आर्थिक सुधार | aarthik sudhar

आर्थिक सुधार

आर्थिक सुधार एक वृहद अर्थ वाला शब्द है। प्रायः इसका उपयोग अल्पतर सरकारी नियंत्रण, अल्पतर सरकारी निषेध, निजी कम्पनियों की अधिक भागीदारी, करों की अल्पतर दर आदि के संदर्भ में किया जाता है। ध्यातव्य हो, आर्थिक सुधारों का एक पक्ष आन्तरिक होता है और दूसरा बाह्य आन्तरिक पक्ष में अर्थव्यवस्था को आन्तरिक रूप से सुदृढ़ किया जाता है। जैसे- कृषि उद्योग, परिवहन आदि का विकास किया जाता है और बाह्य रूप में वैश्वीकरण को बढ़ावा दिया जाता है। जिसके तहत विदेशी व्यापार विदेशी पूंजी व विदेशी टेक्नोलॉजी को बढ़ावा दिया जाता है।
aarthik sudhar
आर्थिक सुधार के अंतर्गत उदारीकरण, निजीकरण व वैश्वीकरण से जुड़े विभिन्न कार्यक्रमों को अपनाया जाता है। उदाहरणस्वरूप भारत ने 1991 में आर्थिक सुधारों हेतु एल.पी.जी. ( उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण) मॉडल को अपनाया। भारत में उदारीकरण हेतु दो कार्यक्रम स्थिरीकरण और ढांचागत समायोजन अपनाए गए।

भारत का आर्थिक संकट एवं आर्थिक सुधार

आजादी के बाद भारत ने पूंजीवादी एवं समाजवादी दोनों अर्थव्यवस्थाओं की समीक्षा कर मिश्रित अर्थव्यवस्था की अभिनव संकल्पना को अपनाया। इसके पीछे तीव्र विकास के साथ-साथ, लोक कल्याण, सामाजिक समानता की भावना तथा अन्य राजनीतिक तत्व विद्यमान थे।

आर्थिक संकट
1980 के दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक समस्याएं उभरने लगीं, जब भारत के सकल घरेलू उत्पाद एवं राजकोषीय घाटा, मुद्रास्फीति तथा ऐसी ही अन्य समस्याओं का अनुपात बहुत अधिक बढ़ने लगा।
इस संकट के मुख्य पहलू थे-
  • राजकोषीय एवं राजस्व घाटे में तीव्र वृद्धि 
  • भुगतान असंतुलन की गंभीर स्थिति। 
  • विदेशी विनिमय कोष में भारी कमी।
  • विदेशी ऋण एवं विदेशी निवेश में कमी
  • मुद्रास्फीति की उच्च दर। यह 1990-91 में 10 प्रतिशत से अधिक हो गई थी।
उपर्युक्त संकटों के चलते 1991 से आर्थिक सुधार की शुरूआत हुई।

आर्थिक संकट के कारक
1990-91 का आर्थिक संकट अनेक आंतरिक तथा बाह्य कारकों का परिणाम था जो लंबे समय से भारतीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर रहे थे-
  • 1962 में चीनी आक्रमण एवं 1965 एवं 1971 में पाकिस्तान से युद्ध ने भारतीय अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया।
  • प्रारंभिक राजनीतिक स्थिरता के कारण ही विभिन्न योजनाओं में लक्ष्य से अधिक की प्राप्ति हुई थी परंतु 1977 के बाद राजनीतिक अस्थिरता का दौर शुरू हुआ। जिसका कारण नीतिगत निर्णय लेने में विलंब होने लगा और विदेशी निवेशकों का विश्वास भी घटने लगा।
  • 1970 के दशक तक भारत में राजस्व प्राप्ति लक्ष्य से अधिक होती रही, किंतु 1985-90 की अवधि में GDP का 2.6 प्रतिशत घाटा हुआ। इस घाटे की पूर्ति उपभोक्ता उत्पादों पर खर्च घटाकर की गई, जिससे देश का राजकोष  खाली होता गया और देश आर्थिक रूप से दिवालिया होता गया।
  • 1990 में खाड़ी युद्ध के चलते खनिज तेल की आपूर्ति घट गई, जिससे देश का औद्योगिक तथा परिवहन ढांचा प्रभावित हुआ। खाड़ी क्षेत्र में फंसे भारतीयों को भी वहां से निकालना पड़ा जिससे विदेशी प्रेक्षणों का एक बड़ा स्रोत
  • सूख गया।
  • सोवियत संघ 1990 तक भारत का दूसरा बड़ा व्यापारिक साझेदार था। उसके पतन से भारत का विदेश व्यापार काफी घटा।
  • देश भुगतान संतुलन की समस्या से भी उस समय जूझ रहा था। 1989 में भारत का भुगतान असंतुलन काफी बढ़ गया, अंतर्राष्ट्रीय क्रेडिट एजेंसी ने भारत की रेटिंग घटा दी। इससे भारत को अंतर्राष्ट्रीय बाजारों से ऋण मिलना कठिन हो गया।
  • भारतीय विदेशी मुद्रा कोष का बड़ा हिस्सा अनिवासी भारतीयों द्वारा भेजे गए प्रेक्षणों का है। भुगतान असंतुलन की इतनी समस्या के कारण जब भारत को विदेशों से कर्ज मिलना कठिन हो गया तो इसी समय अनिवासी भारतीयों ने देश में अपना धन निकालना शुरू कर दिया।
उपर्युक्त कारकों का सम्मिलित परिणाम था 1990-91 का मुद्रा संकट, जिसके कारण भारत पहली बार अपने ऋण-उत्तरदायित्वों को न निभा पाने के कगार पर पहुंच गया। देश का विदेशी विनिमय कोष इतना घट गया था कि उससे केवल एक दो सप्ताह का ही आयात किया जा सकता था।

