भारतीय संविधान की प्रस्तावना Preamble of Indian Constitution in Hindi | samvidhan ki prastavna

संविधान की प्रस्तावना (Preamble of the Constitution)

सर्वप्रथम अमेरिकी संविधान में प्रस्तावना को सम्मिलित किया गया था तदुपरांत कई अन्य देशों ने इसे अपनाया, जिनमें भारत भी शामिल है। प्रस्तावना संविधान के परिचय अथवा भूमिका को कहते हैं। इसमें संविधान का सार होता है। प्रख्यात न्यायविद् व संवैधानिक विशेषज्ञ एन.ए. पालकीवाला ने प्रस्तावना को संविधान का परिचय पत्र' कहा है। sanvidhan ki prastavana
भारतीय संविधान की प्रस्तावना पंडित नेहरू द्वारा बनाए और पेश किए गए एवं संविधान सभा द्वारा अपनाए गए उद्देश्य प्रस्ताव' पर आधारित है। इसे 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा संशोधित किया गया, जिसने इसमें समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और अखंडता शब्द सम्मिलित किए। prastavana in hindi
samvidhan-ki-prastavana
संविधान के प्रस्तावना की विषय-वस्तु अपने वर्तमान स्वरूप में प्रस्तावना को इस प्रकार पढ़ा जाता है:

उद्देशिका

"हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को :
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,

विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता,

प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा,

उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढाने के लिए,

दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई0 को एतद द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।"

प्रस्तावना के तत्व प्रस्तावना में चार मूल तत्व हैं:
  1. संविधान के अधिकार का स्त्रोतः प्रस्तावना कहती है कि संविधान भारत के लोगों से शक्ति अधिगृहीत करता है।
  2. भारत की प्रकृतिः यह घोषणा करती है कि भारत एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक व गणतांत्रिक राजव्यवस्था वाला देश है।
  3. संविधान के उद्देश्यः इसके अनुसार न्याय, स्वतंत्रता, समता व बंधुत्व संविधान के उद्देश्य हैं।
  4. संविधान लागू होने की तिथि: यह 26 नवंबर, 1949 की तिथि का उल्लेख करती है।

प्रस्तावना में मुख्य शब्द

प्रस्तावना में कुछ मुख्य शब्दों का उल्लेख किया गया है। ये शब्द हैं-संप्रभुता, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, गणराज्य, न्याय, स्वतंत्रता, समता व बंधुत्व।

इनका विस्तार से उल्लेख नीचे किया गया है:

1. संप्रभुता
संप्रभु शब्द का आशय है कि, भारत न तो किसी अन्य देश पर निर्भर है और न ही किसी अन्य देश का डोमिनियन है। इसके ऊपर और कोई शक्ति नहीं है और यह अपने मामलों (आंतरिक अथवा बाहरी) का नि:तारण करने के लिए स्वतंत्र है।
यद्यपि वर्ष 1949 में भारत ने राष्ट्रमंडल की सदस्यता स्वीकार करते हुए ब्रिटेन को इसका प्रमुख माना, तथापि संविधान से अलग यह घोषणा किसी भी तरह से भारतीय संप्रभुता को प्रभावित नहीं करती। इसी प्रकार भारत की संयुक्त राष्ट्र में सदस्यता उसकी संप्रभुता को किसी मायने में सीमित नहीं करती।
एक संप्रभु राज्य होने के नाते भारत किसी विदेशी सीमा अधिग्रहण अथवा किसी अन्य देश के पक्ष में अपनी सीमा के किसी हिस्से पर से दावा छोड़ सकता है।

2. समाजवादी
वर्ष 1976 के 42वें संविधान संशोधन से पहले भी भारत के संविधान में नीति-निदेशक सिद्धांतों के रूप में समाजवादी लक्षण मौजूद थे। दूसरे शब्दों में, जो बात पहले संविधान में अंतर्निहित थी, उसे स्पष्ट रूप से जोड़ दिया गया और फिर कांग्रेस पार्टी ने समाजवादी स्वरूप को स्थापित करने के लिए 1955 में अवाडी सत्र में एक प्रस्ताव पारित कर उसके अनुसार कार्य किया।
यह बात ध्यान देने योग्य है कि भारतीय समाजवाद 'लोकतांत्रिक समाजवाद' है न कि 'साम्यवादी समाजवाद', जिसे 'राज्याश्रित समाजवाद' भी कहा जाता है, जिसमें उत्पादन और वितरण के सभी साधनों का राष्ट्रीयकरण और निजी संपत्ति का उन्मूलन शामिल है। लोकतांत्रिक समाजवाद मिश्रित अर्थव्यवस्था में आस्था रखता है, जहां सार्वजनिक व निजी क्षेत्र साथ-साथ मौजूद रहते हैं। जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय कहता है,
“लोकतांत्रिक समाजवाद का उद्देश्य गरीबी, उपेक्षा, बीमारी व अवसर की असमानता को समाप्त करना है।" भारतीय समाजवाद मार्क्सवाद और गांधीवाद का मिला-जुला रूप है, जिसमें गांधीवादी समाजवाद की ओर ज्यादा झुकाव है।
उदारीकरण, निजीकरण एवं वैश्वीकरण की नयी आर्थिक नीति (1991) ने हालांकि भारत के समाजवादी प्रतिरूप को थोडा लचीला बनाया है।

