लोकतंत्र की परिभाषा | loktantra ki paribhasha

लोकतंत्र की परिभाषा

भारत को विश्व में सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है। भारत लोकतंत्र है क्योंकि यहां पर शासन के विभिन्न स्तरों के लिये निश्चित समय में चुनाव होते हैं। पिछले लगभग साठ वर्षों से जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों की केन्द्र, राज्य तथा स्थानीय स्तर पर गठित सरकारे हमारे लोकतंत्र को मजबूत कर रही हैं।
"लोकतंत्र जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिये शासन है" यह शासन की वह प्रणाली है जो जनता के प्रतिनिधियों द्वारा संचालित होती है।
लोकतंत्र एक शासन व्यवस्था मात्र नहीं है बल्कि यह इससे कई अधिक मायने रखता है। यह सरकार की एक व्यवस्था होने के साथ-साथ एक विशिष्ट प्रकार की राज्य व्यवस्था है, एक सामाजिक प्रणाली है तथा एक विशिष्ट आर्थिक व्यवस्था भी है।
अलग-अलग शास्त्रकारों ने लोकतंत्र की अलग-अलग परिभाषा दी है। यहां नीचे कुछ निम्न परिभाषा है। विशेषज्ञों के द्वारा दी गई है। आइए जानते है।

ब्राइस के अनुसार – “लोकतंत्र का मतलब एक ऐसे सरकार से है। जिसमें  शासन का मतलब एक साधारण जनता का शासन होता हो।”

सीले के अनुसार – “ सीले के अनुसार एक ऐसी शासन व्यवस्था से है। जिसमे प्रत्येक व्यक्ति या मनुष्य भाग ले सकें और अपने मत या विचारो को स्वतंत्र रूप से प्रकट कर सके।”
हॉल के अनुसार – “हॉल के अनुसार लोकतंत्र का मतलब  एक ऐसी शासन  से होनी चाहिए जिससे लोगों पर आवश्यकता अनुसार उन पर रोक किया जा सके।”

लोकतंत्र निर्णय करने की विधा है
लोकतंत्र को निर्णय करने के ढंग के आधार पर सर्वप्रथम अरस्तु ने परिभाषित किया था। वही निर्णय लोकतांत्रिक ढंग से लिए हुए कहे जाते है जिनमें विचार-विनिमय व अनुनयता हो, जन सहभागिता हो अर्थात विचार विमर्श प्रक्रिया में सम्पूर्ण जन समाज का सहभागी होना आवश्यक है।
उल्लेखनीय है कि लोकतंत्र में भागीदार होना उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना की अवसर की उपलब्धता अर्थात सारे जनसमाज को लोकतांत्रिक निर्णय लेने में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सहभागी होने का अवसर प्राप्त होना चाहिए। और नियत कालिक चुनाव तथा व्यस्क मताधिकार जन सहभागिता के उपकरण है।
हालांकि सम्पूर्ण जनता का सहभागी होना निर्णय प्रक्रिया के लिए आदर्श कहा जाता किन्तु सभी निर्णयों में सभी को भागीदारी असम्भव है इसलिए व्यवहार में बहुमत के आधार पर निर्णय लिए जाते है और इन्हीं को लोकतांत्रिक मान लिया जाता है। बहुमत पर आधारित निर्णय में यह सम्मभव है कि कुछ लोगों का हित न हो, तो ऐसी अवस्था में बहुमत के निर्णय अल्पसंख्यकों के हित को ध्यान में रख कर होने चाहिए।

लोकतंत्र आदर्श मूल्यों के समूह के रूप में
मूल्य या आदर्श लोकतांत्रिक व्यवस्था की कसौटी के आधारभूत तत्व होते हैं जिनके आधार पर कोई भी राजनीतिक या सामाजिक व्यवस्था लोकतांत्रिक या अलोकतांत्रिक रूप धारण करती है। कोरी तथा अब्राह्य ने निम्न मूल्यों को लोकतांत्रिक समाज के लिए आधारभूत माना है-
  • व्यक्तिगत व्यक्तित्व का सम्मान
  • व्यक्तिगत स्वतंत्रता
  • विवेक में विश्वास
  • समानता
  • न्याय
  • विधि का शासन

लोकतंत्र के प्रकार

लोकतंत्र के मुख्य रूप से दो प्रकार माने जाते हैं-
  1. विशुद्ध या प्रत्यक्ष लोकतंत्र
  2. प्रतिनिधि सत्तात्मक या अप्रत्यक्ष लोकतंत्र

(1) विशुद्ध या प्रत्यक्ष लोकतंत्र
वर्तमान में स्विट्जरलैंड में प्रत्यक्ष लोकतंत्र चलता है। इस प्रकार का लोकतंत्र प्राचीन यूनान के नगर राज्यों में पाया जाता था। प्रत्यक्ष लोकतंत्र से तात्पर्य है कि जिसमें देश के सभी नागरिक प्रत्यक्ष रूप से राज्य कार्य में भाग लेते हैं। इस प्रकार उनके विचार विमर्श से ही कोई फैसला लिया जाता है ‌। प्रसिद्ध दार्शनिक रूसो ने ऐस लोकतंत्र को ही आदर्श व्यवस्था माना है।

प्रत्यक्ष लोकतंत्र संचालन के लिए साधन
जनमत संग्रह: जब किसी विषय पर जनता की राय जानने के लिए मतदान करवाया जाता है। तो उसे  जनमत संग्रह कहते है।
जनमत संग्रह 4 प्रकार की होती है।
  • अनिवार्य जनमत संग्रह: इस जनमत संग्रह में संविधान को लोगों की उपयुक्त के लिए बनाया जाता है।
  • ऐच्छिक जनमत संग्रह: अगर 30000 मतदाता या फिर 8 कैण्टन किसी कानून की मांग करें तो उस कानून पर जनमत संग्रह करवाया जा सकता है।और जनमत संग्रह को  लोकतंत्र की ढाल भी कहा जाता है। 
  • प्रत्यावर्तन (Recall): ऐसा ऐसी प्रणाली जिसके अंतर्गत जनता के द्वारा चुनी गई सरकार या किसी व्यक्तिगत इंसान इंसान के कार्यों से असंतुष्ट होने पर कार्यकाल पूर्ण होने से पहले उस सरकार या कोई व्यक्तिगत इंसान को उस पद से या उस सरकार को निष्कासित करने की प्रक्रिया को हम रीकॉल कहते है। रिकॉल को हिंदी में हम प्रत्यावर्तन कहते है।
  • प्रारंभिक सभाएं: वह सभा जिसमें राष्ट्रीय मुद्दों पर चर्चा की जाती हो ऐसी सभा को हम प्रारंभिक सभा कहते है। भारत में ग्राम सभा, वार्ड सभा प्रारंभिक सभा का एक रूप है।
  • आरंभक: प्रत्यक्ष लोकतंत्र का यह वह साधन है। जिसके द्वारा जनता खुद कानून निर्माण की पहल करती है। या मांग करती है। ऐसी लोकतंत्र को आरंभक कहते है। 
आरंभक के दो भाग होते है।
  1. साधारण आरंभक
  2. सूत्रवत आरंभक
  1. साधारण आरंभक : जब  जनता सरकार से मौखिक रूप से या किसी आंदोलन के माध्यम से किसी कानून को बनाने की मांग करती है। इस प्रक्रिया को हम साधारण आरंभ कहते है।
  2. सूत्रवत आरंभक : जब जनता सरकार से प्रारूप बनाकर शांतिपूर्ण तरीके से किसी कानून को बनाने की मांग करती है। इस प्रक्रिया को हम सूत्रवत आरंभक कहते है।
डायसी के अनुसार: स्विट्जरलैंड में जनमत संग्रह जनता के लिए ढाल और तलवार दोनों है।

(2) प्रतिनिधि सत्तात्मक या अप्रत्यक्ष लोकतंत्र
कई देशों में आज का शासन प्रतिनिधि सत्तात्मक या अप्रत्यक्ष लोकतंत्र है जिसमें जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा निर्णय लिया जाता है इसमें देश की जनता सिर्फ अपना प्रतिनिधि चुनने में अपना योगदान देती है वह किसी शासन व्यवस्था और कानून निर्धारण  लेने में भागीदारी नहीं निभाती है। इसे ही प्रतिनिधि सत्तात्मक या अप्रत्यक्ष लोकतंत्र कहते हैं।

प्रतिनिधि लोकतंत्र
प्रतिनिधि लोकतंत्र में जनता सरकारी अधिकारी को सीधे तौर पर चुनती हैं. ये अधिकारी जिले और संसदीय क्षेत्र के अनुसार चुने जाते हैं. यधपि इस प्रक्रिया में प्रतिनिधि लोग या जनता चुनती हैं. लेकिन कार्य करने का तरीका प्रतिनिधि का खुद का होता हैं. जनता निश्चित समय के लिए प्रतिनिधि चुनती हैं. प्रतिनिधि अपनी शक्ति और अधिकार का उपयोग करके संरकारी तंत्र को चलाता हैं.
निश्चित समय के बाद प्रतिनिधि को अपनी जगह छोडनी पड़ती हैं. और फिर से चुनाव प्रक्रिया के द्वारा नए प्रतिनिधि चुने जाते हैं. इस प्रक्रिया की एक खामी यह भी हैं की एक बार प्रतिनिधि चुनने के पश्चात् उनके अधिकारों और शक्तियों का गलत व्याक्तियो के द्वारा इस्तेमाल होने की आशंका रहती हैं.

