रजिया सुल्तान (1236 ईश्वी-1240 ईश्वी) | razia sultan in hindi

प्रस्तावना

रजिया योग्य पिता की योग्य पुत्री थी। इतिहासकार मिनहाज के शब्दों में, "वह एक महान् शासक, बुद्धिमती, न्यायप्रिय, उदार, विद्वानों की आश्रयदाता, प्रजा शुभ चिन्तक, सैनिक गुणसम्पन्न तथा उन सभी श्लाघनीय गुणों से पूर्ण थी। जो एक शासक के लिए आवश्यक है। भारत के मुस्लिम इतिहास में वह पहली स्त्री थी जो दिल्ली के सिंहासन पर बैठी और जिसने "सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न राजतंत्र के सिद्धांत” को अपनाया। सुल्तान इल्तुतमिश ने प्रारम्भ से ही उसे राजकुमारों की भांति शिक्षा दी। razia sultan in hindi
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जब इल्तुतमिश ग्वालियर पर अभियान के लिए दिल्ली से चला तो शासन की देखभाल का कार्य वह रजिया को सौंप गया था। जिसे उसने कुशलता के साथ पूरा किया। बाद में सुल्तान ने उसे अपना उत्तराधिकारी भी घोषित कर दिया। पर इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद तुर्क सरदारों और अमीरों ने एक औरत को अपना सरताज मन्जूर नहीं किया और रूकनद्दीन फीरोज को सुलतान पद पर बैठा दिया। कनुद्दीन अयोग्य साबित हुआ, उसके विरूद्ध बगावत हुई और जब वह विद्रोह को दबाने के लिए दिल्ली से बाहर था, तभी दिल्ली में रजिया के भाग्य को सहारा दिया।
शुक्रवार की नमाज के समय रजिया लाल वस्त्र धारण कर जनता के सामने उपस्थित हुई, उसने जनता को मृत सुलतान इल्तुतमिश की इच्छा की याद दिलाई, क्रूर शाह तुर्कान के विरूद्ध सहायता मांगी और सम्भवतः वह वायदा भी किया कि यदि वह शासक के रूप में अयोग्य सिद्ध हो तो उसका सिर काट दिया जाए। razia sultan
दिल्ली की जनता ने जोश में आकर उसका साथ दिया और उन सैनिक पदाधिकारियों ने भी, जो फीरोज को छोड़ चुके थे, रजिया का समर्थन किया इस प्रकार राजधानी में फीरोज के लौटने से पहले ही रजिया को सिंहासन पर बैठा दिया गया, शाह तुर्कान को कारागार में रख दिया गया और रूकनुद्दीन फीरोज को भी बन्दी बनाकर कारागार में रख दिया गया जहां कुछ समय बाद बन्दी के रूप में ही उसकी मृत्यु हो गई अथवा उसे कत्ल कर दिया गया। razia sultan hindi

प्रारम्भिक जीवन

रजिया इल्तुतमिश की बड़ी लड़की थी। उसकी माता साम्राज्य की मुख्य मलिका थी। रजिया ने बचपन से अपने पिता को प्रभावित किया था। अतः इल्तुतमिश ने उसे अन्य राजकुमारों के समान ही शिक्षा-दीक्षा दी। विद्योपार्जन के अतिरिक्त रजिया को घोड़े की सवारी करना, तीसर-तलवार चलाना, भाले का उपयोग करना, युद्ध की कला, सैन्य संचालन आदि विभिन्न प्रकार के सैनिक प्रशिक्षण भी मिले। रजिया ने अपनी सैनिक तथा प्रशासनिक प्रतिभा का परिचय अनेक अवसरों पर अपने पिता को दिया था। रजिया के गुणों की प्रशंसाकरते हुए मिनहाज-उस-सिराज ने कहा “रजिया योग्य और अयोग्य दोनों थी, उसमें राज्योचित सभी गुण विद्यमान थे परन्तु वह पुरुष योनि में उत्पन्न नहीं हुई थी। इसलिए पुरुषों की दृष्टि में उसके ये गुण निरर्थक थे। किन्तु इल्तुतमिश रजिया के गुणों से पूर्णतः परिचित था। जब उसके बड़े लड़के की मृत्यु हो गयी तो उसने अनुभव किया कि उसके अन्य पुत्र अयोग्य, दुर्बल और विलासी हैं। अतः वह रजिया की ओर आकृष्ट हुआ।

