मैनेजमेंट क्या है? | management in hindi

मैनेजमेंट का अर्थ

मैनेजमेंट को हिंदी में प्रबन्ध कहते हैं' सामान्य शब्दों में प्रबन्ध से अभिप्राय व्यक्तियों के समूह से कार्य कराना है। प्रबन्ध के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए अंग्रेजी के शब्द MANAGEMENT की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है- :
MANAGE
MAN
TACTFULLY
प्रबन्ध (मैनेजमेंट) एक विस्तृत एवम् जटिल विचारधारा है। इसलिए भिन्न-भिन्न विद्वानों ने इसका प्रयोग भिन्न-भिन्न अर्थों में किया है।
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प्रबन्ध (मैनेजमेंट) की कुछ महत्वपूर्ण परिभाषाएं निम्नलिखित हैं:-

1. एफ. डब्ल्यू टेलर के अनुसार
"प्रबन्ध यह जानने की कला है कि आप व्यक्तियों से वास्तव में क्या काम लेना चाहते हैं और फिर यह देखना कि वे उसको सबसे मितव्ययी तथा सर्वश्रेष्ठ ढंग से सम्पन्न करते हैं।"
उपरोक्त परिभाषा के अनुसार सबसे पहले यह निर्धारित किया जाता है कि हमारे उद्देश्य क्या हैं, इन्हें अनुकूलतम ढंग से कैसे प्राप्त किया जा सकता है तथा इसके लिए हमें क्या-क्या समायोजन करने पड़ेंगे।

2. पीटर एफ. ड्रकर के अनुसार
प्रबन्ध एक कार्य, ज्ञान की एक शाखा, किया जाने वाला एक कार्य है और प्रबन्धक ज्ञान का व्यवहार में प्रयोग करते हैं, कार्य करते हैं तथा विशेष कार्यों को संपादित करते हैं।
इस परिभाषा के अनुसार प्रबन्ध को एक कार्य माना गया है जो कि प्रबन्धकों के द्वारा पूरा किया जाता है। यह ज्ञान की एक शाखा है जिसमें विश्लेषण के बाद प्रबन्धक अपने ज्ञान का व्यवहार में प्रयोग करते हैं। इस प्रकार ड्रकर के अनुसार प्रबन्ध विज्ञान एवम् कला है।
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अतः हम निष्कर्ष के रूप में यह कह सकते हैं कि प्रबन्ध एक ऐसा नेतृत्व कार्य है जिसमें सामान्य लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए मानवीय प्रयासों का नियोजन, संगठन, निर्देशन एवम् नियन्त्रण किया जाता है। यह भौतिक एवम् मानवीय संसाधनों के कुशलत उपयोग द्वारा उचित निर्णयन एवम् निर्देशन के माध्यम से दूसरों से कार्य लेने की कला है।

प्रबन्ध (मैनेजमेंट) की विशेषताएं

प्रबन्ध की उपर्युक्त परिभाषाओं के अध्ययन करने के पश्चात् निम्नलिखित विशेषताएं सामने आती हैं :-

प्रबन्ध सर्वव्यापक है - (सभी स्तरों पर आवश्यक)-प्रबन्ध संगठन के विभिन्न स्तरों में विद्यमान होता है। व्यवसाय में प्रत्येक व्यक्ति चाहे, वह निम्न अथवा मध्य अथवा उच्च स्तर पर हो, को बहुत से निर्णय लेने होते हैं और सही एवमउचित निर्णय लेना प्रबन्ध का एक महत्वपूर्ण कार्य होता है। प्रत्येक कार्य के लिए प्रबन्ध की आवश्यकता होती है।

प्रबन्ध एक सामाजिक प्रक्रिया है - प्रबन्ध का उद्देश्य सीमित साधनों से अधिकतम उपयोगिता प्रापत करना है जिससे संपूर्ण समाज को अधिक से अधिक लाभ हो सके। प्रबन्ध की तकनीकों द्वारा व्यवसाय के सामाजिक दायित्वों एवम लाभ उद्देश्यों के मध्य सामंजस्यता को स्थापित किया जाता है।

यह एक प्रक्रिया है - प्रबन्ध एक ऐसी प्रक्रिया है जो निरन्तर चलती रहती है। इस प्रक्रिया में निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्तिके लिए नियोजन, संगठन, समन्वय, क्रियान्वयन, निर्देशन एवम् नियंत्रण इत्यादि को शामिल किया जाता है।

प्रबन्ध उद्देश्यपूर्ण है - प्रबन्ध की मुख्य विशेषता इसका उद्देश्यपूर्ण होना है क्योंकि प्रत्येक प्रन्धकीय क्रिया का कुछ न कुछ उद्देश्य जरूर होता है। ये उद्देश्य स्पष्ट या अस्पष्ट हो सकत हैं। विभिन्न मानवीय क्रियाओं के नियोजन, निर्देशन तथा नियंत्रण द्वारा अन्य साधनों के सर्वोत्तम उपयोग को सम्भव बनाने का उद्देश्य इच्छित उद्देश्यों को प्राप्त करना होता है।

प्रबन्ध एक क्रियाशील कार्य है - प्रबन्ध एक क्रियाशील कार्य है क्योंकि यह उपक्रम के निष्क्रिय साधनों जैसे सामग्री, मशीन एवम् पूंजी को जीवन प्रदान कर उन्हें क्रियाशील बनाता है। पीटर एफ. ड्रकर ने प्रबन्ध को जीवन प्रदायी अवयव कहा है जिसके बिना व्यवसाय में लगे साधन केवल साधन ही रह जाते हैं, वस्तु या सेवा का उत्पादन नहीं कर पाते हैं।

प्रबन्ध का संबंध सामूहिक प्रयासों से है - प्रबन्ध किसी व्यक्ति विशेष के कार्यों से न होकर आध स हाता है जो औपचारिक तथा अनौपचारिक रूप से संगठित होते हैं। किसी भी संस्था क उददरच समूह द्वारा सुगमता से प्राप्त किए जा सकते हैं।

प्रबन्ध कला एवम् विज्ञान दोनों है - प्रबन्ध कला एवम विज्ञान दोनों हैं। विज्ञान की भांति इसमें भी कुछ नार एवम् नियम है तथा कला इसलिए है क्योंकि पबन्धको व्यवहारिक रूप में प्रयोग करने के लिए एक विशष शान एवम् चातुर्य की आवश्यकता होती है जो कि प्रत्येक व्यक्ति में का होना संभव नहीं है।

प्रबन्ध स्वामित्व से भिन्न है - प्रबन्ध एवं स्वामित्व दोनों भिन्न भिन्न है। उदाहरण के लिए संयक्त पूंजी वाली कपनियो म स्वामी तो अंशधारी होते हैं जबकि प्रबन्ध दुसरे व्यक्तियों के हाथ में होता है जिन्हें संचालक कहा जाता है। यहा दा अलग-अलग वर्ग, एक तो पूंजी जुटाने वाला और दूसरा प्रबन्ध को चलाने वाला होता है। अतः यह स्पष्ट हो गया है कि प्रबन्ध और स्वामित्व दोनों अलग-अलग हैं।

प्रबन्ध एक सार्वभौम प्रक्रिया है - प्रबन्ध सिर्फ सामाजिक ही नहीं अपित यह एक सार्वभौम प्रक्रिया भी है क्योंकि यह नकेवल व्यवसायिक प्रतिष्ठानों में अपित् आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक एवम राजनैतिक सभी संस्थाओं में समान रूप से लाग किया जा सकता है।

प्रबन्ध एक पेशा है - औद्योगिक क्रांति के पश्चात् बड़े-बड़े उद्योगों की स्थापना होने लगी जिन्हें सुव्यवस्थित ढंग से चलानेके लिए प्रबन्धकों की आवश्यकता महसूस की गई। प्रबन्धकों में विशिष्ट ज्ञान एवम् चातुर्य तथा व्यवसायिक योग्यता का होना आवश्यक हैं, जिसे वे विधिवत् अध्ययन एवम् प्रशिक्षण द्वारा प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकार प्रबन्ध में वे सभी विशेषताएं विद्यमान होती हैं जो एक पेशे के लिए जरूरी हैं। प्रबन्ध को पेशा कहना भी ठीक है।

प्रबन्ध (मैनेजमेंट) की प्रकृति

प्रबन्ध एक विस्तृत शब्द है जिसकी प्रकृति को गिने-चुने शब्दों में स्पष्ट नहीं किया जा सकता। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से प्रबन्ध की प्रकृति को निम्नलिखित शीर्षकों द्वारा समझाया जा सकता है-
  • प्रबन्ध विज्ञान एवं कला के रूप में
  • प्रबन्ध एक पेशे के रूप में ही
  • प्रबन्ध एक सामाजिक उत्तरदायित्व के रूप में

(अ) प्रबन्ध विज्ञान एवं कला के रूप में
प्रबन्ध विज्ञान है या कला इस विषय पर विद्वानों के अलग-अलग विचार हैं। कुछ विद्वान प्रबन्ध को कला मानते हैं और कुछ विद्वान प्रबन्ध को विज्ञान। लेकिन वास्तव में प्रबन्ध विज्ञान एवम् कला दोनों है।

प्रबन्ध कला के रूप में
कला का अर्थ किसी कार्य को करने के लिए या किसी उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए अनुभव सिद्ध ज्ञान और व्यक्तिगत कशलता का प्रयोग करना है।
जार्ज आर. टेरी के अनुसार, "कला का अर्थ वास्तव में किसी कार्य को कुशलतापूर्वक करने के लिए या किसी उद्देश्य को प्रभावपर्ण हमारा प्राप्त करने के लिए व्यवहारिक निपुणता तथा व्यक्तिगत कुशलता का प्रयोग करना है।"

इस प्रकार कला की चार विशेषताएं हैं:-
  • व्यावहारिक ज्ञान - प्रबन्ध एक व्यावहारिक ज्ञान है। प्रबन्ध के कार्य को चलाने के लिए प्रबन्धक में व्यावहारिक दोना बहत आवश्यक है। बिना व्यावहारिक ज्ञान के व्यवसाय को कुशलता से नहीं चलाया जा सकता।
  • व्यक्तिगत निपुणता - एक कलाकार के अन्दर निवासी है जो उसे दसरों से भिन्न स्थान दिलवाता है। उसमें अपनी विशिष्टता तथा शैली होती है। एक प्रबन्धक की भी अपनी विशिष्ट शैली होती है जो उसे दूसरा से सहयोग प्राप्त करने में सहायता प्रदान करती है।
  • ठोस परिणाम - कला का आधार ठोस परिणामों को प्रदान करना है। प्रबन्ध का आधार भी ठोस परिणामों को प्राप्त करनाहै। यहा ठोस परिणाम का आशय है कि कम से कम लागत एवम श्रम से अधिक से अधिक उद्देश्यों की पूर्ति करना।
  • अभ्यास के द्वारा विकास - कला अभ्यास के द्वारा निखरती है तथा विकसित होती है। इसी प्रकार एक प्रबन्ध का कुशलताभी अनुभव तथा अभ्यास से सधरती है। एक प्रबन्धक में चाहे कितनी भी व्यक्ति निपणता क्यों न हो वह प्रबन्ध का सारा समस्याओ को बराबर कुशलता से नहीं निभा पाता। इसका कारण यह है कि जिस वातावरण में वह रहता है, वह निरन्तर बदलता रहता है। अभ्यास से ही वह नित्य प्रतिदिन अधिक कुशल बन जाता है।
उपर्युक्त लक्षणों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि-

प्रबन्ध (मैनेजमेंट) एक कला है।
प्रबन्ध विज्ञान के रूप में प्रबन्ध को विज्ञान भी माना जाता है। विज्ञान ज्ञान का वह ससंगठित एवम नियोजित भंडार है जो किसी तत्व की प्रकृति एवम् स्वभाव के बारे में सर्वप्रयुक्त नियमों का प्रतिपादन करें। विज्ञान के नियम प्रयोग तथा अवलोकन पर आधारित होते हैं। वे घटनाओं के "कारण परिणाम" के संबंधों को स्पष्ट करते हैं।
विज्ञान के तीन प्रमुख लक्षण हैं:-
  • सर्वप्रयुक्त सिद्धान्त- प्रबन्ध के अपने कुछ कुलभूत सिद्धान्त हैं। ये सिद्धान्त प्रायः सब जगह प्रयोग में लाए जाते हैं। उदाहरण के लिए हम फेयोल के सिद्धान्त लेते हैं। प्रबन्ध के इन सिद्धान्तों का व्यवस्थित अध्ययन व अध्यापन किया जाता है।
  • वैज्ञानिक अनुसंधान की प्रणाली- प्रायः प्रबन्ध के सिद्धान्त भी वैज्ञानिक अनुसंधान की प्रणाली पर आधारित होते हैं। टेलर तथा उसके अनुयायियों द्वारा सुझाए गए वैज्ञानिक प्रबन्ध के लगभग सभी सिद्धान्त वैज्ञानिक अनुसंधान तथा प्रयोग पर आधारित हैं।
  • सिद्धान्तों की परीक्षण योग्यता- प्रबन्ध के सिद्धान्तों में भी परीक्षण योग्यता पाई जाती है। वे भी व्यवहार की कसौटीपर परखे और सिद्ध किए जा सकते हैं।

प्रबन्ध एक पेशे के रूप में
पेशे का अर्थ- पेशा एक ऐसा जीविकोपार्जन का माध्यम है जिसके लिए प्रशिक्षण, प्रबन्धकीय ज्ञान तथा अनुभव की आवश्यकता होती है, जो व्यक्तिगत स्वार्थ पर आधारित न होकर सेवा भावना पर आधारित है।