प्रत्यक्ष लोकतंत्र
प्रत्यक्ष लोकतंत्र की प्रणाली में जनता ही पत्यक्ष रूप से शासन में हिस्सा लेती हैं. जनता के चुनाव के आधार पर ही फैसले लिए जाते हैं. और जनता के फैसलों के अनुसार कार्य किये जाते हैं. इसमें कोई प्रतिनिधि नहीं होता हैं. लेकिन बड़े राज्यों और देशों में प्रत्यक्ष लोकतंत्र शासन व्यवस्था संभव नहीं हैं. छोटे राष्ट्र और राज्य में ही प्रत्यक्ष लोकतंत्र व्यवस्था संभव हैं.

लोकतंत्र के लिये आवश्यक परिस्थितियां

एक लोकतंत्र प्रमाणिक और व्यापक तब कहलाता है जब वह कुछ विशेष शर्तों को पूरा करता है:-

राजनीतिक परिस्थितियां
  • (क) सर्वोच्च सत्ता जनता में निहित होना
  • (ख) मौलिक अधिकारों का प्रावधान
  • (ग) सार्वभौमिक व्यस्क मताधिकार
  • (घ) स्वतंत्र प्रेस व मीडिया
  • (ङ) सक्रिय राजनीतिक सहभागिता

सामाजिक व राजनीतिक परिस्थितियां
  • (क) विधि/कानून के समक्ष समानता
  • (ख) अवसरों की समानता
  • (ग) सामाजिक सुरक्षा
  • (घ) सर्वशिक्षा, सर्व स्वास्थ्य जैसे प्रावधान

लोकतंत्र के सिद्धांत

भारतीय लोकतंत्र में चार मूलभूत सिद्धांतों : स्वतंत्रता, समानता, बंधुता और न्याय को प्रतिष्ठापित किया गया है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है: इन आधारभूत सिद्धांतों के अतिरिक्त, जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि लोकतंत्र में आत्मसम्मान की भावना, सहयोग और उत्तरदायित्व की भावना आदि विचार भी समाहित हैं।

1. स्वतंत्रता - जब कोई स्वतंत्रता की बात करता है तो उसका आशय विचार, क्रिया, अभिव्यक्ति और गतिविधि की स्वतंत्रता से होता है। यह एक स्वतंत्र वातावरण है जिसमें व्यक्ति अपनी अंतर्निहित शक्तियों को पहचानने और स्वयं को अभिव्यक्त करने के लिए प्रोत्साहित होता है। लचीले और स्वतंत्र वातावरण में ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का अधिकतम विकास संभव है। लोकतंत्र में व्यक्तियों को बाहरी शक्तियों और अवांछित दबावों से मुक्त रहना चाहिए ताकि उनका अंतर्मन उनके व्यवहार और चरित्र का समुचित आकलन कर सकेगा।

2. समानता - मानव की मौलिक विशेषताओं और गुणों की दृष्टि से सभी व्यक्ति जन्म से ही समान हैं। लेकिन दूसरी तरफ प्रत्येक व्यक्ति अपनी बुद्धि, अभिरुचि, शारीरिक क्षमताओं आदि के रूप में विशिष्ट हैं। इस प्रकार समानता व्यक्ति के सम्बन्ध में अनुभवजन्य सामान्यीकरण नहीं है बल्कि एक नैतिक आदेश है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सामर्थ्य के अधिकतम विकास और सुधार के लिए समान अवसर प्राप्त करने का अधिकार है। व्यक्तिगत भिन्नता के बावजूद प्रत्येक व्यक्ति को जीवन जीने, सीखने और अपने उद्देश्य प्राप्ति के लिए प्रयास करने के लिए समान अवसर प्राप्त करने का अधिकार है।

3. भ्रातृत्व - आस्था और जीवन शैली की भिन्नता होते हुए भी राष्ट्र में एक-दूसरे का सम्मान और सहयोग करते हुए साथ-साथ रहने की व्यापक विचारधारा ही भ्रातृत्व है। भ्रातृत्व की भावना लोकतंत्र का मुख्य आधार है। जब तक व्यक्ति यह अनुभव नहीं करेंगे कि वे सभी समान मानवता से सम्बन्धित हैं, वे दूसरों के प्रति सहानुभूति और सहयोग का अनुभव नहीं कर सकते जोकि लोकतंत्र की मुख्य विशेषता है। अत: व्यक्ति के जीवन और विकास के क्षेत्र में जाति, रंग, धर्म, भाषा, क्षेत्र, जन्म और लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। प्रेम, स्नेह, सहयोग, सहानुभूति, समझ आदि भ्रातृत्व के स्वाभाविक सिद्धान्त हैं जो लोकतंत्र की सफलता के लिए अति आवश्यक हैं।

4.न्याय - उपर्युक्त मूल्यों के परिणामस्वरूप यह स्वाभाविक है कि व्यक्ति को न्याय का अधिकार है। किसी भी व्यक्ति को किसी अवसर से वंचित नहीं रखा जा सकता है और न ही उन्हें जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में लाभ प्राप्त करने हेतु प्रयास करने से रोका जा सकता है। अनुचित अथवा अवैध आधारों पर व्यक्तियों में भेद नहीं किया जा सकता। यदि किसी के साथ धर्म, जाति, सम्प्रदाय अथवा लिंग के आधार पर भेदभाव किया जाता है तो वह इस अन्याय के विरुद्ध न्यायालय में आवाज उठा सकता है और अपने लिए न्याय की माँग कर सकता है।

लोकतंत्र का परंपरागत सिद्धांत
लोकतंत्र के उदारवादी या परंपरागत (चिरसम्मत) सिद्धांत की परंपरा में स्वतंत्रता, समानता, अधिकार, धर्मनिरपेक्षता तथा न्याय जैसी अवधारणाओं का प्रमुख स्थान रहा है। उदारवादी चिन्तक आरंभ से ही इन अवधारणाओं को मूर्त रूप से देने वाली सर्वोत्तम प्रणाली के रूप में लोकतंत्र की वकालत करते रहे हैं। सामंतवाद से मुक्ति के बाद समाज के संचालन की दृष्टि से लोकतंत्र को स्वभाविक राजनीतिक प्रणाली के रूप में स्वीकार किया गया। लोकतांत्रिक भावना की सही शुरुआत सामाजिक संविदा के जन्म के साथ हुई थॉमस हॉब्स ने अपनी पुस्तक लेवियाथन (1651) में प्रमुख लोकतांत्रिक सिद्धांतों की वकालत करते हुए लिखा कि सरकार का निर्माण जनता द्वारा एक सामाजिक संविदा के तहत होती है। लॉक ने लिखा कि सरकार को सत्ता प्राप्त करने के लिए लगातार नागरिकों की सहमति प्राप्त करनी चाहिए। इसी प्रकार से एडम स्मिथ ने मुक्त बाजार का प्रतिमान इस लोकतांत्रिक आधार पर प्रस्तुत किया कि प्रत्येक व्यक्ति को उत्पादन करने, खरीदने और बेचने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। रूसो ने लोकतंत्र की आत्मा के रूप में अपना "सामान्य इच्छा का सिद्धांत" प्रतिपादित किया प्रसिद्ध उपयोगिता वादी दार्शनिक बेथम व मिल ने पूरी तरह से लोकतंत्र का समर्थन किया और उपयोगितावाद के माध्यम से लोकतंत्र को प्रभावी बोधिक का आधार प्रदान किया। उनके अनुसार लोकतंत्र "अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख' को अधिकतम संरक्षण प्रदान करता है। जे .एस. मिल ने प्रतिपादित किया की लोकतंत्र किसी भी अन्य शासन की तुलना में मानव जाति के नैतिक विकास में सर्वाधिक योगदान प्रदान करता है। इन उपयोगिता वादी विचारको ने प्रतिनिधिमूलक लोकतंत्र, संवैधानिक सरकार, बहुमत का शासन, गुप्त मतदान इत्यादि कई तरीके बताएं जिनके द्वारा लोकतंत्र को सुनिश्चित किया जा सकता है। 20वीं शताब्दी में अर्नेस्ट बाक्रर, लिंडसे, लास्की, पिनोक आदि विचारक इस सिद्धांत के प्रबल समर्थक माने जा सकते हैं। 18वीं शताब्दी की अमेरिकी एवं फ्रांसीसी क्रांतीयों द्वारा लोकतंत्र के सिद्धांतों को व्यवहारिक रूप प्रदान करने का प्रयास किया गया।

