अलाउद्दीन खिलजी - अलाउद्दीन खिलजी का इतिहास (1296 - 1316 ई.) | alauddin khilji history in hindi

अलाउद्दीन खिलजी (1296 - 1316 ई.)

अलाउद्दीन खिलजी के बारे में मुख्य जानकारी
पूरा नाम अलाउद्दीन खिलजी
दूसरा नाम जुना मोहम्मद खिलजी
बचपन का नाम अली 'गुरशास्प'
जन्म 1266 ई.
जन्म स्थान लकनौथी बंगाल
शासनावधि 1296–1316
धर्म मुस्लिम
राज्याभिषेक 3 अक्टूबर, 1296
पिता शाहबुद्दीन मसूद
पत्नी मलिका-ए-जहाँ (जलालुद्दीन की बेटी)
महरू (अल्प खान की बहन)
कमलादेवी (कर्ण की पूर्व पत्नी)
संतान खिज़्र खान
शादी खान
कुतुबुद्दीन मुबारक शाह
शाहबुद्दीन उमर
मृत्यु 2 जनवरी, 1316

1290 ई. में गुलाम वंशीय अन्तिम शासक कैकुबाद की उसके ही एक अमीर जलालुद्दीन खिलजी ने हत्या कर दी तथा दिल्ली सल्तनत पर अधिकारी कर लिया। इस प्रकार 1206 ई. से 1290 ई. तक चलने वाले गुलाम-शासन की समाप्ति हुई व दिल्ली में खिलजी वंश के शासन की स्थापना हुई। जलालद्दीन खिलजी इस वंश के शासन का संस्थापक था। उक्त खिलजी कौन थे? इस विषय में विद्वानों में मतभेद है। कुछ इतिहासकारों का मत है कि खिलजी अफगानी थे तथा 'खल्ज' नामक ग्राम के निवासी थे। इन इतिहासकारों का मानना है कि बलबन के समय में अमीरों के दो दल थे। एक दल तुर्की अमीरों का तथा दूसरा खिलजी मलिकों का था। तुर्की अमीर खिलजी अमीरों को पसन्द नहीं करते थे क्योकि वे खिलजियों को अफगान समझते थे। alauddin khilji in hindi
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खिलजियों का चरित्र, वेश-भूषा तथा रहन-सहन भी तुकों से अलग था। इसके विपरित, तुल्जले हेग तथा डॉ. के.ए.लाल, आदि अनेक विद्वान खिलजियों को तुर्क ही मानते हैं। इनविद्वानों का मानना है कि खिलजी मूलतः तुर्क थे, किन्तु लम्बे समय तक अफगानिस्तान में रहने के कारण उन्होंने अफगानिस्तान के रहन-सहनव रीति-रिवाजों को अपना लिया था। इसीलिए दिल्ली के तुके इन्हें अलग समझते हुए नापसन्द करते थे। alauddin khilji history in hindi

अलाउद्दीन खिलजी का प्रारम्भिक जीवन

अलाउद्दीन खिलजी सुल्तान जलालुद्दीन का भतीजा था। अलाउद्दीन खिलजी का जन्म 1266 ई. में हुआ था। अलाउद्दीन शिक्षित न था, किन्तु सैनिक गुण से वह परिपूर्ण था। सुल्तान जलालुद्दीन ने अपनी पुत्री का विवाह भी अलाउद्दीन से किया था। 1290 ई. में अलाउद्दीन के शासक बनने के पश्चात् अलाउद्दीन को 'अमीर-ए-तुजक' पद प्राप्त हो गया। बाद में कड़ा मानिकपुर के सूबेदार मलिक छज्जू द्वारा विद्रोह किये जाने पर सुल्तान ने अलाउद्दीन को कड़ा मनिकपुर का सूबेदार नियुक्त कर दिया। alauddin khilji history
अलाउद्दीन अत्यन्त पराक्रमी एवं महत्त्वाकक्षी व्यक्ति था। अतः कड़ा-मानिकपुर का सूबेदार बनने पश्चात् उसने अपनी शक्ति को बढ़ाने का प्रयास किया, किन्तु इसके लिए धन क आवश्यकता थी। अतः अलाउद्दीन ने 1292 ई. में मालवा पर आक्रमण किया तथा भिलसा के दुर्ग को जीतकर अपार धन-सम्पत्ति प्राप्त की। सुल्तान जलालुद्दीन को प्रसन्न करने के लिए उसने भिलसा की लूटी हुई सम्पत्ति का कुछ भाग सुल्तान की सेवा में भेंट कर दिया। भिलसा पर विजय से अलाउद्दीन की महत्त्वाकांक्षाएं और बढ़ गयी तथा वह सुल्तान बनने का स्वप्न देखने लगा, किन्तु इस स्वप्न को पूरा करने के लिए उसे अभी और अधिक धन चाहए था, अतः उसने सुल्तान की आज्ञा लिए बिना ही, 1294 ई. में देवगिरि पर आक्रमण किया। देवगिरि के राजा रामचन्द्र देव ने साहसपूर्वक अलाउद्दीन का सामना किया, किन्तु अलाउद्दीन ने सन्धि करने के लिए अन्ततः उसे विवश होना पड़ा। देवगिरि पर विजय से अलाउद्दीन को अपार धन-सम्पत्ति प्राप्त हुई। इस विजय की एक उल्लेखनीय बात यह थी कि दक्षिण भारत में यह प्रथम तुर्क आक्रमण था। डॉ. ए.एल. श्रीवास्तव ने लिखा है, "इस आक्रमण की सफल्ता ने सिद्ध कर दिया कि अलाउद्दीन एक उच्चकोटि का प्रतिभाशाली सैनिक ही नहीं था, अपितु उसमें अद्भुत साहस, संगठन-शक्ति तथा साधन सम्पन्नता भी थी।"
इस विजय से अलाउद्दीन की महत्वाकांक्षाएं और प्रबल हो गयी तथा वह शीघ्रातिशीघ्र सुल्तान बनने का प्रयत्न करने लगा। पारिवारिक परिस्थितियों ने भी उसे इसी स्वप्न को पूरा करने में मदद की। अलाउद्दीन के सम्बन्ध अपनी पत्नी (सुल्तान जलालुद्दीन की पुत्री) से मधुर न थे तथा उसकी पत्नि व सास उसके विरूद्ध षडयन्त्र करते रहते थे। अतः अलाउद्दीन ने सुल्तान की हत्या कर सम्पूर्ण सल्तनत पर ही अधिकार कर लेने की योजना बनायी। इसी उद्देश्य से उसने सुल्तान को कड़ा मानिकपुर में आमन्त्रित किया व छल से उसकी हत्या करके जुलाई, 1296 ई. में स्वयं सुल्तान बन गया।

अलाउद्दीन को प्रारम्भिक समस्याएं

अलाउद्दीन ने सिंहासन जलालुद्दीन के रक्त से अपनी तलवार को अनुरंजित करने के पश्चात् छल से प्राप्त किया था। अलाउद्दीन एक अपहर्ता ही नहीं, वरन सुल्तान का हत्यारा भी था, अतः जनसाधारण व कुछ अमीर उससे घृणा करते थे। जलालुद्दीन के अनेक विश्वासपात्र सामन्त व अमीर भी अलाउद्दीन विरोधी थे। इसके अतिरिक्त सुल्तान की विधवा पत्नी मालिका-ए-जहां ने अपने पुत्र कद्रखां को रूकुनुद्दीन के नाम से दिल्ली के सिंहसन पर आसीन कर दिया था। सुल्तान का ज्येष्ठ पत्र अर्कली खां तथा 'नये मुसलमानों का नेता उलुग खां भी जीवित थे व उसका विरोध कर रहे थे। अतः अलाउद्दीन की सर्वप्रथम समस्या अपने प्रतिद्वन्द्वियों का दमन करना था तथा दिल्ली पर अधिकार करके वास्तविक अर्थों में सुल्तान बनना था। अनेक बाह्य समस्याएं भी अलाउद्दीन के समक्ष उत्पन्न हो रही थी। हिन्दू शासकों की शक्ति बढ़ती जा रही थी तथा वे सल्तनत के विरुद्ध विद्रोह करने लगे थे। उत्तरी-पश्चिमी सीमा प्रान्त पर भी मंगोल आक्रमण का संकट छाया हुआ था।
इस प्रकार अनेक समस्याओं का सामना अलाउद्दीन को करना था जिनमें प्रमुख निम्नवत् थी -

