गरीबी क्या है? अर्थ, परिभाषा, आशय, कारण, परिणाम, उपाय | Poverty in Hindi

गरीबी क्या है

गरीबी से आशय उस सामाजिक अवस्था से है जिसमें समाज का एक भाग अपने जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं से भी वंचित रहता है। गरीबी की माप के लिए सामान्यतः सापेक्षित प्रतिमान एवं निरपेक्ष प्रतिमान का प्रयोग किया जाता है। भारत में गरीबी की माप कैलोरी मानक के अनुसार की जाती है। गरीबी निवारण के लिए अनेक कार्यक्रम योजना काल में लागू किए गए परन्तु आशानुसार सफलता नहीं प्राप्त हुई।
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इस सन्दर्भ में और उपाय एवं नीतियों में परिवर्तन की आवश्यकता हैं, प्रस्तुत लेख में इसकी विस्तार से चर्चा की गयी है।

गरीबी से आशय

स्वतंत्रता के समय से ही गरीबी और गरीब व्यक्ति शासन की चिन्तो और कर्तव्य के विषय रहे। अंग्रेजो के शासनकाल में जिस प्रकार हमारी ग्रामस्वाहलम्बगन व्यविस्थाव को नष्ट कर पराधीन तंत्र में रहने को विवश किया गया। उस कालन्त्र से गरीबी भारतवर्ष की सबसे बड़ी सामाजिक आर्थिक समस्या अभी तक बनी हुई है। मूल रूप में गरीबी को हम एक आर्थिक समस्या मानते है परन्तु इसका सामाजिक पक्ष भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
स्वतंत्र होने के पश्चामत गरीबी कम करना एक सामाजिक उत्तरदायित्व रहा है। इसका विभिन्न दृष्टिकोण आधारित विवेचन से पहले हम गरीबी से क्या आशय है इसको जानेंगे फिर इस संदर्भ में लागू नीतियोंए कार्यक्रमों आदि को समझेंगे।

हेनरी बर्सटीन ने गरीबी के निम्नय चार आयाम बताये है-
  1. जीविका रणनीतियों का अभाव
  2. संसाधनों;धन, भूमि की अनउपलब्धता
  3. असुरक्षा की भावना
  4. अभाव के कारण अन्यन व्यक्तियों से सामाजिक सम्बन्ध बनाये रखने और विकसित करने की अक्षमता।

गरीबी की परिभाषा करते समय तीन स्थितियों का प्रयोग करते है :-
  1. एक व्यनक्ति को जीवित रहने के लिए कितना पैसा चाहिए
  2. निम्नपतम जीवन निर्वाह का स्तगर और एक विशेष समय और स्थान पर प्रचलित जीवन स्तर और
  3. समाज में कुछ व्यक्तियों के सम्पन्नत होने और अधिकांश के गरीब होने की दशाओं की तुलना। पहली दूसरी उपागम नितान्त गरीबी की आर्थिक अवधारणा का उल्लेख करती है. जबकि तीसरा उपागम उसको सामाजिक अवधारणा की तरह देखता है।

गरीबी को परिभाषित करते हुए गिलिन और गिलिन ने लिखा है, “गरीबी वह दशा है जिसमें व्यतक्तिया तो अपर्याप्त आय या बुद्धिहीन खर्च के कारण अपने स्तखर को उतना ऊँचा नहीं रख सकता कि उसकी शारीरिक और मानसिक क्षमता बनी रह सके और उसको तथा उसके प्राकृतिक आश्रितों को समाज के स्तर के अनुसार जिसका कि वह सदस्य है, उपयोगी ढंग से काम करने योग्य बना सकें।'

गोडार्ड व्यक्त करते है कि “गरीबी उन वस्तुओं का अभाव है जो कि एक व्यक्ति और उसके आश्रितों को पुष्ट रखने के लिए आवश्याक है।"

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एडम स्थिम गरीबी को निम्न रूप में व्यक्त करते है एक व्यक्ति उन्हीं अंशों में धनी या गरीब होता है जिन अंशों में उसे जीवन की आवश्यकतायें सुविधायें एवं मनोरंजन के साधन उपभोग के लिए प्राप्त हो सकते है।

राउन्ट्री ने गरीबी को परिभाषित करते हुये लिखा है कि “गरीबी जीवन को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिये किये गये न्यूनतम व्यय से सम्बन्धित है, जिसमें भोजन, कपड़ा, मकान, घर का किराया, ईधन आदि सभी आवश्यक वस्तुओं की कीमत शामिल है।"

शाहीन रफी खान और डैमियन किल्लेन ने गरीबी की स्थिति को बहुत स्पष्ट रूप में व्यक्त किया है। इनके अनुसार गरीबी भूख है, गरीबी बीमार होना है और डॉक्टर को न दिखा पाने की विवषता है। यह स्कूल में न जा पाने और निरक्षर रह जाने का नाम है। गरीबी बेरोजगारी व अपने भविष्य के प्रति भय है। यह अपने बच्चे को उस बीमारी से मरते हुये देखने की स्थिति है जो अस्वच्छ पानी पीने से होती है। गरीबी शक्ति प्रतिनिधित्व और स्वतन्त्रता की हीनता का नाम है।

एस. महेन्द्र देव ने गरीबी को बहुआयामी तथ्य के संदर्भ में लिया है। इनके अनुसार गरीबी केवल आय व उपभोग के स्तर से ही सम्बन्धित नहीं वरन् स्वास्थ्य व शिक्षा का भी गरीबी की अवधारणा में विचार करना चाहिये।

प्रो. अर्मत्य सेन के अनुसार, गरीबी निरपेक्ष वंचित की तुलना में सापेक्षिक अभाव को बताती है। सेन का मानना है कि सामान्यतः भुखमरी गरीबी को ही दर्शाती है परन्तु यह आवश्यक नहीं कि व्यापक रूप में गरीबी होने पर भुखमरी भी गम्भीर अवस्था में हो।

बाईसब्रान्ड के अनुसार गरीबी मुख्यतः अपर्याप्त भोजन, कपड़ा और रहने की समस्या से सम्बन्धित है।

इस प्रकार गरीबी की धारणा एक बहुआयामी तथ्य है। यह केवल आय व उपभोग स्तर से ही सम्बन्धित नहीं वरन् स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास व उचित रहन-सहन के स्तर से वंचित रहने की स्थिति से भी सम्बन्धित है।

गरीबी की माप

गरीबी की माप के लिए सामान्यतः दो प्रतिमानों का प्रयोग किया जाता है जो इस प्रकार है:

सापेक्षित प्रतिमान : गरीबी के सापेक्षित माप के अर्न्तगत देश की जनसंख्या की सम्पत्ति उपभोग अथवा आय स्तर के आधार पर विभिन्न क्रमिक वर्गों में विभक्त किया जाता है। इस प्रकार प्राप्त वर्गों को सम्पति, आय, उपभोग के बढ़ते या घटते हुए स्तरो के आधार पर क्रमबद्व किया जाता है। तत्पश्चात उच्चतम 5 प्रतिशत या 10 प्रतिशत निवासियों के अंश से की जाती है । सापेक्षित प्रतिमान के आधार पर प्राप्त जानकारी गरीबी की अपेक्षा आय, सम्पत्ति तथा उपभोग के वितरण में व्याप्त विषमता का बेहतर चित्रण करती है। इसकी सीमा यह है कि इसके द्वारा गरीबी की माप करने पर विकसित देशों में भी जनसंख्या का एक बड़ा भाग गरीबी की श्रेणी में आयेगा। यद्यपि उन देशों के गरीबों के रहन सहन का स्तर विकासशील देशों के गरीबों की तुलना में अधिक बेहतर होगा। वस्तुतः यह प्रणाली गरीबी की वास्तविक माप का चित्रण नहीं करके आर्थिक विषमता का चित्रण करती है। यही कारण है कि भारत में गरीबी की माप इस विधि से नहीं की जाती है।

