समाज किसे कहते हैं? अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं | samaj kise kahate hain

उद्देश्य

समाजशास्त्र में सामाजिक यथार्थता को व्यक्त करने हेतु अनेक अवधारणाओं (जिन्हें संकल्पनाएँ, संबोध अथवा संप्रत्यय भी कहा जाता है) का प्रयोग किया जाता है। इन्हीं से उस विषय की शब्दावली का निर्माण होता है। उदाहरणार्थ-समाज, सामाजिक समूह, समुदाय, समिति, संस्था, संस्कृति, प्रस्थिति, भूमिका, व्यक्तित्व, समाजीकरण, सामाजिक स्तरीकरण, सामाजिक गतिशीलता, तथ्य, अनुसन्धान, सिद्धान्त आदि अवधारणाएँ ही हैं। विषय के मूल ज्ञान हेतु इन अवधारणाओं को स्पष्ट रूप से समझना अनिवार्य होता है।
प्राकृतिक विज्ञानों में प्रत्येक अवधारणा का प्रयोग विशिष्ट अर्थ में किया जाता है, जबकि सामाजिक विज्ञानों में ऐसा नहीं है। इस इकाई में समाज, मानव एवं पशु समाज, की अवधारणाओं को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।

प्रस्तावना

हम सब लोग समाज में रहते हैं। समाज के बिना हमारा जीवन सम्भव नहीं है। इसीलिए यह भी कहा जाता है कि “जहाँ जीवन है, वहाँ समाज भी है।” वास्तव में, व्यक्ति एक-दूसरे के साथ सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करते हैं। इनसे ही समूहों एवं समाज का निर्माण होता है। समाज का अध्ययन होने के नाते समाज समाजशास्त्र की सर्वाधिक प्रमुख एवं प्राथमिक अवधारणा मानी जाती है।

समाज

'समाज' शब्द का प्रयोग हम बहुधा दैनिक बोलचाल की भाषा में करते रहते हैं। सामान्य बोलचाल की भाषा में 'समाज' शब्द का प्रयोग व्यक्तियों के समूह अथवा संकलन के लिए किया जाता है। उदाहरण के लिए हम हिन्दू समाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज, ब्रह्म समाज, शिक्षक समाज, छात्र समाज, स्त्री समाज इत्यादि शब्दों का प्रयोग आये दिन करते हैं। इन शब्दों में हम ‘समाज' शब्द का प्रयोग सामान्य अर्थ में करते हैं अर्थात् जब हम ‘शिक्षक समाज' की बात करते हैं तो उस समय हमारे मन में इसका तात्पर्य, ‘शिक्षकों का एक समूह' होता है। परन्तु इस अर्थ में 'समाज' शब्द की कोई स्पष्ट व्याख्या दृष्टिगत नहीं हो पाती है। समाजशास्त्र में 'समाज' शब्द का प्रयोग एक निश्चित एवं विशिष्ट अर्थ में किया जाता है।

समाज का अर्थ एवं परिभाषाएँ

समाज का विज्ञान होने के नाते समाजशास्त्र में 'समाज' शब्द का प्रयोग मनमाने अर्थ में नहीं किया जाता है। समाजशास्त्र में व्यक्तियों के समूह या संकलन (एकत्रीकरण) मात्र को ही समाज नहीं कहा जाता है। व्यक्तियों में पाए जाने वाले पारस्परिक सम्बन्धों की व्यवस्था को ही समाज कहा जाता है। अन्य शब्दों में यह कहा जा सकता है कि समाज का निर्माण मात्र व्यक्तियों के संकलन से नहीं होता, इसके लिए उनमें पाए जाने वाले सामाजिक सम्बन्धों का होना अनिवार्य है। मैकाइवर एवं पेज (Maclver and Page) ने इस सन्दर्भ में उचित ही कहा है कि, “समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल (Web) है।” सामाजिक सम्बन्धों के लिए तीन बातें आवश्यक हैं-
प्रथम, व्यक्तियों को एक-दूसरे का आभास (जानकारी) होना, द्वितीय, उनमें अर्थपूर्ण व्यवहार होना तथा तृतीय, उनका एक-दूसरे के व्यवहार से प्रभावित होना। सरल शब्दों में यह कहा जा सकता है कि व्यक्ति आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं। विविध आवश्यकताओं (जैसे आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक, परिवार सम्बन्धी या यौन आवश्यकताएँ इत्यादि) की पूर्ति के लिए उनमें अर्थपूर्ण व्यवहार होता है। यह व्यवहार एक-दूसरे की क्रियाओं से प्रभावित होता है। परस्पर अन्तक्रिया करते हुए व्यक्ति जिन सामाजिक सम्बन्धों के जाल में बँध जाते हैं, उसी को समाजशास्त्र में 'समाज' कहा जाता है।
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सामाजिक सम्बन्धों का निर्माण तभी होता है जब एक से अधिक व्यक्ति (कर्ता) परस्पर सम्पर्क स्थापित करते हैं तथा एक-दूसरे से अन्तक्रिया करते हैं। साथ ही यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि सामाजिक सम्बन्ध स्थायी एवं अस्थायी दोनों प्रकार के होते हैं। उदाहरणार्थ-परिवार के सदस्यों में स्थायी सम्बन्ध पाए जाते हैं, जबकि एक डॉक्टर और मरीजों, एक दुकानदार और ग्राहकों, एक बस कण्डक्टर तथा बस में बैठे यात्रियों में अस्थायी सम्बन्ध पाए जाते हैं। सामाजिक सम्बन्धों की प्रकृति सहयोगी एवं असहयोगी दोनों प्रकार की हो सकती है। सामाजिक सम्बन्ध असंख्य होते हैं जिसके कारण इनकी प्रकृति अत्यन्त जटिल होती है।

समाज का निर्माण इन्हीं विविध प्रकार के असंख्य सामाजिक सम्बन्धों के आधार पर होता है, परन्तु यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि समाज मात्र सामाजिक सम्बन्धों का ढेर नहीं है। सामाजिक सम्बन्धों के व्यवस्थित ताने-बाने को ही हम समाज कहते हैं।

किंग्सले डेविस (Kingsley Davis) ने इस सन्दर्भ में यह कहा है कि, "जब सामाजिक सम्बन्धों की एक व्यवस्था पनपती है तभी हम उसे समाज कहते हैं।" अतः समाजशास्त्र में समाज का अर्थ सामाजिक सम्बन्धों का एक सुव्यवस्थित ताना-बाना अथवा जाल है।

समाज की कोई एक सर्वमान्य परिभाषा देना कठिन है क्योंकि इस शब्द को विभिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न अर्थों में परिभाषित किया है।

गिडिंग्स (Giddings) के अनुसार, “समाज स्वयं एक संघ है, संगठन है, औपचारिक सम्बन्धों का एक ऐसा योग है जिसमें सहयोग देने वाले व्यक्ति परस्पर सम्बन्धों द्वारा जुड़े रहते हैं।” पारसन्स (Parsons) के अनुसार, “समाज को उन मानव सम्बन्धों की पूर्ण जटिलता के रूप में परिभाषित किया जाता है, जो साधन-साध्य सम्बन्धों के रूप में क्रियाओं के करने से उत्पन्न हुए हैं, चाहे ये यथार्थ हों या प्रतीकात्मक।"

मैकाइवर एवं पेज के अनुसार, “समाज रीतियों, कार्य-प्रणालियों, अधिकार व पारस्परिक सहयोग, अनेक समूहों तथा उनके विभागों, मानव व्यवहार पर नियन्त्रणों एवं स्वतन्त्रताओं की व्यवस्था है। इस सदैव परिवर्तित होने वाली जटिल व्यवस्था को ही हम समाज कहते हैं। यह सामाजिक सम्बन्धों का जाल है तथा यह सदैव परिवर्तित होता रहता है।" इस परिभाषा में मैकाइवर एवं पेज ने समाज को “सामाजिक सम्बन्धों का जाल' कहा है। उनका यह कथन समाज की अमूर्तता की ओर संकेत करता है। इसी भाँति, जिन्सबर्ग (Ginsberg) के अनुसार, “समाज ऐसे व्यक्तियों का संग्रह है जो कुछ सम्बन्धों अथवा व्यवहार की विधियों द्वारा संगठित है तथा उन व्यक्तियों से भिन्न है जो इस प्रकार के सम्बन्धों द्वारा बँधे हुए नहीं हैं अथवा जिनके व्यवहार उनसे भिन्न हैं।"

