पर्यावरण - परिभाषा, विशेषताएँ, प्रकार, संरचना और संघटक | paryavaran

पर्यावरण (Environment)

पृथ्वी के उद्भव के बहुत बाद में पर्यावरण का निर्माण हुआ। इसके निर्माण की प्रक्रिया नितान्त मन्द गति से अनवरत सक्रिय रही। अनेक भौतिक एवं अभौतिक तत्वों का निर्माण तथा इनके मध्य उत्पन्न सम्बन्ध से पर्यावरण धीरे-धीरे मूर्त रूप धारण करता गया। वायुमंडल का निर्माण एवं इसकी घटनायें पर्यावरण के निर्माण एवं विकास में निरन्तर सहयोग देती रहीं कालान्तर में भू-तल पर एक भौतिक पर्यावरण का निर्माण हो गया।
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इस पर्यावरण के मध्य मानव जैसा एक विशिष्ट प्राणी उत्पन्न हुआ। यही एक ऐसा प्राणी है जो चिन्तन, कृतित्व एवं व्यक्तित्व से परिपूर्ण है। वह अपने तथा समस्त जैविक-अजैविक संघटकों के विषयों में सोच सकता है। पर्यावरण के उपादानों का उपयोग एवं उनकी सुरक्षा कर सकता है। पर्यावरण ने मानव को बहुत कुछ दिया है जिससे एक उत्कृष्ट मानव-संस्कृति उद्भत हुई है। परन्तु मानव स्वार्थ से अन्धा होकर पर्यावरण के विनाश में संलग्न है। पृथ्वी का उद्भव, उसका शीतलन, वायुमंडल का निर्माण, वनस्पति एवं जीवों की उत्पत्ति आदि कालान्तर की सक्रिय प्रक्रिया से पर्यावरण का निर्माण हुआ। प्रारम्भ में पर्यावरण नितान्त निर्बल था। धीरे-धीरे सघन एवं मौलिक होता गया, अनेक प्राकृतिक नियम पर्यावरण में संचालित होने लगे। सभी ने परस्पर सम्बद्ध होकर पर्यावरण को मौलिक स्वरूप प्रदान किया।
जैसे कि जीवित जीव घिरा हुआ है, प्रश्न यह उठता है किसके द्वारा और कहाँ ? स्पष्ट है जीवित जीव भौतिक गुणों के द्वारा स्थान या निवास क्षेत्र पर घिरा हुआ है। इस प्रकार, किसी स्थान विशेष में मनुष्य तथा जीवित जीव के चारों ओर घिरे भौतिक आवरण को पर्यावरण कहा जा सकता है। सी.पी. पार्क के अनुसार, 'पर्यावरण का अर्थ उन दशाओं के योग से होता है जो मनुष्य को निश्चित समय में निश्चित स्थान पर आवृत्त करतीं हैं'। आदि काल या प्रारम्भ में मनुष्य के पर्यावरण की रचना केवल भौतिक पक्षों तथा जैविक समुदायों द्वारा ही होती थी परन्तु समय के साथ-साथ मनुष्य ने अपने बदलते सामाजिक स्वरूप को विस्तृत और विकसित किया जिससे मनुष्य के लिए पर्यावरण का अर्थ बदलता गया। अतः मनुष्य के पर्यावरण में अब भौतिक पर्यावरण के साथ सामाजिक पर्यावरण, आर्थिक पर्यावरण, राजनैतिक पर्यावरण, सांस्कृतिक पर्यावरण आदि सम्मिलित हो गये।
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इको चिन्हः भारतीय मानक ब्यूरो द्वारा मिट्टी के घड़े के रूप में स्थापित यह चिन्ह ऐसे उत्पादों के लिए दिया जाता है जिसका उत्पादन और उपयोग पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता लाने के लिए सरकार द्वारा चलाया जा रहा अभियान है।

इकोब्लब: किशोरो में पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता लाने के लिए सरकार द्वारा चलाया जा रहा अभियान।


पर्यावरण की विभिन्न परिभाषाएँ

  • फिटिंग के शब्दों में "पर्यावरण किसी जीवधारी को प्रभावित करने वाले समस्त कारकों का योग है।'' (Environment is the sum total of all the factors that inefluence an organism-Fitting)
  • हरकोविट्ज के अनुसार, "किसी जीवित तत्व के विकास चक्र को प्रभावित करने वाली समस्त बाह्य दशाओं को पर्यावरण कहते हैं।" (Envrionment is the sum total of all the external conditions and its influences on the external conditons and its influences ont he development cycle of biotic elements-Herkovitz)
  • रॉस ने लिखा है, "पर्यावरण एक वाह्य शक्ति है जो हमें प्रभावित करती है।" (Environment is an external force which influences us.- Ross)
  • डेविस ने पर्यावरण को मूर्त वस्तु न मानकर अमूर्त वस्तु मानी है। (Environment does not refer to anything tangible but to an abstraction.-Devis)
  • वर्तमान समय में पारिस्थितिविद् Environment शब्द के स्थान पर habiat अथवा Milieu शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं, जिसका तात्पर्य समस्त परिवृत्तित है। पार्क, ने स्पष्ट किया कि पर्यावरण उन सभी दशाओं का योग है जो मानव जाति को निश्चित समयावधि में स्थित नियत स्थान पर आवृत्ति करती है।

पर्यावरण का अध्ययन क्यों?

पर्यावरण का अध्ययन करना महत्वपूर्ण है क्योंकि हमारे प्राकृतिक और जीवाश्मी वातावरण का समग्र अध्ययन हमें इसके महत्व को समझने में मदद करता है और साथ ही पर्यावरणीय समस्याओं को समझने, उनका प्रभाव मापन करने और उन्हें संभालने के लिए नीतियों और प्रयासों को विकसित करता है।
यहां कुछ मुख्य कारण हैं जो पर्यावरण के अध्ययन को महत्वपूर्ण बनाते हैं:
  • पर्यावरण संरक्षा : पर्यावरण का अध्ययन हमें पर्यावरण की संरक्षा की आवश्यकता को समझने में मदद करता है। यह हमें प्राकृतिक संसाधनों के संचयन, उपयोग, और प्रबंधन के बारे में जागरूकता प्रदान करता है ताकि हम संतुलित तरीके से प्रयोग कर सकें और भविष्य के लिए संरक्षित रख सकें।
  • पर्यावरणीय समस्याओं का समझना : पर्यावरण के अध्ययन से हम पर्यावरणीय समस्याओं को समझने में सक्षम होते हैं, जैसे- जलवायु परिवर्तन, वनों का अपघात, वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, और जीव-जंतुओं के संरक्षण की समस्याएं। इससे हम उन समस्याओं की गहनता, कारण, प्रभाव, और संभावित समाधान को समझ सकते हैं।
  • संवेदनशीलता और सामरिकता : पर्यावरण के अध्ययन से हम अपने कृतित्व के प्रति संवेदनशीलता विकसित करते हैं और सामरिकता को समझते हैं। हमें अपने आर्थिक और सामाजिक कार्यों को पर्यावरणीय प्रभाव के साथ तैयार करने की जरूरत होती है, ताकि हम संवेदनशीलता, सामरिकता, और दूसरे प्राकृतिक प्रणालियों को बनाए रख सकें।
  • पूर्वानुमान और नीतियों का निर्माण : पर्यावरण के अध्ययन से हम पूर्वानुमान कर सकते हैं कि विभिन्न नीतियों और प्रयासों का पर्यावरण पर क्या प्रभाव होगा। यह नीतियों के विकसित करने और नीतियों के प्रभाव को मापने में मदद करता है ताकि हम समाधानों को तैयार कर सकें और पर्यावरण संरक्षा के लिए उचित नीतियाँ बना सकें।
  • विश्वस्तरीय पहल के लिए : पर्यावरण के अध्ययन से हम विश्वस्तरीय स्तर पर पर्यावरण संरक्षा के लिए साझा मुद्दाओं को समझ सकते हैं और आपसी सहयोग के माध्यम से इस पर नियंत्रण पा सकते हैं। पर्यावरण का अध्ययन हमें वैश्विक स्तर पर संबंधित प्रदेशों, देशों और संगठनों के साथ मिलकर कार्य करने में मदद करता है, जो समस्याओं को निर्देशित करने, संबंधित प्रदर्शन मानकों की निर्धारण करने और उच्चतम स्तर पर पर्यावरण संरक्षा के लिए संयुक्त प्रयास करने के लिए महत्वपूर्ण हैं।
इन सभी कारणों से, पर्यावरण का अध्ययन हमारे जीवन और समाज के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह हमें अपने प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित रखने, संतुलित विकास को समर्थन करने, पर्यावरणीय समस्याओं को समझने, और उचित नीतियों और प्रयासों को विकसित करने में मदद करता है।