रजिया का उत्कर्ष

इल्तुतमिश को अपने लड़कों की अपेक्षा रजिया की योग्यता पर अधिक विश्वास था। सुल्तान ने उके मुखमण्डल पर वीरता की चिह्न देखे। अतः 1231-32 ई. जब वह ग्वालियर विजय के लिए गया, उसने राजधानी की देख भाल की जिम्वारी रजिया को सौंप दी थी। सुल्तान की अनुपस्थिति में रजिया ने पूरी दक्षता और योग्यता के साथ प्रशासनित कार्यों को सम्पन्न किया। सुल्तान को इससे अपार खुशी हुई। रजिया की वीरता, योग्यता, कार्य-पटुता, बुद्धिमानी और दुरदर्शिता से प्रभावित होकर इल्तुतमिश ने उसे अपना उत्तराधिकारी बनाने का निश्चय कर लिया। उसने अपने इस निर्णय को अपने मंत्रियों तथा अमीरों के सामने भी रखा। उसने अपने मंत्री को आदेश दिया कि वह उसके पश्चात् रजिया का नाम ही दिल्ली के सिंहासन के लिए उत्तराधिकारी के रूप में लिख दें।
अनेक अमीरों ने सुल्तान के इस निर्णय के विरूद्ध आवाज उठायी अनेक वयस्त राजकुमारों के होते हुए रजिया के अधिकारों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। इसके अतिरिक्त उनका स्वाभिमान भी इसके आड़े आया है। ये एक स्त्री की अधीनता को कैसे स्वीकार कर सकते थे। अतः उन्होंने इल्तुतमिश के विचारों का विरोध किया। सुल्तान ने विरोधी सरदारों से कहा "मेरे पुत्र जीवन में विलासमय आनन्द में मग्न रहते हैं। उनमें राज्य कार्य संभलने की योग्यता नहीं है। मेरी मृत्यु के बाद यह स्पष्ट हो जाएगा कि इनमें से कोई भी मेरी पुत्री के समान योग्य नहीं है।" अंत में इल्तुतमिश के प्रभाव और व्यक्तित्व के कारण अमीरों को सुल्तान के निर्णय को स्वीकार करना पड़ा। मिनहाज-उस-सिराज लिखता है, “बाद में सर्वसम्मति से यह स्वीकार कर लिया गया कि सुल्तान की निर्णय बुद्धिमत्तापूर्ण और समयानुकूल था।' सामान्यरूप से देखा जाये तो सुल्तान का यह निर्णय समयोचित एवं उत्तम था।" किन्तु इल्तुतमिश का यह स्वप्न तत्काल पूरा न हो सका। दरबार के अमीरों ने रजिया को गद्दी पर नहीं बैठने दिया। उसके स्थान पर उन्होंने रुकुनुद्दीन फिरोज शाह को सिंहासनरूढ़ किया। किन्तु जल्द ही फिरोज साम्राज्य में चारों ओर अराजकता फैल गई। इन परिस्थितियों का रजिया ने फायदा उठाया औश्र अमीरों को अपने पक्ष में कर लिया। 1236 ई. में फ़ीरोज की हत्या कर दी गई

रजिया का राज्यारोहण

रुकुनुद्दीन फिरोज शाह की हत्या के पश्चात् 6 नवम्बर, 1236 ई. को रजिया दिल्ली की गद्दी पर आरुढ़ हुई। रजिया का राज्योरोहण एक अपूर्व घटना कही जा सकती है। पूर्व मध्यकालीन भारत में मुस्लिम राज्यों में रजिया एक मात्र स्त्री थी जिसे सुल्तान बनने का गौरव प्राप्त हुआ था।