पेशे के लक्षण
  • पेशे का प्रशिक्षण एवं अनुभव प्राप्त करने के लिए कुछ निश्चित अवधि होती है।
  • पेशे के लिए एक आचार संहिता (Code of Conduct) होनी चाहिए जिसका सभी सदस्यों द्वारा पालन किया जाना चाहिए।
  • पेशे के निर्बाध एवं कुशल संचालन के लिए औपचारिक संगठन होना चाहिए।
  • समाज की कुशलतापूर्वक सेवा करने के लिए पेशे के पर्याप्त सदस्य होने चाहिए।
  • पेशे के सदस्यों को प्रमापों के विकास के लिए योगदान देने का दायित्व स्वीकार करना चाहिए।
जहां तक प्रबन्ध को पेशा मानने की बात है इस संबंध में डाल्टन मैकफरलैण्ड ने पेशे के रूप में निम्नलिखित विशेषताएं निश्चित की हैं :-
  • संगठित एवं सुव्यवस्थित ज्ञान होना।
  • प्रशिक्षण एवं अनुभव प्राप्त करने की औपचारिक विधियां होना।
  • पेशे का लक्ष्य के साथ एक संबंध।
  • व्यवहार के निर्देशन के लिए आचार संहिता का निर्माण।
  • मौद्रिक पुरस्कार की तुलना में सेवा को प्राथमिकता देते हए सेवाओं का शुल्क लेना।
एक सफल प्रबन्धक के लिए व्यवस्थित ज्ञान का होना आवश्यक है। वर्तमान शताब्दी में प्रबन्ध विकास का निरन्तर विकास हुआ ह आर अभी भी प्रबंध अवधारणा विकसित हो रही है तथा नए सिद्धान्त स्थापित किए हमारे देश के तीन प्रबंध संस्थान एवं अनेक विश्वविद्यालयो क प्रदान किया जा रहा है। प्रबन्धकों ने अपनी प्रतिनिधि सस्था 'अखिल भारतीय प्रबन्ध सस्थान' नई दिल्ली भी स्थापित की है। इस क्षेत्र में कुछ आचार संहिता भी बनाई गई है और यह आशा की जाती है कि सभी प्रबन्धक उसका पालन करें यद्यपि उन्हें सार्वभौमिक रूप से स्वीकार नहीं किया गया है। पेशेवर प्रबन्धक अपनी सेवाओं का उचित प्रतिफल भी प्राप्त करते हैं। यद्यपि उनकी सफलता उनके द्वारा कमाई जाने वाली मुद्रा में नहीं आंकी जा सकती।
उपरोक्त विवरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि पांध पर्ण रूप से पेशे के रूप में विकसित नहीं हुआ है। एक प्रबंधक के लिए औपचारिक प्रबंधकीय शिक्षा एवं प्रशिक्षण अनिवार्य नहीं है। प्रबन्ध को संघ की सदस्यता भी अनिवार्य नहीं है और न ही अन्य देशों भी भांति प्रमाण पत्र या अनुमति पत्र की आवश्यकता होती है। प्रबंधक किसी आचार संहिता का पालन करने के बाध्य भी नहीं है। ये सभी तथ्य इस बात को स्पष्ट करते हैं कि प्रबंध अभी आंशिक रूप से ही पेशा है, पूर्ण रूप से नहीं।

उपरोक्त संदर्भ से भी निम्न कथन सत्य सिद्ध नहीं होता-
"पेशेवर प्रबन्ध वह प्रबन्ध है जो पेशे के रूप में योग्य प्रबन्धकों द्वारा किया जाता हो।" यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि पेशेवर प्रबधको के लिए औपचारिक शिक्षा लेना अनिवार्य नहीं है केवल विशिष्ट ज्ञान एवं निपुणता आवश्यक है जो कि अनौपचारिक शिक्षा एव अनुभव से भी हो सकती है। पेशेवर प्रबंधक वे प्रबंधक होते हैं जो आधनिकतम एवं वैज्ञानिक सिद्धान्तों, प्रणालियों एवं तकनीक का प्रयोग करते हैं।
भारत में पेशेवर प्रबंध की धीमी प्रगति का एक महत्वपूर्ण कारण “पारिवारिक प्रबंध" है जिसके अन्तर्गत स्वामी ही प्रबंधक होते ह आर यदि वे योग्य एवं प्रशिक्षित प्रबंधक नियुक्त भी करते हैं तब भी अधिकांश अधिकार अपने पास ही केन्द्रित रखते हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के प्रबंध के विकास में बाधक तत्व 'अफसरशाही' की विद्यमानता है। लेकिन यह बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि अब प्रबंध में पेशे की विशेषताएं पाई जाने लगी हैं एवं भारत में प्रबंध तेजी से पेशे के रूप में विकसित हो रहा है और शीघ्र ही वह दिन आएगा जब प्रबंध का विकास पूर्ण पेशे के रूप में होगा।

प्रबंध एक सामाजिक उत्तरदायित्व के रूप में
प्राचीन काल में मनुष्य अपनी आवश्यकता के लिए ही वस्तुओं का उत्पादन करता था। धीरे-धीरे मनुष्य ने अतिरिक्त उत्पादन करके और उसे बेचकर लाभ कमाने की प्रक्रिया को अपनाया। बाद में वस्तुओं का क्रय-विक्रय केवल लाभ पर ही होने लगा। प्रत्येक व्यापारी व उद्योगपति का उद्देश्य लाभ कमाना ही रह गया । वास्तव में यदि देखा जाए तो व्यावसायिक क्रिया का उद्देश्य ही लाभ कमाना रह गया था।

लुइस एच. हैने के अनुसार-"व्यवसाय से आशय उन मानवीय क्रियाओं से है जो वस्तुओं के क्रय-विक्रय द्वारा धन उत्पन्न तथा प्राप्त करने के लिए की जाती हैं।"

सी. एफ. एबट के अनुसार-“बिना लाभ के व्यवसाय नहीं है, ठीक उसी प्रकार जैसे बिना खाण्ड के मुरब्बा"।
लाभ कमाने की भावना का कोई अंत नहीं होता है। लाभ कमाने की धुन में व्यक्ति कभी-कभी अच्छे या बुरे का अन्तर भी भूल जाता है व इतने भयंकर सामाजिक. अपराध भी करने लगता है जिससे कई बार देश का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाता है। राटि व्यसाय में लाभ की भावना को समाप्त कर दिया जाए तो कोई भी व्यवसाय अधिक समय तक नहीं चल सकता। किन्तु पावसाय का एकमात्र उददेश्य लाभ ही कमाना हो यह भी ठीक नहीं है। इसलिए व्यवसाय में लाभ के तत्व के साथ-साथ सामाजिक कल्याण की भावना भी होनी चाहिए।

उर्विक के अनसार-"मुद्रा के पीछे-पीछे भागना व्यवसाय नहीं है.... व्यवसाय का कार्य है उपभोग के लिए उत्पादन करना न कि मुद्रा के लिए।

हेनिरी फोर्ड के अनुसार- "किसी भी व्यापारी का पहला उद्देश्य 'सेवा' होनी चाहिए और दूसरा 'लाभ'।” इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यवसाय का केवल एक ही उद्देश्य 'लाभ' न होकर सेवा भी होनी चाहिए।

इस संदर्भ में फ्रेड सी. क्राफोर्ड ने लिखा है -
"प्रबन्धक एक त्रिभुज के बीच खड़ा है एक ओर से श्रमिकों ने उसके पैर में रस्सी बांध रखी है तथा दूसरा आर को विनियोक्ता ने बाध रखा है। ऊपर की ओर उपभोक्ताओं ने प्रबन्धक की गर्दन में रस्सी डाल रखी है। इस प्रकार वर्ग प्रबन्धक से अपने हित के लिए अधिक से अधिक सुविधाओं की मांग कर रहा है।" ।
उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि प्रबंध के निम्नलिखित सामाजिक दायित्व हो सकते हैं:-
  1. समाज व देश के प्रति-प्रबन्ध का यह कर्तव्य है कि वह राष्ट के आर्थिक व औद्योगिक विकास में पूरा-पूरा सहयोग प्रदान करे। सामाजिक न्याय एवं राष्ट्रहित के लिए वित्तीय नैतिक व अन्य क्षेत्रों में सहयोग करना चाहिए। राष्ट्र की सस्कृति, दर्शन तथा समाज में प्रचलित परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए देश की प्राकतिक सम्पत्ति का अनुकूलतम प्रयोग कर न्यूनतम लागत पर अधिकतम उत्पादन करना चाहिए।
  2. श्रमिको के प्रति दायित्व-कर्मचारियों या श्रमिकों के प्रति प्रबंध का यह दायित्व है कि बेरोजगारी, धुआं व विषेले वातावरण, जल व आवास सबधी कठिनाईयों, गंदगी व अन्य सामाजिक समस्याओं का समाधान करते हुए श्रमिकों को उचित व पयात पारिश्रमिक दे। प्रबंध अर्थव्यवस्था का एक सामान्य अंग मात्र ही नहीं बल्कि निर्माता भी है। जिस सीमा तक वह आर्थिक परिस्थितिया कानयात्रत करता है और सतत् प्रयत्नों से उन परिस्थितियों को बदलता है, उस सीमा तक वास्तव में अच्छा प्रबंध करता है। इस दृष्टि स प्रबध वास्तव में एक ऐसा शिक्षक है जो श्रमिक को ईमानदार, परिश्रमी, उदार तथा कशल नागरिक बना सकता है। 3.
  3. उपभोक्ताओं के प्रति दायित्व-जनसाधारण के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने के लिए प्रबंध को अच्छे किस्म का माल न्यूनतम मूल्य व उचित समय पर उपलब्ध कराना चाहिए। यदि प्रबंध उपभोक्ताओं के हितों का ध्यान रखता है तो वह कभी भी अपने उद्देश्यों में असफल नहीं हो सकते हैं, क्योंकि"-
व्यावसायिक भवन उपभोक्ताओं के लिए है न कि उपभोक्ता व्यवसाय के लिए।" अतः प्रबंधक को सदैव उपभोक्ताओं की रुचि, मांग, कब, किस वस्तु की और कितनी मात्रा में आवश्यकता होगी, ध्यान में रखना चाहिए।

प्रबंध (मैनेजमेंट) प्रक्रिया

प्रबन्ध (मैनेजमेंट) प्रक्रिया को समझने का एक तरीका इसके आधारभूत कार्यों को पहचाना है जो मिलकर इस प्रक्रिया को बनाते हैं। ये कार्य सभी स्तरों पर, उच्च अधिशासी से अधीनस्थ तक प्रबन्धकीय क्रियाओं के आधार हैं।
विभिन्न प्रबन्ध विद्वानों ने विभिन्न नामों से, विविध संख्या में प्रबंध के आधार कार्यों का उल्लेख किया है। इन विद्वानों द्वारा दिए गए महत्वपूर्ण कार्य अथवा प्रक्रिया निम्न हैं:-
  1. नियोजन- यह प्रबन्ध का प्राथमिक एवं सबसे प्रमुख कार्य है जिसमें क्या, क्यों, कब, कैसे, किनके द्वारा आदि के लिए पहले से ही निर्णय लिया जाता है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए प्रबन्धक को अल्प कार्य के लिए पहले से ही कार्यक्रम तैयार करना होता है, उद्देश्य एवं नीतियां निर्धारित करनी होती है तथा विपरीत परिस्थितियों का सामना करने के तरीकों पर भी विचार करना होता है।
  2. संगठन- संगठन एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा संरचना एवं कार्य का वितरण निश्चित किया जाता है। उर्विक के अनुसार, “संगठन के आशय यह निर्धारित करने से है कि उद्देश्यों का प्राप्त करने के लिए क्या-क्या क्रियाएं करनी आवश्यक हैं तथा इनको ऐसे समूहों से क्रमबद्ध करने से है जिससे कि उन्हें अलग-अलग व्यक्तियों को सौंपा जा सके।
  3. समन्वय- समन्वय प्रबन्ध का एक महत्वपूर्ण कार्य है क्योंकि यह संस्था के उद्देश्यों की उपलब्धि के लिए वैयक्तिक प्रयत्नों में एकरूपता लाता है। समन्वय का आशय अधीनस्थों के प्रयासों का क्रमानुसार संयोजन से होता है जिससे कि उसके संयुक्त प्रयास निर्धारित लक्ष्यों के सामान्य उद्देश्य की ओर अग्रसर हो सकें।
  4. अभिप्रेरणा- अभिप्रेरणा प्रबन्ध का मानवीय पहलू है। यह प्रबन्ध का वह कार्य है जिसके द्वारा निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु एक संस्था में कार्यरत व्यक्तियों को स्वेच्छापूर्वक कार्य करने के लिए प्रेरित किया जाता है। इस हेतु प्रबन्धक कर्मचारियों को वितीय तथा अवितीय प्रेरणाएं प्रदान करते हैं।
  5. नियंत्रण- प्रो. थियो हेमन के अनुसार, “नियंत्रण छान-बीन द्वारा यह मालूम करने की प्रक्रिया है कि कार्य योजना के अनुसार हो रहा है या नहीं, उद्देश्यों एवं लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में उपर्युक्त प्रगति हो रही हैं या नहीं, और यदि कोई दिखाई दे तो उसको सुधारने के लिए आवश्यक कार्यवाही करना।"
  6. निर्देशन- प्रबन्ध का मुख्य कार्य निर्देशन है। स्ट्रांग के अनुसार, “निर्देशन में अधीनस्थों को कार्य के बाद में निर्देश देना, और उन्हें कार्य करने के लिए आदेश देना सम्मिलित है।” इस प्रकार निर्देशन प्रबन्ध का वह कार्य है जो संगठित प्रयासों को प्रारम्भ करता है, प्रबन्धकीय निर्णयों को वास्तविक चोला पहनाता है, और व्यवसाय को अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने की दिशा में प्रशस्त करता है।
  7. नियुक्ति- कून्टज तथा ओ डोनल ने नियुक्ति को प्रबन्ध का प्रथम कार्य माना है। यह प्रबन्ध का एक प्रशासनिक कार्य है जिसमें संगठन की योजनानुसार आवश्यक पदाधिकारियों तथा अन्य व्यक्तियों की नियुक्ति, प्रशिक्षण, पदोन्नति, सेवा मुक्ति आदि कार्य सम्मिलित होते हैं।
  8. सम्प्रेषण- अन्य शब्दों में, सचनाओं का आदान प्रदान निरन्तर आवश्यक है जो कुशल संचार व्यवस्था पर निर्भर है। यही कारण है कि पीटरसन तथा प्लामैन ने सम्प्रेषण को प्रबन्ध का पृथक कार्य माना है। न्यूमैन तथा समर के अनुसार, "संदेशवाहन दो या अधिक व्यक्तियों के मध्य विचारों, तथ्यों तथा भावनाओं का विनिमय है।"
  9. नवाचार- नवाचार केवल तकनीकी खोज या नवीन एवं सुधरे हए उत्पादों तक ही सीमित नहीं है, अपितु इसके अन्तर्गत किसा भी प्रकार की नवीन कार्य पद्धतियों को सम्मिलित किया जा सकता है जो निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक हो सकती हैं। वास्तव में, नवाचार अपनाने पर भी व्यवसाय समय की गति के साथ टिका रह सकता है।
  10. प्रतिनिधित्व- आधुनिक प्रबन्ध विद्वान प्रतिनिधित्व को भी प्रबन्ध का एक कार्य मानते हैं। इनका मत हैं कि प्रथम अस्तित्व होने के कारण एक ओर प्रबंधक का दायित्व स्वामियों के प्रति होता है, तो दूसरी ओर उसे बाह्य पक्षों के समक्ष संस्था को प्रतिनिधित्व करना होता है। वर्तमान में यह प्रबन्धक का प्राथमिक कर्तव्य माना जाने लगा है।
यद्यपि उपरोक्त सभी कार्य एक दूसरे से निकटतम रूप से अन्तर्गत संबंधित हैं, फिर भी प्रबन्धक के समग्र कार्य के संदर्भ में प्रत्येक कार्य को पृथक प्रक्रिया के रूप में जानना तथा उन्हें विस्तृत रूप में परिभाषित करना उपयोगी होता है।

