भारत की प्रमुख फसलें (Main Crops of India)

भारत की प्रमुख फसलें (Main Crops of India)
भारत एक कृषि प्रधान देश है जहाँ की अधिकांश जनता और अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा कृषि पर निर्भर करता है। कृषि बहुत पहले से ही भारत के लोगों का मुख्य व्यवसाय रहा है। भारत में कृषि के लिए फसलों की प्रायिकता समय के अनुसार बदलती रही है, यह भूमि, मिट्टी, जलवायु, मौसम और किसान की इच्छा पर निर्भर करता है। परतंत्रता के समय विवश होकर भारतीय किसानों का भारी मात्रा में नील की खेती करनी पड़ी जिससे उन्हें बिल्कुल भी लाभ नहीं था बल्कि परिणामस्वरूप उनकी जमीन बंजर हो गई। भारतीय कृषि मानसून आधारित कृषि है और देश के अधिकांश भागों में किसान बीज बोने के लिए, फसल की सिंचाई के लिए मानसून पर निर्भर करते हैं।
  • भारत में फसल को बोने के समय के आधार पर फसलों को तीन भागों में बाँटा जाता है-
खरीफ फसल
खरीफ फसल को बोने का समय जून जुलाई होता है, अर्थात् यह मानसून के आगमन पर बोई जाती है। मानसून का विलंभ या जल्दी आना इन फसलों को बोने के समय में परिवर्तन कर सकता है। सामान्य: नवम्बर दिसंबर में यह फसलें काट ली जाती हैं।
उदाहरण-
धान (चावल) गन्ना, तिलहन, ज्वार, बाजरा, मक्का अरहर रूई आदि।

रबी की फसल
रबी फसल को अक्टूबर नवम्बर में बोया जाता है, रबी को बोने का टाईम खरीफ को काटने के आस-पास होता है, अर्थात् एक ही खेत में ये दोनों फसलें उगाई जा सकती हैं। इन फसलों को मार्च-अप्रैल में काट लिया जाता है।
उदाहरण-
गेहूँ, जौ, चना, मटर, सरसों, आलू, राई आदि।

जायद फसल
यह फसल मई जून में बोयी जाती है, और जुलाई अगस्त में काट ली जाती है।
उदाहरण-
सरसों, मक्का, ज्वार, जूट आदि।
फसलों को उनके प्रयोग (उत्पाद के प्रकार) के आधार पर भी बॉटा जा सकता है।

कुछ मुख्य फसलें (Some Important Crops)
(1) धान (चावल) (Rice) : इस फसल को अधिक ताप और अधिक आर्द्रता की आवश्यकता होती है। इसे 100 से 200 सेमी वर्षा की आवश्यकता रहती है। यह अम्लीय या क्षारीय किसी भी मृदा में उग जाती है, मात्र मृदा
में जल को रोकने की क्षमता होनी चाहिए। यह भारत के अधिकांश भाग में उगायी जाती है (हिमालय के क्षेत्र और रेगिस्तान को छोड़कर)। चावल की अच्छी पैदावार के कारण छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जाता है। धान की फसल पर हरित क्रांति का अच्छा प्रभाव पड़ा है। पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश आन्ध्र प्रदेश बिहार एवं पंजाब इसके प्रमुख उत्पादक राज्य हैं।

(2) गेहूँ (Wheat) :
गेहूँ की खेती के लिए ठंडा वातावरण और मध्यम वर्षा की आवश्यकता होती है। इसके लिए औसत वर्षा 50 सेमी से 100 सेमी एवं सिंचाई की आवश्यकता होती है। गेहूँ के लिए अच्छी सिंचाई सुविधा वाली उर्वर भूमि अधिक उपयुक्त होती है। गेहूँ की खेती मुख्य रूप से पश्मिोत्तर राज्यों में की जाती है, अब इसकी खेती पूर्वी राज्यों में भी की जाने लगी है। ओला एवं तूफान इस फसल को बहुत नुकसान पहुंचाता है। गेहूँ के उत्पादन में भारत का विश्व में दूसरा स्थान है। गेहूँ का उत्पादन उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरयाणा, राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार आदि प्रमुख गेहूँ उत्पादक राज्य हैं।

