मानव भूगोल - मानव भूगोल की परिभाषा, अर्थ, उद्देश्य, प्रकृति, विषय क्षेत्र, शाखाएँ | manav bhugol

मानव भूगोल

मानव भूगोल के विकास का आरम्भ उन्नीसवीं शताब्दी में हुआ। इस शताब्दी में अनेक भूगोलवेत्ताओं का जन्म हुआ था। प्रसिद्ध जीव वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन (1859) ने अपनी पुस्तक 'प्रजातियों की उत्पत्ति' (The origin of species) में जीवों की उत्पत्ति एवं वातावरण से अनुकूलन की स्पष्ट व्याख्या की है। इसमें डार्विन ने बताया कि वातावरण में सफल अनुकूलन करने वाले जीव ही जीवित रह पाते हैं, शेष जातियाँ समाप्त हो जाती हैं। इसे प्राकृतिक चयन कहा जाता है। डार्विन के इन विचारों से प्रभावित होकर जर्मन भूगोलवेत्ता फ्रेडरिक रैट्जेल ने अपने ग्रन्थ 'एन्थ्रोपोज्योग्राफी' (Anthropogeographie) में केन्द्र बिन्दु मानव को माना और उस पर वातावरण के प्रभाव का अध्ययन किया गया, मानव अध्ययन का केन्द्र बनने एवं वातावरण के प्रशस्त होने से एक नवीन विज्ञान का जन्म हुआ जिसे मानव भूगोल के नाम से सम्बोधित किया गया। रैट्जेल महोदय ने सर्वप्रथम मानव भूगोल का व्यवस्थित तरीके से वर्णन किया। इसलिए फ्रेडरिक रैट्जेल' को 'मानव भूगोल का जनक' (Father of Human Geography) कहा जाता है।
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महान फ्रांसीसी मानव भूगोलवेत्ता प्रो. ब्लाश के अनुसार “मानव भूगोल भौगोलिक विज्ञान के सम्मानित तने का नवीनतम अंकुर है।'' मानव भूगोल समस्त भूगोल का एक आवश्यक अंग है। मानव भूगोल पृथ्वी और उसके भौतिक वातावरण के पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन है। भूगोल पृथ्वी और पृथ्वी से सम्बन्धित वस्तुओं का अध्ययन करता है, जबकि मानव भूगोल में मनुष्य और पार्थिव वस्तुओं के अन्तर्सम्बन्ध की विस्तार से व्याख्या की जाती है। किसी प्रदेश की भौगोलिक परिस्थितियाँ, भू-संरचना, जलवायु, जलराशि, वनस्पति, खनिज सम्पदा, जीव-जन्तु आदि भौतिक वातावरण के आधारभूत तत्वों का मानव के रहन-सहन, कार्य-कलापों और आचार-विचारों पर क्या प्रभाव पड़ता है और मानव किस प्रकार इन भौगोलिक तत्वों को अपने कार्यों के लिए उपयोग में लाता रहा है, इन तथ्यों का सभी प्रकार से व्यवस्थित अध्ययन मानव भूगोल में ही किया जाता है।
मानव अपने वातावरण से पूर्णतः स्वतन्त्र नहीं है। मानव एवं वातावरण दोनों का सम्बन्ध पारस्परिक एवं अटूट है। इन्हीं सम्बन्धों का अध्ययन विशेष रूप से मानव भूगोल में किया जाता है।

मानव भूगोल की परिभाषाएँ

मानव भूगोल की व्याख्या भिन्न-भिन्न विद्वानों द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार से की गयी है, जैसा कि निम्नांकित परिभाषाओं से स्पष्ट होता है-
फ्रांसीसी विद्वान् प्रो. विडाल डी ला ब्लाश (Vidal de la Blache) के अनुसार, “मानव भूगोल विचारकों के विकास की अभिव्यंजना है, न कि भौगोलिक ज्ञान के विस्तार और खोज का कोई तात्कालिक परिणाम।'' (Human Geography is the recent sprout from the venerable trunk of geographical science.)

एक अन्य स्थान पर ब्लाश के अनुसार, “मानव भूगोल पृथ्वी और मानव के पारस्परिक सम्बन्धों को एक नया विचार देता है जिसमें पृथ्वी को नियन्त्रित करने वाले भौतिक नियमों का तथा पृथ्वी पर निवास करने वाले जीवों के पारस्परिक सम्बन्धों का अधिक संयुक्त ज्ञान उपलब्ध होता है।'' (Human geography affairs a new conception of the inter-relationship between earth and man a more synthetic knowledge of physical laws governing our earth and the relations between living beings which inhabit it.)

फ्रांसीसी विद्वान् और ब्लाश के शिष्य प्रो. जीन ब्रून्श के अनुसार, “मानव भूगोल उन सभी तथ्यों का अध्ययन है जो मानव के क्रिया-कलापों से प्रभावित हैं और जो हमारी पृथ्वी के धरातल पर घटित होने वाली घटनाओं में से छाँटकर एक विशेष श्रेणी में रखे जा सकते हैं।'' (All these phenomena in which human activity plays a part from a very special group among the surface phenomena of our planet, and to the study of this class of geographical facts we give the name Human Geography.)

अमरीकी भूगोलवेत्ता प्रो. हंटिंगटन ने मानव भूगोल की परिभाषा इस प्रकार दी है- “मानव भूगोल भौगोलिक वातावरण और मनुष्य के कार्यकलाप एवं गुणों के पारस्परिक सम्बन्ध के स्वरूप और वितरण के अध्ययन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।'' (Human Geography may be defined as the study of the nature and distribution of the relationship between geographical environment and human activities and qualities.)

जर्मन मानव भूगोलशास्त्री रैट्जेल (Ratzel) के अनुसार, “मानव भूगोल के दृश्य सर्वत्र वातावरण से सम्बन्धित होते हैं जो स्वयं भौतिक दशाओं का एक योग होता है।''

रैट्जेल की शिष्या कुमारी सैम्पल ने मानव भूगोल की व्याख्या इस प्रकार से की है- 'मानव भूगोल अस्थायी पृथ्वी और चंचल मानव के पारस्परिक परिवर्तनशील सम्बन्धों का अध्ययन है।" (Human Geography is a study of the changing relationship between the unresting man and the unstable earth.)

डिमांजियाँ नामक फ्रांसीसी विद्वान् द्वारा मानव भूगोल की समस्याओं पर लिखे गये लेखों के अनुसार, “मानव भूगोल समुदायों और समाजों के भौतिक वातावरण से सम्बन्धों का अध्ययन है।'' (Human geography is the study of human groups and societies in their relationship to the physcial environment.)

डॉ. डेविस के अनुसार, “मानव भूगोल मुख्यत: प्राकृतिक वातावरण और मानव के क्रिया-कलाप दोनों ही के पारस्परिक सम्बन्ध और उस सम्बन्ध के परिणामों के पार्थिव स्वरूप की खोज है अथवा प्राकृतिक वातावरण के नियन्त्रण को उनके आधार के रूप में सिद्ध करने का प्रयास है।'' (Human geography primarilya search for relationship between the natural environment, human activities and the natural manifestation of their results or an attempt to establish environment control as their basis.)

अमरीकी भूगोलवेत्ताओं ह्वाइट और रैनर के अनुसार, “मानव भूगोल मानव जीवन और भौतिक शक्तियों के तत्वों, कारकों के सम्बन्धों की व्याख्या करता है। इसमें यह अध्ययन किया जाता है कि मानव का अपने वातावरण के साथ किस प्रकार सामंजस्य होता है, वह किन रीतियों से अपने जीवन को पूर्णतया या आंशिक रूप से प्रकृति के भौतिक रूपों और जीवधारियों के साथ घुला-मिला लेता है।''" (Geography reveals itself to be an interpretation of the relation between the life of man and the elements, factors and forces of nature. It studies man's adjustment to the natural environment, the varied and peculiar ways in which he confirms or adapts his life either wholly or in part of physical and organic nature.)

प्रो. मैक्स मोर के अनुसार, “मानव भूगोल का सर्वोपरि कार्य उस मनुष्य का अध्ययन है जो सक्रिय एवं जीवन्त तत्व के रूप में अपने अस्तित्व की दशाओं को सुनिश्चित करता है और प्राकृतिक वातावरण से उपलब्ध उद्दीपनों से प्रतिक्रियात्मक सम्बन्ध स्थापित करता है।'' (The first task of Human Geography is constituted by the study of man considered as living organism subject to determinate conditions of existence and reacting no stimuli received from the natural environment.)

लेबान के अनुसार, “मानव भूगोल एक विस्तृत स्वरूप वाला भूगोल है अर्थात् जिसके अन्तर्गत मानव और उसके वातावरण के बीच के सम्बन्धों के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली सामान्य समस्या का स्पष्टीकरण किया जाता है।''

फिंच एण्ड ट्रिवार्था के अनुसार, “पृथ्वी के धरातल पर मानवीय तथ्यों का क्रमबद्ध वर्णन और अध्ययन तथा वितरण क्षेत्रीय आधार पर प्रस्तुत किया जाना ही मानव और सांस्कृतिक भूगोल का उद्देश्य है। इसके अन्तर्गत भौतिक संस्कृति, जो मानव के किसी प्रदेश विशेष पर अधिकार होने तथा उसके संसाधनों के विकास करने से उत्पन्न होती है, का अध्ययन किया जाता है। इस भौतिक संस्कृति में मानव द्वारा जीवन-यापन करने के लिए की गई क्रियाएँ प्रयत्न सम्मिलित किये जाते हैं, जैसे- भूमि के उपयोग सम्बन्धी तथ्य, कृषि, निर्माण उद्योग, व्यापार, खनन एवं अन्य आर्थिक क्रियाएँ तथा घर, खेत, सड़क, फैक्ट्रियाँ और पालतू पशु आदि हैं।'' (Human geography consists of a systematic description and interpretation of the distribution patterns and the regional association of things on the surface of the earth............ Human or cultural geography classified and analysis the feature of material culture resulting from man's occupying a region and developing its resources. The features of material culture include the efforts of human beings to make a living, viz., the facts of land utilization, including agriculture, manufacturing, trade, mining and other economies- houses, field, road, factories, domesticated animals etc.)