3. धर्मनिरपेक्ष
धर्मनिरपेक्ष शब्द को भी 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा जोड़ा गया। जैसा कि उच्चतम न्यायालय ने भी 1974 में कहा था। यद्यपि धर्मनिरपेक्ष राज्य" शब्द का स्पष्ट रूप से संविधान में उल्लेख नहीं किया गया था तथापि इसमें कोई संदेह नहीं है कि, संविधान के निर्माता ऐसे ही राज्य की स्थापना करना चाहते थे। इसीलिए संविधान में अनुच्छेद 25 से 28 (धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार) जोड़े गए।
भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता की सभी अवधारणाएं विद्यमान हैं अर्थात हमारे देश में सभी धर्म समान हैं और उन्हें सरकार का समान समर्थन प्राप्त है।

4. लोकतांत्रिक
संविधान की प्रस्तावना में एक लोकतांत्रिक" राजव्यवस्था की परिकल्पना की गई है। यह प्रचलित संप्रभुता के सिद्धांत पर आधारित है अर्थात सर्वोच्च शक्ति जनता के हाथ में हो।

लोकतंत्र दो प्रकार का होता है-
  1. प्रत्यक्ष
  2. अप्रत्यक्ष।
प्रत्यक्ष लोकतंत्र में लोग अपनी शक्ति का इस्तेमाल प्रत्यक्ष रूप से करते हैं, जैसे- स्विट्जरलैंड में।

प्रत्यक्ष लोकतंत्र के चार मुख्य औजार हैं,
इनके नाम हैं-
  1. परिपृच्छा (Referendum),
  2. पहल (Initiative),
  3. प्रत्यावर्तन या प्रत्याशी को वापस बुलाना (Recall)
  4. जनमत संग्रह (Plebiscite)"
दूसरी ओर अप्रत्यक्ष लोकतंत्र में लोगों द्वारा चुने गए प्रतिनिधि सर्वोच्च शक्ति का इस्तेमाल करते हैं और सरकार चलाते हुए कानूनों का निर्माण करते हैं। इस प्रकार के लोकतंत्र को प्रतिनिधि लोकतंत्र भी कहा जाता है। यह दो प्रकार का होता है-संसदीय और राष्ट्रपति के अधीन। भारतीय संविधान में प्रतिनिधि संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था है, जिसमें कार्यकारिणी अपनी सभी नीतियों और कार्यों के लिए विधायिका के प्रति जवाबदेह है। वयस्क मताधिकार, सामयिक चुनाव, कानून की सर्वोच्चता, न्यायपालिका की स्वतंत्रता व भेदभाव का अभाव भारतीय राज्यव्यवस्था के लोकतांत्रिक लक्षण के स्वरूप हैं।
संविधान की प्रस्तावना में लोकतांत्रिक शब्द का इस्तेमाल बृहद रूप में किया है, जिसमें न केवल राजनीतिक लोकतंत्र बल्कि सामाजिक व आर्थिक लोकतंत्र को भी शामिल किया गया है।
इस आयाम पर डॉ. अम्बेडकर ने 25 नवम्बर, 1949 को संविधान सभा में दिए गए अपने समापन भाषण में विशेष बल देते हुए कहा था
"राजनीतिक लोकतंत्र तब तक स्थाई नहीं बन सकता जब तक कि उसके मूल में सामाजिक लोकतंत्र नहीं हो। सामाजिक लोकतंत्र का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है-वह जीवन शैली जो स्वाधीनता, समानता तथा भ्रातृत्व को मान्यता देती हो। स्वाधीनता, समानता और भ्रातृत्व के सिद्धांतों को अलग से एक त्रयी के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। ये आपस में मिलकर एक त्रयी की रचना इस अर्थ में करते हैं कि यदि इनमें से एक को भी अलग कर दिया जाए तो लोकतंत्र का उद्देश्य ही पराजित हो जाता है। स्वाधीनता को समानता से अलग नहीं किया जा सकता और समानता को स्वाधीनता से अलग नहीं किया जा सकता उसी प्रकार स्वाधीनता और समानता को भ्रातृत्व या बंधुत्व से भी अलग नहीं किया जा सकता। समानता के अभाव में स्वाधीनता से कुछ का आधिपत्य अनेक पर स्थापित होने की स्थिति बनेगी। समानता बिना स्वाधीनता के, वैयक्तिक पहल अथवा उद्यम को समाप्त कर देगी।''12a
इसी संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय ने 1997 में व्यवस्था दी, "संविधान एक समत्वपूर्ण सामाजिक व्यवस्था की स्थापना का लक्ष्य रखता है, जिससे कि प्रत्येक नागरिक को भारत गणराज्य के सामाजिक सर्व आर्थिक लोकतंत्र में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्रदान किया जा सके।"

