ज्ञानेन्द्रियाँ (Sense Organs)-
ये 5 हैं- (i) त्वचा, (ii) आँख, (iii) नाक, (iv) कान, (v) जिह्वा।
(i) त्वचा (Skin) : इसे स्पर्श इन्द्रिय भी कहते हैं। इन्हें सपर्श ग्राही भी कहा जाता है। स्पर्श के कारण हम वस्तुओं के आकार-प्रकार, कठोरता-कोमलता का अनुभव करते हैं। त्वचा में संवेदना ग्राही तन्त्रिकाएं होती हैं जो शरीर में असमान रूप से वितरित होती हैं। जब त्वचा में आघात होता है तो सर्वप्रथम इसकी उत्तेजना पीड़ा ग्राही में अनुभव की जाती है। इसकी सूचना मस्तिष्क के अग्रभाग (प्रान्तस्था- Cerebrum) में संवेदी तन्त्रिकाओं के माध्यम से पहुंचती है। प्रान्तस्था भाग में पीड़ा के प्रति संवेदना उत्पन्न होती है।
त्वचा की 2 परतें होती हैं-
(i) ऊपरी परत, इसे अधिचर्म (Epidermish) कहते हैं
(ii) भीतरी परत, इसे चर्म (Dermish) कहते हैं। 'चर्म में तेल ग्रन्थियाँ (Sebaceous Glands), श्वेत (Sweat) ग्रन्थियाँ, रक्त नलिकाएं, स्पर्श कण आदि पाये जाते हैं। 'अधिचर्म समय-समय पर शरीर से बाहर निकलते रहते हैं, जिसे 'त्वचा का निर्मोचन (Keratinisis or Moulding of Skin) कहते हैं। सर्प का कसेचुल इसका उदाहरण है।
शरीर में ताप रक्त वाहिनियों के संकचन एवं प्रसारण से नियन्त्रित होता हैं अल्पताप की स्थिति में रक्त वाहिकाएं संकुचित हो जाती हैं, जिससे रक्त वाहिकाओं में रक्त का दाब बढ़ जाता है। ऐसी स्थिति में रक्त संचालन हेतु हृदय को अधिक कार्य करना पड़ता है। इस स्थिति में हृदय को अधिक ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है और इस ऊर्जा के लिए कोशिकाओं को अधिक कार्य करना पड़ता है, जिससे ताप में वृद्धि हो जाती है। अधिक ताप की स्थिति में रक्त वाहिनियाँ फैल जाती हैं। परिणामत. रक्त वाहिनियों में रक्त दाब कम हो जाता है।
त्वचा का रंग 'मिलैनीन' (Milanine) नामक रंगाकण (Pigment) के कारण होता है।
(ii) नेत्र (Eyes) : नेत्र एक संवेदी अंग हैं, जिनके माध्यम से वसतुओं का दृष्टि ज्ञान होता है। नेत्र में निम्नलिखित भाग होते हैं-
कार्निया (Cornea), तारिका (Iris), तारा (Pupil), दृष्टि पटल (Retina), लेन्स (Lens), सिलियरी पिण्ड (Ciliary Body) और श्वेत पटल (Sclera), आदि।
कार्निया पारदर्शी होती है, जो नेत्र-गोलक (जिसमें पूरा नेत्र स्थित है, उसे नेत्र गोलक कहते हैं) के ट्युनिका फाइब्रोसा आकुली की बाह्य परत होती हैं। नेत्र-दान में 'कार्निया का ही दान किया जाता है।
आइरिस (तारिका) : नेत्र गोलक के आन्तरिक भाग ट्यूनिका वेस्कुलासा वल्वी आकुली के वाह्य भाग को परितारिका और पाश्च भाग को रंजित पटल (Choroid) कहते हैं। परितारिका के मध्य भाग में एक गोलाकार छिद्र होता है, जिसे 'पूतली (Pupil- तारा) कहते हैं।
पुतली (तारा- Pupil) के काले रंग का कारण उसमें पायी जाने वाली 2 पेशियाँ-पुतली अवरोधनी (Sphincter Pupillae) और पूतली विसतारिणी (Dialator Pupillae) है, जो प्रकाश को परावर्तित नहीं होने देती। (जब कोई वस्तु प्रकाश के सभी रंग की किरणों को अवशोषित कर लेती हैं, तो वह काली दिखाई पड़ती है।)