लोकतंत्र के इस सिद्धांत के निम्न बुनियादी तत्व है:
  • मनुष्य विवेकशील है इसलिए अपना अच्छा बुरा जानता है।
  • राजनैतिक सत्ता जनता की अमानत है।
  • सराकर का उद्देश्य सामान्य जन का भला करना तथा व्यक्ति का चंहमुखी विकास करना है।
  • सरकार सीमित व जनता के प्रति उत्तरदायी होनी चाहिए
  • विचार व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होनी चाहिए व सरकार द्वारा लोकमत का आदर किया जाना चाहिए।

आलोचना
  • यह सिद्धान्त मानकर चलता है कि सभी मनुष्य विवेकशील है इसलिए शासन के संचालन में जन सहभागिता होनी चाहिए। जबकि लार्ड ब्राइस, ग्राहम वाल्स इत्यादि विचारक मानते है कि मनुष्य उतना विवेकशील, तटस्थ व सक्रिय नहीं है जितना कि इस सिद्धान्त के तहत उसे मान लिया गया है। आलोचक कहते हैं कि यदि लोकतंत्र को बचाना है तो उसे जनता को शासन से दूर रखो।
  • लोकतंत्र से यह अपेक्षा की जाती है कि वह सामान्य हित मे काम करेगा लेकिन किसी भी समाज में सामान्य हित विभिन्न लोगों के लिए विभिनन अर्थ रख सकता है।
  • यह सिद्धान्त मूल्यों तथा आदर्शों पर अधिक ध्यान देता है राजनैतिक वास्तविकताओं पर कम। यह ऊंचे आदर्शों जैसे सामान्य इच्छा, लोगो का शासन, सामान्य कल्याण आदि से भरा पड़ा है। जिन्हें प्रयोगात्मक परीक्षण का विषय नहीं बनाया जा सकता। ये सभी शब्द भ्रामक है।
  • यह सिद्धान्त राजनीतिक समानता पर बल देता है जबकि व्यावहारिक स्तर पर राजनैतिक समानता का हो पाना सम्भव नहीं होता।
  • यह सिद्धान्त राजनीति में नेताओं, शासन करने वाले विशिष्ट वर्ग तथा संगठित संस्थाओं को उचित महत्व प्रदान नहीं करता।

लोकतंत्र का विशिष्ट वर्गीय सिद्धान्त
लोकतंत्र के परम्परागत उदारवादी सिद्धान्त ने सरकार के कार्यों में राजनीतिक समानता और व्यक्तिगत भागीदारी को जो केन्द्रिय महत्व दिया था वह 20वीं शताब्दी के लेखकों द्वारा आलोचाना का शिकार हो गया। 20वी शताब्दी के आरम्भिक दौर में इटली के दो प्रसिद्ध समाज वैज्ञानिक- विल्फेडो पैरेटो (1848-1923) और गीतानो मोस्का (1858–1941) ने यह सिद्धान्त प्रस्तुत किया कि किसी भी समाज या संगठन के अन्तर्गत महत्वपूर्ण निर्णय केवल गिने-चुने लोग ही करते है, चाहे उस संगठन का बाहरी रूप कैसा भी क्यों ना हो। यह सिद्धान्त विशिष्ट वर्गीय सिद्धान्त कहलाया। मूलतः विशिष्ट वर्गीय सिद्धान्त समाज विज्ञान के क्षेत्र में यह व्याख्या देने के लिए विकसित किया गया कि सामाजिक संगठन के भीतर मनुष्य किस तरह व्यवहार करते है। इसीप्रकार जर्मन समाज वैज्ञानिक रार्बट मिशेल्स (1876-1936) ने "गुटतंत्र का लोह नियम" (Iron law of oligarchy) का प्रतिपादन किया और उन्होने तक्र दिया कि अधिकांश मनुष्य स्वभाव से जड़ आलसी और दब्बू होते है। जो अपना शासन स्वयं चलाने में समर्थ नहीं होते। परन्तु उनके नेता बड़े कर्मठ दबंग और चतुर होते है जो अपनी वाक्पटुता एवं वक्तृत्व के बल पर लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ करके सत्ता पर अधिकार जमा लेते है। अतः इस प्रकार समाज में चाहे कोई भी शासन प्रणाली क्यो ना अपनाई जाए वह अवश्य ही गुटतंत्र (Oligrachy) या इने-गिने लोगों के शासन का रूप धारण कर लेती है।
अतः इस प्रकार से यह सिद्धांत विशिष्ट वर्ग या अभिजन शब्द का प्रयोग किसी समूह के ऐसे अलपसंख्यक वर्ग के लिए करता है जो कुछ कारकों की वजह से समुदाय में विशिष्ट हैसियत रखते है। यह अल्संख्यक वर्ग समाज में सत्ता के वितरण में अग्रणी भूमिका निभाता हैं। इस सिद्धान्त का मुख्य आधार यह मान्यता है कि समाज में दो तरह के लोग होते है- गिने चुने विशिष्ट (अभिजन) लोग तथा विशाल जनसमूह। विशिष्ट लोग हमेशा शिखर तक पहुंचते है क्योंकि वे सारी अर्हताओं से सम्पन्न सर्वोत्तम लोग होते है। बहुसंख्यक समूह विशिष्ट वर्ग द्वारा मनमाने ढंग से नियंत्रित व निर्देशित होता है। इन समाजवैज्ञानिक सिद्धान्तों ने लोकतंत्र की संभावनाओं को चुनौति देते हुए इस समस्या पर नए सिरे से विचार करते हुए उदार लोकतंत्र की नई व्याख्या प्रस्तुत की जिसमें इस विशिष्टवर्गीय सिद्धान्त की मान्यताओं को भी उपयुक्त स्थान दिया गया। उन्होंने जो विचार प्रस्तुत किए उन्हें सामूहिक रूप से "लोकतंत्र का विशिष्टवर्गीय सिद्धांत' कहा जाता है। इसमें मैन्हाइम, शुम्पीटर, आरों तथा सारटोरी के विचार विशेष स्थान रखते है। सारटोरी ने लोकतंत्र में नेताओं की भूमिका को विशेष महत्व दिया। उन्होंने अपनी पुस्तक 'The Democratic Theory" (1958) में लिखा कि "लोकतंत्र को असली खतरा नेतृत्व के अस्तित्व से नहीं, बल्कि नेतृत्व के अभाव से है।" इसी प्रकार मैन्हाइम ने विशिष्टवर्ग के शासन व लोकतांत्रिक शासन में तालमेल बैठाने के लिए सुझाव दिया कि नेताओं का चुनाव योग्यता के आधार पर होना चाहिए तथा जनसाधारण व विशिष्ट वर्ग के बीच की दूरी कम की जानी चाहिए।

लोकतंत्र के विशिष्टवर्गीय सिद्धान्त की मुख्य विशेषताएं:
  • लोग समान रूप से योग्य नहीं होते अतः विशिष्ट वर्ग व जन साधारण का निर्माण अपरिहार्य है।
  • अपनी उच्चतर योग्यताओं के बल पर विशिष्ट वर्ग सत्ता नियंत्रण व सत्ता वितरण में मुख्य भूमिका निभाता है।
  • विशिष्ट वर्ग अनवरत एक जैसा नहीं रहता । इस वर्ग में नए लोग शमिल होते है और पुराने बाहर हो जाते है।
  • बहुसंख्यक जनसमुदाय में अधिकांश भाव शून्य, आलसी व उदासीन होते है इसलिए एक ऐसा अल्पसंख्यक वर्ग का होना आवश्यक है जो नेतृत्व प्रदान कर सके।
  • आधुनिक युग में विशिष्ट वर्ग में मुख्य रूप से बुद्धिजीवी, औद्योगिक प्रबंधक व नौकरशाह होते है।
अतः इसप्रकार यह सिद्धान्त मानता है कि राजनैतिक तत्व चुनिंदा सक्षम लोगों के हाथ में होना चाहिए। यह सिद्धान्त लोगों की अति सहभागिता को भी खतरनाक मानता है इसलिए इस सिद्धान्त की मान्यता है कि लोकतांत्रिक व उदारवादी मुल्यों को बचाए रखने के लिए जनसमूह को राजनीति से अलग रखना जरूरी हैं यह सिद्धान्त लोकतंत्र को विशिष्ट वर्गों के बीच होने वाली प्रतिद्वन्दिता व प्रतिस्पर्धा के रूप में देखता है। और जिसमें जनता द्वारा केवल यह निर्णय लिया जाता है कि कौनसा विशिष्ट वर्ग उन पर शासन करेगा।