5. गणतंत्र
एक लोकतांत्रिक राज्यव्यवस्था को दो वर्गों में बांटा जा सकता है-राजशाही और गणतंत्र। राजशाही व्यवस्था में राज्य का प्रमुख (आमतौर पर राजा या रानी) उत्तराधिकारिता के माध्यम से पद पर आसीन होता है; जैसा कि ब्रिटेन में। वहीं गणतंत्र में राज्य प्रमुख हमेशा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से एक निश्चित समय के लिए चुनकर आता है, जैसे-अमेरिका।
इसलिए भारतीय संविधान की प्रस्तावना में गणतंत्र का अर्थ यह है कि भारत का प्रमुख अर्थात् राष्ट्रपति चुनाव के जरिए सत्ता में आता है। उसका चनाव पांच वर्ष के लिए अप्रत्यक्ष रू जाता है।
गणतंत्र के अर्थ में दो और बातें शामिल हैं। पहली यह कि राजनैतिक संप्रभुता किसी एक व्यक्ति जैसे राजा के हाथ में होने की बजाए लोगों के हाथ में होती है और दूसरी, किसी भी विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग की अनुपस्थिति। इसलिए हर सार्वजनिक कार्यालय बगैर किसी भेदभाव के प्रत्येक नागरिक के लिए खुला होगा।

6. न्याय
प्रस्तावना में न्याय तीन भिन्न रूपों में शामिल हैं-सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक। इनकी सुरक्षा मौलिक अधिकार व नीति निदेशक सिद्धांतों के विभिन्न उपबंधों के जरिए की जाती है।
सामाजिक न्याय का अर्थ है-हर व्यक्ति के साथ जाति, रंग, धर्म, लिंग के आधार पर बिना भेदभाव किए समान व्यवहार। इसका मतलब है समाज में किसी वर्ग विशेष के लिए विशेषाधिकारों की अनुपस्थिति और अनुसूचित जाति, जनजाति, अन्य पिछड़े वर्ग तथा महिलाओं की स्थिति में सुधार।
आर्थिक न्याय का अर्थ है कि आर्थिक कारणों के आधार पर किसी भी व्यक्ति से भेदभाव नहीं किया जाएगा। इसमें संपदा, आय व संपत्ति की असमानता को दूर करना भी शामिल है। सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय का मिला-जुला रूप अनुपाती न्याय' को परिलक्षित करता है।
राजनीतिक न्याय का अर्थ है कि हर व्यक्ति को समान राजनीतिक अधिकार प्राप्त होंगे, चाहे वो राजनीतिक दफ्तरों में प्रवेश की बात हो अथवा अपनी बात सरकार तक पहुंचाने का अधिकार।
सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय के इन तत्वों को 1917 की रूसी क्रांति से लिया गया है।

7. स्वतंत्रता
स्वतंत्रता का अर्थ है-लोगों की गतिविधियों पर किसी प्रकार की रोकटोक की अनुपस्थिति तथा साथ ही व्यक्ति के विकास के लिए अवसर प्रदान करना।
प्रस्तावना हर व्यक्ति के लिए मौलिक अधिकारों के जरिए अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता सुरक्षित करती है। इनके हनन के मामले में कानून का दरवाजा खटखटाया जा सकता
जैसा कि प्रस्तावना में कहा गया है कि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को सफलतापूर्वक चलाने के लिए स्वतंत्रता परम आवश्यक है। हालांकि स्वतंत्रता का अभिप्राय यह नहीं है कि हर व्यक्ति को कुछ भी करने का लाइसेंस मिल गया हो। स्वतंत्रता के अधिकार का इस्तेमाल संविधान में लिखी सीमाओं के भीतर ही किया जा सकता है। संक्षेप में कहा जाए तो प्रस्तावना में प्रदत्त स्वतंत्रता एवं मौलिक अधिकार शर्तरहित नहीं हैं।
हमारी प्रस्तावना में स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के आदर्शों को फ्रांस की क्रांति (1789-1799 ई.) से लिया गया है।