सिलियरी पिण्ड लेन्स के 'फोकस (नाम्यंतर) को नियन्त्रित करता है। इसमें शलाका (Rods) तथा शंक (Cones) नामक 2 पेशियाँ होती हैं। रेटिना के पश्चभाग को नेत्र फन्डस (Fundus Oculi) कहते हैं। इसके 2 उप-भाग- पीत बिन्दु (Macula Lutea) और दृक् बिन्दु (OpticDisk) होते हैं। दृक बिन्दु से दृष्टि तन्त्रिकाएं निकलती हैं, जो प्रतिबिम्ब की सूचना मस्तिष्क को देती हैं। दृक बिन्दु (Optic Disk or Blind Spot) पर ही किसी वस्तु का प्रतिबिम्ब बनता है। पीत बिन्दु में शंकु कोशिकाओं (Cones) की संख्या बहुत अधिक होती है, जो वास्तु को स्पष्ट देखने के लिए उत्तरदायी है। रेटिना की शलाकाएं अत्यल्प रोशनी (अंधेरे में) की स्थिति में वस्तु को देखने में मदद करती हैं, जबकि शंकु वस्तु के रंगों के प्रति संवेदनशील होते हैं।
रेटिना की कुल कोशिकाओं की संख्या 13,00,00,000 होती है।
आँख का लेंस 'उत्तल लेंस (Convex Lens) की भाँति काम करता है।
प्रकाश की तीव्रता का आँख में नियन्त्रण 'तारिका (Iris) द्वारा होता है। प्रखर प्रकाश में ये फैलकर तारा (Pupil) को संकुचित कर देते हैं, जिससे प्रकाश की कम मात्र लेंस में प्रवेश करे तथा मंद प्रकाश की स्थिति में तारिका (Iris) संकुचित होकर तारा (Pupil) के आकार को विस्तारित कर देते हैं, ताकि प्रकाश की अधिक मात्रा लेंस पर पड़ सके।
आयरिस (Iris) के बीच में एक छिद्र होता है, इसे पुतली या तारा (Pupil) कहते हैं, जो कैमरा के डायफ्राम (Diaphragm) की तरह कार्य करता है।
(iii) नाक (Nose): यह घाण संवेदी अंग है। घ्राण (गन्ध) का अनुभव प्रमस्तिष्क (Cerebrum) में होता है।
(iv) कान (Ears) : इसके 3 भाग हैं- वाह्य कर्ण, मध्य कर्ण एवं आन्तरिक कर्ण। वाह्य कर्ण उपास्थि (Cartilage लचीली हड्डी) का बना होता है। मध्य कर्ण वाह्य और आन्तरिक कर्ण को जोड़ने का कार्य करता हैं मध्य कर्ण में मैलियस, इन्कस तथा स्टैपीज नामक 3 कर्णास्थिकाओं (कान के इस भाग की हड्डियाँ) से बनी होती हैं, जो ध्वनि कम्पनों को कर्ण पटह (वाह्य भाग) से आन्तरिक कर्ण तक पहुँचाती है। आन्तरिक कर्ण अर्द्ध पारदर्शक झिल्ली का बना होता है, जिसे 'कला गहन' (membranous Labyrinth) कहते हैं। कला गहन के बाहर 2 छिद्र होते हैं, जिन्हें अण्डाकार गवाच्छ तथा वृत्ताकार गवाच्छ कहते हैं। वृत्ताकार गवाच्छ 2 थैली सदृश छोटे-छोटे कोषों यूट्रीकुलस तथा सैकुलस में बंटा होता है।
कान शरीर संतुलन एवं श्रवण का कार्य करते हैं।
(v) जिह्वा (Tung) : यह स्वाद ग्राही अंग है। जिह्वा पर स्वाद कलिकाएं (Taste Buds) पायी जाती हैं। किसी वसतु का स्वाद तभी मालूम होता है, जब पहले श्लेष्म (Mucus) भोजन के कणों को घुला दे। घुलित अवस्था में तन्त्रिका संवेदी कोशिकाएं उत्तेजित होकर स्वाद के उद्दीपनों को ग्रहण करती हैं। जिहवा पर 4 प्रकार के स्वाद का अनुभव होता है। ये हैं- मीठा, तीता नमकीन और खट्टा।
