वनोन्मूलन क्या है? | परिभाषा | कारण | प्रभाव | vanonmulan in hindi

वनोन्मूलन (DEFORESTATION)

वनोन्मूलन एक व्यापक अर्थ वाला शब्द है जिनके अन्तर्गत पेड़ों की कटाई, जिसमें बार बार की जाने वाली काट-छांट, पेड़ों का गिरना, जंगल के कूड़े-कर्कट की सफाई, मवेशियों का चरना, जंगल में घूमना और नये पौधों के साथ छेड़छाड़ करना सब कुछ सम्मिलित है इसको ऐसे भी परिभाषित किया जा सकता है कि जंगलों की हरियाली को इस हद तक हानि पहुंचाना कि उसका प्राकृतिक सौन्दर्य, फल-फूल आदि विकसित न हो सकें।

उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में वनोन्मूलन, बाढ़ जैसी आपदा की वार्षिक वृद्धि में, प्रमुख कारण है।


वनोन्मूलन वृक्षों के आवरण के नष्ट होने को संदर्भित करता है। एक ऐसी भूमि जिसे जंगल के स्थान पर खेती. चारागाह, रेगिस्तान और मनुष्य के आवास के लिये परिवर्तित कर दिया हो।
बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में हमारे ग्रह की सतह ( भूमि ) पर लगभग 7.0 अरब हेक्टेअर भूमि पर वन थे और 1950 तक वन्यावरण घटकर 4.8 अरब रह गया है। अगर ऐसा ही रहा तो 2000 A.D. तक वन घटकर 2.35 अरब ही रह जायेंगे। FAQ/UNEP की एक रिपोर्ट में उल्लिखित है कि प्रतिवर्ष 7.3 मिलियन हेक्टेयर उष्णकटिबंधीय वन समाप्त हो रहे हैं और प्रतिमिनट 14 हेक्टेयर नियंत्रित वन समाप्त हो रहे हैं।

2001 के अनुसार वन्यावरण

वर्ग

क्षेत्र (वर्ग किमी.)

भौगोलिक क्षेत्र का प्रतिशत

1. वन्यावरण

(क) गहन

416,809

12.68

(ख) अनावृत

258,729

7.87

कुल वन्यावरण*

675,538

20.55

2. साधारण जंगल

छोटी झाड़ी के जंगल

47,318

1.44

कुल साधारण जंगल*

2,611,725

79.45

कुल भौगोलिक क्षेत्र

3,287,263

100.00

  • 4,482 वर्ग किमी अंड मैंग्रोव भी निहित (देश के भौगोलिक क्षेत्र का 0.14 प्रतिशत भाग)
  • छोटी झाड़ी के वन भी निहित
2001 के अनुसार भारत में वन्यावरण
vanonmulan-in-hindi

भारत में वन्य हानि का विस्तार

भारत एक कृषि प्रधान देश है। देश धीरे धीरे अपने वन्यावरण को खोता जा रहा है क्योंकि खेती के लिए चारागाहों के लिए और चाय, कॉफी की फसलों को उगाने के लिए जंगलों को काटा जा रहा है। भारत के सामने वनोन्मूलन एक गम्भीर और पर्यावरण सम्बन्धी बड़ी समस्या है। सत्तर के दशक के प्रारम्भ में किये गये सर्वेक्षण के अनुसार भारत में केवल 22.7% वन्यावरण थे जबकि "राष्ट्रीय वन पॉलिसी" के अनुसार 33% वन्यावरण वांछित है।
स्वतंत्रता के कुछ ही समय के बाद सड़कों, नहरों और बस्तियों के लिए बड़े पैमाने पर वन्य-क्षेत्रों को काटा गया। वन्य संपदा के दोहन में वृद्धि हुई। 1950 में भारत सरकार ने प्रतिवर्ष वृक्षारोपण का उत्सव मनाना प्रारम्भ किया जिसे 'वनमहोत्सव' का नाम दिया गया। गुजरात राज्य में यह सर्वप्रथम प्रारम्भ हुआ। 1970 से भारतीय वनों और वन्य प्राणियों के संरक्षण को अधिक प्रोत्साहन मिला। भारत विश्व के उन देशों में से एक है जिन्होंने 'सामाजिक वनविज्ञान कार्यक्रम का निरूपण किया जिसमें सड़क के किनारों पर, नहरों और रेल पटरियों के किनारों पर साधारण-वन क्षेत्रों (Non- forest) में वृक्षारोपण किया।