निरपेक्ष प्रतिमान : गरीबी माप की इस विधि के अर्न्तगत गरीबी की माप के लिए देश में विद्यमान एक न्यूनतम उपभोग स्तर को जीवन यापन की अनिवार्य आवश्यकताओं के आधार पर निर्धारित किया जाता है। न्यूनतम उपभोग स्तर से कम उपभोग करने वाले व्यक्ति को गरीबों की श्रेणी में रखा जाता है। भारत में इस न्यूनतम उपभोग स्तर को गरीबी रेखा की संज्ञा दी गयी है । गरीबी रेखा के निर्धारण के लिए जीवन यापन हेतु अनिवार्य आवश्यक वस्तुओं की न्यूनतम मात्रा को पोषकता की न्यूनतम मात्रा के आधार पर ज्ञात किया जाता है। इस प्रकार प्राप्त भौतिक मात्राओं की कीमत से गुणा करके मुद्रा के रूप में परिवर्तित कर दिया जाता है। प्राप्त मौद्रिक मान प्रति व्यक्ति न्यूनतम उपभोग व्यय को प्रदर्शित करता है। यही न्यूनतम उपभोग व्यय गरीबी रेखा को व्यक्त करता है। गरीबी रेखा में सम्मिलित व्यय न्यूनतम उपभोग व्यय गरीबी रेखा को व्यक्त करता है। गरीबी रेखा में सम्मिलित व्यय न्यूनतम आवश्यक पोषकता प्रदान करने वाले खाद्य पदार्थो पर किए जाने वाले व्यय को प्रदर्शित करता है । इस व्यय में अनिवार्य आवश्यकताओं यथा वस्त्र, आवास तथा ईधन पर किए जाने वाले व्यय को सम्मिलित नहीं किया जाता है। अत; गरीबी रेखा केवल जीवन यापन हेतु आवश्यक खाद्य पदार्थो पर किए जाने वाले व्यय से संबधित होती है। ज्ञातव्य है कि गरीबी की माप के लिए निरपेक्ष प्रतिमान का प्रयोग सर्वप्रथम खाद्य एवं कृषि संगठन के प्रथम महानिदेशक ब्याएड आर ने 1945 में किया तथा इसके आधार पर गरीबी की माप करने के लिए क्षुधा रेखा की संकल्पना का प्रतिपादन किया। यही संकल्पना विश्व के सभी देशों में किसी न किसी रूप में विद्यमान है।

भारत में गरीबी की माप करने के लिए निरपेक्ष प्रतिमान का ही प्रयोग किया जा रहा है। इसी प्रतिमान के आधार पर निर्धारित किए गये न्यूनतम उपभोग व्यय को गरीबी रेखा की संज्ञा दी जाती है। इस विधि के माध्यम से गरीबी की माप करने की विधि को हेड काउंट रेशियो भी कहा जाता है।

योजना आयोग द्वारा आंकलित गरीबों की संख्या को लेकर विवाद बना रहता है। 1989 में योजना आयोग ने प्रसिद्ध अर्थविद डी. टी. लकड़वाला की अध्यक्षता में गठित विशेषज्ञ दल द्वारा योजना आयोग के पूर्व आँकडों को अविश्वसनीय बताते हुए गरीबी की माप के लिए वैकल्पिक फार्मूले का उपयोग करने का सुझाव दिया। जिसके अंतर्गत शहरी गरीबी के आंकलन के लिए औद्योगिक श्रमिकों के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक एवं ग्रामीण क्षेत्रो में इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु कृषि श्रमिको के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक को आधार बनाया। 11 मार्च 1997 को योजना आयोग की पूर्ण बैठक में गरीबी रेखा की माप के लिए लकड़वाला फार्मूले को स्वीकार कर लिया गया।

बृहद अर्थो में गरीबी से आशय उस सामाजिक क्रिया से है जिसमें समाज का एक भाग निश्चित न्यूनतम उपभोग का स्तर प्राप्त करने में असफल रहते है। इस न्यूनतम उपभोग के लिए आवश्यक आय के विषय पर अर्थशास्त्री एकमत नहीं है। इस कारण हमारे देश में योजना आयोग द्वारा गरीबी निर्धारण के सम्बन्ध में एक वैकल्पिक परिभाषा स्वीकार की जिसमें आहार संबंधी जरुरतो को ध्यान में रखा गया है। इस अवधारणा के अनुसार “जिनको ग्रामीण क्षेत्र में प्रतिव्यक्ति 2400 कैलोरी प्रतिदिन तथा शहरी क्षेत्र में 2100 कैलोरी प्रतिदिन के हिसाब से पोषक शक्ति नहीं प्राप्त होती है उनको गरीबी रेखा से नीचे माना जाता है।”जो व्यापक गरीबी की स्थिति को बताता है। जिसका विद्यमान होना चिन्ता का विषय है। इसी अवधारणा पर आधारित योजना आयोग राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण एवं विश्व बैंक द्वारा उपभोग व्यय से सम्बन्धित जो जानकारी उपलब्ध है उसके आधार पर शहरी व ग्रामीण क्षेत्र में गरीबी के अनुमापन का प्रयास किया गया।

गरीबी का परिमाण

भारत में गरीबी के परिमाण का अनुमान लगाने के लिये समुचित एवं संतोषजनक आँकड़ों का अभाव है। इसका कारण यह है कि इस देश में आय के वितरण से सम्बन्धित आँकड़ों का प्रायः उचित संकलन नहीं हो पाता। परन्तु राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण के विभिन्न दौर में सर्वेक्षण के आधार पर जनसंख्या के विभिन्न वर्गों द्वारा निजी उपभोग पर व्यय के संतोषजनक आँकड़े उपलब्ध हुये हैं। परन्तु गरीबी की परिभाषा पर मतभेद और अध्ययन की रीतियों के अन्तर के कारण बर्धन, मिन्हास, पी. डी. ओझा तथा दांडेकर व नीलकंठ रथ आदि अर्थशास्त्री गरीबी की व्यापकता के सम्बन्ध में एक दूसरे से भिन्न निष्कर्षों पर पहुंचे हैं।

पी. डी. ओझा के अनुमान : ओझा का मत है कि वे सभा व्याक्त  ओझा का मत है कि वे सभी व्यक्ति जिन्हें अपने आहार से प्रतिदिन 1,800 कैलोरी की प्राप्ति नहीं होती, गरीब माने जा सकते हैं। 1960-61 में प्रचलित मूल्यों के आधार पर भोजन के उपर्युक्त स्तर के अनुरूप प्रति व्यक्ति उपभोग 15-18 रू0 प्रति माह होना चाहिये। इस आधार पर ओझा के अनुसार 1960-61 में 52 प्रतिशत ग्रामीण जनसंख्या तथा इसी वर्ष शहरी क्षेत्रों में 56 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी के स्तर से नीचे थी।

दांडेकर एवं रथ के अनुमान : इन्होंने राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण द्वारा प्रदत्त आँकड़ों का प्रयोग किया है। वे 1968-69 में ग्रामीण क्षेत्रों में उन परिवारों को गरीबी के स्तर के नीचे मानते हैं जिनकी वार्षिक आय 324 रूपये से कम थी। इस श्रेणी में आने वाले लोग समस्त ग्रामीण जनसंख्या के 40 प्रतिशत थे। शहरी क्षेत्र के लिये उन्होंने गरीबी का स्तर प्रति व्यक्ति 486 रूपये वार्षिक आय पर निर्धारित किया। इस आधार पर 1968-69 में शहरी क्षेत्र में 50 प्रतिशत से अधिक व्यक्ति गरीबी के स्तर से नीचे थे।