ये 5 हैं- (i) त्वचा, (ii) आँख, (iii) नाक, (iv) कान, (v) जिह्वा।
(i) त्वचा (Skin) : इसे स्पर्श इन्द्रिय भी कहते हैं। इन्हें सपर्श ग्राही भी कहा जाता है। स्पर्श के कारण हम वस्तुओं के आकार-प्रकार, कठोरता-कोमलता का अनुभव करते हैं। त्वचा में संवेदना ग्राही तन्त्रिकाएं होती हैं जो शरीर में असमान रूप से वितरित होती हैं। जब त्वचा में आघात होता है तो सर्वप्रथम इसकी उत्तेजना पीड़ा ग्राही में अनुभव की जाती है। इसकी सूचना मस्तिष्क के अग्रभाग (प्रान्तस्था- Cerebrum) में संवेदी तन्त्रिकाओं के माध्यम से पहुंचती है। प्रान्तस्था भाग में पीड़ा के प्रति संवेदना उत्पन्न होती है।
त्वचा की 2 परतें होती हैं-
(i) ऊपरी परत, इसे अधिचर्म (Epidermish) कहते हैं
(ii) भीतरी परत, इसे चर्म (Dermish) कहते हैं। 'चर्म में तेल ग्रन्थियाँ (Sebaceous Glands), श्वेत (Sweat) ग्रन्थियाँ, रक्त नलिकाएं, स्पर्श कण आदि पाये जाते हैं। 'अधिचर्म समय-समय पर शरीर से बाहर निकलते रहते हैं, जिसे 'त्वचा का निर्मोचन (Keratinisis or Moulding of Skin) कहते हैं। सर्प का कसेचुल इसका उदाहरण है।
शरीर में ताप रक्त वाहिनियों के संकचन एवं प्रसारण से नियन्त्रित होता हैं अल्पताप की स्थिति में रक्त वाहिकाएं संकुचित हो जाती हैं, जिससे रक्त वाहिकाओं में रक्त का दाब बढ़ जाता है। ऐसी स्थिति में रक्त संचालन हेतु हृदय को अधिक कार्य करना पड़ता है। इस स्थिति में हृदय को अधिक ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है और इस ऊर्जा के लिए कोशिकाओं को अधिक कार्य करना पड़ता है, जिससे ताप में वृद्धि हो जाती है। अधिक ताप की स्थिति में रक्त वाहिनियाँ फैल जाती हैं। परिणामत. रक्त वाहिनियों में रक्त दाब कम हो जाता है।
त्वचा का रंग 'मिलैनीन' (Milanine) नामक रंगाकण (Pigment) के कारण होता है।
(ii) नेत्र (Eyes) : नेत्र एक संवेदी अंग हैं, जिनके माध्यम से वसतुओं का दृष्टि ज्ञान होता है। नेत्र में निम्नलिखित भाग होते हैं-
कार्निया (Cornea), तारिका (Iris), तारा (Pupil), दृष्टि पटल (Retina), लेन्स (Lens), सिलियरी पिण्ड (Ciliary Body) और श्वेत पटल (Sclera), आदि।
कार्निया पारदर्शी होती है, जो नेत्र-गोलक (जिसमें पूरा नेत्र स्थित है, उसे नेत्र गोलक कहते हैं) के ट्युनिका फाइब्रोसा आकुली की बाह्य परत होती हैं। नेत्र-दान में 'कार्निया का ही दान किया जाता है।
आइरिस (तारिका) : नेत्र गोलक के आन्तरिक भाग ट्यूनिका वेस्कुलासा वल्वी आकुली के वाह्य भाग को परितारिका और पाश्च भाग को रंजित पटल (Choroid) कहते हैं। परितारिका के मध्य भाग में एक गोलाकार छिद्र होता है, जिसे 'पूतली (Pupil- तारा) कहते हैं।
पुतली (तारा- Pupil) के काले रंग का कारण उसमें पायी जाने वाली 2 पेशियाँ-पुतली अवरोधनी (Sphincter Pupillae) और पूतली विसतारिणी (Dialator Pupillae) है, जो प्रकाश को परावर्तित नहीं होने देती। (जब कोई वस्तु प्रकाश के सभी रंग की किरणों को अवशोषित कर लेती हैं, तो वह काली दिखाई पड़ती है।)