8. समता
समता का अर्थ है-समाज के किसी भी वर्ग के लिए विशेषाधिकार की अनुपस्थिति और बिना किसी भेदभाव के हर व्यक्ति को समान अवसर प्रदान करने के उपबंध।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना हर नागरिक को स्थिति और अवसर की समता प्रदान करती है। इस उपबंध में समता के तीन आयाम शामिल हैं- नागरिक, राजनीतिक व आर्थिक

मौलिक अधिकारों पर निम्न प्रावधान नागरिक समता को सुनिश्चित करते हैं:
  • विधि के समक्ष समता (अनुच्छेद-14)।
  • धर्म, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर मूलवंश निषेध (अनुच्छेद-15)।
  • लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता (अनुच्छेद-16)।
  • अस्पृश्यता का अंत (अनुच्छेद-17)।
  • उपाधियों का अंत (अनुच्छेद-18)।
संविधान में दो ऐसे उपबंध हैं, जो राजनीतिक समता को सुनिश्चित करते प्रतीत होते हैं। प्रथम है कि धर्म, जाति, लिंग अथवा वर्ग के आधार पर किसी व्यक्ति को मतदाता सूची में शामिल होने के अयोग्य करार नहीं दिया जाएगा (अनुच्छेद-325) तथा दूसरा है, लोकसभा और विधानसभाओं के लिए वयस्क मतदान का प्रावधान (अनुच्छेद-326)।राज्य के नीति-निदेशक सिद्धांत (अनुच्छेद-39) महिला तथा पुरुष को जीवन यापन के लिए पर्याप्त साधन और समान काम के लिए समान वेतन के अधिकार को सुरक्षित करते हैं।

9. बंधुत्व
बंधुत्व का अर्थ है- भाईचारे की भावना संविधान एकल नागरिकता के एक तंत्र के माध्यम से भाईचारे की भावना को प्रोत्साहित करता है। मौलिक कर्तव्य (अनुच्छेद-51क) भी कहते हैं कि यह हर भारतीय नागरिक का कर्तव्य होगा कि वह धार्मिक, भाषायी, क्षेत्रीय अथवा वर्ग विविधताओं से ऊपर उठ सौहार्द और आपसी भाईचारे की भावना को प्रोत्साहित करेगा।
प्रस्तावना कहती है कि बंधुत्व में दो बातों को सुनिश्चित करना होगा। पहला, व्यक्ति का सम्मान और दूसरा, देश की एकता और अखंडता।
अखंडता शब्द को 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा प्रस्तावना में जोड़ा गया।
संविधान सभा की प्रारूप समिति के एक सदस्य के.एम. मुंशी के अनुसार, 'व्यक्ति के गौरव' का अर्थ यह है कि संविधान न केवल वास्तविक रूप में भलाई तथा लोकतांत्रिक तंत्र की मौजूदगी सरक्षित करता है बल्कि यह भी मानता है कि हर व्यक्ति का व्यक्तित्व पवित्र है। इस पर किसी व्यक्ति के गौरव को सुनिश्चित करने वाले मौलिक अधिकार और नीति-निदेशक तत्वों के कुछ प्रावधान बल देते हैं। इसके अलावा मौलिक कर्तव्यों (51-क) में कहा गया है कि, भारत के हर नागरिक की यह जिम्मेदारी होगी कि वह स्त्री के गौरव को ठेस पहुंचाने वाली किसी भी हरकत का त्याग करे और भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे।
'देश की एकता और अखंडता' पद में राष्ट्रीय अखंडता के दोनों मनोवैज्ञानिक और सीमायी आयाम शामिल हैं। संविधान के अनुच्छेद 1 में भारत का वर्णन राज्यों के संघ' के रूप में किया गया है ताकि यह बात स्पष्ट हो जाए कि राज्यों को संघ से अलग होने का कोई अधिकार नहीं है। इससे भारतीय संघ की बदली न जा सकने वाली प्रकृति का परिलक्षण होता है। इसका उद्देश्य राष्ट्रीय अखंडता के लिए बाधक, सांप्रदायिकता, क्षेत्रवाद, जातिवाद, भाषावाद इत्यादि जैसी बाधाओं पर पार पाना है।

