वर्धन वंश | vardhan vansh

वर्धन वंश

गुप्त साम्राज्य के पतन के पश्चात् उत्तरी भारत में एक बार फिर राजनीतिक विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति प्रबल हो गयी. सम्पूर्ण उत्तरी भारत में सार्वभौम शक्ति समाप्त हो गयी. सार्वभौम शक्ति के अभाव में महत्वाकांक्षी लोगों ने विभिन्न छोटे-छोटे राजवंशों की स्थापना करना आरम्भ कर दिया. इसी समय वर्धन वंश के पुष्यभूति ने हूण एवं मगध राज्य के मध्य एक नवीन राज्य थानेश्वर की स्थापना की. थानेश्वर राज्य के शासकों का वर्णन मधुवन प्रशस्ति से प्राप्त होता है.
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राजकीय मुहरें और अभिलेख से ज्ञात होता है कि महाराज नरवर्धन, महाराज राज्यवर्धन, महाराज आदित्य वर्धन और परमभट्टारक महाराजाधिराज प्रभाकर वर्धन इस वंश के प्रमुख शासक हुए. बाण ने इस वंश के संस्थापक पुष्य भूति के उत्तराधिकारियों का उल्लेख न करके सीधे प्रभाकर वर्धन का उल्लेख किया है. बाण ने ऐसा सम्भवतः इसलिए किया है, क्योंकि प्रभाकर वर्धन, वर्धन वंश का प्रथम शक्तिशाली शासक था.
हर्षवर्धन के अभिलेखों में भी उसके चार पूर्वजोंनरवर्धन, राज्यवर्धन, आदित्यवर्धन तथा प्रभाकर वर्धन का उल्लेख मिलता है. प्रभाकर-वर्धन के पश्चात् हर्षवर्धन इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक हुआ.

प्रभाकरवर्धन

प्रभाकरवर्धन अपने वंश का प्रथम शक्तिशाली शासक था. बाणभट्ट ने हर्ष चरित में उसका दूसरा नाम 'प्रतापशील' बताया है. बाण ने उसकी वीरता का उल्लेख करते हुए कहा है कि "वह हूणरूपी मृग के लिए सिंह था, सिन्धु देश के राजा के लिए ज्वर था, गुर्जर की निंद्रा भंग करने वाला था. गन्धार-राजा-रूपी सुंगध गज के लिए कूटहस्तिज्वर था. लाटों की पटुता का अपहरणकर्ता था. और मालवदेश की लता-रूपी लक्ष्मी के लिए परशु था." यद्यपि बाणभट्ट का यह वर्णन आलंकारिक है, किन्तु यह तो सभी विद्वान् स्वीकार करते हैं कि प्रभाकरवर्धन वर्धन वंश का शक्तिशाली सम्राट था. उसने वर्धन साम्राज्य की शासन की बागडोर अपने हाथ में ली और 'महाराजाधिराज' तथा 'परम भट्टारक' की उपाधि धारण की. उसका साम्राज्य उत्तर में हिमालय, उत्तर-पश्चिम में हूणों की राज्य सीमा तक, पूर्व में कन्नौज के मौखरी राज्य तथा राजपूताना तक विस्तृत था कनिंघम के अनुसार उसका राज्य थानेश्वर के अन्तर्गत केवल दक्षिणी पंजाब और पूर्वी राजपूताना तक विस्तृत था. अपने शासनकाल के प्रारम्भिक वर्षों में प्रभाकरवर्धन गुप्त सम्राटों का परम मित्र था. उसकी माँ मगध के गुप्त सम्राट दामोदर गुप्त की राजकुमारी थी. उसका विवाह मालवा नरेश यशोवर्मन की पुत्री यशोमती से हुआ. प्रभाकरवर्धन के दो पुत्र राज्यवर्धन व हर्षवर्धन तथा एक कन्या राज्यश्री थी. उसने मौखरी वंश के ग्रहवर्मन से अपनी पुत्री राज्यश्री का विवाह कर मौखरी वंश से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किए थे. उसके जीवन के अन्तिम दिनों में हूणों ने सीमान्त पर आक्रमण किया. हूणों के दमन के लिए उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र राज्यवर्धन को भेजा. इसी समय प्रभाकर वर्धन की मृत्यु हो गयी.

राज्यवर्धन

प्रभाकरवर्धन का पुत्र राज्यवर्धन एक अत्यन्त शक्तिशाली शासक था. जिस समय प्रभाकरवर्धन की मृत्यु हुई वह हूणों से युद्ध कर रहा था. अपने पिता की मृत्यु का समाचार पाकर वह राजधानी लौटा. वह अपने पिता की मृत्यु से इतना दुःखी हुआ कि उसने राज्य सिंहासन हर्ष को सौंपकर संन्यासी जीवन व्यतीत करने का निश्चय किया, किन्तु तभी उसे एक और दुःखद समाचार प्राप्त हुआ कि मालव नरेश देव गुप्त ने गौड़ शासक शशांक से मिलकर उसकी बहन राज्यश्री के पति ग्रहवर्मन का वध कर दिया है और राज्यश्री को बंदी बना लिया है. अतः संन्यास का विचार त्यागकर राज्यवर्धन ने तुरन्त देव गुप्त पर आक्रमण कर उसको पराजित किया तथा उसके राज्य को तवाह कर दिया. गौड़ राजा शशांक ने भी राज्यवर्धन की अधीनता स्वीकार कर ली तथा अपनी कन्या का विवाह राज्यवर्धन से करने का प्रस्ताव रखा. राज्यवर्धन उसके विश्वास में आ गया और निहत्था उसके दरबार में पहुँच गया. तभी उसके साथ विश्वासघात करके शशांक ने राज्यवर्धन का वध कर दिया. किसी प्रकार राज्यश्री बंदीगृह से भाग निकली.