वी.एम. दांडेकर तथा नीलकंठ रथ ने राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण द्वारा उपलबध आँकड़ों का विश्लेषण कर यह निष्कर्ष निकाला है कि 1960-61 से 1968-69 के मध्य उपभोग पर व्यय में औसत 4.8 प्रतिशत वृद्धि हुई है। 1960-61 से 1967-68 तक सात वर्षों में उपभोग पर औसतन वृद्धि 3.9 प्रतिशत रही। इसी अवधि में जहाँ गांवों में उपभोग व्यय 3.4 प्रतिशत बढ़ा, शहर में औसत वृद्धि दर 2.4 प्रतिशत थी। दांडेकर और रथ के ही शब्दों में विकास के लाभ प्रधानतः उच्च, मध्यम तथा सम्पन्न वर्गों के लोगों तक ही जो जनसंख्या के 40 प्रतिशत हैं, सीमित रहे हैं। जबकि सात वर्षों में राष्ट्रीय उपभोग के औसत स्तर में 3.9 प्रतिशत की वृद्धि हुई, वहाँ ग्रामीण लोगों में सर्वोच्च 40 प्रतिशत, लोगों के उपभोग के स्तर में 4.4 प्रतिशत और शहरी जनसंख्या में ऊपर के 40 प्रतिशत लोगों के उपभोग में 4.8 प्रतिशत वृद्धि हई। गांवों में मध्यम, निम्न मध्यम तथा गरीब श्रेणियों के लोगों के प्रति व्यक्ति उपभोग में अपेक्षाकृत थोड़ा सुधार हुआ और सबसे गरीब 5 प्रतिशत व्यक्तियों के प्रति व्यक्ति उपभोग में थोड़ी कमी हुई है। शहरी क्षेत्र में स्थिति अधिक गंभीर है। शहरी जनसंख्या के सबसे नीचे के 40 प्रतिशत व्यक्तियों के औसत प्रति व्यक्ति उपभोग में कमी हुई और सबसे गरीब 10 प्रतिशत जनसंख्या का उपभोग का स्तर 15 से 20 प्रतिशत गिर गया। विकास के लाभों का इस प्रकार का असमान वितरण, अंततः आर्थिक असमानता को बढ़ाता है और धनी तथा गरीब के बीच खाई चौड़ी करता है।

प्रणव के. वर्धन के अनुमान : बर्धन ने कृषि में नवीन नीति के वितरण पर प्रभाव का अध्ययन किया है। उनके अनुसार वर्तमान शताब्दी के सातवें दशक के अन्त में भारत की लगभग 54 प्रतिशत ग्रामीण जनसंख्या न्यूनतम स्वीकार्य जीवन स्तर के नीचे थी। बर्धन ने गरीबी की रेखा 1960-61 के मूल्यों के आधार पर प्रति व्यक्ति 15 रूपये मासिक निजी उपभोग के स्तर के अनुरूप स्वीकार की है। 1967-68 और 1968-69 में प्रचलित कीमतों के आधार पर इन वर्षों में गरीबी की रेखा क्रमशः 30.0 और 29.4 रू0 प्रति व्यक्ति मासिक उपभोग के अनुरूप होगी। बर्धन के अनुमान के अनुसार इस वर्ष गरीबी की रेखा के नीचे आने वाले ग्रामीणों की संख्या 23 करोड़ थी, जो तत्कालीन ग्रामीण जनसंख्या की 54 प्रतिशत थी।

बी. एस. मिन्हास के अनुमान : मिन्हास का विचार है कि 1960-61 के मूल्यों के आधार पर 200 रू0 वार्षिक के प्रति व्यक्ति निजी उपभोग द्वारा ग्रामीण परिवारों के लिये न्यूनतम जीवन स्तर को प्राप्त कर सकना संभव होगा। ''शहरी और ग्राम्य दोनों ही क्षेत्रों को मिलाकर देखने पर सारे देश के लिये सरकारी विशेषज्ञ समिति न्यूनतम जीवन स्तर के लिये 240 रू0 वार्षिक प्रति व्यक्ति निजी उपभोग की राशि इससे कम ही होनी चाहिये और मिन्हास इसे 200 रू0 मान लेते है।

डॉ. कोस्टा ने अपने अनुमान में गरीबी के तीन स्तर बताये हैं, अर्थात् अतिदीन, दीन और गरीब। उनके अनुमान के अनुसार 1963-64 में 6.2 करोड़ व्यक्ति अतिदीन जीवन व्यतीत करते थे। 10.4 करोड़ दीन और 16.2 करोड़ व्यक्ति गरीबी का जीवन व्यतीत करते थे। अतिदीनता का जीवन गुजारने वाले लोगों का अनुपात 13.2 प्रतिशत था और गरीबी में रहने वालों का 34.9 प्रतिशत था।

एम. एस. आहलूवालिया ने भी गरीबी के अनुमान प्रस्तुत किये। 1956-57 में ग्रामीण जनता का 54.1 प्रतिशत भाग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहा था। गरीब जनता का यह अनुमान 1960-61 में 38.9 प्रतिशत ही रहा गया। इसके बाद 1967-68 तक गरीबों की संख्या में वृद्धि हुई। 1967-68 के बाद इस गरीबी अनुपात में कमी आयी और 1973-74 में यह गरीबी अनुपात ग्रामीण जनसंख्या का 46.1 प्रतिशत रह गया।

देश में गरीबी अनुपात के ताजा आँकड़े योजना आयोग ने मार्च 2007 में जारी किये हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन ने गरीबी की स्थिति के आंकलन के लिये 2004-05 के अपने सर्वेक्षण में दो तरह की प्रश्नावली का प्रयोग किया है। जिसमें प्रथम 30 दिन के यूनीफार्म रिकॉल पीरियड उपभोग व्यय व दूसरा 365 दिन के संदर्भ वाले मिक्स्ड रिकॉल पीरियड पर आधारित था। इन दोनों ही आधारों पर गरीबी अनुपात अलग-अलग आँकलित किया गया है। न्त्व् आधारित ऑकलन में देश में गरीबों की संख्या 2004-05 में 30.7 करोड़ बतायी गयी है, जबकि आँकड़ों में यह 23.85 करोड़ है जिसमें ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में गरीबों की कुल संख्या क्रमशः 17.03 करोड़ व 6.82 करोड़ आँकलित है। इससे पूर्व 1999-2000 के आँकड़ों में देश के गरीबों की कुल संख्या (गरीबी रेखा से नीचे कुल जनसंख्या) 26.02 करोड़ (ग्रामीण क्षेत्रों में 19.32 करोड़ व शहरी क्षेत्रों में 6.7 करोड़) थी।

हमारे देश में गरीबी के माप हेतु गरीबी रेखा के निर्धारण करने का प्रयास सर्वप्रथम सरकार द्धारा गठित एक विशेषज्ञ दल द्धारा 1961 में किया गया। इस विशेषज्ञ दल ने 1960-61 की कीमतों पर 240 रु0 वार्षिक या 20 रू0 मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय को गरीबी रेखा माना था। इस विशेषज्ञ दल ने न्यूनतम उपभोग व्यय में शिक्षा तथा स्वास्थ्य पर किए जाने वाले व्यय का भार को नहीं लिया क्योंकि इनको सरकार स्वंय वहन करती है। उक्त विशेषज्ञ दल ने यह भी कहा था कि बाद के वर्षों के लिए गरीबी रेखा का अनुमान कीमत वृद्धि से उक्त राशि को समायोजित कर प्राप्त किया जा सकता है। इसी आधार पर समय-समय पर विशेषज्ञो ने गरीबी रेखा तथा गरीबी के स्तर का अनुमान लगाया गया है।