प्रारम्भिक कार्य : अमीरों के विद्रोह का दमन

रजिया को गद्दी पर बैठते ही प्रान्तीय सूबेदारों के विरोध का सामना करना पड़ा। बदायूं, मुल्तान, हांसी और लाहौर के सूबेदारों ने मिलकर भूतपूर्व शासक इल्तुतमिश के वजीर मुहम्मद जुनैदी के नेतृत्व में दिल्ली पर चढ़ाई कर दी, जिससे रजिया के लिए एक संकट उत्पन्न हो गया। रजिया के लिए सैनिक शक्ति के बल पर इस गुट को छिन्न-भिन्न करना सर्वथा असम्भव था। अतः उसने कूटनीति और साहस का परियच देते हुए अपने विरोधियों में फूट डलवा दी। कहा जाता है कि रजिया गुप्त रूप से आक्रमणकारियों की सेना में पहुंच कर उनमें फूट डालने लगे कि वे आपस में ही लड़ने लगे। परिणाम स्वरूप उनकी शक्ति क्षीण हो गई। ऐसे समय में रजिया ने रन पर एकाएक आक्रमण कर दिया और दो एक को पकड़कर मौत के घाट उतार दिया। मुहम्मद जुनैदी जान बचाकर उत्तर की ओर सिरमौर की पहाड़ियों में भाग गया, जहां उसकी मृत्यु हो गई। इस विद्रोह का दमन करने के पश्चात् रजिया की शक्ति की धाक जम गई और सबने उसे सुल्तान मान लिया।

नवीन नियुक्तियां

अमीरों के विद्रोह को कुचलने के बाद रजिया ने प्रशासनिक पदों पर नवीन नियुक्तियाँ करने का निश्चय किया। उसका मुख्य ध्येय शासन-व्यवस्था को तुर्क अधिकारियों के एकाधिकार से मुक्त करना तथा उनकी शक्ति को नियंत्रित करने की दृष्टि से गैर-तुर्कों को प्रशासन के महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्त करना था। तदनुसार ख्वाजा मुहाजबुद्दीन को वजीर, मलिक सेफूद्दीन ऐबक बहुत को सेना का अध्यक्ष, मलिक इज्जुद्दीन कबरी खॉ, ऐयाज को लाहौर का सूबेदार, इख्तयारूद्दीन याकूत को अमीर-ए-आखूर पद पर नियुक्त किया गया। कुछ दिनों बाद जब सेनाध्यक्ष की मृत्यु हो गई तो उसके स्थान पर मलिक कुतुबुद्दीन हसनगोरी को "नायब -ए-लश्कर" पद पर नियुक्त किया गया।

शासन की मुख्य घटनाएं

करमत तथा मुजाहिदों का विद्रोह : सुल्तान बनने के कुछ महिनों बाद ही रजिया को करमत तथा मुजाहिदों के विद्रोह का सामना करना पड़ा। नूरूद्दीन नामक एक तुर्क के उकसाने पर गुजरात, सिन्ध, दिल्ली के पड़ौस और गंगा-यमुना दोआब में बसे इन सम्प्रदायों के अनुयायी भारी संख्या में दिल्ली के आसपास एकत्रित होने लगें। अपने नेता की प्रेरणा से उन लोगों ने दिल्ली सिंहासन को इस्लाम के कट्टरपंथियों से छीनने का निश्चय किया। शुक्रवार, तारीख 6 रजब, 634 हिजरी (मार्च, 1237 ई.) के दिन करमाती लोगों ने शास्त्रों से सज्जित होकर दो अलग दिशाओं से दिल्ली की जामा मस्जिद पर आक्रमण कर दिया। उनका विश्वास था कि सुल्ताना रजिया भी वहां होगी। करमातियों ने मस्जिद में उपस्थित मुसलमानों को मौत के घाट उतारना शुरू कर दिया जिससे भारी कोलाहल मच गया। रजिया ने तत्काल सेना की सहायता से विद्रोह को कुचल दिया। सैकड़ो करमातियों को मौत के घाट उतार दिया और बाकी बचे करमातियों को सख्त सजा दी गई। मिनहाज ने लिखा है कि ईश्वर की कृपा से उसे यश मिला। इससे रजिया की स्थिति और भी सुदृढ़ हो गई।