डी. एच. डेविस के अनुसार “मानव भूगोल में केवल प्राकृतिक वातावरण और मानवीय क्रियाओं के बीच सम्बन्ध का ही नहीं वरन् पृथ्वी तल के 'क्षेत्र' का भी अध्ययन होता है।''

मानव भगोल का उद्देश्य एवं प्रकृति

मानव भूगोल का उद्देश्य प्रादेशिक विभिन्नताओं के बीच रहने वाले मानव जीवन की व्यवस्थित व्याख्या करना है। यह इस तथ्य का अध्ययन करता है कि किस प्रकार मानव समूह अपने भौतिक वातावरण से सामंजस्य स्थापित करता है। ऐसा करते समय वह अपने द्वारा अर्जित अनुभवों और प्रादेशिक अन्तर्सम्बन्धों का पूरा लाभ उठाता है।
मानव भूगोल के उद्देश्य के सम्बन्ध में प्रो. ब्लाश का यह कथन उल्लेखनीय है, “पृथ्वी पर मनुष्य का प्रभाव और उसके धरातल पर व्यवसाय के दीर्घकालीन चिह्नों का अध्ययन ही मानव भूगोल के दो मुख्य उद्देश्य हैं। इसके लिए हमें प्लायोसीन यग से पूर्व हए जैविक विनाश के फलस्वरूप विशाल पशु जातियों की संख्या में यकायक कमी होने के सकारण अध्ययन के साथ-साथ उन परिवर्तनों के विषय में भी पूर्ण रूप से जाँच-पड़ताल करने का प्रयत्न करना चाहिए जो वर्तमान काल में हो रहे हैं और भविष्य में भी देखा जा सकता है।
प्रो. बूश ने मानव भूगोल के उद्देश्य को इन शब्दों में व्यक्त किया है, "अन्य विज्ञानों की भाँति जो निरीक्षण पर आधारित हैं, भूगोल का कार्य तथ्यों का वर्गीकरण करते हुए उनको स्पष्ट श्रेणियों में बाँटना और फिर इन विभिन्न तथ्यों का तुलनात्मक निरीक्षण करना है। उनके अनुसार, “मानव भूगोल का उद्देश्य मानव क्रिया-कलापों और भौतिक भूगोल के तत्वों के सम्बन्धों का अध्ययन है।''

मानव भूगोल के अन्तर्गत मानव द्वारा निर्मित सांस्कृतिक भूदृश्य (Cultural landscape) के विभिन्न तत्वों का अध्ययन किया जाता है। इसमें ऐसे भूदृश्यों पर प्राकृतिक वातावरण का अनेक प्रकार से प्रभाव एवं उसने मानव के क्रिया-कलापों पर किस प्रकार प्रभाव डाला है और किस प्रकार मानव ने प्रतिकूल वातावरण से भी, जीवन-यापन के लिए सामंजस्य स्थापित किया है, आदि का विस्तार से अध्ययन किया जाता है।
अत: मानव भूगोल के दो मूल उद्देश्य हैं-
  1. मानव ने किन प्रदेशों/क्षेत्रों में क्या-क्या विकास किया है- विध्वंसात्मक अथवा रचनात्मक।
  2. मानव और वातावरण के ऐसे कौन-से पारस्परिक सम्बन्ध हैं जिनके फलस्वरूप समस्त विश्व एक 'पार्थिव एकता' के रूप में दृष्टिगोचर होता है।
मानव भूगोल की प्रकृति के अन्तर्गत न केवल मनुष्य और उसके भौतिक वातावरण का आर्थिक सम्बन्ध ही सम्मिलित किया जाता है वरन् मूल भूगोल से सम्बन्धित अन्य शाखाओं-
आर्थिक भूगोल, सामाजिक भूगोल, राजनीतिक तथा ऐतिहासिक भूगोल आदि का मानव की कार्यक्षमता, स्वास्थ्य, शिक्षा, कला, विज्ञान, सरकार, राजनीति और धर्म पर पड़ने वाले प्रभाव का भी अध्ययन किया जाता है किन्तु यहाँ यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि मनुष्य की क्रियाएँ पूर्णतः प्रकृति द्वारा निर्देशित नहीं होतीं। मनुष्य अपने जीवन को भौतिक आवश्यकताओं के अनुसार ढाल लेता है और अपनी शक्ति एवं विकास के स्तर के अनुसार वातावरण में आवश्यक परिवर्तन कर लेता है। उदाहरण के लिए, एल्पाइन घाटी के किसानों, यूक्रेन के कृषकों, शैम्पेन के बागवानों और लारेंस कोयला क्षेत्र के मजदूरों आदि ने अपने वातावरण के अनुसार ही अपने रहन-सहन को ढाला है। इसी प्रकार मध्य यूरोप में पतझड़ वाले वनों को साफ कर खेती करने, नीदरलैण्ड (हॉलैण्ड) में समुद्रगत भूमि को बाँध बनाकर उपयोगी बना देने तथा चिली व पीरू के शुष्क उच्च प्रदेशों में शोरा प्राप्त करने और मंचूरिया में लोहा निकालने तथा आल्पस में सुरंगें बनाकर रेलमार्ग निकालने, भारत में अनेक विनाशकारी नदियों के ऊपरी भागों में बाँध बनाकर जल को संग्रहीत करने और बाढ़ों को रोकने, विद्युत शक्ति उत्पन्न करने तथा थार के मरुस्थल जैसे क्षेत्रों को भूमि के पुनरुद्धार कार्यों और सिंचाई योजनाओं द्वारा उन्हें मानव विकास के उपयुक्त बनाने आदि ऐसे उदाहरण हैं जो मानव द्वारा पृथ्वी के धरातल पर किये गये परिवर्तनों की कहानी को व्यक्त करते हैं। ऐसे कार्यों द्वारा ही मानव पृथ्वी पर विशेष प्रकार के सांस्कृतिक भूदृश्य (Cultural landscape) का निर्माण एवं उनमें संशोधन व सुधार करता रहा है।

जीन बून्श के अनुसार, “भौगोलिक आत्मा का प्रदेश आर्थिक, जनसांख्यिकीय, प्रजातीय एवं इतिहास आदि विज्ञानों के सम्मिलित प्रयासों एवं प्रभावों की देन है। अतएव सभी प्रकार की ज्ञान प्राप्ति के लिए मानव भूगोल का ज्ञान होना अनिवार्य है। "

मानव भूगोल की प्रकृति के सम्बन्ध में डी. सी. मनी (D. C. Money) का विचार था कि “मानव भूगोल भूगोल के उन तथ्यों की खोज करता है जो मानव एवं उसकी गतिविधियों से प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धित हैं। यह इस बात पर ध्यान देता है कि मानव पर वातावरण का क्या प्रभाव पड़ता है और मानव का अपने समीपवर्ती प्रदेश पर क्या प्रभाव पड़ता है।"

सैम्पल का विचार था कि मानव भूगोल क्रियाशील मानव एवं अस्थायी पृथ्वी के परिवर्तनशील सम्बन्धों का अध्ययन है। इससे स्पष्ट होता है कि मानव भूगोल की प्रकृति में सम्पूर्ण ग्लोब समाहित है क्योंकि इसी पर मानव अपने क्रिया-कलाप करता है।

मानव भूगोल का विषय-क्षेत्र

पृथ्वी के विभिन्न भागों के निवासियों- उनके रंग-रूप, स्वास्थ्य, कार्यक्षमता, भोजन, वेश-भूषा, आजीविका के साधन, गृह-निर्माण, भाषा, रीति-रिवाज, धार्मिक भावनाएँ, राजनीतिक विचारधाराएँ, आदर्श, संस्कृति आदि में बड़ा अन्तर पाया जाता है। इस अन्तर के अनेक कारण हैं, इनमें से कुछ मानव के प्राकृतिक वातावरण और मानव के अपने नृवंशीय या जातीय गुणों से सम्बन्धित होते हैं तो कुछ उसकी संस्कृति से। ज्यों-ज्यों मानव अधिक सभ्य होता जाता है, उसके जीविकोपार्जन की क्रियाएँ भी परिवर्तित, अधिक व्यवस्थित एवं विविध होती जाती हैं। इन क्रियाओं को क्रियान्वित करने के लिए वह भौतिक वातावरण में परिवर्तन करता है, उसके साथ सामंजस्य स्थापित करता है। इसके साथ-साथ मानव स्वयं की कार्यक्षमता, स्वास्थ्य, भोजन, आर्थिक क्रियाएँ और रीति-रिवाजों पर वहाँ के भौतिक वातावरण का भी अमिट प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार मानव से सम्बन्धित प्रत्येक क्रियाएँ, विज्ञान और सामाजिक तथ्य भौगोलिक वातावरण की पृष्ठभूमि में ही विकसित होते जाते हैं। मनुष्य और भौतिक वातावरण के पारस्परिक सम्बन्धों (क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं) एवं सामंजस्य द्वारा ही मनुष्य के सांस्कृतिक वातावरण का जन्म होता है। प्रो. बून्श का कथन है कि “स्वयं मानव संस्कृति का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक है। वह कभी भी अकर्मण्य नहीं रहता अथवा यों कहा जा सकता है कि वह पूर्णत: अकर्मण्य तभी होता है, जबकि भौतिक स्थितियाँ उसे निष्पाणित कर देती हैं।'' वास्तव में, वह जब तक जीवित रहता है, तब तक क्रिया-प्रतिक्रिया करता रहता है। वह खाता है, पीता है, अनेक आर्थिक व अन्य क्रियाएँ करता है, पृथ्वी के किसी स्थान विशेष पर विश्राम करता है और इन सभी कार्यों में भौगोलिक तथ्यों में उसके अनुसार, प्रकृति को जीतने से पहले हमको उसकी आज्ञा का पालन करना होगा' भौतिक दशाओं के परिवर्तन में मनुष्य केवल अजैविक साधनों का ही उपयोग नहीं करता वरन् समस्त जीवित शक्तियों के साथ भी समायोजन करता है जो वातावरण द्वारा सम्बन्धित हैं। वह प्रकृति के विविध कार्यों में भी सम्मिलित होता है।
अतएव मानव भूगोल के अन्तर्गत न केवल भौतिक वातावरण और आर्थिक परिस्थितियों के सम्बन्ध का वरन् मानव की क्रियाओं द्वारा उत्पन्न सभी सांस्कृतिक तथ्यों का भी अध्ययन करना आवश्यक होता है। ऐसे सांस्कृतिक तथ्य मनुष्य या जनसंख्या का क्षेत्रीय वितरण, उसका घनत्व, आवास-प्रवास, बस्तियाँ, नगर, परिवहन के साधन एवं मार्ग, सभी इस विज्ञान के विषय-क्षेत्र या कार्य-क्षेत्र अथवा अध्ययन का अंग हैं। फिंच और ट्रिवार्था ने कहा है कि “मानवीय एवं पार्थिव संस्कृति को मानव के सांस्कृतिक भूगोल (Cultural Geography) का विषय-क्षेत्र माना है। इसके विषय-क्षेत्र में उसमें जनसंख्या का घनत्व और वितरण, बस्तियों के स्वरूप, कृषि, खेत, व्यापार, उद्योग, खाने, सड़कें, कारखाने, पालतू पशु और बोयी गयी फसलें आदि तथ्य सम्मिलित किये गये हैं।''

हंटिंगटन का मत
विख्यात अमेरिकन विद्वान एल्सवर्थ हंटिंगटन ने मानव भूगोल के अध्ययन-क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इसका विस्तृत विवरण उन्होंने 'Principles of Human Geography' में दिया है।
हंटिंगटन ने मानव भूगोल के विषय-क्षेत्र को नीचे दिये गये विशेष चार्ट द्वारा समझाया है। उनके अनुसार यह दो भागों में वर्गीकृत किया गया है।
  1. भौतिक दशाएँ (Physical Conditions)
  2. मानवीय अभिव्यंजना (Human Response)

(1) हंटिंगटन के अनुसार मानव भूगोल के तथ्य
  1. भौतिक दशाएँ (Physical Conditions)
  2. जीवन के रूप (Forms of Life)
  3. मानवीय अभिव्यंजना (Human Response)

(A) भौतिक दशाएँ
इसके अन्तर्गत-
  • पृथ्वी के ग्रह सम्बन्ध अर्थात् उसकी स्थिति, उसका स्वरूप और आकार
  • स्थल स्वरूप और संरचना
  • जलाशय
  • मिट्टियाँ और खनिज तथा
  • जलवायु सम्मिलित किये गये हैं।

इस श्रेणी में जीवन के विभिन्न रूपों (Forms of Life) को भी सम्मिलित किया गया है। इसकी तीन श्रेणियाँ बनायी गयी हैं-
  • पौधे
  • पशु एवं
  • मनुष्य