इस दृष्टि से पर्यावरण अध्ययन के निम्नलिखित उद्देश्य है-
पर्यावरण अध्ययन के उद्देश्यों में कई महत्वपूर्ण पहलू होते हैं।
नीचे दिए गए हैं कुछ मुख्य उद्देश्य:
  • पर्यावरणीय संसाधनों का संरक्षण : पर्यावरण अध्ययन का मुख्य उद्देश्य पर्यावरणीय संसाधनों की संरक्षा होती है। यह वन्य जीवन, वन, जल, जलवायु, मिट्टी, और वायु आदि को संरक्षित रखने के लिए प्रयास करता है।
  • पर्यावरणीय समस्याओं की पहचान : पर्यावरण अध्ययन का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य पर्यावरणीय समस्याओं की पहचान करना है। इससे हम प्रदूषण, जलाशयों की कमी, जलवायु परिवर्तन, बाढ़, वनों का अपघात, और जैव विविधता के लिए खतरे जैसी समस्याओं को समझ सकते हैं।
  • पर्यावरणीय प्रभाव का मापन : पर्यावरण अध्ययन से हम पर्यावरणीय प्रभावों का मापन कर सकते हैं। यह प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन, वन कटाव, और प्राकृतिक आपदाओं के प्रभाव को मापन करके उनके संभावित परिणामों को समझने में मदद करता है। पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान के लिए नीतियों और कार्यक्रमों को विकसित करने में मदद करता है।
  • प्रदूषण नियंत्रण : पर्यावरण अध्ययन का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य प्रदूषण के नियंत्रण में सहायता करना है। यह विभिन्न प्रदूषण स्रोतों को पहचानने, मापन करने, और उनके प्रभाव को मापन करके प्रदूषण के संबंधित समस्याओं का समाधान ढूंढने में मदद करता है।
  • जलवायु परिवर्तन का अध्ययन : पर्यावरण अध्ययन जलवायु परिवर्तन के अध्ययन को प्रोत्साहित करता है। यह वैज्ञानिक तथ्यों, आंकड़ों, और प्रभावी समाधानों के माध्यम से हमें जलवायु परिवर्तन के कारणों, प्रभावों, और संभावित समाधानों को समझने में मदद करता है।
  • संरक्षण और उर्जा के स्रोतों की पुनर्प्राप्ति : पर्यावरण अध्ययन हमें संरक्षण और उर्जा के स्रोतों की पुनर्प्राप्ति के लिए नवाचारों को समझने में मदद करता है। यह साधारण और अनुकरणीय उपायों के माध्यम से विभिन्न पर्यावरणीय संसाधनों को संरक्षित रखने और उनका समुचित उपयोग करने के लिए नवीनतम तकनीकों और तत्वों को ढूंढने में मदद करता है।
  • पर्यावरणीय शिक्षा : पर्यावरण अध्ययन का उद्देश्य एक पर्यावरणीय जागरूकता का निर्माण करना है। यह हमें विद्यार्थियों, जनता, और समुदाय को पर्यावरणीय मुद्दों, संवेदनशीलता, और संरक्षण के महत्व के बारे में जागरूक करने में मदद करता है।
  • लोकतांत्रिक निर्णयों का समर्थन : पर्यावरण अध्ययन हमें विभिन्न नीतियों, कानूनों, और निर्णयों के लिए प्रामाणिक और वैज्ञानिक आधार प्रदान करता है। यह लोकतांत्रिक निर्णयों का समर्थन करने में मदद करता है, जहां पर्यावरणीय मुद्दों को महत्वपूर्ण तत्व के रूप में शामिल किया जाता है।
ये उद्देश्य पर्यावरण अध्ययन के महत्वपूर्ण पहलु हैं जो हमें पर्यावरणीय संरक्षा, संवेदनशीलता, और सुस्थिति के प्रति जागरूक बनाते हैं। यह हमें अपने प्रदूषण स्तर को कम
करने, प्रकृति संसाधनों को संरक्षित रखने, और समुदाय को संघर्षशील पर्यावरणीय समस्याओं का सामना करने में मदद करता है। इसके अलावा, यह हमें वैश्विक पर्यावरणीय मुद्दों के समाधान के लिए सहयोगी नीतियों और कार्यक्रमों का विकास करने में मदद करता है।

पर्यावरण का अध्ययन क्षेत्र

पर्यावरण अपने अन्दर चार बड़े खण्डों को समाहित करता है
  1. वायुमण्डल
  2. जलमण्डल
  3. स्थलमण्डल
  4. जैव मण्डल

वायुमण्डल
वायुमंडल पर्यावरण के लिए महत्वपूर्ण है और इसके संबंध में निम्नलिखित पर्यावरणीय मुद्दे और प्रभाव होते हैं:
  • ओजोन स्तर की क्षति : वायुमंडल में ओजोन स्तर की कमी पर्यावरण के लिए चिंता का विषय है। ओजोन स्तर कम होने के कारण, खतरनाक यूवी रेडिएशन पृथ्वी की सतह तक पहुंच सकती है, जिससे त्वचा के कैंसर, आंखों की समस्याएं, और प्राकृतिक प्रणालियों पर असर पड़ सकता है।
  • वायु प्रदूषण : वायुमंडल प्रदूषण की अवस्था और वायुमंडलीय प्रदूषण के प्रभाव के कारण, वायुमंडल पर्यावरणीय मुद्दों के लिए महत्वपूर्ण है। ध्वनि प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, वायुमंडलीय प्रदूषण के प्रभाव का बढ़ना, और हवा के गुणवत्ता में कमी जैसी समस्याएं इससे संबंधित होती हैं।
  • जलवायु परिवर्तन : वायुमंडल के प्रदूषण और गैसों की विस्तारित कार्यप्रणाली के कारण, वायुमंडलीय प्रदूषण जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को बढ़ाई सकता है। यह पृथ्वी के तापमान में वृद्धि, मौसम परिवर्तन, जलवायु बदलाव, और प्राकृतिक आपदाओं में बदलाव का कारण बन सकता है।
  • पृथ्वी की सुरक्षा  : वायुमंडल प्रदूषण और ग्रीनहाउस गैसों के प्रभाव के कारण पृथ्वी की सुरक्षा पर असर पड़ सकता है। इसके कारण, वायुमंडल में प्रदूषण कम करने और पर्यावरण के प्रति सतर्क बनने के लिए कार्य किया जा रहा है।
इन पर्यावरणीय प्रभावों को समझने के लिए वायुमंडल के संबंध में अध्ययन किया जाता है और इसके माध्यम से हम पर्यावरण संरक्षण, जलवायु परिवर्तन के सामरिक प्रभावों को निपटाने, और संबंधित नीतियों और कार्यक्रमों को विकसित करने में मदद करते हैं।

जलमण्डल
जलमंडल पर्यावरण के लिए विशेष महत्व रखता है। यह पानी की मौजूदगी, जलस्रोतों, नदियों, झीलों, बांधों, समुद्रों और अवास्तविक जल भंडारण के साथ जुड़ा होता है। इसके संबंध में निम्नलिखित पर्यावरणीय मुद्दे और प्रभाव होते हैं:
  • जल संरक्षण : जलमंडल पर्यावरण के जल संसाधनों को संरक्षित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यहां प्राकृतिक जलस्रोतों की संरक्षा, जलकाय जीवन का संरक्षण और जल उपयोग की व्यवस्था पर ध्यान दिया जाता है। जल संरक्षण की महत्वपूर्णता जलमंडल के समुद्र तटों, जलधाराओं और प्राकृतिक जल स्रोतों की सुरक्षा और जल प्रबंधन के लिए उच्चतम होती है।
  • जल प्रदूषण : जलमंडल प्रदूषण के बढ़ते मामलों के कारण जल प्रदूषण के प्रभावों को समझने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। औद्योगिक, निकायों, कृषि, और स्थानीय स्रोतों से आने वाले प्रदूषण तत्व जलमंडल के समुद्र तटों, नदियों और झीलों में प्रभाव डालते हैं। जल प्रदूषण के कारण जलमंडल की जीव-जंतु जीवन पदार्थों पर, जल पारितंत्रिकी प्रणाली पर और मानव स्वास्थ्य पर असर पड़ सकता है।
  • जलवायु परिवर्तन : जलमंडल के प्रदूषण, जलस्रोतों की क्षमता कमी और जलमंडल में तापमान बदलाव के कारण, जलवायु परिवर्तन पर असर पड़ सकता है। यह मौसम परिवर्तन, बाढ़, सूखे, उष्णकटिबंधीय समस्याएं, और जलीय जीवन पर प्रभाव डाल सकता है। जलमंडल के जलस्रोतों की शुद्धता और मौसमी प्राकृतिक प्रक्रियाओं के अध्ययन से हम जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को समझ सकते हैं और उसके संबंधित प्रबंधन कर सकते हैं।
जलमंडल पर्यावरण के विभिन्न पहलुओं को समझने और उनसे निपटने के लिए जलमंडलीय अध्ययन महत्वपूर्ण है। इससे हमें जल संरक्षण, जल प्रदूषण नियंत्रण, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का मूल्यांकन, और जल संबंधित समस्याओं के समाधान के लिए नीतियां और कार्यक्रम विकसित करने में मदद मिलती है। इसके अलावा, जलमंडल का अध्ययन हमें सुरक्षित और शुद्ध जल संसाधनों की आवश्यकताओं को समझने और उन्हें प्रबंधित करने में मदद करता है।

स्थलमण्डल
स्थलमंडल पर्यावरण भूमि और उसके आसपास के पर्यावरणीय प्रभावों के संबंध में महत्वपूर्ण है। यह वातावरण, जीव-जंतु और पौधों, मानव समुदायों और वनस्पति के निर्माण और उनके जीवनशैली के लिए महत्वपूर्ण होता है। निम्नलिखित प्रकार के पर्यावरणीय मुद्दे स्थलमंडल पर्यावरण से संबंधित होते हैं:
  • मिट्टी की गुणवत्ता : स्थलमंडल में मिट्टी की गुणवत्ता पृथ्वी के पोषण प्रणाली, पौधों की विकास और मृदा संरचना के लिए महत्वपूर्ण है। मिट्टी की गुणवत्ता, उसमें मौजूद पोषक तत्वों, pH स्तर, धातुओं के साथियों, और उपलब्ध पोषकों की मात्रा के माध्यम से मापी जा सकती है। स्थलमंडलीय माटी की गुणवत्ता के प्रमुख प्रभावों में पौधों के संवर्धन और जल संरचना के लिए उच्चतम होती है।
  • वन्य जीवन : स्थलमंडल वन्य जीवन के निवास स्थल के रूप में महत्वपूर्ण होता है। यहां बायोडाइवर्सिटी, प्राणियों की जीवनशैली और प्रजनन संरचना, और जंतुओं और पौधों के निवास स्थान का निर्माण करता है। स्थलमंडल प्राकृतिक हवेलियों, वनस्पति प्रणालियों, और वन्य प्राणियों के संवर्धन के लिए महत्वपूर्ण होता है।
  • भूमि प्रबंधन : स्थलमंडल पर्यावरण के भूमि प्रबंधन के लिए अहम भूमिका निभाता है। यह भूमि के उपयोग, कृषि, वन्य जीवन संरक्षण, प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन, और जल संरचना और बांधों के निर्माण जैसे अवसरों को समझने में मदद करता है। भूमि प्रबंधन के माध्यम से स्थलमंडल में समुदायों के विकास को संभव बनाने के साथ-साथ प्रदूषण का प्रबंधन और स्थलमंडलीय संसाधनों के सुरक्षा और प्रबंधन की नीतियां तय की जा सकती हैं।
  • भूमि प्रदूषण : स्थलमंडल प्रदूषण के प्रभावों को समझने में महत्वपूर्ण है। यहां निकायों, कारख़ानों, औद्योगिक क्षेत्रों, और निवास स्थलों से आने वाले वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, माटी प्रदूषण, और अन्य प्रदूषण तत्व स्थलमंडल पर्यावरण को प्रभावित कर सकते हैं। स्थलमंडल प्रदूषण के कारण भूमि की गुणवत्ता कम हो सकती है, जल स्रोतों की प्रदूषण हो सकती है और वन्य जीवन को प्रभावित कर सकता है। इसके अलावा, यह भूमि के उपयोग की अव्यवस्था, जलस्रोतों की क्षमता कमी और भूमि संरचना में बदलाव के कारण जलवायु परिवर्तन पर भी प्रभाव डाल सकता है।
स्थलमंडल पर्यावरण का अध्ययन हमें प्रभावित कर सकने वाली समस्याओं को समझने में मदद करता है और उनसे निपटने के लिए संबंधित नीतियों और प्रयासों को विकसित करने में मदद करता है। स्थलमंडल पर्यावरण की विविधता, संतुलन, और प्रभावों को समझकर हम स्थलमंडलीय प्रदूषण को कम करने और संरक्षण के लिए उचित प्रबंधन कर सकते हैं।