सिलियरी पिण्ड लेन्स के 'फोकस (नाम्यंतर) को नियन्त्रित करता है। इसमें शलाका (Rods) तथा शंक (Cones) नामक 2 पेशियाँ होती हैं। रेटिना के पश्चभाग को नेत्र फन्डस (Fundus Oculi) कहते हैं। इसके 2 उप-भाग- पीत बिन्दु (Macula Lutea) और दृक् बिन्दु (OpticDisk) होते हैं। दृक बिन्दु से दृष्टि तन्त्रिकाएं निकलती हैं, जो प्रतिबिम्ब की सूचना मस्तिष्क को देती हैं। दृक बिन्दु (Optic Disk or Blind Spot) पर ही किसी वस्तु का प्रतिबिम्ब बनता है। पीत बिन्दु में शंकु कोशिकाओं (Cones) की संख्या बहुत अधिक होती है, जो वास्तु को स्पष्ट देखने के लिए उत्तरदायी है। रेटिना की शलाकाएं अत्यल्प रोशनी (अंधेरे में) की स्थिति में वस्तु को देखने में मदद करती हैं, जबकि शंकु वस्तु के रंगों के प्रति संवेदनशील होते हैं।
रेटिना की कुल कोशिकाओं की संख्या 13,00,00,000 होती है।
आँख का लेंस 'उत्तल लेंस (Convex Lens) की भाँति काम करता है।
प्रकाश की तीव्रता का आँख में नियन्त्रण 'तारिका (Iris) द्वारा होता है। प्रखर प्रकाश में ये फैलकर तारा (Pupil) को संकुचित कर देते हैं, जिससे प्रकाश की कम मात्र लेंस में प्रवेश करे तथा मंद प्रकाश की स्थिति में तारिका (Iris) संकुचित होकर तारा (Pupil) के आकार को विस्तारित कर देते हैं, ताकि प्रकाश की अधिक मात्रा लेंस पर पड़ सके।
आयरिस (Iris) के बीच में एक छिद्र होता है, इसे पुतली या तारा (Pupil) कहते हैं, जो कैमरा के डायफ्राम (Diaphragm) की तरह कार्य करता है।
(iii) नाक (Nose): यह घाण संवेदी अंग है। घ्राण (गन्ध) का अनुभव प्रमस्तिष्क (Cerebrum) में होता है।
(iv) कान (Ears) : इसके 3 भाग हैं- वाह्य कर्ण, मध्य कर्ण एवं आन्तरिक कर्ण। वाह्य कर्ण उपास्थि (Cartilage लचीली हड्डी) का बना होता है। मध्य कर्ण वाह्य और आन्तरिक कर्ण को जोड़ने का कार्य करता हैं मध्य कर्ण में मैलियस, इन्कस तथा स्टैपीज नामक 3 कर्णास्थिकाओं (कान के इस भाग की हड्डियाँ) से बनी होती हैं, जो ध्वनि कम्पनों को कर्ण पटह (वाह्य भाग) से आन्तरिक कर्ण तक पहुँचाती है। आन्तरिक कर्ण अर्द्ध पारदर्शक झिल्ली का बना होता है, जिसे 'कला गहन' (membranous Labyrinth) कहते हैं। कला गहन के बाहर 2 छिद्र होते हैं, जिन्हें अण्डाकार गवाच्छ तथा वृत्ताकार गवाच्छ कहते हैं। वृत्ताकार गवाच्छ 2 थैली सदृश छोटे-छोटे कोषों यूट्रीकुलस तथा सैकुलस में बंटा होता है।
कान शरीर संतुलन एवं श्रवण का कार्य करते हैं।
(v) जिह्वा (Tung) : यह स्वाद ग्राही अंग है। जिह्वा पर स्वाद कलिकाएं (Taste Buds) पायी जाती हैं। किसी वसतु का स्वाद तभी मालूम होता है, जब पहले श्लेष्म (Mucus) भोजन के कणों को घुला दे। घुलित अवस्था में तन्त्रिका संवेदी कोशिकाएं उत्तेजित होकर स्वाद के उद्दीपनों को ग्रहण करती हैं। जिहवा पर 4 प्रकार के स्वाद का अनुभव होता है। ये हैं- मीठा, तीता नमकीन और खट्टा।