लोकतंत्र के विशिष्टवर्गीय सिद्धान्त की कई विचारकों ने आलोचना की जिनमें सी. बी मैक्फर्सन, बैरी होल्डन, राबर्ट डाहल, क्रिश्चियन बे, बाटोमोर, गोल्ड स्मिथ आदि प्रमुख हैं इस सिद्धान्त के विरूद्ध निम्न आपत्तियां प्रतिपादित की गयी है:-
  1. यह सिद्धान्त लोकतंत्र का अर्थ ही विकृत कर देता है। इसके अनुसार लोकतंत्र का अर्थ केवल जनता द्वारा प्रतिनिधियों को चुनना भर है। जबकि लोकतंत्र का अर्थ जनसहभागिता व उत्तरदायित्व को सुनिश्चित करना है। यह सिद्धान्त लोकतंत्र के इस पक्ष की अवहेलना कर केवल ऐकांगी व एक पक्षीय अध्ययन को प्रस्तुत करता है।
  2. यह सिद्धान्त लोकतंत्र की पुरातन अवधारणा के नैतिक पक्ष को समाप्त कर देता है। पुरातन अवधारणा के अनुसार लोकतंत्र का लक्ष्य जनकल्याण व मानवजाति का उन्नयन हैं। जबकि यह सिद्धान्त अल्पसंख्यक विशिष्टवर्ग के लाभ व हितों पर ही समस्त चिन्तन केन्द्रित करता है।
  3. विशिष्टवर्गीय सिद्धान्त सहभागिता, जो लोकतांत्रिक शासन का केन्द्रिय तत्व है, का तहत्व घटा देता है और दावा करता है कि जन सहभागिता सम्भव है ही नहीं।
  4. यह सिद्धांत एक सामान्य व्यक्ति को राजनैतिक दृष्टि से अक्षम और निष्क्रिय मानता है जिसका कार्य केवल विशिष्ट वर्ग का चुनाव करना होता हैं मनुष्य से सम्बन्धित यह विश्लेषण एकांकी व एक पक्षीय है।
  5. यह सिद्धान्त लोकतांत्रिक प्रक्रिया के द्वारा मौलिक परिवर्तन लाने के स्थान पर स्थायित्व बनाए रखने पर विशेष बल दते हैं यह सामाजिक आन्दोलनों को लोकतंत्र के लिए खतरा मानता है।
  6. यह सिद्धान्त लोकतांत्रिक प्रक्रिया के द्वारा मौलिक परिवर्तन लाने के स्थान पर स्थायित्व बनाए रखने पर विशेष बल दते हैं यह सामाजिक आन्दोलनों को लोकतंत्र के लिए खतरा मानता है।

लोकतंत्र का बहुलवादी सिद्धान्त
बहुलवादी सिद्धान्त की उत्पत्ति विशिष्टवर्गीय सिद्धान्त की आंशिक प्रतिक्रिया के रूप में हुई। विशिष्टवर्गीय सिद्धान्त एक ऐसी स्थिति के निर्माण से सन्तुष्ट है जिसमें सत्ता ऐसे विशिष्ट वर्ग में निहित होती है जो महत्वपूर्ण निर्णय लेता हैं जबकि बहुलवाद का मानना है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपेक्षाकृत स्वायत्त समूहों के बीच सौदेबाजी की प्रक्रिया है। जिसके अन्तर्गत ये समूह आपस सौदेबाजी करके ऐसी नीतियों के लिए अपनी सहमति व्यक्त करते है जिनसे उनके परस्पर विरोधी हितों में समायोजन स्थापित हो सके। बहुलवाद की अवधारणा वैसे तो पुरानी है किन्तु इसको सशक्त अभिव्यक्ति 20वीं शताब्दी में देखी गयी। सामान्य अर्थ में बहुलवाद सत्ता को समाज में एक छोटे से समूह तक सीमित करने के बदले उसे प्रसारित और विकेन्द्रीत मानता है। आधुनिक औद्योगिक और प्रौद्योगिक काल में बहुवादियों के अनुसार सत्ता विखण्डित हो गयी है और इसमें प्रतियोगी सार्वजनिक और निजी समूहों की साझेदारी बढ़ गयी है। उच्च स्थानों पर आसीन लोगों के पास पूर्व की भांति सत्ता नहीं रह गयी हैं। लोकतंत्र की बहुलवादी अवधारणा का विकास मुख्य रूप से अमेरिका में हुआ। इसके प्रणेताओं में एस.एम लिण्डसेर, राबर्ट डाहल, प्रेस्थस, एफ हंटर आदि प्रमुख हैं। एफ. ए बेंटली ने अपनी पुस्तक The Process of government (1908) में विचार दिया कि लोकतंत्र एक ऐसा राजनीति खेल है जिसमें तरह-तरह के समूह हिस्सा लेते है। बहुलवादी विचारकों का मानना है कि राजनीतिक सत्ता उतनी सरल नहीं होती जितनी वह दिखई देती है। यह विभिन्न समूहों, संगठनों, वर्गों, संघों सहित विशिष्ट वर्ग जो आमतोर पर समाज का नेतृत्व प्रदान करता है, के बीच बंटी हुई है।

बहुलवादी सिद्धान्त की विशेषताएँ
  1. यह सिद्धान्त राज्य को एक समुदाय मानता है। मानव जीवन के अनेक पहलुओं पर विभिन्न संघों का नियंत्रण रहता है। ये संघ राज्य की शाक्ति पर रोक लगाते हैं तथा इन संघों से पृथक राज्य विशिष्ट कार्यों का सम्पादन करता है। यह सिद्धान्त साधारण समाज की निष्क्रियता को केवल एक तथ्य ही नहीं बल्कि राजनीतिक व्यवस्था के स्थायित्व के लिए आवश्यक भी मानना है।
  2. यह सिद्धान्त नागरिकों को ताड़ना का अधिकार देता हैं जो राजनीतिक विशिष्ट जनों के व्यवहार को सन्तुलित बनाए रखने व उन्हें निरंकुश बनने से रोकता है।

आलोचना
  • यह सिद्धान्त रूढ़िवाद को बढ़ावा देता है।
  • यथास्थितिवादी है।
  • माननीय विकास के लिए उपयुक्त नहीं।

लोकतंत्र का सहभागी सिद्धान्त
इस सिद्धान्त की उत्पत्ति का श्रेय 1960 के बाद मैक्फर्सन, फैरोल, पैटमैन तथा पोनांजे जैसे विचारकों को जाता है। इस सिद्धान्त का विकास विशिष्टवर्गीय तथा बहुलवादी सिद्धान्तों के विरूद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप हुआ। यह दृष्टिकोण प्रशासन के चलाने में नागरिकों के अधिक से अधिक भागीदारी को बढ़ाये जाने पर बल देता हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार राजनीतिक सहभागिता लोकतंत्र का बुनियादी लक्षण है। यह एक ऐसी गतिविधि है, जिससे अन्तर्गत कोई व्यक्ति सार्वजनिक नीतियाँ व निर्णयों के निर्माण, निरूपण, तथा क्रियान्वयन की प्रक्रिया में सक्रिय भाग लेता है।

सहभागी लोकतंत्र की विशेषताएँ :
  1. विधायिकाओं, लोकसेवाओं, राजनीतिक दलों का लोकतांत्रिकरण हो जिससे समाज को उत्तरदायी युक्त बनाए जा सके।
  2. शक्तियों का विकेन्द्रीकरण हों व नीतियों के निर्माण व शासन कार्यों में लोगों की भागीदारी बढ़े।
  3. राजनीतिक मुद्दों व निर्णयों का समाजीकरण हो ताकि समाज के सभी व्यक्ति उसमें अपने हितों का निरीक्षण सके।
  4. लोकतांत्रिक निर्णय में नए आयामों की संभावना को सुरक्षित करने के लिए राज्य की संस्थात्मक व्यवस्था खली होनी चाहिए।

आलोचना
  1. समाज को राजनीति के प्रति जागरूक बनाने के लिए सहभागिता को बढ़ावा देना आवश्यक है किन्तु सहभागिता हमेशा सकारात्मक हो यह आवश्यक नहीं।
  2. सहभागिता बढ़ जाने से गुणात्मकता का अभाव हो सकता है। जिससे निर्णय लेने की समस्या बढ़ सकती है।
  3. राजनीतिक सहभागिता बढ़ जाने से राजनीतिक व्यवस्था के अतिभार होने की आशंका बढ़ जाती है। ऐसी स्थिति में व्यवस्था सभी कार्यों को निपटाने में असक्षम हो सकती है।

