बलबन (1266-87 ई.) - बलबन का इतिहास | balban in hindi

प्रस्तावना

बलबन इलबकी कबीले का एक तुर्क था। युवावस्था में ही मंगोलों ने उसे अपना गुलाम बना लिया तथा बसरा के ख्वाजा जमालुद्दीन को बेच दिया। जमालुद्दीन ने उसे सुशिक्षित कर सुल्तान इल्तुतमिश के हाथों 1232 ई. में बेच दिया। सुल्तान इल्तुतमिश ने उसकी स्वामीभक्ति व योग्यता से प्रभावित होकर उसे 'चालीस अमीरों के दल' में सम्मिलित कर दिया तथा 'खास दरबार' के पद पर नियुक्त किया।
balban in hindi
सुल्तान रजिया के शासनकाल में उसे 'अमीर-ए-शिकार' का पद मिला। रजिया के पतन के समय वह बहराम से मिल गया तथा रेवाड़ी की जागीर प्राप्त करके वहां अति उत्तम शासन-प्रबन्ध की स्थापना की। इसी समय उसने मुगलों के आक्रमण का भी सामना किया। 1246 ई. में इल्तुतमिश के छोटे पुत्र नासिरुद्दीन ने सिंहासनारूढ़ होने के पश्चात् बलबन से कहा, "मैने शासनतन्त्र तुम्हारे हाथों में सौंप दिया है। कोई ऐसा कार्य करना जिससे मुझे और तुम्हें खुदा के सम्मुख लज्जित होना पड़े।" 1249 ई में बलबन का अमीरों का प्रधान बना दिया गया तथा उसे 'उलुगखां' की उपाधि से अलंकृत किया गया। धीरे-धीरे बलबन की शक्ति बढ़ती गयी। सुल्तान नासिरुद्दीन जो बलबन का दामाद भी था, के पुत्र न होने के कारण 1265 ई. में नासिरुद्दीन की मृत्यु होने पर बलबन दिल्ली का सुल्तान बन गया। अमीर उसका विरोध न कर सके क्योंकि नसिरुद्दीन के 20 वर्ष के शासनकाल में साम्राज्य की वास्तविक सत्ता बलबन के हाथों में ही रही थी। 

प्रारम्भिक जीवन

गुलाम वंश के शासकों में बलबन सर्वाधिक प्रसिद्ध समझा जाता है। बलबन का वास्तविक नाम बहाउद्दीन था। इल्तुतमिश ने अपने नये गुलाम बहाउद्दीन को प्रारम्भ में अपने भिश्तियों में नौकर रख लिया। किन्तु उसकी प्रतिभा और योग्यता को देखते हुए जल्द ही उसे अपने प्रसिद्ध 'चालीस गुलामों के गुट' (चरगान) में शामिल कर लिया। रजिया के शासनकाल में बलबन ने ने काफी उन्नति की और सम्मान प्राप्त किया। रजिया ने उसे 'अमीर ए शिकार' का पद प्रदान किया। किन्तु बलबन एक अत्यन्त महत्वाकांक्षी और अवसरवादी व्यक्ति था। जब उसने देखा कि रजिया की लोकप्रियता घट रही है तो वह रजिया के विरोधी गुट में शामिल हो गया। बहराम ने बलबन की सेवाओं से प्रसन्न होकर उसे उच्च शासकीय पद देकर 'अमीर-ए-आखर' के पद पर प्रतिष्ठित किया तथा उसे रेवाड़ी और हाँसी की जागीर भी दी। मसुदशाह के शासनकाल में बलबन को 'अमीर-ए-हाजिब' के पद पर प्रतिष्ठित किया गया। balban in hindi नासिरुद्दीन के शासन काल में बलबन की काफी उन्नति हुई। नासिरुद्दीन ने बलबन के सहयोग से खुश होकर पुरस्कार स्वरुप उसे 'उलुग खाँ' का निरुद प्रदान किया और उसने बलबन को न सिर्फ अपना प्रमुख परामर्शदाता वरन् ‘नायब-ए-मुमलिकात' के पद पर भी आसीन किया। इस प्रकार नासिरुद्दीन के शासन काल में बलबन की शक्ति और प्रतिष्ठा अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गयी। इतिहासकार मिन्हाज-उल-सिराज लिखता है कि, "उलुग खाँ सुल्तान के वंश का आश्रयदाता, सेना का स्तम्भ तथा राजा की शक्ति था।" नासिरुद्दीन का प्रधानमंत्री बनकर बलबन ने बीस वर्ष तक शासन के समस्त सूत्र अपने हाथ में कर लिया। ऐसा कहा जाता है कि सिंहासन पर बैठते
ही नासिरुद्दीन महमूद ने शासन का सब कार्य उसी को सौंप दिया।

बलबन का राज्यारोहण

1265 ई. में नासिरुद्दीन रोगग्रस्त हुआ और 1266 ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। इस समय इल्तुतमिश के वंश को कोई उत्ताराधिकारी जीवित नहीं थ, अतः सुल्तान की मृत्यु के पश्चात् अमीरों के समर्थन से बलबन, गयासुद्दीन बलबन के नाम से दिल्ली की गद्दी पर आरुढ़ हुआ। थॉमस के अनुसार बलबन का शाही तख्त पर बैठना मुस्लिम भारत के राजनीतिक इतिहास में नवयुग के आगमन का सूचक था। लेनपून ने कहा कि बलबन ने विद्रोहियों और षड़यंत्रों के युग में बीस वर्षों तक सुल्तान की अकथनीय सेवा की थी और, अब स्वयं भारत का सुल्तान था। सुल्तान के रूप में बलबन ने बीस वर्ष तक शासन किया। इस प्रकार उसने सल्तनत को चालीस वर्षों तक संभाले रखा। इस अवधि में बलबन को अपनी प्रशासकीय प्रतिभा एवं सैनिक योग्यता को प्रदर्शित करने का पूरा अवसर मिला और उसने मध्यकालीन भारतीय इतिहास में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान बना लिया। balban history in hindi