प्रस्तावना की अंतर्वस्तु

प्रस्तावना निम्नलिखित तथ्यों को बताती है-
  • संविधान बनाने के अधिकार का स्रोत अर्थात भारत के लोग
  • संविधान का उद्देश्य न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व है
  • भारतीय राज्य की प्रकृति संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और गणतंत्रात्मक है
  • भारतीय संविधान को अपनाने की तारीख 26 नवंबर 1949 है।

प्रस्तावना का महत्व

प्रस्तावना में उस आधारभूत दर्शन और राजनीतिक, धार्मिक व नैतिक मौलिक मूल्यों का उल्लेख है जो हमारे संविधान के आधार हैं। इसमें संविधान सभा की महान और आदर्श सोच उल्लिखित है। इसके अलावा यह संविधान की नींव रखने वालों के सपनों और अभिलाषाओं का परिलक्षण करती है। संविधान निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले संविधान सभा के अध्यक्ष सर अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर के शब्दों में, “संविधान की प्रस्तावना हमारे दीर्घकालिक सपनों का विचार है।”
संविधान सभा की प्रारूप समिति के सदस्य के.एम. मुंशी के अनुसार, प्रस्तावना ‘हमारी संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य का भविष्यफल है।’
संविधान सभा के एक अन्य सदस्य पंडित ठाकुर दास भार्गव ने संविधान की प्रस्तावना के संबंध में कहा, ‘प्रस्तावना संविधान का सबसे सम्मानित भाग है। यह संविधान की आत्मा है। यह संविधान की कुंजी है। यह संविधान का आभूषण है। यह एक उचित स्थान है जहां से कोई भी संविधान का मूल्यांकन कर सकता है।
सुप्रसिद्ध अंग्रेज राजनीतिशास्त्री सर अर्नेस्ट बार्कर संविधान की प्रस्तावना लिखने वालों को राजनीतिक बुद्धिजीवी कहकर अपना सम्मान देते हैं। वह प्रस्तावना को संविधान का ‘कुंजी नोट कहते हैं। वह प्रस्तावना के पाठ से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक प्रिसिंपल्स ऑफ सोशल एंड पॉलिटिकल थ्योरी (1951) की शुरुआत में इसका उल्लेख किया है।
भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एम हिदायतुल्लाह मानते हैं, “प्रस्तावना अमेरिका की स्वतंत्रता की घोषणा के समान है, लेकिन यह एक घोषणा से भी ज्यादा है। यह हमारे संविधान की आत्मा है जिसमें हमारे राजनीतिक समाज के तौर-तरीकों को दर्शाया गया है। इसमें गंभीर संकल्प शामिल हैं, जिन्हें एक क्रांति ही परिवर्तित कर सकती है।”

प्रस्तावना का उद्देश्य

संविधान की प्रस्तावना निम्नलिखित उद्देश्यों की पूर्ति करती है:
  • प्रस्तावना इंगित करती है कि संविधान भारत के लोगों द्वारा बनाया गया है।
  • प्रस्तावना इंगित करती है कि भारतीय लोग स्वयं को संविधान देते हैं।
  • प्रस्तावना संविधान को अधिनियमित करती है।
  • प्रस्तावना भारत के लिए संविधान द्वारा परिकल्पित देश के रूप को निर्दिष्ट करती है।
  • प्रस्तावना उन अधिकारों और स्वतंत्रता की घोषणा करती है जिन्हें भारत के लोग अपने नागरिकों के लिए सुरक्षित करना चाहते थे।
  • प्रस्तावना में संविधान के उद्देश्य शामिल हैं, जो भारत के लोगों के लिए न्याय, समानता और स्वतंत्रता को सुरक्षित करना है।
  • प्रस्तावना में लोगों के बीच भाईचारा पैदा करने और राष्ट्र की एकता और अखंडता के साथ-साथ व्यक्ति की गरिमा सुनिश्चित करने का उद्देश्य भी शामिल है।
भारत का संविधान भारत के लोगों द्वारा संविधान सभा में अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से बनाया गया था।

प्रस्तावना : क्या यह संविधान का अंग है?

यह एक रुचिकर बात है कि संविधान का आरंभ प्रस्तावना से होता है, जबकि यह सबसे पहले अस्तित्व में नहीं आया। प्रस्तावना संबंधी प्रस्ताव 17 अक्टूबर, 1949 को प्रस्तुत किया गया था। प्रारूप समिति के अध्यक्ष ने प्रस्ताव प्रस्तुत करते हुए कहा कि 'प्रस्तावना संविधान का महत्वूर्ण अंग है।' यह प्रस्ताव 2 नवंबर, 1949 को स्वीकार कर लिया गया तथा संविधान का भाग बन गया। यह विवादास्पद प्रश्न है कि क्या प्रस्तावना संविधान का अंग है अथवा नहीं, संविधान के दो महत्वपूर्ण मुकदमों में वर्णित किया गया था-
  • (क) बेरुबारी तथा
  • (ख) केशवानंद भारती मुकदमा वाद।
उपरोक्त वर्णित मुख्य प्रश्न, कि क्या प्रस्तावना संविधान का अंग है. इस प्रस्ताव पर निर्भर करेगा कि क्या प्रस्तावना को संशोधित किया जा सकता है?

