चिकित्सा जैव प्रौद्योगिकी (Medical Biotechnology)।

चिकित्सा जैव प्रौद्योगिकी (Medical Biotechnology)।
'चिकित्सा-जैव प्रौद्योगिकी' कई कार्यक्रमों का समूह है, जिसमें मानव अस्वस्थता दर और मृत्यु दर में वृद्धि करने वाली विभिन्न चिकित्सा समस्याओं का समाधान ज्ञात करने के लिये लक्षित क्षेत्रों के एक पूरे परिसर का समावेश होता है। इस कार्यक्रम का उद्देश्य मानव रोगों को रोकना, उनका जल्द निदान और उनका समाधान ढूंढना है, जिससे चिकित्सा समस्या का प्रबंधन हो सके।
जैव प्रौद्योगिकी विभाग विभिन्न रोगों से संबंधित अनुसंधान एवं विकास को प्रोत्साहित करता है, विशेषकर उनको जो हमारे देश के लिये प्रासंगिक हैं। इसके अलावा प्रमुख रोगों की रोकथाम, उपचार एवं निदान के औज़ारों के विकास की आवश्यकता पर बल देता है। इसका फोकस मानव जाति की चिकित्सा समस्याओं को हल करने के लिये चिकित्सा प्रौद्योगिकी एवं स्थानांतरणीय अनुसंधान पर है।

इसके अंतर्गत शामिल हैं-
  • संक्रामक रोग, मानव विकास एवं रोग जैविकी
  • दीर्घकालिक रोग-जीवविज्ञान
  • वैक्सीन और रोग निदान
  • मानव आनुवंशिकी एवं जीनोम विश्लेषण
  • स्तंभ कोशिकाएँ और रिजेनरेटिव औषधि
  • जैव डिज़ाइन
  • जैव अभियांत्रिकी
जैव डिज़ाइन (Biodesign)
जैव डिज़ाइन, जैविक प्रणालियों के साथ डिज़ाइन या अवसंरचना का एकीकरण है, जो बेहतर पारिस्थितिक प्रदर्शन प्राप्ति हेतु प्रयोग की जाती है। इसमें जीवों की संभावित उपयोगिता और उनके आस-पास के बड़े और कभी-कभी बदलते पारिस्थितिकी तंत्र के साथ उनकी अंत:क्रिया को पहचानने में तार्किकता व अवसर दोनों प्राप्त होता है। जलवायु संकट में स्थायी विकास हेतु यह नया दृष्टिकोण तात्कालिक समाधान प्रस्तुत करता है।

बायो डिज़ाइन की नई तकनीक के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं:-

1. बायो कंक्रीट (Bioconcrete): यह प्रायोगिक स्तर पर पदार्थ तकनीकी द्वारा विकसित है। कंक्रीट में स्पोरोसार्सिना पाश्चुरी (Sporosarcina pasturii) नामक एक जीवाणु कुछ पोषक तत्त्वों के साथ मिलाया जाता है, जो विशिष्ट परिस्थितियों में चूनापत्थर (Limestone) का स्राव करता है। दरारों के पड़ने पर यह बैक्टीरिया लाइमस्टोन का स्रावण कर दरारों को भर कर दीवारों की मरम्मत कर देता है। इससे रख-रखाव का खर्च कम होने के साथ कंक्रीट का जीवनकाल बढ़ जाता है। परिणामस्वरूप कार्बन फुट-प्रिंट का न्यूनतम उत्पादन होता है। वर्तमान में कंक्रीट 5 प्रतिशत तक मानव निर्मित कार्बन उत्सर्जन हेतु उत्तरदायी है।

2. लेट्रो लैंप (Latrolamp): शैवाल (Algae) से प्रकाश उत्पादन हेतु सोने के नैनो आकार के इलेक्ट्रोड इसमें समावेशित किये जाते हैं, जो प्रकाश-संश्लेषण की प्रक्रिया से विधुत धारा उत्पन्न करते हैं जो भविष्य में प्रकाश उत्पादन का अच्छा स्रोत हो सकते हैं।

3. ईको क्रेडल (Eco Cradle): पैकिंग सामग्री के रूप में पेट्रोलियम पॉलीमर फोम (Petroleum Polymer Foam) का प्रयोग होता है। यह हजारों वर्षों में अपघटित होता है तथा कुल अपशिष्ट में 25% भाग इसी का होता है। इसमें बेंजीन जैसे विषैला पदार्थ पाया जाता है। बायो डिज़ाइन तकनीक द्वारा इसके विकल्प के रूप में फफूंद (Fungus) के संरचनात्मक पदार्थ माइसीलियम (Mycelium) का प्रयोग किया जाता है, जो कठोर व सघन होता है तथा यह स्थानीय कृषि-अपशिष्ट से उत्पादित किया जा सकता है जिसे वांछित आकार के साँचों में ढाल कर पैकिंग सामग्री तैयार की जा सकती है।