जैवमण्डल
जैवमंडल पर्यावरण जीव जंतु, पौधों, और अन्य जैविक संसाधनों के आपसी संबंधों और प्रक्रियाओं के बारे में होता है। यह पर्यावरणीय संवर्धन, बायोडाइवर्सिटी, एकोसिस्टम की संतुलन, और प्राकृतिक संसाधनों की प्रबंधन प्रक्रियाओं के लिए महत्वपूर्ण है। जैवमंडल पर्यावरण के संबंध में निम्नलिखित प्रकार के पर्यावरणीय मुद्दे होते हैं:
  1. बायोडाइवर्सिटी : जैवमंडल पर्यावरण बायोडाइवर्सिटी के लिए महत्वपूर्ण होता है, जो जीव-जंतु और पौधों की विविधता को संकल्पित करता है। इसमें भूमि के विभिन्न प्राकृतिक आवासों, जलमंडल और वनस्पति प्रणालियों का समावेश होता है। बायोडाइवर्सिटी का संरक्षण जैवमंडलीय प्रदूषण को रोकने, प्राकृतिक संसाधनों की संतुलनिता को सुरक्षित रखने और विभिन्न जीवन रूपों के संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण है।
  2. जैवीय अभिलंबन : जैवमंडल में जीव-जंतु, पौधों, और वनस्पतियों के आपस्य संबंधों के माध्यम से एक जीवन समुदाय का निर्माण होता है। यह एकोसिस्टम के संतुलन को सुनिश्चित करता है और समृद्ध जीवनशैली को संभालता है। जैवीय अभिलंबन माध्यम से पौधों द्वारा ऑक्सीजन निर्माण, जैविक गतिविधियों के माध्यम से पोषण प्रदान करना, जीवन पदार्थों के आपसी विनिमय, और जैविक संसाधनों के उपयोग में सहायता प्रदान करता है।
  3. प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन : जैवमंडल पर्यावरण प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन के लिए महत्वपूर्ण है। यह जल, मृदा, जलवायु, और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण, प्रबंधन, और उपयोग के लिए उचित कार्यक्रमों की विकास में मदद करता है। इससे प्राकृतिक संसाधनों की संतुलनिता, सामंजस्य, और उचित उपयोग सुनिश्चित होता है, जिससे जैविक संसाधनों की दृष्टि से धारा और प्राकृतिक जीवन के लिए सुरक्षित वातावरण संभव होता है।
जैवमंडल पर्यावरण का अध्ययन हमें प्राकृतिक संसाधनों की संरक्षा, जीव-जंतु और पौधों के संरक्षण, बायोडाइवर्सिटी के संरक्षण, जैविक संसाधनों के उपयोग के साथ-साथ जैवमंडलीय प्रदूषण के प्रभावों को समझने और नियंत्रित करने में मदद करता है। इसके माध्यम से हम बायोडाइवर्सिटी के संरक्षण को प्रोत्साहित कर सकते हैं, बायोलोजिकल प्रक्रियाओं को समझ सकते हैं, प्राकृतिक संसाधनों की उपयोगिता को माप सकते हैं, और संबंधित प्रबंधन कार्रवाईयों को विकसित कर सकते हैं। इस प्रकार, जैवमंडल पर्यावरण का अध्ययन हमें संरक्षित और सुरक्षित पर्यावरण के विकास के लिए नीतियां और कार्यक्रमों को विकसित करने में मदद करता है।

पर्यावरण के तत्व

पर्यावरण का निर्माण भौतिक, जैविक और सांस्कृतिक तत्वों के अंतरक्रिया पद्धति के द्वारा हुआ है जो आपस में विभिन्न तरीकों से सम्बन्धित हैं, व्यक्तिगत के साथ-साथ सामूहिक रूप से भी इन तत्वों को निम्न रूप में समझाया जा सकता है-

भौतिक तत्व
भौतिक तत्व प्रकृति के आधार पर पर्यावरण के भौतिक प्रतिरूप को दर्शाते हैं। इनमें वायु, पानी, धरती, वातावरण और ऊर्जा जैसे महत्वपूर्ण तत्व शामिल होते हैं। निम्नलिखित हैं पर्यावरण के प्रमुख भौतिक तत्व:
  • वायु : वायु पर्यावरण का एक महत्वपूर्ण भौतिक तत्व है। वायुमण्डल में वायु गतिविधियाँ, हवाई वायु, मौसम, वायुमंडलीय प्रदूषण, और जलवायु परिवर्तन का प्रभाव शामिल होता है।
  • पानी : पानी पर्यावरण का एक महत्वपूर्ण तत्व है और जलमंडल का हिस्सा है। यह जलस्रोतों, नदियों, झीलों, समुद्रों, और अवास्तविक जल संचयन को दर्शाता है। पानी की उपलब्धता, जल संरचना, जल प्रदूषण, और जलवायु परिवर्तन पर्यावरणीय मुद्दों के साथ जुड़ा होता है।
  • धरती : धरती पृथ्वी की उपद्रवी सतह है और जीवन के लिए महत्वपूर्ण है। इसमें खेती, भूमि का उपयोग, भूमि संरचना, और भूमि प्रदूषण सहित पर्यावरणीय मुद्द्धों से संबंधित होते हैं। भूमि प्रदूषण, भूमि संरचना, खेती, जल संचयन, और जैविक संसाधनों का प्रबंधन पर्यावरणीय मुद्दों के साथ जुड़े होते हैं।
  • वातावरण : वातावरण पर्यावरण की तापमान, वायुमण्डलीय प्रदूषण, आवाज़ी प्रदूषण, और वातावरणीय मुद्दों को दर्शाता है। यह हमें वायुमण्डल, मौसम, और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को समझने में मदद करता है।
  • ऊर्जा : ऊर्जा पर्यावरण के लिए महत्वपूर्ण है और ऊर्जा के स्रोत, ऊर्जा उत्पादन, ऊर्जा उपयोग, और ऊर्जा प्रदूषण के साथ जुड़ा होता है। इसमें जलवायु परिवर्तन, ऊर्जा संरचना, और ऊर्जा संगठन शामिल होते हैं।
ये भौतिक तत्व पर्यावरणीय मुद्दों को समझने, प्रबंधन करने, और सुरक्षित पर्यावरण के विकास के लिए महत्वपूर्ण हैं। इन तत्वों के संतुलन को सुनिश्चित करके हम पर्यावरण की सुरक्षा और संरक्षण के लिए उचित कार्रवाई ले सकते हैं।

जैविक तत्व
जैविक तत्व पर्यावरण में जीवन के रूप में मौजूद होते हैं। ये जीवित पदार्थ, जैविक संरचनाएं और प्रक्रियाएं होती हैं जो पर्यावरण की संरचना और कार्यों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। जैविक तत्व पर्यावरण की समृद्धता, प्रकृतिक संतुलन और जैविक संसाधनों के संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण होते हैं। यहां कुछ प्रमुख जैविक तत्वों का उल्लेख किया गया है:
  • पौधे और वनस्पति : पौधे और वनस्पति पर्यावरण के महत्वपूर्ण हिस्से हैं। ये ऑक्सीजन उत्पादन, कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करने, जल संचयन, मृदा की संरक्षण, वातावरणीय सेवाएं, और बायोडाइवर्सिटी के लिए महत्वपूर्ण होते हैं।
  • जन्तुओं : जन्तुओं, जैसे कि पशुओं, पक्षियों, कीटों और माइक्रोऑर्गेनिज्मों की उपस्थिति पर्यावरण में महत्वपूर्ण है। इनके माध्यम से पोषण चक्र, जल संरक्षण, जीव-जंतु संरक्षण, और प्रकृतिक संतुलन को बनाए रखा जाता है।
  • माइक्रोऑर्गेनिज्म : माइक्रोऑर्गेनिज्म जैविक तत्वों की एक छोटी और अदृश्य संख्या होती हैं जो मिट्टी, जल और वातावरण में मौजूद होते हैं। ये जैविक प्रक्रियाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जैसे कि मिट्टी के गुणवत्ता को सुधारना, पौधों को पोषण प्रदान करना, और नवीन मिट्टी निर्माण करना।
  • जैविक संरचना : जैविक संरचना पृथ्वी की संरचना को दर्शाती है जैसे कि भूमि की परतें, उपभू, प्राणी, पौधे और अन्य जीव जंतु। यह जीव-जंतु संरक्षण, जीवविविधता, और पर्यावरणीय संतुलन के लिए महत्वपूर्ण है।
  • जैविक प्रक्रियाएं : जैविक प्रक्रियाएं पर्यावरण में होने वाली जैविक प्रभावों को दर्शाती हैं। ये प्रक्रियाएं जैविक विकास, खाद्य श्रृंखला, जल संरचना, नदी संरक्षण, और जैविक अपघटन जैसे प्रक्रियाओं को संभालती हैं।
जैविक तत्व पर्यावरण के संरक्षण और संवर्धन के लिए महत्वपूर्ण हैं। ये तत्व पर्यावरणीय संतुलन को बनाए रखने, जीव-जंतु संरक्षण, बायोडाइवर्सिटी के संरक्षण, और प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