प्रबन्ध बनाम प्रशासन
आदिकाल में विद्वानों द्वारा इनका समान अर्थों में उपयोग किया जाता रहा है। किन्तु औद्योगिक क्षेत्र में नवीन प्रवृत्तियों के विकास ने इन दोनों शब्दों को एक दूसरे से पृथक माना है। इसके उपरान्त तो विभिन्न लेखकों ने दोनों शब्दों के अर्थों की इतनी परिभाषाएं दी हैं कि सामान्य व्यक्ति तो सही अर्थ की तलाश में खो बैठता है। विकसित देशों में तो इनमें से एक ही शब्द प्रचलन में हैं लेकिन भारत जैसे विकासशील देश में आज भी ये दोनों शब्द प्रचलन में दिखाई पड़ते हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि प्रबन्ध का सम्बन्ध तो उद्योग के संचालन से है जबकि प्रशासन का संबंध सरकार के संचालन से है।
हेनरी फेयोल, जॉर्ज आर. टैरी, कून्टस, ओ'डोनेल तथा पीटर ड्रकर आदि विद्वानों ने 'प्रबन्ध' तथा 'प्रशासन' का समान अर्थों में उपयोग किया है। कून्टज, ओ डोनेल एवं व्हीरिच के अनुसार, “एक उपक्रम के सभी स्तरों पर प्रबन्ध आवश्यक है। जब समस्यायें किसी भी स्तर पर उत्पन्न हो सकती हैं तो प्रभावशाली प्रबन्ध की यह मांग उचित है कि सभी व्यक्ति जो दूसरों के कार्यों के लिए उत्तरदायी हैं, सभी स्तरों पर अपने को प्रबन्धक समझें... इसलिए प्रबन्धकों और प्रशासकों में कोई अन्तर नहीं समझा जाना चाहिए।"
उपर्यक्त विचारों के अनुसार 'प्रबन्ध' तथा 'प्रशासन' एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिस तरह से नीतियों के निर्धारण एवं उनके कियान्वयन को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है ठीक उसी प्रकार 'प्रबन्ध' एवम् 'प्रशासन' को भी एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है। दोनों में अन्तर केवल उपयोग का है जो कि पीटर ड्रकर की इस विचारधारा से स्पष्ट है कि कोई ये चाहे कि वह निजी क्षेत्र में हो और चाहे सरकारी क्षेत्र में, प्रबन्ध का उपयोग उन सभी संस्थाओं में किया जायेगा जो कि जो कि आर्थिक क्रियाओं के सम्पादन में संलग्न हैं, और प्रशासन का उपयोग उन संस्थाओं में किया जा सकेगा जो कि अनार्थिक क्रियाओं के सम्पादन में संलग्न हैं।
यहां पर यह कहना भी अनुचित नहीं होगा कि विस्तृत दृष्टिकोण में उपर्युक्त अन्तर भी उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि सभी जाने आर्थिक हो अथवा अनार्थिक, निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उपलब्ध साधनों के प्रभावशाली उपयोग की बात उनमें स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि दोनों शब्द समानार्थक हैं भले ही भिन्न व्यवहार में इनका उपयोग भिन्न-भिन्न ही क्यों न हो। यहां संक्षिप्त रूप में कुछ मख्य तथ्यों के माध्यम से प्रशासन व प्रबन्ध अन्तर स्पष्ट किया गया है।

प्रबन्ध एवं प्रशासन में अन्तर
अन्तर का आधार प्रबन्ध प्रशासन
निर्णायात्मक और क्रियात्मक यह व्यवसाय का क्रियात्मक कार्य है। यह व्यवसाय का निर्णयात्मक कार्य है।
पेशेवर और स्वामी प्रबन्ध प्रायः पेशवर प्रबन्धक के रूप में नियुक्त किये जाते हैं। प्रशासन अधिकारी या तो स्वामी होता है या उनके प्रतिनिधि होते हैं।
प्रबन्ध स्तर प्रबन्ध का संबंध प्रायः मध्यस्तरीय तथा निम्न स्तरीय प्रबन्धकों से रहता है। इसका संबंध प्रायः उच्च प्रबन्धकों से माना जाता है।
परिभाषा व्यावसायिक संस्थाओं में नियोजन, निर्णयन निर्देशन व नियंत्रण के कार्यों का प्रबन्ध कहा जाता है। सरकारी तथा अन्य गैर व्यवसायिक संस्थाओं में निर्णयन, पर्यवेक्षण, शासन तथा नियंत्रण की प्रक्रिया को प्रशासन कहते हैं।
लक्ष्य निर्धारण प्रबन्ध, प्रशासन द्वारा निर्धारित उद्देश्यों को पूरा करने का प्रयास करता है लक्ष्य निर्धारण से प्रबन्ध का प्रत्यक्ष संबंध होता है। प्रशासन का मुख्य कार्य संस्था के उद्देश्यों व नीतियों का निर्धारण करना होता है।
नीतियों को लागू करना प्रबन्ध का मुख्य कार्य प्रशासन द्वारा सीमाओं के अन्तर्गत नीतियों को क्रियान्वित करना, निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति के लिए संगठन का प्रयोग करना है। प्रशासन की नीतियों से क्रियान्वयन को कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं होता।
स्वामी एवं सेवक का संबंध प्रबन्ध, प्रशासन का सेवक है जो उसके आदेशानुसार कार्य करता है तथा अपनी सेवाओं के बदले लाभ का कुछ प्रतिशत प्राप्त करता है। प्रशासन, वास्तव में उद्योग का स्वामी है जो उसे भूमि, श्रम, पूंजी साहस व संगठन प्रदान करता है और इन सेवाओं के बदले लाभ प्राप्त करता है।
समन्वय एवं पूर्ण नियंत्रण प्रबन्ध, प्रशासन द्वारा निर्धारित विशिष्ठ लक्ष्यों की पूर्ति के लिए संगठन का प्रयोग करता है। प्रशासन, वित्त, उत्पादन व वितरण में समन्वय की स्थापना करता है, संगठनात्मक कलेवर की रचना करता है एवं संस्था पर सम्पूर्ण नियंत्रण रखता है।
प्रतिफल प्रबन्धकों को अपनी सेवा के बदले वेतन या लाभ का कुछ भाग कमीशन के रूप में प्राप्त होता है। प्रशासन अर्थात् स्वामियों को प्रतिफल स्वरूप लाभ प्राप्त होता है।
कुछ उदाहरण प्रबन्ध जैसे जनरल मैनेजर, प्रबन्धक संचालक वित्त प्रबन्धक आदि। प्रशासन जैसे जिलाधीश, कुल सचिव, मंत्री आयकर व बिक्री कर अधिकारी आदि।

प्रबन्ध बनाम संगठन
प्रबन्ध एवं प्रशासन की भांति प्रबन्ध तथा संगठन को विभिन्न विद्वानों ने अलग-अलग अर्थों में उपयोग किया है। यद्यपि प्रबन्ध तथा संगठन के मध्य विवाद उतना गहरा नहीं हैं जितना कि प्रबन्ध एवं प्रशासन का।
सामान्यतया प्रबंध का आशय नियोजन, संगठन, नियुक्तियां, निर्देशन, समन्वय एवं नियंत्रण की सतत प्रक्रिया से है जो उपक्रम के पूर्व निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए उत्पादन के अनुकूलतम उपयोग को संभव बनाती हैं तथा मधुर मानवीय संबंधों रात संगठन सम्पन्न की जाने वाली क्रियाओं का निर्धारण करता है, इन क्रियाओं को कार्यरत कर्मचारियों में इस प्रकार विभाजित करता है ताकि उनके मध्य मतभेद न रहे तथा कार्य करने का उचित वातावरण उत्पन्न करता है। इसलिए ई. एफ. एल. ब्रेच के अनुसार, “संगठन प्रबन्ध का वह भाग है। जो उपक्रम में कार्यरत प्रबन्धकीय, पर्यवेक्षकीय तथा विशेषज्ञों को विभाजित करने तथा कर्मचारियों के मध्य औपचारिक संबंधों के निर्धारण करने से संबंधित है"। उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट है कि संगठन की अपेक्षा प्रबन्ध का क्षेत्र विशाल है। संगठन तो प्रबन्ध का एक कार्य है। निम्न बिन्दुओं की मदद से इन दोनों का अन्तर स्पष्ट किया जा सकता है।

प्रबन्ध एवं संगठन में अन्तर
अन्तर का आधार प्रबन्ध संगठन
कार्य की प्रकृति प्रबन्ध के अन्तर्गत नियोजन, संगठन, नियुक्तों अग्रणीयता, नियंत्रण आदि कार्यो को सम्मिलित किया जाता है। संगठन के अन्तर्गत विभिन्न- विभिन्न व्यक्तियों में कार्य का बंटवारा करना, कार्य निष्पादन के लिए अधिकार, दायित्व निश्चित करना आदि क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है।
क्षेत्र संगठन प्रबन्ध के कार्य क्षेत्र का एक मात्र अंग है अतः प्रबन्ध का क्षेत्र विस्तृत है। संगठन का कार्य क्षेत्र संकुचित है। क्योंकि यह प्रबन्ध का अन्तर्गत आता है।
नीतियां प्रबन्ध नीतियों को लागू करता है। यह नीतियों को लागे करने के लिए मानव समूह का निर्माण करता है।
प्रशासन से संबंध यह प्रशासन के अन्तर्गत कार्य करता है। संगठन दोनों में समन्वय स्थापित करने का कार्य करता है।
व्यवसाय में इसका व्यवसाय में महत्व उतना है जितना की मानव शरीर में मस्तिष्क का। इसका व्यवसाय में महत्व मानव शरीर में तंत्रिकाओं के समान है।
परस्पर संबंध प्रबन्ध प्रशासन द्वारा निर्धारित सीमाओं में रह कार्य करता है और किसी तरह के परस्पर संबंधों की व्याख्या नहीं करता। संगठन प्रशान द्वारा निधारित अधिकार सीमाओं के अन्तर्गत व्यक्तियों तथा विभागों के मध्य परस्पर संबंधों की व्याख्या करता है।
दायित्व इसका दायित्व पूरे व्यवसाय को स्वच्छ व्याख्या प्रदान करता है। संगठन का दायित्व विभिन्न स्तरों के मध्य, समन्वय स्थापित करना है।