(3) मक्का (Maize) :
मक्का विभिन्न प्रकार के जलवायु में उग जाता है, परंतु इसे औसतन 50 से 100 सेमी वर्षा की आवश्यकता होती है। मक्के की पैदावार भारत के लगभग सभी राज्यों में होती है। मक्का अधिकांश राज्यों में खरीफ की फसल है परंतु तमिलनाडु में यह रबी की फसल है।

मुख्य उत्पादक देश
मध्यप्रदेश, अरूणाचल, कर्नाटक और राजस्थान


(4) ज्वार (Jowar) :
इसके लिए औसतन 30 से 100 सेर्मी वर्षा एवं समतल भूमि की आवश्यकता होती है। यह खरीफ एवं रबी दोनों प्रकार की फसल होती है। महराष्ट्र, कर्नाटक, मध्य प्रदेश एवं अरूणाचल प्रदेश इसके प्रमुख उत्पादक राज्य हैं।


(5) बाजरा (Bajra):
बाजरे की अच्छी पैदावार के लिए सूखा एवं गर्म वातावरण चाहिए। इसके लिए औसतन 40 सेमी. से 50 सेमी. वर्षा की आवश्यकता होती है। यह मुख्य रूप से रेतीली मिट्टी, काली एवं लाल मिट्टी में उगाई जाती है। इसे मुख्य रूप से चारे के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसके मुख्य उत्पादक राज्य महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तरप्रदेश एवं राजस्थान।


(6) रागी (Ragi) :
इसके लिए 50 सेमी. से 100 सेमी. वर्षा की आवश्यकता होती है। यह लाल, काली, एवं रेतीली मिट्टी में अच्छी वृद्धि करती है। यह मुख्य रूप से दक्षिण भारत के सूखे क्षेत्र में उगाया जाता है। यह भी खरीफ की फसल है। मुख्य उत्पादक राज्य कर्नाटक, तमिल नाडु, उत्तरांचल एव महाराष्ट्र हैं।


(7) जौ (Barley) :
यह फसल कम ताप एवं कम नमी में उगाई जाती है। इसके लिए औसत तापमान 10 से 15 डिग्री सेल्सियस चाहिए होती है तथा औसर वर्षा 75 से 100 सेमी उपयुक्त होती है। यह ठंडे सूखे प्रदेशों में उगाया जाता है। यह रबी की फसल है। इसका प्रयोग मुख्य रूप से शराब बनाने के लिए किया जाता है। इसका उत्पादन मुख्य रूप से उत्तरप्रदेश, राजस्थान, म.प्र. एवं पंजाब में होता है।


(8) चना (Gram) :
यह विविध प्रकार के वातावरण में उग सकता है। परंतु इसके लिए मध्यम मौसमी दशाएँ अधिक उपयुक्त होती हैं। चना लगभग संपूर्ण भारत में उगाया जाता है। यह रबी फसल है। चने के मुख्य उत्पादक राज्य मप्र एवं उप्र हैं।


(9) तुअर/ अरहर :
यह दूसरे खरीफ फसलो के साथ मिलाकर उगाए जाते हैं। परंतु कुछ स्थानो पर यह रबी की फसल होती है। इसे मुख्य रूप से महराष्ट्र, उप्र, मप्र, गुजरात, कर्नाटक में उगाया जाता है।


