पर्यावरण के घटक तथा पर्यावरणीय कारक | paryavaran ke ghatak

पर्यावरण के घटक तथा पर्यावरणीय कारक | paryavaran ke ghatak

चूँकि पर्यावरण एक भौतिक एवं जैविक संकल्पना है अतः इसमे प्रथ्वी के भौतिक या अजैविक तथा जैविक संघटको को सम्मिलित किया जाता है।
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पर्यावरण की इस आधारभूत सरंचना  के आधार पर पर्यावरण को निम्न प्रकार से विभाजित किया जाता है।

अजैविक या भौतिक पर्यावरण
  • स्थलमंडलीय पर्यावरण
  • वायुमंडलीय पर्यावरण
  • जलमंडलीय पर्यावरण

जैविक पर्यावरण
  • वनस्पति पर्यावरण
  • जन्तु पर्यावरण

अजैविक एवं जैविक पर्यावरण

पर्यावरण को व्रहद तथा लघु स्तर पर समझा जा सकता है। यह क्षेत्रीय तथा भूमंडलीय जलवायु की प्रवृति तथा स्थानीय सूक्ष्म जलवायु द्वारा  प्रदर्शित होता है। भौतिक पर्यावरण को जलवायु की दशाओ (जो जैविक समुदायों के लिये विभिन्न प्रकार के निवास क्षेत्र का स्रजन करती है) की दृष्टि से भी विभाजित किया जा सकता है।
जैसे- उष्णकटिबंधीय पर्यावरण, शीतोष्ण कटिबंधीय पर्यावरण, धुर्विय पर्यावरण आदि। यदि भौतिक या अजैविक तथा जैविक पर्यावरण को एक- साथ मिलाकर देखा जाये तो बायोम की रचना होती है।
जैसे -
टुन्ड्रा बायोम , शीतोष्ण कटिबंधीय बायोम , उष्णकटिबंधीय बायोम आदि। भौतिक पर्यावरण के साथ सामंजस्य रखने में सामाजिक तथा आर्थिक पर्यावरण की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

पर्यावरण के संघटको को 3 प्रमुख भागो में विभक्त किया जाता है-
  • भौतिक या अजैविक संघटक:- इसके अंतर्गत स्थल, वायु, जल आदि सम्मिलित होते है।
  • जैविक संघटक:- इसके अंतर्गत पादप, मनुष्य समेत जंतु तथा सूक्ष्म जीव सम्मिलित होते है।
  • ऊर्जा संघटक:- सौर ऊर्जा एवं भूतापीय ऊर्जा को ऊर्जा संघटक के अंतर्गत सम्मिलित करते है। 

भौतिक या अजैविक संघटक (physical or abiotic components)

भौतिक संघटक के अंतर्गत सामान्य रूप से स्थलमंडल , वायुमंडल तथा जलमंडल को सम्मिलित किया जाता है इन्हें क्रमशः मृदा, वायु तथा जल संघटक भी कहा जाता है। ये तीनो भौतिक संघटक पारितंत्र के उपतंत्र होते है। भौतिक वातावरण वायु, प्रकाश, ताप, जल, मृदा जैसे कारको से बना होता है।
ये अजैविक कारक जीवो की सफलता का निर्धारण एवं उनकी वनावट, जीवन चक्र, शरीर क्रिया विज्ञान तथा व्यवहार पर प्रभाव डालते है। जीवो के विकास तथा प्रजनन पर जैविक कारको का भी प्रभाव पड़ता है।

वायुमंडल (atmosphere)
वायुमंडल से आशय प्रथ्वी के चारो ओर विस्तृत गैसीय आवरण से है। प्रथ्वी पर स्थित अन्य मंडलों की भांति वायुमंडल भी जैव व अजैव कारको के लीये महत्वपूर्ण है। क्योकि वायुमंडल की सरंचना व संघटन जीवो व वनस्पति की क्रियाओं को प्रभावित करते है।
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वायुमंडल गैस, जलवाष्प एवं धूलकणों का मिश्रण वायु मंडल मैं उपस्थित गैसें पोधों के प्रकाश संश्लेषण, ग्रीन हॉउस प्रभाव तथा जीव व वनस्पतियों को जीवित रहने के लिए एक अवश्यक स्त्रोत है वायु मण्डल की संरचना के भाग क्षोभमंडल तथा समतापमंडल पर्यावरण को महत्वपूर्ण रूप से प्रभाबित करते है।