रयूटर (Reuter) के अनुसार, “(समाज) एक अमूर्त धारणा है, जोकि एक समूह के सदस्यों के बीच पाये जाने वाले पारस्परिक अन्तर्सम्बन्धों की जटिलता का बोध कराती है।" इंकलिस (Inkeles) के अनुसार, “ऐसी सामाजिक व्यवस्था जो संस्थाओं से बड़ी है तथा समुदायों से भिन्न; फिर भी यह संस्थाओं के साथ न तो स्वत: उपस्थित रहती है, न ही प्रत्येक समुदाय से इसका उद्भव होता है। यह सबसे बड़ी इकाई है, जिसका सम्बन्ध समाजशास्त्र से है तथा इसे ही समाज कहा जाता है।” लेपियर (LaPiere) के अनुसार, "समाज मनुष्यों के एक समूह का नाम नहीं है वरन् यह ऐसी जटिल अन्तक्रियाओं का प्रतिमान है जो मनुष्यों के बीच उत्पन्न होता है।"

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि समाज को मूर्त एवं अमूर्त दोनों रूपों में परिभाषित किया
है। वस्तुतः समाज शब्द जितना सरल है उसकी परिभाषा देना उतना ही एक कठिन कार्य है।

इसीलिए जी० डी० मिशेल (G. D. Mitchell) ने उचित ही लिखा है कि, “समाजशास्त्री की शब्दावली में 'समाज' शब्द एक अत्यधिक अस्पष्ट एवं सामान्य शब्द है।" तथापि, अधिकांश विद्वान् समाज को सामाजिक सम्बन्धों की एक व्यवस्था, जाल अथवा ताना-बाना मानते हैं। व्यक्ति सामाजिक सम्बन्धों की स्थापना मूल रूप से अपनी विविध प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति की प्रक्रिया में करता है। क्योंकि सामाजिक सम्बन्ध अमूर्त होते हैं, अत: समाज को भी अमर्त माना गया है अर्थात इसका कोई निश्चित रूप नहीं है। अगर समाज को व्यक्तियों के मर्त समूह के रूप में परिभाषित किया जाता है तो इसे 'समाज' न कहलाकर ‘एक समाज' कहा जाता है।

समाज के आधारभूत तत्त्व

समाज का अर्थ जान लेने के पश्चात् इसके निर्णायक अथवा आधारभूत तत्त्वों का पता होना भी अनिवार्य है। इन आधारभूत तत्त्वों को कई बार समाज की सामाजिक आवश्यकताएँ (Social necessities) भी कहा जाता है। ये निर्णायक तत्त्व प्रत्येक समाज, चाहे वह पशु समाज हो या मानव समाज, में पाए जाते हैं। परन्तु समाज के आधारभूत तत्त्वों के बारे में विद्वानों में थोड़े-बहुत मतभेद पाए जाते हैं।
किंग्सले डेविस ने समाज की प्राथमिक आवश्यकताओं या निर्णायक तत्त्वों को निम्नलिखित चार श्रेणियों में विभाजित किया है-

1. जनसंख्या का प्रतिपालन
जनसंख्या को बनाए रखने के लिए कुछ आवश्यकताएँ होती हैं। इनकी पूर्ति के द्वारा ही जनसंख्या का निर्वाह होता है। वे आवश्यकताएँ निम्नांकित हैं
  • पोषण का प्रबन्ध- जनसंख्या में सदस्यों को उचित पालन-पोषण की आवश्यकता होती है। भोजन के द्वारा उन्हें जीवन सम्बन्धी सुरक्षा की प्राप्ति होती है।
  • क्षति के विरुद्ध संरक्षण- जनसंख्या को बनाए रखने के लिए सदस्यों को सुरक्षा प्रदान करना समाज का दूसरा कार्य है। बाढ़, महामारी, अकाल इत्यादि ऐसी दुर्घटनाएँ हैं जिनसे मनुष्य का सम्पूर्ण अस्तित्व नष्ट हो जाता है। समाज इनके विरुद्ध अपने सदस्यों को सुरक्षा प्रदान करता है।
  • नए जीवों का पुनरुत्पादन- नवीन प्राणियों की उत्पत्ति समाज की जनसंख्या को बनाए रखने में सहायक होती है। यदि उत्पत्ति न हो, तो समाज ही समाप्त हो जाएगा। इसलिए नवीन प्राणियों की उत्पत्ति समाज का आवश्यक तत्त्व है। 

2. जनसंख्या के बीच कार्य का विभाजन
सदस्यों में उचित श्रम-विभाजन समाज के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए आवश्यक है। इससे मनुष्यों में पारस्परिक सहयोग की भावना पनपती है। सहयोग की भावना के होने से संगठन में दृढ़ता भी आती है। श्रम-विभाजन से मनुष्यों को पदों के विषय में जानकारी प्राप्त होती है और वे पदों के अनुरूप दायित्व का निर्वाह करते हैं।

3. समूह का संगठन
समाज के सदस्यों के मध्य एकता की भावना समाज का अनिवार्य तत्त्व है। सम्पर्कों के आधार पर प्राणियों में अन्तक्रियाएँ होती हैं। इसी के फलस्वरूप उनमें सहयोगात्मक व असहयोगात्मक भावनाएँ विकसित होती हैं। समूह सभी सदस्यों से सहिष्णुता एवं सहयोग की आशा करता है। भेदभाव, असहयोग, असहिष्णुता आदि कटुता को जन्म देते हैं। इसीलिए समाज सदस्यों से इनकी आशा नहीं करता है। अत: इसमें दो बातें प्रमुख हैं-
  • सदस्यों के मध्य सम्पर्क की प्रेरणा, तथा
  • पारस्परिक सहिष्णुता की प्रेरणा तथा बाहरी तत्त्वों का प्रतिरोध।

4. सामाजिक व्यवस्था की निरन्तरता
प्रत्येक समाज के स्थायित्व एवं निरन्तरता के लिए सामाजिक व्यवस्था में निरन्तरता एवं स्थिरता अनिवार्य है। इसी के फलस्वरूप व्यवस्था पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती रहती है। इस प्रकार सामाजिक व्यवस्था का स्थिर होना अत्यन्त ही आवश्यक है। टी० बी० बॉटोमोर ने भी समाज के अस्तित्व के लिए अनिवार्य व्यवस्थाओं व प्रक्रियाओं का उल्लेख किया है जिन्हें समाज की प्रकार्यात्मक पूर्व-आवश्यकताएँ कहा जा सकता है। जो न्यूनतम आवश्यकताएँ प्रतीत होती हैं, वे निम्नलिखित हैं-
  1. संचार की एक व्यवस्था,
  2. वस्तुओं के उत्पादन तथा वितरण से सम्बन्धित आर्थिक व्यवस्था,
  3. नवीन पीढ़ी का समाजीकरण करने वाली व्यवस्थाएँ (परिवार व शिक्षा सहित),
  4. सत्ता व शक्ति के वितरण की व्यवस्था, तथा
  5. सामाजिक समन्वय को बनाए रखने अथवा बढ़ाने के लिए संस्कारों की व्यवस्था (जो महत्त्वपूर्ण घटनाओं; जैसे जन्म, वयस्कता, कोर्टशिप, विवाह तथा मृत्यु आदि को सामाजिक मान्यताएँ प्रदान कर सके)।
हेरी एम० जॉनसन के अनुसार समाज के चार अनिवार्य तत्त्व हैं। ये निम्नलिखित हैं-

निश्चित भू-भाग
समाज एक भू-भागीय समूह है। व्यक्तियों द्वारा किन्हीं निश्चित सीमाओं में रहने के परिणामस्वरूप ही समाज का निर्माण होता है।

यौन प्रजनन
समाज में सदस्यों की भर्ती तथा समाज की निरन्तरता, समूह के भीतर ही की जाने वाली यौन प्रजनन प्रक्रिया द्वारा होती है।

सर्वांगव्यापी संस्कृति
बिना संस्कृति के समाज अपूर्ण है। अत: एक सर्वांगव्यापी संस्कृति का होना समाज के लिए अनिवार्य है। 

आत्मनिर्भरता
समाज का एक अन्य अनिवार्य तत्त्व यह है कि वह किसी समूह का उपसमूह नहीं होता। इस कसौटी के आधार पर उन समूहों को भी समाज कहा जा सकता है जोकि राजनीतिक दृष्टि से अन्य समूह के अधीन होते हुए भी पूर्णत: उसमें समा नहीं पाए हैं। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि विभिन्न विद्वानों ने समाज के आधारभूत तत्त्वों की विवेचना समाज के अपने अर्थ के अनुरूप की है।