संकट के बाद प्रतिक्रिया
मुद्रा संकट के कारण भारत को सहायता हेतु विदेशी मुद्रा वित्तीय संस्थानों (अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व बैंक) के पास जाना पड़ा। उन्होंने सशर्त सहायता उपलब्ध करायी परिणामस्वरूप भारत में 1991 से आर्थिक सुधार कार्यक्रम शुरू किए गए। ये सुधार विश्व बैंक एवं अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की शर्तों के अनुरूप थे। 
संकट से निपटने के लिए सरकार ने दो बिंदुओं पर ध्यान दिया- अर्थव्यवस्था को स्थायित्व प्रदान करना तथा बाजार संरचना में परिवर्तन।

भारत में आर्थिक सुधार

23 जुलाई, 1991 को भारत ने राजकोषीय और भुगतान शेष (बीओपी) संकट के लिए प्रतिक्रिया के रूप में आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया प्रारंभ की। सुधार ऐतिहासिक थे और इससे आने वाले वर्षों में अर्थव्यवस्था की तस्वीर और प्रकृति बदलने वाली थी। सुधार और संबंधित कार्यक्रम अभी भी परिवर्तन पर बल देते हुए जारी है, परंतु मई 2004 में यूपीए सरकार की वापसी के साथ इन्हें धीमा पाया गया है। इससे पूर्व 1980 के दशक में ही उदारवादी नीतियों की घोषणा कर दी गई थी, जिसमें आर्थिक सुधारों का नारा दिया गया था, इसे पूर्ण वेग के साथ 1990 दशक के प्रारंभ में ही लागू किया जा सका। परन्तु 1980 दशक के आर्थिक सुधार, जोकि 'वांशिगटन सहमति' विचारधारा के अंतर्गत थे, का अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा।
संपूर्ण सातवीं योजना (1985-90) ने निर्यात को बढ़ावा देने के लिए भारी बाह्य ऋणों के साथ बाजार विनियमों को और बढ़ावा (नीति सुधार जोर के रूप में दिया। यद्यपि इस जोर ने उच्च औद्योगिक वृद्धि दर को बढ़ाया (विदेशी ऋणों के साथ कीमत आयातों पर आश्रित) जिसे उद्योग वापस करने और सेवा करने में समर्थ नहीं थे। इससे विदेशी ऋणदारी में काफी वृद्धि हुई जिसने 1991 के बीओपी संकट में अहम भूमिका निभाई। इस संकट के तत्काल बाद खाड़ी युद्ध आया, जिसके भारतीय विनिमय दर पर दो दीर्घकारी नकारात्मक प्रभाव डाले।
पहला युद्ध के कारण तेल कीमतों में वृद्धि हुई जिस कारण भारत को तुलनात्मक रूप से कम अवधि में अपनी विदेशी विनिमय का प्रयोग करना पड़ा और दूसरा, खाड़ी क्षेत्र में कार्यरत भारतीयों के प्रेषण में कमी आई (क्योंकि आपातकाल में निकलना पड़ा दोनों सकटों का एक ही कारण) खाड़ी युद्ध था। परंतु भुगतान शेष संकट इससे भी गहरा था, जिसमें विदेशी ऋण बढ़ा, जोकि जीडीपी के 8 प्रतिशत से अधिक राजकोषीय घाटे के बराबर था और यह लगभग हाइपर-मुद्रास्फीति (13 प्रतिशत से अधिक) की स्थिति थी।
उस समय की अल्पसंख्यक सरकार ने एक कड़ा और विवादास्पद कदम आर्थिक सुधारों के रूप में उठाया। अब चूंकि सुधारों के लाभ कई लोगों तक पहुंच चुके हैं, इसकी आलोचना कम हो गई है। परंतु अभी भी जनमानस द्वारा इसे गरीब विरोधी और अमीर समर्थक माना जाता है।

