक हैं।

अल्पसंख्यकों की रक्षा :- लोकतंत्र राज्य में अल्पसंख्यकों करनी चाहिए। उनके हितों का हमेशा ख्याल करना चाहिए। उन्हें किसी भी प्रकार की तकलीफ नहीं देनी चाहिए। उसके माधे तो भातृत्व को अपनाना चाहिए ताकि वह अपने को अजनबी या निर्जन महसूस न कर सके। अल्संख्यकों के हितों की रक्षा में ही लोकतंत्र का कल्याण है।

स्वतंत्र न्यायपालिका :- स्वतंत्र न्यायपालिका हर प्रजातंत्र देश में रहती हैं नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा वही करती हैं। संविधान का उचित रूप से पालन हो रहा है या नहीं? कानूनों की व्याख्या इत्यादि का काम स्वतंत्र न्यायपालिका का है। न्यायपालिका स्वतंत्र, निष्पक्ष एवं निर्मिक होनी चाहिए।

स्थानीय स्व-शासन :- लोकतंत्र सरकार की नींव जनता से तैयार की जाती है, यह ऊपर से लादी नहीं जाती। अतः इसमें स्व-शासन का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान हैं हर ग्राम में इसका प्रबन्ध होना चाहिए। चूँकि लोकतंत्र के गुणों की शिक्षा स्व-शासन संस्थाओं से पहले दी जाती है। अतः हर स्थानीय संस्था को पूरी स्वतंत्रता मिलनी चाहिए जिससे वह सुविधापूर्वक स्थानीय कार्यों का सम्पादन कर सके।

निष्कर्ष

लोकतंत्र के सैद्धांतिक विवेचन से स्पष्ट है कि इसके अर्थ स्वरूप व प्रकारों को लेकर भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण प्रचलित है तथापि यह कहा जा सकता है कि वर्तमान युग में लोकतंत्र का कोई सर्वमान्य विकल्प नहीं होता है साम्यवादी व अधिक नायक वादी शासन व्यवस्थाएं भी अपने को लोकतंत्र कहा जाना पसंद करती है अतः वर्तमान परिस्थितियों में आवश्यक सुधार कर लोकतंत्र को सर्वश्रेष्ठ शासन व्यवस्था बनाया जा सकता है।

Post a Comment

Newer Older