Rahim Ke Dohe - रहीम के दोहे अर्थ सहित 200+ | Rahim Das Ke Dohe

RAHIM KE DOHE रहीम के दोहे अर्थ सहित

मध्ययुगीन दरबारी संस्कृति के प्रतिनिधि कवि रहीम ने अपने नीतिपरक दोहों में मानव-मात्र को करणीय और अकरणीय आचरण की नसीहत दी है। उन्होंने उदाहरणों द्वारा आपसी संबंधों को प्रेमपूर्ण बनाने, अपनी पीड़ा को अपने मन में ही छिपाए रखने तथा एक ही लक्ष्य की ओर प्रयत्न करने की सीख दी है।
Rahim-Ke-Dohe-In-Hindi
कवि रहीम ने दोहों के माध्यम से मनुष्य को परोपकारी बनने की प्रेरणा दी है। उन्होंने उन लोगों पर कटाक्ष किया है, जो धनवान होने के बावजूद कृपण हैं। ऐसे लोग पशु से भी गए-गुजरे हैं।
कवि ने मीठी वाणी, हर छोटी-से-छोटी वस्तु, निज संपत्ति तथा पानी की महत्ता को भी विभिन्न दृष्टांत देकर सिद्ध किया है।

RAHIM KE DOHE रहीम के दोहे अर्थ सहित

Rahim Ke Dohe In Hindi 1 से 20

रहीम के दोहे

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर न जुरै, जुरै गांठ पड़ जाय॥

अर्थ : रहीम प्रेम को बहुत नाजुक मानते हैं। वह कहते हैं कि प्रेम बहुत ही कोमल और मूल्यवान होता है, जो दो व्यक्तियों के अहसास से जुड़ा हुआ होता है। ऐसा कुछ न करो कि यह टूट जाए क्योंकि प्यार का धागा एक बार टूट जाता है तो फिर आसानी से नहीं जुड़ता और यदि जुड़ भी जाए तो कहीं न कहीं गांठ पड़ ही जाती है यानी फिर पहले जैसी प्रेम की भावना नहीं रह जाती। रिश्तों में एक दूरी आ ही जाती है।

रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि।
जहां काम आवै सुई, कहा करै तलवारि॥

अर्थ : रहीम कहते हैं कि बड़ों को देखकर छोटों को मत भूल जाइए। समाज में दोनों का अपना-अपना महत्त्व है। बड़ों के आगे छोटों को नजर अंदाज करने से समाज का संतुलन बिगड़ जाता है। जहां सुई काम आती है, वहां तलवार का क्या काम अर्थात् जो काम छोटे कर सकते हैं, वह काम बड़े नहीं कर सकते। अगर आपको उन्नति करनी है, समाज में अपनी जगह बनानी है तो बड़ों के साथ-साथ छोटों को भी सम्मान देना जरूरी है अतः यह सपने में भी नहीं सोचें कि जब बड़े हमारे साथ हैं तो छोटों से क्या संबंध रखना।

रहिमन निज सम्पत्ति बिन, कोई न विपत्ति सहाय।
बिनु पानी ज्यों जलज को, नहि रवि सकै बचाय॥

अर्थ : रहीम कहते हैं कि अगर आपके पास धन-दौलत नहीं है अर्थात् आपने अपने भविष्य के लिए धन जमा नहीं कर रखा है तो विषम परिस्थितियों में कोई भी आपकी मदद करने के लिए नहीं आयेगा। लोग उसी की मदद करते हैं, जिसके पास धन होता है। धनहीन का दोस्त कोई नहीं होता। सूरज कमल का मित्र है, लेकिन वह चाहकर भी सूखे तालाब के कमल की रक्षा नहीं कर पाता है। मित्र होकर भी सूरज कमल को उसके ही हाल पर छोड़ देता है क्योंकि कमल के पास अपना जल नहीं है। अपने भविष्य के लिए आदमी को धन का संचय अवश्य ही करना चाहिए वरना उसकी दशा सूखे तलाब के कमल के समान ही होती है। उसके मित्र भी उसकी मदद नहीं कर पाते हैं क्योंकि इस संसार का यही नियम है, धनहीन का शुभचिंतक कोई नहीं होता।

रहिमन निज मन की विथा, मन ही राखो गोय।
सुनि अठिलैंहे लोग सब, बांटि न लैंहे कोय॥

अर्थ : रहीम इस दोहे में व्यक्ति को दुनियादारी की सीख दे रहे हैं - उनकी सलाह है कि अपने मन का दुःख, पीड़ा या कोई भी ऐसी बात मन में ही रखें क्योंकि लोग आपकी व्यथा को सुन तो लेंगे, पर पीठ पीछे आपका मजाक भी बनायेंगे। दुनिया की यही रीति है। लोगों को दूसरे का मजाक उड़ाना अच्छा लगता है।
कहने का भाव है-आपकी पीड़ा को न तो कोई हरने वाला है और न ही बांटने वाला है। उसे लोगों के बीच न लाएं। अपनी व्यथा से बाहर निकलने का मार्ग आप खुद ढूंढें। समस्या का हल आपके भीतर ही है। लोग आपकी समस्या का हल नहीं कर सकते हैं।

रहिमन नीचन संग बसि, लगत कलंक न काहि।
दूध कलारी कर गहे, मद समझै सब ताहि॥

अर्थ : रहीम कहते हैं कि नीच और ओछी मानसिकता वाले व्यक्ति के साथ रहने से कौन भला बदनाम नहीं होता अर्थात् गलत सोच रखने वालों के साथ रहने पर आप भी कलंकित होने से नहीं बच सकते। आपको उसका दण्ड भुगतना ही पड़ेगा। आगे रहीम कहते हैं कि शराब बनाने और बेचने वाली कलवारिन कलश यानी घड़े में दूध ही क्यों न ले जाए, पर लोग उसे शराब ही समझते हैं।
कहने का भाव है-आप बुरे लोगों का साथ छोड़कर अच्छे लोगों के साथ रहें। आपका भला इसी में है वरना आपको भी लोग गलत ही समझेंगे।

रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी भए न ऊबरै, मोती मानुष चून॥

अर्थ : रहीम का कहना है कि आप मान-सम्मान मत खोइए। कोशिश करें कि वह किसी भी प्रकार से खोने न पाए क्योंकि पानी यानी प्रतिष्ठा के बिना धन-दौलत सब कुछ व्यर्थ है। पानी ही मनुष्य का जीवन है। पानी यानी स्वाभिमान गया तो आप भी महत्त्वहीन हो गए। पानी यानी आशा जीवन में न रही तो भी आप किसी काम के न रहे।
कहने का भाव है-अपना स्वाभिमान, प्रतिष्ठा बचाकर रखें। इसके बिना आपका कोई अस्तित्व नहीं है। प्रतिष्ठा, धन-दौलत से खरीदी नहीं जा सकती। पानी से मतलब यहां प्रतिष्ठा, स्वाभिमान और आशा से है और जीवन में इन तीनों का विशेष महत्त्व है।

रहिमन प्रीत न कीजिए, जस खीरा ने कीन।
ऊपर से तो दिल मिला, भीतर फांके तीन॥

अर्थ : रहीम का कहना है कि खीरे की तरह प्रेम करना ठीक नहीं, बाहर कुछ और अंदर से कुछ और ऐसा दोगला प्रेम ज्यादा दिनों तक नहीं चलता। सच्चाई एक न एक दिन सामने आ ही जाती है लाख छुपाने पर भी....खीरा ऊपर से देखने में तो चिकना, हरा और मोहक लगता है, पर अन्दर उसमें तीन फांके होती हैं अर्थात् वह खाली रहता है। प्रेम अंदर-बाहर एक जैसा ही भाव व गहराई मांगता है। कोई भी बनावटीपन उसे भाता नहीं है।
कहने का भाव है- प्रेम आप किसी से करें तो दिल की गहराई से करें और उससे स्वप्न में भी विश्वासघात न करें।

रहिमन ब्याह बियाधी है, सकहु त जाहु बचाय।
पायन बेड़ी पड़त है, ढोल बजाय बजाय॥

अर्थ : रहीम कहते हैं कि विवाह एक रोग है। अगर सम्भव है या आपके वश की बात है तो इस रोग से खुद को बचा लें। अगर आप खुद को बचाने में असफल रहे तो ढोल बजा-बजाकर आपके पैरों में बेड़ियां डाल दी जायेंगी और उम्रभर की कैद आपको मिल जाएगी, फिर जीवन भर रोओ, पछताओ कोई नहीं छुड़ाने आयेगा और फिर इसकी कोई दवा भी नहीं।
कहने का भाव है-गृहस्थ जीवन को निभाना बहुत ही कठिन है। आप इसको नहीं निभा सकते तो विवाह का ख्याल मन में लाएं ही नहीं। यह तो उनके लिए अच्छा है, जो इसे निभाना चाहते हैं।

रहिमन बहु भेषज करत, ब्याधि न छाड़त साथ।
खग मृग बसत अरोग वन, हरि अनाथ के नाथ॥

अर्थ : रहीम कहते हैं कि आदमी निरोग और सेहतमंद रहने के लिए जाने क्या-क्या उपाय करता है, लेकिन रोग उसका साथ नहीं छोड़ता है यानी वह उसका पीछा करता ही रहता है। आदमी तरह-तरह का इलाज करवाता है, पौष्टिक भोजन करता है, पर रोग उसके साथ ही रहता है। लेकिन खग-मृग यानी पशु-पक्षी अपनी कोई भी देखभाल नहीं करते, फिर भी सदा निरोग रहते हैं, क्योंकि अनाथों के नाथ यानी स्वामी खुद भगवान हैं। भला उन्हें कोई रोग कैसे हो सकता है।
कहने का भाव है-जो लोग सज्जन होते हैं, उनकी रक्षा भगवान स्वयं करते हैं। उन्हें किसी उपचार या दवा की जरूरत नहीं पड़ती।

रहिमन बिगरी आदि की, बनै न खरचे दाम।
हरि बाड़े आकास लौं, तऊ बावने नाम॥

अर्थ : रहीम का कहना है कि अगर कोई बात आरंभ में ही बिगड़ जाए तो वह धन खर्च करने या कोशिश करने के बाद भी नहीं बनती।
महाराज बलि को भगवान वामन ने ब्राह्मण के भेष में छला व दान में उनसे सब कुछ ले लिया और वामन से विराट हो गए यानी धरती आकाश तक उनका ही अस्तित्व हो गया। भगवान वामन को अपनी योजना में सफलता तो मिली, लेकिन हमेशा-हमेशा के लिए उनका नाम वामन पड़ गया। उनको किसी ने भी विराट नहीं कहा क्योंकि उनका कर्म शुरू में ही छोटा था।
कहने का भाव है-जब व्यक्ति का विचार शुद्ध नहीं होता है, छल-कपट से भरा हुआ होता है तो सफलता मिलने पर भी उसे अपयश का ही भागी होना पड़ता है। उसे कोई भी अच्छा नहीं मानता।

रहिमन मन हिल गाई कै. देखि लेह किन कोय।
नर को बस करिबो कहा, नारायन बस होय॥

अर्थ : रहीम कहते हैं कि आप मन लगाकर क्यों नहीं देख लेते, अच्छे मन से दुनिया की हर चीज मिल जाती है। किस सच्चे मन से की गई प्रार्थना को फल नहीं मिला, जो आपको संदेह हो रहा है। इसे तो सारी दुनिया जानती है।
मनुष्य क्या, नारायण भी वश में हो जाते हैं अगर आपकी भावना पवित्र और सच्ची है।
कहने का भाव है-सच्ची लगन सबसे अधिक ताकतवर है। उसमें ईश्वरीय शक्तियों का वास है। जिसने भी सच्चे मन यानी सच्ची लगन से कुछ चाहा, उसे अवश्य ही वह मिला, इसमें कोई शक नहीं है।

रहिमन मांगत बड़ेन की, लघुता होत अनूप।
बलि मारव मांगन को गए, हरि बावन को रूप॥

अर्थ : रहीम का कहना है कि याचक के रूप में मांगने वाले बड़े आदमी की लघुता यानी छोटापन भी अनूठा होता है, क्योंकि उसकी लघुता में भी बड़प्पन होता है। राजा बलि की यज्ञशाला में हरि यानी भगवान विष्णु ने 'वामन' रूप धारण कर याचना की तो क्या हुआ, उस समय उनका 'वामन' रूप अनोखा, अनूठा और अनूप था।
कहने का भाव है-बड़े यानी सज्जन पुरुष छोटा बनकर छोटा कार्य करते हैं तो उनकी सज्जनता या बड़प्पन कम नहीं हो जाता। बल्कि उनका तेज और बढ़ जाता है।

रहिमन मारग प्रेम को, मर्मत हीन मझाव।
जो डिगि है तो फिर कहूं, नहीं धरने को पांव॥

अर्थ : रहीम कहते हैं कि यह प्रेम का मार्ग बहुत ही कठिन है। यह एक ऐसी दीवार है, जिसके दोनों तरफ विशाल गड्ढे और खाइयां हैं। इस मार्ग से होकर प्रेमी को गुजरना है। यह मार्ग कोई सच्चा प्रेमी ही पार कर सकता है। प्रेम का मार्ग बिना सोचे-समझे मत चुनो - अगर पैर डगमगा गये तो फिर पैर रखने के लिए कहीं धरती नहीं रह जाएगी। कहीं ठौर-ठिकाना नहीं मिलेगा।
कहने का भाव है-प्रेम के मार्ग को कोई सच्चा प्रेमी ही पार कर सकता है, जिसमें छल-कपट न हो और वह अपने प्रेमी के लिए जान की बाजी लगाने का साहस रखता हो।

रहिमन याचकता गहे, बड़े छोट हैवे जात।
नारायण हूं को भयो, बावन आंगुर गात॥

अर्थ : रहीम कहते हैं कि याचक यानी भिक्षुक हो जाने पर महान व बड़े व्यक्ति भी पल भर में ही छोटे हो जाते हैं यानी अपनी श्रेष्ठता खो देते हैं। उनका मान घट जाता है। भगवान नारायण को ही देख लीजिए, भिक्षुक ब्राह्मण के रूप में राजा बलि के सामने बावन अंगुल की देह धारण करनी पड़ गई।
कहने का भाव है-मांगने वाली की आत्मा दीन-हीन बन जाती है। मन में मांगने की इच्छा जागते ही व्यक्ति छोटा बन जाता है और साथ ही याचना उसके पुरुषार्थ को भी कलंकित कर देती है। अपने कर्म पर विश्वास करो, मांगने की आदत मान-सम्मान और यश को खत्म कर देती है।

रहीम रहिबो व भलो, जौ लौं सील समूच।
सील ढील जब देखिए, तुरत कीजिए कूच॥

अर्थ : रहीम कहते हैं कि किसी का मेहमान बनकर तब तक ही रहना ठीक रहता है जब तक आपकी प्रतिष्ठा बनी रहे अर्थात् आप किसी के यहां तब तक ही ठहरें, जब तक आदर-सत्कार मिलता रहे। अगर आपको ऐसा लगे कि मान-सम्मान में कमी आ गई है या आपका रहना खलने लगा है तब वहां से फौरन चल दीजिये।
कहने का भाव है-वहां ही जाइए, जहां पर आपको पूरा मान-सम्मान मिले और आपकी मौजूदगी से किसी को परेशानी न हो।

रहिमन राज सराहिए, ससि सम सुखद जो होय।
कहा बापुरो भानु है , तपै तरैयन खोय॥

अर्थ : रहीम का कहना है कि वह देश और उस देश का शासन सबके भले के लिए होता है, जहां कमजोर-से-कमजोर व्यक्ति भी निर्भय होकर जीता है अर्थात् वह पूरी तरह से खुद को आजाद समझता है और उसे किसी बात की भी चिंता नहीं सताती है। ऐसा देश वही हो सकता है जहां राजा और उसका शासनतंत्र सबके लिए बराबर हो और इंसानी जज्बातों की कद्र करने वाला हो। इस तरह का शासन चंद्रमा के समान शीतल चांदनी बिखेरने वाला होता है और गरीब-से-गरीब व्यक्ति भी सुखद जिंदगी का मजा लेता है।
कहने का भाव है-शासक और शासन दोनों ही आम जनता के हित में होने चाहिए।

रहिमन रिति सराहिए, जो घट गुन सम होय।
भीति आप पै डारि कै, सबै पियावै तोय॥

अर्थ : रहीम कहते हैं कि कुएं की जगत पर रखे घड़े और रस्सी का स्वभाव सराहनीय है, क्योंकि वे अपने यहां से किसी को भी प्यासा नहीं जाने देते हैं। उनका स्वभाव ऐसा ही है। प्यासे की प्यास बुझाना उन्हें अच्छा लगता है। रहीम आगे कहते हैं, पानी भरते वक्त कुएं की दीवार से घड़े को टकराना पड़ता है और रस्सी को भी घर्षण के कारण चोट पहुंचती है, फिर भी उनका स्वभाव सहज ही बना रहता है। उन्हें अपने कष्टों से अधिक चिंता दूसरों की रहती है कि कहीं कोई प्यासा न चला जाए।
कहने का भाव है- असली सेवा यही है। सज्जन व्यक्ति दूसरों के भले के लिए ही होते हैं और कष्ट सहकर भी सेवा करने से पीछे नहीं हटते हैं।

रहिमन लाख भली करो, अगुनी अगुन न जाय।
रागसुनत पय पिअत हूं, सांप सहज धरि खाय॥

अर्थ : रहीम कहते हैं कि लाख भला करो, पर दुष्ट अपनी दुष्टता नहीं छोड़ता है। उसका तो स्वभाव ही ऐसा है, भले-बुरे का उसे ज्ञान नहीं होता।
सांप बीन की मधुर धुन भी सुनता है और दूध भी पीता है, पर मौका मिलने पर सपेरे को भी डसने से बाज नहीं आता है। वह एक बार भी यह नहीं सोचता कि सपेरे ने उसे दूध पिलाया है, बीन की मधुर धुन सुनाई है क्योंकि उसका स्वभाव ही ऐसा है।
कहने का भाव है- जो लोग गलत होते हैं, लाख भला करने पर भी आदतवश सर्प की तरह डसने से बाज नहीं आते हैं।

रहिमन वहां न जाइए, जहां कपट को हेत।
हम तन ढारत ढेकुली, सींचत अपनो खेत॥

अर्थ : रहीम कहते हैं कि वहां न जाइए, जहां प्रेम में छल-कपट हो अर्थात् प्रेम-व्यवहार उनके साथ कीजिए, जो आपसे भी खुले दिल से प्यार करते हों। प्रेम में छल-कपट का क्या काम। किसान ने रात भर ढेंकुली चलाई खेत को सींचने के लिए और जब सुबह आकर देखा तो दंग रह गया- पड़ोस के किसान ने इतनी सफाई से नाली तोड़कर अपने खेत में सारा पानी भर लिया, जैसे नाली अपने आप ही टूट गई हो।
धूर्त और मक्कार के साथ प्रेम-व्यवहार होने पर ऐसा ही फल मिलता है।
कहने का भाव है- किसी से भी रिश्ता बनाने से पहले यह पूरी तरह से देख समझ लें कि वह इस काबिल है या नहीं। एक-दो मुलाकात में ही किसी को अपना मान लेने का परिणाम हमेशा दु:खदायक ही होता है।

रहिमन वित्त अधर्म को, जरत न लागै बार।
चोरी करि होरी रची, भई तनिक में छार॥

अर्थ : रहीम कहते हैं कि अधर्म यानी गलत तरीके से कमाया गया धन कभी भी नहीं टिकता। एक दिन वह जलकर राख हो ही जाता है। मोहल्ले-गांवों में लोग रात भर चोरी कर-करके होलिका दहन के लिए लकड़ियां जमा करते हैं और दूसरों को नुकसान पहुंचाकर खुश होते हैं, लेकिन इस खुशी का क्या फायदा.....होली जलाई जाती है तो सब जलकर राख हो जाता है।
कहने का भाव है-चोरी कर-करके लोग गलत तरीके से धन इकट्ठा करके आखिर क्या पाते हैं, एक दिन उसका विनाश तो हो ही जाता है यानी अधर्मी का धन कभी भी सुखदायक नहीं होता है।

रहीम के दोहे और उनका अर्थ rahim ke dohe with meaning

Rahim Ke Dohe In Hindi 20 से 40

रहिमन तीन प्रकार ते, हित अनहित पहिचानि।
पर बस परे, परोस बस, परेम मिला जान॥

रहीम कहते हैं कि हित-अनहित को पहचानने की कला आप में होनी चाहिए। इसकी पहचान तीन हालातों में आसानी से की जा सकती है - जब आप परवश हो गए हैं और आपके हालात ठीक नहीं हैं, आपके पड़ोस में शुभचिंतक आ गया हो और जब आप किसी विवाद या मुसीबत में उलझ गए हों। सच्चा शुभचिंतक मदद करने वाला होता है। वह हर सम्भव कोशिश करता है कि आप सारी बाधाओं से मुक्त हो जाएं।
कहने का भाव है- जो आपका हितैषी है, वह समाज में आपका सम्मान बढ़ाता है और मुश्किल की घड़ी में आपका साथ नहीं छोड़ता है। वह आपके जीवन में हर मोड़ पर तन, मन, धन इन तीनों से ही आपकी सहायता करता है। अपने हितैषी की परख करना आपको आना चाहिए।

पांच रूपे पांडव भए, रथ बाहक नलराज।
दुर दिन परे रहीम कहि, बड़े किए घटि काज॥

रहीम का कहना है कि हालात जब बुरे होते हैं तब बड़े यानी बुद्धिमान लोग घबराते नहीं हैं और बुरे हालातों का मुकाबला स्वविवेक से करते हैं। उस समय छोटे-बड़े का ख्याल उन्हें नहीं रहता। छोटे-से-छोटा काम करने में भी कोई संकोच नहीं करते और इसका परिणाम यह होता है कि वे बड़ी सहजता से बुरे हालातों से बिना किसी हानि के निकल जाते हैं।
रहीम आगे कहते हैं, पांडवों ने अलग-अलग भेष बनाकर अपने अज्ञातवास की कठिन अवधि को कितनी सहजता से पार कर लिया। महाराज नल ने भी तो ऋतुपर्ण का रथ वाहक बनकर अपना दुर्दिन बड़ी समझदारी से गुजार लिया।
कहने का भाव है- दुर्दिनों में ही व्यक्ति के धैर्य, बुद्धि और शक्ति की परीक्षा होती है। नाजुक हालातों में शांतभाव से रहते हुए अच्छे दिनों का इंतजार करना ही समझदारी है।

रहिमन तीर की चोट ते, चोट परे बचि जाय।
नैन बान की चोट तैं, चोट परे मरि जाय॥

रहीम कहते हैं कि तीर की चोट से घायल व्यक्ति औषधि - उपचार से बच सकता है, लेकिन खूबसूरत नवयौवना के मोहक नयन-बाण से घायल व्यक्ति नहीं बच सकता। उसे घायल होना ही है। वह जिंदा तो होता है, पर उसे अपनी सुधबुध नहीं रहती है यानी वह मरे हुए व्यक्ति की तरह हो जाता है, लेकिन आश्चर्य है, फिर भी लोग नयन-बाण के निशाने पर आने से बाज नहीं आते।
कहने का भाव है-मोहक नयन-बाण से बचें, नहीं तो आपकी अवस्था उस व्यक्ति की तरह हो जायेगी, जो जीवित तो होता है, पर उसे अपनी कोई खोज-खबर नहीं रहती।

रहिमन थोरे दिनन को, कौन करे मुंह स्याह।
नहीं छनन को परतिया, नहीं करन को ब्याह॥

रहीम कहते हैं कि उम्र ढल गयी है, वृद्धावस्था के लक्षण चेहरे पर साफ दिख रहे हैं, फिर भी व्यक्ति अपनी अतृप्त काम-वासनाओं को पूरा करने की चाह में विवाह करने का मोह छोड़ नहीं पाता है।
यह क्या है, मुंह काला करना ही तो है?
रहीम की सलाह है कि अब थोड़े ही तो दिन रह गए हैं। अपने बाल काले करके, उम्र कम दिखाकर किसी गरीब की सुन्दर बेटी को छलना ठीक नहीं।
कहने का भाव है-यह उम्र तो हरिभजन के लिए है। किसी नवयौवना के साथ विवाह कर लोक-परलोक बिगाड़ने के लिए नहीं। अभी भी समय है जीवन सफल बना लो।

रहिमन असमय के परे, हित अनहित हैव जाय।
बधिक बधै भृग बान सों, रूधिरै देत बताय॥

रहीम कहते हैं कि तकदीर की मार से कोई नहीं बच सकता है। अच्छी बात भी उसके लिए बुरी हो जाती है। उसके दोस्त भी दुश्मन और सगे भी पराए हो जाते हैं। वह जिस भी कार्य को करता है, उसे असफलता ही मिलती है। शिकारी के बाण से घायल हिरन लाख घनी झाड़ियों में छुपता है, पर रास्ते में गिरी खून की बूंदें उसका पता बता ही देती हैं, अर्थात् उसका अपना खून ही उसका दुश्मन बन जाता है और उसको प्राण गंवाने पड़ते हैं।
कहने का भाव है-आपका ही शुभचिंतक एक दिन निर्दयी बनकर आपकी जान ले सकता है। अतः आंखें बंद कर अपने खास दोस्त पर भी विश्वास नहीं करना चाहिए।