भारत के आर्थिक सुधार की प्रवृत्ति
1980 के दशक से कुछ अन्य अर्थव्यवस्थाओं द्वारा प्रारंभ समान आर्थिक सुधार, संबंधित देशों के स्वैच्छिक निर्णय थे। परंतु भारत के मामले में बीओपी संकट के आलोक में सरकार द्वारा लिया गया यह गैर-स्वैच्छिक निर्णय था। आईएमएफ के ईएफएफ कार्यक्रम के अंतर्गत देशों को अपने बीओपी संकट के शमन हेतु बाह्य मुद्रा सहायता मिलती है, परंतु ऐसी सहायता अर्थव्यवस्था पर कुछ दायित्व शर्तों के साथ मिलती है। आईएमएफ के इस संबंध में कोई निर्धारित नियम नहीं है, यद्यपि इन्हें आवश्यकता के समय बीओपी संकट में चल रही अर्थव्यवस्था के लिए तैयार और विहित किया जाता है, यहां यह उल्लेख करना होगा कि भारत पर लगाई गई शर्तों की प्रकृति के अनुसार सभी आर्थिक सुधारों को उनके द्वारा तैयार किया जाना था। इसका अर्थ है भारत द्वारा तैयार नहीं किए गए हैं।
IMF के विस्तारित कोष सुविधा (EFF) से जुड़ी शर्तें, जिन्हें भारत को पूरा करना था निम्न प्रकार थीं:
  • (i) रूपये की विनिमय दर में 22.8% की कमी करना (जिसके परिणामस्वरूप भारतीय रुपया अमेरिकी डॉलर के समक्ष 21 रू. से गिरकर 27 रू. प्रति डॉलर हो गया और डॉलर की मांग थोड़ी मंद पड़ी );
  • (ii) आयात शुल्क (Custom Duty) के शीर्ष दर को वर्तमान 130% से कम करके 30% पर लाना (जिसे भारत द्वारा वर्ष 2000-01 में पूरा कर लिया गया) तथा सभी आयात योग्य वस्तुओं को मुक्त सामान्य लाइसेंसिंग (Open Gen eral Licencing-OGL) के अंतर्गत करना। इसके अंतर्गत आयात पर लगे सभी मात्रात्मक प्रतिबंधों को हटाना अनिवार्य किया गया;
  • (iii) आयात शुल्क में कमी से होने वाली सरकार की कर प्राप्तियों को पूरा करने के लिए उत्पाद कर में 20% वृद्धि करना और;
  • (iv) सरकारी व्यय (वेतन, पेंशन, आकस्मिक निधि, छूट, प्रतिरक्षा व्यय, ब्याज इत्यादि) में प्रतिवर्ष 10% की दर से कमी करना।

आर्थिक सुधारों के उद्देश्य

आर्थिक नीति का मुख्य उद्देश्य देश में आर्थिक विकास की दर में वृद्धि करना है। इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु आर्थिक नीति के S अन्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं:
  • आर्थिक विकास एवं दर में वृद्धि करना।
  • नियोजित विकास एवं प्रक्रिया पर बल देना।
  • देश में आर्थिक संकेन्द्रण को कम करना ।
  • आर्थिक दृष्टि से कमजोर एवं पिछड़े लोगों की प्रगति पर ध्यान देना।
  • देश के औद्योगिक विकास की गति को तेज करना।
  • तेजी से कृषि विकास करना।
  • देश में आर्थिक स्थिरता बनाये रखना ।
  • देश के नागरिकों का अधिकतम सामाजिक कल्याण करना।
  • देश के नागरिकों को वैध कार्य करने की छूट देना।
  • आधारभूत सुविधाओं का विकास। 
  • विनिमय दर में स्थायित्व लाना।