योजना आयोग द्वारा आंकलित गरीबो की संख्या को लेकर विवाद बना रहता है। 1993-94 में योजना आयोग ने प्रसिद्ध अर्थविद डी0 टी0 लकड़वाला की अध्यक्षता में गठित विशेषज्ञ दल द्वारा योजना आयोग के पूर्व आँकडों को अविश्वसनीय बताते हुए गरीबी की माप के लिए वैकल्पिक फार्मूले का उपयोग करने का सुझाव दिया। जिसके अंतर्गत शहरी गरीबी के आंकलन के लिए औद्योगिक श्रमिकों के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक एवं ग्रामीण क्षेत्रो में इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु कृषि श्रमिको के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक को आधार बनाया। 11 मार्च 1997 को योजना आयोग की पूर्ण बैठक में गरीबी रेखा की माप के लिए लकड़ वाला फार्मूले को स्वीकार कर लिया गया। इस न्यूनतम उपभोग के लिए आवश्यक आय के विषय पर अर्थशास्त्री एकमत नहीं है। 7वें वित्त आयोग ने एक नयी वर्द्धित गरीबी रेखा की अवधारणा की संकल्पना का प्रतिपादन किया। इस वर्द्धित गरीबी रेखा के निर्धारण में मासिक वैयक्तिक उपभोग व्यय में सरकार द्वारा शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवार नियोजन, समाज कल्याण आदि पर किए जाने वाले प्रति व्यक्ति मासिक व्यय की राशि भी जोड़ दिया। इस प्रकार प्राप्त हुई धनराशि को वर्द्रित गरीबी रेखा का नाम दिया गया। वर्द्रित गरीबी रेखा पूरे देश के लिए समान नहीं होगा बल्कि इसका निर्धारण प्रत्येक राज्य के लिए अलग-अलग होगा। इस कारण योजना आयोग द्वारा गरीबी रेखा निर्धारण के सम्बन्ध एक वैकल्पिक परिभाषा स्वीकार की जिसमें आहार सम्बन्धी जरुरतों को ध्यान में रखा गया है। इस अवधारणा के अनुसार “जिनको ग्रामीण क्षेत्र में प्रतिव्यक्ति 2400 कैलोरी प्रतिदिन तथा शहरी क्षेत्र में 2100 कैलोरी प्रतिदिन के हिसाब से पोषक शक्ति नहीं प्राप्त होती है उनको गरीबी रेखा से नीचे माना जाता है।"

जो व्यापक गरीबी की स्थिति को बताता है। जिसका विद्यमान होना चिन्ता का विषय है। इसी अवधारणा पर आधारित योजना आयोग राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण एवं विश्व बैंक द्वारा उपभोग व्यय से सम्बन्धित जो जानकारी उपलब्ध है उसके आधार पर शहरी व ग्रामीण क्षेत्र में गरीबी के अनुमापन का प्रयास किया गया।

गरीबी के कारण

पुरातन और आधुनिक दो परिप्रेक्ष्य के आधार पर हम गरीबी के कारणों का विश्लेषण करते है। पुरातन दृष्टिकोण यह है कि गरीबी दैवकृत और व्यक्ति के पूर्व कर्मों और पापों का परिणाम है। हेनरी जार्ज इस सन्दर्भ में लिखते हैं कि बड़े नगरों में जहाँ भूमि इतनी मूल्यवान है कि फुट से नापी जा सकती है, आप गरीबी और विलासिता की चरम सीमायें पायेंगे और सामाजिक स्तर की दो चरम सीमाओं की अवस्था में यह असमानता सदैव भूमि के मूल्य से नापी जाती है जहाँ गरीबी प्रमुख सामाजिकसमस्या के रूप में दिखाई पड़ती है। काल मार्क्स गरीबी का कारण पूँजीपतियों द्वारा किया जाने वाला शोषण है।
हेनरी इलेश ने गरीबी के तीन कारण बतलाये है :
व्यक्तिगत, संस्कृति या उपसंस्कृति और सामाजिक संरचना। आधुनिक विचार गरीबी को उन कारकों से जोड़ता है जो एक व्यक्ति के नियत्रंण से परे होते है, दूसरा समाज में सामाजिक व्यवस्थाओं की कार्यप्रणाली को गरीबी का कारण बतलाया है।

व्यक्तिगत कारण
व्यक्तिवाद का सिद्धांत निर्धनता के करण को व्यक्ति में ही ढूढ़ता है। व्यक्ति की सफलता और असफलता उसके व्यक्तिगत कारकों पर निर्भर करती है।
जैसे -
  • बीमारी - हन्टर कहते है, "गरीबी और बीमारी एक जटिल समझौता बना लेती है जिसमें कि मनुष्यों में सबसे अधिक अभागों के दुःखों को बढ़ाने में प्रत्येक दूसरे की सहायता करता है।' बीमार होने पर कार्य न करने के कारण आय नहीं होती, वही उसकी पूर्व आय का बड़ा भाग चिकित्सा पर व्यय होता है। इस तरह बीमारी उसपर दोहरी चोट कर गरीबी को बढ़ती जाती है। 
  • अशिक्षा - अशिक्षा गरीबी के मूल में ही समाहित है। अशिक्षित व्यक्ति में आय अर्जन की सामर्थ्य बहुत कम होता है जिस कारण वह आगे भी स्वयं और अपने बच्चों को भी पढ़ा-लिखा नहीं पाता है और गरीबी का दंश सहन रहता है।
  • आलस्य - आलस्य के कारण कार्य मिलने पर भी कार्य को न करना गरीबी बढ़ने एवं बने रहने में सहायतारूप में ही है। गर्म देशों में यह समस्या व्यापक रूप में पाई जाती है।
  • दुर्घटना - दुर्घटना के कारण व्यक्ति शारीरिक रूप में अक्षम होने पर बेकार हो जाता है, जो उसकी आय को ही समाप्त कर गरीबी की तरफ ले जाती है।
  • अनावश्यक व्यय - सामाजिक परम्परा और लोक उलाहन के कारण हमारे देश में लोग त्यौहारों,पारिवारिक समारोह आदि में अनावश्यक रूप में अपनी आय से अधिक व्यय कर स्वयं को गरीबी की तरफ ले जाते है।
  • नैतिक पतन - नैतिक पतन में व्यक्ति शराब, जुआ, वेश्या-वत्ति आदि व्यसनों में पड़ कर स्वयं को बर्बाद कर गरीबी में आ जाता है।
  • अधिक सन्तानोत्पत्ति भी हमारे देश में गरीबी का एक प्रमुख व्यक्तिगत कारण है जो व्यक्ति की आय से अधिक सन्तानों का भरण-पोषण का व्यय होता है जो उसे गरीबी से और गरीबी की तरफ ले जाती है।
लैण्डिस और लैण्डिस Landis and Landis कहते है, "संसार में जहाँ आर्थिक समस्या इतनी अधिक है, व्यक्ति को सदैव गरीबी के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता।' अत : गरीबी के भौगोलिकक्तिगत कारणों के अतिरिक्तव्य, संस्कृति, आर्थिक, सामाजिक तथा अन्य कारण भी है।

भौगोलिक कारण
प्राकृतिक संसाधनों के अभाव, मौसम की प्रतिकुलता, प्राकृतिक आपदाओं का संकट ऐसे कारक है जो गरीबी के बढ़ावा ही देते रहते है।

संस्कृति या उपसंस्कृति कारण
आस्कर लेविस नीति के विचार को बढ़ाया। रेयन और चिलमेन भी में गरीबी की संस्कृत 1958 इस विचारधारा का तर्क है कि गरीबी की संस्कृत इस विचारधारा के पक्षघर थे गरीबों के मूल्य, मानदण्ड, विश्वास और रहने के रंग-ढंग समाज द्वारा उनके दूर करने के प्रयास में प्रमुख रूप - में अवरोध बन जाती है। इस प्रकार गरीब, गरीबी में ही जीता रहता है।