रणथम्भौर का पतन : इल्तुतमिश की मृत्यु और रूनुद्दीन की अकर्मण्यता से उत्पन्न अव्यवस्था का लाभ उठाकर चौहान राजपूतों ने रणथम्भौर के दुर्ग को घेर लिया। तुर्क सेना दुर्ग में घिर गई। सुल्ताना ने रणथम्भौर में फंसी तुर्क सेना की सहायता के लिए एक सेना भेज दी परन्तु इस सेना को यह सुझाव भी दिया गया कि यदि स्थिति बिगड़ जाय तो दुर्ग को खाली कर दिया जाये और सैनिकों को सुरक्षित लौटा लिया जाये। तदनुसार तुर्कों ने रणथम्भौर दुर्ग खाली कर दिया और चौहानों ने उस पर अपना अधिकार जमा लिया। रजिया की इस कार्यवाही से बहुत से तुर्क अमीर असन्तुष्ट हो गये।

ग्वालियर के दुर्ग रक्षक की समस्या : ग्वालियर का दुर्ग रक्षक जियाउद्दीन अली सल्तनत के भूतपूर्व वजीर जुनैदी का रिश्तेदार था। रजिया को जब यह जानकारी मिली कि वह अब भी सुल्ताना के विरूद्ध जोड़-तोड़ करने में लगा हुआ है तो उसने बरन के सूबेदार को इसके विरूद्ध अभियान करने का आदेश दिया। बरन के सूबेदार ने उसको बन्दी बनाकर दिल्ली भिजवा दिया परन्तु दिल्ली पहुँचने के पूर्व ही वह लापता हो गया। रजिया के विरोधी अमीरों को यह विश्वास हो गया कि सुल्ताना के संकेत पर उसकी हत्या कर दी गई है और सुल्ताना अपने विरोधियों को सफाया करने वाली है। इसी समय नरवर के शासक यजवपाल ने ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया। दुर्ग रक्षक तुर्क सेना अधिक दिनों तक आक्रमण का सामना न कर सकी। रजिया ने सहायता भेजने के स्थान पर ग्वालियर दुर्ग को खाली करा दिया। इससे तुर्क अमीर और भी असन्तुष्ट हो गये और उन्हें ऐसा प्रतीत होने लगा कि सल्तनत छिन्न-भिन्न हो जायेगी।

सीमान्त समस्या : सल्तनत के पश्चिमी सीमान्त पर मंगोलों के निरन्तर आक्रमण शुरू हो गये थे। इस क्षेत्र पर अभी भी जलालुद्दीन मंगबरनी के प्रतिनिधि हसन करलुग का अधिकार था। मंगोलों के विरुद्ध उसने रजिया से सहायता की अपील की। इल्तुतमिश की नीति का पालन करते हुए रजिया ने सहायता देने से अस्वीकार कर दिया। परन्तु तुर्क अमीरों ने इसे सुल्ताना की सैनिक निर्बलता का प्रतीक माना।