बलबन प्रधानमंत्री के रूप में

नासिरूद्दीन महमूद ने 1246 ई. से 1266 ई. तक राज्य किया और इस सम्पूर्ण अवधि में केवल 1253 ई. से फरवरी, 1254 ई. तक के समय को छोड़कर बलबन ने ही प्रधानमंत्री के रूप में शासन का कार्य चलाया। प्रधानमंत्री की हैसियत से बलबन ने निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण कार्य किए

पश्चिमोत्तर सीमा की सुरक्षा : इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद पश्चिमोत्तर सीमा की स्थिति उत्तरोत्तर बिगड़ती गई। लाहौर, मुल्तान और उच्छ पर दिल्ली के सुल्तान का स्थायी अधिकार नहीं रह सका। बलबन ने पश्चिमोत्तर सीमा को सुरक्षित करने के लिए शक्तिशाली सैनिक अभियान किए। 1246 ई. में उसने खोखरों पर आक्रमण करके उनके विद्रोह का दमन किया। साथ ही अन्य लुटमार करने वाली जातियों को भी दबाया। फिर उसने सिन्धु नदी के तट पर प्रयाण करके आसपास के इलाके को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला और तब वापस दिल्ली लौट आया। बलबन ने लाहौर, मुल्तान और कच्छ पर फिर अधिकार जमा लिया।

दोआब और कटेहर : बलबन ने 1247 ई. में दोआब के उपद्रवी हिन्दू राजाओं के विरूद्ध सफल अभियान किया और लम्बे युद्ध के बाद कन्नौज के विख्यात दुर्ग सलसन्दा पर अधिकार कर लिया। दो वर्ष बाद ही 1250 ई. में दोआब में फिर विद्रोह हुआ और बलबन ने पुनः विद्रोहियों का दमन किया।

मेवात : मेवात में जादों भट्टी, जिन्हें मुस्लिम इतिहासकारों ने मेवाती कहा है, सल्तनत के लिए सिरदर्द बन गए। मेवातियों ने छापामार-नीति अपनाते हुए हाँसी, रेवाड़ी, और राजधानी दिल्ली पर धावे किए। बलबन ने 1249 ई. में मेवात पर हमला करके भारी विनाश किया, लेकिन कुछ ही समय बाद मेवाती फिर उठ खड़े हुए। जो वे दिल्ली तक लूटमार करने लगे तो 1206 ई. में बलबन ने भयानक आक्रमण किया। जिन जंगलों में मेवाती छिप जाते थे उन्हें कटवा दिया गया। भारी संख्या में मेवातियों का संहार हुआ और प्रमुख नेता बन्दी बना लिए गए जिनमें मलका का नाम उल्लेखनीय है।

राजपूताना : राजपूताने में शक्तिशाली चौहानों और उनके सामन्तों ने दिल्ली पर धावे मार कर सल्तनत की प्रतिष्ठा को धक्का पहुंचाया। राजपूताना क्षेत्र में अलाउद्दीन खिलजी से पूर्व के सुल्तानों को कोई विशेष सफलता नहीं मिली। 1258 ई. में रणथम्भौर पर आक्रमण किए और बूंदी तथा चित्तौड़ तक धावा मारा, परन्तु इनका कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ा और राजपूत पूर्ववत् स्वतन्त्र बने रहे।

बुन्देलखण्ड, बघेलखण्ड और मालवा : चन्देलों की शक्ति बुन्देलखण्ड में फिर से बहुत बढ़ गई थी। बलबन ने 1248 ई. में बुन्देलखण्ड पर आक्रमण किया पर सफलता इतनी ही मिली कि चन्देल राजा का उत्तर की ओर बढ़ाव रूक गया। मालवा क्षेत्र में राजा चाहरदेव ने ग्वालियर को जीत लिया। बलबन ने 1250-51 ई. में ग्वालियर पर हमला किया, किन्तु चाहरदेव की स्वतन्त्रता को कुचला नहीं जा सका। वैसे मिनहाज के अनुसार बलबन ने ग्वालियर, चन्देरी, मालवा और वरवर पर अभियान करके इन सब पर अधिकार कर लिया और बेशुमार धन लूटा।