प्रस्तावना संविधान का अंग नहीं है
भारत के संविधान के अनुच्छेद 143(1) के अंतर्गत बेरुबारी मुकदमे में भारत-पाकिस्तान समझौते के प्रसंग के अंतर्गत आठ न्यायाधीशों की पीठ की अध्यक्षता मुख्य न्यायाधीश बी.पी. सिन्हा ने की, जिसने इस विषय पर विचार किया। न्यायाधीश गजेंद्र गडकर ने सर्व-सम्मति की घोषणा कर दी। न्यायालय ने निर्णय में कहा कि संविधान की प्रस्तावना नि:संदेह संविधान निर्माताओं ने विभिन्न प्रावधानों से परिलक्षित कर दिया कि प्रस्तावना संविधान का अंग नहीं है।
बेरुबारी मुकदमें को संक्षिप्त रूप देते हुए न्यायाधीश शीलट तथा न्यायाधीश ग्रोवर ने केशवानंद मुकदमें के अंतर्गत निम्न प्रकार से की :-
  1. संविधान की प्रस्तावना, संविधान निर्माताओं के दिमाग को खोलने की कुंजी हैं, इससे संविधान में शामिल विभिन्न प्रावधानों को स्पष्ट किया जा सके।
  2. प्रस्तावना संविधान का अंग नहीं है। 
  3. यह संविधान के प्रावधानों के द्वारा सरकार को दी गई शक्तियां का स्रोत नहीं हैं।
  4. इस प्रकार की शक्तियां, संविधान में समाविष्ट एवं अंतर्निहित प्रदान कर की गयी हैं।
  5. शक्तियों के संबंध में जो सत्य है, वही निषेध, सीमांकन व नियंत्रण के विषय में भी सत्य होता है।
  6. संविधान की प्रस्तावना का पहला भाग सम्प्रभुत्ता की अवधारणा को सीमित करता है जब वह सम्प्रभु शक्ति का प्रयोग कर किसी अन्तराष्ट्रीय संधि के द्वारा भारत के किसी भूभाग को सत्तंतरित करने पर रोक लगाता है।
बेरुबारी मामला, गोलकनाथ मुकदमें पर आधारित रहा। न्यायाधीश वॉनचू के अनुसार : हम कई समान तर्कों के आधार पर यह विचार रखते हैं कि प्रस्तावना अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संविधान संशोधन को किसी भी प्रकार से निषिद्ध या नियंत्रित नहीं करती है।
न्यायमूर्ति वच्छावत का विचार था कि "प्रस्तावना संविधान के अनुच्छेदों की अस्पष्ट भाषा को नियंत्रित नहीं कर सकती।