(B) मानवीय अभिव्यंजना
मानवीय अभिव्यंजना के अन्तर्गत मानव की-
  • प्राथमिक भौतिक आवश्यकताएँ (Material Needs) - भोजन, जल, वस्त्र, सुरक्षा, औजार और यातायात के साधन आदि।
  • मूल या मुख्य व्यवसाय (Fundamental Occupation ) - शिकार करना, मछली पकड़ना, पशु चराना, खेती करना, लकड़ी काटना, खानें खोदना, निर्माण एवं व्यापार
  • चातुर्य या क्षमता (Efficiency) - पैतृक देन, स्वास्थ्य एवं सांस्कृतिक प्रेरणा
  • उच्च आवश्यकताएँ (High Needs ) - आमोद-प्रमोद, सरकार, शिक्षा, विज्ञान, धर्म एवं कला, साहित्य आदि सम्मिलित किये जाते हैं।

1. ग्लोबीय स्थिति (Earth as Globe )
मानव अभिव्यंजना के सम्मिलित स्वरूपों को ही सभ्यता की संज्ञा दी गयी है। सभ्यता के विकास के साथ-साथ मानव की प्रगति भी होती रही है। यह सभी तथ्य अन्तर्सम्बन्धों से बँधे हुए हैं और पारस्परिक प्रभाव डालते हैं। यद्यपि मानव भूगोल का क्षेत्र एवं समस्याएँ विशाल एवं विषमताओं से पूर्ण हैं और प्रकृति के कार्य-कलाप अति सूक्ष्म हैं किन्तु दोनों के पारस्परिक सम्बन्धों की स्पष्ट व्याख्या करना एक कठिन कार्य है, फिर भी इन विषमताओं को कुछ श्रेणियों में वर्गीकृत कर उनका अध्ययन किया जा सकता है।
पृथ्वी का एक गोले के रूप में अथवा पृथ्वी का स्वरूप और आकार का अध्ययन किया जाता है। पृथ्वी ब्रह्माण्ड में स्थित है, वह गोलाकार है तथा सूर्य के चारों ओर 365 1/4 दिन में एक चक्कर पूरा कर लेती है। वह स्वयं भी अपनी कीली पर 24 घण्टे में एक चक्कर पूरा कर लेती है, इसी कारण एक घूमते हुए ग्रह पर किसी स्थान की स्थिति का भूगोल में बड़ा महत्व है। इससे दिशा और दूरी का ज्ञान होता है। पृथ्वी के गोलाकार स्वरूप और उसके कक्ष पर झुके रहने के कारण न केवल ऋतुएँ बदलती हैं, दिन और रात बारी-बारी से होते हैं, दिन छोटे और बड़े होते हैं वरन् सूर्य एवं अन्य नक्षत्रों के साथ पृथ्वी के सम्बन्धों के फलस्वरूप जीवों तथा वनस्पतियों के विकास के लिए भी उपयुक्त अवस्थाएँ मिलती हैं।

2. भूमि की रचना (Land Form)
धरातल के विभिन्न स्वरूप महाद्वीप और महासागर, पर्वत, पठार, मैदान, द्वीप प्रणालियाँ एवं इन पर पायी जाने वाली स्थलाकृतियों में विषमताएँ पायी जाती हैं। ये सभी विषमताएँ वनस्पति, मिट्टी, जीवों एवं जलवायु पर प्रभाव डालती हैं। पर्वत, पठारों और मैदानों में मानव को प्राप्त होने वाले प्राकृतिक तत्व भिन्न-भिन्न होते हैं जिनके कारण वहाँ के निवासियों के रहन-सहन, आचार-विचार, क्रिया-कलाप, भोजन आदि में भिन्नता होती है। महाद्वीपों के मध्य में रहने वाले व्यक्तियों का मुख्य व्यवसाय कृषि है जबकि महासागरीय तटों पर निवास करने वाले व्यक्तियों का मुख्य व्यवसाय कृषि है जबकि महासागरीय तटों पर निवास करने वाले व्यक्तियों का व्यवसाय मछली पालन है और मरुस्थल के निवासी खानाबदोश जीवन व्यतीत करते हैं, परन्तु गंगा, सिन्धु, नील, यांगटीसीक्यांग, दजला-फरात, मिसीसिपी, मिसौरी आदि नदियों की घाटियों के निवासी कृषि कार्य करते हैं। इन नदियों की घाटियों में जनसंख्या की सघनता है और इनमें ही अनेक संस्कृति एवं सभ्यताओं का विकास हुआ है। पठारी, पर्वतीय एवं मरुस्थल भाग सर्वथा दुर्लभ स्थान हैं लेकिन मैदानी भागों में यातायात मार्ग और इमारतें जितनी उत्कृष्ट बन सकती हैं वे दलदली एवं पर्वतीय भागों में नहीं बन सकती हैं।

3. जलराशियाँ (Water Bodies)
मानव की प्रत्येक क्रियाओं में और इनके विकास में जल का अत्यधिक महत्व है। विश्व के धरातल के 72% भाग से अधिक भाग में सागर, महासागर, नदियाँ एवं झील विस्तृत हैं (वेगनर के अनुसार धरातल के 71.7% भाग पर जल और 28.3% भाग पर स्थल क्षेत्र है) जल मानव के जीवन में बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि मानव की समस्त क्रियाएँ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जल द्वारा सम्पन्न होती हैं। जल के बिना मैदान निर्जन एवं मानवहीन हो जाते हैं और जल से मरुस्थल हरे-भरे मैदानों में परिवर्तित हो जाते हैं। पृथ्वी पर पायी जाने वाली वनस्पति भी जल पर ही निर्भर करती है। मानव को सुरक्षा प्रदान करने में जलाशयों का महत्वपूर्ण योगदान है। ग्रेट-ब्रिटेन को अनेक बार इंगलिश चैनल ने युद्धों से सुरक्षित रखा है। भारत की सुरक्षा सदियों से हिन्द महासागर करता आ रहा है। नदियों के जल से कृषि सिंचाई का कार्य सम्पन्न होता है। गंगा, सिन्धु, नील, कोलोरेडो आदि नदियाँ कृषि कार्यों को जल प्रदान करती हैं और जलराशियों का प्रभाव उद्योग-धन्धों, यातायात आदि पर भी पड़ता है।

4. मिट्टी और खनिज (Soil and Minerals)
मिट्टी और खनिज भी मानव जीवन को निकट से प्रभावित करते हैं। मिट्टी की सूक्ष्मता अथवा स्थूलता पर ही मिट्टी की उर्वरता निर्भर करती है, इसी के अनुसार उस प्रदेश की वनस्पति और मानव व्यवसाय निर्मित होता है। गंगा और उत्तरी फ्रांस के उपजाऊ मैदानी भाग में मिट्टी के कारण ही कृषक सुखी, सभ्य और समृद्ध पाये जाते हैं, जबकि मरुस्थलीय प्रदेशों में कृषक दरिद्र और दुःखी रहते हैं क्योंकि भूमि अनुपजाऊ है। काली, दोमट और अन्य उपजाऊ मिट्टियाँ अपनी उर्वरता के कारण ही अधिक कपास, गेहूँ तथा चावल उत्पन्न करने के लिए उपयुक्त हैं।
खनिज पदार्थ भी मानव की सभ्यता को प्रभावित करते हैं। कोयला, लोहा और खनिज तेल आदि की उपलब्धता के कारण ही संयुक्त राज्य अमेरिका तथा पश्चिमी यूरोपीय देश, औद्योगिक देश बन सके हैं तथा अन्य देशों की तुलना में आगे बढ़ सके हैं। किसी स्थान की सभ्यता एवं संस्कृति भी खनिज पदार्थों से प्रभावित होती है किन्तु खनिज पदार्थों पर आश्रित सभ्यता का, खनिज पदार्थों की समाप्ति के साथ ही ह्रास होने लगता है। अत: पहले जहाँ सघन जनसंख्या मिलती थी, वहाँ अब केवल भूत नगरियों के अवशेष दृष्टिगोचर होते हैं। खनिजों की प्राप्ति अथवा उन पर अधिकार दो देशों के बीच कटु सम्बन्धों को भी जन्म देते हैं। ईरान और वैनेजुएला के खनिज तेल स्रोत तथा चिली की शोरा की खानों और अलास्का तथा आस्ट्रेलिया में सोने की खोज ने ही अनेक दुर्घटनाओं और दुरभिसंधियों को पनपाया है।

5. जलवायु (Climate)
किसी देश की जलवायु न केवल स्थिति पर निर्भर करती है वरन् यह भूमि के स्वरूपों, जलराशियों को भी प्रभावित करती है। इसका स्पष्ट प्रभाव मानव पर पड़ता है। वस्तुतः इनमें पारस्परिक सम्बन्ध पाया जाता है। जलवायु में सामान्य परिवर्तन होने से ही इन सभी में परिवर्तन होने लगता है। उष्णता की वृद्धि होते ही अनावृष्टिकरण की क्रियाएँ तेज हो जाती हैं। मैदान मरुस्थलों में एवं पर्वतीय क्षेत्र मैदानी भागों में परिवर्तित हो जाते हैं। जलराशियों का स्वरूप भी घटने लगता है और इनसे सम्बन्धित जीवों का जीवन भी बदल जाता है। मिट्टी का निर्माण भी जलवायु का ही परिणाम होता है। अत्यधिक वर्षा वाले भागों में अथवा अत्यन्त शुष्क प्रदेशों की मिट्टियों में जो अन्तर पाया जाता है, वह मानव जीवन में परिलक्षित होता है। जलवायु कृषि उत्पादन को भी प्रभावित करती है। पशु एवं मानव जीवन पर भी जलवायु का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। मनुष्य की कार्यक्षमता, शारीरिक रचना, स्वस्थ बुद्धि आदि सभी जलवायु द्वारा प्रभावित होते हैं। अत्यन्त गरम और ठण्डी जलवायु में मानव का विकास रुक जाता है। शीतोष्ण प्रदेशों में न केवल वह लम्बे समय तक बिना थकान अनुभव किये कार्य कर सकता है बल्कि इन प्रदेशों की सभ्यता भी ऊँची रहती है, जबकि टुण्ड्रा और विषुवत्रेखीय प्रदेशों में अत्यधिक शीत और गर्मी के कारण मानव की मानसिक और शारीरिक शक्तियाँ कुण्ठित हो जाती हैं। कांगो बेसिन में उष्णतर जलवायु के कारण उसका विकास रुक जाता है और मलेरिया तथा अन्य प्रकार की बीमारियों से ग्रसित हो जाता है। इंग्लैण्ड और नीदरलैण्ड जैसे देशों के परिवर्तनशील मौसम में ही मानव अपनी सभ्यता की चरम सीमा तक पहुँच पाया है।

जीवों के स्वरुप (Forms of Life)

(क) पौधे (Plants)
भौतिक अवस्थाओं का प्रभाव स्पष्ट रूप से पौधों पर दिखायी देता है। ग्रीनलैण्ड की स्थिति वनस्पति और जीवों के अभाव को व्यक्त करती है क्योंकि यहाँ सदा हिम जमा रहता है। इसी प्रकार सहारा मरुस्थल के बालूमय प्रदेश का तथा नदियों के मैदानी भागों में लहलहाते खेतों तथा पर्वतीय भागों में वनों का ज्ञान हमें होता है। जल के भीतर उत्पन्न पौधों द्वारा भी मानव पर प्रभाव पड़ता है। इन पर मछलियाँ और अन्य सामुद्रिक जीव पनपते हैं जिन्हें मानव भोजन के रूप में प्रयोग में लाता है। वनस्पति पर जलवायु का स्पष्ट प्रभाव पड़ता रहता है। खजूर के पेड़ से मरुस्थलीय एवं अंगूरों की बेल से भूमध्यसागरीय जलवायु प्रदेश का बोध होता है। मोटे तौर पर मानव के भोजन, निवास स्थान एवं वस्त्र आदि सभी पर वनस्पति का प्रभाव पड़ता है।