आर्थिक कारण
आर्थिक कारण गरीबी का मुख्य कारण है। इसका परीक्षण मुख्य रूप में निम्नांकित कारकों से किया जा सकता है -
  1. अपर्याप्त एवं असंतुलित विकास - देश के सभ्ज्ञी क्षेत्रों का संतुलित विकास न होना गरीबीका एक प्रमुख कारक है। उद्योग-धन्धों का विकास भी उन्हीं क्षेत्रों में तीव्रता से हुआ जहाँ संसाधनों की उपलब्धता एवं अधोसंरचना का विकास हुआ है।
  2. कामकारों में कार्यकुशलता की कमी - श्रमिकों का उपलब्ध रोजगार के अनुसार कार्यकुशलता का न पाया जाना एक प्रमुख समस्या है। हमारी शिक्षा प्रणाली भी परम्परागत पद्धति पर ही लागू है जो केवल शिक्षित बेरोजगार ही पैदा करती आ रही है।
  3. कृषि क्षेत्र का विकास न होना - कृषि क्षेत्र पर जनसंख्या का जुड़ाव 70 प्रतिशत से अधिक है और सर्वाधिक श्रम कृषि क्षेत्र में ही कार्यरत है परन्तु कृषि अभी 60 प्रतिशत क्षेत्र मानसून पर निर्भर है नवीन तकनीक ज्ञान का अभाव एवं सभी क्षेत्रों में संतुलित कृषि ज्ञान का प्रसार न हो पाना चिन्ता का कारण बनता जा रहा है।
  4. पूँजी का अभाव - पूँजी के अभाव के कारण अभी भी देश भारी उद्यम पिछड़े क्षेत्रों में औद्योगिक विकास, अधोसंरचना का विकास और अनुसंधान हेतु विदेशी पूँजी पर निर्भरहै जिस हेतु हमें अनावश्यक इनकी शर्तों का पालन करना पड़ता है।
  5. बेरोजगारी - बेरोजगारी गरीबी का प्रमुख कारण है। देश में लागू शिक्षा प्रणाली, श्रम की अकुशलता, परिवार नियोजन का अभाव बेरोजगारी को तीव्र करते है जिसका परिणाम गरीबी में वृद्धि के रूप में सामने आता है।

सामाजिक कारण
समाज वैज्ञानिक गरीबी का सम्बन्ध सामाजिक संरचना अथवा व्याप्त सामाजिक परिस्थितियों से जोड़ते है। इसको निम्न रूप में व्यक्त करते है।
  1. दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली - भारतीय शिक्षा प्रणाली केवल शिक्षित बेरोजगार को जन्म देते है। जबकि आवश्यकता हमेशा तकनीक ज्ञान रूप से कुशल श्रम की है।
  2. स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव - स्वास्थ्य की अवसंरचना का विकास नहीं हुआ है जिस कारण निजी क्षेत्र द्वारा उपलब्ध अकुशल एवं मंहगी स्वास्थ्य सेवा के कारण समाज का कमजोर वर्ग बीमार होने पर गरीबी के जाल में बन्धक बन जाता है।
  3. सामाजिक कुरीतियाँ - देश में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों का बन्धन कमजोर वर्ग को गरीबी और कर्ज में ले जाता है। जैसे व्यक्ति की मृत्यु पर सामाजिक भोज का आयोजन, जन्म और विवाह संस्कार में अनावश्यक व्यय करना आदि।
  4. जातिवाद - जातिवादी व्यवस्था ने देश के समाजको लगातार बटवारा किया है जिस कारण विकास अवरूद्ध हुआ है और गरीबी में वृद्धि हुई है।
उपरोक्त सामाजिक, संस्कृति, आर्थिक, व्यक्तिगत तथा भौगोलिक कारणों के अतिरिक्त राजनीतिक रूप में अतिरिक्त करारोपण करके देश की आर्थिक माहौला को खराब करना, जनसंख्या की वृद्धि एवं अकुशलता, अधोसंचरना के विकास में बाधा उत्पन्न कर व्यापार और उद्योग की उन्नति रोकने जैसे अनेक अन्य कारक गरीबी को उत्पन्न करते है। इसी कारण कहते है कि गरीबी स्वयं गरीबी बढ़ाने का सबसे बड़ा कारण है।

गरीबी निवारण के लिए नीतियाँ और कार्यक्रम

भारतीय संविधान और पंचवर्षीय योजनाओं में सामाजिक न्याय को सरकार की रण नितियों का प्राथमिक उद्देश्य माना है।

प्रथम योजना (1951-56) में ही यह विचार व्यक्त किया गया था कि आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन की अतः प्रेरणा का उदय गरीबी और आय, संपत्ति तथा अवसरों की असमानताओं से होता है। और माना गया आर्थिक विकास की प्रक्रिया के बढ़ने के साथ रिसाव सिद्धान्त प्रभावी हो जायेगा एवं गरीबी और आय, सम्पत्ति की असमानता में कमी आएगी।

दूसरी योजना (1956-61) में भी कहा गया है, “आर्थिक विकास के अधिकाधिक लाभ समाज के अपेक्षाकृत कम भाग्यशाली वर्गों तक पहुँचना चाहिए। प्राय सरकार के सभी नीति विषयक प्रपत्रों में गरीबी निवारण और अपनाई जाने वाली रणनीतियों की चर्चा हुई है। इस सन्दर्भ में सरकार गरीबी निवारण के लिए लि-आयामी नीति अपनाई। प्रथम संवृद्धि आधारित जो प्रथम, दूसरी एवं तीसरी योजना में रही जो राष्ट्रीय आय और प्रति व्यक्ति आय में तीव्र वृद्धि का प्रभाव धीरे-2 गरीबी वर्ग तक पहुँचने पर आधारित था।

जिसमें चुने क्षेत्रों का तीव्र औद्योगिक विकास हो एवं तीसरी योजना (1961-66) में लागू हरित क्रान्ति से कृषि का पूर्ण काया-कल्प कर समाज के अधिक पिछड़े वर्गो को लाभान्वित करना था। जनसंख्या वृद्धि के परिणामस्वरूप प्रति व्यक्ति आय में बहुत वृद्धि न हो सकी एवं साथ ही धनी एवं गरीबी की खाई और बढ़ गई। हरित क्रान्ति ने विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों के बीच खाई को और चौड़ा किया। जबकि भूमि के पुर्नवितरण की इच्छा तथा योग्यता का अभाव था।

इस तरह चौथी योजना (1969-74) तक गरीबी के निवारण हेतु प्रत्यक्ष कार्यवाही की जगह अप्रत्यक्ष नीति का सहारा लिया जाता रहा।

पाँचवी योजना (1974-1979) में प्रथम बार गरीबी से मुक्ती को मुख्य उद्देश्य माना गया। योजना के अर्न्तगत गरीबी निवारण, स्वालम्बन की प्राप्ति, आय की विषमताओं में कमी और गरीबों के उपभोग स्तर में वृद्धि के मुख्य लक्ष्य नियत किए थे। 

छठी योजना (1970-75) में भी गरीबी निवारण को महत्ता प्रदान की गई। विकास कार्यक्रमो में न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रमों पर अधिक ध्यान दिया। इसके साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में विकास की सामाजिक आर्थिक अन्तसंरचना को सुदृढ़ करने, ग्रामीण गरीबी का निवारण एवं क्षेत्रीय विषमताओं को कम करने के लिए विशिष्ट कार्यक्रम संचालित किए।

इसी तरह सातवीं योजना (1975-90) में खाद्यान्न उत्पादन की वृद्धि,रोजगार अवसरों में वृद्धि, आधुनिकीकरण, स्वालम्बन व सामाजिक न्याय के आधारभूत सिद्धान्त के आधारभूत सिद्धान्त के आधार पर उत्पादकता में वृद्धि आने पर बल दिया गया जिससे गरीबी पर प्रत्यक्ष प्रहार सम्भव हो इसी रणनीति के तहत गरीबी से सन्दर्भित अनेक कार्यक्रम चलाये गये।