रहिमन अंसूवा नैन ढरि, जिय दुःख प्रगट करेई।
जाह निकारो गेहतें, कस न भेद कहि देई॥

रहीम कहते हैं कि मन की पीड़ा किसी भी हाल में किसी के सामने प्रकट न होने दें, लेकिन इन आंसुओं का क्या, ये तो ऐसे ही होते हैं, हर किसी के सामने ढरक ही जाते हैं और हृदय की वेदना सहज ही बाहर आ जाती है। इन आंसुओं को बहने से रोकते हुए हित-अनहित का विचार अवश्य ही करना चाहिए। रहीम आगे कहते हैं कि घर के भेद को जानने वाले को घर से निकालना ठीक नहीं होता, क्योंकि बदले की आग में जलने वाला, घर के सारे भेद खोल सकता है।
कहने का भाव है-अपने मन पर संयम रखो और जो आपके राज की बात जानता है, उसके साथ अप्रिय व्यवहार न करो।

रहिमन इक दिन वे रहे, बीच न सोहत हार।
वायु जो ऐसी बह गई, बीचन परे पहार॥

रहीम कहते हैं कि प्रेमी सोच रहा है- एक वो दिन था, जब प्रेमालिंगन में प्रियतमा का हार भी बाधा उत्पन्न करने के कारण असहनीय हो जाता था और उसे गले से निकालकर रख देना पड़ता था और एक ये दिन है जब हमारे बीच समय ने पहाड़ धर दिया है अर्थात् संबंधों में इतनी दूरी आ गई है कि आलिंगन जैसी कोई बात ही नहीं रह गई है।
वक्त की ऐसी बयार बही कि खुशियों भरे पल भी उसके साथ बह गये....., बस रूलाने वाली कुछ यादें ही रह गई हैं।
कहने का भाव है-अच्छा वक्त जब गुजर जाता है तब व्यक्ति को इसका अहसास होता है; लेकिन अब पछताने से कुछ नहीं होगा। यह तो दुनिया है- अच्छे के बाद बुरा और बुरे के बाद अच्छा वक्त आता ही रहता है। इसमें संतुलन बनाकर रखना ही ठीक रहता है।

रहिमन ओछे नरन सों, बैर भलो न प्रीति।
काटे चाटे स्वान के, दुहूं भांति विपरीति॥

रहीम कहते हैं कि नीच प्रकृति वाले लोगों से न तो दुश्मनी अच्छी होती है और न ही प्रेमभाव ही अच्छा होता है। शत्रता होने पर वे तरह-तरह के हथकंडे इस्तेमाल कर जीना दूभर कर देते हैं और प्रेम व्यवहार रखने पर खुद की मान-मर्यादा घट जाती है। लोग आपको भी ओछा और नीच समझने लगते हैं। दुत्कारा हुआ कुत्ता जीभ से मुंह चाटकर गंदा कर देता है यानी ये दोनों ही व्यवहार खतरनाक हैं।
कहने का भाव है-ओछे व्यक्तियों के साथ न तो दोस्ती रखें और न ही दुश्मनी... बस बीच का रास्ता अपना लें। 'न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर' वाले फार्मूले को अपना लें।

रहिमन कठिन चितान ने, चिंता कोधित चेत।
चिता दहति निर्जीव को, चिंता जीव समेत॥

रहीम कहते हैं कि जो चिंता है, वह चिता से भी कहीं अधिक जलाने वाली है क्योंकि चिता तो मरे हुए को जलाती है जबकि चिंता जिन्दा व्यक्ति को तिल-तिलकर जलाती है। चिंता का जड़ से ही सफाया होना चाहिए। यह समूल दु:खों की जननी है।
कहने का भाव है-चिंता किसी बात को लेकर हो तो उसके निदान का उपाय कीजिए वरना आप जलकर राख हो जाएंगे।

रहिमन कबहुं बड़ेन के, नाहिं गरब को लेस।
भार धरे संसार को, तऊ कहावत सेस॥

रहीम कहते हैं कि बड़े लोग बहुत ही विनम्र होते हैं। उनमें थोड़ा-सा भी घमंड नहीं होता है। वे अपनी जिम्मेदारियों के प्रति पूर्णतः समर्पित होते हैं। मान-अपमान, आदर-निरादर के चक्कर में पड़कर वे अपनी सज्जनता कभी नहीं छोड़ते।
अपने फन पर पूरी पृथ्वी का भार धारण करने वाले शेष का यह उपकार अशेष है, फिर भी 'शेष' ही उन्हें कहा जाता है, लेकिन उन पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता यानी वे मान-अपमान से बहुत ऊपर हैं।
कहने का भाव है-दूसरों के हित का ध्यान जो रखते हैं, वे बहुत विनयशील भी होते हैं। उनमें लेशमात्र भी घमंड या बदले की भावना नहीं होती। वे दूसरों का भला करना नहीं छोड़ते हैं।

रहिमन कुटिल कुठार ज्यों, करि डारत द्वै टूक।
चतुरन को कसकत रहे, समय चूक की हूक॥

रहीम कहते हैं कि जैसे तेज धार वाली कुल्हाड़ी लकड़ी को दो टूक कर देती है, वैसे ही समय की चूक चतुर व्यक्तियों के हृदय को दो टूक कर देती है। जीवनभर वे पछताते रहते हैं क्योंकि समय लौटकर फिर कभी नहीं आता।
कहने का भाव है-वक्त बहुत ही कीमती है। वह किसी का इंतजार नहीं करता। जो लोग वक्त की गति के साथ नहीं चलते, उनके हाथ सिर्फ पछतावा ही लगता है, वे सारी उम्र समय को यूं ही क्यों जाने दिया, सोच-सोचकर दु:खी होते रहते हैं।

रहिमन खोजे ऊख में, जहां रसनि की खानि।
जहां गांठ तहं रस नहीं, यही प्रीति में हानि॥

रहीम कहते हैं कि ईख रस का भंडार होती है। वह अपने रस की खान के लिए जग में मशहूर है, लेकिन जहां गांठ होती है, वहां रस नहीं होता है, होता भी है तो बहुत ही कम और स्वाद में भी फर्क होता है। रहीम आगे कहते हैं, प्रेम की भी यही दशा है। प्रेम में एक भी गांठ पड़ गई तो प्रेम अपना अर्थ ही खो बैठता है। प्रेम में गांठ से मतलब छल-कपट से है। छल-कपट से भरा प्रेम पानी के बुलबुले की तरह होता है। उसे मिटने में देर नहीं लगती है।
कहने का भाव है- प्रेम करो तो सच्चे मन से करो। विश्वास घात, धोखाधड़ी का प्रेम की गली में कोई स्थान नहीं ।

रहिमन चाक कुम्हार को, मांगे दिया न देई।
छेद में डंडा डारि कै, चहै नांद लै लेई॥

रहीम कहते हैं कि यदि कुम्हार के चाक से कहा जाए कि मुझे एक दीपक बनाकर दे दो तो चाक बात नहीं सुनेगा, लेकिन चाक के छेद में डंडा डालकर उसे घुमाया जाए तो वह दीपक नहीं बल्कि नांद बनाकर भी दे देगा।
कहने का भाव है - जो व्यक्ति दुष्ट स्वभाव के होते हैं, वे अनुनय-विनय की भाषा नहीं समझते हैं। वे दंडित करने पर ही सुनते हैं। विनम्रता को वे कमजोरी समझते हैं। दंड नीति अपनाने पर ही वे ठीक रहते हैं।

रहिमन चुप ह्वै बैठिए, देखि दिनन को फेर।
जब नीके दिन आइ हैं, बनत न लगिहैं बेर॥

रहीम कहते हैं कि अपने दिनों के फेर को देखो और चुप हो जाओ। अपने दुर्बल दिनों को देखकर ज्यादा परेशान मत होओ। हताश और निराश मत होओ। जब अच्छे दिन आयेंगे, तब बिगड़े काम बनते देर नहीं लगेगी।
कहने का भाव है-बुरे दिनों में धैर्य व संयम बनाए रखें और अच्छे वक्त का इंतजार करें। अच्छे दिन जब आएंगे तब बिगड़े कार्य भी बनते चले जाएंगे। बुरे वक्त में हताश व निराश होने से व्यक्ति का अस्तित्व ही खत्म हो जाता है।

रहिमन जग जीवन बड़े, काहु न देखे नैन।
जाय दसानन अछत ही, कषि लागे गथ लैन॥

रहीम कहते हैं कि अपनी आंखों से इस संसार में अभी तक किसी को भी एक जैसा नहीं देखा। किसी की भी स्थिति हमेशा एक जैसी नहीं रही। लंकेश जैसे त्रिलोक विजेता राजा को अपनी हार देखनी पड़ी। राम की वानर सेना ने उसकी महिमा, मान का खंडन कर दिया। सोने की लंका जलाकर राख कर दी।
कहने का भाव है-ताउम्र किसी भी व्यक्ति की स्थिति एक समान नहीं रहती। जीवन में उतार-चढ़ाव आता ही रहता है। व्यक्ति को सुख-दु:ख में धैर्यपूर्वक व्यवहार करना चाहिए। घमंड में आकर अत्याचार नहीं करना चाहिए। क्योंकि यश, मान, धन हमेशा छाया बनकर नहीं रहते।

रहिमन जा डर निसि परै, ता दिन डर सब कोय।
पल-पल करके लागते, देखु कहां धौ होय॥

रहीम कहते हैं कि डरा हुआ या उलझनों में उलझा हुआ आदमी न रात को ठीक से सो पाता है और न ही दिन में जाग पाता है यानी उसे कुछ होश नहीं रहता है। वह हर पल डर के साये में जीता रहता है और तरह-तरह के बुरे ख्यालात उसके मन में आते रहते हैं। वह कुछ भी अच्छा नहीं सोच पाता।
रहीम आगे कहते हैं कि क्या पल-पल जागने यानी डर के साये में नींद आती है? पूरा जीवन एक भयावह गुफा में ही भटकते हुए बीत जाता है।
कहने का भाव है-अच्छे दिन और अच्छी रातें जिसके भाग्य में नहीं, वही इस विषम स्थिति को समझ सकता है। डर के साये से निकलना जरूरी है, डर जीवन का दीमक है।

रहिमन जिहवा बावरी, कहिगै सरग पाताल।
आपु तो कहि भीतर रही, जूती खात कपाल॥

रहीम कहते हैं कि आप जो कुछ भी बोलते हैं, उसका ध्यान होना चाहिए क्योंकि शब्द ब्रह्म है। इसका गलत इस्तेमाल होने पर बोलने वाले को ही नुकसान होता है। बावली जीभ बिना सोचे-समझे न जाने क्या-क्या बोल गई। खुद तो वह मुंह के अंदर रही और जूते खाए सिर ने, जो बिल्कुल ही बेकसूर है।
कहने का भाव है-अपनी जीभ पर नियंत्रण रखो, नहीं तो कहीं भी आपका काम बिगड़ सकता है।

रहिमन जो तुम कहत थे, संगति ही गुन होय।
बीच उखारी रसभरा, रस काहै ना होय॥

रहीम का कहना है कि लोगों का मानना है सत्संगति में बदलने का गुण होता है, लेकिन समाज में कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिन पर सत्संगति का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता है जैसे ईख के खेत में उगने वाला रामसर पौधा रात-दिन ईख के साथ ही रहता है, फिर भी उसमें ईख की तरह रस नहीं होता।
कहने का भाव है-जो आदत पड़ जाती है, वह छूटती नहीं है। सज्जनों का साथ दुर्जनों को बदल नहीं पाता है क्योंकि वे खुद को बदलना ही नहीं चाहते। बदला तो उसे जा सकता है, जो खुद को बदलना चाहता हो।

बड़े बड़ाई नहिं तजै, लघु रहीम इतराइ।
राई करौंदा होत है, कटहर होत न राई॥

रहीम कहते हैं कि बड़े लोग यानी सज्जन पुरुष अपना बड़प्पन कभी नहीं छोड़ते हैं। वे अपनी विनम्रता और विनयशीलता को सदा संभालकर रखते हैं क्योंकि वे इन्हीं गुणों से बड़े बने हैं, लेकिन छोटा यानी दुर्जन अभिमान में चूर रहता है।
रहीम आगे कहते हैं - बढ़ने की शुरुआती अवस्था में करौंदा राई की तरह ही छोटा होता है, लेकिन कटहल कभी भी राई के समान छोटा नहीं हो सकता।
कहने का भाव है-जो छोटी मानसिकता के होते हैं. वे किसी भी अवस्था में ओछी हरकतें करते हैं, लेकिन अच्छी सोच वाले व्यक्ति बुरे या अच्छे किसी भी हालात में हों, अच्छी बातें ही करते हैं। वे न तो मर्यादा को भूलते हैं और न ही अनावश्यक रूप से अपने लाभ के लिए झुककर ही बात करते हैं।

बड़े बड़ाई न करें, बड़े न बोलें बोल।
रहिमन हीरा कब कहै, लाख टका मेरा मोल॥

रहीम कहते हैं कि बड़े यानी अच्छे लोग खुद अपनी प्रशंसा नहीं करते हैं और न ही बड़ी-बड़ी बातें ही हांकते हैं, क्योंकि उन्हें अपनी हद का पता होता है। विनम्रता उन्हें ऐसा करने से रोकती है। रहीम आगे कहते हैं- हीरा कब कहता है कि उसका मूल्य लाखों रुपए हैं।
कहने का भाव है - आप क्यों बोलें कि आप क्या हैं.... आपका कर्म आपकी प्रशंसा खुद ही कर देगा।

रहीम के दोहे अर्थ सहित Rahim ke Dohe with meaning

Rahim Ke Dohe In Hindi 40 से 60

बरू रहीम कानन बसिय, असन करियफल तोय।
बन्धु मध्य गति दीन ह्वै बसिबो उचित न होय॥

रहीम कहते हैं कि कहीं दूर जाकर जंगल में बस जाना अच्छा है। जंगली फल-फूल खाकर जीवनयापन कर लेना अच्छा है, पर अपने उन हित - मित्रों या सगे संबंधियों के बीच धनहीन होकर रहना, किसी भी तरह से ठीक नहीं है, जिनके बीच आपने कभी अच्छे दिनों में वैभवपूर्ण जीवन गुजारा हो ।
कहने का भाव है - सगे-संबंधी सिर्फ कहने के लिए अपने होते हैं, वे जैसे अच्छे दिनों को देखकर ईर्ष्या करते हैं, वैसे ही बुरे दिनों में आपका मजाक भी बनाते हैं। उनसे दूर रहना ही ठीक है।

बसि कुसंग चाहत कुसल, यह रहीम जिय सोस।
महिमा घटी समुद्र की, रावन बस्यो परोस॥

रहीम कहते हैं कि आप बसे तो कुसंग में हैं और अपना कुशल भी चाहते हैं। भला यह कैसे सम्भव हो सकता है। कुसंग की संगति में आप कितना भी चाह लें, किन्तु सुखी नहीं रह सकते।
दुराचारी रावण समुद्र के पड़ोस में आ बसा। अंजाम यह हुआ कि समुद्र को अपने ही ऊपर पत्थरों का पुल बनवाना पड़ गया। दुरात्मा रावण के पड़ोस में बस जाने से विशाल समुद्र की महिमा सदा के लिए घट गई।
कहने का भाव है-जैसा पड़ोस होगा वैसा ही फल मिलेगा और आपको भी उसके साथ-साथ दुर्गति सहनी पड़ेगी। गलत संगति से दूर रहने की ही कोशिश करें।

भजौं तो काको मैं भजौं, तजौं तो काको आन।
भजन तजन से बिलग है, तेहिं रहीम तू जान॥

रहीम कहते हैं कि मैं भजन करूं तो किसका भजन करूं? प्रभु तो मुझमें समाया हुआ है। जो पहले से ही हृदय में है, उसके लिए क्या भजन करना। मैं कर्म के रूप में प्रभु को हमेशा भजता रहता हूँ और छोडू, भी तो किसे छोडूं कोई भी तो पराया नहीं है। हर वस्तु में प्रभु समाया हुआ है और जिसमें प्रभु है भला वह चीज परायी कैसे हो सकती है? रहीम की सलाह है कि इस संसार में भजने-तजने के लिए कुछ भी नहीं है। यह सब धर्म के ठेकेदारों का बनाया हुआ फेरा है।
कहने का भाव है-तुम्हें न तो किसी का भजन करने की जरूरत है और न ही तजने की....ईश्वर अंश यह पूरी दुनिया है - बस इससे प्यार करो...सब की भले की सोचो।

भलो भयो घर ते छुट्यो, हस्यो सीस परिखेत।
काके-काके नवत हम, अपत पेट के हेत॥

रहीम कहते हैं कि रणभूमि में युद्ध करते हुए योद्धा का सिर धड़ से अलग होकर जमीन पर जा गिरा और वह हंसते हुए बोला - अच्छा हुआ मैं शहीद हो गया। मेरा मान-सम्मान बच गया। मेरा जन्म सफल हुआ। न जाने अपने पेट के लिए मैं कहां-कहां और किस-किस के आगे अपना शीश झुकाता फिरता।
कहने का भाव है-अपनी मातृभूमि के लिए अपना सिर कटवाने का जज़्बा एक सच्चे देशभक्त में ही होता है। यह जज्बा हर योद्धा में होना चाहिए।

भावी काहू न दही, दही एक भगवान।
भावी ऐसा प्रबल है, कहि रहीम यह जानि॥

रहीम कहते हैं कि भावी यानी होनी ने अपनी आग से किसे नहीं जलाया है? भावी बहुत ही प्रबल है। इसने तो भगवान राम को भी नहीं छोड़ा, बड़ी शक्तिशाली है यह भावी। इसके आगे इंसान बेबस हो जाता है।
कहने का भाव है - आप भी इस बात की गांठ बांध लें। आपका भी इसके आगे कोई जोर नहीं चलने वाला। जो भाग्य में लिखा है, वह होना ही है तो फिर क्यों न आप हंसकर कठिन समय को गुजारें। होनी होकर ही रहेगी, उसे आप अपनी चतुराई से बदल नहीं सकते। आपका सारा प्रयास विफल होगा।

भूप गुनत लघु गुनिन को, गुनी गुनत लघु भूप।
रहिमन गिरी ते भूमि लौं, लखों तौ एकै रूप॥

रहीम कहते हैं कि राजमद में चूर राजा गुणीजनों और विद्वानों को उनकी हैसियत से कम स्तर पर देखता है और ऐसा वह जानबूझ कर करता है। गुणीजन और विद्वान भी राजा को उसकी शक्ति और अधिकार से कम करके ही देखते हैं अर्थात् वैचारिक तौर पर दोनों एक-दूसरे से भिन्न होते हैं और आपसी मतभेद होता है। पहाड़ से लेकर धरती सब एक ही तो है, कुछ भी तो अलग नहीं है। फिर यह ऊंच-नीच का भेदभाव क्यों ?
कहने का भाव है-दुनिया के सभी जीव एक ही प्रभु के अंश हैं। न तो कोई बड़ा है और न ही कोई छोटा। राजा या रंक में कोई अंतर नहीं है। विद्वान-अज्ञानी में कोई भेद नहीं है। ईश्वर की दृष्टि में सभी समान हैं।

मथत मथत माखन रहै, दही मही बिलगाय।
रहिमन सोई मीत है, भीर परे ठहराय॥

रहीम कहते हैं कि मथते-मथते दही-माखन सामने आ जाते हैं। यानी दही-मक्खन अलग-अलग हो जाते हैं। मंथन से पहले मक्खन का कहीं अता-पता नहीं था, लेकिन मंथन के बाद मक्खन ऊपर आ गया।
कहने का भाव है-जो अच्छे दोस्त होते हैं, वे सुख के दिनों में नजर नहीं आते हैं, पर जैसे ही आप पर कोई मुसीबत आती है, वे आपकी मदद के लिए तन-मन-धन के साथ हाजिर हो जाते हैं। सच्चे मित्रों का स्वभाव मक्खन की तरह होता है।

महि नभ सर पंजर कियो, रहिमन बल अवसेष।
सो अर्जुन वैराट घर रहे नारि के भेष॥

रहीम कहते हैं कि महाधनुर्धर अर्जुन ने खांडव वन में आग लगाई, फिर आग को इंद्र द्वारा की गई वर्षा से बुझने से बचाने के लिए अपने बाणों से धरती और आकाश के बीच एक पिंजरा-सा बना दिया, उसी अर्जुन को अज्ञातवास काल में राजा विराट के यहां नारी रूप में रहना पड़ा। कोई नहीं जानता भाग्य का लेख, कब किस तरह का जीवन जीना पड़ जाए।
कहने का भाव है- प्रारब्ध का भुगतान इंसान को करना ही पड़ता है। बुद्धिमानी इसी में है कि हालात से समझौता कर लिया जाए।

मान सहित विष खाय के, संभु भए जगदीस।
बिना मान अमृत पिए, राहु कटायो सीस॥

रहीम कहते हैं कि संसार की भलाई के लिए भगवान शिव विषपान कर जगदीश्वर बन गए और उनका नाम नीलकंठ पड़ गया, लेकिन स्वयं के हित के लिए छल से राहु ने अमृतपान कर अपना सिर कटवा लिया और अपमानित भी होना पड़ा।
कहने का भाव है-मान-सम्मान के साथ सबके हित के लिए किया गया कार्य ही व्यक्ति को महान बनाता है।

मांगे मुकरि न को गयो, केहि न त्योगियो साथ।
मांगत आगे सुख लहयो, ते रहीम रघुनाथ॥

रहीम कहते हैं कि मांगने पर कौन नहीं मना कर देता है? मांगने पर किसने नहीं साथ छोड़ दिया? वह तो एक राम ही हैं, जो मांगने वाले को देखकर खिल उठे। जिसने भी मांगा उसे ही गले से लगा लिया और उसका कभी साथ न छोड़ा।
कहने का भाव है-मांगना ही है तो भगवान राम से मांगो। इंसान से मांगने पर तुम्हें क्या मिलेगा कुछ भी तो नहीं। याचना प्रभु राम से करो और उनके द्वार पर ही जाकर याचक बनो। वे किसी को भी निराश नहीं करते।

यह रहीम मानै नहीं, दिल से नवा जो होय।
चीता चोर कमान के, नए ते अवगुन होय॥

रहीम कहते हैं कि मैं इस बात को स्वीकार नहीं करता, जो ऊपर से सीधे-सादे और सहज दिखते हैं, वे वास्तव में भी विनम्र होते हैं। अधिकांश लोग तो अच्छा होने का दिखावा कर पूरे समाज के साथ छल करते हैं। लोगों की पहचान करना बहुत ही कठिन है।
रहीम आगे कहते हैं - चीता शिकार के समय, चोर चोरी करते समय और शिकारी धनुष पर बाण चढ़ाकर चलाते समय झुके हुए होते हैं। इनके झुकाव में दूसरों का नुकसान ही है।
कहने का भाव है- दुष्ट लोगों की दिखावटी विनम्रता दूसरों के लिए घातक ही होती है। वे विनम्र होने का नाटक दूसरों के साथ छल करने के लिए ही करते हैं। इनसे सावधान रहो।

यह रहीम निज संग लै, जनमत जगत न कोई।
बैर प्रीति अभ्यास जस, होत-होत ही होय॥

रहीम कहते हैं कि बैर, प्रीति, अभ्यास और यश- ये चारों विशेष भाव व्यक्ति साथ लेकर इस संसार में नहीं आता है यानी इन्हें लेकर पैदा नहीं होता है। इनका विकास धीरे-धीरे समय व उम्र के साथ होता है।
कहने का भाव है - व्यक्ति के व्यवहार पर यह निर्भर करता है कि वह कैसा होगा। वह चाहे तो इन भावों को बढ़ा सकता है और चाहे तो घटा भी सकता है। इसलिए जरूरी है कि आप इन चारों भावों को पाने के लिए व्यवहार कुशल और विनम्र बनें। त्याग और समर्पण की भावना रखें।

यों रहीम सुख-दुख सहत, बड़े लोग सह सांति।
उदत चंद चोहि भांति सों, अथवत ताहि भांति॥

रहीम कहते हैं कि बड़े लोग यानी सज्जन पुरुष दु:ख-सुख को समान रूप से लेते हैं। वे इन्हें जीवन के लिए जरूरी मानते हैं। दुःख न तो उन्हें दुखी करता है और न सुख में वे उतावले ही होते हैं। वे सुख-दु:ख में एकसमान जीवन-यापन करते हैं। चंद्रमा जिस चमक के साथ उदय होता है, उसी चमक के साथ अस्त भी होता है।
कहने का भाव है-उदय और अस्त दोनों ही अवस्थाएं जीवन का अभिन्न अंग हैं। इन्हें स्वीकार करने वाला व्यक्ति ही बड़ा कहलाता है। दुःख से दु:खी होकर निराश और सुख से खुश होकर मदमस्त हो जाने वाला व्यक्ति कभी भी महान नहीं हो सकता।

रहिमन अति न कीजिए, गहि रहिए निज कानि।
सैंजन अति फूलै तऊ, डार पात की हानि॥

रहीम कहते हैं कि अति मत कीजिए, क्योंकि अति नुकसानदायक होती है। अपनी मर्यादा में रहिए। किसी भी चीज की अति विनाशकारी होती है।
सहिजन जब आवश्यकता से अधिक फल-फूल जाता है तो उसकी नाजुक डालियां अपने आप ही टूट जाती हैं अर्थात् अति हानिकारक है, इससे बचें।
कहने का भाव है-अपनी क्षमता का ध्यान रखें और किसी भी क्षेत्र में क्यों न कार्य करें। अपनी हद में रहें।

रहिमन अपने पेट सों, बहुत कह्यों समुझाय।
जो तू अनखाए रहे, तो सों को अनखाय॥

रहीम कहते हैं कि मैंने अपने पेट को कितना समझाया कि तू भुक्खड़ मत बन, लेकिन उसने मेरी बात नहीं मानी। मैंने उसे बार-बार समझाया अगर तू अपनी भूख पर यानी खाने-पीने की प्रवृत्ति पर नियंत्रण कर ले तो फिर तुझसे कोई नाराज नहीं होगा। तुझे कोई बुरा नहीं कहेगा और तू किसी पर बोझ भी नहीं बनेगा।
कहने का भाव है-व्यक्ति को अपनी असीमित इच्छाओं पर नियंत्रण रखना चाहिए। असीमित इच्छाएं ही उसके दुखों का कारण हैं और वह इच्छाओं को पूरा करने के लिए जाने क्या-क्या कर गुजरता है।

बड़ माया को दोष यह, जो कबहुं घटि जाय।
तो रहीम गरिबो भलो, दुख सहि जिए बलाय॥

रहीम कहते हैं कि बड़ माया यानी अत्यधिक धन-संपदा हो जाने में दोष यह है कि जब धन-संपदा व्यक्ति को छोड़कर चली जाती है तो पीछे अनेक कष्ट और उलझनें दे जाती है, जिनको सह पाना व्यक्ति के लिए कठिन हो जाता है। धन-संपदा के बिछोह में वह टूट जाता है। धनाभाव की मार को वह सह नहीं पाता है। फिर वह सोचता है कि ऐसे निष्ठुर दु:ख को कौन सहे। अंततः मृत्यु को स्वीकार करना ही अच्छा समझता है।
कहने का भाव है-अति समृद्धि के आ जाने पर व्यक्ति को यह नहीं भूलना चाहिए कि वह हमेशा समृद्धवान ही बना रहेगा। उसे इस बात का ज्ञान होना चाहिए कि समृद्धि हमेशा साथ नहीं रहती है। फिर उसे समृद्धि के जाने का दुःख नहीं होगा।

पुरुष पूजै देवरा, तिय पूजै रघुनाथ।
कहि रहीम दोऊन बने, पड़ो बैल के साथ॥

रहीम कहते हैं कि बिना कुछ किए धरे सब कुछ पाने की इच्छा रखने वाला पति झाड़-फूंक यानी तांत्रिक शक्तियों के आगे-पीछे घूमता फिर रहा है और इधर पत्नी सच्चे मन से अपने घर में ही प्रभु राम की पूजा कर रही है। पति-पत्नी दोनों की ही सोच में जमीन-आसमान का अंतर है। उनके गृहस्थ जीवन में कहीं भी संतुलन नहीं है।
रहीम आगे कहते हैं- जब गाड़ी में अलग-अलग स्वभाव वाले बैल जोत दिए जाते हैं तो गाड़ी भला सही गति से कैसे चल सकती है।
कहने का भाव है-वैवाहिक जीवन में जब तक वैचारिक एकता नहीं होगी, तब तक गृहस्थ जीवन का चहुंमुखी विकास असंभव है।

बढ़त रहीम धनाढ्य धन, धनौं धनी को जाई।
घटे बढ़े वाको कहा, भीख मांगि जो खाई॥

रहीम कहते हैं कि इस संसार की भी गति बड़ी न्यारी है। इसे समझना बड़ा ही कठिन है। धनवान और धनवान होता जा रहा है तथा गरीब और गरीब होता जा रहा है। फिर न जाने क्यों लोग कहते हैं कि दौलत तो आती-जाती है? जो लोग भीख मांगकर गुजारा कर रहे हैं, उनको इस बात की फुर्सत कहां है कि धन कहां बढ़ रहा है और कहां घट रहा है।
कहने का भाव है-समाज के आर्थिक जीवन को समझना कठिन है। धन की कोई गति नहीं होती। जहां पर कठोर श्रम होता है कई बार वहां पर भी धन नहीं होता है?

पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन।
अब दादुर वक्ता भए, हम को पूछत कौन॥

रहीम कहते हैं कि पावस ऋतु के आगमन का संकेत मिलते ही कोयल ने मौन धारण कर लिया, अब मन-ही-मन यह सोचकर शांत हो गई कि अब दादुर वक्ता हो गए। हमको कौन पूछेगा?
कहने का भाव है- व्यक्ति को कोयल की तरह धैर्यवान और बुद्धिमान होना चाहिए। वक्त अगर अनुकूल न हो तो कोयल की तरह शांत रहने में ही हित है। जो वक्त की गति को नहीं पहचानता वह जिंदा नहीं रह पाता है। वक्त बेरहम है, छोड़ता किसी को भी नहीं।

पन्नगबेलि पतिव्रता, रति सम सुनो सुजान।
हिम रहीम बेली दही, सत जोजन दहियान॥

रहीम कहते हैं कि पान की बेल और खूबसूरत पतिव्रता स्त्री दोनों के स्वभाव एकसमान होते हैं। दोनों ही नाजुक और अति संवेदनशील होती हैं। हिम-तुषार पान की बेल को जला देती है और वह सूख कर खत्म हो जाती है। पतिव्रता स्त्री तो सौ योजन दूर की वियोगाग्नि की आंच से ही झुलस जाती है।
कहने का भाव है-स्त्री स्वभाव से बहुत ही कोमल और संवदेन-शील होती है - बिल्कुल पान की बेल की तरह और यदि वह पतिप्रिया है. ...पतिव्रता है तब तो उसे पति का साथ हमेशा मिलना चाहिए वरना उसे मुरझाने में देर नहीं लगती।

रहीम के दोहे और उनके अर्थ

Rahim Ke Dohe In Hindi 60 से 80

पात-पात को सीचि वों, बरी-बरी को लौन।
रहिमन ऐसी बुद्धि को, कहो बैरगो कौन॥

रहीम कहते हैं कि वृक्ष के एक-एक पत्ते और एक-एक डाली को नहीं सींचा जाता है और न ही वृक्ष के फलने-फूलने के लिए एक-एक बड़ी में नमक मिलाया जाता है। रहीम आगे कहते हैं - ऐसी बुद्धि वाले को भला कौन चाहेगा।
कहने का भाव है पेड़ को सींचें, पेड़ के पत्तों को नहीं। पूरी लोर में नमक मिलाओ, एक-एक बड़ी में नहीं अर्थात् किसी भी समस्या का हल जड़ से करो। ऊपरी तौर पर किसी भी समस्या का हल संभव नहीं है।

निज कर क्रिया रहीम कहि, सिधि भावी के हाथ।
पांसे अपने हाथ में, दांव न अपने हाथ॥

रहीम कहते हैं कि कर्म करना आपके हाथ में है, लेकिन सफलता भाग्य के हाथ में है। आप सिर्फ कर्म पर ही ध्यान केन्द्रित करें, फल की इच्छा न रखें। यह तो विधाता के हाथ में है। जुए के खेल में जुआरी के हाथ में पासा तो होता है, पर जीत उसके हाथ में नहीं होती है।
कहने का भाव है-पूरी मेहनत व ईमानदारी के साथ कर्म करो। फल की इच्छा में वक्त न व्यर्थ गंवाओ। जो भाग्य में होगा, वह तो आपको मिलेगा ही।

घूर धरत नित सीस पर, कहु रहीम केहि काज।
जेहि रज मुनि पतनी तरी, सो ढूंढत गजराज॥

रहीम कहते हैं कि हाथी रोजाना अपने सिर पर धूल धारण करके क्यों चलता है? भगवान राम के पांव की जिस धूल के स्पर्श मात्र से गौतम मुनि की श्रापित पत्नी अहिल्या का उद्धार हो गया था, उसी धूल की तलाश यह हाथी भी कर रहा है। वह इस उम्मीद में है कि क्या पता कभी किसी धूल में छिपी वह पद धूल मिल ही जाए और वह भी शापित अहिल्या की तरह तर जाए।
कहने का भाव है-जो व्यक्ति आशावादी होते हैं, वे हर चीज में खुद के लिए कुछ अच्छा ही देखते हैं और यही उनकी सफलता का राज है।

नहीं रहीम कछु रूप गुण, नहिं मृगया अनुराग।
देसी स्वान जो राखिए, भ्रमत भूख ही लाग॥

रहीम ने देशी कुत्ते की तुलना क्षुद्र प्रकृति के व्यक्ति से की है। उनका कहना है कि देशी कुत्ते को पालने से कोई लाभ नहीं। उसमें कोई विशेषता नहीं होती। कोई रूप सौंदर्य नहीं होता। उसे शिकार का भी शौक नहीं - आखिर कोई उसके किस गुण पर मोहित हो। रहीम आगे कहते हैं - वह स्वामी के द्वार को छोड़कर भोजन के लिए न जाने कहां-कहां भ्रमण करता रहता है। स्वामी की सुरक्षा-असुरक्षा का भी उसे ध्यान नहीं रहता।
कहने का भाव है-प्रहरी वही रखने योग्य है, जिसमें स्वामी भक्ति के गुण हों और वह लालची न हो।

नात देह दूरी भली, जो रहीम जिय जानि।
निकट निरादर होत है, ज्यों गड़ही को पानि॥

रहीम का कहना है कि रिश्ते-नाते दूर होने पर ही उनमें मिठास बनी रहती है। समीप आते ही वे अपनी मिठास खो देते हैं। एक-दूसरे की आदतें जान लेने के बाद वह गरमाहट नहीं रह जाती है। समीपता में आकर्षण नहीं होता....दूरियों से ही प्रेम बढ़ता है।
रहीम आगे कहते हैं....घर के आस-पास का तालाब उतना आदर कहां पाता है, जितना आदर गांव-नगर से दूर का तालाब पाता है।
कहने का भाव है-मनुष्य दूर की चीजों को पसंद करता है और नजदीक की चीजें, जो उसे सुलभ हैं, उनसे उसका कोई लगाव नहीं होता है। मानव की यही प्रवृत्ति है। इसमें उसका कोई कसूर नहीं है।

धनि रहीम गति मीन की, जल बिछुरत जिय जाय।
जियत कंज तजि अनत बसि, कहा भौंर को भाय॥

रहीम कहते हैं कि मछली का जल प्रेम धन्य है। अपने प्रेमी जल से अलग होते ही वह प्राण छोड़ देती है। जल ही उसका जीवन है। एक भ्रमर है, जो कमलिनी से प्रेम का ढोंग रचता है और मतलब निकल जाने के बाद यानी रस चूसने के बाद किसी दूसरी कमलिनी के दिल में जा बैठता है। भ्रमर एक कपटी प्रेमी है। मछली की तरह उसका प्रेम नहीं है।
कहने का भाव है-प्रेम करो तो मछली की तरह करो....कपटी भ्रमर की तरह नहीं। यह तो प्रेम न होकर शोषण हुआ। आदर्श प्रेम स्वार्थी नहीं होता।

दोनों रहिमन एक से, जौलों बोलत नाहिं।
जान परत है काक पिक, ऋतु बंसत के माहि॥

रहीम कहते हैं कि जो लोग बोलते नहीं हैं, वे एक जैसे ही लगते हैं। उनमें अंतर करना मुश्किल होता है। कौआ और कोयल भी तो एक जैसे ही दिखते हैं, लेकिन बसंत ऋतु में उन दोनों की सहज ही पहचान हो जाती है। कौआ कांव-कांव की आवाज कर अपनी पहचान करवा देता है और कोयल मधुर स्वर में कू-कू की आवाज कर अपनी पहचान करवा देती है।
कहने का भाव है-लोगों की पहचान बाहरी रूप से नहीं बल्कि बातचीत करने के ढंग और व्यवहार कुशलता से होती है। व्यवहार देखकर ही कोई निर्णय लें।

धन थोरो इज्जत बड़ी, कह रहीम का बात।
जैसे कुल की कुलवधू, चिथड़न माहि समात॥

रहीम कहते हैं कि धन थोड़ा ही है, पर इज्जत है तो समाज में प्रतिष्ठा बनी रहती है। इज्जत से बड़ा धन नहीं हो सकता। धन है, पर इज्जत नहीं है तो फिर समाज में कोई कद्र नहीं हो सकती है।
रहीम आगे कहते हैं - अच्छे खानदान की निर्धन कुलवधू चिथड़ों में यानी फटे-पुराने वस्त्रों में भी अपने स्त्रीत्व की महिमा तथा अपने खानदान की मर्यादा संभाले रहती है। निर्धनता की घड़ी में वह और भी अधिक विनम्र और मर्यादित होकर सामने आती है।
कहने का भाव है-मान-सम्मान, प्रतिष्ठा, मर्यादा ये सब धन से बहुत ऊपर हैं। धन रहे या न रहे, अपनी मर्यादा का दामन नहीं छोड़ना चाहिए।

धन धरा अरू सुतन सों, लग्यों रहै नित चित्त।
नहि रहीम कोऊ लख्यो, गाढ़े दिन को मित्त॥

रहीम कहते हैं कि धन, संतान और स्त्री इनमें ही सारे दिन अपना मन लगाए रहते हो। मोह-माया का यह आकर्षण हमेशा नहीं रहेगा। एक दिन यह फीका पड़ने वाला है। इनमें से कोई भी एक आपको मुक्ति नहीं दिला सकता क्योंकि ये सच्चे मित्र नहीं हैं। अभी कछ बिगडा नहीं है। सजग हो जाओ और बुढ़ापे के लिए ईश्वर को अपना मीत बना लो। मोह-माया से बाहर निकल जाओ।
कहने का भाव है-धन. संतान, स्त्री ये सब गाढे दिन के मीत नहीं है। सब तुम्हारा साथ छोड़ देंगे। एक प्रभु ही हैं, जिनका हाथ थाम लोगे तो वे मुश्किलों की घड़ी में भी हाथ नहीं छोड़ेंगे।

दुख नर सुनि हांसि करै, धरत रहीमन धीर।
कही सुनै सुनि-सुनि करै, ऐसे वे रघुबीर॥

रहीम कहते हैं कि लोग आपका दुःख सुनते हैं और फिर पीठ पीछे आपका दुखड़ा सबको सुना-सुनाकर आपकी हंसी उड़ाते हैं, लेकिन उनमें से कोई भी एक, आपको धीरज नहीं बंधाता है या आपकी मदद के लिए आगे नहीं आता है। ऐसे लोगों की संगति में रहने से क्या लाभ? इनका साथ आज ही छोड़ दो। रहीम आगे कहते हैं - भगवान के आगे अपना दु:ख कहो। वह लोगों की तरह नहीं हैं। वे सबकी सुनते हैं और तुरंत सारे दु:ख हर लेते हैं। भगवान ऐसे दुख भंजन हैं।
कहने का भाव है-जो भी मांगना है ईश्वर से मांगो। उनसे क्या मांग रहे हो जो खुद भिखारी हैं। वे तुम्हारा दुख क्या दूर करेंगे, जो खुद एक संवेदनहीन प्राणी हैं।

दादुर, मोर, किसान मन, लग्यौ रहै धन मांहि।
मैं रहीम चातक रटनि, सरवर को कोउ नाहि॥

रहीम कहते हैं कि मेढ़क, मोर और किसान - ये तीनों ही बादलों से बहुत स्नेह करते हैं। हरदम उनके आने की राह देखते रहते हैं और हमेशा बादलों को देखने के लिए व्याकुल रहते हैं, पर स्वाति नक्षत्र के बादल के लिए जैसा स्नेह-प्रेम चातक के मन में होता है, वैसा इन तीनों में से किसी के भी मन में नहीं होता।
कहने का भाव है-जो व्यक्ति वास्तव में ही प्रेम करते हैं, वे चातक की तरह ही विरह की आग में झुलसते रहते हैं, पर उसमें भी उन्हें आनंद की ही अनुभूति होती है। बिना किसी शिकायत के वे प्रेमी की राह देखते रहते हैं।

तन रहीम है करम बस, मन राखौ वहिओर।
जल में उलटी नाव ज्यों, खैंचत गुन के जोर॥

रहीम कहते हैं कि ऐसा कहा जाता है, शरीर कर्म के वश में है और वह पूर्व जन्मों के कर्म के अनुसार ही कार्य करता है। ठीक है शरीर जैसा करता है, वैसा करने दो, लेकिन मन तो शरीर या कर्म के अधीन नहीं है, वह तो आजाद है। मन को तो अपनी सुविधानुसार चला सकते हो। मन को ही अपने वश में करना है. फिर कर्म के बंधनों से शरीर अपने आप ही मुक्त हो जाएगा।
रहीम आगे कहते हैं - नदी के तीव्र प्रवाह में बह रही नौका को नाविक ऐसे ही बहने या डूबने के लिए छोड़ नहीं देता। वह रस्सी के सहारे नौका को धारा की विपरीत दिशा में खींचकर किनारे पर लाकर ही दम लेता है।
कहने का भाव है-यह शरीर क्या है नौका ही तो है। मन की रस्सी से देह रूपी नौका को खींचकर प्रभु की शरण में ले आओ और जीवन-मृत्यु से मुक्त हो जाओ।

तरुवर फल नहीं खात है, सरवर पियत न पान।
कहि रहीम परकाज हित, संपत्ति सचहिं सुजान॥

रहीम कहते हैं कि वृक्ष अपने फल खुद नहीं खाते हैं और सरोवर अपना पानी खुद नहीं पीते, ठीक इसी तरह से जो लोग सज्जन होते हैं वे अपने धन का संचय खुद के लिए नहीं बल्कि परोपकार के लिए करते हैं।
कहने का भाव है-सज्जनों का पूरा जीवन 'परहित' के लिए होता है। उनका अपना कुछ भी नहीं होता है।

तासो ही कछु पाइए, कीजे जाकी आस।
रीते सरवर पर गए, कैसे बझे पियास॥

रहीम कहते हैं कि उससे ही कुछ पाने की उम्मीद कीजिए, जिसके पास कुछ देने के लिए हो या जो उदार हृदय वाला हो। रीते यानी सूखे सरोवर पर जाने से कैसे प्यास बुझ सकती है। जो रीता, सूखा या खाली हो, वह भला किसी को क्या देगा।
कहने का भाव है - आदमी अक्सर ही वैभवहीन होने का नाटक करने लगता है, जब देखता है कि कोई उससे कुछ मांगने आ रहा है। अतः उससे ही मांगिए, जिससे कुछ मिलने की आस हो। जो पहले से ही रीता है या जो देना ही नहीं चाहता, उससे मांगने से क्या लाभ।

जो रहीम रहिबो चहो, कहौ वही को दाउ।
जो नृप वासर निशि कहे, तो कचपची दिखाउ॥

रहीम का कहना है कि अगर आप अपने व्यवसाय या पद को बनाए रखना चाहते हैं तो समय के साथ चलें। जो आपका राजा यानी अधिकारी कहता हो वही करें। वह रात को दिन और दिन को रात कहे तो आप उसकी बात की काट न करें। राजा या अधिकारी के आगे स्पष्ट बोलना अपशब्द है। वह जैसा कहे वैसा आप भी करें। इसमें हर्ज ही क्या है। इससे अधिकारी या राजा प्रसन्न हो उठेगा। समय की मांग यही है। अधिकारी या राजा के सामने कड़वा सच बोलना भी अहितकर है।
कहने का भाव है-समय के साथ-साथ खुद को भी बदल डालें। जो लोग समय के साथ खुद को नहीं बदलते, उन्हें कुछ भी हासिल नहीं होता है।

टूटे सुजन मनाइए, जो टूटे सौ बार।
रहिमन फिरि-फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार॥

रहीम कहते हैं कि एक बार क्या, सौ बार भी किसी कारणवश यदि आपको चाहने वाला रूठ जाए तो उसे मना लीजिए। अपनों को मनाने से आपका मान और बढ़ जाता है। इसमें संकोच करने की आवश्यकता नहीं है। रहीम आगे कहते हैं - मुक्ताहार टूट जाता है तो क्या उसे फिर से जोड़ा नहीं जाता?
जो आपका अंतरंग साथी है, वह मोतियों की तरह ही कीमती है जैसे, मुक्ताहार से टूटे मोती को फिर से पिरो दिया जाता है उसी तरह सुजन को भी खुद से अलग नहीं किया जाता।
कहने का भाव है-बेशकीमती चीजों की कद्र करना जरूरी है। इनका विकल्प आसानी से नहीं मिलता।

जो रहीम भावी कतहुं, होति आपने हाथ।
राम न जाते हरिन संग, सिय न रावण हाथ॥

रहीम कहते हैं कि यदि होनी भगवान राम के वश में होती तो, न तो राम मृग का आखेट करने जाते और न ही सीता रावण के हाथ लगती। होनी प्रबल होती है। उसके आगे किसी का जोर नहीं चलता। जो होना होता है, वह होकर ही रहता है। उसे रोका नहीं जा सकता।
कहने का भाव है - होनी प्रबल है। उसका ज्ञान होने के बाद भी उसे रोका नहीं जा सकता। जो प्राकृतिक रूप से घट रहा है, उसे रोकने की कोशिश बेकार है क्योंकि यह आपके वश में नहीं है।

जो रहीम होती कहूं, प्रभु गति अपने हाथ।
तो काधों केहि मान तो, आप बड़ाई साथ॥

रहीम कहते हैं कि अगर कुदरत ने होनी-अनहोनी, जीवन-मरण, यश-अपयश आदि का अधिकार मनुष्य जाति को दे दिया होता तो मनुष्य सबसे अधिक खतरनाक जीव साबित होता। फिर वह अपनी शक्ति और अपने अस्तित्व के आगे ईश्वर की प्रभुता को भी स्वीकार नहीं करता। मनुष्य स्वार्थी जीव है। यही वजह है कि कुदरत ने मनुष्य में न जाने कितनी ऐसी कमजोरियां भर दी हैं, जिससे दुनिया का संतुलन बना रहता है।
कहने का भाव है-अधिकारों को प्राप्त कर लेने से व्यक्ति शक्तिशाली और महान नहीं हो जाता। इसके लिए उसे विनम्रता और सज्जनता को भी धारण करना पड़ता है।
अधिकारों को पाकर खुद को ही सब कुछ मानने की प्रवृत्ति खतरनाक होती है।

जो रहीम दीपक दसा, तिय राखत पट ओट।
समय परे ते होत है, वाही पट की चोट॥

रहीम कहते हैं कि गृहिणी जिस दीये को अंधेरा दूर करने के लिए अपने पल्लू की आड़ देकर कमरे में रख आती है, उसी दीये को अंतरंग क्षणों में उसी पल्लू की हवा से बुझा भी देती है।
रहीम का कहने का भाव है-बुरे दिनों की यही गति है। बुरे दिनों में घनिष्ठ मित्र भी घोर दुश्मन बन जाते हैं। गृहिणी को जब उजाले की जरूरत थी, तब अपने पल्लू की आड़ देकर उसने दिये को बुझने नहीं दिया और जब अंधेरे की जरूरत पड़ी तो उसे बड़ी निर्ममता के साथ बुझा दिया। समय और जीवन के इस सच को कभी भूलना नहीं चाहिए।

जो रहीम पगतर परो, रगरि नाक अरू सीस।
निठुरा आगे रोयवो, आंसू गारिवो खीस॥

रहीम कहते हैं कि अपनी गलती पर भी अहंकारी के पैर न पड़ें, नाक न रगड़ें और न ही सिर झुकाएं। ऐसे निर्मम के आगे रोना और आंसू बहाना बेकार है। उसके हृदय में तो दया नाम की चीज ही नहीं है। क्षमा याचना उससे की जाती है, जो क्षमा करना जानता हो।
कहने का भाव है-जिसमें क्षमाशीलता का गुण नहीं, जो निष्ठुर है, खुद को उसके आगे कदापि न झुकने दें।

Rahim Das ke Dohe with Meaning

Rahim Ke Dohe In Hindi 80 से 120

जो मरजाद चली सदा, सोई तो ठहराय।
जो जल उमगें पार तें, सो रहीम बहिजाय॥

रहीम कहते हैं कि जिसकी जो मरजाद यानी मान-मर्यादा सदा से ही चली आ रही है यानी जिसकी जैसी छवि शुरू से बनी हुई है, उसमें हेरफेर करके महान बनने की कल्पना करना, बेवकूफी भरी कोशिश है। शायद आपको यह नहीं पता, जो परंपराएं या मर्यादाएं पहले से ही ठोस सत्य पर टिकी हुई हैं, वे बदलाव की इजाज़त हरगिज नहीं देती हैं।
रहीम आगे कहते हैं - जल की जो लहरें अपनी हद पार करती हैं, वं ऐसे ही व्यर्थ चली जाती हैं और दूसरों को नुकसान ही पहुंचाती हैं।
कहने का भाव है-जो आपकी मर्यादाओं की हद है, उसे कभी न भलें और उसी के अन्दर रहें। अपनी मर्यादा का उल्लंघन हरगिज न करें।

जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।
चंदन विष व्याप्त नहीं, लपटे रहत भुजंग॥

रहीम कहते हैं, जो लोग उत्तम प्रकृति यानी अच्छे स्वभाव के होते हैं, गलत लोगों की संगत में रहने के बाद भी उनका कुछ नहीं बिगड़ता। वे अपनी सज्जनता नहीं छोड़ते जैसे, चंदन के वृक्ष से सर्प लिपटे रहते हैं, फिर भी वह अपनी शीतलता नहीं छोड़ता है अर्थात् विष चंदन पर अपना प्रभाव नहीं डाल पाता। वह सर्प की तरह जहरीला कभी नहीं बनता।
कहने का भाव है-जो लोग अच्छे होते हैं, वे बुरे लोगों के साथ रहकर भी अपनी अच्छाइयों को छोड़ते नहीं हैं।

जे सुलगते बुझि गए, बुझे तो सुलगे नाहिं।
रहिमन दाहे प्रेम के, बुझि-बुझि के सुलगाहिं॥

रहीम कहते हैं कि आग का यही स्वभाव है, वह पहले सुलगती है और सुलगकर बुझ जाती है। बुझ जाती है तो फिर सुलगती नहीं है, लेकिन प्रेम की आग का स्वभाव इसके बिल्कुल उल्टा है - प्रेमाग्नि जलती है, बुझती है और फिर जल जाती है यानी वह बुझ-बुझकर सुलगती है और सुलग - सुलग कर बुझती है। प्रेम अग्नि ऐसी ही होती है।
कहने का भाव है-प्रेमाग्नि अगर सार्थक है तो जीवन सुधर जाता है। भक्त, साधक, प्रेमी इसी आग के जरिए भवसागर पार कर जाते हैं।