दिल्ली पर अधिकार
अपने समक्ष इतनी समस्याओं को देखकर अलाउद्दीन विचलित नहीं हुआ। उसने अत्यन्त धैर्य, कूटनीति एवं शक्ति से इन समस्याओं का समाधान करने का प्रयत्न किया। अलाउद्दीन के लिए सर्वाधिक जरूरी दिल्ली पर अधिकार करना था जहां मलिक-ए-जहां ने रूकुनुद्दीन को सुल्तान घोषित कर दिया था। अलाउद्दीन के सौभाग्य से जलालुद्दीन के पुत्रों में फूट पड़ गयी। अर्कली खां, जो मुल्तान का सूबेदान था, स्वयं सुल्तान बनना चाहता था। अतः रूकुनुद्दीन का सुल्तान बनना उसे पसन्द नहीं आया तथा वह रूकुनुद्दीन की सहायतार्थ दिल्ली नहीं आया। अलाउद्दीन ने इस अवसर से लाभ उठाया तथा तुरन्त दिल्ली पर अधिकार करने के उद्देश्य से अग्रसर हो गया। रूकनुद्दीन ने बदायूं के निकट उसका सामना किया, किन्तु रूकुनुद्दीन के अधिकांश सैनिकों को अलाउद्दीन ने अपनी ओर मिला लिया। विवश होकर बिना युद्ध लड़े ही रूकुनुद्दीन को भागना पड़ा। तत्पश्चात् अलाउद्दीन दिल्ली पहुंचा व 3 अक्टूबर, 1296 ई. को दिल्ली सल्तनत का विधिवत् सुल्तान बन गया।
सुल्तान बनने के पश्चात् जनता को प्रसन्न करने के लिए उसने देवगिरि से प्राप्त धन को जनता में वितरित किया। बरनी ने लिखा है, "जिस विश्वासघात और कृतघ्नता के द्वारा उसने सिंहासन प्राप्त किया, उसका दूसरा उदाहरण पूर्वात्य देशों के इतिहास में मिलना दुर्लभ है, इसलिए उसने दक्षिण (देवगिरि) की लूट में उपलब्ध सोने को अपव्ययतापूर्ण ढंग से बिखेरकर जनता को प्रसन्न करने का प्रयत्न किया। शीघ्र ही लोग उसके विश्वासघात को भूल गये तथा उसकी उदारता की प्रशंसा करने लगे।

विद्रोहियों का दमन
दिल्ली का सुल्तन बनने के पश्चात् अलाउद्दीन ने जलालुद्दीन के समान अपने विरोधियों के प्रति उदार नीति का पालन नहीं किया। सुल्तान बनते ही सर्वप्रथम उसने एक शक्तिशाली सेना उलुग खां व हिजाबुद्दीन के नेतृत्व में मुल्तान भेजी ताकि रूकुनुद्दीन, अर्कली खां व अन्य प्रतिद्वद्वियों का सफाया किया जा सके। शीघ्र ही इस सेना को सफलता मिली तथा अर्कली खां, रूकुनुद्दीन, अहमद चंप, आदि को बन्दी बनाया गया व उन्हें अन्धा करके कारागार में डाल दिया गया। बाद में अर्कली खां, रूकुनुद्दीन व उसके पुत्रों की हत्या कर दी गयी। मलिक-ए-जहां को बन्दीगृह में ही रहने दिया गया।

अमीरों को दण्ड
इस प्रकार अपने प्रतिद्वन्द्वियों की हत्या करने के पश्चात् अलाउद्दीन ने उन अमीरों की ओर ध्यान दिया। जिन्होंने जलालुद्दीन रो विश्वारापात करके उराका साथ दिया था। अलाउद्दीन का विचार था कि जो व्यक्ति पहले सल्तान के लिए गद्दारी कर सकता था वह दूसरे के लिए भी गद्दारी कर सकता है। अलाउद्दीन के इन विचारों पर टिप्पणी करते हुए बूल्जले हेग ने लिखा है, 'अलाउद्दीन की नीति की यह विशेषता थी कि वह पहले विश्वासघातकों की सेवाओं से लाभ उठाता और फिर उसी विश्वासघात के अपराध में, जिनसे वह अपने काम बनाता, उन्हें मृत्युदण्ड देता था।" अतः अलाउद्दीन ने ऐसे अमीरों में से कुछ की हत्या करवा दी तथा शेष को कारागार में डाल दिया। उनकी सम्पत्ति पर भी अलाउद्दीन ने अधिकार कर लिया। इस प्रकार राजकोष को उसने समृद्ध किया। इस प्रकार अपनी समस्याओं पर विजय प्राप्त कर अलाउद्दीन ने अपने सिंहासन को सुरक्षित कर लिया। बरनी ने लिखा है, "अब अलाउद्दीन का सिंहासन पर दढ अधिकार हो गया था और नगर दण्डपालक तथा प्रमुख लोग उससे मिलने आये और इस प्रकार एक नवीन व्यवस्था स्थापित हो गयी। उसकी सम्पत्ति अतुल तथा शक्ति महान् थी। इसलिए लोगों ने उसके प्रति दिखायी अथवा नहीं इसका कोई महत्त्व नहीं रहा था, उसके नाम से खुतवा पढ़ा गया और नये सिक्के चलाये गये।

अलाउद्दीन तथा मंगोल

अलाउद्दीन के शासनकाल में मंगोलों ने निम्न आक्रमण किये -

कादर का आक्रमण
1297 ई. में मंगोलों ने पंजाब पर आक्रमण कर लूटमार शुरू कर दी। अलाउद्दीन के उलूग खां तथा जफर खां नामक सेनापतियों ने उन्हें जालंधर के निकट बुरी तरह परास्त किया तथा कई मंगोलों को मौत के घाट उतार दिया।

सल्दी का आक्रमण
1299 ई. में मंगोलों ने सल्दी के नेतृत्व में सिन्ध पर आक्रमण किया और कुछ प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। इस बार भी जफर खां ने उन्हें बुरी तरह परास्त किया, इससे उसकी लोकप्रियता बहुत बढ़ गई। डॉ. लाल ने लिखा है, "इस सफलता के बाद सुल्तान तथा अन्य दरबारी उसके प्रति ईर्ष्यालु बन गये।

कुतलुग ख्वाजा का आक्रमण
1299 ई. में ही मंगोलों ने कुतलुग खाजा के नेतृत्व में दिल्ली पर आक्रमण किया। अलाउद्दीन ने नुसरत खां, जफर खां तथा उलूग खां आदि सेनापतियों के साथ मंगोलों का सामना किया। जफर खां ने फिर अपने रणकौशल का परिचय देते हुए मंगोलों को मार भगाया, किन्तु इस बार वह भी वीरगति को प्राप्त हो गया। डॉ. के.एस. लाल ने लिखा है, "अलाउद्दीन के लिए यह दोहरी विजय थी। एक शक्तिशाली मंगोलों पर व दूसरी शक्तिशाली एवं महत्त्वाकांक्षी जफर खां की मृत्यु से।