समाज की प्रकृति अथवा समाज की विशेषताएँ

विभिन्न समाजशास्त्रियों ने समाज की परिभाषाएँ जिन शब्दों में दी हैं उनसे समाज की कुछ विशेषताएँ भी स्पष्ट होती हैं। समाज की कतिपय प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. समाज सामाजिक सम्बन्धों की व्यवस्था है
बिना सामाजिक सम्बन्धों के समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है। समाज के सदस्यों में पाए जाने वाले निश्चित सामाजिक सम्बन्धों के जाल अथवा व्यवस्था द्वारा सभी सदस्य एक-दूसरे से बँधे रहते हैं। ये सम्बन्ध अव्यवस्थित, मनमाने अथवा पूर्ण रूप से स्वतन्त्र नहीं होते हैं, अपितु इनकी स्थापना हेतु समाज में पाए जाने वाले सांस्कृतिक आदर्शों एवं मूल्यों के अनुरूप होती है। समाज के सदस्य इन सम्बन्धों की स्थापना अपनी मानसिक सन्तुष्टि, सामान्य हितों की पूर्ति, पारस्परिक निर्भरता तथा सामाजिक दायित्वों के निर्वाह हेतु करते हैं। विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित इन्हीं सम्बन्धों द्वारा सदस्यों के व्यक्तित्व का विकास भी होता है। सदस्यों में पाए जाने वाले व्यापक सम्बन्धों के एक निश्चित ढाँचे अथवा व्यवस्था को ही समाज कहा जाता है।

2. समाज अमूर्त है
समाज मनुष्यों का मूर्त समूह कदापि नहीं है, अपितु यह सदस्यों में पाए जाने वाले व्यापक सामाजिक सम्बन्धों का ताना-बाना या व्यवस्था है। क्योंकि सम्बन्धों का कोई स्वरूप नहीं होता, इसलिए समाज भी अमूर्त होते हैं। इस सन्दर्भ में रयूटर (Reuter) ने उचित ही लिखा है कि, "जिस प्रकार जीवन एक वस्तु नहीं है, बल्कि जीवित रहने की प्रक्रिया है, उसी प्रकार समाज एक वस्तु नहीं है, बल्कि सम्बन्ध स्थापित करने की प्रक्रिया है।” राइट (Wright) की इस परिभाषा से भी समाज की अमूर्तता के बारे में पता चलता है कि, "समाज व्यक्तियों का समूह नहीं है, यह समूह के सदस्यों के मध्य स्थापित सम्बन्धों की व्यवस्था है।" सम्बन्ध क्योंकि अमूर्त होते हैं इसलिए समाज भी अमूर्त है।

3. समाज में सहयोग एवं संघर्ष
समाज के सदस्यों के मध्य सहयोगात्मक तथा असहयोगात्मक दोनों प्रकार के सम्बन्ध पाये जाते हैं। ये दोनों ही प्रकार के सम्बन्ध समाज के लिए आवश्यक भी हैं। सहयोग के द्वारा सामाजिक सम्बन्ध निर्मित होते हैं। संघर्ष के द्वारा सामाजिक समस्याओं का निराकरण होता है। सहयोग और संघर्ष एक प्रकार से जीवन के दो पहलू हैं। यदि इन्हें एक-दूसरे का पूरक भी कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस सम्बन्ध में जॉर्ज सिमेल (Georg Simmel) का कथन है कि समाज में दो प्रकार की शक्तियों का समावेश होता है—एक तो वे शक्तियाँ जो मनुष्यों को एक सूत्र में बाँधती हैं और दूसरी वे शक्तियाँ जो उन्हें पृथक् कर देती हैं।

(अ) समाज में सहयोग
मानव समाज एक जटिल व्यवस्था है। समाज के सदस्य एक-दूसरे से सहयोग करते हुए अपने लक्ष्यों (आवश्यकताओं) की पूर्ति करते हैं। मनुष्य की आवश्यकताओं की कोई सीमा नहीं है। यह भी सम्भव नहीं है कि वह प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति स्वयं ही कर ले। अत: मानव का सामाजिक जीवन सहयोग पर ही आधारित होता है। सहयोग दो प्रकार का होता है-

प्रत्यक्ष सहयोग
प्रत्यक्ष सहयोग वहाँ प्रदान किया जाता है जहाँ व्यक्ति आमने-सामने (Face-to-face) के सम्बन्ध रखते हैं। उदाहरण के लिए-परिवार में प्रत्येक सदस्य आमने-सामने का सम्बन्ध रखता है। वे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक-दूसरे से सहयोग करते हैं। प्रत्यक्ष सहयोग में समान कार्य व उद्देश्य का होना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इस सन्दर्भ में यह स्मरण रखना होगा कि प्रत्यक्ष सहयोग का अर्थ स्वयं के कार्यों से अन्य को लाभ पहुंचाना नहीं है। इसका अर्थ निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए मिल-जुलकर प्रयास करना होता है। ऐसा सहयोग सरल समाजों में पाया जाता है।

अप्रत्यक्ष सहयोग
अप्रत्यक्ष सहयोग जटिल समाजों में अधिक पाया जाता है। इसमें उद्देश्यों व लक्ष्यों में तो समानता होती है, परन्तु उसकी प्राप्ति हेतु सभी सदस्य मिलकर एक साथ एक-सा प्रयत्न नहीं करते। सदस्य इन उद्देश्यों व लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए अलग-अलग प्रयास करते हैं। वे अलग-अलग साधन भी अपना सकते हैं। अप्रत्यक्ष सहयोग का अर्थ समान उद्देश्यों को पाने के लिए असमान कार्य करने से है। उदाहरण के लिए रेलगाड़ी तैयार करना। अलग-अलग लोग अपनी योग्यता और पद के अनुसार रेलगाड़ी के विभिन्न हिस्से बनाते हैं, लेकिन सभी का एक ही उद्देश्य है कि रेलगाड़ी बन जाए। इस प्रकार वे अप्रत्यक्ष सहयोग से रेलगाड़ी का निर्माण करते हैं। श्रम-विभाजन (Division of labour) अप्रत्यक्ष सहयोग का सर्वोत्तम उदाहरण है। समाज में महत्त्व की दृष्टि से दोनों प्रकार के सहयोग एक समान हैं।

(ब) समाज में संघर्ष
प्रत्येक मनुष्य जैविक, मानसिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से भिन्न होता है। अतएव समाज में संघर्ष की उत्पत्ति होती है। समाज में मनुष्य अपनी आवश्यकताओं, उद्देश्यों व लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए संघर्ष का आश्रय लेता है। वस्तुत: जीवन एक संघर्ष है। संघर्ष को भी दो भागों में विभाजित किया जा सकता है

प्रत्यक्ष संघर्ष
प्रत्यक्ष सम्पर्क होने पर विकसित संघर्ष को प्रत्यक्ष संघर्ष कहा जाता है। दो व्यक्तियों या समूहों में संघर्ष (जैसे साम्प्रदायिक दंगे, युद्ध, दो मित्रों में झगड़ा, परिवार के सदस्यों में संघर्ष या पति-पत्नी के मध्य संघर्ष तथा विवाह-विच्छेद आदि) प्रत्यक्ष संघर्ष के उदाहरण हैं।

अप्रत्यक्ष संघर्ष
इसके अन्तर्गत व्यक्ति अप्रत्यक्ष रूप से दूसरे व्यक्तियों के हितों में बाधा पहुँचाने की चेष्टा करता है। अप्रत्यक्ष संघर्ष में व्यक्ति अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए दूसरों के स्वार्थों का हनन करता है, लेकिन इसमें वह दूसरों से प्रत्यक्ष रूप से परिचित नहीं होता है। सभी प्रकार की प्रतियोगिताएँ अप्रत्यक्ष संघर्ष का उदाहरण हैं। उदाहरण के लिए-साइकिल बनाने वाली दो कम्पनियाँ हैं। हो सकता है कि उनके मालिक व्यक्तिगत रूप से एक-दूसरे को न जानते हों, लेकिन दोनों यह चाहते हैं कि उनका माल बाजार में अधिक बिके तथा इसके लिए वे अनेक प्रयत्न करते हैं। यह अप्रत्यक्ष संघर्ष है। अप्रत्यक्ष संघर्ष का क्षेत्र आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक या सामाजिक हो सकता है।

4. समाज में समानता और विभिन्नता
समाज में समानता तथा विभिन्नता पायी जाती है। बाह्य दृष्टिकोण से दोनों परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं, पर वास्तविकता में ये परस्पर पूरक हैं। इन्हीं के द्वारा समाज को स्थायित्व व निरन्तरता प्राप्त होती है। समानता के कारण संस्थाओं का जन्म होता है। विभिन्नता के कारण संस्थाओं में परिवर्तन तथा कार्यों में सुधार होता है।