(ख) पशु (Animals)
पशु भी मानव जीवन को प्रभावित करते हैं। घोड़े और बैलों को पालतू बनाकर कृषि में सहायता ली जाती है। भेड़-बकरियों के अभाव में ऊन तथा माँस का अभाव हो जाता है तथा गाय-भैंसों के अभाव में दूध, चमड़ा आदि की प्राप्ति असम्भव हो जाती है। गधे, ऊँट आदि का महत्व भी दैनिक जीवन में कम नहीं है। अण्डे के लिए मुर्गियाँ, रेशम के लिए रेशम के कीड़े का महत्व कम नहीं है। छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़े अनेक गम्भीर बीमारियों को जन्म देते हैं। पशुओं की सहायता से मनुष्य ने प्रकृति पर विजय प्राप्त की है। तिब्बत के पठार पर सामान ढोने के लिए याक, टुण्ड्रा प्रदेश में सामान ढोने के लिए रेण्डियर तथा स्लेज खींचने के लिए कुत्तों का उपयोग मानव ने किया है।

(ग) मानव (Men)
मानव स्वयं भूगोल का उपादान है। आज विश्व के विभिन्न देशों में संस्कृति के जो विभिन्न स्वरूप दिखायी देते हैं तथा जड़ प्रकृति में जो चेतना दृष्टिगोचर होती है, वह वास्तव में मानव की क्रियाओं का ही परिणाम है। मानव भौतिक परिस्थितियों से लाभ उठाने और जीवनयापन के लिए तथा अपने शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिए जो क्रियाएँ करता है, उसकी अमिट छाप जड़ प्रकृति पर पूर्णत: परिलक्षित होती है। मानव जीवन पर न केवल भौतिक तत्व प्रभाव डालते हैं वरन् वह स्वयं भी अपने जीवन को इन्हीं के अनुसार ढाल लेता है।
यद्यपि सभी मनुष्यों की अपनी भौतिक आवश्यकताएँ होती हैं जिन्हें पूरा करने के लिए वे विभिन्न उद्योगों को अपनाते हैं किन्तु प्रत्येक समुदाय के काम करने के ढंग अलग-अलग होते हैं। कुछ प्रदेशों के मनुष्य काम करने में स्फूर्ति, लगन और क्षमता सभी का परिचय देते हैं, जबकि कुछ प्रदेशों के निवासियों में सुस्ती, आलस्य एवं कार्य न करने की भावना पायी जाती है। कार्य करने की यह क्षमता वंशानुगत होती है। कुछ लोग जन्म से ही फुर्तीले और चतुर होते हैं, जबकि अन्य लोग मन्द बुद्धि के होते हैं। कार्य करने की चतुरता स्वास्थ्य पर भी निर्भर करती है जो अन्तत: भोजन, वस्त्र, सुरक्षा, उद्योग, बीमारियों से मुक्ति आदि कई प्राकृतिक उपादानों पर निर्भर करती है।

संस्कृति में भिन्नता होने के कारण ही मानव समूहों में कार्य करने की पद्धतियाँ, रहन-सहन के ढंग, आमोद-प्रमोद के साधन, सफाई आदि बातों में भिन्नता पायी जाती है। इन सभी बातों का मानव की जैविक, भौगोलिक और सांस्कृतिक दशाओं पर विशिष्ट प्रभाव पड़ता है और यह सब मिलकर उसके जातीय गुणों का निर्धारण करते हैं।

(B) भौगोलिक वातावरण एवं मानव अभिव्यंजना
हंटिंगटन ने मानव की आवश्यकताओं और तत्सम्बन्धी कार्यों को निम्नांकित चार भागों में विभाजित किया है-
  1. मानव की पार्थिव आवश्यकताएँ।
  2. इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किये गये प्रयास अथवा व्यवसाय।
  3. शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास तथा सांस्कृतिक उद्दीपन।
  4. मनुष्य की उच्च आवश्यकताएँ, जो उसके सांस्कृतिक विकास में योगदान देती हैं।
मानव की क्रियाओं के लिए प्रकृति एक रंगमंच की भाँति है। इसकी भौतिक दशाओं में अन्तर होने से मानव की अभिव्यंजना के स्वरूप और स्तर में परिवर्तन पाया जाता है किन्तु मानव जड़ नहीं है अत: वह अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए आवश्यकता और समयानुसार प्रकृति-दत्त दशाओं में परिवर्तन करने का या उन्हें अपने अनुकूल बनाने का भी प्रयास करता है।

1. पार्थिव अथवा प्राथमिक आवश्यकताएँ
मानव की आधारभूत आवश्यकताएँ भोजन, वस्त्र और सुरक्षा सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं। मानव किसी भी क्षेत्र में रहे, उसे भोजन अवश्य चाहिए परन्तु जिस प्रदेश में वह रहता है, उसी के वातावरण के अनुसार उसका भोजन होता है। विषुवरेखीय प्रदेश में वह साबूदाना, केला और सूअर का माँस खाता है। अलास्का जैसे प्रदेशों में मछली, उसका मुख्य भोजन है। जहाँ वनस्पति का आधिक्य होगा तो वहाँ का निवासी उसी वनस्पति से भोजन प्राप्त करेगा। घास के मैदानी भागों में पशुपालन से मनुष्य अपनी यह दैनिक आवश्यकताएँ दूध और माँस से प्राप्त करेगा।
मानव की दूसरी आवश्यकता वस्त्रों की है। उदाहरण के लिए, तिब्बत के ऊँचे पठारों पर मनुष्य विशेष प्रकार के ऊनी लम्बे कोट, ऊनी पाजामे, चमड़े के लम्बे जूते पहनते हैं जिससे वे उस प्रदेश की भयंकर शीत से बच सकें। टूण्डा प्रदेशों में निवास करने वाले एस्किमो चमड़े के कपड़े पहनते हैं जो वहाँ पाये जाने वाले रेण्डियर अथवा सील मछली अथवा वहाँ पाये जाने वाले फर वाले जीवों से प्राप्त करते हैं।

सुरक्षा पर भी वातावरण का प्रभाव पड़ता है। तिब्बत में नीची चौरस छतें, ईंट अथवा पत्थर से बनी चौड़ी दीवारें, चिमनियों का अभाव यह स्पष्ट करता है कि वहाँ सर्दी अधिक पड़ती है और सर्दी से बचने के लिए इस प्रकार के मकानों का निर्माण आवश्यक है। इसके विपरीत, सूडान में शिलुक गर्मी से बचने के लिए घास के पुलिन्दों को घेरे के रूप में छत बनाकर काम चला लेते हैं। वर्षा कम होने से वर्षा से बचाव करने की कोई आवश्यकता अनुभव नहीं होती। केवल कड़ी धूप से बचाव के लिए हवादार झोपड़ियाँ बना ली जाती हैं। ध्रुवीय क्षेत्रों में एस्किमो अपने मकान (इग्लू) बर्फ को काटकर उसमें भीतर की ओर रेण्डियर की खाल लगाते हैं जिससे वह गरम रहती है। इस प्रकार मकान अथवा निवास सभी प्रदेशों में वहाँ के वातावरण के अनुसार निर्मित किये जाते हैं।

मानव की औजार और हथियारों पर भी छाप स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। पत्थरों की अधिकता वाले प्रदेश में पत्थर के हथियार तथा वन प्रदेशों में लकड़ियों के हथियार बनाये जाते हैं। तिब्बत के कृषक खेती के लिए कुदाल, हल, टोकरियों का उपयोग सभी लकड़ियों से करते हैं।

2. व्यवसाय
मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वही व्यवसाय करता है जिनके लिए उसके भौगोलिक वातावरण और विकास की अवस्था उचित अवसर प्रदान करते हैं। मध्य अफ्रीका के घने जंगलों में बौने लोग घुमक्कड़ शिकारी होते हैं क्योंकि वहाँ यही व्यवसाय वातावरण के अनुकूल है। अत्यधिक सघन वन और आर्द्र जलवायु के कारण कृषि सम्भव नहीं है तथा नीग्रो के अधिक विकसित दल इन बौनों को बहुत दूर तक खदेड़ देते हैं। अत: वे झीलों या नदियों के समीप रहकर मछली आदि पकड़ने का भी व्यवसाय नहीं कर पाते हैं। यहाँ के निवासी बाजारों के अभाव में लकड़ियाँ भी नहीं काटते। खनिजों का अभाव होने से खाने खोदने का व्यवसाय भी नहीं हो पाता।
समुद्रतटीय प्रदेशों; जैसे- जापान, ग्रेट ब्रिटेन में मछली पकड़ने का कार्य महत्वपूर्ण है क्योंकि उपजाऊ भूमि की कमी तथा जनसंख्या का तटों पर बसने के कारण मछली पकड़ना एक महत्वपूर्ण व्यवसाय हो गया है। ये देश संसार के प्रमुख मछली पकड़ने वाले देश हैं। उत्तरी-पश्चिमी आस्ट्रेलिया तथा उत्तरी मैक्सिको में शुष्क जलवायु कृषि के लिए अनुपयुक्त है अत: इन प्रदेशों में उत्पन्न होने वाली घासों पर पशुपालन मुख्य व्यवसाय हो गया है। इन प्रदेशों के निवासी पशुपालक हैं।
अधिक उपयुक्त प्रदेशों में डेनमार्क, न्यूजीलैण्ड, अर्जेण्टाइना तथा उत्तरी-पूर्वी संयुक्त राज्य अमेरिका में समान धरातल, उपयुक्त तापमान और अन्य आर्थिक स्रोतों के अभाव में कृषि मुख्य व्यवसाय हो गया है। इसी प्रकार उत्तरी नॉर्वे के पहाड़ी भागों में वन-सम्पदा के कारण लकड़ी काटने का उद्योग प्रमुख व्यवसाय है। इसके विपरीत मध्य संयुक्त राज्य अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैण्ड आदि देशों में लौह-अयस्क और कोयले की बहुलता के कारण न केवल खाने खोदना वरन् निर्माण उद्योगों का विकास हो सका है। नीदरलैण्ड, जर्मनी और इंग्लैण्ड नदी के मुहाने पर होने के कारण ये व्यापारिक महत्व के राष्ट्र हैं।
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि मानव के प्रमुख व्यवसायों को करने के तरीके भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न हैं। कृषक नगरों में नहीं रह सकते, शिकारी, लकड़हारे तथा कृषक सभी के कार्य करने के ढंग में भिन्नता पायी जाती है। यही बात यातायात, व्यापार और निर्माण उद्योग में लगे व्यक्तियों में मिलती है। वास्तविकता यह है कि ये सभी व्यवसाय और उनके करने के ढंग एक-से ही भौगोलिक वातावरण द्वारा प्रभावित होते हैं। यह वातावरण के विभिन्न उपादानों की अभिव्यंजना मात्र है और यह अभिव्यक्ति संस्कृति के विकास के स्तर पर निर्भर करती है। पिछड़े हुए देशों में कुछ ही उद्योग मिलते हैं जो स्थानीय वातावरण के स्रोतों का उपयोग कम ही करते हैं, जबकि अधिक विकसित देशों में इन स्रोतों का उपयोग अधिक मात्रा में किया जाता है।