अन्य सरदारों के आक्रमण
चौदहवीं सदी में मंगोलों ने तागी, अलीबेग तथा इकबालमन्द के नेतृत्व में भारत पर आक्रमण किये, किन्तु परास्त हुए। 1306 ई. के पश्चात् मंगोल इतने कमजोर हो गये कि शाही सेनाओं ने उनके राज्य में लूटमार की।
मंगोलों के आक्रमण के दिल्ली साम्राज्य पर निम्न प्रभाव पड़े -
  • अलाउद्दीन ने विशाल सेना रखी। उसने सीमान्त राज्यों में नये दुर्ग बनवाये तथा पुराने दुर्गों का पुनर्निनिर्माण करवाया।
  • अपनी विशाल सेना हेतु अलाउद्दीन ने कई आर्थिक सुधार किये।
  • उसने सीमा प्रान्तों में योग्य सेनापति नियुक्त किये तथा युद्ध सामग्री एवं रसद की पर्याप्त व्यवस्था की।

अलाउद्दीन की विजय के कारण

  • अलाउद्दीन की मंगोलों के विरूद्ध सफलता के निम्न कारण थे
  • मंगोल आक्रमणकारियों में आपसी फूट थी, जबकि अलाउद्दीन की सेना संगठित थी।
  • मंगोल शासक देव के बाद मंगोलों को योग्य नेतृत्व प्राप्त नहीं हुआ।
  • जफर खां, नुसरत खां, गाजी मलिक आदि योग्य सेनानायकों के कारण अलाउद्दीन की विजय हुई थी।

अलाउद्दीन खिलजी का राज्य विस्तार

अलाउद्दीन खिलजी सिकन्दर महान् की भांति ही संसार विजय के स्वप्न देखता था। इसीलिए उसने 'सिकन्दर-ए-सानी' की उपाधि धारण की और सिक्कों पर भी यह उपाधि अंकित कराई। लेकिन काजी अली उलमुल्क ने अलाउद्दीन को समझाया कि आपको पहले भारत के स्वतन्त्र हन्द राज्यों को जीतना चाहिए और तब अन्य विजयों के बारे में सोचना चाहिए। वृद्ध काजी के परामर्श को याद करते हुए अलाउद्दीन खिलजी ने भारत विजय का अपना महान् कार्य आरम्भ किया।

उत्तरी भारत की विजयें
अलाउद्दीन ने सबसे पहले उत्तरी भारत के निम्नांकित स्वतन्त्र राज्यों को जीतकर अपने को सम्पूर्ण उत्तरी भारत का एक छत्र सम्राट बनाया -

गुजरात की विजय, 1299
अलाउद्दीन ने 1299 ई. में गुजरात के उपजाऊ, धनी और समृद्ध देश को जीतने के लिए उलूग खां और नुसरतखां के नेतृत्व में एक विशाल सेना भेजी। गुजरात के राजा कर्ण ने अपनी पुत्री देवलदेवी सहित भागकर देवगिरि के राजा रामचन्द्र के पास शरण ली किन्तु राजा कर्ण की पत्नी कमला देवी मुसलमानों के हाथ पड़ गई जिसकों दिल्ली भेज दिया गया। वहां उसे अलाउद्दीन के हरम में दाखिल कर लिया गया।
मुस्लिम सेनाओं ने गुजरात की राजधानी अन्हिलवाड़ा और सोमनाथ के मंदिर को जी भर कर लूटा व नष्ट-भ्रष्ट किया। खम्भात को भी कब्जे में ले लिया गया। लूट के दौरान सेनापति नुसरतखां को मलिक काफूर नाम एक हिन्दूयुवक हाथ लगा जो आगे चलकर अलाउद्दीन का विख्यात सेनापति बन गया।

रणथम्भौर की विजय, 1301
सन् 1301 ई में अलाउद्दीन ने उलूग खां और नुसरत खां को रणथम्भौर की विजय के लिए भेजा। रणथम्भौर का दुर्ग सैनिक दृष्टि से बड़े महत्त्व का था। हम्मीर देव ने शत्रु के छक्के छुड़ा दिए और नुसरत खां को मौत के घाट उतार दिया तब अलाउद्दीन स्वयं एक विशाल सेना सहित रण क्षेत्र में आ पहुंचा। लगभग 11 महीने तक रणथम्भौर का दुर्ग अवजित रहा। अन्त में हम्मीर के दो मन्त्रियों रणमल और रत्नपाल के विश्वासघात के कारण रणथम्भौर का पतन हो गया। हम्मीरदेव युद्ध में वीर गति को प्राप्त हुआ। अलाउद्दीन ने रणमल और रत्नपाल को तथा उनके साथियों को मौत के घाट उतार दिया क्योंकि वह विश्वासघातियों से स्वामिभक्त होने की आशा नहीं करता था।

चित्तौड़ (मेवाड़) की विजय, 1303
अब अलाउद्दीन ने चित्तौड़ को विजय करने की सोची। कुछ इतिहासकारों के अनुसार उसका उद्देश्य मेवाड़ के राणा रत्नसिंह की अत्यन्त सुन्दर रानी पद्मिनी को प्राप्त करना था। किन्तु डॉ. गौरीशंकर ओझा और डॉ केएस. लाल का मत है कि सुल्तान सम्पूर्ण उत्तरी भारत का शासक बनना चाहता था और इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मेवाड़ जैसे शक्तिशाली राज्य पर अधिकार करना जरूरी समझता था।
सुल्तान का उद्देश्य चाहे कुछ भी रहा हो, उसने मेवाड़ पर हमला करके चित्तौड़ को घेर लिया। लगभग 7 महीने तक युद्ध चलता रहा। राणा के दो प्रसिद्ध सेनापतियों 'गोरा तथा बादल' ने अद्भूत वीरता का प्रदर्शन किया, पर युद्ध आखिर कब तक चलता। राजपूतों की संख्या प्रतिदिन घटती जा रही थी। और मुसलमानों के पास नई सेना दिल्ली से आ रही थी। अन्त में निराश होकर राजपूत केसरिया वस्त्र पहनकर और तलवार हाथ में लेकर मौत की तरह मुस्लिम सेना पर टूट पड़े और उधार रानी पद्मिनी ने सैंकड़ों राजपूत स्त्रियों के साथ जौहर की आग में अपने को भस्म करके अपने सतीत्व की रक्षा की। लड़ते-लड़ते सभी राजपूत मारे गए और तब कहीं दुर्ग अलाउद्दीन के हाथ लगा। क्रुद्ध और हताश अलाउद्दीन ने कत्ले आम मचवाया और लगभग 30 हजार निरपराध हिन्दुओं का वध करवा दिया। अलाउद्दीन अपने पुत्र खिज्र खां को चित्तौड़ का शासन सौंपकर खुद दिल्ली लौट आया। खिज्र खां इस दुर्ग को अधिक समय तक अपने अधिकार में न रख सका। कुछ ही वर्षों बाद 1318 ई. में राजपूतों ने चित्तौड़ पर अपना अधिकार कर लिया।

मालवा, जालौर आदि की विजय, 1305
इसके बाद 1305 में अलाउद्दीन ने मुल्तान के सूबेदार ऐन-उल-मुल्क को मालवा पर चढ़ाई करने के लिए भेजा। मालवा नरेश महालकदेव पराजित हुआ और धार, उज्जैन, चन्देरी तथा मांडू पर शाही सेना का अधिकार हो गया। लगभग 6 वर्ष बाद जालौर के चौहान शासक ने भी अलाउद्दीन की अधीनता स्वीकार कर ली। जलौर के शासक कान्हड़देव को भी अपनी अधीनता स्वीकार करने पर मजबूर कर दिया इसी प्रकार सिवाना के शीतलदेव नेभी अपनी हार मान ली व अधीनता स्वीकार कर ली।
इस प्रकार लगभग सारा उत्तरी भारत अलाउद्दीन के कब्जे में आ गया। ,