वनोन्मूलन के कारण

वन भूमि का कृषि भूमि में परिवर्तन
जैसे-जैसे कृषि उत्पादों की मांग बढ़ती गई, अधिक-से-अधिक भूमि पर खेती शुरू होती गई और इसके लिये जंगलों को समाप्त करते चले गए। घास के हरे मैदान, यहाँ तक कि दलदली और पानी के नीचे की भूमि को भी खेती के लिये प्रयोग में लाया जाने लगा। वनोन्मूलन से मृदा अपरदन और क्षरण की समस्या उत्पन्न होती है।

स्थानांतरित या झूम कृषि (Shifting or Jhum Cultivation)
झूम कृषि, दक्षिणी एवं दक्षिणी-पूर्वी एशिया के पहाड़ी क्षेत्रों में वनों के क्षय एवं विनाश का एक मुख्य कारण है। कृषि की इस प्रथा में पहाड़ी ढालों पर वनों को जलाकर उस भूमि पर खेती की जाती है। । जब उस भूमि की उत्पादकता घट जाती है तो अन्यत्र नए भागों के वनों को साफ किया जाता है। आज भी भारत में असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, ओडिशा, नागालैंड आदि राज्यों में 'स्थानांतरित खेती' की विधि प्रयोग की जाती है।

वनों का चारागाहों में परिवर्तन
डेयरी विकास के कारण वनों को व्यापक स्तर पर पशुओं के लिये चारागाहों में बदला गया| राजस्थान में वनस्पति के अभाव में पशुचारण एक महत्त्वपूर्ण कारक है।

जलावन लकड़ी की मांग
विश्व की कुल लकड़ी में से 44% लकड़ी संसार की ईंधन की आवश्यकता को पूरा करती है। विकसित देशों में ईंधन की आवश्यकता का 16% जलावन लकड़ी से पूरा  किया जाता है, वहीं भारत में हजारों हेक्टेयर वनावरण को काटना पड़ता है तब शहर और गाँवों के गरीबों की ईंधन की आवश्यकता पूरी हो पाती है। भारत सरकार द्वारा इस मांग को कम करने के विशेष प्रयास किये जा रहे हैं।

औद्योगिक और व्यावसायिक उपयोग के लिये लकड़ी
लकड़ी एक बहुपयोगी वन्य उत्पाद है। इसका उपयोग बहुत से औद्योगिक कार्यों, जैसे-लकड़ी के सामान, पैकिंग के बॉक्स, फर्नीचर, माचिस, लकड़ी के बक्से, कागज तथा प्लाईवुड के लिये किया जाता है। लकड़ी के विभिन्न औद्योगिक उपयोगों के लिये जंगल काट दिये जाते हैं। उदाहरण के लिये हिमालय क्षेत्र में सेबों की खेती के कारण देवदार व अन्य प्रजाति के वृक्षों का बहुत विनाश हुआ है।

शहरीकरण तथा विकास परियोजना
प्रायः विकासशील गतिविधियाँ वनोन्मूलन को साथ लाती हैं। आधारभूत ढाँचे (सड़क, बांध, रेलवे लाइन, बिजली) के विकास के साथ ही वनों का उन्मूलन शुरू हो जाता है। तापीय शक्ति संयंत्र, कोयला, खनिज और कच्चे माल के लिये खनन वनों के उन्मूलन के महत्त्वपूर्ण कारण हैं। बहुउद्देश्यीय नदी घाटी परियोजना के कार्यान्वयन के समय विस्तृत वन क्षेत्र का क्षय होता है क्योंकि बांधों के पीछे निर्मित वृहद् जलभंडारों में जल के संग्रह होने पर वनों से आच्छादित विस्तृत भू-भाग जलमग्न हो जाता है।

वनाग्निः
जंगलों में लगने वाली आग से भी वनों का ह्रास होता है। प्रत्येक वर्ष प्राकृतिक या मानवीय कारकों से वनों में आग लगना एक आम बात है। हाल ही में उत्तराखंड तथा ऑस्ट्रेलिया व अन्य यूरोपीय देशों में वनाग्नि की घटनाएँ घटित हुईं, जिसमें हजारों एकड़ क्षेत्र में विस्तृत वनों को हानि पहुँची।