(अ) समाज में समानता
समाज के निर्माण में सामाजिक सम्बन्धों का अत्यधिक महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। सामाजिक सम्बन्धों के अभाव में समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती। सम्बन्धों की उत्पत्ति के लिए पारस्परिक चेतना एवं समानता का होना अत्यन्त आवश्यक है। यह समानता शारीरिक अथवा मानसिक रूप में हो सकती है। इसी समानता के कारण चेतना होगी तथा उससे सम्बन्धों का जन्म होगा। किसी निर्जीव वस्तु के साथ व्यक्ति अपना सम्बन्ध स्थापित नहीं कर सकता है। इसका कारण यह है कि दोनों में पारस्परिक चेतना का जन्म नहीं होता, अत: सम्बन्धों की उत्पत्ति नहीं हो पाती है। किन्तु यदि दो मनुष्य हैं व उनमें किसी भी क्षेत्र में समानता पाई जाती है तो उनमें सम्बन्धों का जन्म होगा। गिडिंग्स ने इसे 'समानता की चेतना' कहा है। मैकाइवर एवं पेज का विचार है कि यदि हम एक विश्व के सिद्धान्त पर विजय पाना चाहते हैं तो ऐसा तभी सम्भव हो सकता है जब हम समस्त मानव प्रजाति के आधारभूत तत्त्व को समानता की मान्यता प्रदान करें।

(ब) समाज में विभिन्नता
समाज के लिए विभिन्नता भी महत्त्व रखती है। यद्यपि बाहरी रूप से विभिन्नताएँ समानताओं के विपरीत प्रतीत होती हैं, तथापि वास्तविकता में ये उनकी पूरक हैं। यदि समाज के सभी सदस्य जैविक व मानसिक दृष्टिकोण में समान होते, तो मानव व्यवहार यन्त्रवत् हो जाता। ऐसी अवस्था में मानव समाज व पशु समाज के मध्य कोई अन्तर नहीं रह जाता। मैकाइवर एवं पेज का कथन है कि यदि समाज के सदस्य सभी क्षेत्रों में एक-दूसरे के समान होते, तो उनके सम्बन्ध उतने ही सीमित हो जाते जितने कि चींटियों तथा मधुमक्खियों के समाज में पाए जाते हैं। मनुष्य के अनेक सामाजिक उद्देश्य हैं; जैसे- शरीर रक्षा, भोजन प्राप्त करना, सांस्कृतिक कार्य, सामाजिक कार्य आदि। इन लक्ष्यों या उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए भिन्न-भिन्न तरीके या साधन हैं। समाज में इसी कारण व्यक्तियों के विभिन्न पद एवं भूमिकाएँ होती हैं। समाज में अनेक भिन्नताएँ: जैसे पेशे में भिन्नता, व्यापार में भिन्नता, कार्यों में भिन्नता आदि पाई जाती हैं। योग्यता में भिन्नता के कारण ही समाज में व्यक्तियों को उच्च व निम्न स्थान प्रदान किए जाते हैं। ऐसे समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती, जहाँ सिर्फ पुरुष ही पुरुष या स्त्रियाँ ही स्त्रियाँ हैं।
समाज में विद्यमान विभिन्नताओं को निम्नलिखित तीन प्रमुख प्रकारों में विभक्त किया जा सकता है-
  1. जैविक भिन्नताएँ - इनका उदाहरण शारीरिक संरचनाएँ व यौन भिन्नताएँ हैं।
  2. प्राकृतिक भिन्नताएँ - इसके अन्तर्गत मानसिक भिन्नताओं व कार्यक्षमताओं में अन्तर आदि आते हैं।
  3. सामाजिक तथा सांस्कृतिक भिन्नताएँ - उद्देश्यों, मनोवृत्तियों, प्रथाओं, रहन-सहन, जीवन-पद्धति व रुचियों में भिन्नताएँ सामाजिक-सांस्कृतिक भिन्नताएँ हैं।

5. समाज का आधार अन्योन्याश्रितता है
मनुष्यों की अनेक आवश्यकताएँ होती हैं। इन आवश्यकताओं को जैविक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक आदि उपखण्डों में बाँटा जा सकता है। लेकिन किसी व्यक्ति के लिए यह सम्भव नहीं कि वह इन आवश्यकताओं को अपने आप या बिना किसी की सहायता के पूरा कर ले। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसे दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता है। मनुष्य की एक प्रमुख आवश्यकता यौन तृप्ति है। इसके लिए स्त्री-पुरुष परस्पर निर्भर होते हैं। बाल्यावस्था में बच्चा अपने पालन-पोषण एवं शिक्षण के लिए परिवार के सदस्यों पर (विशेषकर माता-पिता पर) निर्भर होता है। माता-पिता के वृद्ध होने पर उन्हें सन्तान पर निर्भर होना पड़ता है। दुर्खीम के अनुसार आधुनिक समाजों में व्यक्ति श्रम-विभाजन के कारण एक-दूसरे पर आश्रित होते हैं।

6. समाज केवल मनुष्यों तक ही सीमित नहीं है
पारस्परिक सम्बन्धों से ही समाज का जन्म होता है। इन सम्बन्धों की स्थापना के लिए पारस्परिक जागरूकता का होना आवश्यक है। सभी जीवधारियों में जागरूकता पाई जाती है, भले ही जागरूकता की मात्रा कम हो। इसलिए जीवधारियों, चाहे वे पशु हो या कीट-पतंगे हों, में समाज पाया जाता है। मधुमक्खियों, चींटियों तथा दीमकों में समाज पाया जाता है। उनमें श्रम-विभाजन भी पाया जाता है तथा सामाजिक व्यवस्था भी। हाथियों में सुनियोजित सामाजिक व्यवस्था पाई जाती है।

7. निरन्तर परिवर्तनशील
समाज एवं उसमें व्याप्त सम्बन्धों की व्यवस्था स्थिर न होकर परिवर्तनशील है। समाज में समयानुसार निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं। मैकाइवर एवं पेज ने सामाजिक सम्बन्धों की सदैव परिवर्तित होने वाली जटिल व्यवस्था को ही समाज कहा है। इनके शब्दों में, यह सामाजिक सम्बन्धों का जाल है जो सदैव परिवर्तित होता रहता है।

'समाज' एवं 'एक समाज'

सामान्य शब्दों में लोग 'समाज' तथा 'एक समाज' दोनों शब्दों का प्रयोग एक ही अर्थ में करते हैं, किन्तु समाजशास्त्र में इन दोनों शब्दों का प्रयोग विशिष्ट अर्थ में किया जाता है। दोनों शब्द पर्यायवाची नहीं हैं अपितु दोनों में पर्याप्त अन्तर पाया जाता है। समाज तो सामाजिक सम्बन्धों का ताना-बाना या जाल है। क्योंकि सामाजिक सम्बन्ध अमूर्त हैं अत: इन सम्बन्धों के जाल द्वारा निर्मित समाज भी अमूर्त है। 'समाज' शब्द का प्रयोग सामान्य अर्थ में किया जाता है, जबकि ‘एक समाज' शब्द का प्रयोग किसी विशिष्ट समाज के लिए किया जाता है, जिसकी निश्चित भौगोलिक सीमाएँ हैं तथा जो अन्य समाजों से भिन्न है। उदाहरण के लिए भारतीय समाज, अमेरिकी समाज, फ्रांसीसी समाज इत्यादि ‘एक समाज' के ही उदाहरण हैं।

रयूटर तथा जिन्सबर्ग की एक समाज की परिभाषा से 'समाज' एवं 'एक समाज' में अन्तर और अधिक स्पष्ट हो जाता है। रयूटर (Reuter) के अनुसार ‘एक समाज' पुरुषों, स्त्रियों तथा बच्चों का स्थायी तथा निरन्तर चलने वाला समूह है जिसमें लोग स्वतन्त्र रूप से सांस्कृतिक स्तर पर अपनी प्रजाति को जीवित एवं स्थायी रखने में सामर्थ होते हैं। ‘एक समाज' में मनुष्य अपना सामान्य जीवन व्यतीत करता है।

जिन्सबर्ग (Ginsberg) के अनुसार ‘एक समाज' व्यक्तियों का वह समूह है जो किन्हीं सम्बन्धों अथवा व्यवहार के तरीकों द्वारा संगठित है और जो उन व्यक्तियों से भिन्न है जो इन सम्बन्धों से नहीं बँधे हैं अथवा जो उनसे भिन्न व्यवहार करते हैं।