जो बड़ेन को लघु कहे, नहीं रहीम घटि जाहिं।
गिरिधर मुरलीधर कहे, कछु दुःख मानत नांहि॥

रहीम कहते हैं कि जो बड़ा होता है, वह बड़ा ही रहता है। बड़े को छोटा कहने से वह छोटा थोड़े ही हो जाता है। गोवर्धन धारण करने वाले गिरिधर को कोई मुरलीधर कहे यानी बांसुरी बजाने वाला मामूली - सा ग्वाला माने तो क्या उनकी महिमा में कोई कमी आ जाती है? नहीं, उन पर इसका कोई असर नहीं होता।
कहने का भाव है - जो लोग महान होते हैं, वे इन बातों की परवाह नहीं करते कि उन्हें कोई क्या कह रहा है। उन्हें खुद के पुरुषार्थ पर भरोसा होता है। वे बड़े हैं तो बड़े ही रहते हैं।

जे रहीम विधि बड़ किए, को कहि दूषन काढ़ि।
चन्द्र दूबरो कूबरो, तऊ नखत तो बाढ़ि॥

रहीम जी कहते हैं कि जिसे ईश्वर ने ही बड़ा बना दिया है, उसमें भला कोई खोट या कमी कैसे निकाल सकता है और निकालेगा भी तो क्या । दूज का चांद कितना दुबला और कितना कुबड़ा होता है, पर कोई उसका परिहास कहां करता है। लोग चांद के इस दोष को गुण के रूप में ही देखते हैं क्योंकि विधाता ने उसे घटने-बढ़ने की शक्ति दी है। लोगों की नजर में यह चांद की विशेषता बन गई है।
कहने का भाव है- विधाता जिस पर मेहरबान होता है उसका दोष भी आभूषण बन जाता है और लोग उसे उसी रूप में स्वीकार कर लेते हैं।

जो गरीब सों हित करै, धनि रहीम वे लोग।
कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग॥

रहीम कहते हैं, वे लोग प्रशंसनीय हैं, जो गरीबों का हित चाहते हैं और उनसे प्रेम करते हैं। महा गरीब सुदामा भगवान कृष्ण की मित्रता के काबिल कहां थे? लेकिन भक्त वत्सल श्री कृष्ण ने गरीब सुदामा को अपनी पलकों पर बैठा कर रखा और उनकी गरीबी को हमेशा के लिए मिटा दिया।
कहने का भाव है-गरीबों से प्रेम करना, उनसे मैत्री भाव रखना ही असली मानव सेवा है। इसका उदाहरण कृष्ण-सुदामा की मित्रता है।

जब लगि जीवन जगत में, सुख-दुःख मिलन अगोट।
रहिमन फूटे गोट ज्यों, परत दुहुन सिर चोट॥

रहीम कहते हैं कि व्यक्ति को अकेला पाकर दु:ख यानी मुसीबतें बड़ी आक्रामकता से उसे अपने शिकंजे में कस लेती हैं। अतः जब तक जीवित रहना है तब तक एकजुट होकर रहें। एकजुटता में बड़ी शक्ति होती है, दुःख पास भी नहीं फटकता। आपस का मतभेद या वैचारिक अलगाव ही सारे दु:खों का कारण है।
रहीम आगे कहते हैं- चौपड़ में जुग फूटते ही दोनों गोटें मारी जाती हैं, अगर जुग न फूटे तो जुग की गोट कभी नहीं मारी जाए।
कहने का भाव है-दो व्यक्ति मिलकर साथ चलें तो उन्हें वक्त भी जल्दी हरा नहीं सकता, इंसान की भला क्या औकात है।

जब लगि बिपुने न आपनु, तब लगि मित न कोय।
रहिमन अंबुज अंबु बिन, रवि ताकर रिपु होय॥

रहीम कहते हैं कि जब तक आपके पास धन नहीं है, तब तक आपका न कोई अपना है और न मित्र ही है। मित्र का होना, न होना धन पर निर्भर करता है।
रहीम आगे कहते हैं- कमल को पुष्पित-विकसित करने वाला सूर्य भी उसे सूखने के लिए छोड़ देता है जब सरोवर में पानी नहीं होता। कहां गई सूर्य की मित्रता? मित्र तो वह होता है, जो सुख-दु:ख में एकसमान स्वभाव रखता है। कमल और सूर्य की बराबरी में काफी फ़र्क है। अतः ये मित्र नहीं हो सकते।
कहने का भाव है-जो आपकी औकात, धन, नाम से प्रभावित होकर दोस्ती करना चाहते हों, उनसे दोस्ती करने से पहले सौ बार सोचें, नहीं तो आपकी भी गति वही होगी, जो गति कमल की सूर्य के साथ मित्रता करने पर होती है।

जलहिं मिलाइ रहीम ज्यों, कियों आपु सग छीर।
अगवहिं आपुहि आप त्यों, सकल आंच की भीर॥

रहीम जी कहते हैं कि दूध पानी को बड़ी सहजता से अपना परम मित्र बना लेता है और पानी भी बेझिझक दूध में घुलमिल जाता है। दोनों एक-दूसरे की अंतरंगता स्वीकार कर लेते हैं।
रहीम कहते हैं- पानी दूध की इस उदारता को भूलता नहीं है। दूध जब आग पर उबलने के लिए रखा जाता है तब पानी आग की सारी पीड़ा को स्वयं स्वीकार करते हुए खुद को ही जलाने लगता है और तब तक दूध को जलने से बचाता है जब तक वह पूरी तरह से खत्म नहीं हो जाता है।
कहने का भाव है-मित्र में ऐसा ही समर्पण भाव होना चाहिए, बिल्कुल पानी जैसा समर्पण भाव।

चरन छुए मस्तक छुए, तेहु नाहिं छांडति पानि।
हियो छुवत प्रभु छोड़ि दै, कहु रहीम का जानि॥

रहीम कहते हैं- मोह-माया से तंग आकर मैंने मंदिर में जाकर प्रभु के चरन छुए, मस्तक छुए, वंदना, पूजन जाने क्या-क्या उपाय किए, पर फिर भी माया ने मेरा साथ नहीं छोड़ा और जब मैंने सब कुछ त्यागकर केवल प्रेम भाव से प्रभु को याद किया तो वह दया सागर मुझ पर फौरन ही मेहरबान हो गए और फिर माया भी मुझको छोड़कर जाने कहां गायब हो गई।
कहने का भाव है-ईश्वर तुम्हारे हृदय में ही है। तुम्हारे पास ही है। इधर-उधर क्या डोलते फिर रहे हो। बस एक बार पूरी श्रद्धा से उसे पुकार कर तो देखो।
वह दया नीधि है, दौड़ा-दौड़ा तुम्हारे पास चला आयेगा। फिर माया की क्या औकात, जो आपको परेशान कर सके।

छिमा बड़ेन को चाहिए, छोटेन को उत्पात।
का रहीम हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात॥

रहीम कहते हैं कि बड़े लोगों में क्षमाशीलता का गुण होना चाहिए। छोटे लोगों का तो स्वभाव ही ऐसा होता है कि वे गलत हरकतें करने से बाज नहीं आते। वे ऐसा जान बूझकर नहीं बल्कि मूढ़ता और जड़ता के कारण ऐसा करते हैं। क्षमा करने पर ही उनकी यह जड़ता मिट सकती है। रहीम आगे कहते हैं कि भगवान विष्णु का क्या घट गया, जो महर्षि भृगु ने उनकी छाती पर लात मारी और बदले में हंस कर उन्हें क्षमा कर दिया। महर्षि भृगु की नजर में भगवान विष्णु का मान और बढ़ गया।
कहने का भाव है-क्षमाशीलता ही व्यक्ति को बड़ा बनाती है। इसमें ही व्यक्ति का बड़प्पन है।

गहि सरना-गत राम की, भवसागर की नाव।
रहिमन जगत उधार कर, और न कछु उपाव॥

रहीम कहते हैं कि राम की शरण में जाओ, वही भव सागर की नाव है। इस भव सागर को पार करने का यही एकमात्र उपाय है। यह नौका समय की गति से अछूती है। मझधार में डूबेगी नहीं, तुम्हें पार लगाकर ही दम लेगी।
कहने का भाव है-प्रभु श्रीराम की भक्ति में ही आपका मोक्ष छिपा हुआ है। मोक्ष की इच्छा है तो राम नाम की नाव में बैठ जाओ, भव सागर पार कर जाओगे।

खरच बढ़यो उद्यम घटयो, नृपति निठुर मन कीन।
कहु रहीम कैसे जिए, थोरे जल की मीन।

रहीम कहते हैं कि खर्च बढ़ गया और आमदनी के स्रोत जो थे, वे घट गए व बुरे दिन आ गए। अधिकार, पद सब कुछ छिन गया। चाटुकारों ने मिलकर राजा को हमारे खिलाफ ऐसा भड़काया कि उसने कठोरता धारण कर ली। जीवन-यापन करना उसी प्रकार मुश्किल हो गया, जिस प्रकार नदी के अथाह जल में तैरने वाली मछली को थोड़े से पानी में रहने पर मजबूर कर दिया जाए।
कहने का भाव है-बुरे दिनों में अच्छे दिनों को याद करना, जीवन को आसान बना देता है।

खीरा को मुंह काटि के, मलियत लोन लगाय।
रहिमन करुए मुखन को, चहियत इहै सजाय॥

रहीम कहते हैं कि खीरे की कड़वाहट तभी जाती है जब उसका मुंह काटकर उस पर नमक मल दिया जाता है। कटुवचन बोलने वालों को भी यही दंड देना चाहिए।
कहने का भाव है-कड़वे बोल बोलने वाले दुष्टों का मुंह बिना देर किए बंद कर देने में ही सबकी भलाई है।

खैर, खून, खांसी, खुशी, बैर, प्रीति, मदपान।
रहिमन दाबे न दबैं, जानत सकल जहान॥

रहीम कहते हैं कि खैर (कत्था), हत्या, खांसी, खुशी, दुश्मनी, प्रेम और मदिरापान- ये दबाने पर भी नहीं दबते हैं। सबके सामने आ ही जाते हैं और इस तरह सारा संसार जान जाता है।
कहने का भाव है-जीवन में कुछ ऐसा भी घटित हो जाता है जो छिपता नहीं है। कोई-न-कोई सुराग भेद खोल ही देता है।

काह कामरी पागरी, जाड़ गए से काज।
रहिमन भूख बुताइए, कैस्यो मिलै अनाज॥

रहीम कहते हैं कि क्या कंबल, क्या चादर सर्दी दूर करने से मतलब है। जब भूख खूब जोरों की लगी हो तब जो भी भोजन मिल जाए, वह सबसे बढ़िया है अर्थात् मौके पर जो काम आ जाए वही चीज व्यक्ति के लिए सर्वोत्तम होती है।
कहने का भाव है-कोई भी चीज खराब नहीं होती, बस वक्त-वक्त की बात होती है। वक्त ही किसी भी चीज को अच्छी या बुरी बनाता है।

कुटिल संग रहीम कहि, साधू बचते नांहि।
ज्यों नैना सैना करें, उरज उमेठे जाहि॥

रहीम कहते हैं कि दुष्टों के साथ रहने वाले सज्जनों को उनकी दुष्टता का फल तुरंत ही मिलता है। सज्जन उनकी दुष्टता के प्रकोप से चाहकर भी नहीं बच पाते जैसे प्रेमिका के नयन, प्रेम की स्वीकृति प्रेमी को संकेत द्वारा देते हैं और मसले जाते हैं उसके निर्दोष उरोज। उरोजों का बस यही जुर्म है कि वे नयनों के साथ होते हैं। नयन मटक्का के इस खेल में नयनों को कोई सजा नहीं मिलती।
कहने का भाव है-बुरे लोगों का साथ अपने आपमें एक जुर्म है। कुसंगति से अपना बचाव करें।

कहु रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग।
वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग॥

रहीम कहते हैं कि भला बेर और केले का संग कैसे निभे यानी उनकी आपस में मित्रता कैसे हो। बेर तो अपनी मस्ती में डोलता है और केले के अंग ही फट जाते हैं। बेर का स्वाभाविक रूप से डोलना, केले के लिए दुष्टता व दुख का कारण बन जाता है। सज्जनों का स्वभाव केले की तरह ही होता है, दुष्टता का जवाब भी तो वे दे नहीं पाते।
कहने का भाव है-सज्जन व दुष्ट व्यक्ति एक साथ आनंदपूर्वक रह ही नहीं सकते। दुष्ट का व्यवहार सज्जन पुरुष के लिए कष्टदायक ही होता है। भलाई इसी में है कि सज्जन दुर्जन का साथ छोड़ दे। इसी में उसका हित है।

कागद को सो पूतरा, सहजहि में घुलि जाय।
रहिमन यह अचरज लखो, सोऊ बैंचत बाय॥

रहीम कहते हैं कि कागज का पुतला जल में देर तक नहीं टिक पाता और देखते-ही-देखते गल जाता है।
आश्चर्य की बात तो यह है कि वह गलते हुए भी उसी तरह से हवा को स्वयं के भीतर खींचता है, जिस तरह से मनुष्य का शरीर मृत्यु के समय तक अपने 'मैं' को नहीं त्यागता है।
कहने का भाव है-मनुष्य का शरीर भी कागज की तरह ही पानी पर तैर रहा है, कब गल जाए कोई ठीक नहीं। फिर यह 'मैं-मैं' किस लिए? सब कछ तो यहीं रह जाएगा। धन-संपत्ति, पत्नी, पत्र, मकान कछ भी तो साथ नहीं जाने वाला।

काज परे कछु और है, काज सरे कछु और।
रहिमन भंवरी के भए, नदी सिसवत मौर॥

रहीम कहते हैं कि रिश्ते-नाते मतलब निकलने तक ही होते हैं। काम पड़ा तो कुछ और हो गए और जब काम बन गया तो कुछ और हो गए। यही है दुनिया काम पड़ने पर हो गए तुम्हारे और काम निकल गया तो कौन है तुम्हारे?
दूल्हे के सिर पर रखा मौर भांवर पड़ने तक कितना सम्मान पाता है और भांवर के बाद उसी मौर को नदी के जल में प्रवाहित कर दिया जाता है।
कहने का भाव है-इस दुनिया में किसी भी चीज की महत्ता उसकी आवश्यकता रहने तक ही रहती है, लेकिन इस सोच पर रोक लगनी चाहिए। कम-से-कम रिश्ते-नाते के मामलों में तो यह प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिए।

कहि रहीम इक दीपतें, प्रगट सबै दुति होय।
तन सनेह कैसे दुरै, दृग दीपक जरू दोय॥

रहीम कहते हैं कि एक ही दीया जल जाने से घर उसके प्रकाश से जगमगा उठता है और घर की सारी चीजें साफ दिखने लगती हैं। रहीम आगे कहते हैं शरीर में एक नहीं दो नयन रूपी दीप जल रहे हैं, फिर प्रेम को कैसे छिपाकर रखा जा सकता है?
कहने का भाव है-प्यार के भाव से चमकती आंखों से मन की बात छुपती नहीं है। वे सब कुछ ताड़ ही जाती हैं। प्रेम से रंजित आंखें प्यार बयां कर ही देती हैं।

कहि रहीम धन बढ़ि घटे, जात धनिन की बात।
घटै बढे उनको कहा, घास बेचिजे खात॥

रहीम कहते हैं कि धन का घटना-बढ़ना और बढ़ना-घटना इन सब बातों का महत्त्व धनाढ्य लोगों की दुनिया में ही होता है, क्योंकि धन के घटने का प्रभाव धनी लोगों पर ही पड़ता है। जो लोग दिन भर घास काटकर बेचते हैं यानी रोज मजदूरी करते हैं, रोज खाते हैं, धन के घटने-बढ़ने के असर से वे बेअसर होते हैं। उनके पास कभी धन ही नहीं रहा तो फिर घटने-बढ़ने का असर उन पर कैसे हो सकता है।
कहने का भाव है-धन का घटना-बढ़ना अमीरों की दुनिया का रोग है। मजदूरों को यह रोग नहीं होता।

कहि रहीम संपत्ति, सगे, बनत बहुत बहु रीत।
विपति कसौटी जे कसे, तेई सांचे मीत॥

रहीम कहते हैं कि अच्छे दिनों में जब धन-दौलत का अंबार लगा हुआ होता है तब लोग जाने कहां-कहां से कैसे-कैसे रिश्ते-नाते बताकर शुभचिंतक और हमदर्द होने का दावा करते रहते हैं। उनमें से सगा कौन है और पराया कौन है? इस काल में उनकी पहचान करना कठिन होता है। सब सगे ही दिखते हैं, लेकिन धन चला जाता है तब बड़ी ही सहजता से हित-अनहित की पहचान हो जाती है। सच ही कहा गया है कि विपत्ति काल में मित्र-शत्रु अपने आप ही अलग-अलग हो जाते हैं। यह दुर्दिन भी हित-अनहित की पहचान करने का मानो एक फार्मूला ही है।
कहने का भाव है-जो आपत्ति काल में सगा बना रहे, वही सच्चा हित-मित्र है।

अछो काम बड़ो करें, तॉन बड़ाई होय।
ज्यों रहीम हनमंत को, गिरधर कहै न कोय॥

रहीम कहते हैं कि छोटा आदमी अगर कोई बड़ा काम कर जाता है तो उसकी कोई तारीफ नहीं होती है, लेकिन बड़े वही कार्य करते हैं तो उसका पूरा-पूरा मूल्यांकन होता है। यह समाज की कैसी मानसिकता है? जैसे हनमुान ने लक्ष्मण की प्राण-रक्षा हेतु रातों-रात संजीवनी सहित पूरा पहाड़ ही उखाड़ा और लंका आ गए, लेकिन उन्हें किसी ने कोई खास नाम नहीं दिया
और भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी उंगली पर उठा लिया तो उनका नाम 'गिरिधर' पड़ गया। क्या यह सही है? लेकिन जो समाज सेवक होते हैं, उन्हें नाम-शोहरत का कोई लालच नहीं होता।
कहने का भाव है-समाज की दृष्टि एकसमान होनी चाहिए। छोटे आदमी के कार्यों का भी मूल्यांकन होना चाहिए।

करत निपुनई गुन बिना, रहिमन निपुन हजूर।
मानहु टेरत बिटप चढ़ि, मोहिं समान को कूर॥

रहीम कहते हैं कि गुणवानों के सामने गुणहीन व्यक्ति अपनी निपुणता दिखाने की कोशिश करता है तो उसे मुंह की ही खानी पड़ती है और उसकी मूर्खता सबके सामने उजागर हो जाती है। मानो वह किसी ऊंचे वृक्ष पर चढ़कर सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार कर रहा हो कि उसके समान कोई ढोंगी और मूर्ख नहीं है।
कहने का भाव है-योग्यता प्रदर्शित करने की चीज नहीं है, वह तो अपने आप ही सबको दिखती है। गुणहीनों को तो वैसे भी गुणवानों की सभा में मौन ही रहना चाहिए।

करमहीन रहिमन लखो, घुसो बड़े घर चोर।
चिंतत ही बड़ लाभ के, जगत ह्वैगो भोर॥

रहीम कहते हैं कि उस करमहीन चोर को तो देखो- एक धनाढ्य व्यक्ति के घर में चोरी के लिए जा घुसा और खजाने के बीच पहुंच भी गया लेकिन धन-दौलत की चकाचौंध ने उसकी मति भ्रमित कर दी। धन की भूख उस पर चढ़ी और चढ़ती ही चली गई। वह बड़े लाभ की चिंता में डूब गया। उसे इस बात की सुधबुध ही न रही कि वह चोर है। जहां वह खड़ा है, वह दूसरे का घर है और वह सम्मोहित-सा ख्याली पुलाव बनाता रहा। जब सुबह हुई तो उसका सम्मोहन टूटा लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। वह पकड़ा गया। लाभ, अतिलाभ, महालाभ के चक्कर में उस कर्महीन को कैद मिल गई।
कहने का भाव है-जो लाभ, अतिलाभ, महालाभ की धारा में बह जाते हैं, उनकी गति चोर जैसी ही हो जाती है और उनके हाथ कुछ भी नहीं लगता।

अंजन दियो तो किरकिरी, सुरमा दियो न जाय।
जिन आंखिन सों हरि लख्यो, रहिमन बलि-बलि जाय॥

रहीम कहते हैं कि मैं अपनी उन आंखों पर बार-बार न्योछावर हो रहा हूं, जिन आंखों से मैंने भगवान के दर्शन किए। मैं तो तर गया, अब मेरी आंखों में मेरे प्रभु हरि का वास हो गया है। आंखों को न तो काजल की जरूरत है और न ही सुरमा डालने की आवश्यकता है। मेरी आंखों की खूबसूरती तो भगवान के दर्शन मात्र से ही बढ़ गई है।
कहने का भाव है-जब आंखों में भगवान का वास हो गया है तो फिर इससे बड़ा सौंदर्य प्रसाधन और क्या हो सकता है।

अंड न बौड़ रहीम कहि, देखि सचिक कन पान।
हस्ती ढक का कुल्हडिन, सहैं ते तरुवर आन॥

रहीम कहते हैं कि अरंडी, तूने अपनी औकात दिखा ही दी। तेरे चार-पांच बड़े-बड़े चिकने पत्ते क्या हो गए, तू तो पागल ही हो गया। घमंडी अरंडी! यह मत भूल कि तू एक जंगली पौधा है। तुझको तो छोटा पौधा कहने में भी झिझक हो रही है।
उन बड़े और उदार स्वभाव वाले वृक्षों को देख, जो फल-फूल से लदे हैं, फिर भी झुके हुए हैं। तू तो तनकर खड़ा है, तुझ पर तो पक्षियों का बसेरा भी नहीं है। पथिक को तू अपनी छाया भी नहीं दे सकता है, फिर खुद पर इतना घमंड क्यों? तुझे तो कोई वृक्ष ही नहीं मानता।
कहने का भाव है-दुष्ट प्रकृति के लोग अरंडी की तरह ही तने हुए होते हैं, पर उनसे लोगों को नुकसान ही होता है अर्थात् दुष्टों का कोई भी अस्तित्व नहीं होता, पर वे अपनी दुष्टता पर पगलाए-फिरते हैं। व्यक्ति को क्षुद्र अरंडी की तरह वैभव के मद में अंधा नहीं होना चाहिए।

उरग तुरंग नारी नृपति, नीच जाति हथियार।
रहिमन इन्हें संभालिए पलटत लगै न बार॥

रहीम कहते हैं कि मुसीबत में फंसा नाग, अधिक परेशान किया गया घोड़ा, प्रताड़ित और पीड़ित स्त्री, मन ही मन क्रोध की आग में जल रहा राजा, सताया गया नीच श्रेणी का व्यक्ति और तेज धार वाला हथियार- इन सब से दूर ही रहिए। ये बहुत खतरनाक होते हैं। इनमें थोड़ी-सी भी दया भावना नहीं होती, मौका मिलते ही ये आपकी जान ले सकते हैं।
कहने का भाव है- प्रताड़ित, अपमानित, सताए हुए प्राणी से हमेशा सावधान रहिए। इन्हें मौका मिला नहीं कि फौरन बदला ले लेते हैं।

आदर घटे नरेस ढिग, बसे रहे कछु नांहि।
जो रहीम कोटि न मिले, धिक जीवन जग मांहि॥

रहीम कहते हैं कि वजह जो भी हो, आपका राजा कान का कच्चा है, उसे चाटुकारिता पसंद है और आप जैसे कर्मठ और कर्त्तव्य परायण व्यक्ति का बहिष्कार कर दिया गया हो तो आपको करोड़ों का धन क्यों न मिलता हो, तो भी आपको वहां टिकना नहीं चाहिए। मान-सम्मान गंवाकर राजकीय सेवा करना, कहीं से भी उचित नहीं है। अगर आप ऐसा धिक्कार भरा जीवन जीना चाहते हैं तो आप वास्तव में ही एक अस्तित्वविहीन व्यक्ति हैं।
कहने का भाव है-जहां आदर-सम्मान न मिले, वहां मोटी तनख्वाह मिलने पर भी नौकरी न करें। स्वाभिमान खोकर तिरस्कृत जीवन एक बोझ-सा बन जाता है और आपकी प्रगति भी रुक-सी जाती है।

आप न काहू काम के, डार पात फल फूल।
औरन को रोकत फिरे, रहिमन पेड़ बबूल॥

रहीम का कहना है कि कांटों से भरा बबूल किसी काम का नहीं। इसकी डालें, पत्ते, फल-फूल आदि का कोई उपयोग नहीं और न ही वह दूसरे फलदार उपयोगी पेड़ों को ही बढ़ने देता है।
कहने का भाव है-जो व्यक्ति कोई कार्य नहीं करते अर्थात् हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहते हैं, वे दूसरों की उन्नति में भी बाधा उत्पन्न करते हैं। ऐसे लोगों से दूर ही रहें।

एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय॥

रहीम कहते हैं कि एक समय में किसी शुरुआती काम को सफलतापूर्वक कर लेने से दूसरे काम भी आसानी से हो जाते हैं, लेकिन सभी कार्य एक ही समय में शुरू करने से किसी एक कार्य में भी सफलता नहीं मिलती है। सभी कार्य विफल हो जाते हैं।
रहीम आगे कहते हैं- अगर किसी पेड़ की जड़ को सींचा जाता है तो ही उस पर फल-फूल नजर आते हैं।
कहने का भाव है-एक समय में एक ही कार्य करें, तभी सफलता मिलेगी। कार्य की अधिकता से घबराकर सभी कार्य एक साथ शुरू कर देना ठीक नहीं।