सांस्कृतिक तत्व
सांस्कृतिक तत्व पर्यावरण की अन्य महत्वपूर्ण आयामों में से एक है। सांस्कृतिक तत्व पर्यावरणीय मानवीय गतिविधियों, सांस्कृतिक प्रथाओं, मानवीय सम्पदाओं और संगठनों के संबंध में होता है। यह प्राकृतिक पर्यावरण के साथ व्यक्तियों, समुदायों और समाज के बीच संबंध बनाता है।
सांस्कृतिक तत्व में निम्नलिखित शामिल हो सकते हैं:
  • भाषा और साहित्य : भाषा और साहित्य सांस्कृतिक विरासत का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। भाषा हमारी संवृति, अभिव्यक्ति और संवाद का माध्यम है, जबकि साहित्य मानवीय अनुभवों, विचारों और कला को प्रकट करने का माध्यम है।
  • कला और संगीत : कला और संगीत सांस्कृतिक व्यक्ति, रंगीनता, और रचनात्मकता को दर्शाते हैं। इनके माध्यम से भारतीय और विश्व सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित किया जाता है।
  • धार्मिकता और आध्यात्मिकता : धार्मिकता और आध्यात्मिकता सांस्कृतिक परंपराओं, मूल्यों, और आदर्शों के बारे में हैं। ये तत्व लोगों के आदर्श, नैतिकता, धार्मिक आचरण और सामाजिक सम्बन्धों को समझने में मदद करते हैं।
  • परंपरा और रीति-रिवाज : परंपरा और रीति-रिवाज सांस्कृतिक विरासत की महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये मानवीय गतिविधियों, व्यक्तिगत और सामाजिक आचरणों, और संगठनों को आदान-प्रदान करने में महत्वपूर्ण हैं।
  • श्रृंगार, वास्तुकला और रंगमंच : श्रृंगार, वास्तुकला और रंगमंच सांस्कृतिक विरासत के महत्वपूर्ण हिस्से हैं। इनके माध्यम से कला, सुंदरता, आभूषण, आदर्शों की प्रकटीकरण, और साहित्यिक प्रस्तुति की विकास होता है।
सांस्कृतिक तत्व पर्यावरण को समृद्ध बनाने, सामरिकता और समरसता को बढ़ाने, और मानव संप्रदाय को संगठित रखने में महत्वपूर्ण हैं। ये तत्व पर्यावरण की विविधता, समृद्धता और रंगीनता को दर्शाते हैं और उसे समृद्ध बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

पर्यावरण की संरचना एवं प्रकार

पर्यावरण की संरचना एवं प्रकार निम्नलिखित हैं:
  • अवांछनीय पर्यावरण (Abiotic Environment) : अवांछनीय पर्यावरण नामक भौतिक पर्यावरणीय तत्वों से मिलकर बना होता है। इसमें वायुमण्डल, जलमण्डल, भूमि, वातावरण, जल, ध्वनि, तापमान, मानवीय निर्माण और प्राकृतिक तत्व शामिल होते हैं।
  • जैविक पर्यावरण (Biotic Environment) : जैविक पर्यावरण में जीवित प्राणियों, पौधों, जंतुओं, माइक्रोऑर्गेनिज्मों और अन्य जीवजंतु शामिल होते हैं। इसमें जैविक संपदाएं, बायोमास, जीव-जंतु संबंध, जैविक अवधारणाएं और जैविक संवर्धन का महत्व होता है।
  • सांस्कृतिक पर्यावरण (Cultural Environment) : सांस्कृतिक पर्यावरण में मानव के सांस्कृतिक, धार्मिक, लैंगिक, साहित्यिक, कलात्मक और रीति-रिवाज संबंधित पहलुओं का महत्व होता है। इसमें भाषा, संगीत, कला, आदर्श, धार्मिकता, परंपरा, और मानवीय सम्प्रदाय शामिल होते हैं।
  • सामाजिक पर्यावरण (Social Environment) : सामाजिक पर्यावरण में मानव समुदाय, संगठन, संघटन, आर्थिक और सामाजिक प्रणालियाँ शामिल होती हैं। इसमें समाजीकरण, सामाजिक संघर्ष, व्यक्तिगत और सामाजिक संबंध, आदिकारिकता, न्याय, समानता, और मानवाधिकार जैसे मानवीय मुद्दे शामिल होते हैं।
  • आर्थिक पर्यावरण (Economic Environment) : आर्थिक पर्यावरण में आर्थिक संरचना, उद्योग, वाणिज्यिक गतिविधियाँ, और आर्थिक प्रणालियाँ शामिल होती हैं। इसमें आर्थिक विकास, वित्तीय समस्याएं, उद्यमिता, औद्योगिकी, और सार्वजनिक नीतियाँ शामिल होती हैं।
ये पर्यावरण की मुख्य संरचनाएं हैं जो एक दूसरे के साथ संघटित होती हैं और पर्यावरण के प्रभाव को समझने और संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण होती हैं।

सम्पूर्ण पर्यावरण की संरचना में तीन तत्व महत्त्वपूर्ण हैं- भौतिक, जैविक और सामाजिक सांस्कृतिक। इन्हीं संरचनात्मक तत्वों के आधार पर पर्यावरण को तीन वर्गों में विभक्त किया गया है-
  1. भौतिक पर्यावरण
  2. जैविक पर्यावरण
  3. सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण

भौतिक पर्यावरण
भौतिक पर्यावरण पृथ्वी के भौतिक घटकों से मिलकर बना होता है। यह पर्यावरण की अवांछनीय (अजीव) पहलु है और उसे प्रभावित करने वाले भौतिक प्रकृतियों का अध्ययन करता है। भौतिक पर्यावरण में निम्नलिखित प्रमुख घटक शामिल होते हैं:
  • वायुमण्डल : वायुमण्डल वायु (गैस) से घिरा हुआ संभावी पर्यावरणीय क्षेत्र है। यह वायु गतिविधियों, जलवायु, वायुमंडलीय प्रदूषण, और वायुमंडलीय परिवर्तन के प्रभाव का अध्ययन करता है।
  • जलमंडल : जलमंडल पृथ्वी पर मौजूद जल (पानी) से संबंधित होता है। इसमें समुद्र, नदी, झील, तालाब, ग्लेशियर, अंतरिक्षीय जल, और अवास्तविक जल संचयन शामिल होते हैं। जलमंडल में जल की उपलब्धता, जल संरचना, जल प्रदूषण, और जलवायु परिवर्तन पर ध्यान दिया जाता है।
  • धरती : धरती पृथ्वी की परत है और इसके भौतिक प्रतिरूप को दर्शाती है। इसमें खेती, भूमि का उपयोग, भूमि संरचारणा, भूमि प्रदूषण, और भूमि संरचना का अध्ययन किया जाता है। धरती के भौतिक तत्व जैसे कि मृदा (जल, वायु, पत्थर, मिट्टी), पर्वत, नदी, मरुस्थली, जलाशय, वनस्पति, जलवायु, और जीव-जंतु संबंधित मुद्दों पर ध्यान दिया जाता है।
  • वातावरण : वातावरण भौतिक और रासायनिक पर्यावरण के आपसी संघटन को दर्शाता है। यह वायुमण्डल, मौसम, जलवायु, ध्वनि, वातावरणीय प्रदूषण, और वातावरणीय परिवर्तन के प्रभाव का अध्ययन करता है। वातावरण के भौतिक तत्व जैसे कि वायु, ग्रहमंडल, हवा, तापमान, वायुमंडलीय प्रदूषण, और ध्वनि संबंधित मुद्दों पर ध्यान दिया जाता है।
भौतिक पर्यावरण पर्यावरण के भौतिक आयाम को समझने और संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण है। इसके माध्यम से हम पर्यावरणीय संतुलन को समझते हैं, प्रदूषण को नियंत्रित करते हैं, और स्वस्थ पर्यावरण के लिए उचित कार्रवाई लेते हैं।

जैविक पर्यावरण
जैविक पर्यावरण पृथ्वी पर मौजूद जीवित प्राणियों, पौधों, जंतुओं, माइक्रोऑर्गेनिज्मों और उनके जीवसंघों से मिलकर बना होता है। यह पर्यावरण की जीवविविधता, प्राकृतिक संतुलन, और प्रकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण है। जैविक पर्यावरण में निम्नलिखित प्रमुख घटक शामिल होते हैं:
  1. पौधे और वनस्पति : पौधे और वनस्पति पर्यावरण के महत्वपूर्ण हिस्से हैं। वे ऑक्सीजन उत्पादन करते हैं, कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करते हैं, जल संचयन में मदद करते हैं, मृदा की संरक्षण करते हैं, वातावरणीय सेवाएं प्रदान करते हैं, और बायोडाइवर्सिटी के लिए महत्वपूर्ण होते हैं।
  2. जन्तुओं : जन्तुओं, जैसे कि पशुओं, पक्षियों, कीटों और माइक्रोऑर्गेनिज्मों की उपस्थिति पर्यावरण में महत्वपूर्ण है। इनके माध्यम से पोषण चक्र, जल संरक्षण, जीव-जंतु संरक्षण, और प्रकृतिक संतुलन को बनाए रखा जाता है।
  3. माइक्रोऑर्गेनिज्म : माइक्रोऑर्गेनिज्म छोटे, अदृश्य जीवाणु, जैविक प्रक्रियाओं के लिए महत्वपूर्ण होते हैं। ये जीवाणु मिट्टी, जल, और वातावरण में मौजूद होते हैं और मिट्टी के गुणवत्ता को सुधारने, पौधों के पोषण में मदद करने, और नवीन मिट्टी निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
जैविक पर्यावरण पर्यावरणीय संतुलन और संवर्धन के लिए महत्वपूर्ण होता है। इसके माध्यम से हम जीवित प्राणियों, पौधों, और जीवसंघों की संरक्षण करते हैं, बायोडाइवर्सिटी को संरक्षित रखते हैं, और प्राकृतिक संसाधनों का उचित प्रबंधन करते हैं।