लोकतंत्र के चरण या लहरें
सैमुअल हटिग्टन ने अपनी रचना "The Third wave Democratization in the late Twentieth Century' में लिखा है कि विश्व मे लोकतंत्र के विकास की तीन चरण या लहरे रही है
  1. पहली लहर (1828–1926)– इस चरण में 30 देशों ने न्यूनतम रूप से लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्थापना की। इसमें फ्रांस, अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, जर्मनी, न्यूजीलैंड जैसे देश लोकतांत्रिक हुए।
  2. दूसरी लहर (1943-1962)- इस चरण में इटली, पश्चिमी जर्मनी, भारत, जापान, इजराइल जैसे देश लोकतांत्रिक हुए हैं। इस काल में निर्मित नई लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं इतनी मजबूत नहीं थी।
  3. तीसरी लहर (1974)- स्पेन पुर्तगाल चीली अर्जेंटीना और पूर्वी यूरोप के अन्य देश लोकतांत्रिक जो पहले साम्यवाद थे।
  • अरब वसंत (Arab spring) व लोकतंत्र की चौथी लहर- लोकतंत्र की चौथी लहर या अरब बसंत की अवधारणा अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश जूनियर द्वारा प्रस्तुत की गई थी। जिसके तहत अरब देशों में 2010-13 तक प्रजातंत्र, स्वतंत्र चुनाव, मानव अधिकार, बेरोजगारी एवं शासन परिवर्तन के लिए किए गए प्रदर्शन विरोध व क्रांतिकारी जन आंदोलनों को स्वीकार किया गया था अरब बसंत नाम का प्रयोग प्रथम बार 6 जन 2011 को अमेरिकी जर्नल "The Foreign Policy" में माक्रलिंच ने अपने लेख में किया। इस आंदोलन की शुरुआत ट्यूनीशिया की क्रांति से हुई और शीघ्र ही यह आंदोलन मिश्र लीबिया, यमन, बहरीन, सीरिया, अल्जीरिया, इराक, जार्डन, मोरक्को, सूडान, ओमान, सऊदीअरब इत्यादि देशों में फैल गया। कुछ विद्वानों ने इसे लोकतंत्र की चौथी लहर का नाम भी दिया। अरब देशों में चली आ रही तत्कालीन प्रशासन व्यवस्था एवं सरकार में बदलाव लाना अरब बसंत का मुख्य उद्देश्य था और इस आंदोलन के लिए निम्न कारण उत्तरदायी रहे जैसे अधिनायक वादी शासन व्यवस्थाएं, मानवाधिकारों का उल्लंघन, राजनैतिक भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, आर्थिक असमानता, प्रशासन में नौकरशाही का हावी होना इत्यादि। अरब आंदोलनकारियों ने विरोध के लिए अहिंसात्मक वह हिंसात्मक दोनों तरीके अपनाएं यमन के तवकॉल करमान को 2011 का नोबेल शांति पुरस्कार अरब वसंत में शांतिपूर्ण विरोध के आयोजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए संयुक्त रूप से दिया गया। अरब बसंत के माध्यम से अरब देशों में जो प्रजातंत्र व सुधारों की क्रांतिकारी लहर चली उससे वर्षों से चली आ रही तानाशाही सरकारों का अंत हुआ और सभी अरब देशों में सुधारात्मक दृष्टिकोण की ओर ध्यान दिया जाने लगा जैसे-
  • ट्यूनीशिया के जैनुअल आब्दीन अली मिश्र के होस्नी मुबारक, लीबिया के कर्नल गददफी एवं यमन के शाह अब्दुल्ला का तख्ता पलट दिया गया व नई सरकारे बनी।
  • कुवैत, लेबनान, ओमान व बहरीन ने भी विरोध प्रदर्शनों को देखते हुए अपने प्रशासन में कई सुधार किए।
  • मोरक्को एवं जॉर्डन में संवैधानिक सुधारों की क्रियान्विती हुई।
  • अल्जीरिया में 19 वर्ष पूर्व लागू की गई आपातकालीन स्थिति को हटाया गया।

लोकतंत्र के मुख्य सिद्धांत 

लोकतंत्र की अवधारणा के सम्बन्ध में प्रमुख सिद्धांत निम्नलिखित हैं:
  • लोकतंत्र का पुरातन उदारवादी सिद्धांत- लोकतंत्र की उदारवादी परम्परा में स्वतंत्रता, समानता, अधिकार, धर्मनिरपेक्षता और न्याय जैसी अवधारणाओं का प्रमुख स्थान रहा है
  • लोकतंत्र का बहुलवादी सिद्धांत – बहुलवाद सत्ता को समाज में एक छोटे से समूह तक सीमित करने के बदले उसे प्रसारित और विकेन्द्रीकृत कर देता है।
  • लोकतंत्र का सहभागिता सिद्धांत – इस सिद्धांत ने आम जनता की राजनीतिक कार्यों में भागीदारी को समर्थन किया जैसे – मतदान करना, राजनीतिक दलों की सदस्यता, चुनावों मे अभियान कार्य। 
  • लोकतंत्र का मार्क्सवादी सिद्धांत – मार्क्सवादी सिद्धांत के अनुसार भूमि, कल कारखाने इत्यादि पर जनता का स्वामित्व होता है। राज्य सारी उत्पादक पूंजीगत परिसंपत्तियों को अपने नियंत्रण में ले लेता है और उत्पादन-क्षमता में तेजी से वृद्धि होती है। इसमें प्रत्येक नागरिक के लिए आगे बढ़ने के समान अवसर होते हैं।

लोकतंत्र जीवनशैली के रूप में

शास्त्रीय उदारवादी के समर्थक लोकतंत्र को जीवन शैली के रूप में चित्रित करते हैं। लोकतांत्रिक जीवन शैली का आशय दूसरों के विचारों के प्रति सहिष्णु होना है। मिल के अनुसार "दूसरों के विचारों का सम्मान करना ही लोकतांत्रिक जीवन शैली है। इसी प्रकार अमेरिकी दार्शनिक जॉन डयूई जो कि इस विचार संप्रदाय के प्रमख विचारक माने जाते हैं इन्होंने अपनी पस्तक "डेमोकेसी एंड एजकेशन' में लिखा है की "जब बहत सारे नागरिक एक दूसरे से मिलते है परस्पर संवाद स्थापित करते हैं विचारों का आदान प्रदान करते हैं और उनके प्रभाव की जांच करने के लिए उन्हें कार्य रूप देते हैं तब सही अर्थ में लोकतांत्रिक समुदाय अस्तित्व में आता है।

लोकतंत्र का महत्व

लोकतंत्रात्मक शासन अनेक प्रकार की आलोचना और दोषों के होते हुए लोकतंत्र का अपना एक अलग ही महत्व है।
लोगों की जरूरत के अनुरूप आचरण करने के मामले में लोकतांत्रिक शासन प्रणाली किसी अन्य शासन प्रणाली से बहुत ही बेहतर है।
लोकतांत्रिक शासन पद्धति बाकी सभी पद्धति से बेहतर है क्योंकि यह आशंका अधिक जवाबदेही वाला स्वरूप होता है।
बेहतर निर्णय देने की संभावना बढ़ाने के लिए लोकतंत्र अलग ही भूमिका निभाता है।
लोकतंत्र मतभेदों और टकराव को संभलने का तरीका अलग ही तरीके से उपलब्ध कराता है।
लोकतंत्र जनता एवं नागरिकों का सम्मान बढ़ाता है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था दूसरों से बेहतर है क्योंकि इसमें हमें अपनी गलती ठीक करने का अवसर भी दिया जाता है।

लोकतंत्र की विशेषताएँ

हमने इस सरल परिभाषा के साथ शुरुआत की है कि लोकतंत्र शासन का एक रूप है जिसमें जनता शासकों का चुनाव करती है। इससे अनेक सवाल उठ खड़े होते हैं: -
  • इस परिभाषा के अनुसार शासक कौन हैं? किसी सरकार को लोकतांत्रिक कहे जाने के लिए उसके किन अधिकारियों का चुना हुआ होना आवश्यक है। लोकतंत्र में वे कौन-से फ़ैसले हैं जो बिना चुने हुए अधिकारी भी ले सकते हैं?
  • किस तरह के चुनाव को लोकतांत्रिक चुनाव कहते हैं? किसी चुनाव को लोकतांत्रिक कहने के लिए किन शर्तों को पूरा किया जाना ज़रूरी है?
  • कौन लोग शासकों का चुनाव कर सकते हैं। या खुद शासक चुने जा सकते हैं? क्या इसमें प्रत्येक नागरिक का बराबरी की हैसियत से भाग लेना ज़रूरी है? क्या कोई लोकतांत्रिक व्यवस्था अपने कुछ नागरिकों को इस अधिकार से वंचित कर सकती है?
  • सरकार के किस स्वरूप को लोकतांत्रिक कहेंगे? क्या चुने हुए शासक लोकतंत्र में अपनी मर्जी से सब कुछ कर सकते हैं या लोकतांत्रिक सरकार के लिए कुछ लक्ष्मणरेखाओं में बंधकर काम करना ज़रूरी है? क्या लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को नागरिकों के कुछ अधिकारों का आदर करना चाहिए?
  • व्यस्क मताधिकार
  • जनता की इच्छा सवोचच है।
  • उत्तरदाई सरकार।
  • जनता के द्वारा चुने गए प्रतिनिधि सरकार
  • बहुमत द्वारा निर्णय
  • निष्पक्ष तथा समय बधद चुनाव
  • सरकार के निर्णय में सलाह दबाव तथा जनमन द्वारा जनता का हिस्सा
  • निष्पक्ष न्यायपालिका तथा विधि का शासन
  • विभिन्न राजनीतिक दलों तथा दबाव समूह की उपस्थिति
  • समिति तथा संवैधानिक सरकार
  • जनता के अधिकार तथा स्वतंत्रता की रक्षा सरकार का कर्तव्य होना

लोकतंत्र के समक्ष चुनौतियां

भारत के लोकतंत्र के समक्ष कुछ प्रमुख चुनौतियां निम्न हैं:

निरक्षरता
साक्षरता लोकतंत्र की सफलता के लिये आवश्यक है लेकिन निरक्षरता को मिटाना भारत के लिये अभी भी एक बड़ी चुनौती है।

गरीबी
बढ़ती जनसंख्या व बेरोजगारी गरीबी का मूल कारण है यह असमानता तथा वंचन को बढ़ावा देती है।