दक्षिण भारत की विजयें
उत्तरी भारत पर अधिकारी करने के पश्चात् सुल्तान ने दक्षिण भारत को विजय करने का निश्चय किया। अपने योग्य सेनापति मलिक काफूर की सहायता से उसने दक्षिण के सुदूर राज्यों पर भी अपना प्रभुत्व जमा लिया। अलाउद्दीन खिलजी पहला शासक था, जिसने दक्षिण के अपरिचित देश में विजय प्राप्त करने का प्रयत्न किया था।

देवगिरि की विजय 1306
1306 ई. में मलिक काफूर के नेतृत्व में विशाल मुस्लिम सेना ने देवगिरि पर आक्रमण किया, क्योंकि वहां के शासक राजा रामचन्द्र ने पिछले तीन वर्षों से कर नहीं दिया था। इसके अतिरिक्त गुजरात के राजा कर्ण और उसकी पुत्री देवलदेवी ने उसके यहा शरण ले रखी थी।
इस अभियान में सर्वप्रथम मलिक काफूर ने कर्ण को पराजित किया। देवलदेवी मुसलमानों के हाथ पड़ गई। उसे दिल्ली भेज दिया गया, जहां उसका विवाह सुल्तान के बड़े पुत्र खिज्र खां के साथ कर दिया गया। इसके बाद रामचन्द्र ने बिना युद्ध किये हार मान ली। वह बन्दी के रूप में बहुत से उपहार लेकर दिल्ली पहुंचा। सुल्तान ने उसका स्वागत किया और उसे 'राय-रायन' की उपाधि प्रदान की। सुल्तान ने अपनी कूटनीति से देवगिरि के राजा रामचन्द्र को अपना एक विश्वस्त मित्र बना लिया। डॉ. राय ने लिखा है कि, "निःसन्देह देवगिरि दक्षिण और सुदूर दक्षिण में खिलजी सैनिक अभियानों का आधार बन गई।"

वारंगल पर आक्रमण (1309)
देवगिरी के बाद मलिक काफर ने तैलंगाना की राजधानी वारंगल पर आक्रमण कर दिया। वहां के शासक प्रताप रूद्रदेव ने काफी समय तक शत्रु का सामना किया, परन्तु अन्त में विवश होकर आत्मसमर्पण करना पड़ा। उसने युद्ध क्षतिपूर्ति के रूप में अपार धन-सम्पत्ति मलिक काफर को दी और वार्षिक कर देना भी स्वीकार किया। मलिक काफर यह धन-सम्पत्ति लेकर दिल्ली लौट आया।

द्वार समुद्र की विजय 1310
1310 ई. में मलिक काफूर ने देवगिरि और वारंगल के शासक की सहायता से द्वार समुद्र पर आक्रमण कर दिया। वहां के राजा वीर बल्लाल तृतीय ने वीरतापूर्वक सामना किया, किन्तु पराजित हुआ। उसने सुल्तान की अधीनता स्वीकार कर ली ओर अतुल धन सम्पत्ति मलिक काफूर को दी। इसके अतिरिक्त उसने वार्षिक कर देने का वचन भी दिया।

माबर की विजय 1311
द्वार समुद्र की विजय के बाद मलिक काफूर ने मागर के पाण्डेय राज्य पर आक्रमण कर दिया। उस समय सुन्दर पाण्डेय और वीर पाण्डेय में सिंहासन के लिये युद्ध चल रहा था। फिर भी उन्होंने शत्रु का सामना किया। अन्त में वीर पाण्डेय को विवश होकर वनों की ओर भागना पड़ा। इसके बाद मुसलमानों ने राजधानी को जी भर कर लूटा। इस लूट में काफूर को 512 हाथी, 5,000 घोड़े और 500 मन हीरे-जवाहरात हाथ लगे। लेनपूल ने लिखा है कि - "इससे पहले दिल्ली में लूट का इतना धन कभी नहीं लाया गया था। देवगिरि में प्राप्त धन भी द्वार समुद्र तथा मदुरा की लूट की तुलना में कुछ नहीं था।
माबर से काफूर ने रामेश्वरम् की ओर प्रस्थान किया और वहां पर उसने अपनी विजय की स्मृति में एक सुन्दर मस्जिद बनवाई।

देवगिरि पर दूसरा आक्रमण 1313 ई.
राजा रामचन्द्र की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र शंकरदेव शासक बना। उसने अपने को स्वतंत्र शासक घोषित करते हुए वार्षिक कर देना बन्द कर दिया। इस पर मलिक काफूर ने सुल्तान की आज्ञा से देवगिरि पर फिर आक्रमण किया। शंकरदेव युद्ध में लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ। इसके बाद काफूर ने अगले दो वर्ष दक्षिण के अन्य राज्यों पर अभियान करने में बितायें। 1315 ई. में जब सुल्तान सख्त बीमार हो गया, तो उसने काफूर को दिल्ली बुला लिया।

अलाउद्दीन खिलजी का राजत्व सिद्धान्त

अलाउद्दीन खिलजी ने राजस्व सिद्धान्त के सम्बन्ध में भी मौलिकता और दूरदर्शिता प्रदर्शित की। वह एक निरंकुश शासक था। के.एस. लाल ने उसकी निरंकुशता के सम्बन्ध में लिखा है कि, “एक शब्द में, फ्रान्स के राजा लूई चौदहवें की भांति अलाउद्दीन अपने को राज्य में सर्वोपरि मानता था।" अलाउद्दीन कहा करता था, "राजा का कोई सम्बन्धी नहीं होता तथा राज्य में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति उसका सेवक है, जिसका कर्तव्य है कि अपने शासक की प्रत्येक आज्ञा का पालन कर अनुशासन बनाये रखे।
अलाउद्दीन ने राजनीति के क्षेत्र में धर्म का हस्तक्षेप अनुचित एवं अवांछित माना। उसने काजियों, मुल्लाओं एवं धर्माधि कारियों से कह दिया कि, “यह आवश्यक नहीं है कि मैं पैगम्बर द्वारा बताये गये (कुरान के) सिद्धान्तों के अनुसार या उलेमाओं की सलाह से सरकारी काम-काज चलाऊ। मैं राज्य की भलाई के लिये जो कार्य उचित समझंगा, करूंगा।
अलाउद्दीन ने काजी मुगासुद्दीन को अपनी नीति इन शब्दों में समझायी
"विद्रोहों से, जिसमें सहस्त्रों मनुष्यों का रक्त बहता है, बचने के लिए मैं ऐसी आज्ञा देता हूं कि बादशाह और प्रजा दोनों का भला हो। मैं नहीं जानता कि यह इस्लाम के धार्मिक कानून की दृष्टि से उचित है या अनुचित । जब मनुष्य विचारहीन और अश्रद्धालु होकर मेरी आज्ञाओं का उल्लंघन करते हैं, तो मैं उन्हें राजभक्ति की ओर मोड़ने के लिये मजबूर हो जाता हूं। जो कुछ भी राज्य की भलाई के लिए मैं उचित समझता हूं, कर लेता हूं। मैं नहीं जानता कि कयामत के दिन मेरा क्या हो?" प्रो. अशरफ ने अलाउद्दीन की निरंकुशता के विषय में लिखा है कि - "दिल्ली का सुल्तान सिद्धान्ततः घोर निरंकश था, जो किसी कानून अथवा किसी अन्य प्रतिरोधक शक्ति से बंधा नहीं था। वह स्वेच्छा से ही शासन करता था।" वस्तुतः अलाउद्दीन राजनीति और शासन में मुल्लाओं के हस्तक्षेप को पसन्द नहीं करता था। डॉ. श्रीवास्तव के शब्दों में, "अलाउद्दीन दिल्ली का पहला शासक था, जिसने धर्म पर नियंत्रण स्थापित किया और ऐसे तत्त्वों को जन्म दिया, जिसमें कम-से-कम सैद्धान्तिक राज्य असाम्प्रदाकिय आधार पर खड़ा हो सकता है।"