सामाजिक सांस्कृतिक पर्यावरण
सामाजिक सांस्कृतिक पर्यावरण एक आयाम है जो मानव समुदाय, समाज, संगठन, और व्यक्तियों के बीच संबंधों को समझने और व्यापक मानवीय पर्यावरण की विशेषताओं को दर्शाता है। यह पर्यावरण में मानवीय संघर्ष, सामाजिक समानता, सामाजिक संरचना, धार्मिकता, संस्कृति, भाषा, कला, साहित्य, रीति-रिवाज, और नैतिकता को समझने के लिए विभाजित होता है।
इस सामाजिक सांस्कृतिक पर्यावरण के कई वर्ग हैं जिसमें से प्रमुख निम्नवत् हैं
  1. सामाजिक पर्यावरण (Social Environment): समस्त जीवधारी अपनी प्रजाति के अन्य सदस्यों के साथ मिलकर अन्त:क्रिया करते हुए, समाज का निर्माण करते हैं, जिससे सामाजिक पर्यावरण बनता है।
  2. आर्थिक पर्यावरण (Economical Environment): अन्य जीवधारियों की भाँति मनुष्य भी अपने सम्बर्द्धन हेतु प्रकृति/भौतिक पर्यावरण से भौतिक पदार्थों को प्राप्त करता रहता है। भौतिक पर्यावरण से इस प्रकार पदार्थों को प्राप्त करने की क्रिया से आर्थिक पर्यावरण निर्मित होता है। वह स्वबुद्धि एवं प्रौद्योगिकी द्वारा संसाधनों का दोहन एवं उपयोग करता है और आर्थिकी का सृजन करता है।
  3. प्राविधिक पर्यावरण (Technological Environment): प्राकृतिक पर्यावरण का वह भाग जिसपर मानव ने विज्ञान की सहायता से नियन्त्रण पा लिया है, प्रौद्योगिक पर्यावरण कहलाता है। इस पर्यावरण में मनुष्य प्रविधि एवं यंत्रों की सहायता से संशोधन करता रहता है। सभ्यता का विकास काफी सीमा तक इसी पर्यावरण पर आश्रित है।
  4. राजनीतिक पर्यावरण (Political Environment): प्रकृति/ भौतिक पर्यावरण पर नियन्त्रण स्थापित कर सकने के साथ-साथ अन्य मानवों पर नियन्त्रण स्थापित कर पाने तथा उन पर आधिपत्य स्थापित करने की मानव की प्रबल आकांक्षाओं ने राजनीतिक पर्यावरण को जन्म दिया है।
  5. मनोवैज्ञानिक पर्यावरण (Psychological Environment): मनुष्य की मानसिक प्रवृत्तियाँ जैसे बुद्धि, रुचि, प्रेरणाएँ, चिन्तन, विचार आदि तथा व्यवहारात्मक प्रवत्तियाँ जैसे आदतें, उसके मनोवैज्ञानिक पर्यावरण का निर्माण करती है। एक साथ एक ही स्थान पर खड़ें दो व्यक्ति मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भिन्न-भिन्न पर्यावरण में स्थिति हो सके हैं।
  6. आध्यात्मिक पर्यावरण (Spiritual Environment): स्वयं को समझने तथा विश्व की नियामक शक्ति के सम्बन्ध में सम्पूर्ण ज्ञान आध्यात्मिक परिवेश का निर्माण करता है।
  7. सांस्कृतिक पर्यावरण (Cultural Environment): सामाजिक विरासत, धर्म, प्रथा, संस्कार, कला एवं साहित्य आदि मिलकर सांस्कृतिक पर्यावरण बनाते हैं।

पर्यावरण का महत्त्व

पर्यावरण मानव जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह हमारे सभी जीवन गतिविधियों को प्रभावित करता है और हमारे अस्तित्व के लिए आवश्यक है। कुछ महत्त्वपूर्ण कारण निम्नलिखित हैं:
  • स्वास्थ्य और विकास : पर्यावरण हमारे स्वास्थ्य और विकास के लिए महत्वपूर्ण है। स्वच्छ और सुरक्षित पर्यावरण हमें शुद्ध वायु, पानी, और खाद्य संसाधनों की प्रदान करता है जो हमारे स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं। इसके साथ ही, समृद्ध पर्यावरणीय संसाधन विकास के लिए आवश्यक हैं जो लोगों को आर्थिक और सामाजिक रूप से मजबूत बनाते हैं।
  • जीवन संरक्षण : पर्यावरण हमारे प्राकृतिक और जैविक संसाधनों की संरक्षा के लिए महत्वपूर्ण है। वन्य जीवों, जलवायु और जल संसाधनों, वनों, और पौधों की संरक्षा हमारे बायोडाइवर्सिटी को संभालती है और सबसे नयाब जीव-जंतु प्रजातियों को सुरक्षित रखती है।
  • प्रदूषण नियंत्रण : पर्यावरणीय संरक्षा हेतु प्रदूषण नियंत्रण महत्त्वपूर्ण है। प्रदूषण के दौरान पाये जाने वाले जल, वायु और मानवीय गतिविधियों से उत्पन्न वायुमंडलीय प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण और पृथ्वी सतह पर पैदा होने वाले विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों का प्रबंधन किया जाता है। प्रदूषण नियंत्रण से हम स्वच्छ वायु, पानी, और जलस्रोतों को सुरक्षित रखते हैं, और प्राकृतिक संसाधनों की संरक्षा करके सुरक्षित और स्वस्थ माहौल बनाए रखते हैं।
  • संतुलित पर्यावरणीय विकास : पर्यावरण महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह संतुलित और सतत विकास के लिए आवश्यक है। यह मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति, आर्थिक विकास, और समाजिक उत्थान को संभालता है जबकि प्रकृति और जीव-जंतु संसाधनों को प्रदान करता है। सामान्य विकास के साथ-साथ पर्यावरण के संरक्षण को एक संतुलित दृष्टिकोण से संभाला जाना चाहिए ताकि आने वाली पीढ़ियां भी स्वस्थ पर्यावरण में जीवन कर सकें।
  • मानवीय कल्याण : पर्यावरण का महत्वपूर्ण एक पहलू मानवीय कल्याण है। स्वच्छ और स्वस्थ पर्यावरण में रहना हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को सुदृढ़ करता है। पर्यावरण की सुरक्षा और संरक्षण हमें जीवन की सुरक्षा, खुशहाली और कल्याण की सुरक्षा प्रदान करता है।
इस प्रकार, पर्यावरण का महत्व व्यापक है और हमारे सभी पहलुओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हमें अपने पर्यावरण की संरक्षा, संवर्धन और सम्पादन का ध्यान रखना चाहिए ताकि हम और हमारी आने वाली पीढ़ियां स्वस्थ, सुरक्षित और समृद्ध वातावरण में जीवन बिता सकें।

पर्यावरण की दूसरी विशेषता सीमित क्षमता (Limitation) है। हर प्राणी एवं पदार्थ की संख्या एवं अनुपात सुनिश्चित तथा सीमित है। पौधे निर्धारित मात्रा में सूर्य की किरणें ग्रहण करते है और एक निर्धारित सीमा तक ही ऑक्सीजन पैदा करते है। उपभोक्ताओं की संख्या और उपयोग की मात्रा जब तक उत्पादन के अनुरूप रहती है तब तक व्यवस्था ठीक चलती है लेकिन उत्पादन से उपभोग की मात्रा बढ़ जाने पर असंतुलन बढ़ जाय तो ध्रुव प्रदशों की बर्फ पिघलने लगेगी जिससे समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा और इस जलस्तर की वृद्धि के कारण मैदानी क्षेत्र जलमग्न भी हो सकतें है।

पर्यावरण में सभी तत्त्वों और जीवो की अन्योन्याश्रिता की विशेषता ने ही सम्बन्धों को जटिल बना दिया है। कोई भी तत्व जो परम तत्व नहीं वह स्वतंत्र नहीं अर्थात पर्यावरण में दृश्यमान वस्तु का अस्तित्व दूसरे तत्व में तथा दूसरे का बदले में निर्भर है। अतः एक प्रभावित होगा तो सभी स्वतः ही प्रभावित होंगे।
इस प्रकार पर्यावरण को उपर्युक्त तीनों विशेषताएँ स्थानीय, प्रादेशिक, राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय सभी स्तरों पर विद्यमान हैं। इन तीनो के कारण ही सम्पूर्ण पर्यावरण में संतुलन बना रहता है
किन्तु विकास की प्रक्रिया में जो पर्यावरण ह्रास हुआ है और प्रकृति में जो असन्तुलन उत्पन्न हुआ है उससे हम सभी विदित है।

पिछले 50 वर्षों में विश्व की बढ़ती जनंसख्या, नगरीकरण, औद्योगिकरण तथा अत्यधिक प्राविधिक सक्रियता के कारण पारिस्थितिकी ह्रासोन्मुख परिवर्तन प्रारम्भ हो चुका है। अतः पर्यावरण का अध्ययन तथा उसके सरंक्षण की क्रियाएँ अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हो गई है।

पर्यावरण के अध्ययन से हमे पर्यावरण में अंधाधुंध प्रदूषकों के छोड़े जाने के प्रति भी संरक्षण और महत्व के बारे में भी ज्ञान प्राप्त होता है।