प्रस्तावना संविधान का अंग है
यह दुख के साथ-साथ रिकार्ड रखने का विषय है कि बेरुबरी वाद में जाने-माने न्यायाधीशों ने संवैधानिक इतिहास को नजरअंदाज किया। संविधान सभा द्वारा अपनाए गए प्रस्ताव में अनेक शब्दों में कहा गया कि प्रस्तावना संविधान का ही अंग है। यह गलती केशवानंद वाद में सुधारी गई, जिसमें स्पष्ट किया गया कि प्रस्तावना संविधान के अन्य प्रावधानों की तरह ही संविधान का हिस्सा है। इस प्रकार केशवानंद भारती वाद ने इतिहास रचा।
केशवानंद भारती वाद में तेरह न्यायाधीशों की बैंच में से कछ न्यायाधीशों के क्या विचार थे यह जानना बड़ा रुचिकर है कि पहली बार 13 न्यायाधीशों की पीठ प्रारंभिक क्षेत्राधिकार के अंतर्गत एक रिट याचिका की सुनवाई के लिए बैठी। 13 न्यायाधीशों में से 11 ने अलग राय व्यक्त की। केशवानंद भारती वाद में न्यायालय की राय का अनुपात का पता लगाना आसान कार्य नहीं है, लेकिन प्रस्तावना के उद्देश्य से आसानी से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि केशवानंद भारती वाद पर निर्णय इस पक्ष में था कि-
  • (क) संविधान की प्रस्तावना संविधान का अंग है,
  • (ख) प्रस्तावना न तो शक्ति का स्रोत है, न सीमित या निषिद्ध का स्रोत है,
  • (ग) संविधान के ऐसे प्रावधानों की व्याख्या करने में प्रस्तावना का अत्यधिक महत्व है, जिनमें प्रावधान की वृहद् और गहरी पहुंच को समझना हो या किसी प्रावधान में अस्पष्टता हो! ऐसे प्रावधानों में अर्थ के प्रस्तावना पर निर्भर रहा जा सकता है। जिन प्रावधानों का अर्थ व भाषा स्पष्ट है, उनकी व्याख्या के लिए प्रस्तावना पर निर्भर नहीं रहा जा सकता।
केशवानंद भारती वाद न्यायमूर्ति वाई.वी. चंद्रचूड़ द्वारा एक रुचिकर तर्क दिया गया, उनका कहना था कि प्रस्तावना संविधान का अंग है, लेकिन यह संविधान का प्रावधान नहीं है, इसलिए प्रस्तावना को बदलने के लिए आप संविधान में संशोधन नहीं कर सकते। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने माना कि यह विचार स्वीकार नहीं किया जा सकता कि प्रस्तावना संविधान का भाग नहीं है। यह संविधान का हिस्सा है तथा यह अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संविधान संशोधन की परिधि से बाहर नहीं है। संविधान सभा के अभिलेख इस तरह के विवाद के लिए कोई जगह नहीं छोड़ते।
यह संविधान सभा की कार्यवाही से सर्वविदित है कि प्रस्तावना को मतदान के पश्चात् संविधान के अंग के रूप में स्वीकार किया गया था।
प्रस्तावना प्रकाश पुंज की भांति इतिहास का एक उद्दीप्त विचार व अवधारणा है, इसलिए तर्क दिया जाता है कि वर्तमान और भविष्य में कितना भी शक्तिशाली शासक क्यों न हो, वह ऐतिहासिक तथ्यों में संशोधन नहीं कर सकता। यद्यपि इतिहास के तथ्यों में संशोधन नहीं किया जा सकता, परंतु प्रस्तावना में संशोधन किया जा सकता है।
केशवानंद भारती वाद भारत के संवैधानिक इतिहास में एक मील का पत्थर होने के साथ-साथ एक महत्वपूर्ण मोड़ भी था। महत्वपूर्ण संवैधानिक विषय पर न्यायिक निर्णय में इस वाद से आया बदलाव संवैधानिक कानून के छात्रों के लिए आश्चर्यजनक व अत्यधिक रुचिकर है। प्रत्येक न्यायाधीश द्वारा अपनी राय उत्कृष्ट व मनपसंद शब्दों में व्यक्त की गई, जिनमें हमारे संविधान निर्माताओं की 'हम भारत के लोग' की भावना व्यक्त होती है।
न्यायमूर्ति डी.जी. पालेकर ने कहा कि प्रस्तावना संविधान का अंग है, इसलिए यह अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संशोधन योग्य है। उन्होंने कहा कि मौलिक अधिकारों को प्रस्तावना का विस्तार मानना अतिशयोक्ति व आधा सत्य है। न्यायमूर्ति एच.आर. खन्ना की राय में प्रस्तावना संविधान का अंग है। उन्होंने प्राकृतिक अधिकारों की अवधारणा का विकास कर इसे प्रस्तावना में प्रतिस्थापित स्वतंत्रता, समानता और लोकतंत्र के मूल्य से संबद्ध किया। उन्होंने कहा कि ये अधिकार अहस्तांतरणीय है, इसीलिए इनमें संशोधन नहीं किया जा सकता, क्योंकि इन अधिकारों व मूल्यों को मनुष्य ने युगों के संघर्ष से संजोए रखा है। न्यायमूर्ति खन्ना ने इस तर्क को अस्वीकार कर दिया, जो कहता था कि प्रस्तावना संविधान का अंग नहीं है। उनके अनुसार, 'प्रस्तावना संविधान से पहले चलती है।' उनकी राय में प्रस्तावना भी अन्य प्रावधानों की तरह ही संविधान का अभिन्न हिस्सा है, इसलिए आधारभूत ढांचे को छोड़कर इसमें संविधान के अन्य प्रावधानों की तरह प्रस्तावना में भी संशोधन किया जा सकता है। आधारभूति या मूलभूत ढांचे को संशोधन की शक्ति पर प्रतिबंधक के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए।
न्यायमूर्ति एस.एन. द्विवेदी ने भी न्यायमूर्ति ए.एन. रे के निष्कर्ष व निर्णय के समान ही अपने विचार रखे, जिसने कहा था कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा है। न्यायमूर्ति द्विवेदी ने प्रस्तावना को संविधान का अंग बताने के साथ-साथ इसे संविधान का प्रावधान भी घोषित किया। निष्कर्ष में न्यायमूर्ति बेग ने कहा कि अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संविधान संशोधन की शक्ति पर कोई नियंत्रण नहीं है।