सभी ‘एक समाज' एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। प्रत्येक ‘एक समाज के अपने मूल्य, आदर्श तथा कार्यपद्धति होती है। ‘एक समाज' का एक और आवश्यक तत्त्व है-निश्चित भू-भाग, जिसके कारण समानता की भावना का जन्म होता है।
'समाज' तथा 'एक समाज' में निम्नलिखित अन्तर पाए जाते हैं-
  • 'समाज' सामाजिक सम्बन्धों का जाल है जिसमें सामाजिक सम्बन्धों की सम्पूर्ण व्यवस्था पाई जाती है, जबकि 'एक समाज' व्यक्तियों का समूह है जिसमें सम्बन्ध विशेषीकृत होते हैं।
  • 'समाज' सम्बन्धों का जाल होने के कारण अमूर्त है, जबकि ‘एक समाज' व्यक्तियों का समूह होने के नाते मूर्त है।
  • समाज' शब्द का प्रयोग विस्तृत क्षेत्र के लिए होता है तथा यह ‘एक समाज' से जटिल होता है, जबकि 'एक समाज' का प्रयोग सीमित क्षेत्र के लिए होता है तथा यह अपेक्षाकृत सरल संगठन होता है।
  • 'समाज' के सदस्यों में व्यवहारों, मनोवृत्तियों और क्रियाओं का एक होना आवश्यक नहीं वरन् इनमें भिन्नता पाई जाती है। ‘एक समाज' के सदस्यों में समानता का कुछ न कुछ सीमा तक होना आवश्यक है, अन्यथा ‘एक समाज' का अस्तित्व ही नहीं होगा।
  • 'समाज' को भौगोलिक सीमाओं के अन्तर्गत नहीं बाँधा जा सकता। इसके विपरीत ‘एक समाज' को भौगोलिक सीमाओं के अन्तर्गत बाँधा जा सकता है।
  • 'समाज' बहु-सांस्कृतिक होता है अर्थात् उसमें एक ही समय पर एक से अधिक संस्कृतियाँ विद्यमान होती हैं। इसके विपरीत ‘एक समाज' में प्रायः एक ही संस्कृति विद्यमान होती है।

मानव एवं पशु समाज

मनुष्य समाज में रहते हैं। परन्तु यह तथ्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि समाज केवल मनुष्यों तक ही सीमित नहीं है, अपितु पशुओं में भी समाज पाया जाता है। अनगिनत अन्य जीव जैसे चीटियाँ, दीमक, मधुमक्खी, बन्दर, लंगूर आदि में भी समाज पाया जाता है। विकास के जीवशास्त्रीय सिद्धान्त के अनुसार मानव का विकास निम्न जीवधारियों में क्रमिक परिवर्तन से हुआ है। परन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि मानव तथा पशु समाज एक ही हैं। मानव और पशु समाज में अत्यधिक अन्तर पाया जाता है। मानव समाज को पशु समाज से भिन्न करने वाला सबसे प्रमुख आधार संस्कृति है। संस्कृति मानव समाज को एक अनुपम समाज बना देती है, जबकि पशु समाज में संस्कृति नहीं पाई जाती।
प्रत्येक समाज को, चाहे वह मानव समाज है या पशु समाज, अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए कुछ अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति करनी पड़ती है। आवश्यकता से तात्पर्य समाज के अस्तित्व की अनिवार्य दशाओं से है। समाज को, प्रत्येक वस्तु की भाँति, अपने अस्तित्व के लिए कुछ दशाओं की आवश्यकता होती है।
इन आवश्यकताओं की रूपरेखा किंग्सले डेविस (Kingsley Davis) ने निम्नलिखित प्रकार से दी है-

1. जनसंख्या का प्रतिपालन
  • (अ) पोषण का प्रबन्ध
  • (ब) क्षति के विरुद्ध संरक्षण तथा
  • (स) नए जीवों का पुनरुत्थान

2. जनसंख्या के बीच कार्य विभाजन

3. समूह का संगठन
  • (अ) सदस्यों के बीच सम्पर्क की प्रेरणा
  • (ब) पारस्परिक सहिष्णुता की प्रेरणा

4. सामाजिक व्यवस्था की निरन्तरता।

पशु समाज

समाज की अनिवार्य सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति समाज द्वारा विभिन्न प्रकार के साधनों का प्रयोग करके की जा सकती है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सामाजिक प्रतिमान (Social patterns) दो प्रकार से निर्धारित होते हैं- आनुवंशिकता द्वारा, तथा संस्कृति द्वारा। सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपनाए गए।
इन दोनों प्रतिमानों के आधार पर समाज का वर्गीकरण निम्नलिखित दो प्रमुख श्रेणियों में किया जा सकता है-
  1. जैविक-सामाजिक व्यवस्था, तथा
  2. सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था।

जैविक- सामाजिक व्यवस्था में समाज की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति के प्रतिमान आनुवंशिकता (पैतृकता) द्वारा निर्धारित होते हैं। इसे हम मानवविहीन समाज (Manless society) अथवा पशु समाज (Animal society) भी कह सकते हैं।

सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था में प्रतिमानों का निर्धारण संस्कृति द्वारा होता है। इसे हम मानव समाज कह सकते हैं। अतः पशु समाज तथा मानव समाज को हम क्रमश: जैविक- सामाजिक व्यवस्था तथा सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था कह सकते हैं।

पशु समाज या जैविक-सामाजिक व्यवस्था
जैविक-सामाजिक व्यवस्था अर्थात् मानवविहीन समाज (पशु समाज) में प्रत्येक प्रकार की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति आनुवंशिकता (पैतृकता) के आधार पर होती है। मानवविहीन समाज में जैविक- सामाजिक व्यवस्था एक समान नहीं है, अपितु विभिन्न जीवों में इसमें आश्चर्यजनक भिन्नता देखी जा सकती है।
किंग्सले डेविस (Kingsley Davis) ने पशु समाज को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में विभाजित किया है

1. कीड़ों का समाज या कीट-पंतग समाज
कीड़ों के समाज का तात्पर्य चींटी, टिड्डा, पतंगा, दीमक इत्यादि से है। ये सभी जीवधारी वंशानुक्रमण पर आधारित होते हैं। ये प्राणी अपने व्यवहारों में कोई परिवर्तन नहीं कर पाते हैं। एकता की भावना खाद्यपूर्ति तक ही सीमित मानी जाती है। इनमें नर तथा मादा में तथा एक ही योनि के जीवों में शारीरिक भिन्नता स्तनपायी समाज की अपेक्षा अधिक होती है। उदाहरणार्थ-कारबरा चीटियों में रानी चींटी; श्रमिक चीटी की अपेक्षा हजार गुना बड़ी होती है। इनमें संरचनात्मक विशेषीकरण का भी अभाव पाया जाता है। परिवार की सदस्य संख्या हजारों में होती है, जीवन काल अल्पायु होता है, इसलिए समाज में स्थायित्व भी कम होता है। इनमें समझने की शक्ति का अभाव होता है।

2. स्तनधारी समाज
पशुओं में स्तनधारी पशुओं का अलग ही महत्त्व पाया जाता है। स्तनधारी पशु उन्हें कहा जाता है जो स्तनपायी अथात् स्तनपान से बड़े होते हैं। स्तनधारी पशुओं में नर व मादा में विशेष अन्तर नहीं होता है; जैसे—कुत्ता-कुतिया, गाय-भैंस, बिल्ली-बिलाव तथा नर चिम्पैंजी तथा मादा चिम्पैंजी में अन्तर (शारीरिक बनावट की दृष्टि से) बहुत कम पाया जाता है। शारीरिक गठन में सादृश्यता होती है। स्तनधारी पशुओं की बनावट जटिल होती है। ये प्रजनन शक्ति से युक्त होते हैं। कीड़ों के समाज में सभी सदस्य प्रजनन शक्ति से युक्त नहीं होते हैं जो प्रजनन शक्ति से युक्त होते हैं। किन्तु पशुओं में ऐसे कुछ भी होते हैं जो प्रजनन शक्ति से युक्त नहीं होते हैं। स्तनधारी पशुओं का समाज छोटा होता है, क्योंकि वे एक बार में एक या कुछ ही बच्चों को जन्म दे सकते हैं। इसी कारण स्तनधारी समाज में स्थायित्व होता है। पशु सामाजिक सीख अनुभव के आधार पर प्राप्त कर सकते हैं तथा वातावरण के साथ अपना अनुकूलन स्थापित कर सकते हैं। इनके यौन व्यवहार पर मौसम का प्रभाव पड़ता है। यह विशेषता कीड़ों के समाज में नहीं पाई जाती है।