आठवीं योजना (1992-97) में नियोजित विकास हेतु ‘मानव विकास' को मुख्य रूप से ध्यान की स्थितियों में गिरावट की ओर ध्यान देते हुए न्याय संगत सामाजिक स्थिति के पुनरूस्थापन पर जोर दिया गया। यह सुनिश्चित यिा गया कि योजना के केन्द्र में, आम लोगों की आवश्यकताएँ व उनका जीवन स्तर सुधार का लक्ष्य रहे। इसके लिए काम के अधिकार, ग्रामीण विकास की अनिर्वायता, विकेन्द्रीकरण व एकीकृत क्षेत्र आयोजना, कृषि का विकास, शहरी गरीबी व बेरोजगारी का निवारण व सामाजिक विकास शिक्षा व स्वास्थ्य के स्तर में परिवर्तन, खाद्य व सामाजिक सुरक्षा का बेहतर स्थिति व जनसंख्या नियत्रंण की रणनीति प्रस्तावित की गयी।

नवीं योजना (1997-2002) में उन योजना को प्राथमिकता के आधार पर लागू किया गया जो कृषि एवं ग्रामीण विकास को प्राथमिकता दी गयी जिससें गरीबी का निवारण हो सके। इसके साथ ही योजना हेत निदिष्ट स्कीमों में श्रम गहन होने पर जोर दिया गया जो दीर्घकालीन धारणीय लाभ प्रदान कर सके। योजना काल में आरम्भ किये गये आर्थिक सुधार कार्यक्रमों के द्वारा जो संरचनात्मक सुधार लागू हुए उनका ध्येय भी गरीबी पर प्रत्यक्ष प्रहार करना ही था।

दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-07) के दौरान तीव्र वृद्धि के साथ गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों के माध्यम से गरीबी में बड़ी कमी का लक्ष्य रख गया। योजना में 7 प्रतिशत वार्षिक विकास का लक्ष्य रखा गया। इसके साथ प्राथमिक शिक्षा व साक्षरता में वृद्धि करना, स्वास्थय सुविधाओं के विकास को प्राथमिकता प्रदान की गई। परन्तु जहाँ वृद्धि दर 7.6 प्रतिशत प्राप्त हुई लेकिन गरीबी निवारण कार्यक्रमों में उतनी सफलता नहीं प्राप्त हुई जितनी आशा थी।

ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2002-12) में समावेशी विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने के साथ शुरू की गई है। जिसमें गरीबी पर प्रत्यक्ष प्रहार के अनेक दीर्घकालीन कार्यक्रमों को लगू किया गया है और इसे इस प्रकार क्रियान्वित किया जाना है कि आर्थिक व सामाजिक विकास में राज्यों के बीच अन्तर समाप्त हो जाए।

गरीबी निवारक कार्यक्रम

गरीबी को समाप्त करने के लिए सरकार अनेक गरीबी निवारक कार्यक्रम चलाये हुए है जिससे लोगो की आय का सृजन हो। इसमें से अधिकांश कार्यक्रम भौतिक सम्पदा के निर्माण जैसे- ग्रामीण आधारिक संरचना के अन्तर्गत सड़क, पीने का पानी की सुविधाओं, सीवरेज आदि से जुड़े है जबकि अन्य को स्वरोजगार हेतु प्रोत्साहित करना तथा व्यापार प्रारम्भ करने हेतु सहायता प्रदान करना है। स्वयं सहायता समूह भी लोगों के सतत् विकास हेतु प्रयत्नशील है।
गरीबी निवारक कार्यक्रम निम्न है-
अस्थायी रोजगार सृजित करने वाले कार्यक्रम- जवाहर रोजगार योजना (जे.आर.वाई.), जवाहर समृद्धि योजना, दस लाख कुआं योजना, रोजगार गारंटी योजना, काम के बदले आनाज, राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम (एन.आर.ई.पी.), भूमिहीन ग्रामीण रोजगार गारण्टी कार्यक्रम (एन.आर.ई.जी.पी.), राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना अधिनियम (2005)।
सतत् रोजगार एवं आय सृजित कार्यक्रम- स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना, स्वयंसिद्धा प्रोजेक्ट, संयुक्त वन प्रबन्धन कार्यक्रम, स्वयं सहायता समूह, ग्रामीण वन प्रबन्धन कमेटी, सूक्ष्म वित्त एवं प्रबन्धन द्वारा लाभार्थी का व्यापक आर्थिक सुधार।
जीविका की लागत कम करने वाले कार्यक्रम - सार्वजनिक वितरण प्रणाली, स्वजल धारा (ग्रामीण क्षेत्र में पीने के पानी की सुनिश्चितता करना), इन्दिरा आवास योजना।