लैंगिक भेदभाव
भारत में लड़कियों व स्त्रियों के विरूद्ध भेदभाव जीवन के हर क्षेत्र में नजर आता है। यह लोकतांत्रिक सिद्धान्तों के खिलाफ है। इस तरह के भेदभाव के कारण लिंग अनुपात चिन्ता का विषय बना हुआ है।

जातिवाद व साम्प्रदायिकता
भारत का लोकतंत्र जातिवाद व साम्प्रदायिकता के कारण पैदा हुई समस्याओं से जूझ रहा है। राजनीतिक व्यक्ति मत प्राप्त करने के लिये इन दोनों को बढ़ावा देते हैं। जातिवाद और साम्प्रदायिकता देश की एकता व शान्ति के लिये खतरा हैं।

क्षेत्रवाद
विकास में असंतुलन तथा किसी क्षेत्र विशेष के लोगों को विकास में नजरंदाज करने के कारण क्षेत्रवाद की भावना पैदा होती है। क्षेत्रवाद भी देश की एकता के लिये खतरा है।

भ्रष्टाचार
बेईमानी, रिश्वतखोरी तथा सरकारी तंत्र का अपने निजी हित के लिये दुरूपयोग भ्रष्टाचार की श्रेणी में आता है। भ्रष्टाचार के कारण राजनीति और अधिकारी राष्ट्रीय हितों की अनदेखी करते हैं।

लोकतंत्र से जुड़ी शब्दावली

  • तर्कबुद्धिवादी लोकतंत्र –> सिमोन चैम्बर्स
  • संघर्षपूर्ण लोकतंत्र –> फिलिप पेटिट
  • विमर्शी लोकतंत्र –> जॉन ड्राइजेक
  • संचरीय लोकतंत्र –> आइरिश मेरियन यंग

लोकतंत्र के गुण

प्रजातंत्र को जॉन स्टूअर्ट मिल का शासन बताया है। इन्होंने अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ रिप्रेजेंटेटिव गवर्नमेंट में लोकतंत्र के समर्थन को प्रस्तुत किया कि किसी भी सरकार में  गुण दोषों का मूल्यांकन करने के लिए दो मापदंडों की आवश्यकता होती है । उसकी पहले कसोटी यह है कि क्या सरकार का शासन उत्तम है अथवा नहीं, उसकी दूसरी कसौटी है कि उसके शासन का प्रजा के चरित्र निर्माण पर अच्छा अथवा बुरा प्रभाव पड़ता है।
  • उच्च आदर्शों पर आधारित
  • जनकल्याण पर आधारित
  • सार्वजनिक शिक्षण
  • क्रांति से सुरक्षा
  • परिवर्तनशील शासन व्यवस्था
  • देश प्रेम की भावना का विकास
  • चंदा में अपना विश्वास एवं उत्तरदायित्व की भावना का विकास

लोकतंत्र के दोष

  • लोकतंत्र अयोग्य लोगों का शासन है
  • बहुमत  द्वारा निर्णय युक्तिसंगत नहीं
  • प्रजातंत्र गुणों पर नहीं बल्कि संख्या पर बल देता है
  • पेशेवर राजनीतिक लोग का बहुमूल्य
  • खर्चीला शासन
  • संकट काल के लिए अनुपयुक्त
  • उग्र दलबंदी

लोकतंत्र और तानाशाही के बीच अंतर क्या हैं?
जैसा कि आप पहले से ही जानते होंगे, सरकारों के ये दो रूप प्रकृति में काफी विपरीत हैं। यहां हम आपकी समझ के लिए लोकतंत्र और तानाशाही के बीच के अंतर को बहुत संक्षेप में समझाएंगे।
लोकतंत्र और तानाशाही के बीच महत्वपूर्ण अंतर सरकार में बदलाव है। तानाशाही में बिना किसी चुनाव के एक पार्टी का शासन होता है, जबकि लोकतंत्र में नियमित और लगातार चुनाव होते हैं जिसमें सभी नागरिकों के वोट शामिल होते हैं।
एक लोकतंत्र में, लोगों की आवाज शासन के मामलों में प्राथमिक प्राथमिकता लेती है, जबकि एक तानाशाही में लोगों को प्रभावी ढंग से खामोश कर दिया जाता है और सरकार के लिए उनकी कोई प्रासंगिकता नहीं होती है। यह लोकतंत्र और तानाशाही के बीच एक बड़ा अंतर है।
लोकतंत्र और तानाशाही के बीच एक और अंतर सरकार की जवाबदेही है जो लोकतंत्र की प्राथमिक विशेषता है। एक तानाशाही में, सरकार नीतियों और विनियमों को लागू करने के लिए अनियंत्रित शक्ति रखते हुए, अपनी इच्छा और इच्छा के अनुसार व्यवहार करती है।

लोकतंत्र को तानाशाही से बेहतर क्यों माना जाता है?
एक महत्वपूर्ण प्रश्न जो आप इन दोनों राजनीतिक व्यवस्थाओं के बीच के अंतरों को जानकर आश्चर्यचकित हो सकते हैं, वह यह है कि लोकतंत्र को तानाशाही से बेहतर क्यों माना जाता है। यह केवल इसलिए है क्योंकि लोकतंत्र लोगों को अधिक मौलिक और मानव अधिकार देता है और जनता पर ध्यान केंद्रित करता है, न कि तानाशाही जो पूरी तरह से वही करती है जो उसका तानाशाह करना चाहता है। आइए प्रमुख कारणों का पता लगाएं कि लोकतंत्र को तानाशाही से बेहतर क्यों माना जाता है:
लोकतंत्र देश और उसके नागरिकों में समानता की सुविधा प्रदान करता है। सभी को समान अधिकार प्रदान किए गए हैं, उनमें से सबसे महत्वपूर्ण अपने प्रतिनिधि चुनने का अधिकार है। हालाँकि, तानाशाही किसी देश के तानाशाह के नियमों और इच्छाओं के आदेशों का आँख बंद करके पालन करती है।
लोकतंत्र में संघर्षों को हल करने के लिए उचित तरीके और तरीके शामिल हैं, चाहे देश के भीतर या देश के बाहर, जबकि तानाशाही में अपने नागरिकों के बीच संघर्ष समाधान के लिए ऐसी कोई विशेषता नहीं है।
राजनीतिक दृष्टि से, लोकतंत्र को वैध सरकार का एक रूप माना जाता है जहां कुछ व्यक्ति लोगों के प्रतिनिधि होते हैं और नागरिकों को भी सामरी के रूप में कार्य करने के लिए अपेक्षित अधिकार और कर्तव्य मिलते हैं। दूसरी ओर, तानाशाही के पास प्रतिनिधि चुनने की कोई प्रक्रिया नहीं होती है, इस प्रकार तानाशाह के साथ पड़ने और अपने नागरिकों को बिना किसी प्रतिनिधि के छोड़ने की संभावना अधिक होती है।
लोकतंत्र गुणवत्तापूर्ण निर्णय लेने, नए कानूनों को लागू करने, संघर्ष के समाधान, अपने नागरिकों के बीच संकट को हल करने के साथ-साथ अपने जनता के सामने आने वाले मुद्दों और समस्याओं के समय पर समाधान के लिए नियमों और विनियमों का एक सेट स्थापित करता है। दूसरी ओर, तानाशाही केवल बिना किसी आपत्ति के शासक का आँख बंद करके पालन करने, नियमों पर सवाल उठाने की गुंजाइश या यहाँ तक कि जनता के सामने आने वाले मुद्दों को समझने में विश्वास करती है।
लोकतंत्र एक जवाबदेह राजनीतिक व्यवस्था भी है क्योंकि सरकार को अपने फैसलों के लिए जवाबदेह ठहराया जा सकता है और प्रदान किए गए अधिकारों के साथ नागरिक सवाल कर सकते हैं और पूछताछ कर सकते हैं कि निर्णय लेने के मामले में क्या हो रहा है। तानाशाही उन लोगों के एक निश्चित समूह तक ही सीमित रहती है जिन पर वास्तव में भरोसा नहीं किया जा सकता है और उन्हें जवाबदेह माना जाता है क्योंकि उनके अपने निजी हितों को जनता के लिए फायदेमंद माना जाता है।