3. नर-वानर समाज
नर-वानर समाज स्तनधारी समाज से उच्च स्तर की अवस्था है। डार्विन (Darvin) ने नर-वानरों में मनुष्य को सम्मिलित किया है। इस वर्ग में लंगूर, चिम्पैंजी, बन्दर, गोरिल्ला आदि को सम्मिलित किया जाता है। इनकी विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
  • ये मानसिक व शारीरिक दृष्टि से विकसित होते हैं। प्राकृतिक परिस्थितियों के अनुकूल भली-भाँति कर लेते हैं। मस्तिष्क विकासशील होने के कारण यौन व्यवहारों पर मौसम का कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता। इनके सदस्य आपस में किसी भी मौसम में यौन सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं। ये दूसरों के अनुकरण से नहीं, वरन् प्रेरणाओं में प्रेरित होकर यौन व्यवहार करते हैं। प्राणियों का व्यवहार परिपक्व व व्यवस्थित होता है।
  • बाल्यकाल की अवधि लम्बी होने के कारण मादा पशु एवं बच्चे का सम्पर्क भी स्थायी होता है। प्रजनन कम होता है, जिसके फलस्वरूप परिवार का आकार छोटा होता है।
  • ये परस्पर संचार के लिए आवाज या बोली के माध्यम से, शारीरिक क्रियाओं के माध्यम से, चेहरे के भाव-प्रदर्शन के द्वारा अपनी बात व्यक्त करने का प्रयत्न करते हैं। संचार की प्रक्रिया भाषा से अधिक विकसित रूप में है।
  • इस समाज के प्राणियों में प्रभुत्व की भावना अधिकतर पाई जाती है। जुकरमैन (Zukerman) के अनुसार प्रभुत्व की भावना नर-वानर समाज में पाई जाती है, किन्तु स्तनधारी समाज में इसका अभाव पाया जाता है। प्रत्येक नर-वानर अपने नेता के आदेशों का पालन करता है। आदेशों व आज्ञाओं के उल्लंघन करने पर समाज से निष्कासित कर दिया जाता है।

मानव समाज या सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था
डेविस (Davis) के अनुसार एक जैविक-व्यवस्था के रूप में मानव समाज में नर-वानर समाज की सामान्य विशेषताएँ पाई जाती हैं परन्तु सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था होने के कारण मानव समाज में परिवर्तन, परिवर्द्धन तथा संशोधन सांस्कृतिक स्तर पर होते हैं। वास्तव में, संस्कृति केवल मानव को ही नहीं, अपितु मानव समाज को भी एक अनुपम समाज बना देती है। मनुष्यों का सम्पूर्ण जीवन संस्कृति ही निर्धारित करती है। संस्कृति से ही मनुष्य विवाह तथा यौन सम्बन्ध में, कानून तथा गैर-कानून में, सत्ता तथा प्रभुसत्ता में अन्तर सीखता है। इसीलिए कुछ विद्वानों ने मानव समाज के अध्ययन को संस्कृति का ही अध्ययन बताया है। परन्तु समाजशास्त्री की संस्कृति में रुचि केवल उन्हीं तत्त्वों तक सीमित है जो सामाजिक जीवन से सम्बन्ध रखते हैं, वह केवल वही पहलू चुनता है जो सामाजिक संगठन व सामाजिक व्यवहार से सम्बन्धित हो। एक समाजशास्त्री की सबसे ज्यादा रुचि संस्कृति की उन प्रवृत्तियों से है जो सामाजिक अन्तक्रियाओं, लोकरीतियों, लोकाचारों, कानून, विश्वास तथा विचारों से सम्बन्ध रखती है और ऐसी संस्थाओं से है जो सामाजिक व्यवहार निर्धारित करती है।

मानव समाज की प्रमुख विशेषताएँ

मानव समाज की प्रमुख विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं-

शारीरिक व मानसिक समानता
मानव समाज के सदस्यों में परस्पर अनेक असमानताएँ दिखाई दे सकती हैं। वे काले, गोरे, लम्बे, छोटे, मन्द बुद्धि अथवा तीव्र बुद्धि के हो सकते हैं। परन्तु उन सभी के शरीरों में और उनके अंगों की बनावट में एक विचित्र और अद्वितीय समानता पाई जाती है। इस प्रकार, सभी मनुष्यों में शारीरिक व मानसिक समानता का अद्भुत साम्य होता है।

मानव समाज के पास संस्कृति है
मानव समाज की सबसे बड़ी धरोहर उसकी संस्कृति है। यह संस्कृति पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती रहती है और मनुष्य उसकी निरन्तर रक्षा और संवर्धन करता रहता है जिससे आने वाली पीढ़ियाँ लगातार बहुत कुछ सीखती रहती हैं।

सांस्कृतिक आधार पर आवश्यकताओं की पूर्ति
मानव समाज की अनेक आवश्यकताएँ होती हैं जैसे सुरक्षा, सन्तानोत्पादन, पालन-पोषण व श्रम-विभाजन आदि। समाज के सदस्य इन आवश्यकताओं की पूर्ति सांस्कृतिक आधार पर करते हैं। पशु समाज में तो इन आवश्यकताओ की पूर्ति का आधार अक्सर जैविक एवं उनका बाहुबल होता है, परन्तु मानव समाज में परम्पराएँ, कानून और संस्कृति इस पूर्ति का आधार बनती है।

मानव समाज में भाषा व संकेत
मानव समाज की सबसे बड़ी उपलब्धि उसकी भाषा है। इसी के सहारे वह एक-दूसरे के साथ अपने विचारों और संदेशों का आदान-प्रदान आसानी से कर लेता है। कुछ ऐसे संकेत और चिह्न भी होते हैं जिनसे वह ऐसा कर सकता है।

सामाजिक मूल्यों की उपस्थिति
सामाजिक मूल्यों का अर्थ ऐसी धारणाएँ एवं विचार हैं जिनसे समाज का व्यवहार नियन्त्रित होता है। दूसरे शब्दों में, समाज के वे स्वीकृत व्यवहार जिन्हें सर्वाधिक महत्त्व दिया जाता है सामाजिक मूल्य कहलाते हैं। मानव समाज में सामाजिक मूल्य पाए जाते हैं। मानव व्यवहार में कुछ बातें कम मान्य और कुछ अधिक मान्य होती हैं परन्तु अधिकांश मानव व्यवहार सामाजिक मूल्यों द्वारा ही संचालित होता है।

धर्म एवं नैतिकता
प्रकृति में स्वतः घटित घटनाओं और परिवर्तनों ने मानव को किसी अलौकिक शक्ति पर विश्वास करना भी सिखाया है। इन्हीं के आधार पर उसने धर्म का निर्माण किया है। इसी प्रकार, धीरे-धीरे कुछ ऐसे विचारों का भी निर्माण हुआ है जिन्हें नैतिकता या नैतिक संहिताओं की संज्ञा दी जाती है यथा प्रेम, दया, सहिष्णुता, त्याग, सहानुभूति आदि। दोनों को मानव समाज की विशेषताएँ माना जाता है।

आदर्शात्मक मापदण्ड
मानव समाज में आदर्शों के आधार पर उचित और अनुचित में भेद किया जाता है। आदर्श एक प्रकार के ऐसे मापदण्ड होते हैं जिनके अनुसार किसी के कार्यों का मूल्यांकन होता है।

यौन सम्बन्धों में स्थायित्व
पशु तथा अन्य समाजों की अपेक्षा मानव समाज में यौन सम्बन्धों में अधिक स्थिरता पाई जाती है। इसका कारण मानव समाज में विवाह की संस्था का प्रचलित होना है। विवाह की संस्था यौन सम्बन्धों को समाज की मान्यताओं के अनुकूल नियन्त्रित करती है।

मानव समाज में गतिशीलता
मानव समाज, पशु समाज की भाँति, स्थिर नहीं है। इसमें परिवर्तनशीलता पाई जाती है। यह समयानुकूल निरन्तर परिवर्तित होता रहता है।

मानव समाज में सहयोग एवं संघर्ष
मानव जीवन एक साथ सहयोग और संघर्ष की भावना से पूरित है। एक ओर, अपने दैनिक कार्यकलापों में मनुष्य अन्य मनुष्यों के साथ सहयोग की भावना से कार्य करता है तो दूसरी ओर, वह उन्हीं के साथ प्रतियोगिता की स्थिति का निर्वाह करते हुए अपने हितों की पूर्ति के लिए संघर्षरत भी रहता है। यह मानव समाज की एक विचित्र स्थिति है।

संस्थाओं एवं संगठनों की उपस्थिति
मानव जीवन की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानव समाज में अनेक समितियाँ, संस्थाएँ व संगठन भी पाए जाते हैं। सदस्य इन संगठनों के नियमों के अनुसार आचरण करते हुए अपने लक्ष्यों की प्राप्ति करते हैं। ये संगठन सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व अन्य प्रकार के हो सकते हैं।

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि मानव समाज की अपनी कुछ प्रमुख विशेषताएँ हैं। यही विशेषताएँ मानव समाज को अनुपम स्वरूप प्रदान करती हैं तथा इसे पशु समाज से भिन्न करती हैं।

