महात्मा गांधी के राजनीतिक गुरु कौन थे? | mahatma gandhi ke rajnitik guru kaun the

महात्मा गांधी के राजनीतिक गुरु कौन थे?

गोपाल कृष्ण गोखले महात्मा गांधी के राजनीतिक गुरु थे. इसमें गोपाल कृष्ण गोखले के राजनीतिक विचारों की चर्चा की गयी है। आजादी के पूर्व तमाम उदारवादी राजनीतिक विचारकों में गोखले का एक उदारवादी विचारक और उदारवादीकर्ता के रूप में अद्वितीय स्थान था। और गोपाल कृष्ण गोखले महात्मा गांधी के राजनीतिक गुरु थे. इस लेख का मकसद आपको गोपाल कृष्ण गोखले के राजनीतिक विचारों से परिचित कराना है जो भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के शुरुआती दौर के राजनीति विचारधारा के उदारवादी परम्परा का हिस्सा रहे है।
इस लेख को पढ़ने के बाद आप जानेंगे कि -
  • गोपाल कृष्ण गोखले के राजनीतिक जीवन का विकास और रचनात्मक प्रभाव जिन्होंने उनकी राजनीतिक विचारधारा को आकार दिया,
  • भारत में अंग्रेजी शासन के प्रति उनकी प्रतिक्रिया के संदर्भ में उनके राजनीतिक विचार, उदारवाद का उनका सिद्धांत, राजनीति में साध्य और साधन के बारे में उनके विचार, उनका राजनीतिक कार्यक्रम और आर्थिक और सामाजिक विचार।
आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिंतन का विकास भारतीय राष्ट्रीय आंदोलनों के विकास के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है। राष्ट्रीय आंदोलन के दौर में गांधी के प्रमुख राजनीतिक हस्ती के रूप में उभरने से पूर्व दो उदारवादी और उग्रवादी विचारधाराओं के रूप में जानी जाती है। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के शुरुआती दौर में न्यायमूर्ति एम.जी. रानाडे डी.ई. वाचा, फिरोजशाह मेहता और दादा भाई नौरोजी जैसे उदारवादी विचारकों का प्रभुत्व था, जिन्होंने भारत में उदारवादी राजनीतिक विचारधारा की नींव रखी। गोपाल कृष्ण गोखले अपने जमाने के एक अग्रणी उदारवादी विचारक थे।
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आधुनिक विचारक उस उदारवादी राजनीतिक दृष्टिकोण के हिमायती थे और सम्पूर्ण परन्तु क्रमिक सामाजिक विकास के प्रवक्ता थे। वे तिलक, अरविन्दो बी.सी. पाले, और दूसरे उग्रवादी विचारकों से गम्भीर मतभेद रखते थे। भारत में ब्रिटिश राज भारतीय सामाजिक स्थिति की समझ और सामाजिक और राजनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने के तरीकों को लेकर उनके उग्रवादियों से मतभेद थे। मोटे तौर पर कहा जाए तो उदारवादी भारत में ब्रिटिश शासन का स्वागत और तारीफ करते थे और यह मानते थे कि इससे भारतीय समाज के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया शुरू होगी। वे सामाजिक और आर्थिक सुधारों पर ज्यादा जोर देते थे क्योंकि उनका विश्वास था कि सामाजिक और आर्थिक विकास के एक न्यूनतम स्तर को पाए बिना मात्र राजनीतिक आजादी का कोई अर्थ नहीं था। एम.जी. रानाडे के बाद गोखले प्रमुख उदारवादी चिंतक थे। जिन्होंने राजनीति के उदारवादी तरीकों में काफी योगदान दिया। एम.जी. रानाडे के आदर्श शिष्य और महात्मा गांधी के पूज्य राजनीतिक गुरु, गोखले ने रानाडे और गांधी के बीच एक महत्वपूर्ण बौद्धिक कड़ी प्रदान की।