बलबन द्वारा अन्य विद्रोहियों का दमन : मार्च, 1253 ई. में बलबन के विरूद्ध एक षड्यन्त्र सफल हुआ और सुल्तान नासिरूद्दीन ने उसे पदच्युत कर दिया। षड्यन्त्रकारियों के नेता इमादुद्दीन प्रधानमंत्री की तरह कार्य करने लगा, उसे राजधानी में वकील-ए-दर के पद पर प्रतिष्ठित किया गया। सुल्तान नासिरूद्दीन ने फरवरी, 1254 ई. में बलबन को पुनः नायब (प्रधानमंत्री) बना दिया। अब उसने विभिन्न विद्रोहों का बलपूर्वक दमन शुरू कर दिया। बलबन चाहता था कि पिछले षडयंत्रकारियों को दिल्ली से दूर कर दिया जाए ताकि वे पुनः षड्यन्त्र न कर सकें। इसलिए रिहान को बदायें से बहाराइच, कुतलुग खाँ को अवध भेज दिया गया। किशल खाँ के असन्तोष का मुख्य कारण उसे मुल्तान और उच्छ से हटाया जाना था, अतः बलबन ने अब उसे वहां का शासक नियुक्त कर दिया। रिहान ने विद्रोह किया किन्तु उसके विरूद्ध सेना भेज दी गई। वह परास्त हुआ, बन्दी बना लिया गया और 1256 ई. में उसका बहराइच में ही वध कर दिया गया। कुतलुग खाँ ने भी विद्रोह करके अवध पर कब्जा कर लिया और कड़ा मानिकपुर पर धावा बोला। वह पराजित हुआ और सिरमोर की पहाड़ियों में राजा रणपाल की शरण में चला गया। बलबन ने रणपाल के राजा को रौंद डाला लेकिन शरणागत को हवाले नहीं किया। इसके बाद ही सुल्तान और उच्छ के शासक किशलू खाँ की सेना से जा मिला। इन दोनों अमीरों की सेना दिल्ली की ओर बढ़ चली। किशलू खाँ की सेना से जा मिला। इन दोनों अमीरों की सेना दिल्ली की ओर बढ़ चली। किशलू खाँ ने मंगोलों से सहायता मांगकर मुल्तान और उच्छ पर अधिकार बनाए रखा, लेकिन कुछ वर्ष बाद बलबन ने मुल्तान पर कब्जा कर लिया और इस बार किशलू खाँ मंगोलों की सहायता लेने में सफल नहीं हुआ।
इस प्रकार अपने प्रधानमन्त्रित्वकाल में बलबन ने सभी संकटों से राज्य की रक्षा की। विद्रोही और उपद्रवी तत्त्वों को शक्ति से दबाते हुए सीमान्त प्रदेशों में भी पर्याप्त सेना रखी। उसने सेना को अच्छे ढंग से सुशिक्षित और प्रशिक्षित किया।

बलबन शासक के रूप में

राज्यभिषेक : नासिरूद्दीन ने अपनी मृत्यु से पूर्व बलबन को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था, क्योंकि वह संतानहीन था। इब्नबतूता एवं इसामी के अनुसार नासिरूद्दीन को बलबन ने मार दिया था। फरिश्ता के अनुसार , “बलबन ने इल्तुतमिश के वंश के दूर-पास के सभी संबंधियों को समाप्त करवा दिया।" आधुनिक इतिहासकार इसे असत्य मानते हैं। कुछ भी हो, बलबन 1266 ई. में ‘गयासुद्दीन' की उपाधि धारण कर गद्दी पर बैठा।

बलबन की कठिनाईयां

बलबन को राजगद्दी तो आसानी से मिल गई, परन्तु उसे सुरक्षित रखना बड़ा कठिन था। देश में चारों और विद्रोह का वातावरण फैला हुआ था और ताज की प्रतिष्ठा काफी गिर चुकी थी। यद्यपि सुल्तान नासिरूद्दीन के काल में 20 वर्षों तक वास्तविक शक्ति उसके हाथों में निहित थी, फिर भी वह प्रत्येक काम मनमाने रूप से नहीं कर पाया थो। सुल्तान का कुछ-न-कुछ अंकुश बना रहा। इसलिए बलबन स्वतन्त्र शासक की भांति कार्य न कर सका था। यही कारण था कि सुल्तान बनते ही उसे अनेक प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उसकी कठिनाइयां निम्नलिखित थीं

रिक्त राजकोष : सल्तनत की आर्थिक स्थिति खराब थी। इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद बार-बार होने वाले विद्रोहों तथा उपद्रवों के कारण राजकोष का एक बड़ा भाग सेना पर व्यय हो रहा था। मंगोलों के हमले से भी सुरक्षा व्यवस्था पर काफी धन व्यय होता जा रहा था। वहीं प्रान्तीय हाजियों ने स्वेच्छा से वार्षिक राजस्व भेजना बन्द कर दिया था।
इल्तुतमिश के अधिकांश उत्तराधिकारियों ने भोग-विलास पर काफी धन व्यय कर दिया था। बरनी ने लिखा है, "राजकोष खाली हो गया था, शाही दरबार में धन तथा घोड़ों का अभाव हो गया। इस प्रकार बलबन की पहली गम्भीर समस्या थी - रिक्त राजकोष को भरना।

चालीस गुट का विरोध रुख : वलवन की दूसरी समस्या शाही गुट की शक्ति का अंत करता था, क्योकि वह गुट विघटनकारी शक्तियों का नेतृत्व करने लगा था। इस दल ने दिल्ली की राजनीति में महत्त्वपूर्ण भाग लिया था। इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद यह राजाओं को बनाता और बिगाड़ता रहा था। बलबन स्वयं भी इस दल का सदस्य और नेता रह चुका था, अतः वह दल की शक्ति और महत्वाकांक्षा से परिचित था। इसलिए बलबन जब नायब के पद पर नियुक्त था, तो उसने दल के अनेक सदस्यों का सफाया कर दिया था और कुछ स्वाभाविक रूप से ईश्वर को प्यारे हो गये थे, परन्तु कई सदस्य अभी जीवित थे ओर वे किसी भी समय सिंहासन पर अधिकार जमाने का षड्यंत्र रच सकते थे।