वर्तमान समय में बहुत से पर्यावरणीय मुद्दे है जो दिन-ब-दिन जटिल होते जा रहे है और अन्ततः पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लग गया है।
पर्यावरणीय अध्ययन निम्न कारणों से अति महत्वपूर्ण बन गया है-
  • पर्यावरण मुद्दे अन्तर्राष्ट्रीय होने के नाते- इस बात को अच्छी तरह से पहचाना गया है कि पर्यावरणीय मुद्दे जैसे ग्लोबल वार्मिंग, आजोन शरण, अम्ल वर्षा, समुद्री प्रदूषण और जैव विविधता केवल राष्ट्रीय मुद्दे नहीं है बल्कि वैश्विक मुद्दे है और इसलिए इन मुद्दों का अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों और सहयोग से हल निकाला जाना चाहिए
  • विकास के परिणाम उत्पन्न समस्याएं- विकास के परिणाम स्वरूप नगरीकरण, औद्योगिकरण, परिवहन तंत्र, कृषि और आवास को जन्म दिया, हॉलाकि विकसित देश इस चरण से बाहर हो गये है। उत्तरी गोलार्द्ध की दुनिया ने अपने पर्यावरण को शुद्ध करने के लिए गंदे कारखानों को दक्षिण में स्थानांतरित करने में कामयाब रहा। जब पश्चिम अपने को विकसित कर रहा था तो पर्यावरणीय समस्याओं को नजरअंदाज किया। जाहिर है इस प्रकार के पथ पर विकासशील देश है जो न तो व्यवहारिक है और न वाह्यनिय है।
  • प्रदूषण में विस्फोटक वृद्धि- कुल वैश्विक जनसंख्या में से प्रत्येक सातवां व्यक्ति भारत में निवास करता है। दुनिया की आबादी का 16 प्रतिशत और 2.4 प्रतिशत भू-क्षेत्र जहाँ भूमि सहित सभी प्राकृतिक संसाधनों पर भारी दबाव है। कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि मिट्टी के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ा है, उसके सक्ष्म पोषक तत्वों में कमी, कार्बनिक पदार्थ, लवणता और संरचना में भारी क्षति हुई है।
  • एक वैकल्पिक समाधान की आवश्यकता- यह विकासशील देशों के लिए आवश्यक है कि वैकल्पिक लक्ष्य के लिए वैकल्पिक मार्ग की खोज करें।
हमें निम्न रूप से एक लक्ष्य की आवश्यकता है:
  • विकास का एक ऐसा सच्चा लक्ष्य जो पर्यावरणीय दृष्टि से संपोषणीय भी हो।
  • हमारी पृथ्वी के सभी नागरिकों के लिए आम लक्ष्य।
  • विकासशील देशों को ऐसे लक्ष्य से दूरी बनानी होगी जो अत्यधिक उपयोग और अपत्ययी समाज का निर्माण करे जैसे कि विकसित देशों में हुआ है।
  • मानवता को विलुप्ती से बचाने की आवश्यकता- मानवता को विलुप्तता से बचाना हमारा कर्तव्य है। विकास के नाम पर, हमारी गतिविधियों से पर्यावरण का निर्माण तो होता है लेकिन जैवमण्डल जर्जर हो जाता है।
  • विकास के लिए उचित योजना की आवश्यकता- हमारा अस्तित्व संसाधनों के उपभोग प्रसंस्करण और उत्पादों के उपयोग पर निर्भर करता है इसलिए हमें अपने विकास के लिए ऐसी योजनाओं को बनाना चाहिए जो पर्यावरण का भी विकास करे और पारिस्थितिकी के अनुकूलता के साथ उनका भी अस्तित्व बनाये रखे।
आर.मिर्जा रिपोर्ट- इन्होंने पारिस्थितिकी को चार आधारभूत सिद्धान्त के तहत मान्यता दी:
  1. होलिज्म (Holism)
  2. पारिस्थितिकी तंत्र
  3. उत्तराधिकार
  4. वार्तालाप

होलिज्म को पारिस्थितिकी का मूल आधार माना गया है। श्रेणी बहु स्तर में पारिस्थितिकी इकाइयों की बातचीत या अर्न्तक्रिया निम्न रूप में होती है:
  • व्यक्तिगत < जनसंख्या < समुदाय < पारिस्थितिकी तंत्र< बायोम < जैवमण्डल।
आर. मिर्जा ने पर्यावरण प्रबन्धन के लिए चार आधारों को मान्यता दी है जो निम्न है:
  1. मानवीय क्रियाकलापों का पर्यावरण पर प्रभाव।
  2. मूल्य प्रणाली।
  3. संपोषणीय विकास के लिए योजना और डिजाइन।
  4. पर्यावरण शिक्षा।
इन विचारों को ध्यान में रखते हुए भारत ने पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में संपोषणीय विकास योजना बनाने के लक्ष्य में अपना योगदान दिया। ब्राजील की राजधानी 'रिया-डी-जिनेरियों' में आयोजित 'पृथ्वी सम्मेलन' (1992) में भी इसे उल्लेखित किया गया।

पर्यावरण एवं संसाधन में

संबंध संसाधन प्रकृति के संपूर्ण जैव जगत का आधार है, जिन पर जीवों का अस्तित्व निर्भर करता है। मनुष्य प्राकृतिक पर्यावरण के संसाधनों का उपयोग करके ही सांस्कृतिक भू-दृश्य विकसित करता है। मनुष्य प्राकृतिक पर्यावरण के संसाधनों का दक्षता तथा जीवीय श्रेष्ठता के कारण अन्य जीवों से आगे निकल गया है। मनुष्य ने पर्यावरण के प्रतिरोधों से बचने की विधियां भी विकसित कर ली है। बढ़ने मानवीय दबाव का प्रभाव संतुलित पर्यावरण पर पड़ा तथा संसाधनों का ह्वास प्रारम्भ हो गया। पर्यावरण में सर्वसुलभ संसाधनों (वायु तथा जल) का भी अवनयन होने लगा है। इन संसाधनों की बहुलता तथा नयीकरणीय प्रकृति होने पर भी मौलिक गुणवत्ता का हास हो जाने से पुनस्थापन असंभव हो जाएगा। गंगा नदी के जल को विगत पाँच दशकों में इस स्तर तक प्रदूषित कर दिया गया है कि आगामी समय में भी इसका पुनर्स्थापन हो पाना अत्यंत दुष्कर हो जाएगा। संसाधनों को दोहन तथा पर्यावरण संतुलन एक ऐसा अनूठा संयोजन है जिस पर प्राकृतिक व्यवस्था तथा जीवों का अस्तित्व निर्भर करता है। औद्योगिक क्रांति के उपरांत जीवाश्मीय ईंधन के दोहन तथा हरित गृह प्रभाव में वृद्धि हुई जिसके फलस्वरूप पृथ्वी का तापमान बढ़ना व संतुलित जलवायु के कदम लड़खड़ाने लगे। इसलिए यह आवश्यक है कि पर्यावरण तथा संसाधन उपयोग के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किया जाए। संसाधन उपयोग के गलत तरीकों से पर्यावरण संकट उत्पन्न हो रहे है जिन पर नियंत्रण कर पाना आसान कार्य नहीं है। बढ़ते औद्योगीकरण के कारण अम्ल वर्षा, ओजोन अल्पता, तापमान में वृद्धि जैसी ज्वलत पर्यावरणीय समस्यायें सामने आ रही है।
मनुष्य पर्यावरण का प्रमुख संसाधन है, जो संसाधन निर्माण एवं दोहन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका रखता है।
मानव अपने सांस्कृतिक आर्थिक अभ्युदय के लिए संसाधनों का विस्तृत दोहन करता आया है, लेकिन अपने विकास में संसाधन के दोहन को अनिवार्य मानने वाला मानव समुदाय पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ने से आशंकित है। अतः जहाँ पर्यावरण में स्थित संसाधन मानवीय संवृद्धि के लिए आवश्यक है, वहीं इनका अति दोहन मानवीय अवनति भी कर सकता है। स्पष्ट है कि संसाधन एवं पर्यावरण में मैत्रीपूर्ण संबंधों के उपरान्त ही प्राकृतिक संतुलन संभव है जो अन्य जीव-जनतुओं सहित मानकीय समृद्धि का मूलाधार है।