रजिया की नीति और उसके मर्दाने रवैये से असन्तोष : रजिया के कार्यों से कुछ समय तक तो शान्ति रही, लेकिन फिर विद्रोह के लक्षण उभरने लगे। वास्तव में जो कुछ शांति थी वह भी ऊँपरी ही थी, अन्यथा सरदारों और अमीरों का एक शक्तिशाली वर्ग रजिया के पराभव के लिए बेकरार था। रजिया बहुत ही साहसी और गुणवती स्त्री थी तथा अपने सिक्कों पर वह अपने लिए 'उमदत-उल-निर्वा' (स्त्रियों में उदाहरणीय) उपाधि का उपयोग करती थी, न्यायपरायण और विद्वानों को संरक्षण देने वाली शासिका थी और उसमें युद्धोचित गुण भी प्रभूत मात्रा में थे तथापि "पुरुष न होने के कारण ये सब अद्भुत योग्यताएं उसके किसी काम की न थीं।" रजिया ने जो नीति अपनाई और राजपद अथवा ताज की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए जो कार्य किए उनके फलस्वरूप उसके विरुद्ध अंसतोष बढ़ता गया। कुल मिलाकर विरोध और असन्तोष के कारण निम्नलिखित थे
  • रजिया ने सरदारों और अमीरों की मनमानी नहीं चलने दी, अतः वे उसे गद्दी से उतारने पर तुल गए।
  • रजिया ने यथा सम्भव तुर्कों के स्थान पर अन्य मुसलमानों को भी ऊँचे पद देना शुरू कया जो तुर्क सरदारों और  अमीरों को अच्छा नहीं लगा। रजिया चाहती थी कि तुर्को का अहंकार और एकाधिकार नष्ट हो जाए ताकि वह सुलताना के रूप में अपनी स्थिति आधिक दृढ़ कर सके। अतः जहां उसने नायब वजीर मुहज्जबुद्दीन को वजीर पद दिया और कबीर खाँ तथा सालारी की जागीरों में वृद्धि की वहां जमालुद्दीन याकूत नाम हशी को अश्वशाला का अध्यक्ष (अमीर आखूर) नियुक्त किया और मलिक हसन गोरी को अपना प्रधान सेनापति नियुक्त किया। रजिया की यह नीति तुर्क अमीरों को भड़काने वाली सिद्ध हुई।
  • रजिया का मर्दाना रवैया तुर्क सरदारों और अमीरों को नागवार लगा। उसने पर्दा करना छोड़ दिया और दरबार में बैठने लगी, उसने पुरुषों जैसे शिरोवस्त्र धारण किए। वह लोगों की फरियाद सुनने लगी और खुले दरबार में राजकार्य निरीक्षण करने लगी। सनातनी मुसलमानों को रजिया के इस रवैये से बड़ी अप्रसन्नता हुई। उनके लिए यह एक कलंकपूर्ण बात थी कि औरत होकर रजिया जनता के सामने घोड़े पर सवार हो, सैन्य-संचालन करे, युद्ध में भाग ले और हर तरह से स्वयं को 'पुरुष' सिद्ध करे।
  • रजिया का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह था कि वह एक स्त्री थी और जैसा कि एलफिस्टन ने लिखा है कि उसकी सम्पूर्ण योग्यताएं इस एकमात्र दोष (नारीत्व) से उसकी रक्षा न कर सकी। बूढ़े तुर्की योद्धा एक औरत के नेतृत्व में रहना और युद्ध लड़ना अपनी शान के खिलाफ समझते थे।
  • रजिया का हशी जमालुद्दीन याकूब पर विशष अनुराग था और एक अबीसीनियावासी हब्शी के प्रति सुलताना के प्रेमपूर्ण व्यवहार से स्वतन्त्र खान, जिन पर अब तक (चालीसिया के नाम से विख्यात तुर्की मामूलकों की प्रधानता स्थापित हो चुकी थी, बहुत क्रुद हो उठे। 'तबकात-ए-अकबरी' के अनुसार जब रजिया संवार होती थी तो याकूत उसकी बाहों में हाथ डालकर उसे घोड़े पर बैठाता था। सत्य जो भी हो, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इस इबीसीनियायी के प्रति भारी स्नेह दिखाकर रजिया ने अक्षम्य भूल की। “रजिया ने उच्चवर्गीय महिला योग्य व्यवहार का अतिक्रमण किया और यह उल्लंघन उसके अविवाहित होने के कारण और भी निन्दनीय बन गया। तुर्की सरदारों को यह पसन्द नहीं आया कि एक सुलताना अपने दरबार के एक हब्शी सेवक के प्रति स्नेह प्रदर्शित करे।