अनुचित वचन न मानिए, जदपि गुराइसु गाढ़ि।
है रहीम रघुनाथ ते, सुजस भरत को बाढ़ि॥

रहीम कहते हैं कि अगर आपका वर्तमान किसी बात को स्वीकार नहीं कर रहा है और ऊपर से गुणीजनों की ओर से दबाव पर दबाव पड़ रहा है तो आप सबकी सलाहों को दरकिनार कर अपने वर्तमान की बात ही मानें, यही उचित है। किसी के दबाव में आकर अपने अंदर की आवाज़ को अनदेखा न करें। शास्त्र संगत कोई बात भले के लिए कही गयी हो
और अन्तर्मन उसे नकार रहा हो तो सावधान हो जाइए क्योंकि अन्तर्मन यानी अन्तर्यामी रघुनाथ से अधिक शुभचिंतक दूसरा कोई नहीं है।
कहने का भाव है-आपका मन जो बात कबूल करता है, वही ईश्वर की इच्छा है।

अरज गरज मानै नहीं, रहिमन ये जन चारि।
रिनियां राजा मांगता, काम आतुरी नारि॥

रहीम कहते हैं कि जिस व्यक्ति की कर्ज लेने की गंदी लत हो, अदूरदर्शी राजा जो भविष्य की चिन्ता किए बिना अपना हुक्म मनवाने के लिए आतुर हो गया हो, भिखारी तथा कामातुर स्त्री - ये चारों किसी सनकी से कम नहीं होते। अपनी इच्छा को पूरा करने के लिए ये चारों इतने अंधे और उतावले हो जाते हैं कि किसी के भी अनुनय-विनय को नहीं मानते हैं। बस अपनी ही धुन में बहे चले जाते हैं। इन्हें हित-अनहित का जरा-सा भी ध्यान नहीं रहता है।
कहने का भाव है-इन चारों से सावधान रहिए। ये खुद तो मिटेंगे ही, साथ ही आपको भी मिटा देंगे।

अधम वचन ते को फल्यो, बैठि ताड़ की छांह।
रहिमन काम न आइहैं, ये नीरस जग माह॥

रहीम कहते हैं कि अधम और पतित की शरण में जाना ताड़ के नीचे बैठने के समान है क्योंकि ताड़ के नीचे बैठने वाले पथिक को छाया नहीं मिलती। इनकी शरण में जाना आपको दिन-प्रतिदिन पतित ही बनाता चला जाएगा, क्योंकि अधम दूसरों का अशुभ ही सोचता है। उसके कार्य और वचन, भले लोगों के लिए नीरस ही होते हैं।
कहने का भाव है-दुष्टों की शरण में भूलकर भी न जाइए। आपका वहां भला नहीं होने वाला।

अनुचित उचित रहीम लघु, करहि बड़ेन के जोर।
ज्यों ससि के संयोग ते, पचवत आगि चकोर॥

रहीम कहते हैं कि छोटे लोग भी बड़ों का अनुसरण करके महान कार्य कर जाते हैं, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। कवियों ने कहा है कि प्रेमी चकोर चन्द्रमा के प्रेम से भाव विह्वल होकर अंगारे भी खाकर पचा लेता है।
कहने का भाव है-किसी से प्रेरणा लेकर या प्रेरित होकर ही छोटे लोग भी महान-से-महान कार्य कर गुजरते हैं। सामान्य स्थिति में तो ऐसा करना असंभव ही है।

अच्युत चरन तरंगिनी, शिव सिर मालति माल।
हरि न बनायो सुरसरी, कीजो इंदव भाल॥

रहीम गंगा की आराधना करते हुए अपने अन्तर्मन की बात व्यक्त कर रहे हैं- भगवान हरि के चरणों में बहने वाली और महादेव की जटाओं में मालती की माला की शोभा धारण करने वाली, हे मां गंगे! जब मुझे देव लोक भेजना तो मुझे श्री हरि मत बनाना, महादेव शिव बनाना, क्योंकि मैं तुम जैसी पतित पावनी को अपने चरणों में स्थान देकर मातृ प्रतिष्ठा को घटाना नहीं चाहता। हे मातु गंगे! तुम तो जगत तरिणी हो। तुम्हारा स्थान सिर पर ही है।

रहिमन विपदा हू भली, जो थोरे दिन होय।
हित अनहित या जगत में जानि परत सब कोय॥

रहीम कहते हैं कि विपदा अगर थोड़े दिन के लिए आई है तो ठीक है। ऐसे नाजुक हालातों में हित-अनहित की पहचान बड़ी ही सहजता से हो जाती है। आपका सच्चा मित्र कौन है और कौन दुश्मन है? इन दोनों की परख विपत्ति काल में ही हो पाती है।
कहने का भाव है-विपत्ति काल में ही मित्र या शत्रु की पहचान होती है। थोड़े दिन की विपदा मनुष्य के लिए हितकारी ही होती है।

रहिमन वे नर मर चुके, जो कहं मांगन जांहि।
उनते पहिले वेमुए, जिम मुख निकसत नाहिं॥

रहीम कहते हैं कि वे लोग मरे हुए के समान हैं, जो अभाववश किसी के यहां कुछ मांगने जाते हैं, लेकिन उनसे पहले वे लोग मर जाते हैं, जो सामर्थ्य होने के बाद भी देने से मना कर देते हैं।
कहने का भाव है-आप सामर्थ्यवान हैं, ईश्वर ने आपको इस काबिल बनाया है। धन- ऐश्वर्य से भर दिया है तो अपने प्रियजनों की मदद करे। मना करके अपनी अंतरात्मा को जीते जी न मारें।

रहिमन सुधि सबते भली, लगै जो बारंबार।
बिछुरे मानुष फिर मिलें, यहै जान अवतार॥

रहीम कहते हैं कि वे यादें सबसे भली होती हैं, जो बार-बार याद आती हैं और जिंदगी को खुशियों से भर देती हैं। इस तरह बिछुड़े प्रिय से पुनः मिलन हो जाता है।
कहने का भाव है-नजदीकियां बढ़ाने वाली, मतभेद दूर करने वाली और वर्षों से खोए हुए प्रियजनों को ढूंढ निकालने वाली ये यादें वास्तव में ही वंदनीय हैं। ये यादें ही तो हैं, जो विरह वेदना से बाहर निकालकर प्रिय से मिला देती हैं।

रहीम के दोहे और उनके अर्थ

Rahim Ke Dohe In Hindi 120 से 160

रहिमन सूधी चाल तें, प्यादा होत उजीर।
फरजी मीरन ह्वै सकै, टेढ़े की तासीर॥

रहीम का कहना है कि आगे बढ़ने के लिए या उन्नति पाने के लिए काबिलीयत के साथ-साथ व्यवहार कशलता भी जरूरी है। शतरंज के खेल में प्यादा अपने स्थान से उठकर वजीर के स्थान पर जा पहुंचता है जबकि कपट की चाल चलने से मंत्री शहंशाह नहीं बन पाता।
कहने का भाव है- नम्रता और सरलता जब योग्यता के साथ-साथ होती हैं, तब आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता। छल-कपट के सहारे चलने वाला योग्य व्यक्ति उच्च पद भी गंवा बैठता है।

रहिमन सो न कछू गनै, जासों लागो नैन।
सहि के सोच बेसाहियो, गयो हाथ को चैन॥

रहीम कहते हैं कि जिसका किसी से मन मिल गया अर्थात् नैन लग गए यानी प्यार हो गया, वह किसी की कहां सुनता है, वह तो गया काम से। मानो उसने प्रेम के बाजार में जाकर अपना बेशकीमती सुख-चैन बेच दिया और बदले में खरीद लाया विरह की आग।
कहने का भाव है- यह प्रेम का रोग ही ऐसा है. सब कछ खोकर प्रेमी अपनी सुधबुध गवां बैठता है। उसे समझ में नहीं आता कि यह लाभ का सौदा है या हानि का। सच्चाई तो यही है कि प्रेम एक पहेली है।

रीति प्रीति सबसों भली, बैर न हित मित गोत।
रहिमन याही जनम की, वाहरि न संगति होत॥

रहीम कहते हैं कि यह तो हमारी अच्छी किस्मत है कि हमें मनुष्य योनि मिली। कौन जानता है दोबारा जन्म होगा भी या नहीं और यदि होगा भी तो कौन जानता है कि उस जन्म में हमारे हित, मित्र, बन्ध-वान्धव यानी भाई-बंध मिलेंगे भी या नहीं। इस जन्म को सार्थक बना लेने में ही बुद्धिमानी है।
कहने का भाव है-मनुष्य का तन बड़े भाग्य से मिलता है। इसकी सार्थकता तभी है जब आप अपने इस जन्म को अपने पुण्य कर्मों से प्रकाशित कर लें। दोबारा मिले या न मिले यह तन... जी भरकर जी लें।

रूप बिलोकि रहीम तहं, जहं तहं मन लगि जाय।
याके ताकहिं आप बहु, लेत छुड़ाय, छुड़ाय॥

रहीम का कहना है कि सुघड़-सलोना रूप देखते ही, यह मन सम्मोहित हो जाता है। आंखें भी कहां मानती हैं। वे भी मन की तरह रूप से जा मिलती हैं। आंखें थक-हार जाती हैं फिर भी मुड़-मुड़कर देखती हैं। बडी कोशिशों के बाद उन्हें वहां से हटाया जाता है तो भी वे मानती कहां हैं, फिर रूप के भंवर में जा उलझती हैं।
रूप की शक्ति भी कितनी दिव्य और अलौकिक है।
कहने का भाव है-जो रूप जाल में नहीं फंसते यानी जिन्हें रूपसौंदर्य प्रभावित नहीं कर पाता, वे कितने बदनसीब हैं। रूप तो ईश्वर का वरदान है.... सबसे बड़ा करिश्मा है। उसने आपको नहीं मोहित किया तो सोचिए आप कैसे इंसान हैं।

लिखी रहीम लिलार में, भई आन की आन।
पद कर काटि बनारसी, पहुंचे मगहर थान॥

रहीम कहते हैं कि मोक्ष की इच्छा में किसी मूर्ख ने अपने हाथ-पांव काट लिए ताकि वह काशी (बनारस) में ही मरे। न हाथ-पांव होंगे और न ही वह कहीं और जा सकेगा, लेकिन भई आन की आन यानी कुछ का कुछ हो गया। मरने का जब समय करीब आ गया, तब अचानक एक घुड़सवार आया और उस अज्ञानी को घोड़े पर बैठाकर मगहर छोड़ आया। रहीम आगे कहते हैं कि भाग्य के लेख को भला कौन मिटा सकता है। उसे मरना मगहर में था तो वह काशी में भला कैसे मरता।
कहने का भाव है-भाग्य का लेख बहुत प्रबल है। उसे मिटाया नहीं जा सकता है। जो निश्चित है, वह होना ही है।

वहै प्रीति नहिं रीति वह, नहीं पाछि लो हेत।
घटत-घटत रहिमन घटै, ज्यों कर लीन्हे रेत॥

रहीम कहते हैं कि कहां गई प्रेम में जीने-मरने की कसमें? कहां गए सब वे वादे? अब क्या हो गया जो प्रेम का रंग उतर गया? वह प्रेम था ही नहीं। बस प्रेम का ढोंग था। जब कलई खुल गई तब प्रेम घटते-घटते घट गया जैसे मुट्ठी की रेत धीरे-धीरे मुट्ठी से निकल जाती है। अब न प्रेम रहा, न प्रेम निभाने की शक्ति। मानो जीवन ही उजड़ गया यानी वीरान हो गया।
कहने का भाव है-छल-कपट के साथ प्रेम नहीं रहता। वह एक दिन नष्ट हो ही जाता है। प्रेम करें तो प्रेमी के प्रति समर्पण भाव भी रखें।

समय परे ओछे वचन, सबके सहै रहीम।
सभा दुसासन पट गहै, गदा लिए रहे भीम॥

रहीम का कहना है कि हालात और समय के हाथों का खिलौना कौन नहीं होता? हालात जब अनुकूल नहीं होते हैं तब आदमी नीच से नीच और गंदे-से-गंदे वचन सुनने पर विवश हो जाता है। उसकी सहनशक्ति बढ़ जाती है, जैसे, भरी सभा में दुष्ट दुष्यासन द्रौपदी का चीर खींचता रहा और गदाधारी भीम खामोश सिर झुकाए बैठे ही रह गये। दस हजार हाथियों का बल रखने वाले की, हालात के आगे एक न चली।
कहने का भाव है-हालात अनुकूल न होने पर व्यक्ति की सहनशक्ति बढ़ जाती है, जो उसके हित में ही होती है। विपरीत हालातों से लड़ने की शक्ति सहन शक्ति से ही मिलती है।

समय पाय फल होत है, समय पाय झरिजात।
सदा रहे न एक सा, का रहीम पछताय॥

रहीम कहते हैं कि समय की गति के साथ ही सब कुछ चलता है। समय से वृक्ष पर फल लगता है और समय आने पर फल पककर झड़ भी जाता है। हमेशा समय एकसमान नहीं रहता है। सुख हो या दु:ख समय की गति के साथ वे आते-जाते रहते हैं। फिर पछतावा किस बात का....?
कहने का भाव है-समय की गति को पहचानो। आज दु:ख है तो कल सुख भी आयेगा और आज सुख है तो इतराओ मत, कल दुःख की बारी है। इसके लिए हमेशा तैयार रहो।

सरवर के खग एक से, बाढ़त प्रीति न धीम।
पै मराल को मानसर, एकै ठौर रहीम॥

रहीम कहते हैं कि सभी पक्षी एक से ही होते हैं। किसी एक सरोवर से उनका स्थायी प्रेम नहीं होता है। जहां उन्हें पर्याप्त भोजन और पानी मिलता है, वहां उड़कर पहुंच जाते हैं जबकि हंस ऐसा नहीं करता है। उसका प्रेम स्थायी होता है और वह मानसरोवर में ही स्थायी रूप से रहता है। उसका ठौर-ठिकाना एकमात्र मानसरोवर ही है। वह दूसरे पक्षियों से भिन्न है।
कहने का भाव है-आदमी को भोगी प्रवृत्ति का नहीं बनना चाहिए। प्रेम जिससे हो, उसका आजीवन साथ देना चाहिए।

सर सूखै पंछी उडै, औरे सरन समाहि।
दीन मीन बिन पंख के, कहु रहीम कह जाहिं॥

रहीम कहते हैं कि सरोवर के सूखते ही पक्षी उड़ जाते हैं और किसी दूसरे सरोवर की शरण ले लेते हैं, लेकिन इस मीन यानी मछली का क्या. ... बिना पंख के सरोवर के सूखने पर कहां जाए और जाए भी तो कैसे?
कहने का भाव है कि जो गरीब हैं, साधनहीन हैं और बिना ज्ञान के हैं वे भी तो दीन-हीन मीन के ही समान हैं। उनका एकमात्र सहारा प्रभु ही तो हैं। अब वे ही उनका बेड़ा पार लगाएंगे।

स्वासह तुरिय जो उच्चरे, तिय है निश्चल चित्त।
पूत परा घर जानिए, रहिमन तीन पवित्त॥

रहीम कहते हैं कि गृहस्थ आश्रम में रहकर भी जो पुरुष साधना की समाधि में जा पहुंचा है। उसकी पत्नी पतिव्रता और दृढ़ मन की है, उसका पुत्र विद्वान और बड़े नाम वाला है, वह परिवार प्रशंसनीय है। उस परिवार जैसा अमीर कोई नहीं है।
कहने का भाव है ऐसे परिवार में ही ईश्वर का वास होता है और संपत्ति न होते हुए भी सुख की सारी निधियां बसती हैं। इससे बड़ा दूसरा सुख और धन कोई नहीं है।

संतति संपत्ति जान कै, सबको सब कुछ देत।
दीन बन्धु बिन दीन की, को रहीम सुधि लेत॥

रहीम कहते हैं कि जिनके पास धन-जन हैं, अचल संपत्ति है, उनकी लोग आर्थिक संकटों में हर संभव मदद कर खुद को धन्य समझते हैं क्योंकि उन्हें पता होता है कि उनका दिया हुआ, सूद समेत वापस मिल जाएगा, लेकिन उनकी मदद के लिए आगे कोई नहीं आता, जो दीन हीन और कमजोर हैं, यहां तक कि दीनबंधु भगवान भी उनकी मदद करने में संकोच करते हैं। वे लोग समाज के इतने अनचाहे अंग क्यों हैं?
कहने का भाव है-ईश्वर उनकी मदद करता भी है तो लाखों परीक्षाएं लेता है, फिर कतरा भर मदद करता है। आखिर दीन-हीन इतने उपेक्षित क्यों हैं?

संपत्ति भरम गंवाई के, हाथ रहत कछु नाहिं।
ज्यों रहीम ससि रहत है, दिवस अकासहिं माहि॥

रहीम कहते हैं कि संपत्ति दुनिया की अनमोल चीज है। जो व्यक्ति मूर्खतावश संपत्ति के नशे में चूर गलत लतों का शिकार हो जाता है, वह अपने ऐश्वर्य, मान और प्रतिष्ठा का सत्यानाश कर लेता है। उसके हाथ कुछ भी नहीं लगता है। संपत्ति के जाते ही उसका अस्तित्व भी चला जाता है। उसकी दशा उस चंद्रमा की तरह हो जाती है, जो दिन में आकाश के किसी कोने में पड़ा बुझा-बुझा, अनचाहा, उपेक्षित और बिना चांदनी के रहता है।
कहने का भाव है-धन-दौलत से समाज में पहचान बनती है। धन के मद में चूर होकर व्यसनों में इसे मत गंवाइए।

ससि सुकेस साहस सलिल, मान सनेह रहीम।
बढ़त बढ़त जात है, घटत घटत घटि सीस॥

रहीम कहते हैं कि चन्द्रमा, खूबसूरत केश, साहस, पानी, मान, प्रेमये सभी अचानक नहीं, समय के साथ धीरे-धीरे बढ़ते हैं और धीरे-धीरे घट भी जाते हैं।
कहने का भाव है-केश, चन्द्रमा और पानी जैसे स्वाभाविक रूप से बढ़ते हैं, वैसे ही साहस, प्रेम और मान स्वाभाविक रूप से बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए। इनके बिना मनुष्य जन्म व्यर्थ है।

हरि रहीम ऐसी करी, ज्यों कमान सर पूर।
खैंची अपनी ओर को, डारि दियो पुनि दूर॥

रहीम कहते हैं कि जिस तरह कोई धनुर्धर धनुष पर बाण रखकर पहले अपनी तरफ खींचता है, फिर उसे आगे की ओर छोड़ देता है, उसी तरह से पहले तो श्याम ने हम गोपियों को अपनी तरफ खींचा और फिर हमें ऐसे छोड़कर चले गए जैसे, हम उनके कुछ लगते ही न हों। मनमोहन, हमारा प्रेम ऐसा-वैसा नहीं है। तुम हमसे प्रेम करो या न करो, पर हम तुम्हें इतनी आसानी से छोड़ने वाले नहीं हैं। यह विरह की अग्नि और धधकेगी ही, शांत नहीं होगी।

हित रहीम इतनै करें, जाकी जिती बिसात।
नहिं यह रहै न वह रहे, रहै कहन को बात॥

रहीम कहते हैं कि उपकार उतना ही करें, जितनी आपकी क्षमता है। अपनी क्षमता से बढ़कर उपकार करने वाला खुद किसी के उपकार का पात्र बन जाता है। ऐसे लोग याद नहीं किए जाते हैं। इससे यश भी नहीं मिलता। समाज ऐसे उपकार को तथा उपकार के ऐसे पात्र को याद नहीं रख पाता। वही उपकार याद करने योग्य होता है, जो अपनी क्षमता को ध्यान में रखकर किया जाता है।
कहने का भाव है-किसी का भला उतना ही करें, जितना कर सकते हैं। क्षमता से बढ़कर किया गया उपकार या हित, उपकार करने वाले के लिए घातक सिद्ध होता है।

होय न जाकी छांह ढिग, फल रहीम अति दूर।
बढ़िहू सो बिन काज की, जैसे तार खजूर॥

रहीम कहते हैं कि ताड़-खजूर के वृक्ष अति ऊंचे-लम्बे तो हो जाते हैं, पर न तो राही को छाया ही मिलती है और न उनका फल ही आसानी से किसी को खाने को मिलता है।
खजूर व ताड़ के पेड़ की तरह बड़ा यानी वैभवशाली होने से क्या लाभ, यदि आपका धन किसी के काम न आ सके और न आप ही इतने उदार हैं कि किसी की मदद करते हों।
कहने का भाव है-स्वार्थी, अवसरवादी और उदारताविहीन व्यक्ति का बड़ा होना व्यर्थ है।

रौल बिगाड़े राज नैं, मौल बिगाड़े माल।
सनै सनै सरदार की, चुगल बिगाड़े चाल॥

रहीम कहते हैं कि जन आंदोलन राजव्यवस्था को कमजोर कर देता है। कितना भी सुव्यवस्थित राजकाज जनता के आक्रोश को दबा नहीं पाता है। क्रूर और निरंकुश वित्त मंत्री पूरे राज्य की आर्थिक स्थिति को बिगाड़ देता है और चापलूस तथा चुगली लगाने वाले अधिकारी धीरे-धीरे अधिकारी कर्मचारियों के चाल-चलन को बिगाड़ देते हैं अर्थात् जो गलत नहीं होते हैं, उन्हें भी गलत बना देते हैं। राजा को इन सब हालातों से सावधान रहना चाहिए और अपने विवेक तथा बुद्धि का भी इस्तेमाल करना चाहिए।
कहने का भाव यह है-विवेकहीन राजा का राज्य ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकता। यदि उसे दूरदर्शी व चुगलखोर लोगों की पहचान न हो।

रहिमन कहत स्वपेट सों, क्यों न भयो तू पीठ।
रीते अनरीतैं करें, भरै बिगाएँ दीठ॥

रहीम कहते हैं पेट से कि तू पेट क्यों हुआ, पीठ क्यों नहीं हुआ? पीठ होता तो मझे भूख के लिए इतना कुछ करने की जरूरत तो नहीं पड़ती। पेट, तू कैसा है- खाली रहता है तो गलत कार्य भी करने पर मजबूर कर देता है और भरा हुआ होता है तो काम-वासना की आग में झुलसाने लगता है, फिर विवश होकर व्याभिचारी बनना पड़ जाता है। तुझसे तो पीठ ही भली है, जो दूसरों का भार ढोने के काम आती है।
कहने का भाव है-पेट भरा हो तब भी और खाली हो तब भी दोनों ही अवस्थाएं व्यक्ति के लिए ठीक नहीं होती हैं। अमीरी-गरीबी दोनों ही खतरनाक हैं। इच्छाओं पर संयम रखकर ही सुखी रहा जा सकता है।

यों रहीम तन हाट में, मनुआ गयो बिकाय।
ज्यों जल में छाया परे, काया भीतर नाय॥

रहीम ने इस दोहे में सौंदर्य-प्रेमी की मन:स्थिति का वर्णन किया है। रहीम कहते हैं- सौंदर्य का पुजारी तन हाट यानी सौंदर्य के बाजार में टहल रहा है अचानक उसकी नजर एक खूबसूरत बाला पर जा टिकती है। वह उस पर मोहित हो जाता है और बिना मोलभाव के ही उसका सब कुछ बिक गया। उसका सुख-चैन सब लुट गया जैसे, किसी सरोवर के अथाह व शांत जल पर किसी की देह से निकलकर उसकी छाया उभर आई है।
कहने का भाव है-किसी सुंदरी के सौंदर्य पर मोहित व्यक्ति के मन की स्थिति ऐसी हो जाती है कि उसे कुछ सूझता ही नहीं है, लेकिन यह ठीक नहीं है क्योंकि मानव देह भ्रम जाल में उलझने के लिए नहीं बनाई गई है। संयमी व्यक्ति ही ऐसे में खुद पर संयम रख पाते हैं।

यह न रहीम सराहिए, लेन देन की प्रीति।
प्रानन बाजी राखिए, हार होय कै जीति॥

रहीम कहते हैं कि प्रेम में लेन-देन नहीं होता। अगर प्रेम ऐसा है तो ऐसे प्रेम की तारीफ करना बेकार है। यह किसी भी दृष्टि से सराहनीय नहीं है।
प्रेम में तो प्राण की बाजी लगाकर कूद जाना पड़ता है। इसमें हार-जीत का भी ध्यान नहीं रखा जाता है। सच्चे मन से प्रेम की रणभूमि में कूद जाने पर जब कुछ प्राप्त हो जाता है प्रेम तो वही है. जिसमें जीवन-मरण, हानि-लाभ की कोई परवाह ही न हो। बस प्रेम, पूरे समर्पण भाव से प्रेम किए जाओ।
कहने का भाव है-प्रेम के बीच कीमत या ऊंच-नीच का कोई स्थान नहीं होता।

जो रहीम गति दीप की, सुत सपूत की सोय।
बड़ो उजेरो तेहि रहे, गए अंधेरो होय॥

रहीम कहते हैं कि जो दशा दीपक की होती है, वही दशा कुलदीपक की भी होती है। दीपक जलता है तो उजाला हो जाता है और बुझ जाता है तो अंधेरा हो जाता है। कुलदीपक दिनों-दिन बढ़ता है, उन्नति करता है तो घर-आंगन उसके यश से प्रकाशमान हो उठता है और जब असमय ही उसकी मौत हो जाती है तब चारों तरफ घुप्प अंधेरा छा जाता है। कहीं कुछ नजर नहीं आता है। कहने का भाव है-असमय की मौत बहुत ही शोकजनक होती है।