पशुओं में समाज पाया जाता है पर संस्कृति नहीं
समाज केवल मनुष्यों तक ही सीमित नहीं है। यह अनगिनत अन्य जीवों (जैसे चीटियाँ, दीमक, मधुमक्खियाँ, बन्दर, लंगूर इत्यादि) में भी पाया जाता है। परन्तु मानव समाज एवं पशु समाज में समानता न होकर भिन्नता पाई जाती है। भिन्नता का प्रमुख कारण मानव समाज में संस्कृति का पाया जाना है। संस्कृति केवल मानव को ही नहीं, अपितु मानव समाज को भी एक अनुपम समाज बना देती है। पशुओं में संस्कृति नहीं पाई जाती अतः पशु समाज को संस्कृति-विहीन समाज कहा गया है। ‘पशुओं में समाज पाया जाता है पर संस्कृति नहीं' यह कथन पूर्णत: तर्कसंगत है। मानव की तरह पशु भी समाज में रहते हैं परन्तु संस्कृति मानव समाज को पशु समाज से भिन्न करती है। इस कथन की पुष्टि हम निम्न प्रकार से कर सकते हैं

(अ) पशुओं में समाज पाया जाता है
मानव ही अकेला ऐसा प्राणी नहीं है जो समाज का निर्माण करता है। चीटियाँ, दीमक, चिड़ियाँ, बन्दर, लंगूर, मधुमक्खियाँ आदि भी समाज में रहते हैं। इनमें भी ऊँच-नीच की व्यवस्था, श्रम-विभाजन, सहयोग, अपनत्व की भावना, पारस्परिक संचार आदि पाया जाता है। स्तनधारी पशुओं में तो सामाजिक जीवन का स्पष्ट बोध होता है। प्रेम, घृणा, सहानुभूति, विरोध, मित्रता, शत्रुता, सुख-दुःख व सामूहिक एकता आदि इनमें भी पाई जाती है। बिना पूँछ के बन्दर जैसे गोरिल्ला, चिम्पैंजी, ओरगंटन आदि स्तनधारी पशुओं में मानव सामाजिक जीवन के अनेक गुण पाए जाते हैं। परन्तु इनमें ये समस्त गुण आनुवंशिकता द्वारा आते हैं। पशु सभी प्रकार का सामाजिक व्यवहार वंश परम्परा द्वारा सीखते हैं।
पशुओं की मुख्य आवश्यकताओं (जैसे भूख, प्यास, यौन-सन्तुष्टि तथा जीवित रहने के लिए अन्य मूलभूत आवश्यकताएँ) की पूर्ति उनके द्वारा स्वाभाविक रूप से होती है। परन्तु वे यह सब अकेले नहीं कर सकते, बल्कि सामूहिक सम्बन्धों के द्वारा समूह बनाकर करते हैं। सामूहिक प्रयासों द्वारा वे प्राय: अपनी रक्षा और निवास बनाने जैसा कठिन कार्य भी करते हैं जैसे गुफाएँ, बिल, घोंसले आदि बनाना। इस प्रकार, मानव समाज की भाँति पशुओं में भी समाज होता है। समाज के आवश्यक तत्त्व उनमें अधिकांश रूप से मिलते हैं। समान हित वाले पशु एक साथ रहते हैं, किन्तु इनमें सामाजिक सम्बन्ध बहुत सीमित होते हैं। उनका सामाजिक ढाँचा अत्यधिक सरल होता है। पशुओं में समाज पाया जाता है, इस कथन की पुष्टि हम निम्न प्रकार से कर सकते हैं

1. कीट-पतंग समाज
चींटी, टिडडे, पतंगे, दीमक इत्यादि अनगिनत कीट-पतंग समाज में रहते हैं। इनमें सभी गुण एवं क्षमताएँ आनुवंशिकता के आधार पर होती हैं। इनमें अपने व्यवहार को परिवर्तित करने की क्षमता नहीं होती।

2. स्तनधारी समाज
स्तनपान से बड़े हुए जीवों को स्तनधारी जीव कहा जाता है। गाय, कुत्ता, बिल्ली जैसे अनेक स्तनधारी जीव समाज में रहते हैं। इनमें नर-मादा में शारीरिक अन्तर बहुत कम पाया जाता है। इनकी शारीरिक बनावट भी जटिल होती है।

3. नर-वानर समाज
अनेक उच्च स्तनधारी नर-वानर जैसे लंगूर, चिम्पैंजी, बन्दर, गोरिल्ला इत्यादि में भी समाज पाया जाता है। ये शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से काफी विकसित होते हैं।

(ब) पशुओं में संस्कृति नहीं पाई जाती
पशुओं में समाज पाया जाता है तथा उनमें सामूहिक व सामाजिक भावना तो होती है परन्तु उनमें संस्कृति का अभाव होता है। उनकी सामाजिक व्यवस्था जैविक-सामाजिक व्यवस्था (Bio-social system) होती है। समाज में रहते हुए भी उनमें गुण तथा कार्य करने की क्षमता आदि आनुवंशिकता (पैतृकता) द्वारा निर्धारित होते हैं। पशुओं में संचार और साधारण संकेतों का आदान-प्रदान होता है। परन्तु उनके पास भाषा का अभाव होने के कारण ज्ञान का भी अभाव होता है। भाषा के अभाव से वे परस्पर एक-दूसरे को कुछ सिखा नहीं सकते। अत: उन्हें कोई भी ज्ञान अपने पूर्वजों से विरासत में प्राप्त नहीं होता। प्रत्येक पशु को प्रत्येक बात स्वयं प्रयास से सीखनी पड़ती है।
संस्कृति के अभाव में पशुओं का सम्पूर्ण व्यवहार आनुवंशिकता द्वारा निर्धारित होता है। उदाहरण के लिए पक्षियों में एक-एक तिनका जोड़कर घोंसला (Nest) बनाने की प्रवृत्ति, तथा गाय, बैल, हाथी, शेर इत्यादि अनेक पशुओं में तैरने की क्षमता उन्हें जन्म से ही प्राप्त होती है। पक्षियों को घोंसला बनाना या पशुओं को तैरना सिखाया नहीं जाता है। पशुओं में सम्पूर्ण गुण उनकी मूलप्रवृत्तियों (Instincts) तथा प्रतिवर्त (Reflex) व्यवहार के परिणामरूवरूप होते हैं। 
अतः यह कहना पूर्णत: ठीक है कि पशुओं में समाज तो पाया जाता है पर संस्कृति नहीं। मानव और पशु समाज में अन्तर इस बात की भी पुष्टि करता है कि मानव समाज में सभी गुण संस्कृति के कारण ही हैं।

मानव एवं पशु समाज में अन्तर

शरीर विज्ञान के अनुसार मानव और पशु की शारीरिक संरचना में कोई विशेष अन्तर नहीं पाया जाता है। यही कारण है कि औषधि निर्माण के पश्चात् प्रथमत: प्रयोग पशुओं पर ही किए जाते हैं तथा शिक्षा कार्यों हेतु भी प्रयोगशाला में पशु शरीरों की चीर-फाड़ होती है। दोनों की समानता के विषय में किंग्सले डेविस ने कहा है कि एक जैविक-सामाजिक व्यवस्था के रूप में मानव नर-वानरों की साधारण विशेषताओं को उसी तरह प्रदर्शित करता है जिस प्रकार नर-वानर समूह स्तनधारी समाज की सामान्य विशेषताओं को प्रकट करता है। पशुओं में भी मानवों की तरह काम प्रवृत्ति (Sex instinct), प्रजनन क्षमता तथा अन्य सामान्य मूलप्रवृत्तियाँ एक समान पाई जाती हैं। दोनों में सुख-दुःख, काम-क्रोध, आशा-निराशा, भूख-भय आदि मानसिक उद्वेग एक से ही होते हैं। इस तरह, जैविक रूप से दोनों समान हैं। परन्तु दोनों प्रकार के समाजों में अनेक मूलभूत अन्तर पाए जाते हैं। मानव तथा पशु समाज में पाए जाने वाले अन्तर को अग्र दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है

(अ) जैविक या प्राणिशास्त्रीय अन्तर
प्राणिशास्त्रीय आधार पर मनुष्य व पशु के मध्य अधिक अन्तर नहीं है। डार्विन ने इस सन्दर्भ में कहा था कि मानव रूप पशु की विकसित अवस्था है। फिर भी दोनों में निम्नांकित दृष्टियों से अन्तर किया जा सकता है

1. शारीरिक बनावट
मानव के अस्थि-पंजर में एकरूपता पाई जाती है। शरीर पर बाल छोटे-छोटे होते हैं जिससे स्वरक्षा के लिए कृत्रिम साधनों का सहारा लेना पड़ता है। पशुओं के बाल अधिक लम्बे होते हैं व प्रायः बाल कड़े होते हैं। उन्हें रक्षा के लिए कृत्रिम उपायों का सहारा नहीं लेना पड़ता है। मानव के दाँत छोटे, व्यवस्थित व अपेक्षाकृत कम शक्तिशाली होते हैं, पशुओं के दाँत तीखे एवं अधिक शक्तिशाली होते हैं। पशु अपने दाँतों से भी अपनी रक्षा करते हैं।