(10) कपास (Cotton) :
कपास की उपज के लिए उच्च तापमान की आवश्यकता होती है। इसके लिए स्वच्छ आकाश और 50 सेमी से 100 सेमी वर्षा की आवश्यकता होती है। कपास की अच्छी उपज के लिए काली मिट्टी सबसे उपयुक्त होती है, इसके अतिरिक्त यह एलुवीयल मिट्टी, लाल मिट्टी एवं लैटेराईट मिट्टी में भी उगाई जा सकती है। यह खरीफ की फसल होती है, जिसे पूरा तैयार होने में 6 से 8 महीने लगता है। कपास के उत्पादन में भारत का तीसरा स्थान है (चीन प्रथम एवं अमेरिका द्वितीय)। भारत में महाराष्ट्र, गुजरात, अरूणाचल प्रदेश एवं पंजाब प्रमुख कपास उत्पादक राज्य हैं।


(11) जूट (Jute) :
इसके लिए गर्म और नम मौसम की आवश्यकता होती है। इसके लिए 120 सेमी. से 150 सेमी. वर्षा की आवश्यकता होती है। हल्के धूल और वाले और मिट्टी में इसकी पैदावार सबसे अधिक होती है। इसकी पैदावार के लिए भारत का पूर्वी भाग सबसे उपयुक्त है। इसके प्रमुख उत्पादक राज्य पश्चिम बंगाल, बिहार, आसाम, उड़ीसा आदि हैं। भारत में जूट बांग्लादेश से आयात किया जाता है।


(12) गन्ना (Sugar Cane) :
इसके लिए गर्म एवं नम जलवायु की आवश्यकता होती है। अत्यधिक एवं आवश्यकता से कम वर्षा इस फसल के लिए नुकसानदायक होती है। नमी धारण करने वाली मिट्टी में यह फसल अच्छी होती है। गन्ना के उत्पादन में भारत का दूसरा स्थान है (ब्राजील के बाद)। भारत में इसका उत्पादन मुख्य रूप से उत्तर-प्रदेश, महाराष्ट्र कर्नाटक और तमिलनाडु आदि राज्यों में होता है।


(13) तंबाकू (Tobacco) :
यह 100 सेमी से अधिक वर्षा वाले क्षेत्र में अच्छी उपज देता है। इस फसल में तापमान के उतार-चढ़ाव को बर्दाश्त करने भी अच्छी क्षमता होती है। खनिज लवणों की अधिकता एवं जल की आपूर्ति वाली भूमि में इसकी पैदावार अच्छी होती है। तंबाकू के उत्पादन में भारत का स्थान दूसरा है (चीन के बाद)। आध्रप्रदेश एवं गुजरात इसके प्रमुख उत्पादक राज्य हैं।


(14) मूंगफली (Groundnut) :
मूंगफली की पैदावार के उष्णकटिबंधीय जलवायु उपयुक्त होता है, इसके लिए 50 से 75 सेमी. वर्षा की आवश्यकता होती है। यह खरीफ की फसल होती है, परंतु कुछ स्थानों पर रबी की फसल होती है। मूंगफली के उत्पादन में भारत का प्रथम स्थान है। गुजरात, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश प्रमुख उत्पादक राज्य हैं।


(15) सरसों (Mustard) :
यह ठंडे प्रदेशों में उगाए जाते हैं। यह रबी की फसल है। सरसों के उत्पादन में भारत का प्रथम स्थान है। राजस्थान, उत्तरप्रदेश, हरयाणा, और पश्चिम बंगाल इसके प्रमुख उत्पादक राज्य हैं।


(16) अरण्डी (Castor) :
इसके लिए 50 से 75 सेमी. वर्षा की आवश्यकता होती है। इसके लिए क्ले, काली एवं एलुवीयल मिट्टी उपयुक्त होती है। यह उत्तर में खरीफ की फसल और दक्षिण में रबी की फसल है। अरण्डी के उत्पादन में भारत का दूसरा स्थान है (ब्राजील प्रथम)। गुजरात, आंध्रप्रदेश एवं राजस्थान इसके प्रमुख उत्पादक राज्य हैं।