मेवातियों, राजपूतों एवं भूमिपतियों की लूटमार : दोआब के विद्रोहियों एवं मेवातियों के कारण चारों तरफ आतंक फैल चुका था। परिणागरवरूप शाग होते ही प्रायः दिल्ली के दरवाजे बन्दकर दिए जाते थे। इतिहाराकार बरनी ने लिखा है - "दोपहर की नमाज से पहले भी वे (मेव) उन पानी भरने वालों और दासियों को लूटते थे, जो तालाब से पानी लेने जाती थीं। वे उनके कपड़े उतारकर ले जाते थे और उनको नग्न छोड़ देते थे।" डॉ. अवधबिहारी पाण्डेय के शब्दों में, "साम्राज्य केन्द्रीय भाग में स्थिति राजपूत सरदार एवं भूमिपति सुल्तान के कर्मचारियों को सताने और उसे खजाने अथवा रसद के सामान को लूटने से ही सन्तुष्ट नहीं होते थे, वरन् उनमें से कुछ इतने साहसी एवं बलवान हो गये थे कि वे दिनदिहाड़े राजधानी में घुसकर लूटमार करते और मुस्लिम स्त्रियों के न केवल आभूषण, वरन् वस्त्र भी उतरवाकर सुल्तान की शक्ति और प्रतिष्ठा को बराबर चुनौती देते रहते थे। मुस्लिम इतिहासकारों ने उनको डाकुओं अथवा लुटेरों की संज्ञा दी है, परन्तु मालूम होता है कि वे राजपूत प्रत्याक्रमण और प्रतिशोध के अग्रगामी दस्ते थे, इनका शीघ्र से शीघ्र दमन न कर सकने पर साम्राजय की सुरक्षा भीषण संकट में पड़ सकती थी।

राजपूत शक्ति का पुनरूत्थान : राजपूताना, बुन्देलखण्ड, बघेलखण्ड आदि में राजपूतों की बढ़ती हुई शक्ति तुर्कों के लिए गम्भीर चुनौती थी। सल्तनत की रक्षा के लिए राजपूत शासकों की शक्ति को नष्ट करना बलबन के लिए जरूरी हो गया था।

मंगोलों के खतरे से राज्य की रक्षा : मंगोलों के निरन्तर आक्रमणों से पश्चिमोत्तर सीमा को सुरक्षित बनाना जरूरी था। मंगोल हमलावर सिन्धु तथा पश्चिमी पंजाब में अपना प्रभाव जमा चुके थे और दिल्ली सल्तनत पर उनकी आंखे लगी हुई थीं। इतना ही नहीं, सल्तनत के कई अधिकारियों और प्रान्तीय अधिकारियों से मंगोलों की सांठगांठ थी। अतः बलबन को सबसे बड़ा भय इन्हीं विदेशी आक्रमणकारियों से था। इस प्रकार बलबन चारों ओर से विकट परिस्थितियों तथा संकटों से घिरा हुआ था, लेकिन उसने 'रक्त व लहू' की नीति के आधार पर अपनी कठिनाइयों पर विजय प्राप्त की। सम्भवतः इसी कारण वह रचनात्मक कार्यों की ओर अधिक ध्यान दे सकता।

बलबन की सफलताएं

बलबन का राजस्व सिद्धान्त : बलबन के शासक बनते समय जनता में सुल्तान का कोई प्रभाव तथा भय नहीं था। बरनी के अनुसार, "सरकार का भय, जो सुशासन का आधार और राज्य के यश तथा वैभव का स्रोत है, लोगों के हृदय से जाता रहा था और देश में अव्यवस्था का बोलबाल था।" तुर्क सरदार वास्तविक शासक बन गए थे। अतः उसने सुल्तान पद की पुनः प्रतिष्ठा के लिए निम्न कदम उठाए -
  • राजा के दैवी अधिकार के सिद्धान्त पर बल दिया।
  • शाही वंशज होने का दावा किया।
  • राजदरबार को भव्य तथा अनुशासित बनाया।
  • अपने निजी जीवन को उच्च एवं स्वच्छ बनाया।
  • तुर्क सरदारों का दमन किया।
  • रक्त और लौह की नीति अपनाई।
  • सेना का पुनर्गठन व गुप्तचर विभाग को संगठित किया।
  • निष्पक्ष न्याय की व्यवस्था की।
  • उच्च वंशीय लोगों को ही उच्च पदों पर नियुक्त किया।
  • राजनीति को धर्म से पृथक् रखा।

दैवी अधिकार का समर्थन : बलबन ने राजा को ईश्वर का प्रतिनिध तथा पूजनीय बताया तथा उसके आदेश को ईश्वर का आदेश बताया। उसने 'जिल्ले अल्लाह' (ईश्वर की छाया) की उपाधि धारण की।

शाही वंशज : बलबन ने अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए स्वयं को ईरान के शाही वंश आफ्रेसियाव वंशज का बताया।

व्यक्तिगत जीवन में परिवर्तन : बलबन ने अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए अपने व्यक्तिगत जीवन को उच्च बनाया। उसने शराब पीना तथा रंगरेलियां मनाना बन्द कर दिया। वह सदा गम्भीर रहता था तथा जनता और अमीरों से नहीं मिलता था। वह कीमती वस्त्रों में जनता के सामने जाता था। वह अपना अवलाश का समय शिकार खेलने अथवा सूफियों की संगति में व्यतीत करता था।

निम्नकुल से घृणा : बलबन निम्नकुल के लोगों से घृणा करता था। अतः उसने उच्च पदों पर सिर्फ उच्च कुल के लोगों को ही नियुक्त किया।

भव्य तथा अनुशासित दरबार : बलबन ने जनता में सम्मान तथा भय की भावना उत्पन्न करने के लिए दरबार को भव्य तथा अनुशासित बनाया। दरबारियों की वेशभूषा निश्चित कर दी गई। दरबार में सिजदा और पाबोस प्रथा को प्रारम्भ कर दिया। दरबारी दरबार मे आते एवं जाते समय उसे झुककर तलाम करते थे एवं पांव चूमते थे। दरबार में हंसी-मजाक पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। सिर्फ महामंत्री सुल्तान से सीधी बातचीत कर सकता था। बलबन के दरबार में कड़ा अनुशासन था।

विद्रोहियों का दमन

ग्यासुद्दीन बलबन ने देश में फैली अव्यवस्था को दूर करने के लिए राज्य विरोधी तत्त्वों का दमन करने का पूर्ण प्रयत्न किया। इस कार्य में वह अपने जीवन के अन्तिम समय तक दृढ़ता से जुटा रहा।