3. भौगोलिक वातावरण एवं चातुर्य
अधिकांश प्रजातियों की सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि उनमें काम करने की क्षमता है किन्तु वे उनका पूरा उपयोग नहीं करतीं। उनमें से कुछ सुस्त होती हैं और उनमें आत्म-बल का अभाव मिलता है जिससे वे किसी काम को सुचारु रूप से करने में सक्षम नहीं होती। इसका मुख्य कारण उन जातियों में स्वास्थ्य और स्फूर्ति का अभाव पाया जाना है। स्वास्थ्य एवं स्फूर्ति वंशानुगत गुण न होकर इस पर निर्भर करता है कि मानव कौन-सा उद्योग करता है और अपनी पार्थिव आवश्यकताओं की पूर्ति किस प्रकार करता है। उसके वातावरण से भी स्फूर्ति का सीधा सम्बन्ध है तथा यन्त्रों के अत्यधिक प्रयोग जिससे अप्राकृतिक दशा में बैठकर काम अधिक करने से भी स्वास्थ्य तथा स्फूर्ति कम होती है। अस्तु, मानव के स्वास्थ्य और स्फूर्ति का घनिष्ठ सम्बन्ध उसके वातावरण पर निर्भर करते हैं जिसमें मनुष्य निवास करता है।

4. मानव की उच्च आवश्यकताएँ
मानव की सभी उच्च आवश्यकताएँ उस प्रदेश के भूगोल द्वारा प्रभावित होती हैं। वही राष्ट्र या प्रजाति उन्नत समझी जाती है जो सरकार, शिक्षा, विज्ञान, धर्म, कला, साहित्य एवं अन्य सांस्कृतिक कार्यों में रुचि रखती है। ये उच्च आवश्यकताएँ भौगोलिक दशाओं के अतिरिक्त जातीय गुणों, ऐतिहासिक विकास पर निर्भर करती हैं।
भौगोलिक प्रभाव निम्नांकित पाँच प्रकार से कार्य करता है-
  1. जनसंख्या का घनत्व
  2. समृद्धि की सीमा
  3. एकाकीपन
  4. रुचियों, स्रोतों, उद्योगों के प्रति स्थानीय विभिन्नता
  5. स्फूर्ति।
  1. अधिक घने बसे क्षेत्रों में मानव आपस में मिलकर अपने विचारों का आदान-प्रदान करता है। अत: साधारणत: ये विस्तृत विचारों वाले शिक्षित एवं नये वातावरण से सामंजस्य स्थापित करने वाले होते हैं। शिक्षा, आमोद-प्रमोद तथा धार्मिक स्थानों की सुविधा प्राप्त होती है, जबकि कम बसे क्षेत्रों के निवासी प्राय: संकुचित विचार वाले और अशिक्षित होते हैं परन्तु कभी-कभी अधिक जनसंख्या वाले क्षेत्रों में जब उपलब्ध भोज्य-सामग्री से जनसंख्या अधिक बढ़ जाती है तो भुखमरी, व्याधियाँ और बेरोजगारी बढ़ जाती हैं।
  2. जहाँ अनुकूल भौगोलिक दशाओं के कारण मानव सुखी और समृद्ध होता है, वहाँ ज्ञान, विज्ञान, साहित्य, कला और व्यापार को प्रोत्साहन मिलता है। निर्धन देश इस दृष्टि से पिछड़े रहते हैं।
  3. जब कोई देश दसरे देश की पर्वतमालाओं या समद्र से पथक होता है तो वहाँ के निवासी पिछडे रह जाते हैं। उनकी विचारधाराएँ संकीर्ण, रूढ़िवादी एवं शंकालु हो जाती हैं किन्तु जब वह एकाकीपन यातायात के साधनों के विकास आदि के कारण दूर होने लगता है तो धीरे-धीरे परिस्थितियाँ परिवर्तित होने लगती हैं।
  4. भौगोलिक दशाओं का प्रभाव मानव की कला, धर्म, सरकार, शिक्षा और संस्कृति के विभिन्न पहलुओं पर पड़ता है। जब कोई देश छोटा होता है जहाँ जलवायु समान और निवासियों की रुचियाँ एक-सी होती हैं तो उन्हें सरकार द्वारा एक ही सूत्र में बाँधा जा सकता है। धर्म पर भी वातावरण अपना प्रभाव डालता है। पूजा करने का ढंग और मानव के धार्मिक विचार वातावरण की ही उपज होते हैं। भारत में जहाँ वर्षा अनिश्चित होती है, वहाँ वरुण देवता की पूजा की जाती है। ऊँचे एण्डीज पर्वतीय भागों में जहाँ गर्मी का अभाव रहता है, वहाँ सूर्य की पूजा की जाती है।
  5. इन सभी के अतिरिक्त देश की राजनीति, शिक्षा, विज्ञान, कला और धर्म पर मानव की स्फूर्ति एवं कार्य करने की क्षमता का भी प्रभाव पड़ता है और यह स्फूर्ति और क्षमता जलवायु, भोजन एवं रहन-सहन द्वारा प्रभावित होती है।
अन्त में, कहा जा सकता है कि उन्नतिशील मानव समुदाय के सांस्कृतिक विकास और आर्थिक प्रगति के लिए भौतिक, सांस्कृतिक एवं मानवीय दशाओं का अनुकूल होना अत्यधिक आवश्यक है।

प्रो. ब्रश का मत
प्रो. ब्रून्श ने मानव भूगोल की आवश्यक विषय-सामग्री को दो आधारों पर वर्गीकृत किया है-
  1. सभ्यता के विकास के आधार पर
  2. यथार्थ या धनात्मक वर्गीकरण (जो सांस्कृतिक तथ्यों पर आधारित है) के आधार पर।

1. सभ्यता के विकास के आधार पर
सभ्यता के विकास के आधार पर मानव भूगोल के तथ्यों को निम्नांकित चार भागों में वर्गीकृत किया गया है-
  1. मानव जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं का भूगोल
  2. भूमि शोषण अथवा विदोहन सम्बन्धी भूगोल
  3. सामाजिक भूगोल
  4. राजनीतिक एवं ऐतिहासिक भूगोल।

1. मानव जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं का भूगोल
मानव की प्रमुख अनिवार्य आवश्यकता भोजन और जल है। उनकी पूर्ति के लिए मानव को विभिन्न क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। शुष्क प्रदेशों में जल का महत्व, मानव के लिए बहुत अधिक है। इनकी सभी यात्राएँ, मार्गों का आयोजन और उनके आक्रमण की योजनाओं में जल-प्राप्ति के स्थानों का ध्यान रखा जाता है। सभी स्थानों पर जल मानव क्रियाओं का प्रमुख आधार होता है। प्राचीन काल से आज तक सभी मानव संस्कृतियों का विकास जल के क्षेत्रों के निकट ही हुआ है। मानव अपना भोजन पौधों और पशु-पक्षियों से प्राप्त करता है। ये पशु-पक्षी जो मानव के भोजन के मुख्य अंग हैं, वे स्वयं भी उन पेड़-पौधों पर ही निर्भर रहते हैं। अत: मानव का भोजन, परोक्ष एवं अपरोक्ष रूप से कृषिगत वस्तुओं अथवा प्राकृतिक रूप से पैदा होने वाली वनस्पति से ही मिलता है। जब धरातल पर मिलने वाले भोजन और जल का बार-बार प्रयोग किया जाता है तो मानव उसमें परिवर्तन करता है।
मानव शरीर को सामान्य तापमान पर रखना आवश्यक होता है । अत्यन्त निम्न तापक्रम जीवन को कठिन कर देते हैं। इसी शारीरिक आवश्यकता के कारण ऊँचे पहाड़ों और पठारों पर मानव जीवन सीमित हो जाता है किन्तु विषम जलवायु दशाओं से सामंजस्य स्थापित करने में मानव को प्रकृति द्वारा सहयोग मिलता है। संसार के कुछ प्रदेशों में वस्त्रों की आवश्यकता बहुत ही कम पड़ती है किन्तु ठण्डे या शुष्क गर्म प्रदेशों में वस्त्रों की तीव्र आवश्यकता अनुभव की जाती है जहाँ वस्त्रों द्वारा न केवल अत्यधिक गर्मी से ही बचाव होता है वरन् दैनिक विकिरण एवं वाष्पीकरण से भी। कुछ क्षेत्रों में मानव बिना वस्त्रों के ही रहता है।
यद्यपि भोजन की अपेक्ष वस्त्रों की आवश्यकता पूरी तरह न तो सार्वभौमिक ही है और न ही मुख्य, फिर भी भौगोलिक दृष्टि से वस्त्रों का महत्व कम नहीं है क्योंकि इनकी प्राप्ति उसे सभी स्थानों पर पशु या पौधों द्वारा होती है। इस प्रकार वस्त्रों की प्राप्ति के लिए उसे भौतिक वातावरण पर काफी सीमा तक निर्भर रहना पड़ता है।

2. भूमि के विदोहन सम्बन्धी भूगोल
मानव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाने मात्र से ही सन्तुष्ट नहीं हो जाता। वह केवल शिकार, कन्दमूल, फल-फूल एकत्रित करने तथा शिकार करने की अपेक्षा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए स्वयं मस्तिष्क से सोच कर पशु-पौधों, खनिज पदार्थों आदि की प्राप्ति के उपरान्त उन्हें सुरक्षित रखने की योजनाएँ भी बनाता है। फलत: वह कार्य करने के लिए प्रेरित होकर कार्य करता भी है। वह खेती करता है, पशु पालता है, खानें खोदता है, इनके करने से भौतिक वातावरण में परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं। खाद्यान्नों का उत्पादन खेत या उद्यानों के रूप में व्यक्त होता है, पुराने ढंग का पशुपालन छोड़कर विस्तृत भू-भाग पर पशुपालन करता है। दूर-दूर के क्षेत्रों में जाकर सोना, शोरा अथवा अन्य खनिज प्राप्त करता है। इन सबका विदोहन करता है। बून्श के अनुसार, ये ऐसे तथ्य हैं जो अन्य तथ्यों से भिन्न हैं अत: इन्हें एक अलग ही श्रेणी में रखा गया है। इन तथ्यों का अध्ययन कृषि भूगोल, पशुपालन भूगोल और संसाधन भूगोल के अन्तर्गत किया जाता है।

3. सामाजिक भूगोल
आज भी मानव की सबसे प्राचीनतम एवं प्राथमिक आवश्यकता और प्रवृत्ति अपने वंश का विकास करने की है। इसी कारण परिवार एवं समाज की उत्पत्ति हुई है, कहीं भी मानव अकेला नहीं रहता, वह समूह में निवास करता है इसीलिए कहा गया है कि "मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।” इस सामूहिक जीवन के कारण मनुष्य की क्रियाएँ जटिल हो जाती हैं और उसका श्रम भी विशिष्ट हो जाता है। प्राकृतिक पदार्थों को मानव सीधा ही काम में नहीं लेता वरन् उनके स्वरूप में भी परिवर्तन करता है। उसे प्राकृतिक संसाधनों के विदोहन और धन की प्राप्ति के लिए कृषि, पशुपालन और खनिज उत्पादन सम्बन्धी तकनीकी समस्या का न केवल हल ढूँढ़ना पड़ता है वरन् उसे अपने परिश्रम में भी समन्वय स्थापित करना पड़ता है। इसके फलस्वरूप आर्थिक और सामाजिक आदान-प्रदान का जन्म होता है और इस प्रकार क्रय-विक्रय द्वारा बाजारों का विकास होता है। मानव समूह के पारस्परिक संगठन, श्रम विभाजन, पारस्परिक सहयोग एवं निर्भरता, शासन, राज्य, नगर, ग्राम आदि का अध्ययन मानव भूगोल की एक विशेषता है।