जल (Water)
जल प्रथ्वी पर प्राक्रतिक रूप से पाया जाने वाला एक मात्र अकार्बनिक तरल पदार्थ है। जो की संशाधन , परिस्थितकी या आवास के रूप मैं कार्य करता है प्रथ्वी पर जल की कुल मात्रा सामान रहती है। जबकि यह एक रूप से दुसरे रूप मैं परिवर्तित होता है यह प्रक्रिया ही जलचक्र कहलाती है। जल जीवों की विभिन्न प्रक्रियायों को नियंत्रित करता है यह वनस्पति प्रकार तथा उसके संघटन पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है।
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जलिए तंत्र में ऑक्सीजन, कार्बोनडाईऑक्साइड तथा अन्य गैसे जल मैं आंशिक रूप से घुली रहती है साधारण गहरी झीलों व भारी मात्रा में कार्बनिक पदार्थ वाले जलाशयों में पादपप्लवकों तथा अन्य जलीय जीवों की वृद्धि के लिए ऑक्सीजन सीमाकारी कारक का कार्य करती है। जल के अन्दर ऑक्सीजन की पूर्ति का नियंत्रण, वायु से तथा जलीय पोधों के प्रकाश संश्लेषण से उत्पन्न गैसों के विसर्जन द्वारा होता है।

मृदा (soil)
मृदा, भू – पर्पटी की सबसे ऊपरी परत है, जो की खनिज तथा आंशिक रूप से अपघटित कार्बनिक पदार्थो से निर्मित होती है।
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मृदा का निर्माण शैलो का अपने स्थान पर अपक्षय से या स्थानांतरित तलछटो का जल या वायु द्वारा अपरदन से होता है। मृदा में पौधों, फसलों, घास स्थल तथा वनों की (proosis) होती है। जिन पर मानव भोजन, वस्त्र, लकड़ी तथा निर्माण सामग्री के लीये निर्भर रहते है। मृदा का खनिज अवयव उसके मूल पदार्थो के खनिज तथा अपक्षय पर निर्भर करता है।

जैविक संघटक  (Biotic Components)

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पर्यावरण के जैविक संघटक का निर्माण तीन निम्नलिखित उपतंत्रो द्वारा होता है -
  1. (क) पादप
  2. (ख) जीव
  3. (ग) सूक्ष्मजीव

पादप (plant)
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पादप जैविक संघटकको में सर्वाधिक महत्वपूर्ण होते है क्योकि पोधे ही जैविक पदार्थो का निर्माण करते है जिनका उपभोग पोधे स्वंम  करते है। साथ ही मानव सहित जंतु तथा सूक्ष्म जीव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में इन्ही पौधों पर निर्भर रहते है पोधे पर्यावरणके विभिन्न संघटको में जैविक पदार्थो तथा पोषक तत्वों के गमन को संभव बनाते है हरे पोधे अपना आहार स्वंम तैयार करते है अतः वे स्वपोषित कहलाते है।

जीव (organism)
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जीव स्वपोषित एवं परपोषित दोनों प्रकार के होते है। परन्तु अधिकांशतः जीव परपोषित ही होते है स्वपोषित जीव अपने आहार का निर्माण स्वंम करते है जैसे cyanobacteria-blue green algae पर्णहरित की उपस्थति में ई क्लोरोटिका एक प्रकार का समुद्री घोघा जो सैवाल से क्लोरोफिल ग्रहण कर अपना भोजन स्वंम निर्मित करता है।
परपोषीत जीव अपने आहार हेतु अन्य साधनों पर निर्भर रहते है।

जैविक पदार्थो की सुलभता के आधार पर परपोषीत जीव 3 प्रकार के होते है।
  • मृतजीवी (saprophytes) : वे जीव जो मृत पौधे तथा जीवो से घुलित रूप में कार्बनिक योगिको को प्राप्त करते है।
  • परजीवी (parasites) : वे जीव जो अपने आहार हेतु अन्य जीवित जीवो पर निर्भर करते है।
  • प्राणीसमभोजी (holozoic) : वे जंतु जो अपना आहार अपने मुख द्वारा ग्रहण करते है। सभी बड़े जन्तु इसी श्रेणी के अंतर्गत आते है। उदाहरण - हाथी , गाय , ऊट आदि।

सूक्ष्मजीव (micro organism)
सूक्ष्मजीवो को वियोजक भी कहते है। ये मृत पोधों, जन्तुओ के जैविक पदार्थो को सड़ा गला कर वियोजित करते है वियोजन प्रक्रिया के दोरान ये अपना आहार भी ग्रहण करते है।
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साथ ही इन्हें सरल रूप में रूपांतरित कर हरे पोधों हेतु पुनः उपलब्ध कराते है सूक्ष्म जीवो के अंतर्गत सूक्ष्म bacteria तथा कवक सम्मलित है।

ऊर्जा संघटक (energy components)

इसके अंतर्गत सौर प्रकाश, सौर विकिरण तथा उसके विभिन्न पक्षों को सम्मलित किया जाता है सूर्य से प्राप्त उर्जा सोर उर्जा खलती है।
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जो विधुत चुंबकीय तरंग के रूप में होती है अतः इसे विधुत चुंबकीय विकिरण भी कहा जाता है सूर्य की ब्रह्म सतह की अत्यंत तापदीप्त गैसे नीचे  से गर्म होने पर उर्जा का उत्सर्जन करती है जिन्हें फोटोन कहते है प्रथ्वी की सतह पर प्राप्त सौर उर्जा को सूर्यतप या सोर विकिरण कहते है प्रथ्वी की क्षैतिज सतह पर पहुचने वाले सकल सौर विकिरण को भूमंडलीय विकिरण कहते है।
सूर्य की यह उर्जा प्रथ्वी के तापमान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है जो प्रथ्वी के सभी जीवो के कियाकलापो एवं भौतिक पर्यावरण को भी प्रभावित करती है उर्जा संघटक के अंतर्गत प्रकाश तथा तापमान को सम्मलित किया जाता है।