वन और आदिवासी समाज

विश्व की 4% जनसंख्या विशेष भूभागों में निवास करती है। ये स्थानीय लोग या आदिवासी एक विशेष स्थान पर अपना अधिकार रखते हैं। विशेष स्थान के लिये उनके सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और आर्थिक बन्धन होते हैं और अधिकतर वे उस स्थान या क्षेत्र को रखते और उसके प्रबन्धन में स्वयं सक्षम होते हैं। इस तरह वे उस स्थान की जैवविविधता और स्थानीय संस्कृति का, ज्ञान का और संसाधनों के प्रबन्धन के कौशल की रक्षा और संरक्षण करते हैं।
उदाहरण के लिये आदिवासियों को उन कृषि विधियों का ज्ञान है जो पारिस्थितिकी के अनुसार उपयुक्त है और वह ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी शताब्दियों से चला आ रहा है । वे जानते हैं कि किस प्रकार भिन्न प्रकार के भोजन और रेशा फसलों को एक साथ एक जमीन के टुकड़े पर उगाया जा सकता है जिससे वह जमीन कई वर्षों तक लगातार उपजाऊ बनी रहती है। फिर उस जमीन के टुकड़े को पुन: जंगल बनने के लिये कई वर्षों तक छोड़ दिया जाता है। कुछ वर्षो बाद फिर सफाई और खेती का नया चक्र प्रारम्भ होता है।

वनोन्मूलन के परिणाम

वनोन्मूलन का प्रभाव पर्यावरण पर भौतिक और जैविक दोनों ही प्रकार से पड़ता है।
  • मृदा अपरदन और आकस्मिक बाढ़ें
  • जलवायु में परिवर्तन
  • जैवविविधता में कमी
(1) मृदा अपरदन और आकस्मिक बाढ़
घटते हुए वन्यावरण और भूजल के असीमित दुरुपयोग और शोषण ने निचले हिमालयों के ढलान अरावली की पहाड़ियों का क्षय (नाश) तीव्रता से कर दिया, जिससे वे भूस्खलन की ओर उन्मुख हो गये। वनों के विनाश ने वर्षा का ढंग भी बदल दिया। 1978 में भारत ने बहुत भयानक बाढ़ का सामना किया था। दो दिन की भीषण वर्षा ने 66,000 गांवों को जलमग्न किया था, 2000 लोग डूब गये थे और 40,000 पशु बह गये थे। 2008 में बिहार राज्य की कोसी नदी में भयंकर बाढ़ आई। जिसमें बहुत सी जानें चली गई और बड़ी संख्या में जानवर बह गये। वन्यावरण के कम होने से पानी धरती के ऊपर ऊपर बहता रहा जिसके साथ मिट्टी की ऊपरी सतह बहकर नदियों के तल में गाद की तरह बैठ गई। वन मिट्टी के अपरदन को, भू-स्खलन को रोकते हैं जिससे बाढ़ और सूखे की तीव्रता कम होती है।

विश्वव्यापी मिट्टी के नुकसान में भारत में मिट्टी की ऊपरी सतह का नुकसान 18.5% है । यह एक गम्भीर बात है क्योंकि भारत के पास विश्व के भूक्षेत्र का केवल 2.4% है।


(2) जलवायु परिवर्तन
वन स्थानीय अवक्षेपण को बढ़ाते हैं और मिट्टी की पानी रोकने की शक्ति को समृद्ध बनाते हैं, जल-चक्र को नियन्त्रित करते हैं। पेड़ों से जो पत्तियां या कूड़ा-करकट गिरता है उसकी सड़न से मिट्टी को पोषकता मिलती है और वह उर्वरक होती है। वन मृदा अपरदन, भूस्खलन को सीमित करते हैं और बाढ़ों और सूखे की तीव्रता को भी कम करते हैं । वन वन्यजीवों के निवास होते हैं इससे समाज का सौन्दर्य, पर्यटन और सांस्कृतिक मूल्य विकसित होता है।
वनों का जलवायु पर गहरा प्रभाव पड़ता है। जंगल वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड को सोख लेते हैं और ऑक्सीजन (प्राणवायु) और कार्बन डाइऑक्साइड का अनुपात वातावरण में उचित मात्रा में रखते हैं। वनों के कारण ही हवा में, जिसमें हम सांस लेते हैं, ऑक्सीजन की मात्रा उचित बनी रहती है। वन, वातावरण में जल-नियमन (जल-चक्र) को नियंत्रित रखने का महत्वपूर्ण कार्य करते हैं और जलवायु और वातावरणीय आर्द्रता को नियमित रखने में पर्यावरणीय सहयोगी का अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य करते हैं। 
शताब्दी की एक महत्वपूर्ण समस्या वातावरण में उष्णता (ऊष्मा) का संचयन होना है जिसे शीशे की बनी पौधशाला का प्रभाव (ग्रीनहाउस प्रभाव, Green house effect) जाना जाता है। इस प्रभाव का मुख्य कारण वनोन्मूलन ही है। सम्पूर्ण हिमालय का पारितंत्र खतरे में है और असंतुलित होती जा रही है क्योंकि हिमरेखा पतली होती जा रही है और बारहमासी झरने भी सूखने लगे हैं। वार्षिक वर्षा भी 3 से 4% कम होने लगी है। दीर्घकालीन सूखा तमिलनाडू और हिमाचल प्रदेश जैसे क्षेत्रों में भी होने लगा जहाँ ये पहले जाने ही नहीं जाते थे।