अलाउद्दीन खिलजी द्वारा प्रशासन में सुधार

निरन्तर हो रहे इन विद्रोहों ने अलाउद्दीन को यह विचार करने पर विवश किया कि उसकी प्रशासनिक व्यवस्था में कुछ दोष थे, जिनका निराकरण किया जाना आवश्यक था। अतः उसने अपने मित्रों से परामर्श किया व इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि उसकी प्रशासत्तिक व्यवस्था में निम्नलिखित प्रमुख दोष थे -
  • कुछ लोगों के पास अत्यधिक धन-संग्रह।
  • मद्यपान का अत्यधिक प्रयोग, जिससे षड़यन्त्र करने की प्रेरणा मिलती थी।
  • अमीरों का पारस्परिक मेल-मिलाप व आपसी विवाह-सम्बन्ध ।
  • गुप्तचर विभाग की अयोग्यता।
उपर्युक्त दोषों को दूर करने के उद्देश्य से अलाउद्दीन ने चार अध्यादेश जारी किये, जिनके द्वारा निम्नलिखित कार्य किये गये -
  1. धन-सम्पत्ति पर अधिकार : अलाउद्दीन का विचार था कि उसके राज्य में हो रहे विद्रोह का प्रमुख कारण अमीरों के पास विशाल जागीरें तथा धन-सम्पत्ति का होना था। अतः उसने अमीरों से धन-सम्पत्ति छीनने का प्रयास किया। अलाउद्दीन ने सबसे पहले माफी की भूमि पर कर लगाया। जो किसान अथवा जमींदार माफी की भूमि पर खेती करते थे तथा किसी प्रकार राजस्व राज्य को नहीं देते थे, उन कर लगाया गया। कर वसूल करने वाले अधिकारियों को आदेश दिया गया कि अधिक-से-अधिक कर वसूलें। अमीरों की सम्पत्ति पर भी राज्य का अधिकार घोषित किया गया। अतः ऐसा वर्ग, जो बिना मेहनत किये खाता था। समाप्त हो गया। बरनी ने लिखा है, "बड़े-बड़े अमीरों, उच्च पदाधिकारियों एवं व्यापारियों को छोड़कर अन्य लोगों के घरों में सोना देखने को भी नहीं मिलता था।" अतः प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जीविका अर्जित करने के अतिरिक्त अन्य बातों के लिए समय ही नहीं था।
  2. मदिरापान पर प्रतिबन्ध : सुल्तान अलाउद्दीन ने मादक द्रव्यों के प्रयोग पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया क्योंकि उसके विचार से इनका सेवन करने से व्यक्ति उत्तेजित होता था तथा विद्रोह की बात सोचता था। महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि सुल्तान ने स्वयं भी मदिरा का सेवन करना छोड़ दिया। शराब पीने अथवा बेचने वालों को कठोर दण्ड देने की व्यवस्था की गयी। सुल्तान अलाउद्दीन ने शराब के बर्तनों को भी तुड़वा दिया, किन्तु फिर भी अलाउद्दीन पूर्णतः मद्य-निषेध न कर सका। लोग चोरी-छिपे पीते रहे। अन्ततः सल्तान ने नियमों को थोड़ा संशधित किया तथा घरों में निजी रूप से शराब बनाने व पीने की छूट दे दी गयी।
  3. सामाजिक समारोहों पर प्रतिबन्ध : अलाउद्दीन ने अमीरों के परस्पर मिलने, दावत देने च वैवाहिक सम्बन्धों पर प्रतिबन्ध लगा दिया। अमीर अपने परिवार में किसी भी समारोह का आयोजन अथवा किसी अन्य अमीर के यहां विवाह-सम्बन्ध तब तक स्थापित नहीं कर सकते थे जब तक कि सुल्तान उन्हें अनुमति न दे दे। अतः सामाजिक मेल-मिलाप बन्द हो गया। डॉ ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है, "इन शाही अध्यादेशों के कारण सामाजिक जीवन नीरस हो गया और एक बोझ प्रतीत होने लगा। अलाउद्दीन की सेना में भी पहले की तरह घुड़सवार, पैदल और हाथी थे। अब भी अश्वारोहियों के ऊपर ही सेना की सफलता निर्भर करती थी। इसलिए अलाउद्दीन ने सेना के इस विभाग को अधिकाधिक उत्तम कोटि का बनाने की चेष्टा की। उसने अच्छी नस्ल के घोड़े बाहर से मंगवायें, मंगोलों से युद्धों के समय भी उसने अनेक अच्छे घोड़े लूट में पाये। दक्षिण भारत की विजय के समय भी अलाउद्दीन लूट का सामान एकत्रित करते समय संबंधित राजाओं के सर्वोत्तम घोड़े तथा हाथी लेने की विशेष चिन्ता रखता था। साथ ही उसने देश के भीतर भी नस्लों की सुधार द्वारा अच्छे घोड़े पैदा करने की चेष्टा की। सैनिक हमेशा अच्छे घोड़े नहीं रखते थे। इसलिए उसने घोड़ों को दगवा दिया जिससे उनको बदलकर खराब घोड़े न लाये जा सकें। जो सैनिक अपने पास से घोडे लाते थे उनको अधिक वेतन दिया जाता था और जो दो घोड़े रखते थे उसके घोड़े ठीक दशा में है या नहीं इसकी जांच करने के लिए वह समय-समय पर सेना का निरीक्षण करता था। सेना को पूर्णतया अपने वश में करने के लिए उसने राज्य की सम्पूर्ण सैनिक शक्ति पर अपना एकाधिकार स्थापित कर लिया। वही सब सैनिकों की भर्ती करता था तथा राजकोष से सभी सैनिकों को नगद वेतन दिया जाता था। सेना में वे ही लोग भर्ती किये जाते थे जिनकों अस्त्र-शस्त्र का उपयोग, घोड़े पर चढ़ना, युद्ध करना आदि पहले से ही मालूम होता था।
सामान्य सैनिक के ऊपर कौन-कौन पदाधिकारी होते थे, यह ठीक मालूम नहीं है। साधारणतः सेना का प्रधान पदाधि कारी होता था आरिज-ए-ममालिक। परन्तु वारंगल-विजय के समय आरिज को काफूर की अधीनता में युद्ध करने भेजा गया था। जब सम्राट स्वयं युद्ध स्थल में रहता था तब वही प्रधान सेनापति होता था।
इसी भांति सैनिकों के वेतन के विषय में विद्वानों में मतभेद होने के कारण प्रत्येक कोटि के सैनिक का वेतन ठीक-ठीक नहीं बताया जा सकता ऐसा प्रतीत होता है कि प्रत्येक पैदल सिपाही को 78 टंका प्रति वर्ष वेतन मिलता था। जिन अश्वारोहियों को सरकार की ओर से घोड़ा दिया जाता था और जिस घोड़े का व्यय सामान्यतः सरकार को ही उठाना पड़ता था उसे 156 टंक वेतन मिलता था तथा जो अश्वारोही अपना घोड़ा लाता था और स्वयं उसकी देख-रेख का भार उसे 312 टंक वेतन मिलता था।.