लोकतंत्र का समाजवादी दृष्टिकोण
अभी हमने पहली (उदारवादी) और दूसरी (साम्यवादी) दुनिया के देशों में लोकतंत्र के प्रति दृष्टिकोण की चर्चा की किन्तु तीसरी दुनिया (विकासशील देश) में लोकतंत्र के प्रति कुछ भिन्न प्रकार का दृष्टिकोण देखा गया। इसमें उदारवादी व साम्यवादी दोनों दृष्टिकोणों की मान्यताओं व लक्षणों को अपनाया गया। समाजवादी लोकतंत्रों में राजनीतिक समाजों के मूलय उदारवादी लोकतंत्रों की संकल्पना के समान स्वतंत्रता, राजनीतिक समानता, सामाजिक व आर्थिक न्याय तथा लोक कल्याण को साधना के होते है किन्तु साधनों को दृष्टि से ये लोकतंत्र साम्यवादी संकल्पना के समीप होते है। यही कारण है क अनेक नवोदित राज्यों में लोकतंत्र का एक नया रूप विकसित होता हुआ दिखाई देता है किन्तु यह नया रूप सभी राज्यों में समान नहीं होता। कई ऐसे राज्य हैं जहां लोकतंत्र की संस्थागत व्यवस्थाए व राजनीतिक समाज के आदर्श एक ही दिशा में जाने वाले होते जा रहे हैं। इन्हीं राज्यों के लोकतंत्र को समाजवादी लोकतंत्र के नाम से जाना जाता है। लोकतंत्र का समाजवादी दृष्टिकोण के तहत लोकतंत्र को अनेक रूपों में देखा गया है। जैसे जनवादी लोकतंत्र, बुनियादी लोकतंत्र, निर्देशित लोकतंत्र इत्यादि ।
दूसरे विश्व युद्ध (1939-45) के बाद जब पूर्वी यूरोप के देशों मुख्यतः हंगरी पोलैंड पूर्वी जर्मनी चेकोस्लोवाकिया रोमानिया में तत्कालीन सोवियतसंघ की छत्रछाया में समाजवादी प्रणालियां स्थापित की गई तो उन्हे "जनवादी लोकतंत्र' की संज्ञा दी गई। इसे उदार लोकतंत्र से अलग माना गया क्योंकि उसमें पूंजीवादी राजनीतिक दलों व पूंजीपतियों के हितों की प्रधानता रहती है। दूसरी ओर इसे सोवियत संघ के सर्वहारा लोकतंत्र के साथ भी नहीं मिलाना चाहिए क्योंकि इसके अंतर्गत सर्वहारा वर्ग अपनी शक्ति का प्रयोग किसी अन्य वर्ग के साथ मिल बाट कर नहीं करता अर्थात वहां सर्वहारा वर्ग का एक छत्र राज रहता है। परंतु जनवादी लोकतंत्र के अंतर्गत बुजफ्रआ, निम्न बुजफआ, किसान और सर्वहारा वर्ग अपनी मिली जुली सरकार बनाते हैं हालांकि उसमें सर्वहारा वर्ग की प्रधानता रहती है। मतलब यह है कि पूर्वी यूरोप के जनवादी लोकतंत्र की सरकारों में साम्यवादी दलों के साथ साथ गैरसाम्यवादी दलों को भी सम्मिलित कर लिया गया था। इसी प्रकार के एक और लोकतंत्र “निर्देशित लोकतंत्र का विचार 1957 में इंडोनेशिया के तत्कालीन राष्ट्रपति सुकर्ण ने रखा था। यह लोकतंत्र का एक संशोधित रूप माना जा सकता है जिसमें प्रतिनिधित्व की जगह परामर्श को विशेष महत्व दिया जाता है। राष्ट्रपति सुकर्ण ने तक्र दिया की लोकतंत्र का पश्चिमी प्रतिरूप ऐसे देश के लिए उपयुक्त नहीं होगा जिस में साक्षरता और समृद्धि का स्तर बहुत निम्न हो। तथाकथित निर्देशित लोकतंत्र लोकतंत्र के अंतर्गत लोकप्रिय नेता विभिन्न व्यवसायों के प्रतिनिधियों से परामर्श करके अधिकांश निर्णय अपने विवेक से करता है।

लोकतंत्र का साम्यवादी मार्क्सवादी दृष्टिकोण
यह अवधारणा 20 वीं शताब्दी में उभर कर सबके सामने आई। वस्तुतः उदारवादी और साम्यवादी (मार्क्सवादी) दोनों लोकतंत्र का समर्थन करते हैं और दोनों ही लोकतंत्र को जनता का शासन मानते हैं। परंतु व्यवहार के धरातल पर जनता के शासन को कैसे सार्थक किया जा सकता है इस विषय पर दोनों में मतभेद हैं उदारवाद के समर्थक लोकतंत्र को उसकी संस्थाओं और प्रक्रियाओं से पहचानते हैं जिसमें निर्वाचित विधानमंडल, व्यस्क मताधिकार, सत्ता प्राप्ति के लिए अनेक राजनीतिक दलों की प्रतिस्पर्धा, नियतकालिक चुनाव, विचार अभिव्यक्ति संगठन सभा करने की स्वतंत्रा इत्यादि शामिल है। जबकि सम्यवाद के समर्थक लोकतंत्र के सिद्धांत या लक्ष्य को प्रमुख स्थान देते हैं और इसकी कसौटी यह है कि शासन जनसाधारण के हित में कार्य करें और उसमें जनसाधारण का शोषण ना हो दूसरे शब्दों उदारवादी विचारक लोकतंत्र व पूंजीवाद संस्थाओं में कोई विरोध नहीं देखते। परन्तु मार्क्सवादी विचारक समाज की आर्थिक संरचना को सारे सामाजिक सम्बन्धों का आधार मानते हुए यह तक्र देते है कि जब तक समाज की संरचना लोकतंत्रीय नहीं होगी तब तक राजनीतिक स्तर पर लोकतंत्र केवल आडम्बर बना रहेगा। अतः वे लोकतंत्र की सार्थकता के लिए समाजवाद को अनिवार्य मानते है। उनका दावा है कि उत्पादन के प्रमुख साधनों पर समाज का स्वामित्व व नियंत्रण स्थापित कर देने से धनवान व निर्धन वर्गों की दूरी मिट जाएगी और समाज का स्वरूप लोकतांत्रिक हो जाएगा। इसके लिए साम्यवादी निम्न व्यवस्थाओं को स्थापित करना चाहते है-
  1. उत्पादन व वितरण के साधनों पर सार्वजनिक स्वामित्व
  2. सम्पत्ति का समान वितरण
  3. सर्वहारा वर्ग का अधिनामकतंत्र
  4. साम्यवादी कल (लोकतांत्रिक केन्द्रवाद)
इन सभी व्यवस्थाओं में साम्यवादी सर्वहारा वर्ग के अधिनायकतंत्र को सर्वाधिक महत्व देते हुए इसे ठोस लोकतंत्र को संज्ञा देते है। सर्वहारा का अधिनायकतंत्र एक ऐसे राज्य की ओर संकेत है जिसमें सर्वहारा अर्थात निर्धन बहुसंख्यक कामगार वर्ग का प्रभुत्व होगा। इस अधिनायकवाद की स्थापना तब होती है जब सर्वहारा वर्ग के लोग क्रांति करके पूंजीवादी व्यवस्था को धराशाही कर देते है। साम्यवादियों का मानना है यदि लोकतंत्र का अर्थ बहुमत का शासन है तो पूंजीवादी व्यवस्था में लोकतंत्र सम्भव ही नहीं है क्योंकि वहां मुट्ठीभर पूंजीपति बहुत बड़े कामगार वर्ग पर शासन करते है। यह प्रभुत्व मानवीय स्वतंत्रता के लिए घातक है। इसके विपरित सर्वहारा के अधिनायकतंत्र में समाजवादी उत्पादन प्रणाली के अन्तर्गत अल्पमत (पूंजीपति वर्ग) पर बहुमत (कामगार वर्ग) का प्रभुत्व रहेगा। अत: सर्वहारा का अधिनायकतंत्र इसलिए ठोस लोकतंत्र है क्योंकि इसका ध्येय लोक शक्ति का प्रभुत्व स्थपित करना है। साम्यवादियों का मानना है कि सर्वहारावर्ग के अधिनायकतंत्र के अन्तर्गत शासन लोकतंत्रीय केन्द्रवाद के सिद्धात के अनरूप चलाया जायेगा। इस सिद्धान्त का प्रयोग साम्यवाद दल द्वारा किया जायेगा। इस सिद्धान्त की नींव सोवियत संघ के संस्थापक नेता वी.आई लेनिन ने रखी थी तथा इसका तात्पर्य यह है कि दल या शासन के निचले अंग क्रमशः अपने ऊचे अंगों का निर्वाचन करेंगें व निर्णयों का पालन करने को बाध्य होंगें।

लोकतंत्र में नागरिक की भूमिका

लोकतंत्र तभी सफल हो सकता है जब नागरिक अपने आप में समानता, स्वतंत्रता, पंथनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय, उत्तरदायित्व तथा सभी का सम्मान करना; जैसे कुछ मूल्यों को आत्मसात् करते हैं। लोकतंत्र में प्रत्येक नागरिक इस बात के लिये उत्तरदायी है। कि विभिन्न स्तरों पर सरकार कैसे कार्य करती है। इसलिये प्रत्येक नागरिक की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। लोकतंत्र में नागरिक को निम्नलिखित कुछ प्रमुख अवसर प्राप्त हैं:
सार्वजनिक जीवन में भागीदारी विशेषकर चुनाव के दौरान मतदान करके नागरिक ही लोकतांत्रिक व्यवस्था को उत्तरदायी व जबावदेह बनाते हैं। सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 नागरिकों को सार्वजनिक विषयों के प्रति जागरूक रहने का मौका देता है तथा अपने विचारों व राय को भी व्यक्त करने का मौका देता है।
प्रत्येक नागरिक को कुछ कार्यों को करने की छूट है साथ ही उसका कर्त्तव्य है कि वह ऐसा कुछ न करे जिनसे किसी और के अधिकारों का उल्लंघन हो।