संविधान के एक भाग के रूप में प्रस्तावना

प्रस्तावना को लेकर एक विवाद रहता है कि क्या यह संविधान का एक भाग है या नहीं।
बेरूबाड़ी संघ मामले (1960) में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि प्रस्तावना संविधान में निहित सामान्य प्रयोजनों को दर्शाता है और इसलिए संविधान निर्माताओं के मस्तिष्क के लिए एक कुंजी है। इसके अतिरिक्त अनुच्छेद में प्रयोग की गई व्यवस्थाओं के अनेक अर्थ निकलते हैं। इस व्यवस्था के उद्देश्य को प्रस्तावना में शामिल किया गया है। प्रस्तावना की विशेषता को स्वीकारने के लिए इस उद्देश्य के बारे में व्याख्या करते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा कि प्रस्तावना संविधान का भाग नहीं है।
केशवानंद भारती मामले (1973) में उच्चतम न्यायालय ने पूर्व व्याख्या को अस्वीकार कर दिया और यह व्यवस्था दी कि प्रस्तावना संविधान का एक भाग है। यह महसूस किया गया कि प्रस्तावना संविधान का अति महत्वपूर्ण हिस्सा है और संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित महान विचारों को ध्यान में रखकर संविधान का अध्ययन किया जाना चाहिए। एल.आई.सी. ऑफ इंडिया मामले (1995) में भी पुनः उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी कि प्रस्तावना संविधान का आंतरिक हिस्सा है।
संविधान के अन्य भागों की तरह ही संविधान सभा ने प्रस्तावना को भी बनाया परन्तु तब जबकि अन्य भाग पहले से ही बनाये जा चुके थे। प्रस्तावना को अंत में शामिल किए जाने का कारण यह था कि इसे सभा द्वारा स्वीकार किया गया। जब प्रस्तावना पर मत व्यक्त किया जाने लगा तो संविधान सभा के अध्यक्ष ने कहा, ‘प्रश्न यह है कि क्या प्रस्तावना संविधान का भाग है।’ इस प्रस्ताव को तब स्वीकार कर लिया गया। लेकिन उच्चतम न्यायालय द्वारा वर्तमान मत दिए जाने के बाद कि प्रस्तावना संविधान का भाग है, यह संविधान के जनकों के मत से साम्यता रखता है।
दो तथ्य उल्लेखनीय हैं:
  1. प्रस्तावना न तो विधायिका की शक्ति का स्रोत है और न ही उसकी शक्तियों पर प्रतिबंध लगाने वाला।
  2. यह गैर-न्यायिक है अर्थात इसकी व्यवस्थाओं को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।

प्रस्तावना में संशोधन की संभावना

क्या प्रस्तावना में संविधान की धारा 368 के तहत संशोधन किया जा सकता है।
यह प्रश्न पहली बार ऐतिहासिक केस केशवानंद भारती मामले (1973) में उठा। यह विचार सामने आया कि इसमें संशोधन नहीं किया जा सकता क्योंकि यह संविधान का भाग नहीं है। याचिकाकर्ता ने कहा कि अनुच्छेद 368 के जरिए संविधान के मूल तत्व व मूल विशेषताओं, जो कि प्रस्तावना में उल्लेखित हैं, को ध्वस्त करने वाला संशोधन नहीं किया जा सकता।
हालांकि उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी कि प्रस्तावना संविधान का एक भाग है। न्यायालय ने अपना यह मत बेरूवाड़ी संघ (1960) के तहत दिया और कहा कि प्रस्तावना को संशोधित किया जा सकता है, बशर्ते मूल विशेषताओं में संशोधन नहीं किया जाए। दूसरे शब्दों में, न्यायालय ने व्यवस्था दी कि प्रस्तावना में निहित मूल विशेषताओं को अनुच्छेद 368° के तहत संशोधित नहीं किया जा सकता।
अब तक प्रस्तावना को केवल एक बार 42वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 के तहत संशोधित किया गया है। इसके जरिए इसमें तीन नए शब्दों को जोड़ा गया-समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष एवं अखंडता। इस संशोधन को वैध ठहराया गया।
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