(3) जैवविविधता
जीवन के प्रत्येक रूप को जैवविविधता कहा जाता है। जैवविविधता (Biodiversity, जैविक विविधता) विविधता का माप है, इसमें सभी जीवित प्राणियों और वस्तुओं के प्रकारों का समावेश जैवविविधता में होता है। जैवविविधता को कई प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है जिसमें प्रजातियों में अनुवांशिक स्ट्रेनों (भिन्नताओं) की संख्या और क्षेत्र की विभिन्न पारिस्थितिकीय भिन्नताएं निहित हैं। किसी विशेष क्षेत्र में (स्थानीय विविधता) या किसी विशेष प्रकार के पर्यावास में ( पर्यावास विविधता) या पूरे विश्व में (विश्वव्यापी विविधता) रहने वाली विभिन्न जाति प्रजातियों की संख्या को सामान्य रूप से जैवविविधता कहा जाता है। जैवविविधता स्थिर नहीं होती है। विकास के साथ साथ समय परिवर्तन से कुछ नई प्रजाति जन्म ले लेती हैं और कुछ प्रजाति लुप्त हो जाती हैं।
विश्वव्यापी स्तर पर हमारा ज्ञान अधूरा है, लगभग 1.4 मिलियन प्रजातियों को अभी तक पहचाना गया है। पृथ्वी पर रहने वाली विभिन्न प्रजाति अनुमानतः 10 और 100 मिलियन के बीच है। जैव-विविधता के संरक्षण के लिए बहुत सोच विचार और चिन्ता की जा रही है। जैव विविधता के संरक्षण से एक बड़ा लाभ यह होगा कि मानव प्रयोग और कल्याण के लिये अनेक प्रकार के उत्पाद उपलब्ध होंगे। यह कृषि के लिये बहुत बड़ा सम्भावित स्रोत है। साथ ही कृषि और उद्योग के लिये भी उपयोगी स्रोत है

जैव विविधता में कमी आने के कुछ कारण इस प्रकार हैं:-
  1. शिकार, चोरी से शिकार और व्यावसायिक शोषण।
  2. वन्यजीवों के निवासों को हटाना या उनसे छेड़छाड़ करना।
  3. कुछ निवास स्थानों/जीव प्रकारों को नष्ट करना।
  4. पशुपालन।
  5. नये क्षेत्र में नई विदेशी प्रजाति को रखना जो स्थानीय प्रजातियों के लिये खतरा बन जाती हैं।
  6. कीटनाशकों का प्रयोग।
  7. टिड्डी, दीमक आदि कीड़े, औषधीय-शोध और चिड़ियाघर।
ऊपर के सभी कारण जैवविविधता पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।

लुप्त प्रजातियां
प्रत्येक प्रजाति का चरम भाग्य यही है कि उसे लुप्त होना है परन्तु औद्योगिकीकरण के बाद इसकी गति तीव्रता से बढ़ी हैं। लुप्त प्रजातियां या तो चिड़ियाघर में देखने को मिलती हैं या केवल चित्रों में। लुप्त प्रजातियों का सबसे सामान्य उदाहरण है यात्री या डाकिया कबूतर (Passenger pigeon)।

संभावित खतरे वाली प्रजातियां
कुछ पौधे और पशु प्रजातियां लुप्त होने के कगार पर हैं परन्तु इस बात को कितनी गंभीरता से लिया जाता है इसमें विभिन्न मत हैं।
अन्तर्राष्ट्रीय प्राकृतिक संरक्षक संघ (आईयूसीएन) ने संभावित खतरे वाली प्रजातियों को चार वर्गों में बांटा है:

( i ) खतरे में (Endangered)
खतरे में उस प्रजाति को माना जाता है जिसकी संख्या बहुत कम हो और उसके घर का भूभाग बहुत छोटा हो या दोनों भी हो सकते हैं। यदि इनको विशेष सुरक्षा नहीं दी गई तो ये लुप्त हो सकते हैं। उदाहरण के लिये शेर की सी दुम वाले बंदर (Lion tailed monkey) जो वर्षावनों और दक्षिणी भारत के शोलास (Sholas ) में पाये जाते हैं।