हर्षवर्धन

हर्षवर्धन प्रभाकरवर्धन का कनिष्ठ पुत्र व राज्यवर्धन का छोटा तथा राज्यश्री का बड़ा भाई था. उसका जन्म 590 ई. में हुआ था. अपने बहनोई ग्रहवर्मन तथा बड़े भाई राज्यवर्धन की असामयिक मृत्यु के पश्चात् 606 ई. में 16 वर्ष की अवस्था में वह थानेश्वर का शासक बना. शासक बनने के समय अपने बहनोई व भाई के हत्यारों से प्रतिरोध, कन्नौज के उत्तराधिकारी तथा बंदीगृह से उसकी बहन राज्यश्री का भागकर विलुप्त हो जाना आदि कुछ विकट समस्याएं थीं. चूँकि हर्ष एक वीर एवं बुद्धिमान शासक था. अतः उसने इन विकट समस्याओं का धैर्य के साथ सामना किया और इन समस्याओं का हल ढूँढ़ निकाला. सर्वप्रथम उसने कान्यकुब्ज के उत्तराधिकारी का प्रश्न हल किया. उसने इच्छा न होते हुए भी कान्यकुब्ज साम्राज्य का संरक्षक बनना स्वीकार कर लिया. अपने सेनापति भण्डी की सहायता से उसने अपनी बहन राज्यश्री को खोज निकाला, जिस समय हर्ष ने खोजा उस समय वह चिता में जलने जा रही थी. हर्षवर्धन ने अपने मित्र दिवाकर की सहायता से राज्यश्री को समझाया और उसे जीवित रहने के लिए तैयार कर लिया. हर्ष अपनी बहन को अपने साथ ले आया. बाद में हर्ष ने अपने मन्त्रियों और बहन के विशेष आग्रह पर कन्नौज का भी शासन-भार सँभालना स्वीकार कर लिया. इस प्रकार हर्ष थानेश्वर और कन्नौज राज्य का शासक बना. उसने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया और शासन-कार्य प्रारम्भ कर दिया.

हर्ष की दिग्विजय
हर्ष एक वीर, साहसी तथा दानप्रिय व्यक्ति था. उसमें अशोक महान के समान सहिष्णुता तथा समुद्रगुप्त के समान वीरता के गुण विद्यमान थे. सिंहासन पर आसीन होने के पश्चात् उसने अपने सम्मुख उत्पन्न हुई अनेक कठिनाइयों का धैर्यतापूर्वक सामना किया और उनका समाधान किया. उसने साम्राज्य विस्तारवादी नीति का अनुसरण करते हुए अपनी सैनिक प्रतिभा और पराक्रम के बल पर एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की. अपने उद्देश्य प्राप्ति के लिए उसे अनेक शक्तियों से युद्ध करना पड़ा.

पंचप्रदेश की विजय
चीनी यात्री ह्वेनसांग के वर्णन से ज्ञात होता है कि हर्ष ने पंच प्रदेश अर्थात् पंजाब, कान्यकुब्ज, गौड़ (बंगाल), मिथिला (बिहार) तथा उड़ीसा पर विजय प्राप्त की थी.

बल्लभी की विजय
मालवा तक अपना साम्राज्य विस्तृत कर हर्ष ने बल्लभी के शासक ध्रुवसेन द्वितीय पर आक्रमण कर उसे परास्त कर दिया. ध्रुवसेन द्वितीय ने भागकर भड़ौच के राजा दच्छ के यहाँ शरण ली और कुछ समय पश्चात् उसके सहयोग से अपना खोया हुआ शासन प्राप्त करने का प्रयास किया. हर्षवर्धन ने ध्रुवसेन द्वितीय को पहले से अधिक शक्ति सम्पन्न पाया. अत: हर्ष ने बुद्धिमत्तापूर्ण ध्रुवसेन द्वितीय से अपनी पुत्री का विवाह कर मित्रता कर ली. ध्रुवसेन द्वितीय ने हर्ष को अपना अधीश्वर स्वीकार कर लिया.

गौड़ की विजय
गौड़ की विजय के सम्बन्ध में इतिहासकारों के अलग-अलग मत हैं. ह्वेनसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि गौड़ प्रदेश पर 619 ई. तक शशांक शासन करता रहा. अतः हर्ष को शशांक के विरुद्ध कोई सफलता नहीं मिली होगी. कुछ इतिहासकारों का मत है कि हर्ष ने शशांक की मृत्यु के पश्चात् गौड़ प्रदेश पर अपना अधिकार कर लिया था.