प्रबन्ध (मैनेजमेंट) का महत्व

प्राचीन काल में उत्पादन का कार्य छोटे पैमाने पर किया जाता था और उत्पादन प्रणाली सरल थी। अतः प्रबन्ध का कोई विशेष महत्त्व नहीं था। लेकिन धीरे-धीरे उत्पादन का कार्य बड़े पैमाने पर किया जाने लगा और कार्य में अनेक जटिलतायें आने लगी। इन जटिलताओं का सामना करने के लिए प्रबन्ध विशेषज्ञों की आवश्यकता हुई और प्रबन्ध का महत्व दिन दुगनी रात चौगुनी दर से बढ़ता गया।
जान आर. टेरी के अनुसार, "कोई भी उपक्रम बिना प्रभावी प्रबन्ध के अधिक समय तक सफल नहीं हो सकता। बहुत कुछ हद तक अनेक आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक लक्ष्यों की प्राप्ति योग्य प्रबन्धकों पर निर्भर करती है।"
अमेरिका के भतपर्व राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने ठीक ही कहा है कि, “एक सरकार बिना अच्छे प्रबन्ध के एक मिट्टी से बने हुए मकान के समान है।"
अतः हम कह सकते हैं कि प्रबन्ध का सभी संगठनों में अत्यन्त महत्व है। प्रबन्ध के प्रमुख महत्व निम्नलिखित हैं:-
  • सीमित साधनों का अनुकूलतम उपयोग- प्रबंध निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु उत्पादन के विभिन्न साधनों में प्रभावपूर्ण समन्वय स्थापित करता है और कम से कम प्रयासों द्वारा अधिक से अधिक परिणामों की प्राप्ति संभव बनाता है। अतः उर्विक और ब्रेच ने ठीक ही कहा है कि, “कोई भी विचारधारा, कोई भी वाद, कोई भी राजनीतिक सिद्धान्त उपलब्ध मानवीय एवं भौतिक साधनों का अनुकूलतम उपयोग नहीं करा सकता। यह तो एक अच्छे प्रबंधन द्वारा ही संभव है और इस अनुकुलतम उपयोग से ही व्यक्तियों का जीवन स्तर ऊंचा उठ सकता है, व्यक्तियों का जीवन आरामदायक हो सकता है और व्यक्ति अनेक सुविधाएं प्राप्त कर सकते हैं।"
  • बढ़ती हुई प्रतियोगिता के लिए सहायक- आज व्यवसाय का आकार स्थानीय न रहकर राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय रूप धारणा कर चुका है। आज के निर्माता को न केवल स्थानीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर प्रतियोगिता का सामना करना पड़ता है बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी उसे तीव्र प्रतियोगिता का सामना करना पड़ रहा है। ऐसी स्थिति में केवल वही संस्था बाजार में टिक सकती है जो अपने ग्राहकों को कम से कम मूल्य पर, अच्छी से अच्छी क्वालिटी का माल उपलब्ध करा सके।एक कुशल प्रबन्ध ही अपनी कुशलता एवं चातुर्य से यह कार्य कर सकता है।
  • श्रम और पूंजी में अच्छे संबंध- यदि श्रम व पूंजी में संबंध अच्छे हैं तो औद्योगिक शांति होगी, जिससे उत्पादन अधिकहोगा, साधनों का सर्वोत्तम उपयोग होगा, लाभ भी अधिक होगा तथा कर्मचारियों का कल्याण भी अधिक होगा। आज हड़ताल, तालाबन्दी एक साधारण सी बात है इनके बड़े दूरगामी परिणाम होते हैं। एक सजग प्रबंध ही इनके प्रभाव से बचा सकता है।
  • कर्मचारियों की कुशलता में वृद्धि- अच्छा प्रबंध वही है जो अपने कर्मचारियों की दक्षता को बढ़ाने की सुविधा प्रदान करते हैं यहां कारखाने में नई से नई मशीनों का चलन उत्पादन तकनीक का नई से नई विधि द्वारा होना तथा ऐसा होने से कर्मचारियों की कुशलता बढ़ जायेगी और दूसरे कारखाने में इस योग्यता वृद्धि का लाभ उठा सकता है।
  • पूर्व निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति- प्रत्येक उपक्रम की स्थापना किन्हीं लक्ष्यों जैसे आर्थिक, सामाजिक आदि की प्राप्ति के लिए की जाती है और लक्ष्यों की प्राप्ति के आधार पर व्यवसाय की क्षमता का निर्धारण होता है। उपक्रम का प्रबन्ध यदि कुशल तथा योग्य है तो अपनी विशिष्ट योग्यता, दूरदर्शिता तथा कल्पना के आधार पर इस प्रकार के नियोजन, संगठन, उत्प्रेरण, समन्वय तथा नियंत्रण की विधियों का निर्माण कर सकेगा, जिससे कि सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में लक्ष्यों की प्राप्ति सरलता से हो सके।
  • नीतियों का निर्धारण करने के लिए किसी संस्था में उद्देश्यों का निर्धारण करना जितना महत्वपूर्ण होता है उससे कहीं अधिक महत्व इनकी प्राप्ति हेतु सुदृढ़ नीतियों का निर्धारण करना होता है। नीतियां, निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति का महत्वपूर्ण साधन होती हैं। अतः संस्था की नीतियों के निर्धारण के लिए भी कुशल प्रबन्धकों की आवश्यकता होती है। प्रबन्धकों द्वारा प्रारम्भ में संस्था की आधारभूत नीतियों का निर्धारण किया जाता है और बाद में आवश्यकतानुसार विभिन्न नीतियों का निर्धारण किया जाता है।
  • वैज्ञानिक एवं तकनीकी परिवर्तनों को लागू करने के लिए-दिन-प्रतिदिन हो रहे वैज्ञानिक चमत्कारों ने औद्योगिक क्षेत्र में यह समस्या उत्पन्न कर दी है कि इन आविष्कारों, तकनीकों, एवं विधियों को किस भांति औद्योगिक तथा आर्थिक विकास के लिए उपयोग किया जाये। वैज्ञानिक एवं मानवीय संबंधों के प्रबंध ने तो यह समस्या और जटिल बना दी है। यदि कहीं इन समस्याओं का निदान है तो वह है कुशल प्रबन्ध में । क्योंकि प्रबन्ध ही इन समस्त परिवर्तनों को इस प्रकार संयोजित करने की क्षमता रखता है, जिससे इन तकनीकों, विधियों एवं आविष्कारों का उपयोग कर संस्था के पूर्व निर्धारित लक्ष्यबिना किसी कठिनाई के पूर्ण किये जा सकें।
  • सामाजिक उत्तरदायित्वों की पूर्ति- सामाजिक व्यवस्था का एक अंग होने के कारण प्रबंध के कुछ सामाजिक उत्तरदायित्व भी हैं। भारत जैसे समाजवादी प्रजातंत्रीय देश में प्रबंध की यह भूमिका और भी अधिक महत्वपूर्ण बन जाती है। देश के उपभोक्ता, विनियोजक, सरकार एवं कर्मचारी, प्रबन्धक से यह आशा करते हैं कि वह उनकी भावनाओं के अनुकूल कार्य करें। कशल प्रबन्धक ही एक ऐसी प्रक्रिया का निर्धारण करने में सक्षम हैं, जिससे प्रबन्धकीय कार्यों का सम्पादन इस भांति किया जाये जिससे कि समाज के किसी भी वर्ग की महत्वाकांक्षाओं को ठेस न लगे।
  • आय में वृद्धि का लक्ष्य पूरा करना- किसी भी संगठन के लाभों में वृद्धि करने का मूल मंत्र है-'विक्रय में वृद्धि अथवा लागतों में कमी। विक्रय में वृद्धि कुछ सीमा तक संगठन के नियंत्रण से बाहर कही जा सकती है, लेकिन लागतों में कमी करना परी तरहे से संगठन का आंतरिक मामला है और इन्हें कम किया जा सकता है। अच्छी क्वालिटी वाला कच्चामाल, आधुनिक मशीनें, प्रशिक्षित कर्मचारियों आदि की सहायता से लागतों में कमी जा सकती है। प्रबंध द्वारा ही ना में कमी करके संस्था की आय को बढ़ाया जा सकता है।
  • देश की समृद्धि के लिए- यदि यह कहा जाए कि राष्ट्र का चहंमुखी विकास प्रबंधकों द्वारा ही संभव है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। विश्व के अनेक राष्ट्रों ने अल्पावधि में जो प्रगति की है, वह कुशल प्रबंध द्वारा ही संभव हुई है। जब का प्रबंधक न्यूनतम लागत पर अधिकतम उत्पादन कराते हैं, रोजगार के अवसर उपलब्ध कराते हैं, उपलब्ध साधनों का अधिकता सदपयोग कर गरीबी को दर करते हैं तो निश्चय ही देश में समृद्धि लाई जा सकता है।

प्रबन्ध (मैनेजमेंट) की भूमिकाएं

मिजबर्ग ने इस संबंध में गहन अध्ययन किया है। मिजबर्ग के अपने शोध कार्य के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला की प्रबन्धक के व्यवसाय में एक प्रबन्धक के अलावा अन्य भूमिकाओं के रूप में कार्य करना पड़ता है। उन्होंने प्रबंध की 10 भूमिकाओं का वर्णन किया। जिनका अध्ययन तीन श्रेणियों में किया जा सकता है:
मिजबर्ग ने यह भी माना है कि इन भूमिकाओं का विशेष क्रम नहीं है। मिजबर्ग द्वारा दी गई प्रबन्ध भूमिकाओं को अग्र चित्र द्वारा समझा जा सकता है।
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अन्तयक्तिगत भूमिकाएं
प्रबन्ध के अन्तर्गत एक व्यक्ति द्वारा अन्य व्यक्तियों के माध्यम से संगठन के उद्देश्यों को पूरा किया जाता है। इसलिए इसे अन्तयक्तिगत क्रिया कहा जाता है। अन्य शब्दों में प्रबन्ध क्रिया सार्थक बनाने के लिए एक व्यक्ति का अन्य व्यक्तियों से संबंध स्थापित जरूरी होना चाहिए है। इस संबंध में एक प्रबन्धक निम्नलिखित मुख्य भूमिकाएं अदा करता है :-
  • संगठन में प्रबंधक एक मुख्य व्यक्ति के रूप में होता है।
  • एक नेता की भूमिका में प्रबन्धक अपने अधीनस्थों का मार्गदर्शन करता है वह उन्हें यह बताता है कि किस विधि से कम से कम समय में काम किया जा सकता है।
  • संगठन में प्रबंधक एक सम्पर्क अधिकारी के रूप में भी कार्य करता है।

सूचनात्मक भूमिकाएं
प्रबन्धक की यह भूमिका संदेश वाहन से संबंधित है। प्रबन्धक अपने बॉस तथा अधीनस्थों के साथ आवश्यक सूचनाओं के साथ आवश्यक सूचनाओं का आदान-प्रदान करता है, अपने अधीनस्थो को वह आदेश व निर्देश देता है, उससे सुझाव शिकायत, आदि प्राप्त करता है। इसी प्रकार वह अपने बॉस से आदेश व निर्देश प्राप्त करता है और अपने सुझाव, शिकायतों, आदि को उसके पास भेजता है। मिजबर्ग के निम्नलिखित सूचनात्मक भूमिकाओं का वर्णन किया है:-
  • एक मॉनीटर की भूमिका में प्रबंधक संगठन के आंतरिक व बाहरी वातावरण पर निगाह रखता है वातावरण का अभिप्रायसंगठन के निर्णयों को प्रभावित करने वाले आन्तरिक व बाह्य तत्वों से है।
  • एक विस्तार की भूमिका में प्रबंधक अपने अधीनस्थों को उन सूचनाओं से अवगत करवाता है जो उनकी पहंच में नहीं है।
  • अधिवक्ता की भूमिका में प्रबन्धक संगठन के बाहर के लोगों के साथ संगठन के प्रतिनिधि के रूप में बातचीत करता है।

निर्णयात्मक भूमिका
प्रबंधक की इस भूमिका का संबंध निर्णय लेने से है। प्रबन्ध व निर्णय को घटा दिया जाए तो शेष कुछ बचता। इसका अभिप्राय यह है कि प्रबन्धक को निर्णय ही तो लेने होते हैं यदि वह निर्णय नहीं लेता तो फिर उसका कोई औचित्य शेष नहीं रह जाता अतः प्रबन्धक को अनेक दैनिक व अन्य महत्वपूर्ण निर्णय लेने होते है। प्रबन्धक की निर्णयात्मक भूमिकाएं निम्नलिखित हैं:-
  1. साधन वितरक की भूमिका-प्रबन्धक का यह कर्तव्य होता है कि वह सीमित साधनों का अधिकतम उपयोग करे। ऐसा तभी संभव है यदि साधनों का उचित वितरण किया जाए अर्थात जिस स्थान पर जितने साधनों की आवश्यकता हो वहां उतने ही दिए जाने चाहिए प्रबन्धक इस भूमिका के अन्तर्गत साधनों के उचित बटवारे की व्यवस्था करता है।
  2. सादेबाज की भूमिका-इस भूमिका के अन्तर्गत प्रबन्धक अनेक आन्तरिक एवं बाह्य लोगों से विभिन्न मुद्दों पर सौदेबाजी करता है। जैसे-हड़ताल के मुद्दे को लेकर श्रमिक संघर के प्रधान से सौदेबाजी करना अर्थात् श्रमिक संघ के प्रधान के साथ यह निश्चित करना कि उन्हें क्या सुविधा प्रदान करने से हड़ताल समाप्त हो सकती है।