दिल्ली तथा दोआब के डाकओं का दमन : बलबन के सिंहासनारूढ़ होते समय दोआब के प्रदेश में डाकुओं की भरमार थी। उनकी लूटमार-हत्या आदि के कारण दिल्ली से बंगाल जाने वाला मार्ग पूर्णतया असुरक्षित हो गया था। दोआब के मेवाती विशेषत इतने उद्दण्ड हो गए थे कि दिल्ली के आस-पास के क्षेत्रों में दिन-दहाड़े लूटमार तथा उपद्रव मचाने लगे। इन डाकुओं के भय से राजधानी के पश्चिमी द्वार को दोपहर ढलते ही बन्द कर दिया जाता था।
बलबन ने शासक बनते ही इन उपद्रवी डाकुओं का दमन करने का निश्चय किया। उसने दिल्ली के आस-पास के जंगलों को साफ करवा दिया, जहां वे डाकू विशेषकर मेवाती छिपे रहते थे। फिर उन पर आक्रमण करके उन्हें गहरे आघात पहंचाये। इतना ही नहीं, उसने राजधानी के चारों ओर सैनिक चौकियां स्थापित कर दी और उनमें साहसी अफगानों को नियुक्त किया गया, उन्होंने भी हजारों मेवातियों को मौत के घाट उतार दिया।
राजधानी को सुरक्षित करने के बाद बलबन ने दोआब के लुटेरों की तरफ ध्यान किया। कम्पिल, पटियाली, भोजपुर, जलाली आदि लुटेरों के प्रमुख केन्द्र बने हुए थे। बलबन ने इन केन्द्रों पर विनाशकारी हमले किये। तुर्कों ने हजारों डाकुओं को मौत के घाट उतार दिया और सैंकड़ों ने भागकर जान बचाई। इसके बाद सुल्तान ने उस स्थान पर दुर्गों का निर्माण करवाया और उनमें शाही सैनिक को रखने की व्यवस्था की। उसने यहां भी जंगलों को साफ करवाया और सड़के बनवाई। बलबन की इन सैनिक कार्यवाहियों के फलस्वरूप दोआब में अराजकता का अन्त हो गया और दिल्ली से बंगाल जाने वाला मार्ग डाकुओं से मुक्त हो गया।

कटेहर के हिन्दू विद्रोहियों का दमन : दोआब की सैनिक कार्यवाहियां समाप्त होने से पूर्व ही कटेहर (रूहेलखण्ड) के हिन्दुओं ने विद्रोह कर दिया। बदायूं तथा अमरोहा के मुसलमान शासकों ने उन्हें कुचलने का प्रयत्न किया, परन्तु वे असफल रहे। इस पर बलबन ने एक विशाल सेना लेकर विद्रोहियों पर इतने विनाशकारी हमले किये कि खून की नदियां बहने लगीं। विद्रोहियों को हाथी के पांवों के नीचे कुचलवा दिया गया और लगभग 100 व्यक्तियों की जिन्दा खाल खींचकर उनमें भूसा भरवा दिया गया और उन्हें दिल्ली के दरवाजे पर लटका दिया गया। बरनी ने लिखा है कि - "सुल्तान बलबन ने कटेहर को जलाने तथा नष्ट करने के आदेश दिये। बलबन ने आदेश दिया कि किसी को क्षमा न किया जाए। वह कुछ समय तक कटेहर रहा तथा आमहत्या किये जाने का आदेश देता रहा। विद्रोहियों के खून की नदियां बह गयी तथा प्रत्येक गांव व जंगल के समीप लाशों का ढेर देखा जा सकता था।" बलबन ने इस प्रदेशों के जंगलों को साफ करवा दिया, सड़कें बनवाई, सैनिक चौकियां स्थापित की। इस प्रकार, उसने यहां पर शांति व्यवस्था स्थापित की।

बंगाल में तुगरिल खां के विद्रोह का दमन : बलबन ने विश्वसनीय गुलाम तुगरिल खां को बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया था। 1279 ई. में उसने अनुकूल परिस्थितियां देखकर अपने आपको स्वतंत्र शासक घोषित किया और ग्यासुद्दीन की उपाधि धारण की। सुल्तान ने उसका दमन करने के लिए अवध के सूबेदार अमीर खां के नेवृत्व में एक विशाल सेना भेजी, किन्तु अमीर खां पराजित होकर लौट आया। इस पराजय से सुल्तान बहुत क्रुद्ध हुआ और उसने अमीर खां को फांसी पर लटकवा दिया।
इसके बाद बलबन ने दूसरी सेना विद्रोह को दबाने के लिए भेजी, किन्तु वह भी पराजित होकर लौटी। अन्त में विवश होकर स्वयं बलबन ने एक विशाल सेना सहित बंगाल की ओर कूच किया। तुगरिल खां राजधानी लखनौती छोड़कर भाग गया, परन्तु शाही सैनिकों ने उसे खोज निकाला और उसका सिर काटकर सुल्तान के सम्मुख पेश किया। बलबन ने तुगरिल के सम्बन्धियों को निर्दयतापूर्वक लखनौती के बाजार में मौत के घाट उतार दिया। इतिहासकार बरनी ने लिखा है कि बलबन ने लखनौती के मुख्य बाजार में दोनों ओर दो मील लम्बी सड़क पर सूलियां गड़वा दी और उन पर तुगरिल के साथियों एवं समर्थकों को ठोका गया। अनेक लोग इस वीभत्स दृश्य को देखकर मूर्छित हो गये। दो-तीन दिन तक इस प्रकार का क्रूर दण्ड देने के पश्चात् बलबन ने अपने लड़के बुगरा खां को बंगाल का शासक नियुक्त किया, परन्तु यह चेतावनी भी दे दी कि, "यदि आपने कभी विद्रोह का मार्ग अपनाया, तो आपकी भी तुगरिल की भांति दुर्दशा की जायेगी।" इसके बाद बलबन दिल्ली लौट गया।