पुलकेशिन द्वितीय से युद्ध
ह्वेनसांग के वर्णन से ज्ञात होता है कि हर्ष का चालुक्य वंश के शक्तिशाली सम्राट पुलकेशिन द्वितीय से संघर्ष हुआ, जिससे हर्ष को अपार क्षति पहुँची. हर्ष पराजित हुआ, उसे पीछे हटना पड़ा. नर्मदा नदी दोनों शासकों के राज्य की सीमा बन गई.

सिन्ध की विजय
बाण के हर्षचरित से ज्ञात होता है कि हर्ष ने सिन्ध पर आक्रमण कर वहाँ के शासक को नतमस्तक किया, किन्तु ह्वेनसांग के वर्णन से ज्ञात होता है कि जिस समय वह भारत आया था उस समय सिन्धु एक स्वतन्त्र राज्य था. डॉ. मजूमदार का मत है कि हर्ष को सिन्ध के विरुद्ध कोई खास सफलता प्राप्त नहीं हुई होगी.

पूर्व की विजय
अपने शासन के अन्तिम दिनों में हर्ष ने पूर्व की ओर अपनी सेना सहित प्रस्थान किया, तब तक शशांक की भी मृत्यु हो चुकी थी. उसके कोई योग्य उत्तराधिकारी नहीं था. अतः हर्ष ने बंगाल पर आसानी से अधिकार कर लिया. यहाँ से हर्ष कोंगद पहुंचा और उसे भी विजित कर लिया.

अन्य विजय
उपर्युक्त विजयों के अतिरिक्त हर्षवर्धन ने कच्छ, सूरत तथा आनंदपुर पर भी विजय प्राप्त की थी. पुलकेशिन द्वितीय की मृत्यु के पश्चात् हर्षवर्धन ने गंजाम प्रदेश पर भी अपना अधिकार कर लिया था.

हर्षवर्धन का साम्राज्य विस्तार

हर्षवर्धन के साम्राज्य विस्तार के विषय में विद्वानों ने अपने अलग-अलग मत प्रस्तुत किए हैं. कुछ विद्वान् हर्ष का चित्रण उत्तर भारत के एकछत्र चक्रवर्ती शासक के रूप में करते हैं. श्री. के. एम. पन्निकर के अनुसार "हर्ष के साम्राज्य में उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विन्ध्यपर्वत तक तथा पूर्व में कामरूप से पश्चिम में सौराष्ट्र तक का विशाल भूखण्ड सम्मिलित था."
डॉ. स्मिथ के अनुसार, "हर्षवर्धन के शासनकाल के अन्तिम वर्षों में मालवा, गुजरात एवं सौराष्ट्र के अतिरिक्त हिमालय से लेकर नर्मदा तक, जिसमें नेपाल का भूभाग भी सम्मिलित था. गंगा की पूरी तलहटी पर हर्षवर्धन का शासन स्थापित था."
डॉ. राजबली पाण्डेय के अनुसार, "हर्ष वर्धन का साम्राज्य विस्तार राजस्थान, वर्तमान उत्तर प्रदेश, पूर्वी पंजाब, बिहार, बंगाल और उड़ीसा तक था."

हर्ष का धर्म
हर्षवर्धन एक धर्मपरायण सम्राट था. बाँसखेड़ा और मधुबन अभिलेखों से ज्ञात होता है कि हर्ष प्रारम्भ में शैव धर्म का अनुयायी था. हर्ष के शैव होने की पुष्टि 'रत्नावली', 'प्रियदर्शिका' और 'नागानन्द', आदि कृतियों से भी होती है किन्तु बाद में हर्ष एक बौद्ध भिक्षु दिवाकर मित्र के सम्पर्क में आया और उसका झुकाव बौद्ध धर्म की ओर हो गया. इस प्रकार दिवाकर मित्र के प्रभाव में आकर हर्ष ने बौद्ध धर्म अंगीकार कर लिया. बौद्ध धर्म में भी हर्ष प्रारम्भ में हीनयान सम्प्रदाय का अनुयायी था, किन्तु बाद में यह चीनी यात्री ह्वेनसांग के प्रभाव में आया और महायान धर्म का अनुयायी हो गया. उसने महायान सम्प्रदाय के प्रचारप्रसार में अत्यधिक योगदान दिया. महायान सम्प्रदाय को लोकप्रिय बनाने के लिए उसने कन्नौज सभा और प्रयाग-सभा का आयोजन कराया. बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए बौद्ध मठों, विहारों तथा स्तूपों का निर्माण करवाया. भिक्षुओं को उदारतापूर्वक दान दिया. बुद्ध की हजारों मूर्तियों का निर्माण कराया. यद्यपि हर्ष ने बौद्ध धर्म धारण कर लिया था, किन्तु फिर भी अन्य धर्मों का आदर करता था. विद्वानों का मत है कि वह प्रतिदिन 1000 बौद्ध भिक्षुओं और 500 ब्राह्मणों को भोजन कराया करता था. अतः कहा जा सकता है कि हर्ष बौद्ध होते हुए भी अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु था.