गोपाल कृष्ण गोखले का राजनीतिक जीवन

गोखले के राजनीतिक विचारों को समझने के लिए पहले यह जरूरी है कि यह देखा जाय कि गोखले का राजनीतिक विकास कैसे हुआ। इससे यह स्पष्ट हो जाएगा कि उनकी राजनीतिक गतिविधियाँ उनके विचारों तथा उन प्रभावों से घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई हैं जिसने उसका मार्ग दर्शन किया।

गोपाल कृष्ण गोखले का जीवन

गोपाल कृष्ण गोखले का जन्म 9 मई 1866 में रतनगढ़ी जिले के एक छोटे से गाँव कोतलुक के एक मध्यवर्गीय चिंतपावन ब्राह्मण परिवार में हुआ। उसके पिता कृष्णराव पहले एक क्लर्क थे किंतु बाद में पदोन्नति पाकर वे पुलिस सब इन्सपैक्टर बने। जब गोपाल राव मुश्किल से 13 वर्ष का था तब उनकी मृत्यु हो गयी। गोपाल राव के बड़े भाई गोविन्द राव ने परिवार की जिम्मेदारी कन्धों पर ली। गोपाल राव ने कोलापुर के निकट कगाल में अपनी प्राथमिक शिक्षा पाई और 1881 में हाई स्कूल पूरा किया। उन्होंने तीन विभिन्न कॉलेजों में उच्च शिक्षा ग्रहण की। ये थे कोलापुर का राजाराम कॉलेज, पूना डक्कन कॉलेज और बम्बई एलफिन्स्टन कॉलेज जहाँ से उन्होंने 1884 में स्नातक किया।
एक बार उन्होंने इंजिनियर बनने की सोची किंतु अन्त में शिक्षा के उद्देश्य के लिए अपने को समर्पित करने का निर्णय लिया। पुणे में देश भक्त युवाओं के एक समूह ने 'द न्यू इंगलिश स्कूल' नाम का एक सेकेन्डरी स्कूल प्रमुख राष्ट्रवादी विष्णुशास्त्री चिपलंकर की प्रेरणा से चला रहे थे। गोपाल राव ने 'दी न्यू इंगलिश स्कूल' में एक अध्यापक की नौकरी कबूल कर ली। डेक्कन स्कूल सोसाइटी के मालिकों को उसकी ईमानदारी ने प्रभावित कर दिया और उन्होंने उसे सोसाइटी का आजीवन सदस्य बना दिया। शीघ्र ही गोपाल राव की पदोन्नति एक प्राध्यापक के रूप में फरगसन कॉलेज में हई। यह कॉलेज 'डेक्कन एडकेशन सोसाइटी' द्वारा चलाया जाता था, तब से उन्होंने अपने जीवन के 18 साल अध्यापन में बिता दिए।
अपने अध्यापक काल के दौरान उनका परिचय एम.जी रानाडे से हुआ और तभी से उन्होंने अपनी प्रतिभा और सेवा को रानाडे के सुयोग्य निर्देशन में सार्वजनिक जीवन के लिये समर्पित कर दिया। वे सार्वजनिक सभा के सचिव बने। यह सार्वजनिक सभा एम.जी. रानाडे ने आम जनता के हितों की अभिव्यक्ति के लिए शुरू की। सभा का एक प्रभावशाली त्रैमासिक पत्र था जिसका गोपाल राव ने संपादन किया। कुछ समय तक उन्होंने सुधारक नाम की पत्रिका के अंग्रेजी प्रभाग में भी लिखा, जिसे 19वीं सदी के महाराष्ट्र के एक दिग्गज समाज सुधारक गोपाल गणेश अगारकार ने शुरू किया था।
1889 में पहली बार गोपाल राव ने भातीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सत्र में हिस्सा लिया और तब से वह उसकी मीटिंगों में एक नियमित वक्ता थे। 1886 में जब तिलक और उनके सहयोगियों ने सार्वजनिक सभा से खुद को अलग कर लिया और डेक्कन सभा नाम का एक नया संघ कायम किया। गोखले सभा की गतिविधियों में गहरी रुचि लेते थे। सभा की ओर से उन्हें इंग्लैंड में वेलबी कमीशन के समक्ष गवाही देने के लिए भेजा गया जिसकी नियुक्ति सरकार द्वारा ब्रिटिशे और भारत सरकार के बीच खर्चों के ज्यादा समान बंटवारे के तरीकों के लिए की गई थी। यह उनकी पहली इंग्लैंड यात्रा थी, उनके श्रेष्ठ कार्य ने कई उम्मीदें जगाई।
1902 में फरगुसन कॉलेज से वे रिटायर हुये और जीवन के बाकी 13 साल उन्होंने पूर्ण रूप से राजनीतिक कार्य के लिये समर्पित किये। इस काल में वे बार-बार इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल के लिये निर्वाचित हुये। जहाँ उन्होंने एक प्रमुख सांसद के रूप में अपनी पहचान बनाई। खासतौर से उनके बजट भाषण यादगार बन चुके हैं क्योंकि उनमें बहुत कुछ सकारात्मक था और साथ ही सरकारी अर्थनीति की उसमें निर्भीक आलोचना थी।
महात्मा गांधी की पहल पर गोखले दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों के मामले में भी रुचि लेते थे। 1910 और 1912 में उन्होंने इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल में नटाल के भारतीय मजदूरों की राहत के लिए प्रस्ताव रखे। गांधीजी के आमंत्रण पर वे 1912 में दक्षिण अफ्रीका गए और वहाँ से भारतीयों की समस्याओं को सुलझाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1905 में उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह आंदोलनों की मदद कोष इकट्ठा किए। गोखले की कठोर दिनचर्या आखिरकार फरवरी 1915 में उनकी असमायिक मृत्य का कारण बनी।