अलाउद्दीन की हिन्दुओं के प्रति नीति

अलाउद्दीन की हिन्दुओं के प्रति नीति बहुत कठोर थी। उनसे भूमिकर उपज का 1/2 भाग लिया जाता था। इसके अलावा चरागाहों तथा पशुओं पर भी कर लगाया गया था। जजिया एवं अन्य कर कठोरता से एकत्रित किये जाते थे। डॉ. लाल के अनुसार, "जजिया के भुगतान के समय जिम्मी (हिन्दू) का गला पकड़ा जाता और जोरों से हिलाया तथा झकझोरा जाता था, जिससे जिम्मी को अपनी स्थिति का ज्ञान हो सके। अलाउद्दीन की नीति से हिन्दुओं की दशा शोचनीय हो गई।"
वूल्जले हेग ने लिखा है, "सम्पूर्ण राज्य में हिन्दू दुःख और दरिद्रता में डूब गये।"
बरनी ने लिखा है, "चौधरी, खुत और मुकद्दम इस योग्य न रह गये थे कि घोड़े पर चढ़ सकते, हथियार बांध स्कते, अच्छे वस्त्र पहन सकते अथवा पान का शौक कर सकते।"
बरनी के अनुसार “कोई हिन्दू सिर ऊँचा करके नहीं चल सकता था। उनके घरों में सोना, चांदी तथा धन आदि भी नहीं दिखता था। निर्धनता के कारण अच्छे परिवारों की स्त्रियां भी मुसलमानों के घर में नौकरी करने लगी।' सुल्तान ने एक बार गर्व से कहा था, "मेरे आदेश पर हिन्दु चुहों की तरह बिलों में घुस जाने को भी तैयार है।" अलाउद्दीन ने धार्मिक कट्टरता के कारण हिन्दुओं से कठोर व्यवहार किया।
डॉ. आर.सी. मजूमदार ने भी इसी मत का समर्थन करते हुए लिखा है, "इस बात के अनेक प्रमाण है कि हिन्दुओं के प्रति अलाउद्दीन की नीति साम्प्रदायिकता की भावना से प्रेरित थी।"

अलाउद्दीन खिलजी का राजस्व सुधार

अलाउद्दीन खिलजी भारत का पहला मुसलमान बादशाह था, जिसने राज्य के भूमि प्रबन्ध में विशेष रूचि ली और इस क्षेत्र में कुछ महत्त्वपूर्ण सुधार भी किए। उसने सर्वप्रथम अमीरों को शक्तिहीन बनाने एवं राज्य की आय में वृद्धि करने हेतु अमीरों की जागीरें छीन ली। इसके अतिरिक्त सुल्तान ने भूमि लगान बढ़ाकर उपज का आधा भाग कर दिया और इसको एकत्रित करने के लिए कठोर नियम बनाये। अलाउद्दीन प्रथम मुस्लिम सुल्तान था, जिसने भूमि की पैमाइश के आधार पर लगान निश्चित किया।
राजस्व विभाग की कार्य कुशलता के लिए अनेक छोटे-बड़े अधिकारी नियुक्त किये गये। पटवारियों तथा अन्य कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि कर दी गई, ताकि वे घूस न ले। घूस लेने वाले कर्मचारी को कठोर दण्ड दिया जाता था। यह व्यवस्था की गई कि किसान भूमि कर की अदायगी अनाज या नकद रूपयों में इच्छानुसार कर सके। रिश्वत लेने कर्मचारी और पदाधिकारी को कठोर दण्ड दिया जाता था। डॉ. के.एस. लाल ने लिखा है कि, "इन कठोर दण्डों के कारण ही इस विभाग के कर्मचारी बहुत अप्रसन्न थे और अपनी नौकरियों को प्लेग से भी बुरा समझते थे।" डॉ. ताराचन्द ने लिखा है कि, "यह नीति आध्यात्मिक थी, क्योंकि उसने सोने के अण्डे देने वली मुर्गी को मार दिया।" बरनी लिखता है कि "राजस्व विभाग के कर्मचारी बड़े अप्रिय थे और कोई व्यक्ति इस विभाग के राज्याधिकारियों से अपनी लड़की का विवाह करने को तैयार न था, क्योंकि उनके जीवन का अधिकतर समय जेलों में व्यतीत हो जाता था, जहां उन्हें कई प्रकार के कष्ट दिये जाते थे।"
सुल्तान के इन भूमि सम्बन्धी सुधारों से किसानों की दशा पहले से अधिक दयनीय हो गई। इन सुधारों से राज्य को अवश्य लाभ पहुंचा। अमीरों, सरदारों और हिन्दू मुकदमों व खुतों की शक्ति क्षीण हो गई, जिससे सुल्तान को विद्रोहों तथा षट्यन्त्र का भय नहीं रहा। इसके अतिरिक्त आय में वृद्धि होने से सुल्तान एक विशाल सेना रखने में सफल रहा। एक लाभ यह भी हुआ कि जनता में निर्धनता फैल गई, जिससे उसके विद्रोह करने की शक्ति क्षीण हो गई।
अलाउद्दीन ने साम्राज्य को सुश्रृंखल रखने के लिए उचित न्याय व्यवस्था का भी प्रबंध किया। अलाउद्दीन के पूर्व राजनियम धर्म ग्रंथों पर आधारित रहते थे।परन्तु अलाउद्दीन ने धर्म की अवहेलना न करते हुए भी यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि परिस्थिति एवं लोक हित की दृष्टि से जो नियम उपयुक्त हो वे ही राजनियम होने चाहिए। इस भांति उसने न्याया पीशों द्वारा व्यवहत नियमों को साम्प्रदायिकता के संकुचित क्षेत्र से निकालकर अखिल देशीय राजनियमों का रूप दे दिया। दूसरे, उसने न्यायाधीशों की संख्या बढ़ा दी तथा यद्यपि उसके कुछ न्यायाधीश अपने पदों के उपयुक्त नहीं थे परन्तु अधिकांश न्यायाधीश विद्वान् सच्चरित्र एवं कार्यकुशल थे। न्यायाधीशों की सहायता के लिए उसने पुलिस का प्रबंध किया। प्रत्येक नगर में एक कोतवाल रहता था जो पुलिस का प्रधान होता था। इनके अतिरिक्त गुप्तचर होते थे। वे भी अपराधियों का पता लगाने में सहायता करते थे। अलाउद्दीन के गुप्तचर इतने प्रवीण थे के उनसे कुछ भी छिपा नहीं रहता था। बड़े-बड़े अमीर और रारदार भी अपने घरों में रवतंत्रता पूर्वक बातचीत करने में भय खाते थे। अलाउद्दीन का दण्ड विधान कठोर था। एक के अपराध करने पर अनेक को दण्ड देना, अपराधी के साथियों और सबंधियों को केवल संदेह पर मृत्युदण्ड तक दे देना, आंखे निकलवा लेना, अंग-भंग करा देना, यातनायें देकर अपराध स्वीकार करना ओर ऐसे बंदीगृहों में रखना जहां से जीवित वापस आ सकना प्रायः असंभव हो, बलबन के कठोर दण्ड-विधान से भी एक पद आगे जाने का परिचय देते हैं।