(17) चाय (Tea) :
इसका उत्पादन ऊष्ण एवं नम वातावरण में किया जाता है। इसके लिए औसतन 150 से 300 वार्षिक वर्षा की आवश्यकता होती है। इसके लिए भूमि में लोहे की आवश्यकता अधिक होती है। भारत में इसके प्रमुख उत्पादक राज्य आसाम, दार्जीलिंग, नीलगिरी की पहाड़ियाँ एवं हिमाचल प्रदेश। यह ढालों में उगाए जाते हैं। चाय के उत्पादन में भारत का पहला स्थान है।


(18) कॉफी (Coffee) :
इसके लिए गर्म एवं नम वातावरण की आवश्यकता होती है। औसत वर्षा 150 सेमी से 250 सेमी होनी चाहिए। भारत में कॉफी का उत्पादन अच्छा नहीं होता परंतु कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु एवं अरूणाचल प्रदेश में इसे उगाया जाता है।


(19) रबर (Rubber) :
इसके लिए गर्म एवं नम वातावरण की आवश्यकता होती है। इसके लिए औसत वार्षिक वर्षा 200 सेमी चाहिए। इसे केरला में अत्यधिक उगाया जाता है। भारत का रबर उत्पादन में विश्व में तीसरा स्थान है (थाईलैण्ड पहला एवं इण्डोनेशिया दूसरा)


(20) इलायची (Cardamom):
इसकी पैदावार के लिए अधिक ताप एवं नमी की आवश्यकता होती है। यह 150 से 300 सेमी. औसत वर्षा वाले क्षेत्र में उगते हैं। इनके लिए लैटेराईट मिट्टी उपयुक्त होती है। भारत में इसका उत्पादन पश्चिमी घाट में अधिक किया जाता है। यह एक छाया प्रिय पादप होता है। भारत विश्व का 90 प्रतिशत इलायची उत्पादित करता है। भारत में केरल, कर्नाटक और तमिल नाडु मुख्य ईलायची उत्पादक राज्य हैं।


प्राथमिक क्षेत्र में विभिन्न क्रांतियाँ
अर्थव्यवस्था के प्राथमिक क्षेत्र में क्रांतियों की शुरूआत हरित क्रांति से हुई। हरित क्रांति के जनक नारमॅन बॉरलोग हैं। भारत में हरित क्रांति का जनक एम एस स्वामीनाथन हैं। हरित क्रांति का प्रभाव मुख्य रूप से गेंहू, चावल और मक्के में पड़ा।

इन्द्रधनुष क्रांति
उत्पादन के सभी क्षेत्र
हरित क्रांति
खाद्यान उत्पादन
पीत क्रांति
तिलहन
श्वेत क्रांति
दूध उत्पादन
कृष्ण क्रांति
बायोडीजल उत्पादन
नीली क्रांति
मत्स्य उत्पादन
सुनहरी क्रांति
फल उत्पादन
भूरी क्रांति
उर्वरक उत्पादन
रजत क्रांति
अण्डा उत्पादन
लाल क्रांति
टमाटर और मॉस उत्पादन
गुलाबी क्रांति
झींगा मछली उत्पादन
बादामी क्रांति
मसाला उत्पादन
अमृत क्रांति
नदी जोड़ परियोजना

भारत में कृषि क्षेत्र में जैव-प्रौद्योगिकी का प्रयोग
(Application of Biotechnology in the sector of Agriculture in India)