कला एवं साहित्यानुरागी के रूप में हर्ष
हर्ष कला एवं साहित्यानुरागी था. उसने अपने शासनकाल में कला के प्रति अपने अनुराग का प्रदर्शन किया. उसने अनेक बौद्ध विहारों, मठों, स्तूपों, मूर्तियों तथा देव मन्दिरों का निर्माण कराया. कन्नौज की धार्मिक सभा में उसने स्वर्ण की बुद्ध प्रतिमा का निर्माण करवाकर स्थापित की. गंगा के तट पर हजारों स्तूपों का निर्माण कराया. कला प्रेमी के साथ ही उसकी साहित्य में भी विशेष रुचि थी. वह उच्च कोटि का लेखक भी था. उसने अनेक ग्रन्थ यथा-'नागानंद', 'रत्नावली', तथा प्रियदर्शिका की रचना की, विद्वानों को प्रश्रय दिया. राजकवि बाण, मतंग दिवाकर मित्र तथा मयूर आदि उसकी राजसभा के प्रसिद्ध विद्वान् थे. यही कारण है कि उसके शासन-काल में साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में आशातीत उन्नति हुई.

हर्ष का शासन प्रबन्ध
राजा की स्थिति-राजा शासन प्रबन्ध का सर्वोच्च अधिकारी था. यह मुख्य न्यायाधीश तथा युद्ध में सेना का नेतृत्व कर्ता होता था. राज्य के उच्च पदाधिकारियों की नियुक्ति करता था. उसे ‘परमभट्टारक' परमेश्वर, 'परमदेवता', 'महाराजाधिराज' आदि की उपाधियाँ धारण की थीं.
केन्द्रीय शासन-राजा राज्य का सर्वोच्च अधिकारी था केन्द्रीय शासन अनेक भागों में विभक्त था. इन विभागों को अध्यक्षों एवं मंत्रियों का संरक्षण प्राप्त था.

राजा के निजी अधिकारी इस प्रकार थे-
  • प्रतिहार (राज्य सभा का मुख्य संरक्षक)
  • विनयानुसार (आगन्तुकों को राज्य सभा में ले जाने वाला और उनके आगमन की घोषणा करने वाला)
  • स्थापित (रनिवास के कर्मचारियों का निरीक्षक)

मंत्रिपरिषद् - हर्ष के शासन प्रबन्ध में मंत्रिपरिषद् थी अथवा नहीं ठीक-ठीक प्रकार से ज्ञात नहीं है, परन्तु इतना तो निश्चित है कि हर्ष के शासनकाल में अनेक मंत्री थे, जिनके सहयोग से हर्ष शासन करता था. हर्षचरित के अनुसार 'अवन्ति' हर्ष का प्रधानमंत्री था. मंत्रियों में संधिविग्रहिक अर्थात् संधि और युद्ध करने का अधिकारी. अक्षपटलाधिकृत जिसके हाथ में सरकारी कागज-पत्र रहते थे. अर्थ विभाग का मंत्री तथा न्याय विभाग के मंत्री मुख्य थे.

प्रान्तीय शासन - समस्त साम्राज्य की भूमि को राज्य, राष्ट्र देश अथवा मण्डल कहा जाता था. इसे कई प्रांतों जिन्हें भुक्ति अथवा प्रदेश कहते थे, में विभक्त कर दिया गया था. अहिच्छेत्र, श्रावस्ती कौशाम्बी इस काल के मुख्य भुक्ति' थे, 'भुक्ति' को विषयों (जिलों) में विभक्त किया गया था. प्रांतों के अधिकारी उपरिक, महाराज, भोगपति, राष्ट्रपति कहलाते थे. विषयपति विषय का शासक होता था. इसकी नियुक्ति प्रान्तपति द्वारा की जाती थी. प्रत्येक विषय को ‘पथकों' में विभक्त किया गया था, जो आधुनिक तहसील की भाँति थे.

ग्राम शासन - 'पथकों' को गाँवों में बाँट दिया गया था. गाँव शासन की सबसे छोटी इकाई थी. गाँव के सभी मामलों की देखभाल ‘महत्तर' नामक पदाधिकारी करता था. ग्रामिक, भ्रष्ट कुलाधिकरण, अक्षपटलिक गाँव के अन्य महत्वपूर्ण अधिकारी होते थे.

दण्ड विधान - हर्ष के शासनकाल में दण्डविधान अत्यन्त ही कठोर था. घोर अपराध के लिए मृत्यु दण्ड, सामाजिक, नैतिकता के उल्लंघन करने वाले को अंगभंग, राजद्रोहियों को आजीवन कारावास का दण्ड दिया जाता था. कुछ अन्य अपराधों के लिए अपराधी को नगर अथवा गाँव से निष्कासन का दण्ड देकर जंगलों में भेज दिया जाता था.

सैन्य प्रबंध - हर्ष का सैन्य प्रबन्ध अत्यंत सुदृढ़ था. सेना के लिए सिन्ध, अफगानिस्तान तथा ईरान से उच्चकोटि के घोड़ों का क्रय किया जाता था. सैनिकों की भर्ती उन्हें वेतन बताकर एक सार्वजनिक घोषणा द्वारा की जाती थी. ह्वेनसांग के अनुसार हर्ष की सेना में पैदल फौजों के अतिरिक्त साठ हजार हाथी तथा एक लाख अश्वारोही थे.