अलाउद्दीन खिलजी के आर्थिक सुधार या बाजार नियंत्रण प्रणाली

अलाउद्दीन एक महान् आर्थिक सुधारक भी था, जिसके आधार पर लेनपूल ने अलाउद्दीन को ‘एक महान राजनीतिक अर्थशास्त्री होने का श्रेय दिया है।
  • सुधारों का उद्देश्य - डॉ. बी.पी. सक्सेना के अनुसार अलाउद्दीन ने आर्थिक सुधार जनकल्याण के लिए किये थे। डॉ. पी.सरन तथा डॉ. के.एस. लाल के अनुसार अलाउद्दीन ने आर्थिक सुधार राजकोष पर अतिरिक्त बोझ डाले बिना विशाल सेना रखने के लिए किये थे। अलाउद्दीन के आर्थिक सुधारों का मुख्य उद्देश्य मूल्यों में कमी करके उसी अनुपात में सैनिकों के तेतन में कमी करना था, ताकि सैनिक कम वेतन में भी अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें। इस प्रकार अलाउद्दीन एक विशाल सेना को संगठित करना चाहता था। डॉ. लाल इन सुधारों का क्षेत्र सिर्फ दिल्ली मानते है, जबकि बरनी ने इन सुधारों का क्षेत्र दिल्ली तथा आस-पास के प्रदेश माने हैं।
  • सुधारों की विशेषताएं - अलाउद्दीन के आर्थिक सुधारों का मूल उद्देश्य विशाल सेना की व्यवस्था करना था। उसने विशाल सेना रखने हेतु सैनिकों के वेतन कम कर दिये, साथ ही बाजार में दैनिक उपयोग की वस्तुओं के मूल्य भी कम कर दिये, ताकि वे जीवन निर्वाह कर सकें।
अलाउद्दीन के आर्थिक सुधारों की प्रमुख विशेषताएं निम्न थीं -
वस्तुओं के भाव निश्चित करना - अलाउद्दीन ने दैनिक उपयोग की वस्तुओं जैसे – कपड़े, खाद्य वस्तुएं, सब्जियों, फलों, जूतों, कंघियों, घोड़ी, प्यालों, रेवाड़ियों बरतनों, सौदागिरी का सामान आदि के भाव निश्चित कर दिये तथा इनकी सूचियां भी बनवायी। तत्कालीन ग्रन्थों से वस्तुओं की बिक्री दर के बारे में निम्नलिखित जानकारी मिलती है।

वस्तु तोल मूल्य
गेंहू एक मन 7 1/2 जीतल
जौ एक मन 4 जीतल
चना एक मन 5 जीतल
चावल एक मन 5 जीतल
मांस एक मन 5 जीतल
खांड एक सेर 1 1/2 जीतल
मक्खन अढ़ाई सेर 1 जीतल
उड़द एक मन 1 जीतल
नमक एक मन 2 जीतल

गुलामों, वेश्याओं, नौकरों और लौंडियों के दाम भी नियत थे। उदाहरणस्वरूप, एक लौंडी का मोल 5 से 12 टांके तक और एक दास का मोल 10 टांके से 15 टांके तक था। उन दिनों एक मन आधुनिक 13 या 14 सेर का होता था। टांके का मूल्य आजकल के एक रुपये से कुछ अधिक था जीतल एक आधान्ने या 2 पैसे का होता था। बरनी ने लिखा है - "जब तक शासन किया, तब तक वस्तुओं के मूल्य न बढ़े और न घटे, बल्कि सर्वदा निचित रहे।" डॉ. के.एस. लाल ने लिखा है - अलाउद्दीन खिलजी के शासन का वास्तविक महत्त्व वस्तुओं के मूल्यों को कम करने में नहीं है, बल्कि बाजार की कीमतों को निश्चित रखने में है, जो अपने युग का एक महान आश्चर्य समझा गया था।

वस्तुओं की प्राप्ति का उचित प्रबन्ध
सुल्तान ने चोर बाजारी को रोकने के लिये वस्तुओं की प्राप्ति और उन्हें दिल्ली में पहुंचाने का उचित प्रबन्ध किया। राजधानी में बड़े-बड़े अन्न गोदाम बनवाये गये। मुल्तानी सौदागरों और बनजारों की दिल्ली के समिप गांवों में बसाया गया। यह व्यवस्था की गई कि ये सौदागर दिल्ली के चारों ओर 100-100 कोस की दूरी पर बसने वाले किसान से नियम दरों पर गल्ला खरीदकर राजधानी की गल्ला मण्डी अथवा सरकारी गोदामों में ला फेंकते थे। इन पर गल्ला मण्डी के अध्यक्ष का नियन्त्रण रखा गया था। किसानों के लिए आदेश निकाले गये कि वे अपनी आवश्यकता से अधिक अनाज अपने पास न रखें और अपना फालतू अनाज नियत दरों पर बेच दें। अलाउद्दीन की इस व्यवस्था के फलस्वरूप राजधानी में अनाज का अभाव नहीं रहा।

मंडियों की स्थापना और उन पर सरकारी नियन्त्रण (शाहना-ए-मण्डी, दीवाने रियासत)
अलाउद्दीन ने अनाज बेचने तथा खरीदने के लिये राजधानी में बहुत बड़ी गल्ला मण्डी की व्यवस्था की। इसके अतिरिक्त घोडों, सब्जियों, लौंडियों तथा अन्य वस्तुओं के लिये भी अलग-अलग मण्डियां बनाई गई। प्रत्येक मण्डी पर सरकार का कुशल नियन्त्रण था। प्रत्येक मण्डी का प्रमुख अधिकरी शाहना-ए-मण्डी' नाम का एक अफसर होता था। इस विभाग का सबसे बड़ा पदाधिकारी दीवाने रियासत था, जिसका प्रमुख कार्य राजधानी की सब मण्डियों का निरीक्षण करना तथा उनके प्रमुख अफसरों (शाहना-ए-मण्डी) को नियुक्त करना था। शाहना-ए-मण्डी यह देखता था कि व्यापारियों के नाम रजिस्टर किये जाएं और सारा माल ठीक भावों पर बेचा जाए। उसका कार्य बड़ा कठिन था, क्योंकि साधरण सी भूल हो जाने पर भी सुल्तान उसे कठोर दण्ड दे देता था।

राशन प्रणाली
अलाउद्दीन खिलजी ने राशन प्रणाली की भी व्यवस्था की थी। जब भी देश के किसी भी स्थान पर अकाल के कारण अनाज की कमी हो जाती थी, तो वहां निश्चित मात्रा से अधिक गेंहू किसी भी व्यक्ति को नहीं दिया जाता था। अनाज सरकारी गोदामों से अनाज ले जाते थे और प्रत्येक परिवार को 6-7 सेर गेहूं प्रतिदिन के हिसाब से दिया जाता था। कई बार कपड़े और अन्य मूल्यवान वस्तुओं का भी राशन कर दिया जाता था तथा अमीरों को इन वस्तुओं को खरीदने के लिए सरकारी कार्ड या आज्ञा पत्र बनवाने पड़ते थे।"

कठोर दण्ड
वस्तुओं को खरीदने तथा बेचने के सम्बन्ध में सुल्तान के नियम बहुत कठोर थे और उनका पालन भी बड़ी कठोरता से किया जाता था। यदि कोई व्यापारी किसी वस्तु को कम बोलता था, तो अपराधी सिद्ध होने पर उतना ही मांस उसके शरीर से काट लिया जाता था। इसी प्रकार वस्तुओं को नियत दरों से अधिक भाव पर बेचने वाले व्यक्तियों को कोडे लगवाये जाते थे। बरनी के अनुसार, "सुल्तान के कठारे दण्ड के भय के कारण दुकानदारों ने धीरे कम तोलना छोड़ दिया, बल्कि कई दुकानदार ग्राहकों को अधिक तौल कर देने लगे।"

आर्थिक सुधार का मूल्यांकन
अलाउद्दीन बाजार नियन्त्रण के उद्देश्य प्राप्ति में सफल रहा। मूल्यों को नियन्त्रित करके वह एक विशाल सेना रखने में सफल रहा। इस प्रकार उसकी बाजार नियन्त्रण नीति या आर्थिक सुधार सफल रहे। बरनी ने लिखा है, नियमों को कठोरतापूर्वक लाग किये जाने, सुल्तान के भय से, कर्मचारियों व अधिकारियों की ईमानदारी से, सुल्तान की यह नीति सफल हुई।''