4. राजनीतिक ऐतिहासिक भूगोल
शासन तथा राजनीति के तथ्यों का अध्ययन करना भी मानव की सभ्यता और विकास की अवस्था को प्रकट करता है। मानवीय तथ्यों और भौतिक वातावरण के पारस्परिक सम्बन्धों की उपेक्षा नहीं की जा सकती और न ही पार्थिव एकता के सिद्धान्त का ही त्याग किया जा सकता है। क्योंकि मानव इतिहास की सभी जड़ें पार्थिव वास्तविकता में छिपी हैं।

2. सांस्कृतिक तथ्यों के आधार पर धनात्मक ( यथार्थ) वर्गीकरण
बून्श अपने अनुभव के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि धरातल पर प्रथम स्वरूप मानव के वितरण का मिलता है । जहाँ-कहीं मानव का फैलाव मिलता है, वहीं अन्य स्वरूप भी मिलते हैं। इन स्वरूपों को सांस्कृतिक तथ्यों की संज्ञा दी गयी है। इनमें रेलमार्ग, सड़कें, घर, गाँव, कस्बा, नगर, खदानें, खेत, बाग-बगीचे, चरागाह, मैदान, कारखाने, हवाई अड्डे, बन्दरगाह आदि मुख्य हैं।

इन सांस्कृतिक तथ्यों को बून्श ने तीन प्रमुख तथा छ: उप-विभागों में बाँटा है-

(1) भूमि के अनुत्पादक व्यवसाय सम्बन्धी तथ्य
  • घर और उनके प्रकार, बस्तियाँ, भौगोलिक स्थानीयकरण, प्रकीर्ण एवं सघन, नगरीय समूह एवं नगरीय संचार, नगरों की आकृति, भौगोलिक विशेषता आदि।
  • राजमार्ग।

(2) पशु और वनस्पति पर मानव की विजय सम्बन्धी तथ्य
  • कृषि भूमि, कृषि फसले, वनस्पति का प्रकार एवं उत्पादन।
  • पालतू पशु एवं पशुजन्य पदार्थ, पशुओं का मौसमी स्थानान्तरण।

(3) विध्वंसात्मक आर्थिक तथ्य
  • खनिज पदार्थों का विदोहन।
  • पशुओं और वनस्पति का विनाश।

(1) भूमि के अनुत्पादक व्यवसाय सम्बन्धी तथ्य
इस तथ्य के अन्तर्गत भूमि के अनुत्पादक व्यवसाय सम्बन्धी तथ्यों का अध्ययन किया जाता है। इन शब्दों के अर्थ बड़े व्यापक रूप में व्यवहृत किये गये हैं। घर से तात्पर्य मानव निवास के निमित्त बनायी गयी सभी प्रकार की इमारतें, कार्यालय, पाठशाला, आमोद-प्रमोद के भवन, मन्दिर आदि से होता है। चाहे ये पत्थर से निर्मित हों या पीली, काली मिट्टी से बनाकर सूखी पत्तियों से छायी गयी हों। ये एक-दूसरे से निकट हों या दूर, छोटी या बड़ी, इनकी निर्माण व्यवस्था कम हो या अधिक। इस प्रकार 'घर' शब्द के अन्तर्गत असभ्य लोगों की झोपड़ियों से लेकर गगनचुम्बी अट्टालिकाओं, खिरगीज लोगों के तम्बओं से लेकर एस्किमो के इग्ल सभी को सम्मिलित किया जाता है क्योंकि इन सभी का उद्देश्य मानव को आश्रय देना है। जनसंख्या के घनत्व के अनुसार इनका घनत्व भी कम या अधिक होता है।
दूसरा अनुत्पादक तत्व सड़कें, रेलमार्ग आदि हैं। मार्ग से तात्पर्य छोटी-से-छोटी पगडण्डी से लगाकर नगरों की पक्की सडको तथा आल्पस. कैवीन्स और लेबनान में बनी सफेद सड़कों, रेलमार्गो, पुलो, सूरंगों आदि से है। सड़कों के चौराहे एवं बन्दरगाह भी इसी में सम्मिलित किये जाते हैं। घरों और मार्गों में गहरा भौगोलिक सम्बन्ध मिलता है। जहाँ जनसंख्या का घनत्व अधिक है, वहीं यह सम्बन्ध और भी गहरा हो जाता है।

(2) पशु और वनस्पति जगत पर मानव की विजय सम्बन्धी तथ्य
इसके अन्तर्गत पशु और पौधों पर विजय सम्बन्धी तथ्य सम्मिलित किये जाते हैं। धरातल पर जनसंख्या के अतिरिक्त इनका वितरण भी जनसंख्या के सघन होने के साथ-साथ गहरा होता जाता है। धरातल के कुछ भाग की आकृति निश्चित एवं नियमित होती है, इनका रंग मौसम के साथ परिवर्तित होता है- उजाड़ भूमि पर भूरा दृश्य दिखाई पड़ता है तो कृषि के उपयुक्त भूमि पर कभी मुलायम पौधों का रंग हरा और फिर पीला तथा भूरा हो जाता है। इन क्षेत्रों में मानव ने अपने उपयोग के लिए खेतों या उद्यानों के रूप में भूमि को जोत-बोकर काम में लिया है। मानव ने अपने उपयोग के लिए या ब्युस के पठार पर अनाज के खेत, भूमध्यसागरीय प्रदेशों में पहाड़ों पर सीढीदार खेत. पेरिस नगर के चारों ओर सब्जियाँ और फलों के उद्यान, चीन अथवा जापान में धान की छोटी-छोटी क्यारियाँ तथा सहारा में खजूर और उनके नीचे अनार, अंजीर, जौ, फलियाँ आदि की क्यारियाँ सभी मानव के अथक परिश्रम को व्यक्त करती हैं।
खेती तथा बागवानी के अतिरिक्त मानव ने अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए अनेक पशुओं को पालतू भी बनाया है जहाँ पहले वह जंगली पशुओं का शिकार कर उनको एकत्रित करने का ही काम करता था, वहाँ अब अपनी बुद्धि विकास से उसने सहारा अथवा शुष्क मरुस्थलों में कँटीली झाड़ियाँ खाने वाला पशु ऊँट, भूमध्य-सागरीय प्रदेशों की झुलसी हुई पत्तियों और घास को चरने वाली भेड़ों, आल्पस के ढालों पर सुन्दर मुलायम घास चरने वाली गायों, अरब प्रायद्वीप में घोडों. मिस्र में हल खींचने के लिए भैसों और टण्डा में स्लेज खींचने वाले कत्तों एवं रेण्डियर पशओं को पालतू बनाकर अपना जीवन अधिक सुगम बना लिया है। अपनी बुद्धि, बल और चतुराई से मानव ने इस क्षेत्र में सबसे अधिक उन्नति की है और उसने पौधों एवं वनस्पति पर विजय प्राप्त कर ली है।

(3) विध्वंसात्मक आर्थिक तथ्य
मानव ने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही अनेक विध्वंसकारी आर्थिक क्रियाओं द्वारा कुछ ऐसे कार्य भी किये हैं जिन्हें आर्थिक लूट (Economic Plunder) कहा गया है। धरातल पर घरों के निकट ही यत्र-तत्र भूमि को खोदा गया है, उन्हें बिना भरे ही छोड़ दिया जाता है जैसा कि आज वर्तमान में महानगरों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ईंटों के निर्माण के लिए किया जाता है। खनिज पदार्थ, पत्थर, गंधक, नमक आदि प्राप्त करने के उपरान्त भूमि के गड्ढों को भरा नहीं जाता जिससे भूमि का कटाव आरम्भ होकर उपजाऊ भूमि का कटाव प्रारम्भ हो जाता है। एक बार निकाले गये खनिजों की दोबारा पूर्ति नहीं की जा सकती। इसी प्रकार जहाँ पहले वन फैले थे और इनमें पशुओं का शिकार किया जाता था,
वहाँ इतनी तेजी से वनों का विनाश किया जाने लगा कि अब वनस्पति के नाम पर वहाँ झाडियाँ मात्र ही उपलब्ध होती हैं। जहाँ पहले घास के मैदान पाये जाते थे, वहाँ पशुओं द्वारा इतनी निर्दयता से चराई की गयी कि अब वहाँ भूमि वनस्पतिविहीन होकर भूमि कटाव का भयंकर दृश्य उपस्थित करती है। वनस्पति क्षेत्र में मानव की विध्वंसात्मक क्रियाओं के अन्तर्गत जंगली कन्द-मूल, फल-फूल एकत्रित करना, वृक्षों को काटना, वनों को जला डालना, मछलियाँ पकड़ना आदि सम्मिलित किये जाते हैं। घुमक्कड़ लोगों द्वारा कृषि योग्य मरुद्यानों का विनाश, कांगो और अमेजन के वनों में रबड़ के वृक्षों का अवांछित उपयोग इतनी शीघ्रता से बढ़ा है जितना कि सुन्दर परों वाले पशुओं, फरदार लोमड़ियाँ और हाथी दाँत के लिए हाथियों का विनाश हुआ है।
प्रस्तुत उदाहरणों से स्पष्ट है कि मानव पृथ्वी के ऊपरी धरातल पर तथा उसके गर्भ से उन वस्तुओं को नष्ट कर देता है जिनके सृजन में उसका कोई सहयोग नहीं होता। अत: ऐसी क्रियाएँ निर्मम हत्या से किसी प्रकार कम नहीं हैं।

फिंच एवं ट्रिवार्था का वर्गीकरण
इन्होंने धरातल पर दो श्रेणियों के अन्तर्सम्बन्धित तथ्य बताये। प्रथम श्रेणी के तथ्य प्रकृति की देन होते हैं। इनमें जलवायु, धरातल के स्वरूप, मिट्टियाँ, खनिज पदार्थ, प्रवाहित जल, प्राकृतिक वनस्पति एवं पशु जीवन सम्मिलित हैं। द्वितीय श्रेणी में वे तथ्य सम्मिलित हैं जिन्हें मानव ने प्राकृतिक तथ्यों की सहायता लेकर धरातल पर निर्मित किया है, यथा- जनसंख्या, निवास स्थान, कृषि, पशु उद्योग और परिवहन के साधनों को शामिल किया गया है। फिन्च एवं ट्रिवार्था' द्वारा लिखित 'भूगोल के तत्व' (Elements of Geography) नामक पुस्तक में ये धरातल पर मानव की विभिन्न आर्थिक क्रियाओं को व्यक्त करते हैं।

प्रो. परपिल्लो का मत
फ्रांसीसी भूगोलवेत्ता प्रो. ए. बी. परपिल्लो ने मानव भूगोल के क्षेत्र को निम्न चार श्रेणियों में विभक्त किया है :-

(1) मानवीय विकास के घटक
इसके अन्तर्गत इन तथ्यों को सम्मिलित किया गया है-
  • मानव और प्राकृतिक वातावरण-जलवायु का प्रभाव, वनस्पति का कार्य, प्रमुख प्रजातीय-भौगोलिक प्रदेश (Anthropo-geographical), भौतिक घटक (Physiographic factors) भू-रचना, मिट्टी, जलाशय आदि।
  • मानव और सभ्यता-तकनीकी विकास, कृषि एवं पशुपालन
  • मानव समाज, समूह, भाषा, धर्म, संस्कृति आदि।