भारत के अधिकांश क्षेत्र में मानसून आधारित कृषि की जाती है, अतः मानसून के उतार-चढ़ाव से हमारे देश की कृषि अत्यधिक प्रभावित होती है। मानसून के अतिरिक्त भी अनेक कारक हैं जो हमारे देश के विभिन्न क्षेत्रों की कृषि को भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रभावित करती है। ऐसे में एक स्थायी कृषि प्रणाली के लिए यह अनिवार्य है कि अक्षय निवेशों का उपयोग किया जाए जो पारिस्थितिकी लाभों को अधिकतम बना सके और पर्यावरण संबंधी जोखिमों को न्यूनतम कर सकें। इसे प्राप्त करने के अनेक संभव मार्ग हो सकते हैं
  1. वातावरण की नाइट्रोजन गैस के दोहन द्वारा रासायनिक नाइट्रोजन उर्वरकों के उपयोग पर निर्भरता कम करने का हो सकता है।
  2. पादपों के दक्ष प्रजातियों को विभेदीकृत करके जैव तकनीकी द्वारा द्वारा इनमें पुनः सुधार किया जाना चाहिए जिससे ये पादप वातावरणीय परिवर्तनों को दक्षता से झेलकर उत्पाद देते रहें।
  3. पारजीनी जैव उर्वरकों के विकास पर सतर्कता पूर्वक बल दिया जाना चाहिए। इनके हानिकारक पहलूओं के कारण इनके अत्यंत लाभदायक परिणामों को नजरअंदाज करने के बजाए हानिकारक पहलूओं की तीव्रता कम करते हुए इनसे लाभ प्राप्त करने के हर संभव प्रयास किये जाने चाहिए।
भारतीय कृषि में निम्न नवीन धारणाएँ हैं जो भारतीय कृषि के स्वरूप को पूर्णतः परिवर्तित करने की क्षमता रखती हैं।

1. जैव ईंधन (Bio Fuel) :
परंपरागत रूप में ईंधन के रूप में कोयला आदि अजैविक पदार्थों का उपयोग किया जाता रहा है, जिनका पृथ्वी पर सीमित भंडार है तथा जिनके दोहन एवं प्रयोग से पर्यावरण को अनेक प्रकार की क्षति पहुँचती है, कालांतर में ईंधन के वैकल्पिक स्त्रोतों की ओर वैज्ञानिकों का रूझान गया और जैव ईंधन की संकल्पना सामने आई जिसके तहत पादपों तथा जीवों के अपशिष्टों का प्रयोग ईंधन के रूप में किये जाने का प्रस्ताव दिया गया जो ईंधन के परंपरागत स्त्रोतों से अधिक सुलभ तथा पर्यावरणीय दृष्टि से अधिक सुरक्षित तरीका है। इसके अंतर्गत सामाजिक विज्ञान अनुसंधान केन्द्र, कोयंबटूर में जैव ईंधन एवं अन्य उत्पादों के उत्पादन हेतु तमिलनाडु के नमक्काल जिले की शुष्क भूमि में जट्रोफा की खेती के लिए एक परियोजना हाथ में लिया गया, जिसके अंतर्गत अनेक कार्यों को सफलता पूर्वक अंजाम दिया गया।

2. जैव उर्वरक (Bio Fertilizers) :
एक समय रासायनिक उर्वरकों के चमत्कारिक परिणामों ने सभी को चौंका दिया था परंतु समय के साथ यह ज्ञात हो गया कि रासायनिक उर्वरकों के मात्र तात्कालिक लाभ हैं, और इन क्षणिक लाभों के लिए पर्यावरण, मनुष्य के स्वास्थ्य आदि को खतरे में नहीं डाला जा सकता तब जैव वैज्ञानिकों ने जैव उवर्रक की ओर अपना रूख किया। जैव उवर्रक वास्तव में जैव अपशिष्टों से तैयार किया जाने वाले उवर्रक से थोड़ा भिन्न है। जैव उवर्रकों में जीवों के जैविक प्रक्रियाओं का उपयोग किया जाता है। उदाहरणस्वरूप केंचुओं के किसान का मित्र होने की जानकारी सहस्त्रों वर्षों से मनुष्य को है। जैव उवर्रक के अंतर्गत इन्हीं केंचुओं को गड्ढे में पाला जाता है और ये अपनी गतिविधियों से कृषि के लिए उवर्रक का निर्माण करते हैं। इसी प्रकार जैव उवर्रकों के प्रयोग के लिए भारत में अनेक परियोजनाएं चलाई गई हैं। उदाहरणस्वरूप तमिलनाडु के सलेम जिले के वीरा पंडी की अ.जातियों में उन्नत कृषि पैदावार हेतु जैव उर्वरक के एक प्रभावी स्रोत के रूप में कृमि खाद के विकास एवं कार्यव्यवहार पर एक परियोजना जीआरडी एजूकेशनल ट्रस्ट, कोयंबतूर में क्रियान्वित की गई थी।