मगोल संकट और सीमान्त नीति
इल्तुतमिश के समय से ही भारत पर मंगोलों के आक्रमण होते आ रहे थे और बलबन के समय उनके आक्रमणों का खतरा अधिक बढ़ गया था। मंगोल आक्रमणों से अपने साम्राज्य की सुरक्षा के लिए बलबन ने कुछ निचित कदम उठाये जो इस प्रकार थे-
  • जिन मार्गों से मंगोल आक्रमणकारी आते थे, उन पर नये दर्ग बनवाये तथा शक्तिशाली सैनिक चौकियां कायम की गई। भटिण्डा, सिरसा, अबोहर, भटेर आदि दुर्गों का निर्माण इसीलिए करवाया गया।
  • सीमान्त सुरक्षा का दायित्व योग्य एवं विश्वस्त व्यक्तियों को सौंपा गया। प्रारम्भ में उसने अपने चचेरे भाई शेर खां को यह दायित्व सौंपा। उसकी शूरवीरता से मंगोलों में आतंक पैदा हो गया था। 1270 ई. में उसने यह दायित्व अपने दोनों पुत्रों मुहम्मद खाँ तथा बुगरा खां को सौंपा।
  • सीमा प्रान्त के पुराने दुर्गों की मरम्मत करवा कर वहां भी योग्य सैनिकों को रखा गया।
  • मंगोलों के अचानक आक्रमण का सामना करने की दृष्टि से बलबन ने साम्राज्य विस्तार की नीति को त्याग दिया।
बलबन के इन प्रयत्नों के फलस्वरूप कुछ वर्षों तक तो सीमान्त क्षेत्र में शान्ति बनी रही परन्तु 1279 ई. में मंगोलों ने पुनः आक्रमण शुरू कर दिये। इस बार वे इतनी बुरी तरह से परास्त हुए कि आगामी पांच वर्ष तक आक्रमण करने का साहस नहीं किया। 1285 ई. में तैमूर खां के नेतृत्व में मंगोलों ने पुन: आक्रमण किया। युवराज मुहम्मद ने उन्हें परास्त करके खदेड़ दिया परन्तु वह स्वयं भी मारा गया। इससे बलवन को गहरा सदमा पहुंचा फिर भी उसने सीमान्त की सुरक्षा में कमी नहीं आने दी और मृत युवराज के पुत्र खुसरों को उसे पिता के स्थान पर नियुक्त किया गया।

चालीस मण्डल का दमन
इल्तुतमिश ने प्रशासनिक क्षमता बढ़ाने के उद्देश्य से 40 गुलामों को संगठित करक चालीस मण्डल' को बनाया था। ये अत्यन्त राजभक्त थे तथा तन-मन से सुल्तान व राज्य की सेवा करते थे। इल्तुतमिश की मृत्यु के पश्चात् इनकी महत्त्वाकांक्षाएं, बढ़ने लगीं तथा इल्तमिश के निर्बल उत्तराधिकारियों के समय में ये अत्यन्त शक्तिशाली हो गये। सुल्तानों को बनाने व हटाने में भी वे भूमिका निभाने लगे। ये सदस्य अत्यन्त स्वार्थी तथा अभिमानी हो गये थे तथा राजा को कठपुतली समझते थे। अतः बलबन इनका विनाश करने का निश्चय किया। बलबन ने इनका दमन करने व उन्हें प्रजा की दृष्टि में गिराने के लिए साधारण अपराधों के लिए भी कठोर दण्ड दिये। कुछ का कूटनीति के द्वारा तथा शेष को विष देकर सफाया कराया गया। इस प्रकार बलबन ने कठोर एवं बर्बर तरीके से 'चालीस मण्डल' का दमन किया।

उलेमा वर्ग की उपेक्षा
तुर्की राज संस्था धर्म प्रधान थी, जिसमें उलेमा का विशेष स्थान था। उलेमा का दिल्ली की राजनीति पर गहरा प्रभाव था, किन्तु उलेमाओं के अनेक सदस्य भ्रष्ट हो चुके थे तथा राजनीति को कलुषित कर रहे थे। बलबन ने ऐसे चरित्रभ्रष्ट धर्म-नेताओं को राजनीति से पृथक कर दिया। बलबन उलेमा का सम्मान करता था तथा उनसे परामर्श लेता था, परन्तु केवल धार्मिक मामलों में। राजनीते में उलेमा के हस्तक्षेप करने के अधिकार को छिन लिया था।

सुदृढ़ केन्द्रीय शासन
केन्द्रीय शासन को सुदृढ बनाना बलबन आवश्यक समझता था क्योंकि तब ही प्रान्तीय राज्यों पर भी अंकुश लगाया जा सकता था। यद्यपि बलबन केन्द्रीय शासन के विभिन्न विभागों के विषय में निश्चित जानकारी नहीं प्राप्त होती, किन्तु पहले के समान आरिज-ए-गुमालिक, दीवान-ए-इंशा, दीवान-ए-रसालत व वजीर के पद थे, नीति के निर्धारण का कार्य बलबन स्वयं ही करता था। बलबन ने इस बात का विशेष ध्यान रखा कि किसी निम्नवंशीय व अयोग्य व्यक्ति को उच्च पद पर नियुक्त्त न किया जाये।
प्रान्तीय शासन की ओर बलबन विशेष ध्यान न दे सका। इसी कारण उसे अपने शासनकाल में अनेक बार प्रान्तीय शासकों के विद्रोह का सामना करना पड़ा। अतः चलबन ने प्रान्तीय सूबेदारों को कुछ वर्षों बाद एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में स्थानान्तरिक करने की नीति अपनायी, ताकि कोई भी प्रान्तीय शासक इतना शक्तिशाली न हो सके जो उसके विरुद्ध विद्रोह कर सके।