राजनीतिक घटनाएं

सुल्तान बनने के बाद रजिया ने कुछ राजनीतिक घटनाओं के प्रति जिस प्रकार की नीति अपनाई वह भी उसके पतन का एक कारण बन गई। रणथम्भौर और ग्वालियर के दुर्ग को खाली कराना उसकी सैनिक कमजोरी मानी गई। रणथम्भौर और ग्वालियर के दुर्ग को खाली कराना उसकी सैनिक कमजोरी मानी गई। मंगोलों के विरुद्ध सैफुद्दीन करलूग को सहायता न देना भी कमजोरी मानी गई। कबीर खा ऐयाज से लाहौर का सूबा छीन लेना और भूतपूर्व वजीर जुनैदी के रिश्तेदार ग्वालियर के दुर्गरक्षक का अचानक लापता हो जाना – ये सब घटनाएं ऐसी थी जिससे तुर्क सरदार यह सोचने लगे कि रजिया उन सभी को एक-एक करके समाप्त करने पर तुली है। अतः उन्होंने संगठित होकर रजिया को हटाने का फैसला किया ताकि उनके स्वार्थों की रक्षा की जा सके। उसके पतन का वास्तविक कारण यही था कि तुर्क अमीर शासन सत्ता अपने हाथ में लेना चाहते थे जबकि रजिया इसके लिए तैयार न थी।

अमीरों का विद्रोह और रजिया का पतन

सुल्ताता बनने के तीन वर्ष बाद ही उसे अपने अमीरों के विदोह का सामना करना पड़ा। रजिया की नीतियों से यह स्पष्ट होने लगा था कि वह शासन सत्ता अपने हाथ में केन्द्रित रखने के लिए प्रयत्नशील है और प्रशासन के विभिन्न महत्त्वपूर्ण पदों पर गैर-तुर्क सरदारों को नियुक्त करके तुर्कों के विरूद्ध एक नया दल तैयार कर रही है। अतः तुर्क सरदारों ने अपने स्वार्थों की रक्षा के लिए रजिया को पदच्युत करने के लिए ठोस षड्यन्त्र रचा। सर्वप्रथम, लाहौर के सूबेदार कबीर खाँ ऐयाज ने विदोह किया परन्तु रजिया ने उसके विद्रोह को कुचल दिया। उसने सुल्ताना से क्षमा मांग ली। रजिया ने उसको क्षमा तो कर दिया परन्तु लाहौर का सूबा उससे छीन लिया गया और केवल मुल्तान का सूबा उसके पास रहने दिया। इस घटना के थोड़े दिन बाद सैफूद्दीन ने मुल्तान पर आक्रमण करके ऐराज को खदेड़ दिया। रजिया नेऐयाज की सहायता नहीं की। इससे भयभीत होकर तुर्क सरदारों ने संगठित होकर दुबारा षड़यन्त्र की योजना बनाई।
इस नई योजना के प्रमुख सदस्य थे - भटिण्डा का सूबेदार इख्तियारूद्दीन अल्तूनिया, लाहौर का सूबेदार कबीर खाँ ऐयाज और अमीर-ए-हाजिब ऐतिगीन। योजना के अनुसार रजिया को दिल्ली से बाहर ले जाकर समाप्त करना था क्योंकि षड़यन्त्रकारियों का विश्वास था दिल्ली की जनता सुल्ताना की समर्थक है और सुल्ताना भी काफी सतर्क थी। अतः अल्तूनिया को विद्रोह करने के लिए कहा गया। योजनानुसार अल्तूनिया ने विद्रोह कर दिया। रजिया विद्रोह का दमन करने के लिए दिल्ली से चल पड़ी। मार्ग में षड़यन्त्रकारियों ने उसके कृपापात्र अधिकारी याकूत की हत्या कर दी और भटिण्डा के निकट स्वयं सुल्ताना रजिया को भी बन्दी बना लिया गया और उसे अल्तूनिया की देखरेख में भटिण्डा दुर्ग में रखा गया। इसके तुरन्त बाद विद्रोही अमीरों ने इल्तुतमिश के तीसरे लड़के बहराम को सिंहासन पर बैठा दिया।
बहरामशाह सुल्तान तो बन गया परन्तु शासन-सत्ता पर विद्रोहियों के नेता ऐतिगीन ने कब्जा कर लिया। उसे "नाइब-ए-मामलिकान' जेसे महत्त्वपूर्ण पद पर नियुक्त किया गया। धीरे-धीरे उसकी महत्त्वाकांक्षाएं विकसित होने लगी। उसने सुल्तान की एक बहिन के साथ विवाह कर लिया और अपने महल पर हाथी तथा नौबत जैसे सारी सम्मान के चिह्नों का उपयोग करने लगा। उसकी निरंकुशता से तंग आकर बहरामशाह ने उसकी हत्या करवा दी। ऐतिगीन की मृत्यु से उसका साथी अल्तूनिया निराश हो गया क्योंकि अब उसे किसी महत्त्वपूर्ण पद मिलने की आशा नहीं रही। अतः उसने रजिया को रिहा करके उसके साथ विवाह कर लिया परन्तु मिनहाज के मतानुसार रजिया ने अल्तूनिया पर अपना माया जाल बिछाकर उससे विवाह कर हारी हुई बाजी को जीतने का प्रयास किया था। परिस्थिति जैसी भी रही हो, दोनों ने सेना सहित दिल्ली की तरफ कूच किया। मलिक इज्जुद्दीन सालारी और मलिक कराकश जैसे कुछ अमीर ने भी रजिया पर आक्रमण किया। युद्ध में रजिया और अल्तूनिया की हार हुई और वे दोनों भाग निकले। परन्तु कैथल के निकट कुछ हिन्दू लुटेरों ने उनकी हत्या कर दी। इस प्रकार सुल्ताना रजिया का दुःखद अन्त हुआ।