जैव कीटनाशी (Bio Insecticides)
  • कीटनाशकों के जंतुओं के स्वास्थ्य एवं पर्यावरण के लिए हानिकारक होने की पुष्टि के पश्चात् जैव कीटनाशकों के प्रयोग का प्रचलन तेजी से बढ़ाने का प्रयत्न जैव वैज्ञानिकों द्वारा किया जाने लगा जिसके अंतर्गत नीम आदि कीटनाशक गुण रखने वाले पादपों का प्रयोग प्रोत्साहित किया जाने लगा। इसी के अंतर्गत मदुरै कामराज विश्वविद्यालय, मदुरै में कीट नियंत्रण हेतु नीम तथा अन्य पौधों पर आधारित जैव कीटनाशकों के उत्पादन एवं अनुप्रयोग पर एक परियोजना क्रियान्वित की गई थी। कृषि कीटों के नियंत्रण हेतु किसानों को नीमा, एकोरम तथा जट्रोफा सूत्रणों को तैयार करने एवं अनुप्रयोगों हेतु प्रशिक्षित किया गया था।

कृषि के क्षेत्र में नये प्रचलन (New trends in the field of Agriculture)
  • समय के साथ कृषक एवं भारत के कृषि विशेषज्ञ कृषि के पारंपरिक तरीकों एवं पारम्परिक फसलों से बाहर निकल कर कृषि के क्षेत्र में नयापन लाने के लिए प्रयासरत हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह प्रयत्न जैव तकनीकी के कारण ही संभव हो पाया है। कृषि के क्षेत्र में यह नयापन कृषि के तरीके से लेकर फसलों के चयन तक सभी आयामों में देखा जा सकता है। एक समय में मात्र अनाज, दलहन और तिलहन की खेती करने वाले भारतीय कृषक अब फलों और फूलों की कृषि को भी उत्साह से स्वीकार करने लगे हैं, इसी प्रकार रासायनिक उवर्रकों के स्थान पर जैव उवर्रकों का प्रयोग, वन्य प्रजातियों के स्थान पर आनुवांशिक रूप से रूपान्तरित पादपों का प्रयोग, मत्स्य, मुर्गी तथा मॉस वाले पशुओं का व्यवस्थित एवं बड़े पैमाने पर पालन भी भारतीय कृषि के बदलते चलन को प्रदर्शित करता है। कृषि के इस बदले हुए स्वरूप में दो अति महत्वपूर्ण हैं- मशरूम कृषि
  • आनुवांशिक रूपान्तरित पादपों की कृषि।

(1) मशरूम कृषि (Mashroom Farming) :
  • मशरूम वास्तव में पादप नहीं है बल्कि कवक की एक प्रजाति है। यह प्रोटीन का बहुत ही अच्छा और स्वादिष्ट स्त्रोत होता है मशरूम को भारत के विभिन्न ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत पहले से खाया जाता रहा है। मशरूम के लाभों को देखते हुए इसकी खेती के अनेक प्रयास किये जाते रहे हैं जिससे प्रारंभ में मात्र वर्षा के मौसम में उपलब्ध होने वाला मशरूम अब वर्ष भर उपलब्ध होने लगा है। मशरूम की खेती के प्रयास में मदुरै एवं विरूद्धनगर जिलों के बेरोजगार अ.जा./अ.ज.जा. के लोगों के लिए मदुरै कामराज विश्वविद्यालय में मशरूम खेती पर एक परियोजना कार्यान्वित की गई। ओयस्टर मशरूम की खेती पर एक प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किया गया। स्वास्थ्य एवं शस्य कर्त्तन पहलओं सहित मशरूम खेती पर युवकों को प्रशिक्षित किया गया था प्रशिक्षार्थियों ने आय बढ़ाने की गतिविधि के रूप में मशरूम की खेती करना शुरू कर दिया है।