पर्यावरण Environment 

जीवित प्राणी के चारों ओर पाए जाने वाले लोग, स्थान, वस्तुएँ एवं प्रकृति को पर्यावरण कहते हैं।
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यह प्राकृतिक एवं मानव-निर्मित परिघटनाओं का मिश्रण है। प्राकृतिक पर्यावरण में पृथ्वी पर पाई जाने वाली जीवीय एवं अजीवीय दोनों परिस्थितियाँ सम्मिलित हैं,

जीवीय

अजीवीय

सजीव प्राणियों का संसार। जैसे-पादप एवं जंतु

निर्जीव पदार्थों का संसार। जैसे-स्थल

जबकि मानवीय पर्यावरण में मानव की परस्पर क्रियाएँ, उनकी गतिविधियाँ एवं उनके द्वारा बनाई गई रचनाएँ सम्मिलित हैं।

प्राकृतिक पर्यावरण

भूमि, जल, वायु, पेड़-पौधे एवं जीव-जंतु मिलकर प्राकृतिक पर्यावरण बनाते हैं। स्थलमंडल, जलमंडल, वायुमंडल एवं जैवमंडल से आप पहले से ही परिचित होंगे। आइए, अब हम इनके संबंध में कुछ और तथ्यों की जानकारी प्राप्त करते हैं।
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पृथ्वी की ठोस पर्पटी या कठोर ऊपरी परत को स्थलमंडल कहते हैं। यह चट्टानों एवं खनिजों से बना होता है एवं मिट्टी की पतली परत से ढंका होता है। यह पहाड़, पठार, मैदान, घाटी आदि जैसी विभिन्न स्थलाकृतियों वाला विषम धरातल होता है। ये स्थलाकृतियाँ महाद्वीपों के अलावा महासागर की सतह पर भी पाई जाती हैं।
स्थलमंडल वह क्षेत्र है, जो हमें वन, कृषि एवं मानव बस्तियों के लिए भूमि, पशुओं को चरने के लिए घासस्थल प्रदान करता है। यह खनिज संपदा का भी एक स्रोत है।
जल के क्षेत्र को जलमंडल कहते हैं। यह जल के विभिन्न स्रोतों जैसे-नदी, झील, समुद्र, महासागर आदि जैसे विभिन्न जलाशयों से मिलकर बनता है। यह सभी प्राणियों के लिए आवश्यक है।
पृथ्वी के चारों ओर फैली वायु की पतली परत को वायुमंडल कहते हैं। पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण बल अपने चारों ओर के वायुमंडल को थामे रखता है। यह सूर्य की झुलसाने वाली गर्मी एवं हानिकारक किरणों से हमारी रक्षा करता है। इसमें कई प्रकार की गैस, धूल-कण एवं जलवाष्प उपस्थित रहते हैं। वायुमंडल में परिवर्तन होने से मौसम एवं जलवायु में परिवर्तन होता है।
पादप एवं जीव-जंतु मिलकर जैवमंडल या सजीव संसार का निर्माण करते हैं। यह पृथ्वी का वह संकीर्ण क्षेत्र है, जहाँ स्थल, जल एवं वायु मिलकर जीवन को संभव बनाते हैं।

मानवीय पर्यावरण

मानव अपने पर्यावरण के साथ पारस्परिक क्रिया करता है और उसमें अपनी आवश्यकता के अनुसार परिवर्तन करता है। प्रारंभिक मानव ने स्वयं को प्रकृति के अनुरूप बना लिया था। उनका जीवन सरल था एवं आस-पास की प्रकृति से उनकी आवश्यकताएँ पूरी हो जाती थी। समय के साथ कई प्रकार की आवश्यकताएँ बढ़ीं। मानव ने पर्यावरण के उपयोग और उसमें परिवर्तन करने के कई तरीके सीख लिए। उसने फ़सल उगाना, पशु पालना एवं स्थायी जीवन जीना सीख लिया। पहिए का आविष्कार हुआ, आवश्यकता से अधिक अन्न उपजाया गया, वस्तु-विनिमय पद्धति का विकास हुआ, व्यापार आरंभ हुआ एवं वाणिज्य का विकास हुआ। औद्योगिक क्रांति से बड़े पैमाने पर उत्पादन प्रारंभ हो गया। परिवहन तेज़ गति से प्रारंभ हुआ। सूचना क्रांति से पूरे विश्व में संचार, सहज और द्रुत हो गया।
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