जैसी जाकी बुद्धि है, तैसी कहै बनाय।
ताको बुरा न मानिए, लेन कहां सो जाय॥

रहीम कहते हैं कि जिसकी जैसी बुद्धि होगी, वह वैसी ही बात करता है। ऐसे व्यक्तियों की बात को बुरा न मानें। अब बुद्धि बिकती तो नहीं कि वह कहीं से खरीद लाए।
कहने का भाव है-कुछ ऐसे लोग भी हैं जो जान-बूझकर अपशब्द नहीं बोलते या उनका इरादा अपनी बातों से आहत करने का नहीं होता है। उनकी बुद्धि ही उतनी है तो क्या करें? आप तो समझदार हैं, उन्हें माफ कर दें।

चिंता बुद्धि परखिए, टोटे परख त्रियाहि।
सगे कुबेला परखिए, ठाकुर गुनो कि आहि॥

रहीम कहते हैं कि चारों तरफ से चिंताओं यानी संकटों से घिर जाने पर बुद्धि की परख होती है। धनाभाव के दिनों में पत्नी के धैर्य और निपुणता की परीक्षा होती है। दुर्दिनों में बंधु-बांधवों की परीक्षा होती है और मालिक यानी बॉस की परीक्षा आपत्तिकाल में होती है।
कहने का भाव है-ये चारों दुर्दिनों में साथ देते हैं तभी आप भविष्य में इन पर भरोसा कर सकते हैं अन्यथा इनका साथ व्यर्थ है।

चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।
जिन को कछु न चाहिए, वे साहन के साह॥

रहीम कहते हैं कि जिसको कोई चाह नहीं यानी जो इच्छाओं और चाहतों से परे है, जिसको कोई चिंता नहीं है और जिसका मन दुनिया से बेखबर है... बेपरवाह है, जिसको कुछ भी नहीं चाहिए, सच्चे अर्थों में वही व्यक्ति शहंशाहों का शहंशाह है।
कहने का भाव है-असीमित इच्छाओं, चिंताओं और वासनाओं से भरा पड़ा व्यक्ति शहंशाह होकर भी शहंशाह नहीं होता। असली शहंशाह तो वही है, जिसने इंद्रियों को जीत लिया है। किसी चीज की चाह नहीं है। ई-द्वेष जैसे भाव मन में नहीं हैं और सबके प्रति उदार हृदय वाला है।

कौन बड़ाई जलाही मिलि, गंग नाम भो धीम।
काकी महिमा नहीं घटी, पर घर गए रहीम॥

रहीम कहते हैं कि बिना बुलावे के दूसरे के घर जाने पर किसकी महिमा नहीं घटी अर्थात् किसे न अपनी प्रतिष्ठा गंवानी पड़ी? सबको तारने वाली गंगा भावनाओं में आकर सागर से जा मिली। ऐसे खुले मन से मिली कि समुद्र में ही विलीन हो गई और उसका नामोनिशान ही मिट गया।
कहने का भाव है-खुद की पहचान और अस्मिता व्यक्ति को बचाकर रखनी चाहिए। जब दोनों तरफ से हाथ बढ़ते हैं, तभी मिलन सार्थक होता है। गंगा समुद्र से जिस स्नेह भाव से मिली, समुद्र में वह स्नेह भाव नहीं था। अतः वहीं जाइए जहां आप आमंत्रित हों या आपको चाहने वाले हों।

कदली सीप भुजंग मुख, स्वाति एक गुन तीन।
जैसी संगति बैठिए, तै सोई फल दीन॥

रहीम कहते हैं कि स्वाति नक्षत्र की बारिश की बूंद कदली में जाकर कपूर बन जाती है, समुद्र की सीपी में प्रवेश कर मोती बन जाती है और सांप के मुंह में जाकर विष बन जाती है।
स्वाति नक्षत्र की बारिश का पानी एक है, पर संगति के बदलते ही वह विविध रूपों में बदल जाता है।
कहने का भाव है-जिस तरह की संगति में आप रहेंगे वैसा ही फल आपको मिलेगा। सांप की संगति में स्वाति-जल विष, सीपी की संगति में मोती और केले की संगति में कपूर बन सकता है तो क्या आप पर संगति का प्रभाव नहीं पड़ सकता? इसलिए गलत संगति से बचिए।

अनकीन्ही बातें करै, सोवत जागै जोय।
ताहि सिखाय जगायबो, रहिमन उचित न होय॥

रहीम कहते हैं कि जो व्यक्ति लम्बी-लम्बी बातें कर अपनी काबिलीयत दिखाता है, लेकिन उसके व्यवहार में वे बातें जरा-सी भी नहीं होतीं, ऐसे ढोंगी व्यक्ति को समझाना और जगाना उचित नहीं है। वह किसी की भी सुनने-समझने वाला नहीं है।
कहने का भाव है-ऐसे लोग जागकर भी सो रहे होते हैं और उन्हें अच्छी तरह से पता होता है कि ढोंगी हैं अर्थात् जिसको खुद के बारे में पता है कि वह क्या है, उसे समझाया नहीं जा सकता है। सोये हुए को जगाना आसान है, पर जागे हुए को जगाना असंभव है।

आदि रूप की परम दुति, घट-घट रहि समाई।
लघु मति ते मो मन रसन, अस्तुति कही न जाई॥

रहीम ने इस दोहे में परम पिता परमेश्वर की स्तुति की है। वे कहते हैं- हे परमेश्वर! आप आदि रूप हैं- आपका ही रूप घट-घट में समाया हुआ है। पर्वतों, जंगलों, पक्षियों, पशुओं, फूलों, रंगों और नर-नारी में आपकी ही तो खुशबू और खूबसूरती है। मेरी समझ तो बहुत ही छोटी है। मैं भला आपके इस सौंदर्य का वर्णन कैसे कर सकता हूं? न तो मेरी बुद्धि इतनी बड़ी है और न ही इतने शब्द हैं कि हे आदि पुरुष! आपके मैं सौंदर्य वर्णन में कुछ कह सकू।
कहने का भाव है-सृष्टि के सृजनहार ईश्वर, परमपिता परमेश्वर का सौंदर्य वर्णन मानव सामर्थ्य से परे है।

उत्तम जाती ब्राह्मनी, देखत चित्त लुभाय।
परम पाप पल में हरत, परसत वाके पाय॥

रहीम कहते हैं कि बुद्धि और ज्ञान से सुशोभित ब्रह्मज्ञानी को देख लेने से ही मन आनंदित हो उठता है और उसके चरणों में झुकने मात्र से ही सारे पाप धुल जाते हैं। यहां रहीम ने ब्राह्मनी शब्द का जिक्र, जिसे ब्रह्मा की शक्ति यानी ब्रह्म विद्या का ज्ञान हो, के लिए किया है।
कहने का भाव है-जो ब्रह्म विद्या जानता है अर्थात् जो सारी विद्याओं का ज्ञाता है, उसके दर्शन मात्र से ही व्यक्ति निर्मल और पाप रहित हो जाता है।

जद्यपि नैननि ओट है, विरह चोट बिन धाई।
पिय उर पीरा न करै, हीरा-सी गड़ि जाई॥

रहीम कहते हैं कि विरह वेदना मन में रखने से यूं लगता है- जैसे हीरे की नोक चुभ रही हो। यह स्थिति मन की वेदना और बढ़ा देती है, जो असहनीय हो जाती है इसलिए अपने प्रिय के विरह में किसी भी विरहिणी को जलना नहीं चाहिए। यह पीड़ा, यह जलन दिखती तो नहीं है, पर विरहिनी को भीतर-ही-भीतर जख्मी कर डालती है।
कहने का भाव है-प्रिय के बिछोह में जलें, पर इतना भी नहीं कि आपका अस्तित्व ही मिट जाए।

पलक न टारै बदन ते, पलक न मारै मित्र।
नेकु न चितते ऊतरै, ज्यों कागद में चित्र॥

रहीम प्रेमी हृदय के भाव को व्यक्त करते हुए कहते हैं कि प्रेयसी के रूप-सौंदर्य में उलझे प्रेमी की मनःस्थिति बहुत ही अजीब होती है। उसकी बस यही कोशिश रहती है कि प्रेमिका की देह से नैन हटें ही नहीं। वह तो अपने मित्र की तरफ भी नहीं देख पाता यानी उसे होश ही नहीं रहता। उसके रग-रग में बस प्रेमिका ही समाई रहती है।
कहने का भाव है-प्रेमी को ऐसे में कोई बात नहीं भाती। उसकी आंखों के आगे से या मन से कभी भी प्रेमिका की रूपाकृति नहीं मिटती। वह कागज रूपी नयन में अपनी प्रेयसी का चित्र बनाकर उसे ही निहारता रहता है। यह स्थिति प्रेमी के लिए ठीक नहीं, उसका भविष्य बिगड़ सकता है।

रहसनि बहसनि मन हरै, घोर घोर तन लेहि।
औरन को चित चोरि कै, आपुनि चित्त न देहि॥

रहीम कहते हैं कि रसिक मिजाज स्त्री सभी के मन को लुभाती है अर्थात् हर किसी के मन को हर लेती है और उनका मन बार-बार उसे देखने को करता है। ऐसी चतुर नारी रसिकों का दिल चोरी तो कर लेती है, लेकिन अपना मन किसी को नहीं देती है यानी अपने मन के भाव व्यक्त नहीं करती है।
कहने का भाव है-खूबसूरत स्त्री मोहिनी की तरह होती है।
उसकी मनमोहक अदाओं अर्थात् उसके रूपजाल से दूर रहने में ही भलाई है। जो उसके आकर्षण में बंधा, वह गया।

गरब तराजू करत चरव, भौंह भोरि मुसकयात।
डांडी मारत विरह की, चित चिन्ता घटिजात॥

रहीम कहते हैं कि जिस तरह से धूर्त व्यापारी ग्राहक को अपनी इधर-उधर की बातों में उलझाकर मुस्कराता हुआ, भरमा देता है व डंडी मारकर कम तोलता है और ग्राहक को इसकी खबर तक भी नहीं होती उसी तरह से मोहक अदाओं वाली स्त्री भौंहों को नचाकर मुसकाती है और अपने रूप जाल में फांसती है तथा ग्राहक की तरह ही प्रेमी को इसका ज्ञान नहीं हो पाता कि वह उसे फांस रही है।
कहने का भाव है-चतर-चालाक मनमोहक अदाओं वाली स्त्री और कपटी व्यापारी दोनों में कोई अन्तर नहीं है। एक डंडी मारकर कम तोलता है तो दूसरी दिल चुराकर दर्द देती है। प्रेमी तो बस यही सोचकर खुश हो जाता है कि उसे प्रेम मिल रहा है, चिंता किस बात की।

कलवारी रस प्रेम कों, नैननि भरि भरि लेति।
जोबन मद भांति फिरै, छाती छुवन न देति॥

रहीम कहते हैं कि कलवारिन यानी शराब बनाकर बेचने वाली युवती के नखरे और रूप सौंदर्य का क्या कहना! वह शराब के साथ प्रेम रस के प्याले नयनों से भर-भर कर पिलाती है। अपने यौवन को इधर उधर भटकाती है पर किसी को छूने तक की भी इजाजत नहीं देती है।
कहने का भाव है-उसका यह पेशा है। वह ऐसा नहीं करेगी तो उसकी शराब कौन पियेगा। उसके पास यौवन ही तो है, जो उसे सफल व्यवसायी बनाता है।
कहने का भाव है-एक सफल व्यवसायी में ग्राहकों को अपनी तरफ खींचने के लिए कलवारिन जैसे ही हाव-भाव होने चाहिए।

मुक्त माल उर दोहरा, चौपाई मुख लौन।
आपुन जोवन रूप की, अस्तुति करे न कौन॥

रहीम कहते हैं कि जवानी में ही धर्म प्रवृत्ति की ओर उन्मुख युवती ने दोहरे मोतियों की माला गले में पहन रखी है। वह भगवान की प्रशंसा में चौपाई पढ़ रही है, लेकिन वह अपने रूप, यौवन और मनोभावों की स्तुति क्यों नहीं करती?
कहने का तात्पर्य है-युवावस्था में यह दशा अगर किसी की है तो वह भटक गया है। उसे अपनी जवानी का ख्याल रखते हुए इस भ्रमित मन को समझाने की जरूरत है कि यह उम्र संन्यास की नहीं है।

प्राण पूतरी पातुरी, पातुर कला निधान।
सूरत अंग चित चोरई, काय पांच रस बान॥

रहीम कहते हैं कि वेश्या को भूलकर भी कभी प्राण-प्यारी न समझें। यह आपकी बहुत बड़ी भूल होगी। क्योंकि वह एक छलावा भर ही होती है। मोहक अंगों को दिखाने में निपुण होती है। उसके भ्रम जाल से निकलिए। उसे अपनी प्रेयसी समझने की भूल न करें।
कहने का भाव है-वेश्या कभी किसी की अपनी नहीं होती, उसे प्रेयसी समझना सबसे बड़ी भूल है।

विरह विथा खटकिन कहै, पलक न लावै रैन।
करत कोप बहु भांत ही, छाइ मैन की सैन॥

रहीम कहते हैं कि खटकिन यानी निष्ठुर, बदतमीज तथा निर्मोही स्वभाव वाली स्त्री के प्रेम में उलझा प्रेमी जब विरह वेदना प्रेमिका से बताता है तो वह कोई ध्यान नहीं देती है और न ही इसका असर ही उस पर होता है। वह बस अपने कार्यों में लगी रहती है और नहीं तो उस पर नाराज भी हो जाती है या बिल्कल मौन धारण कर लेती है। विरह अग्नि में जल रहे प्रेमी को खुश करने की कोशिश बिल्कुल भी नहीं करती है। ऐसी खटकिन स्त्री से दिल न ही लगाएं तो अच्छा है।

मानो कागद की गुड़ी, चढ़ी सुप्रेम आकास।
सुरत दूर चित्त बँचई, आइ रहै उर पास॥

रहीम कहते हैं कि प्रेम भाव कागज की बनी पतंग की तरह होता है। वह नयनों रूपी डोर की शह पाते ही आकाश चढ़ जाता है। प्रेम में डूबा हुआ भाव ऐसा ही होता है कि दूर से ही चेहरा देखकर मन को खींच लेता है।
कहने का भाव है-जैसे पतंग डोर के बिना नहीं उड़ सकती वैसे ही प्रेम की भावना रूपी डोर के बिना प्रेम फल-फूल नहीं सकता। प्रेम की भावना ही प्रेमी को खींचकर प्रेमिका के करीब लाती है।

रहिमन नीर परवान, बूडै पै सीझे नहीं।
तैसे मूरख ज्ञान, बूझै पै सूझै नहीं॥

रहीम कहते हैं कि पत्थर पानी में डूब जाएगा, पर तैरेगा नहीं क्योंकि वह पत्थर है....बिल्कुल ही जड़। पत्थर की तरह ही मूर्ख को समझें। वह ज्ञान-ध्यान की बातें सुनता है, समझ भी लेता है पर उसे स्वीकार नहीं करता है।
कहने का भाव है-मूर्ख और जड़ दोनों ही एक जैसे होते हैं। शिक्षा का इन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। वह दम्भी होता है, वह अपनी बात ही ऊंची रखता है।

रहीम के दोहे अर्थ सहित (Rahim Ke Dohe)

Rahim Ke Dohe In Hindi 160 से 180

जाके सिर असभार, सो कस झोंकत भार अस।
रहिमन उतरे पार, भार झोंकि सब भार में॥

रहीम कहते हैं कि समझ में नहीं आता वे लोग कैसे हैं जिनके सिर पर दुनिया भर का भार है, फिर भी आराम से बैठकर भाड़ झोंक रहे हैं। भार को भाड़ में झोंककर पार उतर क्यों नहीं जाते वे लोग। क्या उन्हें तनाव, चिंता, अवसाद के साथ रहना अच्छा लगता है?
कहने का भाव है-सबसे पहले सारी चिंताओं, तनावों का भार सिर से उतारकर उनसे मुक्त हो जाओ। फिर देखो कितना अच्छा लगता है जैसे तुमने भवसागर पार कर लिया। भार कम करने से ही कम होता है।

रहिमन मन की भूल, सेवा करत करील की।
इनतें चाहत फूल, जिन डारन पत्ता नहीं॥

रहीम कहते हैं कि इस कंटीले करील की सेवा कर तुम खूबसूरत सुगंधित फूलों की कामना व्यर्थ ही कर रहे हो। दिखाई नहीं दे रहा, इनकी डाल पर एक पत्ता तक नहीं है। यह क्या खाक तुम्हें सुगंधित फूल देगा।
कहने का भाव है-दुष्टों को सज्जनता का पाठ पढ़ाना बेकार। यह तुम्हारे मन की भूल है कि वे सुधर जायेंगे। दुष्टों का हृदय भावहीन होता है। उसमें भावनाओं के फूल कभी नहीं खिलते अर्थात् जिसका जैसा स्वभाव है, वह बदलता नहीं है और यदि जन्मजात है तब तो बिल्कुल भी नहीं।

ओछे की सतसंग, रहिमन तजहु अंगार ज्यों।
तातो जारै अंग, सीरे पै कारो लगै॥

रहीम कहते हैं कि नीच स्वभाव वालों का संग-साथ अंगार के समान है। आज और अभी इनका साथ छोड़ दो वरना शरीर भी जला लोगे और माथे पर कालिख भी लगा लोगे।
कहने का भाव है कि नीच प्रवृत्ति वाले आदमी का साथ खतरनाक होता है। वह कब क्या कर दे और कब दण्ड तुम्हें मिल जाए कुछ कहा नहीं जा सकता। व्यर्थ में ही तुम इस जन्म को गंवा दोगे। सम्भल जाओ और इनका साथ छोड़ दो।

जो अनुचित कारी तिन्हे, लगे अंक परिनाम।
लखे उरज उर बेधिए, क्यों न होहि मुखस्याम॥

रहीम कहते हैं - जो व्यक्ति गलत होते हैं और गलत कार्य करते हैं, उन्हें अवश्य ही कलंकित होना पड़ता है। इसमें कोई शक नहीं है। खूबसूरत युवा स्त्री के उरोजों को देखकर कोई काम भावना से ग्रसित हो जाता है तो उसका मुंह काला क्यों नहीं होगा?
कहने का भाव है-अनुचित और अव्यावहारिक कार्य प्रशंसनीय नहीं होता। वह एक अपराध होता है, उसे न तो प्रकृति माफ करती है और न कोई समाज, दण्ड मिलता ही है। सम्भल जाओ और अनुचित कार्य आज से ही छोड़ दो।

जेहि रहीम तन-मन लियो, कियोहिय बिच मौन।
तासों सुख-दुःख कहन की, रही बात अब कौन॥

रहीम कहते हैं कि जिसने तन-मन ले लिया। जिसने हृदयांगन में अपना निवास बना लिया। अब उससे अपना सुख-दु:ख क्या कहना। अब तो कोई बात कहने को नहीं रह गई। उससे तो अब कुछ भी छिपा नहीं रहा।
कहने का भाव है-जिससे इतना गहरा लगाव हो गया, वह हमारा और हम उसका सब जान गए तो फिर छिपा ही क्या है, जो छिपाया जाए। वह तो हमारे शरीर का एक अंग बन गया अर्थात् ऐसे व्यक्ति से कुछ छिपाने से भी कोई लाभ नहीं है।

जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोहि।
रहिमन मछरी नीर को, तऊ न छांडति छोह॥

रहीम कहते हैं कि पानी का स्वभाव ही ऐसा है, जाल में मछलियों के फंसते ही पानी उनका साथ छोड़ देता है, लेकिन जाल में फंसी मछलियां अपने प्रिय यानी पानी का बिछोह सहन नहीं कर पातीं और विरहाग्नि में तड़पकर दम तोड देती हैं।
कहने का भाव है-प्रेयसी को इस बात की कहां खबर होती है कि उसके प्रेमी का आचरण कैसा है। उसका प्यार तो मछली की तरह सच्चा होता है। प्रिय का बिछोह उसे जीने नहीं देता जबकि प्रेमी इतना संवेदनशील नहीं होता है।

चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध नरेस।
जापर विपदा पड़त है, सो आवत यहि देस॥

रहीम कहते हैं कि हे रीवा नरेश, आप उस राजा के वंश से हैं, जिनके राज्यकाल में और जिनकी राज्य-भूमि पर अवध नरेश प्रभु रामचन्द्र ने अपने वनवास का शुरुआती समय बिताया और चित्रकूट में तो वे एक तरह से बस ही गए। जिस किसी पर भी मुसीबत आती है, वह इसी राज्य की शरण में आता है और इस विश्वास के साथ आता है कि यहां शरणागत की रक्षा होगी। आप धन्य हैं दानवीर रीवा नरेश कि आपने प्रभु श्रीराम का अपने राज्य में स्वागत किया।

चारा प्यारा जगत में, छाला हित कर लेइ।
ज्यों रहीम आटा लगे, त्यों मृदंग सुर देइ॥

रहीम कहते हैं कि इस संसार में भोजन ही प्यारा है, जिसे यह देह बड़े प्यार से ग्रहण करती है। निर्जीव खाल से बना मृदंग भी स्वर तभी निकालता है जब उसके मुख पर आटे का लेप लगाया जाता है।
कहने का भाव है-भूख ही ऐसी चीज है जब सताने लगती है तब सारे आदर्श, सारे सिद्धांत और सारे मूल्य धरे-के-धरे रह जाते हैं। तब तो बस यही इंतजार रहता है कि कब भोजन मिल जाए। फिर किसी भी तरह से भोजन पाने की ललक कुछ भी करवा देती है। भूख के आगे सभी को नतमस्तक होते देखा गया है।

कैसे निबहैं निबल जन, करि सबलन सों गैर।
रहिमन वासि सागर विषे, करत मगर सों बैर॥

रहीम कहते हैं कि सबल से दुश्मनी कर निर्बल चैन से कैसे रह सकता है। सबल यानी बलशाली कभी और कहीं भी उसे परास्त कर देगा। रहीम आगे कहते हैं कि रहते हो सागर के पानी में और करते हो मगर से शत्रुता। क्या तुम्हें इस बात का ज्ञान नहीं कि पानी में मगर ही सबसे शक्तिशाली है।
कहने का भाव है-अपने से शक्तिशाली के साथ मित्रता नहीं कर सकते तो शत्रुता भी मत करो। यह तुम्हारे लिए किसी भी दृष्टि से अच्छा नहीं है, बेमौत मारे जाओगे।

कहु रहीम कैसे बनै, अनहोनी ह्वै जाय।
मिला रहै औनामिलै, तासों कहा बसाय॥

रहीम कहते हैं कि समय जब साथ नहीं देता यानी आपके अनुकूल नहीं होता तब कुछ भी ठीक नहीं होता। जिस काम में आप हाथ डालते हैं वह होते-होते बिगड़ जाता है। कोई-न-कोई अनहोनी हो ही जाती है। कार्य बनते-बनते बिगड़ जाता है। समय के आगे भला मनुष्य की कहां चलती है।
कहने का भाव है-समय बलवान होता है, आदमी उसके सामने कुछ भी नहीं। समय अच्छा होने पर आदमी के बिगड़े काम भी बन जाते हैं। समय की कद्र जो करते हैं, सफलता उनके कदम अवश्य ही चूमती है।

को रहीम पर द्वार पै, जात न जिय सकुचात।
संपत्ति के सब जात हैं, विपत्ति सब लै जात॥

रहीम कहते हैं कि दुनिया में ऐसा कौन-सा व्यक्ति है, जिसे दूसरे के दरवाजे पर जाते समय संकोच या झिझक नहीं होती है, लेकिन संकोच क्या करना, धनवानों के द्वार पर तो सभी जाते हैं। हकीकत तो यह है कि धनवानों के द्वार पर लोग स्वयं नहीं जाते हैं। वह तो विपत्ति है, जो उन्हें वहां लेकर जाती है।
कहने का भाव है-विपत्ति काल में ही कोई व्यक्ति धनवानों के द्वार पर जाता है। धनवान भी इस बात को जानते हैं और दरवाजे पर आए व्यक्ति को भिखारी नहीं बल्कि शरणागत समझते हैं और जो बनता है प्रेमपूर्वक देकर विदा करते हैं।

गगन चढ़े फरक्यो फिरै, रहिमन बहरी बाज है।
फेरि आई बंधन परै, अधम पेट के काज॥

रहीम कहते हैं कि मालिक की कैद में रहने वाला बहरा बाज जब छोड़ दिया जाता है तब उड़ते हुए आकाश की ऊंचाइयों में जैसे खो-सा जाता है। वह मालिक के आवाज देने पर भी नहीं सुनता और पंख फड़फड़ाकर आजादी का जश्न मनाता है, लेकिन जब भूख लगती है तब उसे न चाहते हुए भी मालिक की कैद में फिर से लौट आना पड़ता है।
कहने का भाव है-पेट की भूख ऐसी होती है, जो बड़े-से-बड़े व्यक्ति को भी नीच-से-नीच कार्य करने पर मजबूर कर देती है। जो लोग ऐसे में समझौता नहीं करते वे कोई असाधारण मनुष्य होते हैं। उन्हें अपनी आजादी ही प्रिय होती है।

गरज आपनी आपसों, रहिमन कही न जाय।
जैसे कुल की कुलवधू, पर घर जात लजाय॥

रहीम कहते हैं कि अपनी मजबूरी या अपनी विवशता आदमी अपने मुख से किसी दूसरे के आगे जल्दी व्यक्त नहीं कर पाता। वह समझ नहीं पाता क्या कहे, कैसे कहे....असमंजस में पड़ जाता है जैसे कुलवधू पड़ोसी के घर जाते हुए शर्म-संकोच का अनुभव करती है। फिर भी मजबूरी होने पर जाती ही है।
कहने का भाव है-ऐसे अपने लोग कहां हैं, जो दूर से ही, बिना कुछ कहे ही मन की बात समझ जाएं। असली अपना तो वही है, जो आपकी जरूरत को खुद ही समझ जाए और यथाशक्ति आपकी मदद करने में जरा-सा भी संकोच न करे।