(2) वातावरण अनुकूलन के रूप
इसके अन्तर्गत
  • शीत-प्रधान देशों में जीवन
  • समशीतोष्ण प्रदेश
  • उष्ण कटिबन्धीय प्रदेश
  • शुष्क प्रदेश
पर्वतीय प्रदेश और समुद्रतटीय प्रदेशों में मानव जीवन के विकासमान स्वरूप को सम्मिलित किया गया है।

(3) तकनीकी घटक और मानव उद्धार की अवस्थाएँ
इसमें इन तथ्यों पर जोर दिया गया है-
  • तकनीकी विकास
  • औद्योगिक जीवन का विकास
  • निर्माणी उद्योगों का विकास एवं वितरण
  • प्रमुख निर्माणी उद्योगों की प्रगति एवं स्थायित्व और
  • व्यापार और परिवहन के मार्ग।

(4) मानव निवास
  • जनसंख्या की वृद्धि एवं वितरण
  • मानव प्रवास तथा अत्यधिक जनसंख्या
  • निवास-गृह
  • नगर और
  • राज्य और राष्ट्र।
उपर्युक्त तीनों ही विद्वान् (ब्लॉश, बून्श एवं परपिल्लो) फ्रांसीसी हैं। इनके द्वारा मानव भूगोल के व्यवस्थित विकास हेतु किये गये प्रयास की समकालीन विद्वानों ने विशेष प्रशंसा की है।

प्रो. डिमांजियाँ का मत
डिमांजियाँ मानव भूगोल के मानव समूहों एवं समाजों के प्राकृतिक वातावरण से सम्बन्ध की व्याख्या करते हैं। उनके इस अध्ययन के चार स्वरूप हैं-
  • विश्व के वृहद् प्राकृतिक कटिबन्धों में जीवन के विशेष प्रकार चाहे वे जलवायु या वनस्पति एवं मिट्टी के प्रदेश हों
  • आर्थिक क्रियाओं के विभिन्न स्वरूप में व्यक्त होते हैं
  • मानव बसाव की सीमाएँ, विस्तार, घनत्व एवं मानव प्रवास और
  • मानव अधिवास के विभिन्न प्रारूप हों।

अमेरिका के प्रो. ह्वाइट और रैनर ने मानव भूगोल के विषय-क्षेत्र को तीन भागों में बाँटा है :-
  1. सामाजिक आँकड़े (Social Data), जो कि मानवीय क्रियाओं से उत्पन्न होते हैं
  2. भौतिक तत्व (Physical material) जिनकी उत्पत्ति प्राकृतिक विधियों द्वारा होती है; एवं
  3. इनके पारस्परिक सम्बन्धों का प्रभाव (Abstract relationship), जो कि एक-दूसरे पर पड़ता रहता है।
इन दोनों विद्वानों के अनुसार मानव भूगोल में सामंजस्य (Adjustment) और (Relationship) का ही अध्ययन प्रमुख है। सामंजस्य तीन प्रकार से सम्भव है-
  1. आर्थिक सामंजस्य, जिनके द्वारा मानव अपने चारों ओर के भौतिक वातावरण से प्रभावित होकर विशेष प्रकार की आर्थिक क्रियाओं का विकास कर उनमें सामंजस्य स्थापित करता है।
  2. सामाजिक एवं सांस्कृतिक सामंजस्य, जिसमें जनसंख्या के विभिन्न अंगों सघनता, सामाजिक वर्ग, प्रजातियाँ, मानव निवास, गृह एवं बस्तियाँ, भोजन, वेश-भूषा, धार्मिक विश्वास आदि सम्मिलित किये जाते हैं।
  3. राजनीतिक सामंजस्य।

प्रो. रॉक्सबी का मत
प्रो. रॉक्सबी (Roxby) ने भी मानव भूगोल के विषय-क्षेत्र को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। 1930 में ब्रिटिश भूगोल संगठन के प्रमुख भूगोल प्रकोष्ठ के सभापति पद से दिये गये भाषण में उन्होंने अपने विचारों को रखा। इन्होंने मानव भूगोल के क्षत्र में-
  1. मानव द्वारा अपने भौतिक वातावरण से की जाने वाली अभिव्यंजना
  2. विभिन्न अभिव्यंजनाओं के फलस्वरूप अन्तर-प्रादेशिक सम्बन्धों का विश्लेषण तथा
  3. इन विभिन्न प्रदेशों में रहने वाले समुदायों का भौतिक निरूपण आदि तथ्यों को सम्मिलित किया है। मानव भूगोल को वे नियन्त्रण का विज्ञान न मानते हुए अन्तर्सम्बन्धों का विज्ञान मानते हैं।
उपर्युक्त विचारों से स्पष्ट होगा कि भिन्न-भिन्न विद्वानों ने मानव भूगोल के विषय-क्षेत्र को भिन्न-भिन्न प्रकार से विश्लेषित करने का प्रयास किया है। सच तो यह है कि मानव भूगोल अभी भी पूरी तरह परिपक्व विज्ञान नहीं हो पाया है। यह विज्ञान अभी अपने विकास की अवस्था में है। अतएव मानव से सम्बन्ध रखने वाले सभी नवस्वरूपित एवं परम्परागत विषयों को सही प्रकार से विभिन्न विभागों में निश्चित रूप से नहीं बाँटा जा सका है। इस सम्बन्ध में प्रो. हाउस्टन के विचार महत्वपूर्ण हैं। वे कहते हैं कि “मानव भूगोल की विषय-सूची को व्यवस्थित करने और उसमें औपचारिक सिद्धान्त बनाने के प्रयत्नों को स्वीकार करने की कोई आवश्यकता नहीं है। मानव भूगोल के क्षेत्र में वस्तुतः मानव और वातावरण से सम्बन्धित सभी तथ्यों का समावेश होना आवश्यक है तथा इन विभिन्न तथ्यों का प्राकृतिक शक्तियों से पृथक् करना असम्भव है।"

अत: निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि मानव भूगोल के अन्तर्गत पृथ्वी के विभिन्न प्रदेशों के भौगोलिक वातावरण एवं मानव समूहों के अन्तर्सम्बन्धों में क्रिया-प्रतिक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है। इस दृष्टि से मानव भूगोल का विषय-क्षेत्र व्यापक माना गया है। इसमें छ: तथ्यों पर विशेष रूप से जोर दिया जाता है :-
  • मानव भूगोल के अर्थ, क्षेत्र, उसके तथ्य, उसके सिद्धान्त, उसका विकास एवं अन्य सामाजिक विज्ञानों से उसका सम्बन्ध।
  • प्राकृतिक वातावरण के विभिन्न अवयवों का मानव के क्रिया-कलापों पर प्रभाव एवं उनसे सम्बन्ध।
  • मानव का उद्गम क्षेत्र, मानव की प्रजातियाँ और उनका वितरण।
  • जनसंख्या- वितरण, घनत्व, विकास, समस्याएँ, प्रवास आदि।
  • मानव अधिवास- ग्रामीण एवं नगरीय, उनके प्रारूप व स्वरूप, परिवहन के साधन आदि।
  • मानव की अर्थव्यवस्थाएँ, उनमें होने वाला निरन्तर क्रमिक विकास एवं स्वरूप, मानव की अन्य आधारभूत आवश्यकताएँ।
  • इसके अतिरिक्त, मानव भूगोल में मानव समूहों का सामाजिक व आर्थिक संगठन, साहित्य, कला, धार्मिक विश्वास, मनोरंजन, लोक साहित्य आदि का भी अध्ययन किया जाता है।

मानव भूगोल की शाखाएँ

मानव भूगोल के अन्तर्गत न केवल मानव और उसके वातावरण के आर्थिक एवं भौतिक सम्बन्धों का ही अध्ययन किया जाता है वरन् भूगोल से सम्बन्धित अन्य शाखाओं-आर्थिक भूगोल, राजनीतिक भूगोल, प्रजातीय भूगोल एवं ऐतिहासिक भूगोल आदि का मानव की कार्यक्षमता, स्वास्थ्य, शिक्षा, कला, विज्ञान, सरकार, राजनीतिक और धर्म पर पड़ने वाले प्रभाव का भी अध्ययन किया जाता है।
मानव भूगोल को अग्र शाखाओं में विभाजित किया जाता है-
  1. आर्थिक भूगोल
  2. सामाजिक भूगोल
  3. राजनीतिक भूगोल
  4. ऐतिहासिक भूगोल
  5. जनसंख्या भूगोल
  6. सांस्कृतिक भूगोल
  7. चिकित्सा भूगोल
  8. सामरिक भूगोल
  9. प्रजातीय भूगोल

1. आर्थिक भूगोल
आर्थिक भूगोल, मानव भूगोल की ही एक शाखा है जिसका मुख्य सम्बन्ध मनुष्य के भोजन, वस्त्र और आवास की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए मनुष्य द्वारा किये गये उत्पादक कार्यों से ही है। पृथ्वी के धरातल एवं उस पर मिलने वाले प्राकृतिक साधनों का ‘क्यों?', 'कहाँ?' और 'कैसे?' उपयोग होता है, इसका विश्लेषणात्मक अध्ययन ही आर्थिक भूगोल का मूल उद्देश्य है। विश्व के भिन्न-भिन्न भागों में मानव समुदाय अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भिन्न-भिन्न जीविकोपार्जन के साधनों-लकड़ी काटना, मछली पकड़ना, शिकार करना, खेती करना, भोज्य पदार्थ एकत्रित करना, खाने खोदना, उद्योग-धन्धे चलाना, व्यापार करना और नौकरी आदि व्यवसाय में व्यस्त रहना है। उसके इन आर्थिक कार्यों पर मिट्टी, भूमि की बनावट, जलवायु, वनस्पति, खनिज संसाधन, भौगोलिक स्थिति, यातायात की सुविधा, जनसंख्या का घनत्व आदि वातावरण के विभिन्न अंगों का प्रभाव पड़ता है। एक आर्थिक भूगोलवेत्ता का मुख्य उद्देश्य मानव प्रयत्नों पर पड़ने वाले वातावरण के प्रभाव का मूल्यांकन कर उसका विश्लेषण करना है।
आधुनिक काल में किसी क्षेत्र के आर्थिक विकास को नापने का मुख्य ढंग वहाँ पाये जाने वाले यातायात के विभिन्न साधनों का अध्ययन करना है क्योंकि इन्हीं के द्वारा मानव का सम्पर्क अन्य क्षेत्रों के निवासियों से हो पाता है। इस प्रकार धीरे-धीरे मानव की आर्थिक क्रियाओं में परिवर्तन एवं विकास होता जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि आर्थिक भूगोल परिवर्तनशील है जिसका केन्द्र-बिन्दु 'मनुष्य' और 'स्थान' है। इसके अन्तर्गत यह अध्ययन किया जाता है कि वह किस प्रकार योजनाबद्ध रीति से अपने निवास स्थान के भौतिक एवं आर्थिक स्रोतों का उपयोग करता है और किस प्रकार समाज के हित में उनका वितरण करता है। अस्तु, आर्थिक भूगोल विज्ञान की एक विशेष शाखा है और यह सामाजिक विज्ञान से सम्बन्धित है।