आय-व्यय के साधन - हर्ष के शासनकाल में आय के मुख्य साधन कर थे, किन्तु हर्ष ने अपनी प्रजा पर बहुत कम कर लगाया था. भूमिकर आय का प्रमुख साधन था, जो उपज का 1/6 भाग था. इसके अतिरिक्त दूध, फल, चरागाह तथा खनिजों पर लगाए कर आय का मुख्य साधन थे.
राज्य की आय को मुख्यतः चार मदों पर व्यय किया जाता था-
  1. राजकीय व्यय तथा धार्मिक अनुष्ठानों पर.
  2. उच्च राजकीय पदाधिकारियों की धन सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए.
  3. विद्वानों को पुरस्कृत करने हेतु.
  4. विभिन्न सम्प्रदायों को दान तथा सार्वजनिक निर्माण हेतु.

हर्षकालीन साम्राज्य के कुछ प्रमुख अधिकारी
  • राजस्थानीय - यह प्रान्त अथवा भुक्ति का शासक होता था.
  • विषयपति - यह प्रदेश अथवा विजय का शासक होता था. इसकी नियुक्ति प्रान्तपति द्वारा की जाती थी.
  • महत्तर - यह गाँव के सभी मामलों की देखभाल करने वाला अधिकारी था.
  • ग्रामिक - यह गाँव का अन्य महत्वपूर्ण अधिकारी था.
  • भ्रष्टकुलाधिकरण - यह भी गाँव का अन्य महत्वपूर्ण अधिकारी था.
  • महासन्धि विग्रहाधिकृत - संधि तथा युद्ध करने का अधिकारी.
  • महाबलाधिकृत - यह सेना का सर्वोच्च सेनाध्यक्ष होता था.
  • बलाधिकृत - सेनापति को कहते थे.
  • बृहदाश्ववार - यह अश्वसेना का अध्यक्ष होता था.
  • चाटभट - वैतनिक तथा अवैतनिक सैनिक को कहते थे.
  • कटुक - यह हस्ति सेना का अध्यक्ष होता था.
  • दूत राजस्थानीय - यह पर राष्ट्रमंत्री होता था.
  • उपरिक महाराज - प्रान्तीय शासक को कहते थे.
  • आयुक्तक - साधारण अधिकारी को कहा जाता था.
  • मीमांसक - न्यायाधीश को मीमांसक कहते थे.
  • महाप्रतिहार - यह राज प्रासाद का रक्षक होता था.
  • भोगिक अथवा भोगपति - उपज का राजकीय भाग वसूल करने वाला अधिकारी होता था.
  • दीर्घद्धग - यह तीव्रगामी संवादक होता था.
  • अक्षपटलिक - यह लेखा-जोखा रखने वाला लिपिक होता था.
  • अध्यक्ष - विभिन्न विभाग के सर्वोच्च अधिकारी को कहते थे.
  • कर्णिक - यह साधारण कोटि का लिपिक होता था.

वर्द्धनवंशकालीन कुछ प्रमुख व्यक्तित्व
  • भण्डी - भण्डी राज्यवर्धन का प्रधानमंत्री था. बाणभट्ट के अनुसार यह हर्षवर्द्धन का ममेरा भाई तथा प्रधानमंत्री था.
  • अवन्ति - यह हर्षवर्धन का प्रधानमंत्री था.
  • सिहानंद - यह हर्ष का महासेनापति था.
  • कन्तक - यह अश्व सेना का सेनापति
  • चन्द्रगुप्त - यह हस्तिसेना का सेनापति

ह्वेनसांग

ह्वेनसांग एक चीनी यात्री था. उसका जन्म 605 ई. में चीन के होनान-फू प्रदेश में हुआ था. वह बचपन से ही चिंतनशील एवं जिज्ञासु प्रवृत्ति वाला था. अल्पायु में ही वह बौद्ध धर्म की ओर आकृष्ट हुआ. अतः उसने बौद्ध धर्म धारण किया और बौद्ध भिक्षु बन गया. उसने चीनी भाषा में अनूदित बौद्ध ग्रन्थों का अध्ययन किया, किन्तु उसकी ज्ञान पिपासा शान्त न हुई. अतः उसने भारत में बौद्ध धर्म के मूल ग्रन्थों का अध्ययन करने का विचार बनाकर भारत आने का निश्चय किया. 29 वर्ष की आयु में सन् 629 ई. में उसने अपने दो साथियों के साथ भारत के लिए प्रस्थान किया. चीन से भारत पहुँचने में उसे लगभग एक वर्ष का समय लगा. तुर्फान, ताशकन्द, समरकन्द होता हुआ वह 630 ई. में अकेला भारत पहुँचा मार्ग में अनेक कठिनाइयों का सामना न कर पाने के कारण उसके साथी बीच रास्ते से ही स्वदेश लौट गए. हिन्दुकुश पर्वतमाला को पारकर उसने कपिश की राजधानी श्लोका नामक विहार में चातुर्मास्य व्यतीत किया, वहाँ से वह कश्मीर पहुँचा, यहाँ उसने दो वर्ष बौद्ध ग्रन्थों के अध्ययन में व्यतीत किए. इसके पश्चात् वह पंजाब और थानेश्वर होता हुआ कन्नौज पहुँचा. जहाँ उसकी मुलाकात सम्राट हर्षवर्धन से हुई. सम्राट हर्षवर्धन ने ह्वेनसांग का खूब सत्कार किया. इसके बाद वह असम, ताम्रलिप्ति, उड़ीसा, काँचीपुरम होता हुआ 645 ई. में चीन लौट गया. वह अपने साथ 657 पुस्तकें भारत से ले गया. उसने अपना शेष जीवन चीन में रहते हुए बौद्ध ग्रन्थों को चीनी भाषा में अनूदित करने में व्यतीत किया. उसने कुल 74 ग्रन्थों का अनुवाद किया. 664 ई. में चीन में उसकी मृत्यु हो गयी. उसने भारत में 15 वर्ष व्यतीत किए. अनेक विद्वानों द्वारा उसे यात्रियों में राजकुमार', 'नीति का पण्डित' और 'वर्तमान शाक्यमुनि' की उपाधियों से विभूषित किया गया. ह्वेनसांग ने अपनी भारत यात्रा का विस्तृत विवरण लिखा. उसके विवरण से तत्कालीन भारत की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक व आर्थिक स्थिति आदि की जानकारी प्राप्त होती है.