गुण
सुल्तान अपने आर्थिक सुधारों की सहायता से, बिना राजकोष पर विशेष भार डाले एक विशाल सेना रखने में सफल हो गया।
दिल्ली और आसपास में रहने वाले लोगों को वस्तुएं सस्ते दामों पर प्राप्त होने लगी।
बड़े-बड़े पदाधिकारियों को जिनके वेतन कम नहीं किये गये थे, वस्तुओं के सस्ता होने से काफी सुविधा हो गई। डॉ. के.एस. लाल ने अपनी पुस्तक 'हिस्ट्री ऑफ खिल्जीज' में अलाउद्दीन के आर्थिक सुधारों की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि - "प्रबन्धक के रूप में अलाउद्दीन के आर्थिक सुधारों की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि - "प्रबन्धक के रूप में अलाउद्दीन अपने पूर्ववर्ती शासकों से अवश्य ही श्रेष्ठ था और प्रशासनिक क्षेत्र में उसकी सफलताएं उसके रणभूमि के कार्यों से कही अधिक महान् हैं।"

अवगुण
  1. आर्थिक सुधारों का जन-साधारण पर अच्छा प्रभाव न पड़ा। किसानों, दस्तकारों, कारीगरों, हलवाइयों तथा व्यापारियों को सरकार के हाथ अपना माल बहुल कम भावों पर बेचना पड़ता था, जिससे उनकी आर्थिक दशा बहुत खराब हो गई।
  2. आर्थिक सुधार मुख्यतः सैनिकों के लिए किए गऐ धे, परन्तु उनको विशेष लाभ नहीं हुआ क्योंकि सैनिकों के वेतन घटा दिए गए थे, उतनी ही मात्रा में वस्तुओं के भाव भी कम हुए थे।
  3. इन आर्थिक सुधारों से व्यापारी वर्ग असन्तुष्ट था क्योंकि शासक द्वारा नियत मूल्यों पर वस्तुएं बेचनी पड़ती थी, जिसमें मुनाफा कम मिलता था। इसके अतिरिक्त उन्हें अपना नाम सरकारी अधिकारियों के पास रजिस्टर कराना पड़ता था। उन्हें छोटे-छोटे अपराधों पर कोर दण्ड दिये जाते थे। इन विषम परिस्थितियों में उन्हें अपने काम के प्रति कोई दिलचस्पी नहीं रही, जिससे राजधानी के व्यापार को काफी हानि पहुंची।
  4. आर्थिक सुधारों से कषकों की अवस्था बहुत दयनीय हो गई थी। उन्हें उपज का आधा भाग सरकार को भूमि कर के रूप में देना पड़ता था और शेष अनाज में से अपने जीवन निर्वाह के लिए अनाज रखकर, बाकी सब नियत दरों पर बेचना पड़ता था। फलस्वरूप किसानों का जीवन अत्यन्त दुःखमय हो गया था।
  5. सरकारी कर्मचारी भी बहुत दुःखी थे, क्योंकि छोटे से अपराध के लिए भी उन्हें कठोर दण्ड दिया जाता था। वे जनता में इतने अप्रिय हो गये थे कि लोग उन्हें प्लेग से अधिक खतरनाक समझते थे।
अलाउद्दीन की मृत्यु के साथ ही उसके आर्थिक सुधार भी समाप्त हो गए और लोगों ने सुख की सांस ली। डॉ. के. एस. लाल के अनुसार, "वे नियम, वह जांच व कठोरता, जिससे आदेशों का पालन कराया जाता था और बाजार के लोगों को दिए जाने वाले दण्ड, अलाउद्दीन की मृत्यु के साथ ही समाप्त हो गये....."

अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु

अलाउद्दीन के शासन के अन्तिम काल में उसके साम्राज्य में विद्रोह प्रारम्भ हो गया। उसका पारिवारिक जीवन भी दुःखमय होता गया। साथ ही बीमारी ने भी उसे आ घेरा। आखिर 2 जनवरी, 1316 ई. को इस महान खिलजी सम्राट की मृत्यु हो गई।

अलाउद्दीन खिलजी का मूल्यांकन

सर वूल्जले हेग ने लिखा है, "अलाउद्दीन के शासनकाल से ही वास्तविक अर्थों में सुल्तान का श्रेष्ठ युग प्रारम्भ हुआ।" अलाउद्दीन अत्यन्त महत्त्वाकांक्षी तथा दृढसंकल्प वाला व्यक्ति था अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उचित अनुचित का विचार नहीं करता था। उसका कहना था, "मैं नहीं जानता क्या कानूनी है और क्या गैर-कानूनी है। मैं राज्य के हित में जो उचित होता है, उसी के आदेश देता हूँ।" इसी दृष्टिकोण से उसने अमीरों का दमन किया। एलफिंस्टन ने लिखा है कि यद्यपि उसने अनेक मूर्खतापूर्ण तथा क्रूर नियम लागू किये, किन्तु फिर भी वह एक सफल शासक था। डॉ. स्मिथ व लेनपूल उसे अत्याचारी एवं निर्दयी शासक मानते थे, किन्तु उसकी योग्यता को भी स्वीकार करते हैं।
इसमें कोई सन्देह नहीं है कि अलाउद्दीन एक क्रूर व निरंकुश शासक था, जिसके शासनकाल में जनसाधारण को अनेक कष्टों का सामना करना पड़ा। कृषक, व्यापारी, अमीर सभी अलाउद्दीन की नीतियों से दुःखी थे। हिन्दुओं पर उसने अत्यधिक अत्याचार किये तथा उन्हें दरिद्रता की चरम सीमा तक पहुंचा दिया। यह उसकी धार्मिक असहिष्णु का द्योतक है। उसकी निरंकुशता की पुष्टि इस तथ्य से होती है कि उसने स्त्रियों व बच्चों तक को नहीं बख्शा, बल्कि स्त्रियों व बच्चों की भी हत्या करवा दी। दिल्ली सल्तनत का वह पहला शासक था जो इतना क्रूर था। अलाउद्दीन के शासनकाल के विषय पर प्रकाश डालते हुए प्रो. एस.आर. शर्मा ने लिखा है, "विश्वासघात आतंक तथा लूट, ये तीन शब्द अलाउद्दीन खिलजी के बीस वर्ष के शासनकाल की विशेषताओं का सारांश व्यक्त करते हैं। विश्वासघात से उनका शासन आरम्भ हुआ, लूट की सम्पत्ति से फूला–फला और आतंक में उसका अन्त हुआ।"
यद्यपि उपर्युक्त दोष अलाउद्दीन में थे किन्तु उसकी अनेक योग्यताओं से इन्कार नहीं किया जा सकता। लेनपूल ने लिखा है, "यद्यपि अलाउद्दीन उल्टे दिमाग का व्यक्ति था तथा कानून की उपेक्षा करता था तथापि वह बुद्धिमान एवं दृढ निश्चय वाला व्यक्ति था। स्थिति को पहचानकर उसी के अनुकूल अपनी योजनाओं को वह कार्यान्वित करवाता था।" अलाउद्दीन अत्यन्त योग्य सेनापति था। उसने स्थायी सेना की नींव डाली तथा इस प्रकार दिल्ली की सुरक्षा का प्रबन्ध किया। अपनी विजयों के द्वारा लगभग सम्पूर्ण भारत पर विजय प्राप्त करके उसने राजनीतिक एकता की स्थापना की। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि वह एक कुशल प्रशासक, विजेता व राजनीतिक सूझ-बूझ वाला सुल्तान था। इसी कारण उसे प्रमुख मध्यकालीन सुल्तानों में से एक माना गया है।
उल्लेखनीय है कि अलाउद्दीन बिल्कुल शिक्षित न था, परन्तु विद्वानों का आश्रयदाता था। अमीर सुखरों व हसन उसके समय के प्रमुख साहित्यकार थे उसने अनेक दुर्गों व मस्जिदों का भी निर्माण कराया। डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने उनकी प्रशंसा करते हुए लिखा है, "उसमें एक कुशल प्रशासक तथा सेनापति के गुण जन्म से ही निहित थे, जो कि मध्यकालीन भारत में एक भी व्यक्ति में मिलने दुर्लप थे।

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