जन जागरूकता

मानव का प्रकृति के साथ गत्यात्मक सम्बन्ध है। मनुष्य ने प्रकृति से प्राप्त संसाधनों का उपयोग एक ओर अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु किया और दूसरी ओर अपनी सभ्यता के विकास हेतु किया। पर्यावरणीय तत्वों के उपभोग के कारण प्रकृति में परिवर्तन आने आरम्भ हो गए जो सामाजिक-आर्थिक विकास के साथ-साथ असन्तुलन का रूप लेने लगे। उपभोग की अत्यधिक माँग होने कारण प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ा है। जनंसख्या वृद्धि, तीव्र नगरीकरण, औद्योगीकरण, उपभोक्तावादी जीवन दर्शन, भौतिकवादी जीवनशैली, सामाजिक मूल्यों का ह्रास, दोषपूर्ण प्रतिविधि गतिशीलता तथा वर्गीय एवं क्षेत्रीय असंतुलन आदि समस्याएँ सामाजिक-आर्थिक विकास के साथ-साथ पर्यावरण के लिए संकट लेकर आई हैं। इस समस्याओं पर वैश्विक एवं समग्र दृष्टि की आवश्यकता है। इस हेतु पर्यावरण सम्बन्धी जन चेतना का विकास होना अत्यन्त आवश्यक है। नवीन जानकारियों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए जन-चेतना अथवा जनजागरूकता की आवश्यकता पड़ती हैं। पर्यावरण सम्बन्धी विभिन्न पक्षों को समझने, उसका संरक्षण एवं संवर्द्धन करने के लिए पर्यावरणीय ज्ञान होना आवश्यक है।
पर्यावरणीय अध्ययन में पर्यावरण का मानव पर और मानव का पर्यावरण पर जो प्रभाव पड़ता है, उसका अध्ययन किया जाता है। दूसरे शब्दों में, मानव एवं पर्यावरण की अन्तक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है। इतना स्पष्ट है कि मानव ने आज तक अपनी विकास यात्रा में पर्यावरण के साथ जो क्रियाकलाप किए हैं उन्होंने पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है जिससे पर्यावरण ह्रास और असन्तुलन की स्थिति उत्पन्न हुई है। अतः यह अत्यन्त आवश्यक है कि पर्यावरण के साथ मानव की अन्र्तक्रिया के तरीकों को परिवर्तित किया जाय अर्थात् मनुष्य द्वारा वे कार्य किए जाएं जिनसे प्राकृतिक संरक्षण एवं संवर्द्धन में सहायता मिले और प्रदूषण तथा पर्यावरण हास को रोका जा सके। इन कार्यों को जनमानस में पर्यावरण चेतना उत्पन्न करके ही सम्पन्न किया जा सकता है।
भारत में प्राचीन काल से ही पर्यावरण प्रति संवेदनशीलता और मित्रवत व्यवहार के साक्ष्य मिलते हैं, न केवल मित्रवत बल्कि प्राकृतिक तत्वों को दैव स्वरूप दिया गया और मानव अपने को उसका पुत्र बताया। लेकिन इतिहास इस बात का भी । गवाह रहा है कि पर्यावरण के प्रति मानव का व्यवहार हमेशा । दैव तुल्य नहीं रहा मानव का व्यवहार बदलता रहा है अर्थात समय के साथ-साथ जिस पर्यावरण को देवत्व का स्थान दिया गया वह समय के साथ उपभोग की वस्तु भी बना अर्थात मानव का प्रकति के साथ गत्यात्मक सम्बन्ध है। 'ए० डाउन्स' महोदय ने तो इसको एक सिद्धान्त के रूप में कहने का प्रयास किया कि मानव पर्यावरण के प्रति अपने व्यवहार और दिलचस्पी को समय के साथ पाँच अवस्थाओं में सम्पन्न करता है। 'डाउन्स' ने पर्यावरण की समस्याओं में जनसमुदाय की अभिरूचि को 'मुद्दा ध्यानाकर्षण चक्र' नाम दिया।
'ए, डाउन्स के अनुसार पर्यावरणीय समस्याओं में जनसमुदाय की दिलचस्पी समय के साथ बदलती रहती है तथा परिवर्तन का पूर्ण अनुक्रम पाँच अवस्थाओं में सम्पन्न होता है। डाउन्स ने पर्यावरण की समस्याओं में जनसमुदाय की अभिरूचि को 'मुद्दा ध्यानाकर्षण चक्र' नाम दिया।

इसमें उन्होंने निम्न पाँच अवस्थाओं को बताया-
  1. प्रथम अवस्थाः समस्या पूर्व की स्थिति होती है। इस समय जन साधारण का समस्या के प्रति कोई ध्यान नहीं दिया या पर्यावरण पर दिलचस्पी लेने वाले कुछ लोग ही आकर्षित होते हैं।
  2. द्वितीय अवस्थाः जब पर्यावरण समस्याएं भयावह होने लगती है तब जनसाधारण पर्यावरण के प्रति आकुल और उत्साहित होने लगता है। इस समस्या से निबटने के लिए लागत की भी परवाह नहीं करता।
  3. तृतीय अवस्था: इस अवस्था में जनसाधारण को यह मान हो जाता है कि सिर्फ लागत ख़र्च ही इस मुद्दे या समस्या का हल नहीं।
  4. चतुर्थ अवस्थाः जन साधारण की उदासीनता की स्थिति क्योंकि पर्यावरणीय सुधार योजनाओं में लागत अधिक साथ ही जनसाधारण को यह बोध हो जाता है कि पर्यावरणीय सुधार कार्यक्रमों का क्रियान्वयन उसके लिए अत्यधिक कठिन है तथा खर्च की गई धनराशि तथा संलग्न जनशक्ति की तुलना में मिलने वाला त्वरित लाभ बहुत कम है।
  5. पंचम अवस्थाः समस्या उपरान्त की अवस्था है जब पर्यावरणीय समस्या पर अचानक जनसाधारण की दिलचस्पी बढ़ जाती है। परन्तु जब खतरा टल जाता है तो लोगों की दिलचस्पी पुनः कम हो जाती है।
पर्यावरण में जनसाधारण की दिलचस्पी के उपर्युक्त चक्रीय रूपरेखा के आधार पर डाउन्स का मत है वर्तमान समय में जनसाधारण की दिलचस्पी तथा जागरूकता उपर्युक्त चक्र के माध्यम से गुजर रही है तथा भविष्य में उसके समाप्त हो जाने की सम्भावना है।
इस तरह से यह स्पष्ट है कि मानव ने आज तक अपनी विकास यात्रा में पर्यावरण के साथ जो क्रियाकलाप किए है उससे पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव ही पड़ा है जिससे पर्यावरण ह्वास और असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हुई है।
हमारे देश में 1973 का 'चिपको आन्दोलन' पर्यावरण चेतना का सूत्रघाट सिद्ध हुआ है। लोगों को पर्यावरण क्षति से उत्पन्न दुर्जेय परिणामों के बारे में जागरूक करना होगा, अगर कड़े सुधारात्मक कदम नहीं उठाये गये तो जीवन का अन्त हो सकता है। हम विभिन्न पर्यावरणीय समस्याओं का सामना कर रहे है इन चुनौतियों को देश का परिचित या वाकिफ कराना आवश्यक है जिससे उनका व्यवहार या कृत्य पर्यावरण अनुकूल हो सकता है।

ऐसे कुछ समस्याएं निम्न है- जिनसे जनता को जागरूक करना आवश्यक है-

बढ़ती जनसंख्याः प्रत्येक वर्ष 10 लाख से भी अधिक जनसंख्या 2.11% से बढ़ रही है। जबकि प्रत्येक वर्ष 17 लाख से अधिक जनसंख्या जड रही है। यह लगातार प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ा रहा है। और विकास की गति को भी बंद कर रहा है। अतः हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती जनसंख्या वृद्धि को सीमित करना है। यद्यपि विकास स्वतः ही जनसंख्या की वृद्धि को नियंत्रित करता है लेकिन वर्तमान में जनसंख्या ही विकास के लिए बाधा बन रही है। यह महिलाओं के विकास के लिए भी आवश्यक है।

गरीबी: भारत के बारे में यह हमेशा कहा गया है कि 'अमीर देश लेकिन गरीब जनता'। गरीबी और पर्यावरणीय अवनयन का आपसी सम्बन्ध है। एक बहुत बड़ी जनसंख्या अपनी आधारभूत आवश्यकता के लिए प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है जैसे खाद्य, ऊर्जा आदि के लिए। लगभग 40% जनसंख्या अभी भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रही है।

कृषिक विकास- लोगों को निश्चित रूप से इस बात की जानकारी चाहिए बिना पर्यावरण को क्षति पहुँचाए कृषि विकास को सुनिश्चित करें। क्योंकि उच्च उत्पादकता वाली फसलों से मिट्टी के भौतिक गुणों में परिवर्तन ला देता है
और उपजाऊ भूमि बंजर भूमि में बदलने लगती है।

पानी की आवश्यकताः भूमिगत जल के उपयोग की पुर्नव्याख्या करने की आवश्यकता है। शहरी कूड़ा, औद्योगिक कारखाने, रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक आदि सतही जल के साथ-साथ भूमिगत जल को भी प्रदूषित करते है। यह एक चुनौती है कि हम अपने नदियों और झीलों के पानी की गुणवत्ता को पुनः कैसे बहाल करें।

विकास और वनः वन नदियां और भूमिगत जल के लिए जलग्रहण की सेवा देते है पानी की बढ़ती मांग तथा सिचाई परियोजनाओं के द्वारा जल दोहन की शक्तिशाली योजनाएं भी है। इन परियोजनाओं से बने विशाल बाँधों से जंगल डूबना, स्थानीय लागों का विस्थापन, जीवों का विस्थापन आदि की समस्या ने एक राजनीतिक और वैज्ञानिक बहस के क्षेत्र बन गये है।

भूमि का अवनयनः देश की कुल 329 मि. हेक्टेयर भूमि का केवल 266 मि.हे. भूमि ही उपजाऊ है। इसमें से 143 मि.हे. कृषि भूमि और 85 मि.हे. अतिरिक्त भूमि क्षरण से ग्रस्त है। और बची हुई 123 मि.हे. में से 40 मि.हे. पूरी तरह से बंजर भूमि है तथा शेष 83 मि.हे. वन भूमि के रूप वर्गीकृत की जाती है। लगभग 406 मिलियन पशुओं के पशुचारण भूमि 13 मि.हे. ही है अथवा पशुचारण के लिए वर्गीकृत भूमि 4 प्रतिशत ही है। इसलिए हमारी 266 मि. हे. का 175 मि.हे. अथवा 66 प्रतिशत भूमि का भिन्न-भिन्न प्रकार से विकृति हो रही है। लगभग 150 मि.हे, भूमि का अपरदन पानी और हवा के द्वारा होता है इसमें भी ध्यान देने की आवश्यकता है।

संस्थाओं का पुनःस्थापनः आज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए अनुकूल संस्थाओं, व्यवहार और आधारभूत ढाँचे की पुनः स्थापना या पुनर्गठन किया जाना चाहिए। यह बदलाव भारत के संसाधनों के उपयोग और प्रबन्धन के परम्परागत तरीकों में किया जाना चाहिए, यह बदलाव शिक्षा, रवैया, प्रबन्धन के तरीकों और संस्थाओं में किया जाना चाहिए। क्योंकि यह लोगों के तकनीक, विचारों और विकास के सोच को बदलने में प्रभावी होता है।