गुनते लेत रहीम जन, सलिल कूपते काढ़ि।
कूपहु ते कहुं होत है, मन काहू के बाढ़ि॥

रहीम कहते हैं कि प्यास के लगने पर आदमी क्या नहीं करता... वह तो रस्सी की मदद से गहरे कूप से भी पानी निकाल ही लेता है और एक तुम हो जो उस व्यक्ति के मन की थाह नहीं पा रहे हो। क्या कुएं से भी गहरा भला किसी का मन होता है तुम वहां तक पहुंच नहीं पा रहे हो और क्या बात है, जो पता नहीं लगा पा रहे हो?
कहने का भाव है-जब गहरे कुएं से प्यास लगने पर पानी निकाला जा सकता है तो चाह व लगन होने पर कठिन से कठिन व गूढ-से-गूढ़ बात को भी जाना जा सकता है और उसका सही हल निकाला जा सकता है।

गुरुता फबै रहीम कहि, फबि आई है जाहि।
उर पर कुचनी के लगैं, अनत बतौरी आहिं॥

रहीम कहते हैं कि बड़ों पर ही यानी सज्जनों पर ही बड़प्पन शोभा देता है, ओछे और छोटे स्वभाव वालों पर तो यह पैबंद की तरह लगता है और शोभा भी नहीं देता है। बड़प्पन अपने आप में एक पूर्ण शब्द है और उसका स्थान सिर्फ सज्जन लोगों के हृदय में ही है। स्त्री के हृदय पर ही उसके उरोज खिलते हैं यानी देखने में अच्छे लगते हैं। उरोज अगर हृदय पर नहीं किसी और जगह हों तो उन्हें उरोज नहीं बल्कि बतौरी रोग कहा जाएगा।
कहने का भाव है-नम्रता, दयालुता, महानता ये सारे गुण सज्जनों के स्वाभाविक गुण होते हैं। दुर्जन अगर इन्हें धारण करना चाहें तो लोग उन पर विश्वास नहीं करते हैं और उनका कपट ही मानते हैं या कोई चाल मानकर उनसे दूर ही रहने का प्रयास करते हैं।

चढ़िबो मोम तुरंग पर, चलिबो पावक मांहि।
प्रेम पंथ ऐसो कठिन, सब कोउ निबहत नाहिं॥

रहीम कहते हैं कि प्रेम का पथ बड़ा ही कठिन है। इस मार्ग पर आग ही आग होती है। है कोई ऐसा जो मोम के घोड़े पर सवार होकर आग रूपी प्रेम-पथ पर दौड़ लगा सके। कोई जुनून की हद पार कर गया घुड़सवार ही इस पथ को तय कर सकता है। प्रेम-पथ इतना कठिन होता है कि हर कोई इसे पार नहीं कर सकता। कोई पागल प्रेमी ही इस मार्ग पर चल पाता है।
कहने का भाव है-प्रेम आग का शोला है, उसका रास्ता कठिन है। आप पागल प्रेमी हैं तो इस रास्ते को चुनिए वरना पछतावा ही हाथ लगेगा।

छोटेन सों सोहैं बड़े, कहि रहीम यह लेख।
सहसन को हय बांधियत, लै दमरी की मेख॥

रहीम कहते हैं कि छोटों से ही बड़ों का मान बढ़ता है। छोटों के बिना बड़ों की शोभा नहीं बढ़ती क्योंकि छोटे ही उन्हें बड़ा बनाते हैं या उनके सहयोग से उनकी पहचान बनती है।
रहीम आगे कहते हैं- पशु मेले में आदमी हजारों के मोल वाले घोड़े, दमड़ी में खरीदे गए खूटे में ही बांधता है।
कहने का भाव है-हजारों के घोड़े को कम कीमत का खूटा ही तो विक्रय हेतु सबके सामने पेश करता है अर्थात् छोटे लोगों का साथ पाकर ही बड़े लोग अपना वजूद बनाए रखते हैं।

जैसी परै सो सहि रहे, कहि रहीम यह देह।
धरती ही पर परत है, सीत, घाम और मेह॥

रहीम कहते हैं कि यह मानव शरीर भी अद्भुत क्षमता और शक्ति रखता है। इसमें चोट, तनाव, अवसाद, शोक, गम आदि विषमताएं सहन करने की जो क्षमता है, उतनी प्रतिरोधक शक्ति भला अन्य किस चीज में है? मानव शरीर की इन रहस्यमय ऊर्जाओं का ज्ञान बहुत कम लोगों को ही है। शीत, धूप और बारिश के दुर्गम प्रहार को सहने वाली धरती के समान मानव शरीर भी सब कुछ बर्दाश्त कर जाता है।
कहने का भाव है-इतना चमत्कारिक मानव तन पाकर भी आप कछ खास नहीं कर पा रहे हैं तो आपसे बड़ा अभागा और कौन हो सकता है?

जो घर ही में घुसि रहै, कदली सुपत सुडील।
तो रहीम तिनते भले, पथ के अपत करील॥

रहीम कहते हैं कि केले के हरे-भरे सुकोमल पत्ते घर ही में घुसे रहते हैं, उनसे अच्छे तो वे रास्ते के कंटीले हैं, जो राहगीरों का स्वागत करते हैं और उनसे जो भी हो पाता है राही को सुकून देने की कोशिश करते हैं।
कहने का भाव है-सुनसान धरती पर उगने वाले करील, प्रकृति के घात-प्रतिघात को सहते हुए भी अपने बलबूते पर जिंदा रहते हैं और अपने यहां आने वालों का स्वागत भी करते हैं तथा किसी के सहारे की उम्मीद भी नहीं रखते। करील की तरह ही आत्मनिर्भरता का गुण जिनमें होता है, वे जिंदगी की तमाम विषमताओं को झेलते हुए आगे बढ़ते ही जाते हैं और खुद को भी जिन्दा रखते हैं, साथ ही दूसरों की भी सहायता करते हैं।

जो पुरुषारथ ते कहूं, संपत्ति मिलत रहीम।
पेट लागि बैराट घर, तपत रसोई भीम॥

रहीम कहते हैं कि पुरुषार्थ से ही धन-दौलत मिलता है, लेकिन पुरुष कभी-कभार नियति के सामने बौना हो जाता है और हाथ-पर-हाथ रख कर बैठ जाता है। रहीम का कहना है कि अगर पुरुषार्थ से ही धन मिलता तो फिर भीम को क्या जरूरत थी, अज्ञातवास के दिनों में राजा विराट के यहां रसोइया बनने की?
कहने का भाव है-कभी-कभी पुरुषार्थ अर्थात् कर्म से भी बड़ा प्रारब्ध यानी भाग्य हो जाता है और उसके आगे आदमी का पुरुषार्थ फीका पड़ जाता है।

रहीम के दोहे और अर्थ

Rahim Ke Dohe In Hindi 180 से 230

जो रहीम करिबो हुतो, ब्रज को यही हवाल।
तो काहे कर पर धरयो, गोवर्धन गोपाल॥

रहीम कहते हैं कि भाव विह्वल एक गोपी उद्धव से कहती है - हे उद्धव! जाकर हमारे मोहन से कहना, जब उनको यही करना था... ब्रज को छोड़कर ही जाना था तो फिर अपने हाथ पर गोवर्धन क्यों धारण किया? ब्रज की रक्षा क्यों की? हम उनकी विरह वेदना में यूं भी मर ही रहे हैं। पहले ही मर गए होते तो अच्छा ही रहता। यह दिन देखना तो नहीं पड़ता।

जो रहीम मन हाथ है, तो तन कहूं किन जाहिं।
ज्यों जल में छाया परे, काया भीजत नाहिं॥

रहीम कहते हैं कि मन वश में है तो शरीर जहां चाहे जाए, उससे व्यक्ति पर कोई फर्क नहीं पड़ता जैसे पानी में शरीर की छाया भीगती नहीं है, सिर्फ नजर आती है। छाया का मन जहां चाहे जाए उससे शरीर पर कोई फर्क नहीं पड़ता, जब तक खुद शरीर, पानी में न उतरे।
कहने का भाव है-मन को वश में करो। मन के वश में होने पर ही शरीर निरोग और स्वस्थ रह पाता है। जिसका मन वश में नहीं होता, उसका शरीर दोषों का घर बन जाता है।

जो विषया संतन तजो, मूढ़ ताहि लपटात।
ज्यों नर डारत वमन कर, स्वान स्वाद सो खात॥

रहीम कहते हैं कि जिन विषयों को सज्जन पुरुष जीवन का नरक और शत्रु मानकर छोड़ देते हैं, मूढ़ और दुर्जन उन्हीं विषयों को धारण कर लेते हैं और उन्हीं को जीवन का सबसे बड़ा हितैषी मानते हैं तथा इन विषय वासनाओं में आजीवन लिप्त रहकर अपना जीवन बरबाद कर लेते हैं जैसे, मनुष्य के वमन को कुत्ता बड़े स्वाद के साथ खाता है।
कहने का भाव है-सज्जनों के लिए जो बातें अशोभनीय और अवांछनीय होती हैं, वे ही बातें दुर्जनों के लिए वरदान के समान होती हैं और वे प्रेमपूर्वक पूरी जिंदगी उन विषय - वासनाओं में लिप्त रहते हैं। दुर्जनों की संगति से दूर ही रहें।

ज्यों नाचत कठपूतरी करम नचावत गात।
अपने हाथ रहीम ज्यों, नहीं आपने हाथ॥

रहीम कहते हैं कि जैसे कठपुतली धागे के इशारे पर नाचती है, वैसे ही पूर्व जन्म के कर्म शरीर को नचाते हैं। अपने हाथ जैसे अपने वश में नहीं होते हैं।
कहने का भाव है-बुद्धिमान व्यक्ति भी कर्म में विश्वास करना बंद कर देता है और अपनी असफलता का कारण भाग्य को ही मानने लगता है। उसका ऐसा सोचना ठीक नहीं है। भाग्य के भरोसे बैठकर कर्महीन बन जाना जीवन से पलायन करने जैसा ही है। यानी भाग्य कोई चीज है, पर कर्मवीर चाहें तो भाग्य को भी बदल सकते हैं।

तै रहीम अब कौन है, एती खैंचत बाय।
खस कागद को पूतरा, नमी मांहि घुल जाय॥

रहीम कहते हैं कि तू कौन है, जो पानी पर बैठा घमंड - अभिमान की सांस ले रहा है। ऐ खस-कागज के पुतले, क्या तुझे पता नहीं है कि नमी पाते ही तू क्षण भर में ही घुल जायेगा? रहीम ने कागज के पुतले से मानव शरीर की तुलना की है। उनका कहना है कि मनुष्य इतना घमंड इस शरीर पर क्यों करता है। क्या उसे यह नहीं पता कि यह शरीर क्षण-भंगुर ही पानी पर बैठे कागज के पुतले की तरह है।

थोथे बादर क्वार के, ज्यों रहीम घहरात।
धनी पुरुष निर्धन भए, करे पाछिली बात॥

रहीम कहते हैं कि क्वार माह के जलहीन बादल यूं ही गरजते हैं, बरसते नहीं। धनवान व्यक्ति भी निर्धन हो जाने पर क्वार माह के बादलों की तरह ही अपने अतीत की गर्जना करते हैं, जिसका कोई औचित्य ही नहीं।
कहने का भाव है-कल आप क्या थे, उसको लेकर जीने से बेहतर है कि आज आप क्या हैं, उसे जीयें। जीवन यही है।

दिव्य दीनता के रमहि, का जाने जग अंधु।
भली विचारी दीनता, दीनबंधु से बंधु॥

रहीम यहां दीनता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि धनवानों का यह अंधा संसार क्या जाने कि दीनता कितनी दिव्य है और उसमें जीवन के कितने रस हैं। हमारी दीनता ही भली है क्योंकि दीन बंधु भगवान हमारे बंधु हैं। अब भला हमें और क्या चाहिए?
कहने का भाव है-दीनता में ही व्यक्ति ईश्वर की शरण में जाता है, अमीरी में तो वह ईश्वर को याद ही नहीं कर पाता। अतः दीनता ही अच्छी है, कम-से-कम मनुष्य ईश्वर के करीब तो रहता है।

दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय।
जो रहीम दीनहिं लखतु, दीनबंधु समहोय॥

रहीम कहते हैं कि दीन सभी को आशा भरी दृष्टि से देखता है, किन्तु दीन की तरफ कोई भी दाता की दृष्टि से नहीं देखता है। उसकी तरफ से सब मुंह फेर लेते हैं। जो दीन-दुखियों को दया भरी दृष्टि से देखता है और यथा संभव उसकी सहायता करता है, वह दीनबंधु भगवान के समान हो जाता है।
कहने का भाव है-जब ईश्वर ने दिया है तो दान-पुण्य भी करना चाहिए। ईश्वर ने इसीलिए समर्थवान बनाया है। दीन-दुखियों की तरफ से नजर फेर लेने से ईश्वर को बुरा लगता है क्योंकि वह दीनबंधु हैं। उन्हें स्वप्न में भी अच्छा नहीं लगता कि कोई दीन हीन की उपेक्षा करे।

दुरदिन परे रहीम कहि, दुस्थल जैयत भागि।
ठाढ़े हूजत घूर पर, जब घर लागति आगि॥

रहीम आपद् धर्म की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि बुरे दिनों में यह नहीं देखा जाता कि क्या गलत है और क्या सही... क्या शुभ है और क्या अशुभ। दुर्दिन में लोग अपना सब कुछ त्यागकर घर से बाहर कहीं भी जा खड़े होते हैं, जो किसी भी दृष्टि में सही नहीं होता जैसे घर में आग लग जाने पर लोग घूरे यानी कचरे के ढेर पर भी जान बचाने के लिए खड़े हो जाते हैं।
कहने का भाव है-विपत्ति काल में अच्छा-बुरा या शुभ-अशुभ नहीं देखा जाता, बस अपने अस्तित्व की रक्षा की जाती है, क्योंकि जान है तो जहान है।

दुरदिन परे रहीम कहि, भूलत सब पहिचानी।
सोच नहीं वित्त हानि को, जोन होय हित हानि॥

रहीम कहते हैं कि दुर्दिनों में जानने-पहचानने वाले हित-मित्र सब भूल जाते हैं। दुःख इस बात का नहीं कि धन चला गया, वह तो आता-जाता रहता है, दुःख इस बात का है कि धन के जाते ही मित्र की भी हानि हो गयी यानी मित्र भी उसके साथ चले गए। जो अपने थे उनसे भी संबंध खत्म हो गए।
कहने का भाव है-धन की हानि होने पर मित्र की भी हानि सहनी पड़ती है, इसलिए धन हानि दु:खदायक है।

देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन।
लोग भरम हमपै धरै, याते नीचे नैन॥

रहीम कहते हैं कि देने वाला कोई और है, जो रात-दिन भेजता रहता है। लोग इस झूठे भ्रम में रहते हैं कि वे ही सब कर रहे हैं। उन्हें इस बात का नहीं पता कि वे तो सिर्फ माध्यम हैं. देने वाला दाता तो कोई और है; जो दिखाई नहीं देता, पर उसकी दिव्य शक्तियां पल-पल साथ रहती हैं और उन्हें दाता होने का गौरव प्रदान करती हैं, लेकिन इसमें लोगों का क्या कसूर? उन्हें तो यह लगना स्वाभाविक है कि दाता वे ही हैं। जो जानते हैं कि दाता कोई और है वे सिर्फ माध्यम-भर हैं अतः देते समय उनकी नजर नीचे ही रहती है।
कहने का भाव है-ईश्वर सबसे बड़ा दाता है और उसी की कृपा से हम दाता बनते हैं। हमें दान देते समय उस ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए कि उसने इस काबिल बनाया है तो हमें झुककर इस पुण्य कार्य का भागीदार बनना चाहिए।

धनि रहीम जल पंख को, लघु जिय पियत अघाय।
उदघि बड़ाई कौन है, जगत पिआसो जाय॥

रहीम कहते हैं कि धन्य है पोखर-तलैया का कीचड़ सना वह जल, जिसको पीकर ईश्वर के छोटे-से-छोटे कमजोर, दुर्बल और हीन जीव-जन्तु भी सुखद जीवन यापन करते हैं। उस महासागर की महिमा का क्या करना, जिसके पास जाकर जगत प्यासा ही लौट आता है।
कहने का भाव है-दीन-हीन और उपेक्षित लोगों और निरीह जीव-जंतुओं की सेवा करने वाले वे लोग उनसे बड़े हैं, जो दुनिया के सबसे अमीर कहे जाते हैं। उनकी अमीरी किस काम की, जो जरूरतमंदों के किसी काम ही नहीं आती।

नाद रीझि तन देत मृग, नर धन देत समेत।
ते रहिमन पसु ते अधिक, रीझे हुं कछु न देत॥

रहीम कहते हैं कि हिरन शिकारी द्वारा बजाई जाते बांसुरी की धुन पर मोहित होकर तन देत यानी उसका शिकार बन जाता है अर्थात् बांसुरी की एक मीठी तान पर वह अपना शरीर ही न्योछावर कर देता है। रहीम कहते हैं, वे व्यक्ति तो उस पशु हिरन से भी गए-गुजरे हैं, जो किसी की विद्वता कला-कौशलता पर रीझने के बाद भी कुछ नहीं देते हैं। ऐसे मन के गरीब और दरिद्र लोगों के सामने अपनी कला का प्रदर्शन करना ही बेकार है।

परि रहिबो मरिबो भलो, सहिबो कठिन कलेस।
बामन हवै बलि को छल्यो, दियो भलो उपदेश॥

रहीम कहते हैं कि कहीं एकांत में जाकर मृत्यु को प्राप्त कर लो। कठिन-से-कठिन दुख-क्लेश सह लो, लेकिन किसी के साथ छल न करोः कपट का खेल न खेलो: विश्वासघात न करो और कपट से कुछ भी न हथियाओ। छल-कपट जीवन के माथे पर कलंक है। बामन रूप धारण कर भगवान ने राजा बलि का सब कुछ ले लिया, लेकिन छलते वक्त वह कितने बौने और छोटे हो गए थे। किसी को छलना कितना नीच कर्म है, शायद यही उपदेश देने के लिए भगवान ने बामन रूप धरा था।
कहने का भाव है-जब भगवान बामन के रूप में छलते हुए इतने लज्जित हो गए.... ओछे हो गए तो फिर वास्तव में ही छल करना एक निकृष्ट कर्म है। व्यक्ति को इससे बचना चाहिए।

बड़े दीन को दुःख सुने, लेत दया उर आनि।
हरि हाथी सों कबहुति, कहु रहीम पहिचानि॥

रहीम कहते हैं कि जो लोग बड़े यानी सज्जन होते हैं वे गरीबों की सुनते हैं और यथासम्भव उनकी सहायता भी करते हैं क्योंकि उनका हृदय उनकी दशा को महसूस करते ही द्रवित हो उठता है। भगवान विष्णु की हाथी से कहां जान-पहचान थी? फिर भी वह गजेंद्र की करुण पुकार सुनते ही दौड़े चले आए थे और उसे मौत के मुंह से बचा लिया था।
कहने का भाव है-उंदार हृदय वाले सज्जन पुरुष मुसीबत में फंसे अजनबी की मदद के लिए दौड़े चले आते हैं, उनके लिए पूरा संसार ही अपना कुटुम्ब होता है।

भावी या उन मान की, पांडव बनहिं रहीम।
तदपि गौरि सुनि बांझ, बरू है संभु यजमि॥

रहीम कहते हैं कि भावी बहुत ही प्रबल होती है। इसके हृदय में न तो करुणा होती है और न ही दया होती है। यह संवेदनाहीन होती है। इसने धर्मात्मा और दयालु पांडवों को भी नहीं छोड़ा और उन्हें वनवास दे दिया तथा भगवान शिव की पत्नी गौरी को भी नि:संतान ही रहने दिया।
कहने का भाव है-भाग्य प्रबल है। जो होना है, वह होकर ही रहेगा। यह राजा-रंक में कोई भेद नहीं करता। यह सब भाग्य का ही किया धरा है।

भीत गिरी पाखान की, अररानी वहि ठाम।
अब रहीम धोखो यहै, को लागै केहि काम॥

रहीम कहते हैं कि घनघोर बारिश से मजबूत किले की भव्य दीवारें ढह गईं, सारे ईंट-पत्थर इधर-उधर बिखर गये। दुर्ग की दीवार से अलग होते ही उनका अस्तित्व मिट गया।
अब ईश्वर ही जानें उन पत्थरों में से कौन-सा पत्थर कहां जाएगा और कहां उसका इस्तेमाल होगा। 
कहने का भाव है-अपने अस्तित्व से अलग हुए पत्थरों का जैसे कोई भविष्य नहीं, इंसान का भी बल, अस्तित्व व पद गंवाने के बाद यही हाल होता है। वह पद और सम्मान बड़ी मुश्किल से ही पुनः प्राप्त होता है।

माह मास लहि टेसुआ, मीन परे थल और।
त्यों रहीम जग जानिए, छुटे आपने ठौर॥

रहीम कहते हैं कि माघ का महीना पलाश के लिए दुर्दिनों भरा होता है क्योंकि वह उससे सब कुछ छीन लेता है तथा उसे फूल-पत्तों रहित कर विपन्न कर देता है। पानी की धार को चीरने वाली मछली भी पानी के सूख जाने पर गीन, गतिहीन और निष्प्राण-सी पड़ जाती है, अपने स्थान से अलग हुए आदमी की दशा भी ऐसी ही हो जाती है।
कहने का भाव है-अपने पद और स्थान से अलग हुआ विद्वान आदमी भी प्रभावहीन हो जाता है। फिर उसे कोई नहीं पूछता है। उसकी मति, बुद्धि मारी जाती है और वह सबके लिए अवांछित हो जाता है।

मूढ़ मंडली में सुजन, ठहरत नहीं बिसेख।
स्याम कंचन में संत ज्यों, दूरि की जिअत देख॥

रहीम कहते हैं कि मूल् की मंडली में सज्जन अधिक समय तक नहीं रुक पाते हैं। मूों की सभा में भला उनकी कौन सुनने वाला? काले बालों के बीच में भी तो सफेद बाल दिख जाने पर तोड़कर निकाल दिया जाता है।
कहने का भाव है-गलत लोगों की सभा में सज्जनों को नहीं जाना चाहिए। दुर्जनों को सज्जनों की कीमत का पता ही नहीं होता है।

मंदन के मरिहू गए, अवगुन गुन न सराहि।
ज्यों रहीम बांध हूं बंधै, मरना हवे अधिकाहि॥

रहीम कहते हैं कि दुर्जनों के मर जाने के बाद भी उनकी दुर्जनता उनके साथ नहीं जाती है। उसका प्रभाव आसपास के माहौल पर रहता ही है, मानो मरने वाला दुर्जन दूसरे दुर्जनों को अपनी दुर्जनता सौंपकर जाता है। विरासत में मिली दुर्जनता दोगुनी होकर और भी अधिक प्रबल हो उठती है।
कहने का भाव है-दुर्जनों की मौत हो जाने से दुनिया से बुराई चली नहीं जाती है। उसके उत्तराधिकारी पैदा हो जाते हैं।

याते जान्यो मन भयो, जरि बरि भसम बनाय।
रहिमन जाहि लगाइए, सोई रूखो ह्वै जाय॥

रहीम कहते हैं कि जिस किसी से भी मैं दोस्ती करता हूं यानी दिल लगाता हूं मुझे निराशा ही हाथ लगती है। दिल मेरा जल-भुनकर राख हो गया है। इस दुनिया के लोग अजीब हैं, जिससे मन मिलता है, वही रूखा हो जाता है अर्थात् उसका व्यवहार मेरे प्रति कड़वा हो जाता है और वह ही मेरे अहित के बारे में सोचने लगता है।
कहने का भाव है-इस दुनिया में हर किसी से दिल लगाना ठीक नहीं है। स्वभाव व व्यवहार को जानकर ही दिल लगाने में अपना भला है, लेकिन दुर्जनों की पहचान करना इतना आसान भी तो नहीं है।

ये रहीम फीके दुवौ, जानि महा संतापु।
ज्यों तिय कुछ आपन गहे, आपु बड़ाई आपु॥

रहीम कहते हैं कि कुछ ऐसे लोग जो अपनी प्रशंसा खुद ही करते हैं तो समझ लीजिए वे किसी संताप से मन-ही-मन दु:खी हैं, इसीलिए आत्मप्रशंसा कर रहे हैं। अगर कोई नवयौवना अपने स्तनों को अपने हाथों से मसलती रहती है तो यह भी इस बात का प्रमाण है कि उसकी दैहिक काम-तृष्णा बुझी नहीं है। वह कामाग्नि में जल रही है। आत्मप्रशंसा और आत्मरति ये दोनों ही मन की कुंठा को व्यक्त करते हैं।
कहने का भाव है-ये दोनों ही भाव, दगित इच्छाओं के कारण उत्पन्न होते हैं और समाज में आदमी को मान-सम्मान के बिना जीने पर मजबूर कर देते हैं। आत्मप्रशंसा और आत्मरति से खद को बचाएं। इनसे जग हंसाई होती है।