इनमें से मुख्य कार्यक्रमों का विवरण निम्न है-
गरीबी निवारक कार्यक्रम
कार्यक्रम उद्देश्य
सघन कृषि जिला कार्यक्रम (IADP) 1960-61 कृषकों को बीज, उर्वरक, औजार और ऋण उपलब्ध करना।
साख अधिकरण योजना (CAS) 1995 RBI की चयनात्मक साख नीति की एक योजना
बहु फसली कार्यक्रम 1966-67 कृषि उत्पादन में वृद्धि करना
विभेदीकृत ब्याजदर योजना 1972 समाज के कमजोर वर्गो को रियायती दर 4 प्रतिशत पर ऋण उपलब्ध कराना।
ग्रामीण रोजगार के लिए नकद योजना 1972-74 ग्रामीण विकास हेतु
मरूभूमि विकास कार्यक्रम 1977-78 मरूभूमि विस्तार प्रक्रिया नियंत्रण एवं पर्यावरण सन्तुलन
काम के बदले अनाज कार्यक्रम 1977-78 विकास प्रक्रियाओं के काम हेतु खाद्यान्न देना।
अन्तोदय कार्यक्रम 1977-78 राजस्थान में गांव के सबसे गरीब परिवारों को स्वाबलम्बी बनाना।
ग्रामीण युवाओं को स्वरोजगार हेतु ग्रामीण प्रशिक्षण कार्यक्रम (TRYSEM) 15 अगस्त 1979 युवा वर्ग की बेरोजगारी को दूर करने हेतु प्रशिक्षण कार्यक्रम
समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम (IRDP) 12 अक्टूबर 1980 ग्रामीण निर्धन परिवारों को स्वरोजगार हेतु ऋण उपलब्ध कराना।
राष्ट्रीय ग्राम्य रोजगार कार्यक्रम 1980 ग्रामीण निर्धनों को लाभप्रद रोजगार उपलब्ध कराना
ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं एवं बाल विकास (NREP) 1982 BPL ग्रामीण परिवारों की महिलाओं को कार्यक्रम स्वरोजगार के अवसर उपलब्ध कराना।
ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारण्टी कार्यक्रम (RLEGP) 15 अगस्त 1983 भूमिहीन कृषकों व श्रमिकों को रोजगार उपलब्ध कराने हेतु।
इन्दिरा आवास योजना 1985-86 ग्रामीण क्षेत्रों में गृह निमार्ण हेतु।
शहरी निर्धनों हेतु स्वरोजगार कार्यक्रम 1986 स्वरोजगार हेतु वित्तीय एवं तकनीकी मद्द
सेवा क्षेत्र दृष्टिकोण 1988 ग्रामीण क्षेत्रों के लिए नई साख नीति।
प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम 1988 ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में शिक्षा विस्तार
नेहरू रोजगार योजना अक्टूबर 1989 नगरीय बेरोजगारों को रोजगार देने हेतु।
जवाहर रोजगार योजना अप्रैल 1989 ग्रामीण क्षेत्रों के बेरोजगारों को रोजगार देने हेतु।
कृषि एवं ग्रामीण ऋण राहत योजना 1990 ग्रामीण कुशल श्रमिकों, कारीगरों बुनकरों को 10000 रु.. तक ब्याज मुक्त ऋण देना।
शहरी सूक्ष्म उद्यम योजना 1990 शहरी लघु उद्यमियों को वित्तीय सहायता।
शहरी सवेतन रोजगार योजना 1990 एक लाख से कम जनसंख्या वाली शहरी बस्तियों में गरीबों के लिए मूल सुविधा की व्यवस्था करके मजदूरी रोजगार प्रदान करना।
शहरी आवास एव आश्रय सुधार योजना 1990 1 लाख से 20 लाख की जनसंख्या वाली शहरी बस्तियों में आश्रय उन्नयन के माध्यम से रोजगार प्रदान करना।
रोजगार आश्वासन योजना 1993-94 रोजगार उपलब्ध कराने हेतु।
राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम 1995 विभिन्न योजनाओं द्वारा लोगों को सहायता।
संगम योजना 1996 विकलांगों के कल्याण हेतु।
कस्तूरबा गाँधी शिक्षा योजना 15 अगस्त 1997 नीची महिला साक्षरता वाले जिलों में बालिका विद्यालय की स्थापना।
स्वर्ण जयंती शहरी रोजगार योजना 1 दिसम्बर 1997 शहरी क्षेत्रों में लाभ प्रद रोजगार उपलब्ध कराना।
जवाहर ग्राम समृद्धि योजना 1 अप्रैल,1999 ग्रामीण निर्धनों का जीवन सुधारना और लाभप्रद रोजगार उपलब्ध कराना।
अन्नपूर्णा योजना 19 मार्च 1999 वृद्ध नागरिकों को निःशुल्क अनाज
स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना 1 अप्रैल, 1999 सामूहिक प्रयास पर बल। सहायता प्राप्त गरीब व्यक्ति को 3 वर्ष में BPL के ऊपर लाना।
प्रधानमंत्री ग्रामोदय योजना 2000 गाँवों का समग्र विकास।
अन्तोदय योजना 2000 बी.पी.एल .पारिवारिक सर्वाधिक गरीबों को अनाज उपलब्ध कराना।
आश्रय बीमा योजना जून 2001 रोजगार छूटे कर्मचारियों को सुरक्षा कवच प्रदान करना।
सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना 25 सितम्बर 2001 ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार का सृजन
बाल्मीकि अम्बेडकर आवास योजना 2001, दिसम्बर शहरी स्लम आबादी को स्वच्छ आवास उपलब्ध कराने हेतु।
सर्वशिक्षा अभियान 2000-01 6-14 वर्ष के सभी बच्चों को 2010 तक निःशुल्क एवं आठवीं तक की प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराना।
खाद्यान्न बैंक योजना 2001 घोषित ग्राम पंचायत स्तर पर खाद्यान्न बैंक की स्थापना।
प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना 25 दिसम्बर 2000 गाँवों को सड़क से जोड़ना।
हरियाली योजना 27 जनवरी 2003 ग्रामीण क्षेत्रों में वृक्षारोपण को प्रोत्साहन।
जवाहर लाल नेहरू नेशनल अरबन 3 दिसम्बर 2005 शहरी अवस्थापना विकास रिनुअल मिशन
राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ अभियान 12 अप्रैल 2005 प्राथमिक स्वास्थय सुरक्षा को सुदृढ़ करना।
भारत निर्माण योजना 16 दिसम्बर 2005 ग्रामीण अवसथापना सर्वागीण तथा व्यापक विकास योजना।
नेशनल रूरल लिमलीहुड मिशन 2009-10 SGRY का नया नाम
राजीव आवास योजना 2009-10 स्लमुक्ति से सम्बन्धित
प्रधानमंत्री आदर्श ग्राम योजना 2009-10 अनुसूचित जाति बहुल ग्राम विकास योजना
महिला किसान सशक्तिकरण योजना 2010-11 ग्रामीण किसान महिलाओं की विशिष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु
महात्मागांधी नेशनल रूरल एम्प्ल्वायमेंट गारन्टी प्रोग्राम (मनरेगा) 2 अक्टूबर 2009 मूलतः 2.2.2006 ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार का अधिकार देना

गरीबी निवारण के उपाय

गरीबी निवारण हेतु सरकारी कार्यक्रम नीतियों में सुधार और सामाजिक जागरूपता लाना अतिआवश्याक है। इसको उपरोक्त तथ्यों के अन्र्गीत रख सकते है -
  1. कृषि का आधुनिक रूप में विकास करना भारतीय कृषि व्यगवस्था अभी भी पुरानी एवं परम्परागत साधनों और मौसम की अनुकूलता पर निर्भर है। कृषि में नवीन तकनीक को लागू कर इसका तीव्र विकास कर ही गरीब पर कठोर प्रहार संभव है क्योंकि सर्वाधिक लोगों की निर्भरता इसी पर है।
  2. भूमि का पुनर्वितरण भूमि का वितरण बहुत ही असमान है जिस तरफ ध्यान देने की आवश्यपकता है बेकार परती असर और चकबन्दी के अन्तर्गत अधिग्रहण की गई भूमि को वंचित वर्ग को दी जानी चाहिए।
  3. अधोसंरचना के संसाधनों का विकास सामाजिक एवं आर्थिक अधोसंरचना के किसी क्षेत्र का पूर्ण देश के सभी क्षेत्रों में प्राथमिकता के आधार पर किया जाना चाहिए। क्योंकि बिना अधोसंरचना के किसी क्षेत्र का विकास संभव नहीं है।
  4. छोटे तथा कुटीर उद्योगो का विकास छोटे तथा कुटीर उद्योग अधिक श्रम प्रधान एवं स्थानीय संसाधनों के लिए उपयोगी होते है जिनको बढ़ावा देकर स्वालम्ब एवं क्षेत्रीय रोजगार में तीव्र वृद्धि संभव है।
  5. रोजगार परक शिक्षा का विकास एवं जोर देना गरीबी के एक प्रमुख कारण शिक्षित बेरोजगारी है। जिस पर नियंत्रण रोजगार परक शिक्षा के पाठ्यक्रम को लागू कर उद्योग क्षेत्र की आवश्य्कता की पूर्ति के साथ गरीबी एवं बेरोजगारी पर नियंत्रण पाया जा सकता है।
  6. सामाजिक सहायता कार्यक्रमों का तत्पारता से लागू करना देश में लागू सामाजिक सहायता कार्यक्रमों की बात लोगों तक पहुँच को जबाव देहयता के साथ सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
  7. परिवार नियोजन जनसंख्या नियंत्रण हेतु परिवार नियोजन को प्रभावी बनाना होगा जिसे पंचायत एवं निकाय प्रतिनिधि चुनाव के साथ सरकारी रोजगार से भी जोड़ा जाना चाहिए।
  8. न्यूनतम मजदूरी को निर्धारित कर प्रवाही रूप से लागू करना देश में न्यूनतम मजदूरी का सभी जगह अनुपालन न किया जाना एक गंभीर दोष है। इसे प्रभावी रूप से लागू कर गरीबी में वृद्धि दर को अवमंदित किया जा सकता है।
  9. आवास सुविधा का विकास करना हमारे देश में आवास की व्यरवस्थाध न होना एक प्रमुख समस्या है। लोग कर्ज लेकर आवास की व्यनवस्थाव करते है या आय का एक बड़ा भाग आवास किराये में व्यरय कर देतेहै। अतरू आवास सुविधापरक कार्यक्रमों को बढ़ावा देकर गरीबी में कमी एवं नियंत्रण किया जा सकता है।