प्रबन्ध (मैनेजमेंट) का क्रियात्मक क्षेत्र

प्रबन्ध के कार्यात्मक क्षेत्रों का अभिप्राय उन सभी क्रियाओं के योग से है जो किसी संगठन में उद्देश्य प्राप्ति के लिए की जाती हैं ये क्रियाएं अनेक प्रकार की हो सकती हैं। एक मत के अनुसार प्रबन्ध के क्रियात्मक क्षेत्र में निम्न का समावेश किया जाता है लेकिन सेविवर्गीय वित्त, विपणन व उत्पादन क्रिया का विशेष महत्व है:-
  1. उत्पादन प्रबन्ध-प्रबन्ध के क्षेत्र के जिन क्रिया-कलापों को सम्मिलित किया जाता है। उनमें उत्पादन प्रबन्ध सर्वाधिकमहत्वपूर्ण है। इसके अन्तर्गत उत्पादन मात्रा का निर्धारण, कार्य विश्लेषण, क्रम सूचीयन, उत्पादन-नियोजन, किस्म नियन्त्रण, समय एवं विधि अध्ययन, उत्पादन क्रम का निश्चय, अभियान्त्रिक व्यवस्था, माल का स्टॉक करना एवं उस पर नियन्त्रक तथा वस्तुओं के उठाने एवं रखने के सम्बन्ध में व्यवस्था करना आदि आते हैं। इस प्रकार उत्पादन प्रबन्धक इन सभी क्रियाओं का सम्पादन करता है। यह विभाग उत्पादन प्रबन्धक देख रेख में कार्य करता है।
  2. कर्मचारी प्रबन्ध-उत्पादन के सभी साधनों (मानव, माल, मशीन, धन) को दो भागों में विभिक्त किया जा सकता है सक्रिय एवं निष्क्रिय-सक्रिय साधन में मानव को सम्मिलित किया जाता है। जबकि माल, मशीन व धन उत्पादन के निष्क्रिय साधन हैं एक संस्था में निष्क्रिय साधन अर्थात माल मशीन एवं धन कितनी ही प्रचुर मात्र में क्यों न हो ये उस समय तक बेकार हैं जब तक इनका उचित उपयोग न किया जाए। इनका उचित उपयोग उत्पादन के सक्रिय साधन अर्थात मानव द्वारा ही किया जा सकता है अब आवश्यकता इस बात की है कि ऐसा मानवीय साधन उपलब्ध किया जाए जो कि पूर्णतः कुशल हो। कुशल मानवीय साधन उपलब्ध करने का काम कर्मचारी प्रबन्ध का हैं। इस काम को करने के लिए बड़ी संख्याओं में कर्मचारी सेविवर्गीय विभाग स्थापित किया जाता है। यह विभाग कर्मचारी प्रबन्धक की देख-रेख में काम करता है।
  3. वित्तीय प्रबन्ध-एक व्यवसायिक उपक्रम का मुख्य उद्देश्य वस्तुओं व सेवाओं के विक्रय द्वारा अपने स्वामियों के लिए लाभ अर्जित करना होता है। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए धन की आवश्यकता होती है। इस सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि धन व्यवसाय की आत्मा होती है। धन के महत्व को ध्यान में रखने हुए इसका उचित प्रबन्ध अति आवश्यक है। वित्तीय प्रबन्ध क्रिया का वह भाग है जिसका सम्बंध एक संस्था की वित्तीय गतिविधियों के कुशल नियोजन एवं नियन्त्रण से है प्रत्येक व्यवसाय में वित्त के सम्बंध में मुख्यतः तीन प्रश्न उत्पन्न होते हैं। 1. विभिन्न व्यावसायिक गतिविधियों के लिए कितने वित की आवश्यकता होगी? 2. इसे विभिन्न साधनों से कितनी-कितनी मात्रा में प्राप्त किया जायेगा तथा 3. विभिन्न व्यवसायिक गतिविधियों से प्राप्त लाभ को किस प्रकार विभाजित किया जाएगा? इन सभी प्रश्नों का उत्तर वित्तीय प्रबन्ध में निहीत हैं। अन्य शब्दों में कहा जा सकता है कि वित्तीय प्रबन्ध के अन्तर्गत सर्वप्रथम, वित की आवश्यकता का अनुमान लगाया जाता है। इसके बाद इसे करने के लिए विभिन्न साधनों एवं उनकी मात्रा को निश्चित किया जाता है और अंत लाभ के विभाजन की व्यवस्था की जाती है। निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि वित्तीय प्रबन्ध के अन्तर्गत एक व्यवसाय की वित्तीय आवश्यकता की पूर्ति इस ढंग से की जाती है ताकि व्यवसाय के उद्देश्यों को आसानी से पूरा किया जा सके।
  4. कार्यालय प्रबन्ध-यह सर्वविदित हैं कि व्यवसाय चाहे छोटे पैमाने पर किया जाय अथवा बड़े पैमाने पर प्रत्येक व्यवसायी अपने यहां एक कार्यालय की स्थापना करता है। कार्यालय, संगठन का अंग है जो संचार और अभिलेखों के माध्यम से व्यवसायिक क्रियाओं के नियोजन, नियन्त्रण और समन्वय में सहायता करता है। इस प्रकार व्यवसाय में कार्यालय अत्यन्त महत्वपूर्ण है। कार्यालय प्रबन्धक के अन्तर्गत विभिन्न सूचनाएं एकत्रित करना, सूचनाओं को सम्बन्धित व्यक्ति द्वारा अपनी सूचनाओं का रिकार्ड रखना, सूचना को गुप्त रखना, अभिलेख व्यवस्था करना, आवश्यक कार्यालय-फर्नीचर, उपकरण, यन्त्रों आदि की व्याख्या करना, प्रबन्धकीय कार्यों के सम्पादन की योजना बनाना तथा कार्यालय की आर. व्यवस्था करना आदि सम्मिलित होते हैं।
  5. विपणन प्रबन्ध- विपणन प्रबन्ध का अभिप्राय विपणन के संबंध में सभी प्रबन्धकीय क्रियाओं को पूरा करने है। विपणन के अन्तर्गत उपभोक्ता की आवश्यकताओं का पता लगाने से लेकर इन्हें सन्तुष्टि करने तक की सभी क्रियाएं सम्मिलित की जाती है। दूसरी ओर प्रबन्ध के अन्तर्गत नियोजन, संगठन, नियुक्तियां, निर्देशन एवं नियंत्रण को लिया जाता है। सभी प्रबन्धकीय क्रियाओं का विपणन ही विपणन प्रबन्ध कहलाता है।
अतः विपणन प्रबन्ध में निम्नलिखित मुख्य क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है।
  1. विपणन क्रियाओं का नियोजन करना।
  2. विपणन क्रियाओं का संगठन करना।
  3. विपणन कियाओं को परा करने के लिए नियक्तियां करना।
  4. विपणन क्रियाओं का निर्देशन।
  5. विपणन क्रियाओं को नियंत्रित करना।

प्रबन्ध (मैनेजमेंट) का विकास

प्रबन्ध का प्रचलन उतना ही पुराना है जितनी की मानव सभ्यता। जैसे-जैसे मानव सभ्यता का विकास हुआ वह समूहों में रहने लगा। समूहों को सुचारू रूप से चलने के लिए प्रबन्ध की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। उस समय से लेकर आज तक प्रबन्ध के रूप में बहुत परिवर्तन आ चुका है। समय-समय पर अनेक प्रबन्ध विशेषज्ञों ने अपने प्रयोगों एवं अनुभव के आधार पर प्रबन्ध के बारे में अलग-अलग विचार व्यक्त किये हैं। प्रबन्ध के बारे में नये-नये विचार प्रस्तुत किए जाते रहे तथा प्रबन्ध विचारधारा का विकास होता रहा। प्रबन्ध विचारधारा के विकास के विभिन्न चरणों को निम्न चित्र द्वारा दर्शाया जा सकता है।
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परम्परागत दृष्टिकोण
प्रबन्ध के परम्परागत दृष्टिकोण का विकास 20वीं सदी के प्रारम्भ में हुआ इस दृष्टिकोण की यह मान्यता है कि मानव उत्पादन का निष्क्रिय संसाधन है उसे नियंत्रित किया जाना आवश्यक है व कर्मचारी आर्थिक प्रेरणाओं से अभिप्रेरित होते हैं। इस दृष्टिकोण को भी आगे तीन भागों में बाटा जा सकता है:-
  1. वैज्ञानिक प्रबंध
  2. तानाशाहात्मक प्रबन्धक
  3. प्रशासनिक प्रबन्धक

वैज्ञानिक प्रबन्ध
व्यक्तिगत परिचय- वैज्ञानिक प्रबन्ध के जनक टेलर का जन्म पेन्सलवेनिया के जर्मनटाउन नामक स्थान पर सन् 1856 में हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा उन्होंने फ्रांस तथा जर्मनी के स्कूलों में ग्रहण की। सन् 1872 में टेलर ने हारवर्ड कालेज में प्रवेश परिक्षा की तैयारी के लिए फिलिप एक्सीटर अकडैमी में प्रवेश लिया। यद्यपि उन्होंने यह परिक्षा आनर्स सहित पास की लेकिन अधिक परिश्रम के कारण उनकी आंखें कमजोर हो गई और इस कारण वे अपनी पढाई आगे जारी नहीं रख पाये 18 वर्ष की उम्र में सन् 1874 में टेलर ने सांचा बनाने तथा मिस्त्री का कार्य सीखने हेतु फिलोडेलनिया स्थित एक पम्प उत्पादन करने वाली छोटी कम्पनी में कार्य प्रारम्भ कर लिया।
उन दिनों बेरोजगारी अधिक होने के कारण सन 1878 में टेलर को फिलोडेलफिया स्थित मिडवेल स्टील कम्पनी में एक श्रमिक के रूप में जीवन प्रारम्भ करना पड़ा। कुछ ही समय बाद उन्हें टोली नायक बनाया गया। टोली नायक से फोरमैन, ड्राफ्ट मैन तथा अन्ततः उन्हें कम्पनी का मुख्य अभियन्ता नियुक्त किया गया है। उद्योग में अपनी प्रगति को ध्यान में रखकर उन्होंने पत्राचार अध्ययन द्वारा एम. ई. डिग्री की तैयारी की तथा स्टीवेन्स इन्स्ट्रीटयूट से डिग्री भी प्राप्त कर ली। इस कम्पनी में 20 वर्ष तक कार्य करने के बाद सन् 1898 में उन्होंने बेथलहेन स्टील कम्पनी में कार्य प्रारम्भ किया, जहां पर उन्हें एक बड़ी मशीन शॉप के उत्पादन वृद्धि का कार्य सौपा गया क्योंकि टेलर अपने विचारों को कम्पनी में लागू करना चाहते थे जिसका कि वहां के प्रबंधकों ने विरोध किया, परिणामस्वरूप सन् 1901 में उन्होंने इस कार्य को छोड दिया और जीवन के 14 साल उन्होंने अधिकांशत लेखन कार्य करने, सलाहकार के रूप में कार्य करने तथा वैज्ञानिक प्रबन्ध के विचारों को विकसित करने में व्यतीत किये।

वैज्ञानिक प्रबन्ध का अर्थ-वैज्ञानिक प्रबन्ध की कुछ परिभाषाएं इस प्रकार हैं-
  • डब्ल्यू. एफ. टेलर के अनुसार, “यह जानने की कला कि तुम व्यक्तियों से क्या कराना चाहते हों, तथा यह देखना कि वे सबसे उचित व सस्ते ढंग से कार्य करते हैं प्रबन्ध कहलाता है।"
  • जोन्स के अनुसार, "वैज्ञानिक प्रबन्ध प्रशासन सम्बन्धी नियमों का समूह है ताकि संगठन में उत्पादन का नियंत्रण व समन्वयनवीन अनुशासन से किया जा सके।"
  • डायमर के अनुसार, "वैज्ञानिक प्रबन्ध से आशय प्रबन्ध के क्षेत्र में दशाओं, पद्धतियों, विधियों सम्बन्धों व परिमाणों से सम्बन्धित ज्ञान प्राप्त करना व उनको समायोजित करके उपयोग करने के लिए उनको संगठित सिद्धान्तों के रूप में विकसित करना।"

वैज्ञानिक प्रबन्ध की विशेषताएं
  • निश्चित लक्ष्य- प्रत्येक संख्या को अपनी क्रियाओं के लक्ष्य निश्चित करने होते हैं। उन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिएप्रबन्धकीय विधियों की सहायता ली जाती है।
  • निश्चित योजना- संस्था के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए एक निश्चित योजना बनानी होती है। संस्था के सभी कार्यइसी योजना के अनुसार पूरे किये जाते है।
  • वैज्ञानिक विश्लेषण एवं प्रयोग-प्रत्येक कार्य को आरंभ करने से पूर्व उस कार्य के प्रत्येक भाग का वैज्ञानिक विश्लेषणएवं प्रयोग करके यह देख लेना चाहिए कि कौन सा विकल्प सबसे अच्छा होगा।
  • नियमों का समूह-वैज्ञानिक प्रबंध को प्रभावशाली बनाने के लिए प्रत्येक संस्था को अपने कुछ नियम बनाने पड़ते हैं। इन नियमों का प्रयोग किसी एक व्यक्ति पर ही नहीं करना चाहिए वरन् व्यक्तियों के समूह पर करके ही ठीक निष्कर्ष निकालने चाहिए। ऐसा करने से वैज्ञानिक प्रबन्ध का सही लाभ प्राप्त होगा।
  • दृढ़ता-जो नियम समूहों की सहायता से बने हैं उनका पालन करते समय ढील नहीं देनी चाहिए, और न ही समय-समयपर उप-नियमों में परिवर्तन करना चाहिए।
  • समय अध्ययन-आज के वैज्ञानिक युग में व्यापार के क्षेत्र में परिवर्तन होते रहते हैं परिवर्तन में नयी-नयी तकनीक प्रयोगकी जाती हैं। जिनसे समय की बचत की जा सके। अतः किसी क्रिया को पूरा करने में कितना समय लगा इसका अध्ययन करना चाहिए।
  • बचत-वैज्ञानिक प्रबंध का मुख्य उद्देश्य व्यवसाय के लिए मितव्ययता लाना है भले ही यह समय, धन या परिश्रम के रूपमें क्यों न हो। वैज्ञानिक प्रबंध द्वारा न्यूनतम लागत से अधिकतम उत्पादन का प्रयास किया जाता है।
  • कार्यकुशलता का विकास-वैज्ञानिक प्रबन्ध द्वारा श्रमिकों की कार्य करने की दक्षता बढ़ाने का प्रयास किया। यहा अनेक प्रकार के कार्य करने के नये तरीके, औजार, परीक्षण द्वारा कार्यक्षमता का विकास किया जाता है। कार्यक्षमता के परिणामस्वरूप मालिक और श्रमिकों को लाभ होता है।
  • उत्तरदायित्व की सीमा- वैज्ञानिक प्रबन्ध द्वारा कर्मचारियों की कार्य की सीमा निश्चत की जाती है ऐसा होने से वह परिणामोंके लिए जवाबदेही होगा और अपने कार्य को रूचि से भी करेगा। खराब होने पर किसी अन्य को दोषी नहीं ठहरा सकता है।
  • सहयोग-आज के बड़े पैमाने के व्यवसायिक यग में पुंजी व श्रम के सम्बंध मधुर होने आवश्यक हैं। सामहिक प्रयोग सामूहिक हित को प्राप्त करने का प्रयत्न होना चाहिए इसके लिए सब का सहयोग प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।
  • मानसिक क्रान्ति- श्रम और प्रबन्ध सम्बंधों को हल करने के लिए एफ. डब्ल्यू टायलर ने मानसिक क्रान्ति पर विशेष जोर दिया। वैज्ञानिक प्रबन्ध का मुख्य उद्देश्य श्रमिकों में उत्पादकता को वृद्धि करना तथा कार्य के दौरान उत्पन्न नीरसता एवं गलतफहमी को आपसी समझौते के आधार पर हल करना है।
  • उचित और बढ़िया औजार की व्यवस्था करना- वैज्ञानिक प्रबन्ध में टायलर ने यह भी व्यवस्था की है कि कर्मचारियों की कार्य करने के लिए उपयुक्त यन्त्रो के अभाव में कार्य क्षमता ठीक नहीं हो सकती। अतः उनसे ठीक प्रकार से कार्य कराने के लिए यन्त्रों का उपयुक्त होना आवश्यक है।