हिन्दुओं के प्रति नीति
यद्यपि बलबन ने उलेमा को राजनीति से अलग कर दिया था, किन्तु इससे हिन्दू जनता की स्थिति पर कोई विशेष फर्क नहीं पड़ा। हिन्दुओं की स्थिति सल्तनतकाल में कभी भी अच्छी नहीं रही थी। हिन्दुओं की स्थिति बलबन के शासनकाल में भी अच्छी नहीं थी। बलबन के हिन्दुओं के प्रति विचारों पर प्रकाश डालते हुए बरनी ने लिखा है, "बलबन ब्राह्मणों का बड़ा शत्रु था और उनको समूल नष्ट करना चाहता था, क्योंकि वह उन्हें कुफ्र की जड़ समझता था।"

शक्तिशाली सेना
बलबन अत्यन्त योग्य शासक था। वह इस तथ्य से परिचित था कि उसके साम्राज्य की सुरक्षा एवं विस्तार तभी सम्भव था जबकि उसके अधीन अत्यधिक शक्तिशाली सेना हो। अतः उसने शक्तिशाली सैन्य-संगठन की ओर विशेष ध्यान दिया। सेना का सर्वोच्च अधिकारी इमाद-उल-मुल्क को बनाया गया। नवीन प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को तैयार करवाया गया तथा सेना में भर्ती के कठोर नियम बनाये गये। इसके अतिरिक्त उसने पुराने दुर्गों की मरम्मत करवाई तथा अनेक नवीन दुर्गों का निर्माण करवाया, ताकि दुश्मनों का कुशलतापूर्वक सामना किया जा सके। ऐसे दुर्गों में कम्पिल, पटियाली, आदि के दुर्ग थे। दुर्गों की सुरक्षा के लिए चुने हुए योग्य सैनिक नियुक्त किये गये तथा दुर्गों में पर्याप्त मात्रा में रसद का भी इन्तजाम किया गया।
उसने सेना में योग्य सैनिकों को भर्ती किया तथा पदोन्नति योग्यता के आधार पर की जाने लगी। उसने सैन्य अधि कारियों तथा सैनिकों का वेतन बढ़ा दिया। उसने इमादुलमुल्क को अपना युद्ध मंत्री बनाया, जो योग्य, अनुभवी, निष्ठावान तथा ईमानदार था। उसने सेना को अनुशासित बनाया तथा सैनिकों को उत्साही बनाया। बलबन सैनिक टुकड़ियों को चुस्त रखने के लिए उन्हें शिकार पर प्रायः अपने साथ ले जाता था। इस बात का ध्यान रखा जाता था कि सेना के कूच से असहायों तथा वृद्धों को नुकसान न हो। बलबन ने अपने सैन्य संगठन द्वारा विद्रोहों का दमन किया तथा अपने राज्य की बाह्य आक्रमणों से रक्षा की।
इसके अतिरिक्त बलबन ने एक अन्य प्रमुख कार्य भी किया। कुतुबुद्दीन व इल्तुतमिश ने अपने शासनकालों के दौरान अनेक योद्धाओं को जागीरें दी थीं ताकि आवश्यकता पड़ने पर उनकी सहायता प्राप्त की जाती थी। बलबन ने इस प्रथा को बन्द कर दिया तथा ऐसे जागीरदारों से जागीरें छीन लीं। इस नीति का उद्देश्य जागरी प्रथा के स्थान पर नकद वेतन देकर सैनिकों की भर्ती करना तथा सेना की शक्ति में वृद्धि करना था।

गुप्तचर व्यवस्था
विशाल साम्राज्य पर निरंकुशतापूर्वक शासन करने के लिए सक्षम गुप्तचर व्यवस्था का होना अत्यन्त आवश्यक है। अतः बलबन ने कुशल गुप्तचर व्यवस्था की स्थापना की। गुप्तचर व्यवस्था को कुशल बनाने में बलबन ने अपार धन खर्च किया। सरकारी गुप्तचर देश के विभिन्न भागों में नियुक्त थे तथा वहां होने चाली प्रमुख घटनाओं की सूचना सुल्तान को भेजते थे। गुप्तचरों को आकर्षक वेतन दिया जाता था तथा उन्हें अन्य पदाधिकारियों एवं सेनानायकों के आधिपत्य से मुक्त रखा जाता था। किसी गुप्तचर द्वारा ठीक काम न किये जाने पर उसे कठोर दण्ड दिया जाता था। डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने बलबन की गुप्तचर व्यवस्था का वर्णन करते हुए लिखा है, "इस व्यवस्था से अपराध कम हुए तथा अधिकार प्राप्त लोगों के अत्याचारों से निर्दोष व्यक्तियों की रक्षा हुई।" बलबन के समय में गुप्तचरों को 'वारिद' कहा जाता था। डॉ. एल. श्रीवास्तव ने भी बलबन के गुप्तचर विभाग के विषय में लिखा है, बलबन की शासन व्यवस्था सुचारू रूप से चल सकी, इसका मुख्य श्रेय उसके गुप्तचर विभाग को था। इस प्रकार सुसंगठित गुप्तचर व्यवस्था बलबन के निरंकुश शासन का आई पार बन गयी।"