इसके साथ गरीबी निवारण के लिए हमारे अनुसार निम्नम आर्थिक उपाय भी आवश्यीक प्रतीत होते है।
  • केन्द्र तथा राज्य सरकारों द्वारा राजकोषीय नियंत्रण रखना
  • आन्तिरक एवं वाह्य ऋण को सीमित रखना
  • घाटे वाले सार्वजनिक उपक्रमों में यदि पुनर-उत्थादन की संभावना नहीं है तो उन्हें बेच दिया जाए
  • निर्यात प्रोत्सानहन परक कार्यक्रमों को अधिक प्रभावी रूप से लागू करना निर्यात को बढ़ावा प्रदान करें
  • विदेशी संस्थागत पूँजी को बढ़ावा देना
  • सुधारात्म्क कर व्यवस्था लागू करना
  • श्रम कानूनों को उद्योगपतियों एवं श्रमिकों के सामंजस्यी के रूप में लागू करना
  • बैंकिग क्षेत्र का और अधिक विस्तार कर अधिक से अधिक लोगों को जोड़ना
ग्रामीण एवं सामाजिक विकास से संबंधित सभी कार्यक्रमों को एकीकृत करके उन्हें स्थानीय आवश्यसकता और साधनों के आधार पर विकेन्द्री कृत व्यमवस्थार के अन्तर्गत पंचायती संस्थाओं द्वारा प्रभावी रूप में सफल बनाना होगा।
इन उपायों के अतिरिक्त भूमि का पुनर्वितरण औद्योगिक एकाधिकार की समर्पित सार्वजनिक उद्यमों का कुशल एवं लोकतांत्रिक रूप में संचालन प्रबन्धन करना राष्ट्रीय उपव्यक में कमी सामाजिक एवं ग्रामीण विकास कार्यक्रमों के व्यय में वृद्धि ऊँचे रक्षा व्यय में कमी आदि कार्यक्रमों को ही लागू कर हम 21वीं शताब्दी की चुनौतियों को पूरा करने एवं गरीबी को कम करने में सहभागी कर सकते है।

गरीबी निवारण की रणनीति का आलोचनात्मक मूल्यांकन

भारतीय योजनाकारों की आरम्भ से ही यह धारणा थी कि आर्थिक विकास प्रक्रिया के द्वारा राष्ट्रीय आय में वृद्धि होगी जिसका प्रभाव रिसाव द्वारा नीचे तक स्वंय ही पहुँच जायेगा। जिसके साथ प्रगितिशील करारोपण तथा सार्वजनिक व्यय का कल्याणकारी स्वरूप गरीबी में कमी लायेगा। परन्तु गरीबी निवारण की धारणा सफल न हो सकी। इस सन्दर्भ में गरीबी निवारण कार्यक्रम का पूरा ध्यान अतिरिक्त आय के सृजन पर केन्द्रित रहा है। परिवार कल्याण, पैष्टिक आहार, सामाजिक सुरक्षा तथा न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति की ओर ध्यान नहीं दिया गया है। इन कार्यक्रमों में अपाहिज, बीमार तथा उत्पादक रूप से काम करने के अयोग्य लोगों के लिए कुछ नहीं किया गया है। जनसंख्या के लगातार छोटा होता जा रहा है, स्वरोजगार उद्यमों पर या मजदूरों के रोजगार कार्यक्रमों पर निर्भरता सही नहीं है।

वर्ष 1965-66 के बाद नई कृषि क्रान्ति के आने से गुणात्मक परिवर्तन हुआ। अब कृषि उत्पादन में वृद्धि और अधिक भूमि के कारण नहीं बल्कि गहन खेती के कारण होने लगी। इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था में ऐसे परिर्वतन हए जो गरीबों के लिए हितकर नहीं थे। जैसे मशीनों द्वारा श्रम का प्रतिस्थापन फलस्वरूप रोजगार के अवसर नहीं बढ़ सके। बड़े भूस्वामियों ने छोटे-छोटे काश्तकारों से बटाँई खेती लेकर स्वय कृषि कार्य करना शुरू कर दिया। बड़े कृषकों की आय बढ़ने एवं मँहगी कृषि आगत से साधन-विहीन सीमांत व छोटे कृषकों की आय घटने से स्थानीय दस्तकारों व कारीगरों द्वारा बनाई गई वस्तुओं की माँग गिरी और लोग ज्यादा गरीब हो गए।

जबकि आवश्यकता इस बात पर ध्यान देने की है कि गरीबी की रेखा से नीचे रह रहे विभिन्न लोगों के आय स्तरों पर क्या प्रभाव पड़ रहा है।

सारांश

इस लेख के अध्ययन के पश्चात् यह जान चुके हैं कि आर्थिक समस्याओं में सर्वाधिक प्रमुख समस्या गरीबी है। 1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ तो उसे विरासत में मिली एक पंगु अर्थव्यवस्था जिसमें गरीबी की जड़े बरगद के वृक्ष के समान पनप चुकी थी। अर्थव्यवस्था को गरीबी के जाल से निकाला जाय तथा देश में तीव्र तथा आत्मनिर्भर आर्थिक विकास लाया जाए नियोजन काल में मिश्रित आर्थिक प्रणाली को चुना। गरीबी की माप के लिए सामान्यतः दो प्रतिमानों सापेक्षित प्रतिमान और निरपेक्ष प्रतिमान का प्रयोग किया जाता है। 7वें वित्त आयोग ने एक नयी वर्द्धित गरीबी रेखा की अवधारणा की संकल्पना का प्रतिपादन किया। योजना आयोग द्वारा गरीबी रेखा निर्धारण के सम्बन्ध एक वैकल्पिक परिभाषा स्वीकार की जिसमें आहार सम्बन्धी जरुरतों को ध्यान में रखा गया है।
इस अवधारणा के अनुसार जिनको ग्रामीण क्षेत्र में प्रतिव्यक्ति 2400 कैलोरी प्रतिदिन तथा शहरी क्षेत्र में 2100 कैलोरी प्रतिदिन के हिसाब से पोषक शक्ति नहीं प्राप्त होती है उनको गरीबी रेखा से नीचे माना जाता है। गरीबी को समाप्त करने के लिए सरकार अनेक गरीबी निवारक कार्यक्रम चलाये हुए है जिससे लोगो की आय का सृजन हो। यद्यपि सरकार विभिन्न योजनाओं के माध्यम से रोजगार के नवीन अवसर पैदा करने तथा युवाओं की आय में सकारात्मक वृद्धि करने के प्रयास कर रही है। तथापि इन समस्याओं को दूर करने के लिए सरकार को अभी और गम्भीरता से अपने प्रयासों को लागू करना होगा। इस इकाई के अध्ययन से आप आर्थिक समस्याओं में सर्वाधिक प्रमुख समस्या गरीबी के कारणों,निवारण के उपाय एवं उसके प्रभाव की व्याख्या कर सकेंगे।

शब्दावली
  • बी.पी.एल. - गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगो को कहते है।
  • गरीबी का दुश्चक्र - अल्प विकसित देशों के आर्थिक विकास में व्यवधान डालने वाली उन समस्यओं एवं बाधाओं से है जो इन देशों के गरीबी के कारण व परिणाम के रूप में' वृत्ताकार आकार में घटित होती रहती है।
  • प्रति व्यक्ति आय - राष्ट्रीय आय में कुल जनसंख्या का भाग देने पर प्रति व्यक्ति आय प्राप्त होती है।
  • मानव विकास सूचकांक - विकास के तुलनात्मक अध्ययन हेतु मानव विकास रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र के विकास कार्यक्रम द्वारा (यू.एन.डी.पी.) द्वारा मानव विकास सूचकांक का निर्माण किया गया। इस सूचकांक को जीवन प्रत्याशा, शैक्षिक योग्यता तथा क्रय शक्ति आधारित प्रति व्यक्ति आय को शामिल करके निर्मित किया गया है एवं वर्तमान समय में यह विकास का महत्वपूर्ण पैमाना है।
  • महिला सशक्तिकरण - महिला सशक्तिकरण से तात्पर्य महिलाओं के आर्थिक सामाजिक उत्थान के साथ-साथ राजनैतिक चेतना के ऐसे विकास है जहां महिला समाज के हर क्षेत्र में स्वतन्त्रता तथा समाना पूर्वक योगदान कर सके एवं प्रत्येक स्तर पर निर्णय निर्माण की प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी निभा सके।
  • ग्रामीण विकास - ग्रामीण स्तर पर सभी को बुनियादी सुविधायें उपलब्ध कराते हुये ग्रामीण जीवन स्तर सुधार करने की प्रक्रिया को ग्रामीण विकास कहते है।
  • क्रय शक्ति - खरीदने की क्षमता को कहते है।

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