(ii) दुर्लभ (Rare)
ये वे प्रजातियां हैं जिनकी संख्या बहुत कम होती है और ये बहुत छोटे क्षेत्र या बहुत असामान्य वातावरण में रहते हैं कि ये बहुत शीघ्रता से गायब हो सकते हैं। "ग्रेट इंडियन बस्टर्ड" भारत में दुर्लभ प्रजाति का एक उदाहरण है।

(iii) संख्या में कमी (Depleted)
ये वे प्रजातियां हैं जिनकी संख्या पहले से बहुत कम हो गई है और निरंतर घटती जा रही है। चिन्ता का विषय यह है कि संख्या का घटना जारी है। इन प्रजातियों के पशु और पौधे शीघ्र ही दुर्लभ या खतरे में जाने वाले वर्ग में पहुंच सकते हैं पिछले कुछ वर्षों में काश्मीर के बाजारों में तेंदुएं (नियो फेलिए निबुलोस) का घना फर गैरकानूनी तौर पर बिकता रहा है।

(iv) अनिश्चित (Indeterminate)
ऐसी प्रजातियां जो लुप्त होने के खतरे में हैं परन्तु उनके विषय में कुछ अधिकृत सूचना नहीं है उन्हें "अनिश्चत " वर्ग में रखते हैं।
1968 में हिम तेंदुए (लियो अनसिया) को अनिश्चित प्रजाति में घोषित किया था, परन्तु 1970 में उसे "खतरे में" वर्ग में रख दिया गया। आपको ज्ञात होगा कि हिम तेदुए का शिकार उसके सुन्दर फर के लिये किया जाता है।

वन्य जीवन की हानि

पिछले 2000 वर्षों में पृथ्वी से पशुओं की 600 प्रजातियां लुप्त हो चुकी हैं या लुप्त होने के कगार पर हैं। इसी प्रकार पौधों की 3000 प्रजातियों को संरक्षण की आवश्यकता है। हरियाली के आवरण के सिकुड़ने से पारितंत्र की स्थिरता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। गैरकानूनी ढंग से चोरी से शिकार वन्यजीवन की कमी का एक बड़ा कारण है। इस तरह से शिकार हुए जानवरों की सूची अनन्त है। पिछले कुछ वर्षों से अफ्रीका के जंगलों में 95% काले गैंडे उसके सींग के लिये चोरी से मारे गये और अफ्रीका के जंगलों के एक तिहाई हाथी उनके दांत के लिये मार दिये गये। चमकीला सिंदूरी लम्बी पूंछ वाला तोता जो दक्षिणी अमेरिका में सामान्य रूप से पाया जाता था धीरे धीरे मध्य अमेरिका के क्षेत्र में लुप्त ही हो गया है। चित्तीदार बिल्ली प्रजाति के कुछ पशु जैसे एक विशेष तेंदुआ (आस्लॉट) और जगुआर अपने फर की विशेष मांग के कारण लुप्त होने की कगार पर हैं।

भारत में वन्यजीवन की क्षति

भारत में प्राय: 45,000 प्रजातियां पौधों की और 75,000 प्रजातियां पशु-पक्षियों की पाई जाती हैं। पारितंत्र में स्थिरता रखने के लिये इस जैव- विविधता का संरक्षण अत्यंत आवश्यक है। वनोन्मूलन के साथ निर्जनता और रेगिस्तान के बढ़ने ने पृथ्वी की प्राकृतिक सम्पदा बहुत हद तक नष्ट कर दी है।
हाथी, शेर और चीते की संख्या में भारी कमी आई है। "चीता" तो लगभग लुप्त ही हो गया है। हाथी जो पूरे भारत में पाये जाते थे। अब आन्ध्र प्रदेश मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र से गायब ही हो गये हैं। एशियाई बाघ जो पूरे एशिया में बहुत आम था। अब एशिया से गायब ही हो गया है केवल भारत के गीर जंगलों के कुछ सौ किलोमीटर में एशियाई बाघ रहते हैं।
भारतवर्ष में पिछले 100 वर्षों में तीन स्तनपायी प्रजातियां और तीन पक्षियों की प्रजाति एकदम लुप्त हो चुकी है। अन्य 40 स्तनपायी प्रजाति, 20 पक्षियों की प्रजातियां और 12 प्रजाति रेंगनेवाले जंतुओं की सर्वाधिक खतरे की श्रेणी में हैं और इसका मुख्य कारण जंगलों का अतिदोहन है

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