न्याय व्यवस्था
बलबन अत्यन्त न्यायप्रिय शासक था। इसीलिए उसने निष्पक्ष न्याय-व्यवस्था की स्थापना की। न्याय करते समय वह अमीर-गरीब, रिश्ते-नाते, आदि ध्यान नहीं रखता था। अपराध करने पर वह बड़े-से-बड़े अधिकारी को दण्डित करता था। उसका शासन शक्ति एवं न्याय के सद्गुणों पर आधारित था। बदायूं का मलिक एक शक्तिशाली अमीर था, किन्तु जब उसने अपने एक गुलाम को कोड़ों से फिटनाकर मरना झाला तो बलबन ने उसके साथ भी वैसा ही व्यवहार करवाया। बरनी ने उसकी न्याय-प्रणाली की प्रशंसा करते हुए लिखा है, "न्याय के सम्बन्ध में वह बहुत कठोर था। इसमें वह अपने सम्बन्धियों, सहयोगियों तथा नौकरों तक के साथ कोई पक्षपात नहीं कर सकता था। यदि इनमें से कोई किसी के प्रति अन्याय या अपराध करता तो वह सताये हुए व्यक्ति को सन्तुष्ट करने का प्रयास करता था। कोई भी व्यक्ति अपने दास-दासियों आदि पर आवश्यकता पर जरूरत से ज्यादा कठोर व्यवहार का साहस कर सकता था।"

बलबन की मृत्यु

1285 ई. में बलबन का ज्येष्ठ पुत्र मुहम्मद मंगोलों से युद्ध करता हुआ मारा गया। मुहम्मद की मृत्यु से बलबन को बहुत दुःख हुआ। विशेषतः इसलिए कि वह योग्य राजकुमार था और बलबन ने उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। उसकी अकाल मृत्यु ने बलबन को मृतप्रायः बना दिया। बरनी लिखता है "बलबन रात्रि के समय फूट-फूटकर रोया करता था।" इस प्रकार बलबन अपने पुत्र वियोग को सहन नहीं कर सका और 80 वर्ष की आयु में 1287 ई. में वह भी परलोक सिधार गया।

दलबन का मूल्यांकन

बलबन मध्ययुगीन भारत का दैदीप्यमान नक्षत्र था। बलबन के सिंहासन पर बैठते समय साम्राज्य अस्त-व्यस्त था। बलबन ने साहस से काम लेते हुए जनता में सुल्तान के प्रति आदर तथा भय पैदा किया, विद्रोह का दमन किया, साम्राज्य को विघटित होने से बचाया तथा कुशल शासन-प्रबन्ध स्थापित किया। उसने इल्तुमिश द्वारा स्थापित साम्राज्य को नष्ट होने से बचाया। वह निश्चय ही एक महान शासक था। डॉ. ईश्वरीप्रसाद के अनुसार, "गयासुद्दीन बलबन, जिसने अपनी वीरता तथा दूरदर्शिता से मुल्लिम राज्य को विपत्तिकाल में नष्ट होने से बचाया, मध्ययुगीन भारतीय इतिहास में सदैव एक महान् व्यक्ति रहेगा।' डॉ. ईश्वरीप्रसाद उसे अलाउद्दीन का अग्रगामी मानते हैं। प्रो. हबीबुल्ला के अनुसार, "बलबन ने बड़ी सीमा तक खिलजी राज्य व्यवस्था की पृष्ठभूमि निर्माण किया।" इतिहासकार बरनी ने बलबनकी मृत्यु के बारे में लिखा है, "बलबन की मृत्यु से दुःखी हुए मलिकों (अमीरों) ने अपने वस्त्र फाड़ डाले और सुल्तान के शव को नंगे पैरों दारूल अमन के कब्रिस्तान को ले जाते हुए उन्होंने अपने सिरों पर धूल फेंकी। उन्होंने चालीस दिन तक उसकी मृत्यु का शोक मनाया और नंगी भूमि पर सोए।" इससे स्पष्ट होता है कि बलबन अपनी कठोरता के बावजूद अपने सरदारों में बहुत प्रिय था।
बलबन एक योग्य शासक था। वह शासक के रूप में जितना कठोर था, व्यक्तिगत जीवन में उतना ही दयालु भी। उसे अपने पुत्रों से बहुत प्रेम था। उसके दिल में गरीबों के प्रति विशेष दया थी। वह कट्टर मुसलमान था। वह प्रतिदिन नमाज पढ़ता था। वह शासन-संचालन में इस्लाम के नियमों का पालन करता था। वह उच्चजीवन व्यतीत करता था तथा सूफियों की संगति में काफी समय बिताता था। उसने खलीफा का नाम अपने सिक्कों पर अंकित करवाया। वह साहित्य का संरक्षक था। अमीर खुसरों, हसन निजामी आदि विद्वान उसके दरबार की शोधा बढ़ाते थे।
बलबन कुशल सेनानायक भी था। उसने अपने साम्राज्य के विभिन्न भागों में विद्रोहों का दमन किया तथा चालीस ती दल का सफाया कर दिया। डॉ. निजामी उसे सफल सेनापति नहीं मानते, क्योंकि उसने साम्राज्य–विस्तार नहीं किया और वह राजपूतों की बढ़ती हुई शक्ति को नहीं कुचल सका। वह कुशल शासक-प्रबन्ध भी था। उसने कुशल सीमान्त नीति अपनाई तथा सेना का पुनर्गठन किया। उसने निष्पक्ष न्याय-व्यवस्था स्थापित की तथा साम्राज्य में सुव्यवस्था की स्थापना की। डॉ. सरन लिखते हैं, "बलबन में रचनात्मक प्रतिभा का अभाव था, किन्तु वास्तविकता यह थी वह षड्यंत्रों, विद्रोहों तथा बाहरी आक्रमणों में इतना व्यस्त रहा कि उसे रचनात्मक कार्य का समय ही नहीं मिला।"

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