ह्वेनसांग का भारत विषयक वर्णन
  • राजनीतिक स्थिति - ह्वेनसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि हर्ष के शासनकाल में प्रजा सुखी एवं सम्पन्न थी प्रजा से बेगार नहीं ली जाती थी. भूमिकर उपज का 1/6 भाग लिया जाता था. किसानों को नकद अथवा अनाज के रूप में लगान देने की सुविधा प्राप्त थी. राजकीय आय 'सार्वजनिक कार्य', 'पदाधिकारियों के वेतन', 'विद्वानों को पुरस्कार' तथा दान आदि पर व्यय की जाती थी. हर्ष के कठोर दण्ड विधान के कारण सरकारी नियमों का उल्लंघन बहुत कम होता था. सम्राट मंत्रिपरिषद् की सहायता से शासन करता था. उसका शासन बहुत ही उदार सिद्धान्तों पर आधारित था.
  • सामाजिक स्थिति - वर्णाश्रम व्यवस्था हर्षकालीन समाज के संगठन का मुख्य आधार थीं. ह्वेनसांग के अनुसार समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र जातियों के अतिरिक्त मिश्रित जाति भी अस्तित्व में थीं. ब्राह्मण लोग अपना अधिकतर समय धार्मिक क्रियाकलापों में, क्षत्रिय युद्धों में, वैश्य व्यापार में तथा शूद्र खेती तथा अन्य सेवा सम्बन्धी कार्यों में व्यतीत करते थे. मिश्रित जातियों को अछूत माना जाता था. ये जातियाँ नगर से बाहर अलग बस्तियों में निवास करतीं थीं. प्रत्येक व्यक्ति अपनी ही जाति में विवाह करता था. बाल विवाह एवं सती प्रथा का प्रचलन था. स्त्रियों को दूसरा विवाह करने का अधिकार प्राप्त नहीं था. उच्च कुल की स्त्रियों को शिक्षा दी जाती थी. स्त्रियों का समाज में स्थान उतना उच्च नहीं था, जितना कि पहले कभी था. पर्दा प्रथा नहीं थी.
  • धार्मिक स्थिति - हर्ष के शासनकाल में ब्राह्मण, बौद्ध व जैन धर्म अस्तित्व में थे. ब्राह्मणों में भूत, कापालिक, दुर्गा के उपासक, पशुपति आदि अनेक सम्प्रदाय अस्तित्व में थे. इनके अतिरिक्त अनेक दार्शनिक सम्प्रदायों के भी अनुयायी थे. जैसे कपिल, कणाद, गौतम आदि के अनुयायी, भौतिकवादियों के अनेक सम्प्रदायों में 'लोकायत' अधिक प्रसिद्ध था. प्रयाग तथा वाराणसी ब्राह्मण धर्म के मुख्य केन्द्र थे. बौद्ध धर्म की दो शाखा हीनयान तथा महायान में महायान का अत्यधिक प्रभाव था. जैन धर्म के दो सम्प्रदायों दिगम्बर एवं श्वेताम्बर में श्वेताम्बर सम्प्रदाय का अत्यधिक प्रभाव था.
  • आर्थिक स्थिति - मुख्य व्यवसाय कृषि होने के साथ ही उद्योग एवं वाणिज्य उन्नत दशा में था. सिंचाई की पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध होने के परिणामस्वरूप कृषि उन्नत थी. राजदरबार के विलासी जीवन के कारण उद्योगों का खूब विकास हुआ. अन्तर्देशीय और विदेशी व्यापार उन्नत दशा में थे. भारत का व्यापार कश्मीर से होकर चीन तथा मध्य एशिया तक प्रसारित था. ताम्रलिप्ति इस काल का प्रमुख बंदरगाह था. यह दक्षिण पूर्वी द्वीप समूहों से सम्बद्ध था. सम्भवतः मलाया, सुमात्रा आदि से व्यापार इसी जल-मार्ग द्वारा किया जाता था.