रचनात्मक प्रभाव
राजनीतिक विचार और सिद्धांत शून्य में पैदा नहीं होते। उनका उदय एक खास सामाजिक वातावरण में होता है। एक विचारक अपने समय की उपज होता है। गोखले इसके कोई अपवाद नहीं थे। उनके विचार और सिद्धांत मुख्यत: अपने समय के अग्रणी व्यक्तियों और घटनाओं जिनसे उनका सामना हुआ, द्वारा प्रभावित थे। ब्रिटिश शिक्षण प्रणाली की उपज होने के नाते गोखले का जीवन के प्रति एक आधुनिक दृष्टिकोण अपनाना लाजिमी था, जो उनके समय के अंग्रेजी शिक्षित अभिजात वर्ग का चरित्र था। अपने छात्र जीवन में उन्होंने ब्रिटेन के "पब्लिक स्पीकर' को कंठस्थ कर लिया था, बेकन के "ऐसेज" और "दि. एटवानमेंट ऑफ लर्निंग'' के लेखांश दोहराते थे, फोसेट के राजनीति अर्थशास्त्र में पारंगत हो गए और बर्क की "रिफलेक्सन्स ऑन दि फ्रेंच रिव्यूलशन' को कंठस्थ कर लिया। इन तमाम चीजों का उनके राजनीतिक विचारों पर दूरगामी प्रभाव पड़ा। जोन स्टुअर्ट मिल के उदारवादी विचारों ने उन पर गहरी छाप डाली और वे खास तौर से मिल के राजनीतिक सिद्धांतों से प्रेरित हुए। इतिहास के विद्यार्थी होने के नाते गोखले खासतौर से आइरिश होमरूल मूवमेंट से प्रभावित थे। यूरोपीय इतिहास से सम्बद्धता, उसकी गतिशीलता और जनतांत्रिक विकास ने उनके विचारों को काफी प्रभावित किया और इससे उन्हें लगा कि पश्चिम से सीखने के लिए बहुत कुछ है।
भारतीय कार्यक्रमों में गोखले को काफी हद तक एम.जी. रानाडे ने प्रभावित किया। रानाडे के अनुयायी होने पर गोखले को हमेशा फखर था। वे खासतौर से रानाडे के सामाजिक और राजनीतिक विचारों से प्रभावित थे। हालांकि गोखले को तिलक और दूसरे राष्ट्रीय नेताओं के बलिदान के प्रति गहरी श्रद्धा थी परन्तु वे उनके राष्ट्रवादी सिद्धांतों की ओर ज्यादा आकर्षित नहीं थे, और इससे वे डी.ई. वाचा और फिरोजशाह मेहता जैसे उदारवादी विचारकों के निकट आए, जो उन पर पार्टी संगठन और तकनीक के मसलों पर काफी प्रभाव डालते थे। इंग्लैंड में समकालीन उदारवादी राजनीतिज्ञों जैसे मोरले और दूसरों का भी गोखले के राजनीतिक जीवन पर काफी प्रभाव पड़ा। ग्लैडस्टोन और मोरले के प्रति गोखले का। आदरपूर्ण रवैया था और वे विश्वास करते थे कि भारत के शासन में वे न्यायोचित सिद्धांत अपनाएंगे। गोखले के राजनीतिक विचार निश्चित तौर पर उनके समय के उदारवादी लोकाचार के प्रतिनिधि थे और यह वह उदारवादिता थी, जिसने उनके सामाजिक विचारों और राजनीतिक विचारों को आकार दिया।