वैज्ञानिक प्रबन्ध के सिद्धान्त
एच. एस. पर्सन के शब्दों में, “वैज्ञानिक प्रबन्ध को एक लता या पेड की तरह लगाना, देख भाल करना, खाद देना, कलम करना तथा सम्भालना परम आवश्यक है। यह मशीन या बायलर की तरह नहीं है जिसे खरीद कर लगा दिया जाये।"
वैज्ञानिक प्रबन्ध को लागू करने के लिए टेलर और उसके साथियों ने समय-समय पर अनेक सिद्धान्तों की व्याख्या की है। लेकिन प्रमुख रूप से टैलर के वैज्ञानिक प्रबन्ध के सिद्धान्तों को पांच भागों में बांटा जा सकते हैं।
  • कार्य का वैज्ञानिक अध्ययन तथा नियोजन
  • श्रमिकों का वैज्ञानिक चुनाव, प्रशिक्षण तथा पारिश्रमिक
  • प्रमापीकरण
  • प्रशासकीय पुनर्गठन-क्रियात्मक संगठन
  • मानसिक क्रान्ति
वैज्ञानिक प्रबन्ध के उपरोक्त पांच सिद्धान्तों का सुविधा की दृष्टि से विस्तृत अध्ययन निम्नलखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है-

1. कार्य सम्बन्धी अनुमान- वैज्ञानिक प्रबन्ध के अन्तर्गत प्रबन्धक का यह कर्तव्य है कि वह पता लगाये कि एक प्रथम श्रेणीके श्रमिक को उचित परिस्थितियों में कितना काम करना चाहिए। कार्य का प्रमाप निश्चित करने के लिए प्रयोग सावधानी के साथ किये जाते हैं। टेलर मिडवेल स्टील कम्पनी में जब कार्य करते थे तो उन्होंने यह महसूस किया था कि श्रमिक समय का अपव्यय करके काम करने से अपने को बचाते हैं। साथ ही उन्होंने यह भी देखा कि श्रमिकों को उनकी योग्यता या क्षमता के अनुसार मजदूरी न देकर समान दर से मजदूरी का भुगतान किया जाता है। वीथिल हेम स्टील कम्पनी में एक श्रमिक औसत रूप से 12.5 टन कच्चा लोहा लादता था लेकिन टेलर ने अपने प्रयोग द्वारा यह सिद्ध किया कि एक श्रेणी के श्रमिक को प्रतिदिन 47.5 से 48 टन तक कच्चा लोहा लादना चाहिए। विलियम लेफिगवेल के अनुसार “कार्यको प्रभावित करने वाले सभी कारण प्रभावित हो जाने पर कार्य स्तर का निर्धारण कार्य सम्बन्धी अनुमान कहलाता है।

2. प्रयोग- श्री टेलर ने कार्य का अनुमान लगाने के लिए तीन प्रकार के प्रयोग किये हैं।
  • (अ) समय अध्ययन
  • (ब) थकान अध्ययनकाम
  • (स) गति अध्ययन

  • समय अध्ययन- अलफोर्ड तथा बी टी के अनसार, “किसी कार्य को करने में उपयोग किये जाने वाली विधियों व उपकरणों का वैज्ञानिक विश्लेषण करना, उस कार्य को करने के सर्वश्रेष्ठ तरीके के व्यवहारिक तथ्यों का विकास करना तथा आवश्यक समय का निर्धारण करना समय अध्ययन कहलाता है।"
  • थकान अध्ययन- थकान और श्रमिक की कार्य क्षमता का आपस में घनिष्ठ संबंध है इसलिए टेलर ने प्रत्येक क्रिया और सूक्ष्म दृष्टि से अध्ययन करके यह मालूम किया कि श्रमिक लगातार काम करने से थक जाता है और शेष बचे समय से उसकी कार्य क्षमता गिर जाती है। टेलर ने थकान अध्ययन से मालूम किया कि श्रमिक को थकान कब और कैसे होती है तथा उसे कैसे दूर किया जाए? थकान को दूर करने के लिए समय-समय पर आराम की उचित व्यवस्था होनी चाहिए तथा कार्य की प्रवृत्ति ये परिवर्तन करना चाहिए जैसे-शारिरीक कार्य करने वालोंको मानसिक कार्य दिया जाए, तथा मानसिक कार्य करने वालों को शारीरिक कार्य दिया जाए।
  • गति अध्ययन- श्री गिस्त्रब्रेथ के अनुसार, "गति अध्ययन वह विज्ञान है। जिसके द्वारा अनावश्यक निर्देशित तथा 15 अकुशल गति से होने वाली क्षति को रोका जा सके।” गति अध्ययन में मशीन या श्रमिक की किसी क्रिया को करनेमें होने वाली हरकतों का अध्ययन करना होता है। प्रत्येक कार्य को करने में श्रमिकों को हाथ-पैर चलाने पड़ते है। शरीर के अंग जितने अधिक हि लेगें उतना ही अधिक समय लगेगा, थकावट भी उतनी ही अधिक होगी इसलिए वैज्ञानिक अध्ययन द्वारा कार्य की ऐसी विधि अपनानी चाहिए जिससे शरीर में हरकत कम से कम हो।

3. योजना- योजना बनाना वैज्ञानिक प्रबन्ध का प्रमुख आधार बिन्दु है जिसके अन्तर्गत सारे कर्मचारियों की आवश्यकताओं को पूरा किया जाता है जो उत्पादन में लगे होते हैं जिन औद्योगिक इकाइयों में वैज्ञानिकों का प्रबन्ध होता है। उनमें एक योजना विभाग होता है जो अगले दिन काम की रूप रेखा पहले से ही बना लेता है। इसके लिए औद्योगिक इकाई में आलमारी होती है। जिसमें प्रत्येक श्रमिक का एक खाना निर्धारित होता है। प्रातःकाल जब श्रमिक कार्य पर आता है तो उसे अपने खाने में दो कागज रखें हुए मिलते हैं। एक में यह लिखा रखता है कि क्या काम करना है, किस तरह और कहा करना है। इसके लिए उसे किन औजारों की आवश्यकता होगी और वे कहां से प्राप्त होंगे। दूसरे कागज में उसके द्वारा पिछले दिन किये गये कार्य का पूर्ण विवरण तथा अर्जित मजदूरी के विषय में लिखा होता है। कौन कर्मचारी कहां काम करेगा, यह नक्शों, चार्टों में स्पष्ट दिखाया जाता है।

4. श्रमिकों का वैज्ञानिक चयन एवं प्रशिक्षण- वैज्ञानिक प्रबन्ध का यह प्रमुख सिद्धान्त श्रमिकों के वैज्ञनिक चुनाव, प्रशिक्षण,उचित कार्य की सुपुर्दगी, स्थान तथा प्रेरणा देने से सम्बन्धित है। टेलर ने कहा है, "वैज्ञानिक प्रबन्ध में उस चिडिया का कोई नहीं है जो गा सकती है परन्तु गायेगी नहीं, इसी प्रकार एक व्यक्ति जो कार्य कर सकता है परन्तु कार्य नहीं करेगा उसका वैज्ञानिक प्रबन्धित उद्योग में कोई स्थान नहीं है वैज्ञानिक चयन एवं प्रशिक्षण के लिए निम्नलिखित बातों पर विशेष ध्यान रखनाः-
श्रमिकों का चयन करते समय उनकी क्षमता, प्रकृति रूचि व चरित्र पर विशेष ध्यान देना।
श्रमिकों को उचित प्रशिक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए। टेलर ने कहा है कि, “यदि कोई श्रमिक सौंपे हुए कार्य को न कर सके योग्य हो तो शिक्षक के द्वारा श्रमिक को कार्य करना सिखलाया जाए।
श्रमिकों का वहा काय सापा जाए जिन्हे वे कर सकते हो।
श्रमिकों को कार्य में लगाए रखने के लिए प्रेरणाएं प्रदान करनी चाहिए।

5. कार्य का वैज्ञानिक वितरण कार्य सौंपते समय उसकी योग्यता और कार्य क्षमता का ध्यान रखना चाहिए सही व्यक्तिको सही कार्य का सिद्धान्त अपनाना चाहिए।

6. उपयुक्त एवं उन्नत औजारों का प्रयोग- वैज्ञानिक प्रबन्ध और वैज्ञानिक यन्त्रीकरण एक ही सिक्के के दो रूप हैं अतःआवश्यक है कि उत्पादन में आधुनिक व उन्नत मशीनों का प्रयोग किया जाए। मशीनों व यन्त्रों की कार्य क्षमता बनाये तयार रखने के लिए समय-समय पर उनकी देख भाल मरमत व आवश्यक परिवर्तन करते रहना चाहिए।

7. प्रेरणात्मक मजदूरी पद्धति- निश्चित मजदूरी पाने वाले श्रमिक अक्सर यह सोचते हैं कि उतना ही कार्य करना चाहिए जिससे नौकरी बनी रहे। श्री टेलर ने इस समस्या का अध्ययन करके, समय व गति अध्ययन पर आधारित प्रेरणात्मक मजदूरी पद्धति को अपनाया। इस प्रणाली के अन्तर्गत श्रमिक द्वारा प्रमाणित कार्य पूरा करने पर उस श्रमिक को प्रमापित मजदरी व बोनस दिया जाता है। इस पद्धति में मजदूरी की दो दरें होती है-एक ऊची दर तथा दूसरा नीची दर। श्रमिको द्वारा प्रमाणित समय में पूरा करने पर मजदूरी दर से दी जाती है। इसके विपरीत प्रमापित कार्य से कम करके पर नीची दर पर मजदूरी प्रदान की जाती है।

8. कुशल परिचय लेखाकार्य प्रणाली- वैज्ञानिक प्रबन्ध में वस्तुओं का अपव्यय तथा यन्त्रों का दुरूपयोग रोकने के लिए परिव्यय पघात का समुचित उपयोग आवश्यक है। यही नहीं, अग्रिम आदेशों की पूर्ति के लिए भी परिव्यय अनुमान लगाना आवश्यक होता है इसलिए योग्य तथा विशेष परिव्यय लेखाकर्म कर्मचारी नियुक्त होने चाहिए।

9. अच्छे समानकी व्यवस्था करना- श्रमिकों की कार्य क्षमता काफी कछ उस सामग्री व मशीनों पर निर्भर करती है जो उनको काम करने के लिए दी जाती है। इस करने के लिए दी जाती है। इसलिए यह जरूरी है कि कच्चा माल बहुत सोच समझकर अच्छी श्रेणी का खरीदा जाए, ताकि श्रमिक कम से कम समय में अच्छी-से-अच्छी वस्तुओं को बना सकें। साथ-ही-साथ अपव्यय पर रोक लगाकर उत्पादन लागत में कमी की जानी चाहिए।

10. स्वास्थप्रद वातावरण- श्रमिकों के कार्य करने के लिए वातावरण का उत्पादन क्षमता पर बहुत प्रभाव पड़त का वातावरण स्वास्थ्यप्रद तथा आनन्दमय हो तो श्रमिकों की कार्य क्षमता भी अधिक होगी। कारखानो के वातावरण को अनुकूलन बनाने के लिए निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए -
  • कार्य करने के लिए पर्याप्त स्थान का होना
  • स्वच्छ वायु की व्यवस्था
  • पर्याप्त प्रकाश की व्वस्था
  • आवश्यकतानुसार ताप क्रम में परिवतर्न करने की सुविधा
  • जलपानगृह, भोजनालय में शिशु गृह (यदि औरते काम करती हों) की उचित व्यवस्था।

11. प्रमाणीकरण- उत्पादन क्रियाओं में उपयोग होने वाले यन्त्रों, औजारों, विधियों तथा पदार्थों आदि में प्रमापीकरण करना सदा जरूरी है। प्रमापित कार्य प्रमापित विधियों को अपनाये बिना निश्चित नहीं किए जा सकतें। प्रमापित विधियों के अभावमें शक्ति तथा समय दोनों का दुरूपयोग होता है। प्रमापीकरण वैज्ञानिक
प्रबन्ध की आधार शिला है और यही औद्योगिक मी सफलता का राज है।