(2) आनुवांशिक रूप से रूपान्तरित फसलें (Genetically Modified Crops) :
  • जेनेटिकली मोडिफायड पादप वे होते हैं जिनका डी. एन. ए, परिवर्तित कर दिया जाता है। यह काम (जेनेटिक इंजीनियरिंग) उत्पत्ति विषयक अभियांत्रिकी अथवा रिकॉम्बिनेटिन डीएनए तकनीक (Recombinating DNA Technique) (फिर जोड़ने वाली डीएनए तकनीक) के जरिये संभव होता है। फसलों को आनुवांशिक रूप से रूपान्तरित करने का उद्देश्य खरपतवार रोधी, अधिक पोषण क्षमता और अधिक टिकाऊ पौधे व खाद्य उत्पाद हासिल करना है। इस प्रक्रिया में चयनित खास जीन, जिनकी पहचान कुछ इच्छित गुणों व विशेषताओं के लिए की गई है, को एक प्रकार के पौधे से दूसरे में प्रत्यारोपित किया जा सकता है। यह काम विजातीय जीव-प्रजातियों के बीच भी संभव हो सकता है। वैकल्पिक रूप से किसी भी पौधे के उत्पत्ति पदार्थ में से चयनित जींस को हटाया भी जा सकता है। कुछ खाद्य प्रजातियां जिनके जीएम संस्करण दुनिया में विकसित किए जा चुके हैं उनमें टमाटर, सोयाबीन, मक्का, कपास, चावल, कैनोला और चुकंदर आदि हैं।

जी.एम. फसलों के क्षेत्र में भारत की उपलब्धियाँ-
  • भारत में अभी तक सिर्फ बीटी कॉटन ही एकमात्र जीएम फसल है जो पैदा की जा रही है। बीटी बैंगन के उत्पादन पर स्थगन आदेश जारी होने के बाद अभी तक भारत में और कोई जीएम फूड पैदा नहीं किया जा रहा है। जीएम फसलों के प्रति हमारे देश की इस निष्क्रियता का कारण है जीएम फसलों से आशंकित नुकसान।

जीएम फसलों से उत्पन्न होने वाले संकट-
  • जीएम फसलों को लेकर मुख्य चिंताएँ पर्यावरण, मानव स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले उसके प्रभाव हैं। स्वास्थ्य क्षेत्र में मुख्य संकट हैं- एलर्जी।
  • इसके अतिरिक्त मानव शरीर में जीन का प्रत्यारोपण और उसके खतरनाक परिणाम और किसी फसल की जीएम प्रजाति की परंपरागत प्रजाति में मिलावट जैसे मामले भी चिंता की वजह बने हुए हैं। पर्यावरण के क्षेत्र में जीएम फसलों के अनेक दुष्प्रभाव परिलक्षित होते हैं जीएम फूड के जरिये जंगली जीवों में अभियांत्रिक जीन का प्रवेश, लाभकारी कीटों पर घातक प्रभाव, कीटनाशकरोधी कीटों की संख्या में बढ़ोत्तरी, जीएम पौधों की कटाई के बाद ऐसे जीन का उस स्थान में बचा रह जाना, जीन स्थायित्व और गैर-जीएम पौधों की संख्या में कमी और जैव विविधता का नुकसान आदि।

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