गोपाल कृष्ण गोखले के राजनीतिक विचारों के स्रोत

गोखले सही मायनों में राजनीतिक चिन्तक नहीं थे। उन्होंने हॉब्स और लॉक की तरह कोई राजनीतिक ग्रंथ नहीं लिखे, न ही उन्होंने तिलक की "गीता रहस्य' और गांधी की "हिंदू स्वराज्य" जैसी राजनीतिक टीकाएं लिखीं जिनसे उनके राजनीतिक सिद्धांतों का हवाला दिया जा सके किन्तु उन्होंने विभिन्न अवसरों पर कई लेख लिखे जिनसे उनके राजनीतिक सोच का पता चलता है। इसी तरह महत्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक मसलों पर उनके कई भाषण और उनके समकालीनों के साथ उनके पत्र व्यवहार अब संकलित रचना के रूप में उपलब्ध हैं जिनसे उनकी राजनीतिक विचारों को जाना जा सकता है।
गोखले पर कई विद्वतापर्ण किताबें हैं, जो उनके राजनीतिक विचारों के अध्ययन का एक महत्वपर्ण स्रोत है। इस प्रकार, इन स्रोतों के आधार पर हम गोखले के राजनीतिक सोच का वर्णन कर सकते है।

गोपाल कृष्ण गोखले के राजनीतिक विचार

गोखले के राजनीतिक विचार अपने समय के सामाजिक राजनीतिक मसलों के इर्द-गिर्द घूमते हैं न कि राज्य तथा राष्ट व संप्रभुता जैसी राजनीति की मूल अवधारणाओं के इर्द-गिर्द। इसलिए उनके राजनीतिक सिद्धांतों को समझने के लिए उस समय के बुनियादी राजनीतिक मसलों का उल्लेख करना होगा तथा उन मसलों के प्रति उनकी प्रतिक्रिया को जानना होगा। ये मामले अनेकों थे, और स्वभाव से जटिल थे। इन मामलों के प्रतिक्रिया स्वरूप जो विचार उभरकर आए वे गोखले की राजनीतिक सोच की सम्रद्ध विविधता को दर्शाते हैं। इस लेख में हम गोखले के राजनीतिक विचारों की चर्चा तीन मुख्य शीर्षकों के तहत करेंगे। ये शीर्षक हैं, भारत में ब्रिटिश राज के प्रति गोखले की प्रतिक्रिया उनका उदारवाद तथा उनका राजनीतिक कार्यक्रम जिसको उन्होंने तैयार किया और जिसके लिए उन्होंने काम किया।

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