रजिया का मूल्यांकन

रजिया एक योग्य तथा साहसी शासिका थी। उसने कूटनीति द्वारा अमीरों का दमन कर दिया था। डॉ. श्री वास्तव के अनुसार, "इल्तुतमिश के वंश में रजिया प्रथम तथा अन्तिम सुल्ताना थी, जिसने अपनी योगयता और चारित्रिक बल से दिल्ली सल्तनत की राजनीति पर अधिकार रखा।" मिनहाज-ए-सिराज के अनुसार, "वह एक महान् साम्राज्ञी, प्रजान्यायी, प्रजा-उपकारी, राजनीति–विशारद, प्रजा-रक्षक और सेनानेत्री थी। दुर्भाग्यवश स्त्री होने के कारण वह मुस्लिम सरदारों का सहयोग न प्राप्त कर सकी। एलफिन्स्टन ने लिखा है, "यदि रजिया स्त्री ने होती, तो आज उसका नाम भारत के महान् मुस्लिम शासकों में गिना जाता।" उस समय के अमीर तथा सरदार भी रजिया सुल्ताना को अपने हाथ की कठपुतली बनाना चाहते थे। डॉ. श्रीवास्तव ने लिखा है “किन्तु उसके पतन का मुख्य कारण तुर्क अमीर सैनिकों की बलवती महत्वाकांक्षा भी थी। चालीस गुलाम सुल्तान को अपने ही हाथों की कठपुतली बनाकर राज्य की शक्ति पर अपना अधिकार कायम रखना चाहते थे।" प्रो. हबीब एवं निजामी ने लिखा है, "इस तथ्य से कदापि इन्कार नहीं किया जा सकता कि इल्तुतमिश के उत्तराधिकारियों में वह योग्यतम थी।" प्रसिद्ध इतिहासकार मिनहाज-ए-सिराज ने लिखा है, "वह एक महान शासिका, बुद्धिमती, न्यायी, उदार, विद्वानों को आश्रय देने वाली, प्रजा की शुभचिन्तक, सैनिक गुणों से सम्पन्न तथा उन सभी प्रशंसनीय गुणों तथा योग्यताओं से परिपूर्ण थी, जो एक सफल शासक के लिए आवश्यक थे, किन्तु दुर्भाग्य से वह एक स्त्री थी।"
रजिया के पश्चात् 1265 ई. तक तीन शासकों ने शासन किया। प्रथम, मुईजुद्दीन बहरामशाह जिसने 1240 ई. से 1242 ई. तक शासन किया। दूसरा, अलाउद्दीन मसूदशाह (1242 ई. 1246 ई.) तथा तीसरा, नासिरूद्दीन महमूद जिसने 1246 ई. से 1266 ई. तक शासन किया। ये तीनों ही कमजोर शासक थे। उनके पश्चात् पुन: दिल्ली में एक शक्तिशाली शासक का आविर्भाव हुआ।

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