मौखरी वंश

मौखरी वंश का प्रभाव गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद ही बढ़ा, जबकि पतंजलि और पाणिनी को भी मौखरियों की सम्भवतः जानकारी थी. मौखरियों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में निश्चित जानकारी नहीं है. मौखरी वंश ने उत्तर भारत की राजनीति में एक लम्बे समय तक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. कोटा से प्राप्त तीन लघु अभिलेखों से ज्ञात होता है कि मौखरी प्रमुखों ने "महासेनापति' की उपाधि धारण की. सम्भवतः गुप्तकाल के तीन मौखरी सामन्तों का उल्लेख बराबार और नागार्जुनी गुफा अभिलेखों में मिला है. मौखरियों में सर्वप्रमुख कन्नौज की शाखा थी जिसके उत्तरकालीन गुप्त शासकों से वैवाहिक सम्बन्ध थे. ईशानवर्मन और सर्ववर्मन के समय में तनातनी बनी रही. ईशानवर्मन ने सातवाहनों पर विजय प्राप्त की. उसके पुत्र सर्ववर्मन ने उत्तर-पश्चिम में हूणों को एवं दामोदर गुप्त को परास्त किया.
अवन्तिवर्मन के पुत्र गृहवर्मन ने हर्षवर्धन की बहिन राज्यश्री से विवाह किया, गृहवर्मन का मालवा के शासक देवगुप्त ने वध कर दिया, और मौखरी वंश का अंत हो गया.
मौखरी शासक कट्टर ब्राह्मण थे. उन्हीं की उपलब्धियों के कारण कन्नौज उत्तर भारत का प्रमुख राजनीतिक केन्द्र हो गया, और मगध का स्थान पिछड़ गया.

मगध के उत्तरकालीन गुप्त
आदित्य सेन के अफसाद अभिलेख और जीवित गुप्त द्वितीय के देव बरनार्क अभिलेख से ज्ञात होता है कि उत्तरकालीन गुप्त शासक गुप्त वंश की मुख्य शाखा से सम्बन्धित थे. उत्तरकालीन गुप्त वंश का संस्थापक कृष्णगुप्त था. उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी हर्षगुप्त और जीवितगुप्त प्रथम ने कुमारगुप्त तृतीय के समय में शासन किया. अफसाद अभिलेख से ज्ञात होता है कि ईसानवर्मन को कुमारगुप्त तृतीय ने परास्त किया और प्रयाग तक के क्षेत्र पर अधिकार कर लिया. दामोदर गुप्त को उसके समकालीन मौखरी शासक ने परास्त कर मगध के एक बड़े भाग पर अधिकार कर लिया. बाद में परिस्थितियाँ इतनी खराब हो गई थीं कि दामोदर गुप्त के पुत्र महासेन गुप्त को मालवा की ओर प्रस्थान करना पड़ा. महासेन गुप्त के पौत्र देवगुप्त ने शशांक के साथ मिलकर गृहवर्मन पर आक्रमण किया और उसे मार डाला.
बाद में हर्ष ने माधव गुप्त नामक गुप्त शासक को मगध का सूबेदार नियुक्त किया. जीवितगुप्त द्वितीय इस वंश का अन्तिम शासक था.

