लोक अदालत
न्यायालयों के माध्यम से विधिक राहत पाने की प्रक्रिया लंबी और अत्यंत जटिल है और इसमें खर्च भी बहुत लगता है। इसी कारण विवादों को त्वरित तथा कम खर्च में निपटाने के कई भिन्न-भिन्न और नए तरीके निकल आए हैं। ऐसा ही एक तरीका लोक अदालत है।
विवादों को शीघ्रतापूर्वक और कम खर्च में स्वैच्छिक रूप से निपटाने की विधि को बढ़ावा देने के लिए लोक आदालतें उच्चतम न्यायालय के कुछ न्यायाधीशों द्वारा शुरू की गई थीं। अब संसद द्वारा पारित विधिक सेवा प्राधिकरी अधिनियम, 1987 के अधीन लोक अदालतों को सांविधिक दर्जा प्राप्त हो गया है। इस सम्मिश्र अधिनियम का सरोकार कानूनी सहायता, लोक आदालतों और कानूनी सहायता सेवाओं से है। इन युगल संस्थाओं का उद्देश्य सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने के लिए कानूनी प्रणाली के प्रचालन को सुनिश्चित करना है- सामाजिक न्याय का विशेष महत्व समाज के दुर्बल वर्गों के लिए है जो आर्थिक तथा अन्य आयोग्यताओं के कारण, सामान्य न्यायालयी प्रक्रियाओं में होने वाले विलंब और व्यय को सहन नहीं कर सकते।
यदि किसी साधारण व्यक्ति को न्याय पाने के लिए किसी निगम, बीमा कंपनी, बड़ी कंपनी, या सरकारी उपक्रम के साथ संघर्ष करने के लिए विवश होना पड़े तो यह संघर्ष सदैव दो असमान पक्षकारों के बीच होता है। अधिकांश मामलों में, व्यक्ति उपयुक्त कानूनी सेवाओं का खर्च नहीं उठा सकता जबकि निगम अच्छे से अच्छे विधि व्यवसायियों की सेवाएं प्राप्त कर सकता है।
कभी-कभी न्यायालय के दूसरे खर्च इतने ज्यादा होते हैं कि उन्हें उठाना व्यक्तिगत वादकारी के लिए बहुत कठिन होता है। इसके अतिरिक्त, तकनीकी प्रक्रियाएं जटिल होती जाती हैं, स्थगनों की संख्या बढ़ती जाती है और न्यायालय का खर्च बढ़ता चला जाता है।
यही पृष्ठभूमि थी जिसे दृष्टि में रखकर लोक अदालतों की स्थापना _का उपबंध करने वाला अधिनियम पारित किया गया।
अधिनियम में यह उपबंध है कि राज्य या जिले के प्राधि कारी समय समय पर सुविधाजनक स्थानों पर लोक अदालतों का गठन करेंगे जिन्हें राज्य अथवा जिला प्राधिकारियों द्वारा प्रदत्त अधि कारिता होगी। अधिनियम में यह भी कहा गया है कि लोक अदालतों में उस क्षेत्र के न्यायिक अधिकारी और ऐसे सदस्य होंगे जिनके पास राज्य द्वारा विहित योग्यताएं और अनुभव होगा।
लोक अदालतों की अधिकारिता बड़ी व्यापक है। वे सिविल, दांडिक या राजस्व न्यायालयों अथवा अधिकरणों की अधि कारिता में आने वाले किन्हीं मामलों से संबंधित विवादों से जुड़े उभय पक्षों के बीच समझौता या निपटारे सकती हैं। यदि संबंधित पक्ष न्यायालय या अधिकरण में संयुक्त आवेदन प्रस्तुत करके अपना यह आशय व्यक्त करें कि वे आपस में समझौता या निपटारा करना चाहते हैं तो वह मामला लोक अदालत के समक्ष जा सकता है। तब न्यायालय की अध्यक्षता करने वाला न्यायाधीश अथवा अधिकरण, मामले को आगे बढ़ाने के स्थान पर यह आदेश कर देता है कि कार्रवाई समझौते/निपटारे के लिए लोक अदालत को अंतरित कर दी जाए।
अधिनियम में स्वयं ही इस बात का उपबंध है कि लोक अदालत अपने समक्ष चलने वाली कार्रवाई का अवधारण करेगी और विवादी पक्षों के बीच समझौता/निपटारे के लिए अधिकतम शीघ्रता के साथ काम करेगी और यह कि लोक अदालतें विधि के सिद्धांतों, न्याय सिद्धांतों, साम्या और ऋजुता से प्रेरित होंगी। यदि लोक अदालत में विवादी पक्षों के बीच कोई समझौता/निपटारा नहीं हो पाता तो मामला फिर उसी न्यायालय को अंतरित कर दिया जाता है जहां से वह मूलतया प्रेषित किया गया था।
लोक अदालत के अधिनिर्णय को विधितः लागू किया जा सकता है क्योंकि इसे सिविल न्यायालय या अधिकरण की डिक्री माना जाता है तथा आगे और खर्च एवं विलंब को बचाने के लिए इसे विवाद के सभी पक्षों के लिए अंतिम तथा बाध्यकारी माना जाता है। लोक आदालत के अधिनिर्णय की किसी न्यायालय में अपील का कोई उपबंध नहीं किया गया है।
सिविल प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत लोक अदालत को विवादों का विचारण करते समय सिविल न्यायालय की शक्तियां प्रदान की गई हैं और लोक अदालत के समक्ष चलने वाली कार्रवाई को भारतीय दंड संहिता के उपबंध के अनुसार न्यायालय की कार्रवाई माना जाता है।
उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों ने समय-समय पर लोक अदालतें लगाई हैं और बराबर लगा रही हैं जिनमें इन न्यायलायों में लंबित मामले विवादी पक्षों की सहमति से अंतरित कर दिए जाते हैं। लोक अदालतों में बड़ी संख्या में मुकदमों का फैसला किया है। इनके निर्णयों को संबंधित न्यायालयों की डिक्री का रूप दिया गया है। इस तरह की लोक अदालतें अब बिजली बोर्डी, टेलीफोन विभाग आदि विभिन्न सरकारी विभागों द्वारा भी लगाई जा रही हैं।
यदि ठीक से उपयोग किया जाए तो लोक अदालतें उपयोगी संस्थाएं सिद्ध हो सकती हैं। ये न्यायालयों के स्थानापन्न के रूप में कार्य नहीं कर सकतीं, परंतु यदि इनका गठन और संचालन ध्यान से किया जाए तो ये वर्तमान न्यायतंत्र की एक स्वागत-योग्य अतिरिक्त अंग सिद्ध हो सकती हैं। अन्य न्यायालयों और अधिकरणों की तरह, पक्षकारों/वकीलों/प्राधिकारियों/राजनीतिज्ञों द्वारा इन अदालतों का भी दुरुपयोग किया जा सकता है।