2. सीधे खड़े होने की क्षमता
मानव में सीधे खड़े होने की क्षमता होती है। परन्तु पशुओं में इसका पूर्ण अभाव पाया जाता है। मनुष्य अपने दोनों हाथों से कार्य कर सकता है। इसके विपरीत, पशु दोनों हाथ व पैरों के बल चलता है। पशु सीधे खड़े नहीं हो सकते। इसलिए पशु मानव से एकदम भिन्न होते हैं। मानव के हाथों में लचीलापन अधिक पाया जाता है।

3. बोलने की क्षमता
मानव विकसित भाषा द्वारा अपने विचारों का आदान-प्रदान कर सकता है। किन्तु पशुओं में इसका अभाव पाया जाता है। वे अपनी भावनाओं को दूसरों तक संचारित नहीं कर सकते हैं। विकसित मस्तिष्क के अभाव में पशुओं के पास बुद्धि का भी प्राय: अभाव पाया जाता है। बुद्धि विकसित न होने के कारण पशु भाषा का आदान-प्रदान नहीं कर सकते हैं।

4. मानव के पास विकसित मस्तिष्क का होना
मानव के पास अत्यन्त विकसित मस्तिष्क है जो उसे पशुओं से सर्वाधिक पृथक् करता है। इसकी सहायता से मानव ने इस पृथ्वी पर बड़े-बड़े कार्य और अनुसन्धान किए हैं। ऐसा विकसित और जटिल मस्तिष्क पशुओं में उपलब्ध नहीं है। 

5. घूम सकने वाले हाथ
मानव की एक अन्य विशेषता उसके चारों ओर घुमाये जा सकने वाले स्वतन्त्र हाथ, अंगुलियाँ तथा अंगूठा है। इनकी सहायता से वह किसी भी कार्य का सम्पादन आसानी से कर सकता है। पशुओं में इस सुविधा का अभाव होता है।

(ब) सामाजिक-सांस्कृतिक अन्तर
समाजशास्त्र के छात्र होने के नाते हमारी मानव तथा पशु समाज के अध्ययन में रुचि, इन दोनों में पाए जाने वाले सामाजिक-सांस्कृतिक अन्तरों के कारण है। इनमें पाए जाने वाले प्रमुख सामाजिक-सांस्कृतिक अन्तर निम्नलिखित हैं-

1. नियमित यौन व्यवहार
मानव समाज में नियमित यौन व्यवहार पाया जाता है। इसका नियमन, प्रथाओं, परम्पराओं, कानून आदि के द्वारा होता है। यौन व्यवहार को नियन्त्रित करने के लिए मानव समाज में विवाह की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। मानव समाज में यौन क्रियाओं के लिए निश्चित समय या ऋतु नहीं होती। पशु समाज में इन विशेषताओं का पूर्ण अभाव पाया जाता है। उनमें यौन सम्बन्ध स्थापित करने के कोई निश्चित नियम नहीं होते। पशु अपनी जाति (Species) के अन्य पशुओं से प्रभुता के आधार पर यौन सम्बन्ध स्थापित कर सकता है। पशुओं में यौन उत्तेजना की एक निश्चित ऋतु होती है।

2. सांस्कृतिक विरासत
संस्कृति का अर्थ होता है भाषा, प्रथा, ज्ञान, परम्पराएँ, धर्म, कानून आदि। संस्कृति सीखा हुआ व्यवहार है। मानव समाज में संस्कृति पाई जाती है। यह संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती रहती है। इसी कारण संस्कृति सदैव जीवित रहती है। परन्तु पशु समाज में संस्कृति नहीं पाई जाती है।

3. जागरूकता
मानव जीवन का एक निश्चित लक्ष्य होता है। उसे ज्ञात होता है कि उसे क्या करना है, उसके कर्त्तव्य क्या हैं, उसे कब किस प्रकार के अधिकार का प्रयोग करना है? पशुओं में कर्त्तव्यों व अधिकारों का कोई महत्त्व नहीं होता। मानव के विपरीत पशु न तो भविष्य की चिन्ता करते हैं और न वर्तमान के बारे में सोचते हैं।

4. श्रम-विभाजन तथा विशेषीकरण
मानव की आवश्यकताओं की कोई सीमा नहीं है तथा वह इन आवश्यकताओं को अकेले पूरा नहीं कर सकता। इन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए श्रम-विभाजन एवं विशेषीकरण का होना आवश्यक है। पशु समाज में आवश्यकताएँ कम होती हैं तथा ज्ञान का अभाव होता है। अत: उनमें न तो विकसित श्नम-विभाजन होता है और न ही विशेषीकरण।

5. जीवन में जटिलता तथा परिवर्तनशीलता
प्रत्येक मानव एक ही समय में अनेक प्रकार के सम्बन्धों द्वारा अन्य व्यक्तियों से बँधा हुआ होता है। ये सम्बन्ध पारिवारिक, आर्थिक या व्यावसायिक हो सकते हैं। परन्तु पशु समाज में समान सम्बन्ध होते हैं। उनमें जटिलता और परिवर्तनशीलता का अभाव पाया जाता है। किसी भी पशु की भोज्य आदत में परिवर्तन नहीं होता है।

6. सामूहिक निर्णय
मानव समाज में संगठन हेतु एवं सामाजिक व्यवस्था की निरन्तरता के लिए सामूहिक निर्णय पाया जाता है। सामूहिक निर्णय के लिए विचारों का आदान-प्रदान किया जाता है। इसमें सदस्यों के मध्य अन्तक्रिया एवं अन्तर्निर्भरता बढ़ती है। पशु समाज में संघर्ष के समय कुछ सीमा तक सामूहिक निर्णय होता है। परन्तु वे सर्वदा ही सामूहिक निर्णय लें, ऐसा कभी नहीं होता।

7. स्मरण शक्ति
मनुष्य के पास स्मरण शक्ति है। इससे वह अपनी त्रुटियों को सुधार सकता है। परन्तु अधिकांश पशुओं में स्मरण शक्ति का अभाव होता है जिस कारण वे अपनी गलती नहीं सुधार सकते हैं।

8. मानव का विविधतापूर्ण सामाजिक जीवन
मानव का जीवन विविधताओं से इस प्रकार परिपूर्ण है जो पशुओं में देखने को नहीं मिल सकता। इन विविधताओं का आधार जाति, रंग व उसके पृथक् रीति-रिवाज हैं। संसार के प्रत्येक भाग में एक ही तरह के मानव पाए जाने पर भी उनका रहन-सहन, आचार-विचार, प्रथाएँ और संस्कृति विभिन्नता लिए हुए हैं। किन्तु पशुओं के समूह विश्व के सभी भागों में एक ही प्रकार का आचरण करते है।

9. आदर्शात्मक नियन्त्रण
मानव अपने जीवन में उचित व अनुचित में भेद करने के लिए कुछ आदर्शों को अपने सामने रखता है। इन्हीं के अनुसार वह अपने जीवन की गतिविधियों पर नियन्त्रण रखता है। यह आदर्शात्मक नियन्त्रण उसे अपनी सांस्कृतिक विरासत के रूप में प्राप्त होता है। पशुओं में ऐसी कोई आदर्शात्मक नियन्त्रण की व्यवस्था नहीं होती।

10. मानव समाज में पारस्परिक चेतना
मानव समाज में मानव की मानव के प्रति पारस्परिक चेतना पाई जाती है। इससे वह अपने बारे में ही न सोच कर अपने परिवार, जाति, जनजाति, प्रजाति, प्रदेश तथा देश के बारे में भी चेतना रखता है। ऐसी विशिष्ट चेतना पशु समाज में नहीं पाई जाती है।

उपर्युक्त विवेचना से पशु और मानव समाज में अन्तर स्पष्ट हो जाता है। किन्तु कितना भी और कैसा भी अन्तर दोनों समाजों में क्यों न हो, यह बात नितान्त सत्य है कि दोनों समाजों में चार बातें अवश्य समान होती हैं। ये हैं-भूख, निद्रा, भय और मैथुन। पशु समाज इनकी पूर्ति के लिए आनुवंशिकता द्वारा प्राप्त उपायों का सहारा लेता है, जबकि मानव अपनी संस्कृति द्वारा निर्धारित उपायों द्वारा ही इनकी पूर्ति के लिए अग्रसर होता है।

शब्दावली

  • समाज – सामाजिक सम्बन्धों के ताने-बाने को समाज कहते हैं। यह एक अमूर्त धारणा है, जोकि एक समूह के सदस्यों के बीच पाये जाने वाले पारस्परिक अन्तर्सम्बन्धों की जटिलता का बोध कराती है।
  • श्रम-विभाजन - श्रम-विभाजन से अभिप्राय कार्यों (भूमिकाओं) का वितरण है। भूमिकाओं में विभिन्नीकरण तथा विशेषीकरण नहीं है अपितु इन भूमिकाओं में समन्वय भी है।

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