प्रमुख स्मरणीय तथ्य
  • हर्षचरित से हर्षकालीन भारत की राजनीति एवं संस्कृति विषयक जानकारी प्राप्त होती है.
  • कादम्बरी से हर्षकालीन सामाजिक व धार्मिक विषयक जानकारी प्राप्त होती है.
  • आर्यमंजुश्री मूलकल्प जिसका सर्वप्रथम प्रकाशन गणपति शास्त्री द्वारा 1925 ई. में कराया गया था, से हर्षकालीन इतिहास की कुछ घटनाओं की जानकारी प्राप्त होती है.
  • हर्षवर्धन ने 'प्रियदर्शिका', रत्नावली तथा नागनन्द लिखकर स्वयं को उच्चकोटि का लेखक प्रमाणित किया था.
  • चीनी यात्री ह्वेनसांग जोकि हर्ष के शासनकाल में भारत आया था, की यात्राविवरण 'सी-यू-की' नाम से प्रख्यात है.
  • चीनी यात्री इत्सिंग का विवरण भी हर्षकालीन इतिहास के अध्ययन के लिए अति उपयोगी है.
  • एहोल लेख से चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय तथा हर्ष के मध्य हुए युद्ध की जानकारी प्राप्त होती है.
  • एहोल प्रशस्ति की रचना चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय के दरबारी कवि । 'रविकीर्ति' ने की थी.
  • दिल्ली के समीप सोनीपत से प्राप्त मुहर में हर्ष का पूरा नाम 'हर्षवर्धन' मिलता है.
  • नरवर्द्धन, राज्यवर्द्धन, आदित्यवर्द्धन व प्रभाकरवर्द्धन वर्धनवंश के प्रारम्भिक शासक थे.
  • बौद्ध ग्रन्थ आर्यमंजुश्री मूलकल्प के अनुसार पुष्यभूति राजवंश वैश्य जाति का था.
  • पुष्यभूति वंश का प्रथम शासक पुष्यभूति था. इसकी पुष्टि बंसखेड़ा-ताम्रलेख, सोनीपत की ताम्र मुहर तथा मधुबन अभिलेख से होती है.
  • नरवर्धन की पत्नी का नाम वज्रणी था.
  • अभिलेखों में राज्यवर्धन प्रथम की 'परमादित्य-भक्त' उपाधि का उल्लेख मिलता है.
  • प्रभाकरवर्धन, वर्धनवंश का प्रथम स्वतन्त्र शासक था. इसने 'महाराजाधिराज' एवं 'परमभट्टारक' की उपाधि धारण की थी.
  • हर्षचरित में बाणभट्ट ने प्रभाकर वर्धन का दूसरा नाम 'प्रतापशील'' बताया है.
  • कन्नौज का धार्मिक सम्मेलन हर्षवर्धन के शासनकाल की महत्वपूर्ण घटना थी.
  • हर्षचरित से पता चलता है कि हर्षवर्धन के पूर्वज सूर्य-उपासक थे.
  • बांसखेड़ा और मधुबन अभिलेख से ज्ञात होता है कि प्रारम्भ में हर्षवर्धन शैव था.
  • हर्षवर्धन का दिवाकर मित्र (बौद्ध भिक्षु) के सम्पर्क में आने पर बौद्ध धर्म की ओर झुकाव हो गया.
  • हर्षवर्धन ने बौद्ध धर्म के महायान सम्प्रदाय को लोकप्रिय बनाने के लिए कन्नौज सभा और प्रयाग सभा का आयोजन किया था.
  • हर्ष अत्यधिक दान प्रवृत्ति वाला था. वह प्रतिदिन 1000 बौद्ध भिक्षुओं और 500 ब्राह्मणों को भोजन कराया करता था.
  • हर्ष के शासनकाल में मंत्रिपरिषद का अत्यधिक महत्व था. मन्त्रियों को 'सचिव' अथवा अमात्य कहा जाता था.
  • हर्षकालीन मंत्रिपरिषद् में पुरोहित, प्रधानमंत्री, सन्धि विग्रहिक, अक्षपटलिक और सेनापति मुख्य थे.
  • हर्ष के शासनकाल में दण्ड व्यवस्था कठोर थी. राजद्रोह के लिए आजीवन कारावास का दण्ड दिया जाता था.
  • हर्ष के शासनकाल में भूमिकर उपज का 1/6 भाग लिया जाता था.
  • अपराधों का पता करने के लिए विषपरीक्षा, अग्नि-परीक्षा, तुला-परीक्षा तथा जल-परीक्षा ली जाती थी.
  • हर्षकालीन सेना विभाग के बड़े अधिकारी को ‘महासन्धि विग्रहिक' कहा जाता था.
  • सैन्य संचालन के प्रमुख अधिकारी को 'महाबलाधिकृत' कहा जाता था.
  • बलाधिकृत सेनापति, वृहदश्वार, भटाश्वपति, कतुक आदि हर्षकालीन सेना के प्रमुख अधिकारी थे.
  • हर्ष के शासनकाल में पुलिस को 'रक्षिन' कहा जाता था.
  • 'दण्डपाशिक', 'दण्डिक' एवं 'चोरोद्धारणिक' हर्ष के शासनकाल में पुलिस विभाग के मुख्य कर्मचारी थे.
  • हर्ष के शासनकाल में प्रान्त को 'भुक्ति' अथवा 'प्रदेश' कहा जाता था.
  • अहिछत्र, श्रावस्ती, कोशाम्बी, पुण्ड्र वर्धन हर्ष के शासनकाल के प्रमुख प्रान्त थे.
  • हर्ष के शासनकाल में जिले को 'विषय' तथा वहाँ के अधिकारी को 'विषयपति' कहा जाता था.
  • 'विषयपति' की नियुक्ति 'उपरिक' अर्थात् प्रान्तपति द्वारा की जाती थी.
  • नगर श्रेष्ठी, सार्थवाह, प्रथम कुलिक, प्रथम कायस्थ व कायस्थ आदि पदाधिकारियों की नियुक्ति विषयपति की सम्बन्धित कार्य में सहायता करने के लिए की जाती थी.
  • शासन की सबसे छोटी इकाई गाँव होती थी. गाँव का मुख्य अधिकारी 'ग्रामिक' अथवा 'महत्तर' कहलाता था.
  • हर्ष के शासनकाल में वैश्व वर्ण के लोग वाणिज्य और व्यवसाय में संलग्न रहते थे. शूद्र लोग खेती करते थे.
  • 'ताम्रलिप्ति' हर्ष के शासनकाल का प्रमुख बंदरगाह था, जहाँ से विदेशों से व्यापार किया जाता था.
  • वर्णाश्रम व्यवस्था सामाजिक संगठन का मुख्य आधार थी.
  • पाटलिपुत्र से उज्जैन होता हुआ एक राजमार्ग भड़ौच तक जाता था, जो प्रमुख व्यापार मार्ग था.
  • हर्ष के शासनकाल में भारत का विदेशी व्यापार कश्मीर से होकर चीन तथा मध्य एशिया तक होता था.
  • नालन्दा हर्ष के काल का प्रमुख शिक्षा का केन्द्र था.
  • बाणभट्ट, मयूर तथा मातंग दिवाकर हर्ष के शासनकाल के प्रमुख विद्वान थे.
  • मयूर ने 'सूर्यशतक' नामक एक-सौ श्लोकों के संग्रह की रचना की.
  • बाणभट्ट ने हर्षचरित तथा कादम्बरी की रचना की.
  • हर्ष के शासनकाल में शिव, सूर्य, विष्णु, दुर्गा आदि देवी-देवताओं की उपासना व्यापक रूप से की जाती थी.

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