12. श्रम संगठन- आज बड़े-बड़े उद्योग है जहां पर हजारों की संख्या में श्रमिक कार्यरत है परिमाणस्वरूप मालिकों औरश्रमिकों का प्रत्यक्ष सम्बन्ध सम्भव नहीं रह गया है और नियन्त्रण व निरिक्षण कार्य अत्यन्त जटिल हो गया है। यही नही अशी उद्योगपति न्यूनतम लागत पर अधिकतम उत्पादन करके अधिक-से-अधिक लाभ प्राप्त करना चाहता है। यह उद्देश्य तभी सिद्ध हो सकता है जबकि औद्योगिक इकाई में श्रमिको का उचित संगठन एवं निरीक्षण किया जाता है।

वैज्ञानिक प्रबन्ध का आधार
वैज्ञानिक प्रबन्ध का आधार वैज्ञानिक प्रबंध कितने ही सिद्धान्तों से सम्बन्धित होता है इसमें निम्नलिखित क्रियाएं करनी पड़ती हैं जो वैज्ञानिक प्रबंध का आधार बनती हैं।
  1. अवलोकन
  2. सिद्धान्तों का निर्माण
  3. प्रयोग
  4. निश्चियता
  5. सामान्य नियमों का उपयोग
  6. दूरदर्शिता
  7. आदेश
  8. समन्वय
  9. नियन्त्रण।
  1. अवलोकन- यहां किसी समस्या का बारीक से अध्ययन करके निर्णय लिए जाते हैं यह निर्णय नियम सिद्धान्त का रूपधारण करते हैं।
  2. सिद्धान्तों के निर्माण- अवलोकन में बारीकी से अध्ययन किया जाता है फिर उनके आधार पर सिद्धान्तों को बनाया जाताहै। इस प्रकार बने सिद्धान्त व्यावहारिकता पर निर्भर करते हैं।
  3. प्रयोग- सिद्धान्तों की गहन जांच के लिए समय-समय पर प्रयोग करते रहने चाहिए ऐसा करने से सिद्धान्तों की सत्यता की पुष्टि होती रहेगी।
  4. निश्चितता- प्रयोग हो जाने के बाद नियम को निश्चितता प्रदान की जाती है ऐसा करने से जो गलती होती है उनको न्यूनतम किया जा सकता है।
  5. सामान्य नियमों का उपयोग- सामान्य नियम जो व्यापारों की प्रकृति को ध्यान में रखकर बनाये जाते हैं उन्हें किस सीमातक उपयोग करना है। ध्यान में रखना चाहिए।
  6. दूरदर्शिता- व्यापार के बहुत से निर्णय व नियम भविष्य के लिए होते हैं अतः इन्हें अपनाते समय बड़ी सावधानी या दूरदर्शिताकी आवश्यकता पड़ती है।
  7. आदेश- कर्मचारियों को समय-समय पर कार्य कराने तथा कार्य की प्रगति में रूकावट आदि के सम्बंध में आदेश देने पड़ते हैं। आदेश सदैव ऊपर से नीचे आते हैं।
  8. सम्बन्ध- सभी व्यावसायिक क्रियाओं में तालमेल बढ़ाने के लिए समन्वय की आवश्यकता पड़ती है। समन्वय के अभाव में बरबादी बढ़ सकती।
  9. नियन्त्रण- संगठन का कार्य किसी योजना के अनुसार किया जाता है। कार्य का संचालन बिना नियन्त्रण के ठीक चल ही नहीं सकता है। अतः वैज्ञानिक प्रबन्ध में नियन्त्रण को प्राथमिकता दी जाती है।

वैज्ञानिक प्रबन्ध के उद्देश्य
  • श्रम और पूंजी के बीच अच्छे सम्बन्ध-व्यापारिक सफलता के लिए शान्ति आवश्यक है। अशान्ति का प्रमुख कारण श्रम और पूंजी के बीच टकराव।
  • लागत न्यूनतम उत्पादन अधिकतम प्रत्येक व्यवसायी का यही उद्देश्य रहता है कि वह लागतों को कम-से-कम रखें और बरबादियों को रोक कर लाभ का अधिकतम करने का प्रयास करता है।
  • उत्पादन में वृद्धि–वैज्ञानिक विधियों का पालन करने से कम-से-कम लागत पर अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। वैज्ञानिक प्रबंध का सार उत्पादन में वृद्धि करने से हो। उसी व्यय अनुपात से अधिक उत्पादन प्राप्त करने का प्रयत्नकिया जाता है।
  • मानवीय चातुर्य में वृद्धि-वैज्ञानिक प्रबन्ध में मानसिक क्रान्ति पर बल दिया जाता है। अतः मानवीय-चातुर्य में वृद्धि कीसम्भावना बढ़ जाती है।
  • प्रमापीकरण-कार्य को करते-करते श्रमिकों और मालिकों को यह पता चल जाता है कि अमुक कार्य पर कितना समय लगाना चाहिए। यदि इससे अधिक समय लग रहा है तो इसे शीघ्र नियन्त्रित करने का प्रयास किया जाता है।
  • ग्राहक को सस्ती व अच्छी किस्म की वस्तुएं उपलब्ध करना-वैज्ञानिक प्रबन्ध का एक उद्देश्य यह भी है कि ग्राहकों को कम-से-कम मूल्य पर अच्छी किस्म की वस्तु उपलब्ध करायी जाए है।
  • समय और साधनों का सर्वोत्तम उपयोग-वैज्ञानिक प्रबंध का यह भी एक प्रमुख उद्देश्य होता है कि समय और साधनों को बारबादी न की जा सके।
  • नियोजित उद्देश्य को पूरा करने के लिए प्रत्येक व्यवसायिक संस्थान के कुछ नियोजित उद्देश्य होते हैं। जिन्हें वैज्ञानिक कार्य रीति द्वारा पूरा करने का प्रयास किया जाता है।

वैज्ञानिक प्रबन्ध के लाभ
वैज्ञानिक प्रबन्ध से निम्नलिखित को लाभ प्राप्त होता है
  • (अ) श्रमिकों को लाभ 
  • (ब) उत्पादकों को लाभ
  • (स) राष्ट्र को लाभ

वैज्ञानिकों प्रबन्ध के दोष
वैज्ञानिक प्रबन्ध में अनेक लाभ होते हए भी दोष पाए जाते हैं।
श्रमिकों द्वारा विरोध
नियोक्ताओं द्वारा विरोध

प्रशासनिक प्रबंध सिद्धान्त

हेनरी फेयोल
इन्होंने प्रबंध का ज्ञान फ्रांस की एक कोयले लोहे एवं इस्पात की बड़ी कम्पनी में प्रबन्धक के रूप में काम करके प्राप्त किया था। उन्होंने अपने अनुभव से यह जाना कि प्रबन्ध का कार्य, उत्पादन, विक्रय तथा लेखांकन से भिन्न, एक विशिष्ट काय हर इसकी प्रक्रिया सभी सगठनों में चाहे वे व्यवसायिक संगठन हो या सरकारी संगठन, एक ही तरह से पूरी की जाती है। प्रबन्ध प्रक्रिया की इस सर्वव्यापकता का प्रचारक होने के कारण उन्हें सर्वव्यापकता सिद्धान्त का रचयिता भी कहा जाता है। फयाल के अनुसार प्रत्येक संगठन में प्रबंध चलाने के लिए अपने सुनिश्चित सिद्धान्त हैं। यदि प्रबन्धक अपने कार्य में इन सिद्धान्ता का ध्यान रखे तो उसे सफलता निश्चित ही मिलेगी तथा फेयोल के द्वारा सुझाये गए सिद्धान्त प्रबन्ध के अन्तिम सिद्धान्त नहीं है। फेयोल के बाद उर्विक, मूने व रैले आदि अनेक सिद्धानों ने भी इन सिद्धान्तों में सुधार करके इन्हें अधिक उपयोगी बनाया है।

प्रबन्धकीय विशेषताएं और प्रशिक्षण
फेयोल के मतानुसार एक प्रबन्धक में निम्नलिखित विशेषताएं होनी चाहिए-
  • शारीरिक-एक स्वस्थ और सशक्त प्रबन्धक ही अपने कर्तव्ये का सही ढंग से पालन कर सकता है। उसकी सेहत अच्छी होनी चाहिए और उसमें स्फूर्ती रहनी चाहिए। स्वस्थ प्रबन्धक स्वस्थ व्यक्ति और सशक्त प्रबन्धक ही अपने कर्तव्यों का सही ढंग से पालन कर सकता है। उसकी सेहत अच्छी होनी चाहिए और स्फूर्ति तथा फुर्ती रहनी चाहिए। स्वस्थ प्रबंधकों से स्वस्थ व्यक्तियों के संगठन बन सकते हैं। अतः शारीरिक बनावट और स्वास्थ को महत्व दिया जाना चाहिए।
  • मानसिक–फेयोल का विचार था कि केवल शारीरिक क्षमता ही पर्याप्त नहीं है। इसके साथ ही, मनुष्य में मानसिक योग्यता भी होनी चाहिए। एक सशक्त शरीर व सशक्त मन वाला व्यक्ति ही पूर्ण मानव बनता है।
  • नैतिक-शारीरिक एवं मानसिक गुणों के साथ ही एक प्रबन्धक में नैतिक गुण भी पाए जाने चाहिएं। नैतिक गुणों में फेयोल ने यह सूची दी है-शक्ति, दृढ़ता, उत्तरदायित्व स्वीकार करने की इच्छा, कार्यक्षमता, स्वामी भक्ति, चतुरता व स्वाभिमान।
  • शैक्षाणिक-यह विशेषता उन विषयों के सामान्य ज्ञान की ओर संकेत करती है, जिनका सम्बन्ध मुख्यतः किए जाने वाले कार्यों से होता है। अतः सामान्य स्तर की शिक्षा अत्यन्त आवश्यक है।
  • तकनीकी और प्रबन्धकीय-तकनीकी विशेषताएं प्रबन्ध के द्वारा किए जाने वाले कार्य से सम्बन्ध रखती है। जैसे उत्पादन के लिए एक उत्पादन प्रबन्धक चाहिए।

व्यावसायिक क्रियाओं का वर्गीकरण
फेयोल के अनुसार प्रत्येक व्यावसायिक संस्था को छ: प्रकार के कार्य करने पड़ते हैं-
  • तकनीकी कार्य, अर्थात् उत्पादन सम्बंधी कार्य ।
  • वाणिज्य कार्य, जैसे क्रय-विक्रय तथा विनियम ।
  • वित्तीय कार्य जैसे पूंजी और आय का प्रबन्ध ।
  • सुरक्षा कार्य, जैसे सम्पत्ति आदि की रक्षा।
लेखांकन कार्य अर्थात संस्था का हिसाब किताब रखना तथा का कामियाजा प्रबन्धकीय कार्य, अर्थात संस्था का प्रबन्ध चलाना। फेयोल ने प्रबन्ध को भी उत्पादन तथा विक्रय जैसे कार्य के समान महत्वपूर्ण माना है। यद्यपि फेयोल द्वारा किया गया व्यावसायिक क्रियाओं का यह वर्गीकरण बहुत महत्वपर्ण नहीं है क्योंकि वित्त सुरक्षा तथा लेखांकन जैसे कार्य को भी तकनीकी तथा वाणिज्यकार्यों के समान महत्वपूर्ण स्थान देना ठीक नहीं है। लेकिन यह आज भी बहुत कुछ सही माना जाता है। अधिकार व्यवसायिक संस्थाओं में आज भी 5 मुख्य विभाग बनाए जाते हैं: उत्पादन, विपणन, वित्त, कर्मचारी तथा सामान्य प्रशासन विभाग, का व्यावसायिक कार्यों के इस वर्गीकरण का दूसरा दोष यह है कि इसे प्रबन्ध का उत्पादन और विपणन से पृथक कार्य माना जाता है। सच तो यह है कि प्रबन्ध विपणन और उत्पादन दोनों में ही समान रूप से आवश्यक है।

प्रबन्धकीय तत्व या प्रबन्ध प्रक्रिया
फेयोल ने अपनी पुस्तक में प्रबन्धकीय कार्यों को प्रबन्धकीय तत्वों का नाम दिया है।
  • पूर्वानुमान और योजना बनाना।
  • सगठन बनाना।
  • आदेश देना।
  • समन्वय करना।
  • नियन्त्रण करना।
फेयोल के अनुसार नियोजन प्रबन्ध का महत्वपर्ण तत्व है यह प्रबन्ध का कदम सबसे बड़ा उत्तरदायित्व भी है क्योंकि योजना जाल हाना सगठन के अस्तित्व पर एकदम विपरीत प्रभाव डालता है। उन्होंने संगठन के मानवीय पहल की ओर भी विशेष ध्यान पचार एक सगठन संरचना के निर्माण तथा आदेश देने के कार्य को योजना कार्यान्वित करने का महत्वपूर्ण आधार माना है उनका अनुसार समन्वय भी इसलिए अधिक महत्वपूर्ण है कि प्रत्येक व्यक्ति साथ-साथ कार्य करे और नियन्त्रण के अन्तर्गत यह देखा जाता है कि बनाई गई योजना के अनुसार ठीक प्रकार से कार्य हो रहा है अथवा नहीं। और यदि नहीं उनमें क्या-क्या कमियां हैं।

प्रबन्ध (मैनेजमेंट) के सिद्धान्त का अर्थ

सिद्धान्त से हमारा आशय उन नियमों कानूनों, परम्पराओं अथवा मान्यताओं से है जिनका प्रयोग विश्लेषणात्मक अध्ययन एवं पूर्ण निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु किया जाता है। सिद्धान्त वे आधारभूत सत्य होते हैं जो किसी क्रिया को कुशलतापूर्वक एवं सफलतापूर्वक ढंग से सम्पन्न करने के लिए मार्गदर्शक निमयों के रूप में प्रयोग किये जाते हैं इन्हें आधार भूत सत्यों की संज्ञा इसलिए प्रदान की जाती हैं क्योंकि ये सार्वभौमिकता के नियम है तथा प्रत्येक देश में किसी भी समय इन्हें पूर्ण सफलता के लिए जिन पर लागू किया जाता है।