2. सामाजिक भूगोल
सामाजिक भूगोल का उद्देश्य यह बताना है कि मानव समाज चाहे वह ग्रामीण हो अथवा नगरीय, परिस्थितिविज्ञान (Ecology) और उसके बीच एक घनिष्ठ सम्बन्ध है। मानव अपने विशिष्ट भौगोलिक वातावरण के बीच स्थान, भोजन और आश्रय तथा प्राकृतिक साधनों पर नियन्त्रण करने हेतु निरन्तर संघर्ष करता रहता है। उसके इस संघर्ष की प्रकृति और वातावरण का चरित्र ही समाज के मुख्य पहलुओं और लक्षणों को निर्धारित करते हैं। हम चाहे कनाडा के जंगलों में लकड़हारा समुदाय, मलेशिया के रबड़ के खेतों में काम करने वाले श्रमिकों, लंकाशायर की कोयलों की खानों में कार्य करने वाले श्रमिकों, मैक्सिको के उच्च प्रदेश में पशु चराने वाले घुमक्कड़ पशुपालकों तथा हंगरी के मैदानों में खेती करने वाले कृषकों आदि किसी के बारे में भी खोज करें तो उनकी क्रियाओं पर भौगोलिक स्थितियों का प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। उनकी सामाजिक व्यवस्था और सामाजिक जीवन का ताना-बाना उनके अपने वातावरण से ही सम्बन्धित मिलेगा।
जब कोई समुदाय अपने आर्थिक विकास की योजना में एक अवस्था छोड़कर दूसरी अवस्था में पहुँचता है तो उसके इस सम्पूर्ण आर्थिक परिवर्तन के साथ-साथ समाज की मनोवैज्ञानिक रचना, सामाजिक व्यवस्था और सामाजिक सम्बन्धों में भी क्रमागत रूप से परिवर्तन होता है। आर्थिक परिवर्तन के साथ-साथ किस प्रकार सामाजिक परिवर्तन उन्मुख होते हैं, इसका अध्ययन सामाजिक भूगोल का केन्द्र-बिन्दु है।

प्रो. वाटसन ने सामाजिक भूगोल की महत्ता इन शब्दों में व्यक्त की है- “यदि भूगोल पृथ्वी के नक्षत्र का विज्ञान है अथवा परिस्थिति (Ecology) प्रभाव का विज्ञान है अथवा वस्तु वितरण का विज्ञान है अथवा खण्ड-विखण्डों का विज्ञान है तो इसके सामाजिक सामंजस्यों का अध्ययन करने के लिए ऐसी सामाजिक शक्तियों, जैसे- सहयोग एवं प्रतिस्पर्धा, योग, संकेन्द्रीकरण, पृथकता, आक्रमण और वंशानुगत गुण का अध्ययन करना भी आवश्यक होगा जिनके फलस्वरूप उस क्षेत्र-विशेष के सामाजिक प्रतिमान उत्पन्न होते हैं। सामाजिक अंशों के अध्ययन को त्यागना उचित नहीं है क्योंकि सामाजिक प्रभाव भू-पटल, वातावरण, वस्तु-वितरण और खण्ड-विखण्ड भेद के निर्माण में सहायक होते हैं।"

3. राजनीतिक भूगोल
राजनीतिक भूगोल का मूल उद्देश्य विभिन्न राज्यों की प्रकृति, उनकी व्यवस्था और उनके आपसी सम्बन्धों पर पड़ने वाले भौगोलिक अवस्था के प्रभावों की खोज करना है। राजनीतिक भूगोल का स्थान सांस्कृतिक विज्ञान के क्षेत्र में (जो कि मानवता का अध्ययन करता है) अत्यधिक महत्वपूर्ण हो गया है। अब यह निश्चित मान्यता है कि एक देश का विस्तार, प्राकृतिक दशा, नैसर्गिक संसाधन, मिट्टी की उर्वरता, जनसंख्या का घनत्व और उसमें प्रजातियों का स्थान तथा उसके निकटवर्ती राजनीतिक ढाँचे, सरकार के स्वरूप और उसके पड़ोसी देशों के सम्बन्धों को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। इसके कई उदाहरण हैं, जैसे- बाल्कन प्रायद्वीप की भौगोलिक रचना, तुर्क, सरबियस और यूगोस्लेवियन लोगों के पारस्परिक मेल-जोल के बीच सबसे बड़ी बाधा विभिन्न घाटियों के रक्षित प्रदेशों में निवास करने वाले इन लोगों में केवल भाषा सम्बन्धी अन्तर ही नहीं है अपितु अनेक सामाजिक और राजनीतिक विषमताएँ भी हैं।

4. ऐतिहासिक भूगोल
ऐतिहासिक भूगोल में इस तथ्य का अध्ययन किया जाता है कि एक राष्ट्र की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में भौगोलिक अवस्थाओं का अवश्यम्भावी प्रभाव रहता है। यह सर्वविदित है कि सम्पूर्ण ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में कई आकस्मिक घटनाएँ तथा शासकों की व्यक्तिगत कुशलता छिपी होती है लेकिन इस तथ्य में कोई दो मत नहीं हैं कि धरातल, स्थिति (महाद्वीपीय या सामुद्रिक), प्राकृतिक बाधाएँ, भौगोलिक एकान्तता और राज्य या प्रदेश का विस्तार आदि ऐसी भौगोलिक अवस्थाएँ हैं जो एक राष्ट्र की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को निर्धारित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। अगर यूरेशिया महाद्वीप के इतिहास का अध्ययन किया जाय तो स्पष्ट होगा कि किस प्रकार भौगोलिक अवस्थाओं ने उसके सम्पूर्ण ऐतिहासिक मार्ग को निर्धारित किया है। यूरेशिया महाद्वीप के इतिहास का प्रारम्भ नील घाटी सभ्यता से होता है। उसके बाद क्रमागत रूप से धीरे-धीरे अरब के मरुभूमि प्रदेश में सैरेपन साम्राज्य का एक महान भूमध्यसागरीय समुद्र शक्ति के रूप में उत्थान और पतन, चार्लिमैगनी के साम्राज्य का बनना, नोर्मन लोगों की इंग्लैण्ड पर विजय और यरोप में नेपोलियन साम्राज्य के बनने तथा बिगड़ने जैसी समस्त ऐतिहासिक घटनाओं की पृष्ठभूमि में निश्चित ही भौगोलिक तथ्यों को देखा जा सकता है। इस विशाल महाद्वीप के लम्बे इतिहास की विवेचना, इसकी भू-रचना, प्राकृतिक विभाग, जलवायु और विस्तार आदि भौगोलिक अवस्थाओं के रूप में ही पूर्ण सत्यता के साथ ही की जा सकती है। इसी प्रकार एक ओर दजला और फरात के मैदान, ओक्सस घाटी और भारत के उत्तरी-पश्चिमी मार्गों द्वारा ही भारतीय और यूनानी संस्कृतियों का समागम सम्भव हो सका है। दक्षिण में विशाल खुले समुद्रों द्वारा ही जावा, सुमात्रा, बाली और अन्य प्रशान्त द्वीपों में अबाध गति से भारतीय प्रवाह और बौद्ध धर्म का प्रचार द्रुत गति से बढ़ सका है। दूसरी ओर, उत्तर में हिमालय ने एक प्राकृतिक अवरोध पैदा कर दिया जिससे आर्य संस्कृति की पहुँच अपने पड़ोसी राज्य तिब्बत तक भी सम्भव न हो सकी।

5. जनसंख्या भूगोल
जनसंख्या भूगोल मानव भूगोल की वह शाखा है जिसमें जनसंख्या के वितरण, घनत्व, वृद्धि, साक्षरता, संघटन, स्थानान्तरण तथा जनसंख्या-संसाधन सम्बन्ध जैसे विभिन्न पक्षों का अध्ययन प्रमुख रूप से किया जाता है।

6. सांस्कृतिक भूगोल
सांस्कृतिक भूगोल मानव भूगोल की वह शाखा है जिसमें मानव के सांस्कृतिक क्रिया-कलापों, सांस्कृतिक समूहों तथा प्राकृतिक वातावरण के मध्य होने वाली अन्तर्सम्बन्धित क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है जिसके अन्तर्गत मानवीय अधिवास, वेशभूषा, भोजन, वस्त्र, यातायात, व्यवसाय, सुरक्षा, भाषा, धर्म एवं सामाजिक संस्थाओं का अध्ययन किया जाता है, सांस्कृतिक भूगोल कहलाता है।

7. चिकित्सा भूगोल
चिकित्सा भूगोल में मानवीय स्वास्थ्य, विभिन्न बीमारियों, स्वास्थ्य सुरक्षा तथा भौगोलिक सूचनाओं का अध्ययन किया जाता है। यह एक प्राचीन मानव भूगोल की शाखा है परन्तु इसका अध्ययन आधुनिक युग में अधिक हो रहा है।

8. सामरिक भूगोल
सामरिक भूगोल का मुख्य उद्देश्य युद्ध की सैनिक सर्वोपरिता पर थल तथा जल के भौगोलिक चरित्र के पड़ने वाले प्रभावों को स्पष्ट करना है। इतिहास के पृष्ठों में अंकित कई घटनाएँ, जैसे- पारसी सेना का एजिनियन सागर से पुरु को निकालने का प्रयास, एलेक्जैण्डर के साम्राज्य में ग्रीक और फोनियन्स पर मैकडोनियन्स का आक्रमण, भूमध्य सागर से रोमन सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए कार्थेज से खैनीवाल का ऐतिहासिक आक्रमण और नेपोलियन द्वारा उत्तरी इटली, फ्रांस और प्रशा में युद्ध, थल और जल के भौगोलिक चरित्र का सही मूल्यांकन कर लड़े गये थे जिससे शत्रुओं के विरुद्ध सैनिक सर्वोपरिता स्थापित रह सके। सामरिक भूगोल के अध्ययन का सही विस्तार सेनाओं के अध्यक्षों और जल सेना के नायकों द्वारा ही किया गया है।

9. प्रजातीय भूगोल
इसमें मानव जाति के विकास से लेकर उसकी संस्कृति एवं सभ्यता तक का विशद् अध्ययन किया जाता है। इसके दो भाग हैं- एक भाग में, मानव शरीर एवं जीव प्रकृति में मानव का अध्ययन किया जाता है। इसके अन्तर्गत प्रजाति की विभिन्नताएँ, मानव प्राणी का विकास, शारीरिक ढाँचे में अन्तर और प्राणी पर वातावरण का प्रभाव आदि विषय सम्मिलित किये जाते हैं। इसे शारीरिक मानवशास्त्र (Physical Anthropology) कहा जाता है।

दूसरे भाग में, मानव की संस्कृतियों का अध्ययन किया जाता है। संस्कृति के अन्तर्गत रीति-रिवाज, सामाजिक संगठन, आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्था, विज्ञान, कला, धर्म, विश्वास, परम्पराएँ, नैतिकता, यन्त्र, उपकरण आदि सभी बातें आती हैं। इसे सांस्कृतिक मानवशास्त्र (Cultural Anthropology) कहा जाता है। बील्स और हॉडजर ने मानव संस्कृति शास्त्र के बारे में लिखा है कि "यह मानव संस्कृतियों की उत्पत्ति एवं इतिहास, उनका उद्भव और विकास तथा प्रत्येक स्थान एवं काल के मानव संस्कृति के ढाँचों एवं कार्य-प्रणालियों का अध्ययन करता है। यह संस्कृति मानव अपने वातावरण से समायोजन करने के लिए स्थितियाँ निर्मित करता है।"

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