भारत में जैव डिज़ाइन-
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय का जैव प्रौद्योगिकी विभाग चिकित्सा जैव प्रौद्योगिकी के अंतर्गत विभिन्न रोगों से संबंधित अनुसंधान एवं विकास को प्रोन्नत करता है तथा विभिन्न रोगों की रोकथाम, उपचार एवं निदान के औज़ारों के विकास की आवश्यकता पर बल देता है। विभिन्न चिकित्सा समस्याओं को हल करने के लिये, यह चिकित्सा प्रौद्योगिकी एवं स्थानांतरणीय अनुसंधान पर केंद्रित है। जैव डिज़ाइन इसमें से एक है। देश में विकसित तथा वहनीय चिकित्सा प्रौद्योगिकियों के विकास को बढ़ावा देने हेतु स्टैनफोर्ड-इंडिया बायो डिज़ाइन (SIB) कार्यक्रम को एक फ्लैगशिप कार्यक्रम के रूप में एम्स व आई. आई.टी. दिल्ली में लागू किया गया है। इस कार्यक्रम की सफलता के आधार पर स्वास्थ्य सेवा प्रौद्योगिकी केंद्र, आई.आई. टी. मुंबई, जैव विज्ञान एवं जैव अभियांत्रिकी केंद्र, आई.आई.टी. बंगलूरू तथा ट्रांस्लेशनल हेल्थ साइंस एंड टेक्नोलॉजी इंस्टीट्यूट (THSTI) फरीदाबाद में जैव डिज़ाइन केंद्र जैसे अनेक केंद्र भी स्थापित किये गए हैं। ये केंद्र मेडिकल डिवाइसेज एवं इंप्लांट्स (Medical Devices & Implants) के विकास, इन-विट्रो फर्टिलाइजेशन, कोशिकाओं का जीवों के शरीर के बाहर वर्द्धन कराना इत्यादि के लिये आधारभूत ढाँचों के विकास को लक्ष्य बनाकर कार्यरत है, जिससे वहनीय प्रौद्योगिकियाँ विकसित की जा सकें। इसका उद्देश्य भारत में चिकित्सा प्रौद्योगिकी प्रवर्तकों की भावी पीढ़ी को प्रशिक्षित किया जाना है।

स्टैनफोर्ड-इंडिया बायो डिज़ाइन (एसआईबी) कार्यक्रमः
स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में 2008 के बाद जैव डिज़ाइन प्रक्रम में 6 बैच प्रशिक्षित किये जा चुके हैं। अभी तक 35 से अधिक पेटेंट और 11 ट्रेडमार्क प्रार्थना-पत्र फाइल कराए जा चुके हैं और कई प्रौद्योगिकियाँ विकसित की जा चुकी हैं। इनमें से कई परिष्करण एवं वाणिज्यीकरण के लिये उद्योगों को हस्तांतरित की जा चुकी हैं।
राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों के सात वार्षिक चिकित्सा प्रौद्योगिकी शिखर सम्मेलन आयोजित किये गए, ताकि उद्योग एवं नवाचार-कर्मियों के बीच अंतःक्रिया हेतु मंच प्रदान हो सके।

स्टैनफोर्ड-इंडिया जैव डिज़ाइन कार्यक्रम के तहत कुछ विकसित व हस्तांतरित प्रौद्योगिकियाँ निम्नलिखित हैं
  • अंग गतिरुद्ध करने के लिये एक चिकित्सकीय युक्ति विकसित की गई।
  • मल-संयमन न कर पाने वाले रोगियों में विसर्जित मल के संकलन हेतु युक्ति।
  • नवप्रसूत को पुनर्जीवित करने हेतु युक्ति। यह नवजात शिशु को कृत्रिम श्वसन प्रदान करने में सहायता करती है।
  • रोगी स्थानांतरण शीट, जो स्थानांतरण तलों के बीच रोगी को ले जाने के लिये उपयोगी है।
  • श्रवण-क्षति जाँचकारी युक्ति जो अल्पसंसाधन परिवेश में नवजातों की जाँच के लिये एक अभिनव श्रवण-क्षति जाँचकारी युक्ति है। इसका लाइसेंस सोहम इनोवेशन लैब्स प्राइवेट लिमिटेड को दिया गया है।
नोक्जेनो (Noxeno) एक उपकरण है, जो नासिका से हानिकारक प्रदूषक कणों को हटाने का कार्य करता है। इस उपकरण का विकास बायोडिज़ाइन कार्यक्रम के अंतर्गत प्रशिक्षित व्यक्ति द्वारा किया गया है। यह अपने प्रकार का पहला उपकरण है, जो सामान्यतः 2-10 वर्ष के बच्चों हेतु प्रयोग किया जा सकता है। नोक्जेनो शत-प्रतिशत भारत में खोजा गया, निर्मित व विकसित है।

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