आनुवांशिक विविधता में ह्वासः आनुवांशिक विविधता के संरक्षण के लिए विविध कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। वर्तमान में बहुत से जंगली जीव प्रकृति से विलुप्त हो गये है। एशियाई शेर सहित बहुत से आनुवांशिक विविधता वाले जीवों के नुकसान की समस्या का सामना करना पड़ रहा है। संरक्षित क्षेत्र जैसे-राष्ट्रीय पार्क, जैवमण्डल, सेन्चुरी आदि में आनुवंशिकीय संख्या कम होती है जिससे दूसरे अनुवांशिकीय गुणों वाले जीवों से जनन क्रिया नहीं हो पाती जिससे इनमें नकारात्मक बदलाओं आते है। अनुवंशकीय विविधता में कमी की जांच के लिए सुधारात्मक कदम उठाए जाने चाहिए।

नगरीकरण के दुष्परिणाम: भारत की लगभग 27% जनसंख्या शहरों में निवास करती है। शहरीकरण और औद्योगिकरण ने भारी संख्या में पर्यावरणीय समस्याओं को जन्म दिया है जिनमें अविलम्ब ध्यान देने की आवश्यकता है। 30% से ज्यादा शहरी आबादी मलिन बस्तियों में रह रही है। भारत के कुल 3245 कस्बो और शहरों में केवल 21 ही ऐसे शहर है जिनमें पूरी तरह या आधे अधूरे ही सीवेज सुविधा और इलाज सुविधा है। अतः हो रहा तीव्र नगरीकरण का मुकाबला एक चुनौती है।

वायु और जल प्रदुषणः हमारे अधिकांश औद्योगिक संयंत्र या तो पुरानी तकनीक पर कार्य कर रहे है या अस्थायी सुविधाओं का उपयोग कर रहे है। शहरों और औद्योगिक क्षेत्रों में वायु और जल की सबसे खराब रूप में पहचान की गयी है। इनसे सम्बन्धित अधिनियम तो देश में बना दिये गये लेकिन उनको लागू करना आसान नहीं, कारण उनके क्रियान्वयन के लिए अधिक संसाधन तकनीक और विशेषज्ञता के साथ-साथ राजनीतिक इच्छा शक्ति और सामाजिक इच्छा की भी आवश्यकता होती है। फिर भी लोगों को नियमों के प्रति जागरूक करने की आवश्यकता है। उनका समर्थन नियमों को लागू करने के लिए अपरिहार्य है।
इस तरह के अधूरे लक्ष्यों की पूर्ति के लिए व्यापक जागरूकता की आवश्यकता है जो पर्यावरण शिक्षा के माध्यम से (प्राथमिक स्तर से उच्च स्तरत की कक्षाओं में) सामाजिक क्रियाओं के माध्यम से स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से सभी मुद्दों पर सोचने, समझने और कुछ सार्थक कर सकने की रूचि जगानी होगी

पर्यावरणीय शिक्षा

भारत में पर्यावरण शिक्षा को प्रोत्साहन देते हेतु कई केन्द्र खोले गए हैं। यह पर्यावरण शिक्षा केन्द्र सी.पी.आर. शिक्षा केन्द्र अहमदाबाद एवं सी.पी.आर. शिक्षा को बढ़ावा देने हेतु वर्ष 1978 में नई दिल्ली में राष्ट्रीय प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय की स्थापना की गई। यह पर्यावरण के विभिन्न पहलुओं से संबंधित स्थाई प्रदर्शनी, दीर्घ के अलावा, यह संग्रहालय स्कूली बच्चों, महाविद्यालयों के छात्रों और आम जनता के लिए स्थायी प्रदर्शनी तथा कई शैक्षिक कार्यक्रमों व गतिविधियों का भी आयोजन करता है। तीन क्षेत्रीय प्राकृतिक संग्रहालय भुवनेश्वर, भोपाल और मैसूर में स्थापित किये गये हैं। इसके अतिरिक्त भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद् देश में वानिकी शिक्षा के विस्तार एवं विकास गतिविधियों का केन्द्रीय स्थल हैं, पर्यावरण शिक्षा लागू करने हेतु कई विनिमय होने के बावजूद कोई विशेष प्रतिफल देखने को नहीं मिले हैं। वस्तुतः कई राज्य सरकारें इस मामले में उदासीन हैं।

पर्यावरण शिक्षा की आवश्यकता क्यों?

पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता लाना तथा जन-चेतना बढ़ाना ही पर्यावरण शिक्षा का निहितार्थ है।
पिछले पाँच दशकों में यह अनवरत देखा गया है कि पृथ्वी की जीवन रक्षक क्षमता को तीव्र गति से ह्वास हो गया है। इस ह्वास का मुख्य कारण वनों का मानव विकास की दृष्टि से नाश, प्रजातियों का विलुप्त होना और जल, मृदा एवं वायु का प्रदूषण है।
बढ़ती आबादी से भू-भाग और अन्य संसाधन सिमटकर छोटे होते जा रहे हैं। वायुमंडल से हानिकारक या विषैली गैसों में अनवरत वृद्धि जारी है जिसका दुष्प्रभाव मानव स्वास्थ्य पर देखा जा सकता है।
बड़े-बड़े उद्योगों की स्थापना के लिए बड़े पैमाने पर जंगल काटे जा रहे हैं। देश में अनवरत बढ़ती आबादी के लिए भोजन तथा आवास की समस्या हल करने के उद्देश्य से बड़ी मात्रा में जंगलों का सफाया किया गया।
चारागाह के रूप में वन क्षेत्रों का अनियंत्रित उपयोग तथा वन्य प्राणियों के शारीरिक अवशेष इकट्ठा करने हेतु उनका अवैध शिकार अपनी गति से जारी है। वनों में विभिन्न प्रकार की वनोपज प्राप्त करने के लिए ठेकेदारों ने भी वनों को नष्ट किया है।
आदिम जातियों की झूम कृषि प्रणाली भी जंगलों के विनाश में प्रमुख भूमिका निभाती है।
हमारा शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य जल, वायु की शुद्धता और आस-पास के वातावरण की स्वच्छता पर निर्भर करता है किन्तु औद्योगीकरण की तीव्र प्रक्रिया हो रही है जिनमें उद्योगों से उत्सर्जित जहरीली गैसे, वाहनों का धुआं प्रमुख है। इसके परिणाम स्वरूप आँखों में जलन, फेफड़ों में कैसर, दमा जैसी खतरनाक बीमारियाँ आम हो गई है।
उद्योगों द्वारा विसर्जित अवशिष्ट पदार्थ के जल स्त्रोतों से मिलने से जल स्त्रोत रोग ग्रस्त होते है।
रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशक दवाइयों के बढ़ते प्रयोग, कल-कारखानों का कचरा, भूमि में आसानी से न विघटित होने वाली पॉलिथीन, प्लास्टिक के टुकड़े, काँच एवं अन्य जहरीले तत्वों से भूमि प्रदूषित हो रही है।
वस्तुतः इन सबके के पीछे पर्यावरण संरक्षण के बारे में लोगों में अज्ञानता है। इस अज्ञानता को दूर करने के लिए पर्यावरण शिक्षा जरूरी है।

भारत में पर्यावरण शिक्षा की समस्याएं

सर्वोच्च न्यायालय ने कक्षा-12 तक पर्यावरण शिक्षा लागू करना अनिवार्य कर दिया है। किन्तु बहुत सारे राज्यों ने इसे लागू नहीं किया है। वस्तुत: पर्यावरण के शैक्षिक पाठ्यक्रम लागू करने के संबंध में विवाद है। कुछ शिक्षाविदों ने इसकी उपयोगिता पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया है। उनके मतानुसार पहले से ही बच्चों का पाठ्यक्रम बोझिल है। पर्यावरण शिक्षा लागू होने से बच्चों पर अतिरिक्त दबाव आ जायेगा। पर्यावरण शिक्षा शैक्षिक विभागों या शिक्षकों के लिए प्राथमिकता नहीं रखता है। बहुत " से शिक्षकों के लिए पर्यावरण शिक्षा विज्ञान से जुड़ा विषय है।
वे यह नहीं सोचते कि इसे मानविकी, कला या अन्य दूसरे तरीके से पढ़ाया जा सकता है। शिक्षाविदों का मानना है कि इसे पाठ्यक्रम में न जोड़कर स्वैच्छिक स्तर पर स्कूली या महाविद्यालय शिक्षा में सम्मिलित किया जाना चाहिए। यह पाठ्येत्तर विषय होना चाहिए जिसमें छात्रों को पारिस्थितिकीय के प्रति अभिरूचि और जागरूकता पैदा करने पर बल दिया जाना चाहिए। जहाँ पर्यावरण शिक्षा की पढ़ाई होती है। वहाँ पारिस्थितिकीय अध्ययन पर कम पेड़-पौधों व बाघ के बारे में अधिक बताया जाता है।
पर्यावरण शिक्षा संबंधी अन्य समस्याएँ यह है कि इसके पाठ्यक्रम किसी एक संस्था द्वारा तय किये जाते है और यह भारत के सभी भागों में लागू की जाती है, किन्तु भारत के विभिन्न क्षेत्रों की अपनी-अपनी पर्यावरणीय समस्याएँ है, जिस प्रकार कुपोषण की पारिस्थितिकी प्रणाली में निवास करने वाले लोगों को मरूस्थल के बारे में पढ़ाने से कोई विशेष उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो सकती। वास्तव में पर्यावरण शिक्षा की समस्याओं का समाधान उस समय तक संभव नहीं है जब तक इस आधुनिक जगत का शिक्षित समुदाय इसे शिक्षा का विषय की बजाय जीवनशैली का विश्व नहीं मानेंगे। सरकारी एवं गैर-सरकारी संस्थाओं के साथ व्यक्ति विशेष को अपने स्तर पर पहल करनी होगी आज गरीबी, बेरोजगारी, आतंकवाद, जातिवाद, राजनैतिक विवाद इत्यादि किसी देश, प्रदेश या क्षेत्र विशेष की समस्याएं है जबकि भू-मंडलीय तापन के कारण जलवायु परितर्वन, प्राकृतिक आपदाओं की तीव्रता एवं वृद्धि जैसी विश्वव्यापी समस्याएँ उत्पन्न होती जा रही है।

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