सुधारात्मक कदम
  • सार्वभौमिक साक्षरता (सर्वशिक्षा)
  • गरीबी उन्मूलन
  • लैंगिक भेदभाव की समाप्ति
  • क्षेत्रीय असंतुलन दूर करना
  • प्रशासनिक व न्यायिक सुधार
  • सतत् पोषणीय विकास (आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय)

सुधारात्मक कदमों को वास्तविक रूप देने में नागरिक की भूमिका
यह उन नागरिकों की सक्रिय भूमिका से संभव है जो -
  • कानून का सम्मान कर हिंसा को अस्वीकार करते हैं
  • दूसरों के अधिकारों का सम्मान करते हैं।
  • मनुष्य के मान-सम्मान का आदर करते हैं।
  • विपक्ष की भूमिका को स्वीकारते है।
  • सरकार के निर्णयों को अस्वीकार कर सकते हैं पर सरकार की सत्ता को अस्वीकार नहीं करते
  • सांस्कृतिक विविधता का सम्मान करते हैं।
loktantra-ki-paribhasha
कई विचारों के अनुसारलोकतंत्र क्या है ?
  • ऐसे सरकार जहां की जनता शक्तिशाली हो 
  • बहुत सारे लोगों का शासन
  • जनता का जनता के द्वारा जनता के लिए इसे लोकतंत्र कहा जाता है-अब्राहम लिंकन
  • जिसमें जनता की सहभागिता हो उसे लोकतंत्र कहा जाता है-सिले
  • राज्य के शासन शक्ति समुदाय में एक सम लिस्ट के रूप में निहित इसे लोकतंत्र कहा जाता है -ब्राइस

भारत में लोकतंत्र

भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है जहां राष्ट्रपति राज्य के प्रमुख के रूप में कार्य करता है। प्रधान मंत्री देश की केंद्र सरकार के प्रमुख के रूप में कार्य करता है। केंद्र सरकार के अलावा, देश के बेहतर शासन में सहायता के लिए प्रत्येक राज्य के लिए राज्य सरकारें हैं। केंद्र सरकार और राज्य सरकार दोनों संविधान के ढांचे के भीतर काम करती हैं। भारत में लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों में से एक राजनीतिक समानता पर आधारित है, और इसलिए देश में कोई भी व्यक्ति पार्टी चला सकता है और चुनाव लड़ सकता है।

केंद्र सरकार में सदनों का विभाजन
भारत में लोकतंत्र में एक द्विसदनीय विधायिका है, जो दो सदनों अर्थात् उच्च सदन या राज्य सभा और निचले सदन या लोकसभा का निर्माण करती है। लोकसभा के सदस्य केंद्र सरकार के चुनावों के माध्यम से चुने जाते हैं जिसमें पूरे देश के लोगों ने अपने निर्वाचन क्षेत्र के लिए सदस्यों का चुनाव करने के लिए अपना वोट डाला। अभी तक, लोकसभा में कुल 543 सीटें हैं जो देश के 543 निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करती हैं। 543 सीटों में से बहुमत प्राप्त पार्टी की सरकार बनाती है। दूसरे बहुमत वाली पार्टी विपक्षी पार्टी बनाती है। राज्य सभा के 245 सदस्यों में से 233 सदस्य अप्रत्यक्ष रूप से राज्य विधान सभा के प्रतिनिधियों द्वारा चुने जाते हैं। भारत के राष्ट्रपति शेष 12 सदस्यों को कला, साहित्य, खेल आदि जैसे विभिन्न क्षेत्रों में उनके योगदान के लिए चुनते हैं।

भारत में पार्टियों के प्रकार
भारत में लोकतंत्र की प्रणाली में एक बहुदलीय प्रणाली है। भारत में सभी दलों को एक राष्ट्रीय पार्टी या एक राज्य पार्टी के रूप में वर्गीकृत किया जाता है यदि वे विशिष्ट योग्यताएं स्पष्ट करते हैं। साथ ही, किसी पार्टी को चुनाव लड़ने के लिए, उसे भारत के चुनाव आयोग के साथ पंजीकृत होना चाहिए। यह एक स्वतंत्र निकाय है जिसे सरकार द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता है।

लोकतंत्र की सफलता के लिए आवश्यक शर्तें
प्रजातंत्र की सफलता में सबसे महत्वपूर्ण बाधा अशिक्षा की है ,इसका यह अर्थ है कि प्रजातंत्र की सफलता के लिए आवश्यक है कि नागरिक को शिक्षित होना चाहिए  जागृत करना और राजनीतिक जीवन में रुचि रखने वाला हो।
प्रजातंत्र का आर्थिक रूप से यह भी कार्य होता है कि देश में शांति और सुव्यवस्था का वातावरण बनाए रखें।
लोकतंत्र की सफलता के लिए आर्थिक समानता और सामाजिक न्याय की स्थापना करना भी बहुत ही आवश्यक है ।जनता की न्यूनतम आवश्यकताएं पूरी करनी चाहिए ताकि वह भी बिना किसी दबाव के शासन के कार्यों में भाग ले सकें।
निर्वाचन समय बंद एवं निष्पक्ष होना यह लोकतंत्र की सफलता के लिए बहुत ही आवश्यक है।
सामाजिक स्तर पर विशेष अधिकारों की संपत्ति होना बहुत ही आवश्यक है लोकतंत्र की सफलता के लिए।
प्रजातंत्र की रक्षा एवं सफलता संरक्षण हेतु के निष्पक्ष न्यायपालिका होनी बहुत आवश्यक है लोकतंत्र की सफलता के लिए अहम भूमिका निभाता है।
जनमत निर्माण के साधन जैसे समाचार पत्र ,पत्रिकाएं सभा संगठन ऐसी कई सारे प्रकार पर किसी वर्ग विशेष का अधिकार ना हो, प्रकाश स्वतंत्र और ईमानदार प्रेम के माध्यम से जनता और शासन के बीच स्वस्थ संबंध कायम बनाए रखना लोकतंत्र की सफलता के लिए यह भी बहुत ही आवश्यक है।
स्थानीय स्वशासन का विकास और प्राथमिक पाठशाला होनी अभी बहुत ही आवश्यक है।
प्रजातंत्र के कट्टर आलोचक लेकर तथा हेंडरी मैंने बहुत के शासन को सीमा के भीतर रखने के लिए लिखित संविधान का सुझाव भी दिया था जो लोकतंत्र में अहम भूमिका निभाते हैं।
प्रभावशाली विरोधी कादल और शक्तिशाली अभाव में लोकतंत्र सरकार निर्गुण और लापरवाह हो जाती है साथ ही सत्ता का दुरुपयोग करने लगती है यह भी लोकतंत्र का सफलता के लिए बहुत ही आवश्यक है।

निष्कर्ष
इस आर्टिकल (लोकतंत्र किसे कहते हैं? / लोकतंत्र से आप क्या समझते हैं / लोकतंत्र की परिभाषा) को लिखने का उद्देश्य आपको लोकतंत्र और उसकी परिभाषा के बारे में अवगत कराना हैं. अकसर प्रतिस्पर्धा परीक्षा में लोकतंत्र के अर्थ के बारे में पूछा जाता हैं. जिसका स्पष्ट उत्तर देना अनिवार्य हैं. इस आर्टिकल में हमने स्पष्ट रूप से लोकतंत्र की व्याख्या की हैं.
एक सच्चे लोकतान्त्रिक व्यवस्था में न्याय, समानता, स्वतंत्रता, और धर्म निरपेक्षता सर्वोपरि रहती हैं. लोकतंत्र में प्रत्येक व्यक्ति को शासन की शक्ति प्रदान की जाती हैं. जैसे हमारे देश में प्रत्येक व्यक्ति को मत अधिकार के द्वारा शासन की शक्ति प्रदान की गई हैं.

लोकतंत्र से सम्बंधित कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर (FAQs)

लोकतांत्रिक शिक्षा क्या है?
लोकतंत्र में प्रत्येक व्यक्ति की अपनी एक गरिमा होती है तथा प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में कुछ महत्व रखता है।
लोकतांत्रिक शिक्षा लोकतंत्र के सिद्धांतों का पालन करती है।

लोकतंत्र क्यों जरूरी है?
प्रत्येक देश में शांति समृद्धि और एकता को बनाए रखने के लिए लोकतंत्र का होना बहुत जरूरी है लोकतंत्र से एक सरकार का निर्माण होता है इस प्रकार प सरकार भी लोगों की भलाई के लिए काम करते हैं

क्या भारत में प्रत्यक्ष लोकतंत्र है?
वास्तविक रूप से भारत में कोई भी प्रत्यक्ष लोकतंत्र नहीं है क्योंकि भारत में सरकार को चुनाव करने के लिए जनता प्रत्यक्ष रूप से भाग लेने में असमर्थ होती है। सबसे पहले जनता एक प्रतिनिधि को चुनती है और उस प्रतिनिधि के द्वारा एक सरकार को चुना जाता है।

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