परिभाषा
  • कूण्ट्ज ओ'डोनेल के अनुसार, "प्रबन्ध के सिद्धान्त सामान्य मान्यता प्राप्त के आधारभूत सत्य हैं जो प्रबन्ध में सम्बन्धित कार्यों के परिणाम की भविष्यवाणी करने की क्षमता रखते है।"
  • हिक्स हर्बर्ट के अनुसार, "प्रबन्ध के सिद्धान्त प्रबन्धकीय क्रियाओं के मार्गदर्शक नियम या कानून है इनकी रचना मुख्य रूप से व्यवसायिक परिस्थितियों के विषय में विवेक या अच्छी समझ प्रदान करने के लिए तथा संगठनात्मक निष्पादन में सुधार लाने के लिए की जाती है।"
इस प्रकार संक्षेप में कहा जा सकता है कि सिद्धान्त सत्य का एक आधारभूत विवरण है। जो प्रयोग अनुसंधान या अभ्यास के व्यवहारिक विश्लेषण द्वारा तैयार किया जाता है तथा यह आधारभूत विवरण विभिन्न क्रियाओं का मार्गदर्शन करता है। जिसमें संगठन द्वारा उच्च स्तर के कार्य की आशा की जा सकती है।

प्रबन्ध (मैनेजमेंट) के स्तर

व्यवसाय के प्रारम्भिक चरणों में जब उत्पादन का कार्य सीमित पैमाने पर किया जाता था तब प्रबन्ध के केवल दो स्तर विद्यमान थे-इनमें से प्रथम स्तर पर स्वामी या व्यवसाय में पूँजी लगाने वाले और द्वितीय स्तर पर प्रबन्धक या पर्यवेक्षक हुआ करते थे। व्यवसाय के स्वामी को उच्च-स्तरीय प्रबन्ध में और प्रबन्धक या पर्यवेक्षक को निम्न-स्तरीय या पर्यवेक्षीय प्रबन्ध से सम्मिलित किया जाता था लेकिन ज्यों-ज्यों उत्पादन का कार्य बड़े पैमाने पर किया जाने लगा, एक ही छत के नीचे कार्य करने वाले कर्मचारियों की संख्या में वृद्धि होने लगी, कार्य अलग-अलग स्थानों पर होने लगा, उत्पादन विधियों में तकनीकी परिवर्तन होने लगे, पर्यवेक्षक के नियन्त्रण के विस्तार के क्षेत्र में वृद्धि होने लगी, त्यों-त्यों प्रबन्ध जगत में एक और स्तर का विकास हुआ जिसे हम मध्यमवर्गीय प्रबन्ध के नाम से पुकारते हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि प्रबन्ध के तृतीय स्तर 'मध्यमवर्गीय प्रबन्ध' का प्रादुर्भाव विस्तृत पैमाने पर उत्पादन, कर्मचारियों की संख्या में वद्धि. नवीन प्रबन्ध, तकनीकों का विकास और नियन्त्रण के विस्तार के क्षेत्र में वृद्धि आदि के कारण हुआ है। व्यवसाय के स्वरूप में परिवर्तन जैसे एकल व्यवसाय से साझेदारी, साझेदारी से कम्पनी और कम्पनी से निगम एवं सार्वजनिक उपक्रम आदि भी प्रबन्ध के स्तर 'मध्यवर्गीय प्रबन्ध' के प्रादुर्भाव एवं विकास का मुख्य आधार हैं।
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प्रशासनिक प्रबन्ध का महत्त्व
फेयोल के प्रबन्ध के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। उनके द्वारा प्रस्तुत किए गए कुछ मुख्य विचार, जिनसे प्रबन्ध जगत को बहुत लाभ हुआ है निम्नलिखित हैं-
  • प्रबन्ध की सार्वभौमिकता।
  • प्रबन्धक पैदा नहीं होते, बनाए जाते हैं।
  • केवल अधिकारों को सौंपा जा सकता है, उत्तरदायित्व को नहीं।
  • एक प्रबधक के नियंत्रण का विस्तार छ: से अधिक नहीं होना चाहिए।
  • एक व्यक्ति को केवल एक ही कार्य करना चाहिए।
  • ऊपर से नीचे तक अधिकारों का स्पष्ट बँटवारा होना चाहिए।
  • प्रत्येक कर्मचारी को उसके अधिकार एवं उत्तरदायित्व लिखित रूप से बता देने चाहिए

आलोचना
कुछ प्रबन्ध विशेषज्ञों ने फेयोल के विचारों का विरोध किया है। विरोध के समर्थन में उन्होंने निम्नलिखित बातें कही हैं-
  • फेयोल द्वारा प्रस्तुत किए गए सिद्धान्तों में विरोधाभास है।
  • ये सिद्धान्त सीमित अध्याय पर आधारित है।
  • ये सिद्धान्त संगठन का मशीनीकरण करते हैं।
निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि प्रशासनिक प्रबन्ध की आलोचना अधिक व्यावहारिक नहीं है। फेयोल द्वारा प्रस्तुत किए गए सिद्धान्त भी अटल है और प्रबन्धकों का मार्गदर्शन कर रहे हैं।

टेलर एवं फेयोल के योगदान का तुलनात्मक अध्ययन
प्रबन्ध के क्षेत्र में टैलर और फेयोल दोनों ही बड़े स्तम्भ और कर्मयोगी माने जाते हैं। टेलर को वैज्ञानिक प्रबन्ध का प्रतिपादक तथा फेयोल को आधुनिक प्रबन्ध का पिता कहा जाता है। दोनों ही कर्मयोगियों ने अपने-अपने योगदान से प्रबन्धशास्त्र को अधिक से अधिक वे धनी बनाने का प्रयत्न किया है। टेलर के कार्य का केन्द्र बिन्दु श्रमिक और उसकी कार्यकुशलता थी जबकि फेयोल के कार्य का कार्यक्षेत्र उच्चस्तरीय प्रबन्ध था। थियो हैमेन के अनुसार दोनों के कार्यों में अन्तर ढूँढ़ना आवश्यक है क्योंकि “दोनों ही विद्वानों ने प्रबन्ध की समस्याओं के समाधान में वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग किया है।

समानताएँ
यद्यपि टेलर और फेयोल दोनों ने विभिन्न परिस्थितियों में अपना जीवन प्रारम्भ किया, लेकिन दोनों ही चोटी के प्रबन्ध विशेषज्ञ माने जाते हैं। इन दोनों के कार्यों में निम्नलिखित समानताएँ पायी जाती हैं-
  • टेलर और फेयोल दोनों ही विद्वानों का उद्देश्य प्रबन्ध की बुराइयों को दूर करना था और दोनों ने ही इस दिशा
  • में सराहनीय कार्य किया है।
  • दोनों ही विद्वानों ने इस बात का प्रतिपादन किया कि श्रम के साथ मानवीय, उचित एवं न्यायपूर्ण व्यवहार किया जाना चाहिए, क्योंकि श्रम उत्पादन का संजीव सक्रिय साधन है और उसकी सन्तुष्टि अत्यन्त आवश्यक है।
  • दोनों ही प्रबन्ध विशेषज्ञों ने अपने-अपने ढंग से प्रबन्ध के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया।
  • दोनों की विशेषज्ञों के अनुभवों की छाप प्रबन्ध के क्षेत्र में है।
  • आधुनिक प्रबन्ध की विचारधारा को दोनों ही विद्वानों से प्रेरणा मिली है।

असमानताएँ
यद्यपि टेलर और फेयोल के विचारों में अनेक समानताएँ है लेकिन फिर भी इन दोनों के विचारों में निम्नलिखित असमानताएँ भी हैं-
  • टेलर के अध्ययन का केन्द्र-बिन्दु श्रमिक था, क्योंकि उसने अपना जीवन एक श्रमिक के रूप में आरम्भ किया था जबकि फेयोल ने अपना जीवन एक बड़े अधिकारी के रूप में आरम्भ किया था इसलिए उनके अध्ययन का केन्द्र बिन्दु प्रबन्ध था।
  • टेलर को 'कुशलता विशेषज्ञ' जबकि फेयोल को प्रबन्ध विशेषज्ञ माना जाता है क्योंकि उन्होंने प्रबन्ध की कार्यकुशलता को बढ़ाने सम्बन्धी सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है।
  • टेलर ने कारखाना प्रबन्ध और उत्पादन के इंजीनियरिंग पहलू के अध्ययन को अधिक महत्वपूर्ण माना है जबकि फेयोल ने प्रबन्ध के कार्यों को अधिक महत्वपूर्ण माना है।
  • वर्तमान परिस्थितियों में टेलर के सिद्धान्त बहुत अधिक बदल चुके हैं जबकि फेयोल के सिद्धान्त आज भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने वे उस समय थे, जब उनका प्रतिपादन किया गया था।
यहाँ इस बात का उल्लेख करना भी आवश्यक है कि आधुनिक परिवर्तनों के कारण टेलर की विचारधारा में बहुत अधिक परिवर्तन हो गया है जबकि फेयोल के सिद्धान्त आज भी अटल हैं।

तानाशाहात्मक प्रबन्ध
तानाशाहात्मक प्रबन्ध विचारधारा का प्रतिपादन एक जर्मन समाजशास्त्री मैक्स बैबर ने किया। बैबर का मानना था कि प्रबन्धकीय अनियमितता को समाप्त करने के लिए सख्त नियम बनाये जाने चाहिए क्योंकि अनियमितता से अकुशलता आती है। इसके अतिरिक्त इनका यह भी मानाना था कि एक बड़े संगठन में तानाशाहात्मक प्रबन्ध से ही सफलता प्राप्त की जा सकती है। इनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त फेयोल के सिद्धान्तों के समान है लेकिन इन्होंने सिद्धान्तों की सख्ती से पालन करने की बात कही है।

नव–परम्परागत दृष्टिकोण
नव-परम्परागत दृष्टिकोण का विकास सन् 1930 के आस-पास हुआ। परन्तु इस दृष्टिकोण के विकास का आधार परम्परागत दृष्टिकोण ही है इन दोनों में मुख्य अन्तर मानवीय संसाधन के साथ किए जाने वाले व्यवहार को लेकर है। इस दृष्टिकोण के दो आधारभूत स्तंभ हैं-
  • मानवीय सम्बन्ध दृष्टिकोण
  • व्यवहारात्मक विज्ञान दृष्टिकोण

मानवीय सम्बन्ध दृष्टिकोण
टेलर का वैज्ञानिक प्रबंध तथा फियोल का प्रशासनिक प्रबंध दोनों ही उत्पादन कुशलता तथाकार्य करने के स्थल पर मैत्रीपूर्ण व्यवहार स्थापित करने में असफल रहे। इनकी सुसफलता का मुख्य कारण था मानवीय संसाधन की ओर ध्यान न दिया जाए। मानवीय संबंध दृष्टिकोण की उत्पत्ति का भी यही कारण है।
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक एल्टन मेयो ने प्रथम बार मानवीय संबंध दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया। इस दृष्टिकोण को अन्तिम रूप देने के लिए मेयो ने अपने सहयोगियों के साथ कुछ प्रयोग किये। इन प्रयोग को 'हौथोर्न प्रयोग' के नाम से जाना जाता है। ये प्रयोग 1927 से 1932 के मध्य यू. ए. ए. की वैस्टर्न इलेक्ट्रिक कम्पनी के हुए थे। इन प्रयोगों के हौथोर्न में होने के कारण ही इन्हें हौथोर्न प्रयोग कहा जाता है। इस प्लांट में टेलीफोन के पुर्जे तैयार किए जाते थे और वहां 29,000 श्रमिक काम करते थे।
अपने प्रयोगों के दौरान मेयो एवं साथियों ने निम्नलिखित तत्वों का अध्ययन किया-
  • रोशनी एवं उत्पादकता में संबंध,
  • कार्य की दशाओं एवं उत्पादकता में संबंध
  • अनौपचारिक समूह एवं उत्पादकता में संबंध तथा
  • आर्थिक प्रेरणाओं एवं उत्पादकता में संबंध
इन प्रयोगों का यह परिणाम निकाला की उत्पादकता का संबंध उतना कार्य की दशाओं से नहीं जितना की भावनात्मकतत्वों से है।

व्यवहारात्मक विज्ञान दृष्टिकोण
मानवीय संबंध दृष्टिकोण में कहा गया है कि संतुष्टि व उत्पादकता में सीधा संबंध है अर्थात् श्रमिक जितने अधिक संतुष्ट होगें उतना ही अधिक उत्पादन करेंगे। विज्ञान दृष्टिकोण मानवीय संबंध दृष्टिकोण का ही एक सुधरा हुआ रूप है। इसके अन्तर्गत मानवीय संबंधों के स्थान पर मानव के व्यवहार का अध्ययन किए जाने की बात कही गई है। इस दृष्टिकोण के प्रवर्तक डगलास मेकग्रेगर चेस्टर आई. बरनार्ड, रेनासिस लिकर्ट, क्रिस अगिरिस, फ्रेडरिकहर्जबर्ग, बारनेपी. बोनिस मेरी पार्कर फोलेट। अब्राहम माशलो तथा राबर्ट टेनिस बॉस है। व्यवहारात्मक वैज्ञानिकों का मुख्य योगदान नेतृत्व सदेशवाहन अभिप्रेरणा आदि क्षेत्रों में रहा। व्यवहारात्मक विज्ञान दृष्टिकोण 1940 के बाद प्रचलन में आया।

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