रहिमन आंटा के लगे, बाजत है दिन रात।
घीउ शक्कर जे खात हैं, तिनकी कहां बिसात॥

रहीम कहते हैं कि जो लोग दूसरों के रहमो-करम पर जीते हैं, जो लोग जिसकी दया पर जीते हैं अर्थात् जो लोग जिसका दिया घी-शक्कर खाते हैं, वे भला उसके विरोध में कैसे खड़े हो सकते हैं। उन्हें उनके पक्ष में बोलना ही है जैसे, मृदंग में केवल आटे का लेप होता है, पर इतने पर ही मृदंग दिन-रात अपने मालिक के इशारों पर बजता रहता है।
कहने का भाव है-जो व्यक्ति दूसरों के अधीन होते हैं, उनका अपना कोई अस्तित्व या सोच नहीं होती। गलत का विरोध तो वही कर सकता है, जिसका अपना स्वतंत्र वजूद होता है। अतः अपनी स्वतंत्र पहचान बनाइए।

रहिमन आलस भजन में, विषय सुखहि लपटाय।
घास चरै पशु स्वाद तै, गुरु गुलिलाएं खाय॥

रहीम कहते हैं कि अधिकांश लोग हरि भजन में आलस करते हैं और विषय वासनाओं में खुशी-खुशी लिपटे रहते हैं। संसार की यही रीति है- पशु बेस्वाद घास को स्वाद ले-लेकर चरते हैं और जब दवा के रूप में मीठा गुड़ दिया जाता है तो बड़ी मुश्किल से खिलाना पड़ता है अर्थात् स्वादिष्ट गुड़ को वे अपने आप नहीं खाते हैं। किसी दूसरी चीज के साथ गुड़ को गुलिया कर उनके मुंह में ठूसा जाता है।
कहने का भाव है-विषय-वासनाओं से मोहभंग बड़ी साधना के उपरान्त हो पाता है और हरि भजन में तो मन तभी लग पाता है जब आत्मज्ञान हो जाए।

रहिमन उजली प्रकृति को, नहीं नीच को संग।
करिया वासन कर गहे, कालिख लागत अंग॥

रहीम कहते हैं कि अच्छे स्वभाव वाले व्यक्तियों को ईश्वर न करे नीच का साथ मिले। कालिख लगे बर्तन को हाथ में लेने से कालिख हाथ में लग ही जाती है। दुर्जनों की संगति कोई-न-कोई अपयश माथे पर चिपका ही देती है।
कहने का भाव है-दुर्जनों की संगति से दूर ही रहें। यह कलंकित ही करती है।

रहिमन खोटि आदि की, सो परिनाम लखाय।
जैसे दीपक तम भरवै, कज्जल वमन कराय॥

रहीम कहते हैं कि आरम्भ में ही खोट, कपट होने पर उसका फल दुखद ही देखने को मिलता है जैसे, अंधेरे को दूर करने वाला दीपक काजल ही वमन करता है।
कहने का भाव है-दीपक अंधेरे को खाकर उजाला तो देता है, पर वमन काजल यानी कालिख करता है। कोई भी कार्य प्रारंभ करने से पहले इस बात का अनुमान लगा लें कि दीपक वाली स्थिति तो नहीं है न। लाभ के लिए कपट का सहारा न लें, वरना दीपक की तरह ही आपको भी कालिख का वमन यानी दुष्परिणामों का सामना करना पड़ सकता है।

रहिमन घरिया रहंट की, त्यों ओछे की डीठ।
रीतेहि सम्मुख होत है, भरी दिखावै पीठ॥

रहीम कहते हैं कि सिंचाई के लिए चलते रहंट की घड़ियां जब पानी से खाली होती हैं तो उनका मुख सामने होता है और जब पानी से भरी होती हैं तो उनकी पीठ सामने होती है। यही स्थिति नीच प्रवृति के लोगों की होती है। जब मतलब होता है तो बड़ी तहजीब से सामने आते हैं और जब मतलब निकल जाता है तो बड़ी बेशर्मी के साथ पीठ दिखाकर चले जाते हैं, दुआ-सलाम भी नहीं करते हैं।
कहने का भाव है-अवसरवादी और मतलबी न बनो।

रहीमन गली है सांकरी, दूजो ना ठहराहिं।
आपु अहै तो हरि नहीं, हरि तो आपुन नाहिं॥

रहीम कहते हैं कि मन की गली बहुत ही संकरी है। इसमें दूसरा नहीं ठहर सकता है। इसमें या तो आपका अहं होगा या भक्त वत्सल प्रभु ही होंगे। यानी ईर्ष्या, दंभ आदि भाव होंगे तो हरि नहीं होंगे और हरि होंगे तो ये दुर्गुण न होंगे।
कहने का भाव है-हरि का आगमन मन की गली में तभी होगा जब वह खाली होगी। मन में जरा-सा भी ईर्ष्या-द्वेष भाव नहीं होगा।

रहिमन जाके बाप को, पानी पिअत न कोय।
ताकी गैल अकास लौं, क्यों न कालिमा होय॥

रहीम कहते हैं कि आसमान में काले बादलों ने एक गली बना दी है, जो उनकी कालिमा से काली हो गई है। बादल ऐसा क्यों न करें? ये भी तो उसी समुद्र की संतान हैं, जिसका पानी उसके खारे स्वभाव के कारण कोई भी नहीं पीता है।
कहने का भाव है-दुराचारी पिता की संतानों पर भी पिता के दुराचारों का काला साया अवश्य ही पड़ता है। वे भी पिता की तरह ही दुराचरण धारणकर दुराचार करने से बाज नहीं आते हैं। उनकी संगति ही ऐसी है।

रहिमन ठठरी धूर की, रही पवन ते पूरि।
गांठ युक्ति की खुलि गई, अंत धूरि की धूरि॥

रहीम कहते हैं कि यह मानव अस्थिपंजर एक धूल भरी गठरी ही तो है। जिसमें आकाश, जल, आग, हवा सभी का समावेश है। ईश्वर ने बड़ी चतुराई से इस गठरी को बांधा है, जो देखने में बहुत ही अच्छी लगती है, लेकिन यह गठरी कभी भी खुल सकती है और यदि एक बार खुल गई तो इसे फिर कोई बांध नहीं सकता। यह एक चमत्कारिक गठरी है।
कहने का भाव है-यह शरीर कुदरत का वरदान है। इसका इस्तेमाल नेक काम में करो और इसकी देखभाल के लिए समय निकालो। अगर एक बार यह भुरभुरा कर गिर गया तो दोबारा पहले वाली स्थिति में लाना मुश्किल है। इस चमत्कारिक गठरी यानी शरीर को परमार्थ में लगाओ।

रहिमन दानि दरिद्रतर, तऊ जांचिबे योग।
ज्यों सरितन सूखा परे, कुआं खनावत लोग॥

रहीम कहते हैं कि दानी व्यक्ति कितना भी निर्धन हो जाए, फिर भी कुछ-न-कुछ देने के काबिल होता है। उसके पास कुछ-न-कुछ तो रहता ही है। याचक को वह अपने दरवाजे से खाली हाथ नहीं लौटाता। जो नदियां गरमी के दिनों में सूख जाती हैं, लोग उनको छोड़ नहीं देते हैं। वे उनमें कुआं खोदकर पानी निकाल ही लेते हैं। नदी की प्रवृत्ति प्यास बुझाने की है, इसलिए सूखने पर भी उसने याचकों को निराश नहीं किया। थोड़ी खुदाई करनी पड़ी, पर पानी बिना वापस तो लौटना नहीं पड़ा।
कहने का भाव है-जो लोग किसी दूसरे को कुछ-न-कुछ देने की इच्छा रखते हैं, घोर गरीबी में भी उनकी यह इच्छा मरती नहीं है और वे यथाशक्ति दान-पुण्य का कार्य करते ही रहते हैं।

रहिमन धोखे भाव से, मुख से निकसे राम।
पावन पूरन परम गति, का मादिक कौ धाम॥

रहीम कहते हैं कि अगर धोखे से मुख से राम नाम निकल जाए तो इस अधम शरीर को गति मिल जाती है अर्थात् वह जीवन-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। भले ही वह काम-क्रोध, मोह, ईर्ष्या आदि दुष्भावों का गढ़ क्यों न हो।
कहने का भाव है-राम का नाम प्रेम से पुकारने वाला महापापी भी तर जाता है। शरणागत की रक्षा प्रभु अवश्य ही करते हैं।

रहिमन नीच प्रसंग ते, नित प्रति लाभ विकार।
नीर चोरावै संपुटी, भारू सहै धरिआर॥

रहीम कहते हैं कि नीच लोगों का साथ मिलने से सज्जनों को कोई लाभ नहीं होता है बल्कि प्रतिदिन कोई-न-कोई हानि ही होती है। नीर यानी पानी जल घड़ी की संपुटी चुराता है और इसकी सजा घड़ियाल यानी घंटे को मिलती है।
कहने का भाव है-करता कोई है और भरता कोई और है।

रहिमन पर उपकार के, करत न यारी बीच।
मांस दिया शिवि भूप ने, दीन्हो हाड़ दधीच॥

रहीम कहते हैं कि सज्जन व्यक्ति दूसरों का भला करते समय जरा-सा भी संकोच नहीं करते हैं। राजा शिवि ने कबूतर की रक्षा के लिए हंसते-हंसते अपने शरीर का मांस काटकर दे दिया और महर्षि दधीचि ने मानव कल्याण के लिए अपने शरीर की हड्डियां दान में दे दी।
कहने का भाव है-समाज कल्याण की जहां बात आती है, परोपकारी लोग जीवन-मरण की चिंता नहीं करते हैं और हंसते-हंसते अपना सब कुछ लुटा देते हैं। बनना है तो दानवीर शिवि और महर्षि दधीचि बनो।

रहिमन प्रीति सराहिए, मिले होत रंग दूज।
ज्यों जरदी हरदी तजै, तजै सपेदी चून॥

रहीम कहते हैं कि वह प्रेम सराहनीय है, जो मिलते ही दोगुना चटक रंग धारण कर ले। जब हल्दी और चूना एक साथ मिलते हैं तब अपना अपना रंग छोडकर एक विशेष रंग धारणकर शोभायमान हो उठते हैं। हल्दी अपना पीला रंग और चूना अपना सफेद रंग त्यागकर आपस में घुल-मिलकर एक दूसरा ही खूबसूरत रंग बनाते हैं।
कहने का भाव है-यही प्रेम है, जिसमें दो प्रेमी मिलते हैं तो उनका अपना कुछ भी नहीं रह जाता। बस प्रेम का चटक रंग ही उनके बीच रह जाता है।

रहिमन बात अगम्य की, कहन-सुनन की नाहिं।
जो जानत सो कहत नहिं, कहत ते जानत नाहिं॥

रहीम ईश्वर का गुणगान करते हुए कहते हैं कि अगम-अगोचर ईश्वर के बारे में कुछ भी कहने-सुनने को नहीं है। जो गुणी जन ईश्वर को जानते हैं, वे कुछ कह नहीं सकते, सिर्फ महसूस ही कर सकते हैं और जो ईश्वर के बारे में बोलते फिरते हैं, वे उसे जानते ही नहीं हैं।
कहने का भाव है- जो लोग कहते हैं कि वे ईश्वर को जानते हैं, धर्म को जानते हैं, वास्तव में उन्हें ईश्वर का ज्ञान नहीं होता है।
व्यर्थ में जाति, धर्म, ग्रंथ आदि के नाम पर भरमाने वाले ऐसे पाखंडियों से दूर ही रहें।

रहिमन भेषज के किए, काल जीति जो जात।
बड़े-बड़े समरथ भये, तौ न कोउ मरि जात॥

रहीम कहते हैं कि अगर व्यक्ति औषधि-उपचार से काल विजेता हो सकता तो इस धरती पर जितने भी महान व्यक्ति हुए, वे मृत्यु को प्राप्त नहीं हुए होते।
मृत्यु पर विजय हासिल न तो रंक कर सकता है और न ही राजा। सभी को काल के मुंह में जाना है। अगर कोई चीज कालजयी होती है तो वह है- महान कार्य।
कहने का भाव है-अच्छा और महान कर्म करो, मरकर भी जिंदा रहोगे। तुम्हारी कृति दुनिया याद रखेगी।

रहिमन रिस को छांडि कै, करो गरीबी भेस।
मीठो बोलो, नैच लो, सबै तुम्हारो देस॥

रहीम कहते हैं कि गुस्सा-द्वेष भाव को छोड़कर दीन-दुखियों को अपनाओ। उनके करीब आने की कोशिश करो ताकि वे तुम्हें अपना समझें। मीठा बोलो और नम्र होकर चलो फिर देखो, कोई भी देश तुम्हारे लिए अपना ही हो जाएगा।
कहने का भाव है-व्यक्ति का व्यवहार ही उसे सबका प्रिय बनाता है। वह अपने मधुर, विनम्र आचरण से ही सबका चहेता बनता है।

रहिमन रिस सहि तजत नहि, बड़े प्रीति की पौरि।
मूकन भारत आवई, नींद बिचारी दौरि॥

रहीम कहते हैं कि बड़े लोग प्रेमी का गुस्सा भी सह लेते हैं, उसके दरवाजे पर जाना नहीं छोड़ते हैं क्योंकि वे प्रेम के अर्थ को जानते हैं।
मुक्का मार-मारकर नींद को क्यों न भगाया जाए, पर वह कहीं नहीं जाती है, नींद का व्यक्ति से इतना गहरा लगाव जो होता है। नींद आखिर जाए भी तो कहां जाए?
कहने का भाव है-बड़े लोग अपने चाहने वालों से नींद जैसा ही गहरा लगाव रखते हैं। प्रेम में इतना खिंचाव तो होना ही चाहिए वरना बेकार है ऐसी प्रीति....।

रहिमन विद्या बुद्धि नहिं, नहीं धरम जसदान।
भू पर जनम वृथा धरै, पसु बिन पूंछ विषान॥

रहीम कहते हैं कि विद्या, बुद्धि, धर्म, यश और दानशीलता आदि ये खूबियां जिसके पास नहीं हैं, उसकी जिंदगी बेकार है। वास्तव में वह बिना सींग-पूंछ वाला पशु है और धरती पर एक बोझ के समान ही है।
कहने का भाव है-ये खूबियां एक मनुष्य में अवश्य ही होनी चाहिए। वह इन खूबियों को धारण करके ही इंसान बनता है, नहीं तो पशु के समान ही होता है।

लोहे की न लोहार की, रहिमन कही विचार।
जो हनि मारै सीस में, ताही की तलवार॥

रहीम कहते हैं कि यह तलवार न लोहे की है और न लोहार की है। इस तलवार पर अधिकार सिर्फ योद्धा का है, जिसने दुश्मन के शीश पर प्रहार कर योद्धा को विजयश्री दिलाई।
कहने का भाव है-तलवार यानी किसी भी चीज पर उसका अधिकार होता है, जो उसका सही तरीके से इस्तेमाल करना जानता है।

सदा नगारा कूच का, बाजत आठो जाम।
रहिमन या जग आइकै, का करि रहा मुकाम॥

रहीम कहते हैं कि मृत्यु का नगाड़ा आठों पहर बज रहा है। आंखों के सामने प्रतिदिन मृत्यु का तांडव हो रहा है। यह तो मृत्युलोक है। यहां हर चीज क्षणभंगुर है, आज है और कल नहीं।
इस जग में किसका मुकाम रहा है जो तुम इसे अपना समझ बैठो हो।
कहने का भाव है-जीवन मिला है तो सबसे प्रेम करो। मृत्यु तो तुम्हें एक दिन लेकर जाएगी ही। वह किसी पर दया कहां करती है?

समय दसा कुल देखि के, सबै करत सनमान।
रहिमन दीन अनाथ को, तुम बिन को भगवान॥

रहीम कहते हैं कि अनुकूल समय, दशा, कुल परिवार को देखकर सभी सम्मान देते हैं, लेकिन दीन और अनाथ का तुम्हारे बिना कौन है, दीन बंधु। यहां तो एक भी ऐसा नहीं, जो अनाथों का नाथ हो। आप मुझ दीन-हीन पर अपनी दया बनाए रखना।
कहने का भाव है-अनाथों के नाथ दया सिंधु भगवान ही हैं। उनकी खोज-खबर लेने वाला इस धरती पर कोई नहीं है।

समय लाभ सम लाभ नहीं, समय चूक सम चूक।
चतुरन चित रहिमन लगी, समय चूक की हूक॥

रहीम कहते हैं कि समय लाभ जैसा दुनिया में कोई लाभ नहीं और समय हानि- जैसी कोई हानि भी नहीं है। समय के मूल्य को समझना जरूरी है। समझदार और बुद्धिमान लोग भी समय की चाल को समझ नहीं पाते और समय की चूक उनसे भी हो जाती है, जिसकी हूक यानी दर्द या पछतावा जीवन-भर रहता है।
कहने का भाव है-समय ही सबसे अधिक बलवान है। इसकी गति या चाल को जो लोग समझते हैं, वे ही असली विजेता होते हैं।

सीत हरत तम हरत नित, भुवन भरत नहीं चूक।
रहिमन तेहि रवि को कहा, जो घटि लखै उलूक॥

रहीम कहते हैं कि जो सूर्य संसार के भले के लिए शीत हरता है और तम यानी अंधेरे का नाश करता है, उस प्रकाश-पुंज सूर्य को अगर रात के अंधेरे में भ्रमण करने वाले उल्लू अपना लाभ न होते देखकर कोसते हैं तो सूर्य पर कोई फर्क नहीं पड़ता। उसकी चमक में कोई अंतर नहीं आता। वह अपने हिसाब से ही चलता है।
कहने का भाव है-बड़े लोग नीच प्रवृति के लोगों द्वारा की गई आलोचना पर कोई ध्यान नहीं देते हैं।

ससि की शीतल चांदनी, सुंदर सबहिं सुहाय।
लगे चोर चित में लटी, घटि रहीम मन आय॥

रहीम कहते हैं कि चंद्रमा की शीतल चांदनी सभी को सुंदर लगती है और सभी को भाती है, लेकिन अंधेरे में चोरी करने वाले चोरों को चांदनी रात नहीं लुभाती है। भला उन्हें चांदनी रात की सुंदरता कैसे अच्छी लग सकती है, उनके मन में मैल जो होता है।
कहने का भाव है-दुर्जनों के लिए कुछ भी अच्छा या सुंदर नहीं होता, उन्हें तो सिर्फ अपने मतलब-से-मतलब होता है।

अमृत ऐसे वचन में, रहिमन रिस की गांस।
जैसे मिसिरिहु में मिली, निरस बांस की फांस॥

रहीम कहते हैं कि सज्जन व्यक्तियों के अमृत वचनों में गुस्से के भाव भी ऐसे मनोहर होते हैं, जैसे मिसरी की डली में सूखे और नीरस बांस की फट्टी भी अच्छी दिखती है।
कहने का भाव है- संत पुरुषों का क्रोध भी सहने योग्य होता है क्योंकि उनके गुस्से में ईर्ष्या भाव की गंध नहीं होती। उनके अमृत वचनों में उनका क्रोध भाव वैसा ही मीठा लगता है जैसा मिसरी की डली में बांस की फांस। लोग फांस निकालकर फेंक देते हैं और मिसरी खा लेते हैं।

रहिमन करि सम बल नहीं, मानत प्रभ की धाक।
दांत दिखावत दीन ह्वै, चलत घिसावत नाक॥

रहीम कहते हैं कि हाथी जैसा बल किसी में भी नहीं है। वह महाशक्तिशाली है, पर वह भी प्रभु की धाक को मानता है यानी उनकी सत्ता का वह भी कायल है। वह इतना विनम्र है कि दयानिधि भगवान को याद करते हुए दीन-हीन होकर दांत दिखाता चलता है और जमीन पर नाक घिसते हुए आगे बढ़ता है।
कहने का भाव है-जो लोग विनम्र होते हैं, वे बलशाली और शक्तिशाली होने के बाद भी अपनी विनम्रता को नहीं छोड़ते हैं और अपने बल का मद उन्हें कभी नहीं होता है। वे हाथ जोड़कर ही बात करते हैं और ईश्वर को कभी नहीं भूलते हैं तथा उनका बल खुद से कमजोर लोगों की सहायता के लिए होता है।

रहिमन छोटे नरन सों, होत बड़ों नहिं काम।
मढ़ो दमामोना बने, सौ चूहे के चाम॥

रहीम कहते हैं कि जो लोग बुद्धि से छोटे होते हैं, उनसे बड़े कार्य नहीं होते हैं। उनकी एक हद होती है, उससे आगे की वे सोच ही नहीं पाते हैं। उनसे किसी बड़े कार्य की उम्मीद करना व्यर्थ है।
सौ चूहों के चमड़े मिलाकर अगर नगाड़े को मढ़ने का प्रयास किया जाए तो भी वह पूरा नहीं होगा क्योंकि चूहों के चमड़े इस कार्य के लिए उपयुक्त हैं ही नहीं, उनकी एक हद है।
कहने का भाव है-बड़े कार्य के लिए महान व्यक्ति की ही जरूरत पड़ती है। छोटे लोग तो छोटे कार्य के लिए ही बने होते हैं।

रहिमन मोहिं न सुहायु, अमी पियावत मान बिनु।
करू विष देय बुलाय, मान सहित मरिबो भलो॥

रहीम कहते हैं कि मुझे यह बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता कि कोई मुझे बिना आदर-सम्मान के अमृत पिलाए। इससे अच्छा तो यही है कि वह मुझको मान-सम्मान के साथ घर बुलाए और प्यार से जहर ही पिला दे।
कहने का भाव है-मान-सम्मान के साथ मौत को गले से लगा लेना अच्छा है, लेकिन बिना मान के अमृत पीना, जहर पीने से भी बदत्तर है। मरो शान से और जीओ तो शान से जीओ। जो प्रेम करे उसके लिए जान देने में भी संकोच न करो।

बांकी चितवनि चित चढ़ी, सूधी तौ कछु धीम।
गांसी ते बढ़ि होत दुःख, काढ़ि न कढ़त रहीम॥

रहीम कहते हैं- खूबसूरत बाला के कंटीले नयन बाण हृदय में जाकर चुभ गए और टूटकर अटक भी गए। अब ये बहुत ही दर्द कर रहे हैं। अटके और टूटे न होते तो संभवतः इतना दर्द न पहुंचाते और खींचने पर निकल भी आते।
कहने का भाव है कि इस बांकी चितवन की तरह ही मन को बेधने वाले दुष्टों के कटु व तीखे वचन होते हैं, जो धीरे-धीरे हृदय को छीलते रहते हैं। बांकी चितवन और दुष्ट-वचन से दूर रहने में ही भलाई है।

Rahim Ke Dohe : रहीम दास जी का सामान्य परिचय

रहीम का जन्म लाहौर (अब पाकिस्तान में) में 17 दिसंबर, सन् 1556 को हुआ। उनकी माता का नाम सुल्ताना बेगम था। पिता बैरम खाँ मुगल बादशाह हुमायूँ के सेनापति और विश्वासपात्र थे। हुमायूँ की मृत्यु के समय उसका पुत्र अकबर केवल तेरह वर्ष का था। मरते-मरते हुमायूँ ने बैरम खाँ को अकबर का संरक्षक बना दिया था। इस प्रकार, बैरम खाँ की मुगल शासन में अहमियत और बढ़ गई।
बैरम खाँ के नेतृत्व में किशोर अकबर ने अनेक महत्त्वपूर्ण युद्ध जीते और मुगल साम्राज्य के विस्तार की नींव रखी। बाद में बैरम खाँ से अकबर के मतभेद हो गए। बैरम खाँ ने विद्रोह कर दिया, जिसे अकबर ने सफलतापूर्वक कुचल दिया। बैरम खाँ को कैदी बनाकर अकबर के सामने लाया गया तो अकबर ने उन्हें हज पर जाने की सलाह दी। हज पर जाते हुए वे गुजरात के पाटन शहर में ठहरे। वहाँ एक अफगान सरदार मुबारक खाँ ने धोखे से उनकी हत्या कर दी। इस प्रकार, अल्प काल में ही रहीम के सिर से पिता का साया उठ गया।
अकबर ने नेक-नीयती दिखाते हुए विधवा सुल्ताना बेगम को दरबार में बुलवाया और राजकीय शरण में रखने का हुक्म दिया। उन्होंने रहीम को अपना धर्म-पुत्र बना लिया और कुछ दिनों बाद विधवा सुल्ताना बेगम से विधिवत् विवाह कर लिया। शाही खानदान की परंपरा के अनुसार अकबर ने रहीम को 'मिर्जा खाँ' की उपाधि से भी अलंकृत किया।

शिक्षा
रहीम की शिक्षा उदार धार्मिक वातावरण में हुई। अकबर की उदार धर्मनिरपेक्ष नीति ने उनकी शिक्षा को गंगा-जमुनी संस्कृति से ओत-प्रोत कर दिया। यही कारण है कि उनकी रचनाओं में यत्र-तत्र-सर्वत्र हिंदू संस्कृति की छाप दृष्टिगोचर होती है।

विवाह
अकबर एक चतुर कूटनीतिज्ञ था। वह शत्रुता को मित्रता से काटने का हामी था। इसी राह पर आगे बढ़ते हुए उसने माहबानो से रहीम का विवाह करवा दिया। उस समय रहीम की उम्र लगभग सोलह साल थी। उनकी नई-नवेली बेगम उनके पिता बैरम खाँ के कट्टर विरोधी मिर्जा अजीज कोका की बहन थी। अकबर ने युक्ति से इस कटुता को समाप्त करवा दिया।

FAQ :

रहीम के पिता का नाम क्या नाम था?
रहीम के पिता का नाम पिता बैरम खाँ था

रहीम का जन्म कब हुआ?
रहीम का जन्म लाहौर (अब पाकिस्तान में) में 17 दिसंबर, सन् 1556 को हुआ।

रहीम की माता का नाम क्या नाम था?
रहीम की माता का नाम सुल्ताना बेगम था।

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