आर्थिक सुधारों की युक्तियां

भारत के आर्थिक सुधारों में दो प्रकार की युक्तियां शामिल हैं-
समष्टि अर्थशास्त्रीय स्थिरीकरण युक्तियां : इन उपायों द्वारा अर्थव्यवस्था की सकल मांग को बढ़ाने की कोशिश लोगों की क्रय शक्ति में वृद्धि करके।
संरचनात्मक सुधार युक्तियां : इन उपायों के अंतर्गत अर्थव्यवस्था में सकल आपूर्ति को बढ़ाने का उद्देश्य निहित था- उत्पादन प्रक्रिया को उन्मुक्त करके। इससे स्वतः ही अर्थव्यवस्था प्रभावी होगी ताकि यह संवर्धित उत्पादकता और उत्पादन की अपनी क्षमता की तलाश कर सके। लोगों की खरीद क्षमता को बढ़ाने के लिए अर्थव्यवस्था की बढ़ी हुई आय की आवश्यकता है, जो कार्यकलापों के बढ़े हुए स्तरों से आती है। इस प्रकार प्राप्त आय को लोगों में वितरित किया जाता है। जिनकी क्रय शक्ति बढ़ाई जाती है।

आर्थिक सुधारों की पीढ़ियां 

यद्यपि जब भारत ने 1991 में आर्थिक सुधारों को प्रारंभ किया तो ऐसी कोई घोषणा या प्रस्ताव नहीं थी, तथापि आने वाले वर्षों में सरकारों द्वारा सुधारों की कई पीढ़ियों की घोषणा की गई। अब तक सुधारों की तीन पीढ़ियों की घोषणा की जा चुकी है, जबकि विशेषज्ञ चौथी पीढ़ी की भी घोषणा करते हैं। हम निम्नानुसार भारत में सुधार प्रक्रिया की मूल पद्धति और लक्षणों को समझने के लिए विभिन्न सुधारों की पीढ़ियों के संघटकों को बता रहे हैं

1. प्रथम पीढ़ी सुधार 
प्रथम प्रथम पीढ़ी के सुधारों के प्रमुख नियामक नीचे दिए गए हैं:

(i) निजी क्षेत्र का प्रोत्साहन
इसके अंतर्गत कई महत्वपूर्ण एवं: उदारीकृत कदम उठाये गए यथा- 'अनारक्षण लाइसेंस मुक्तीकरण, एम. आर. टी. पी. सीमा की समाप्ति, चरणवद्ध उत्पादन की बाध्यता की अपर्याप्तता, ऋणों का शेयरों में परिवर्तन तथा पर्यावरण संबंधी प्रावधानों का सरलीकरण ।

(ii) सार्वजनिक क्षेत्र सुधार
 इसके अंतर्गत सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों से जुड़े कई सुधार किए गए, यथा इन्हें लाभोन्मुख एवं दक्ष बनाना विनिवेश (टोकन) की शुरूआत इनका संगठनीकरण इत्यादि।

(iii) वैदेशिक क्षेत्र में सुधार
इस क्षेत्र में कई सुधार संबंधी कदम उठाये गये, जैसे आयात पर से मात्रात्मक प्रतिबंधों की समाप्ति, विनिमय दर की उल्प्लावित मुद्रा व्यवस्था की शुरूआत, चालू खाते में रूपये को पूर्ण परिवर्तनीयता देना, पूंजीगत खाते में रूपये की परिवर्तनीयता संबंधी उदारीकरण, विदेशी निवेश की मंजूरी एवं 'फेरा' की जगह 'फेमा' की व्यवस्था करना, इत्यादि।

(iv) वित्तीय क्षेत्र सुधार 
बैंकिंग क्षेत्र, पूंजी बाजार, बीमा उद्योग, म्युचुअल फंड इत्यादि से संबंद्ध अन्यान्य सुधारवादी कदम उठाये गए।

(v) कर सुधार 
इसके अंतर्गत कई नीतिगत पहलों की शुरूआत की गयी जिनका लक्ष्य था कर प्रणाली का सुगमीकरण, आधार विस्तार, आधुनिकीकरण एवं करों की चोरी पर नियंत्रण इत्यादि।

2. द्वितीय पीढ़ी सुधार
इस पीढ़ी के सुधारों के मुख्य घटक निम्न प्रकार हैं:

(i) कारक बाजार सुधार
इसे भारत के आर्थिक सुधारों की सफलता का 'मेरूदंड' कहा जाता है। इसके अंतर्गत प्रशासित मूल्य व्यवस्था (Administred Price Mechamism) को विघटित (Dismantle) करने का लक्ष्य है। अर्थव्यवस्था में ऐसे कई उत्पाद थे जिनका उत्पादन निजी क्षेत्र द्वारा किया जाता था लेकिन इन उत्पादों का मूल्य निर्धारण बाजार के सिद्धांतों के आधार पर नहीं होता था, यथा-पेट्रोलियम, चीनी, उर्वरक औषधियां, इत्यादि । इन उत्पादों का बिक्री मूल्य सरकार तय करती थी। फलस्वरूप संबंधित निजी उद्योग के लाभ पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता था एवं उनका विस्तार बाधित होता था। निजी क्षेत्र के निवेश को इन उद्योगों की तरफ आकर्षित करना मुश्किल हो रहा था।
वर्तमान में पेट्रोलियम क्षेत्र में सिर्फ कैरोसीन तेल एवं रसोई घरों में इस्तेमाल किए जाने वाले LPG सिलेंडर ही प्रशासित मूल्य पद्धति के अंतर्गत हैं जबकि पेट्रोल, डीजल स्नेहक एवं उड्डयन ईंधन इससे बाहर आ चुके हैं। इसी प्रकार आयकर अदा करने वाले परिवारों एवं निजी चीनी मीलों पर से 'लेवी' (Levy) की बाध्यता को भी पूरी तरह समाप्त कर दिया गया है।

(ii) सार्वजनिक क्षेत्र सुधार 
द्वितीय पीढ़ी के सार्वजनिक क्षेत्र सुधारों का मुख्य बल कई दूसरे प्रकार के पहलूओं पर है इन्हें बढ़ी हुई प्रकार्यात्मक स्वयत्तता देना, पूंजी बाजार के उपयोग की अधिक स्वतंत्रता नये वेंचर (Greenfilds) एवं विनिवेश ( रणनीतिक) को बढ़ावा इत्यादि।

(iii) सरकार एवं लोक संस्थानों में सुधार 
इसके अंतर्गत ऐसे कदम आते हैं जिनसे कि सरकार की भूमिका को 'नियंत्रक' से बदलकर 'सुसाध्यपरक' बना सके जिसे प्रशासनिक सुधार की तरह भी देखा जा सकता है।

(iv) वैधानिक क्षेत्र सुधार
वैधानिक क्षेत्र सुधारों की शुरूआत प्रथम पीढ़ी में ही की जा चुकी थी लेकिन इस पीढ़ी में इन सुधारों को गहराई देना तय तथा नये क्षेत्रों में ले जाने की कोशिश थी। विरोधाभासी कानूनों को निरस्त करना, इंडियन पेनल कोड एवं कोड ऑफ क्रिमीनल प्रोसीजर में सुधार कंपनी कानून एवं श्रम कानून में सुधार तथा 'साईबर में कानून' जैसे नये क्षेत्रों से कानून बनाना।

(v) क्रांतिक क्षेत्र सुधार
द्वितीय पीढ़ी के सुधारों की शुरूआत की गयी। आधारभूत संरचना क्षेत्र (यथा बिजली, सड़क, दूरसंचार के क्षेत्र में तो इसके अच्छे प्रभाव दिखे हैं); कृषि एवं कृषि अनुसंधान शिक्षा एवं चिकित्सा क्षेत्र, इत्यादि। इन क्षेत्रों में किए जाने वाले सुधारों को सरकार ने 'क्रांतिक क्षेत्र' कहा है।
इन सुधारों के दो आयाम हैं। पहला आयाम 'कारक बाजार सुधार' की तरह है जिसके अंतर्गत इन्हें बाजार से जोड़ना लक्ष्य है वहीं दूसरा आयाम विस्तृत है, यथा संगठित कृषि ( Corporate Farming) कृषि, शिक्षा एवं चिकित्सा तथा सड़क क्षेत्रों में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाना।

3. तृतीय पीढ़ी सुधार
आर्थिक सुधारों की तृतीय पीढ़ी का प्रारंभ सरकार द्वारा दसवीं पंचवर्षीय योजना के कार्यान्वयन (2002) के साथ किया गया। इसका उद्देश्य है, आर्थिक विकास तथा आर्थिक सुधारों के लाभ का विकेंद्रीकरण ताकि इसमें जन-मानस को शामिल किया जा सके। इसके लिए पंचायत राज संस्थानों (PRIs) के सफल कार्यान्वयन पर बल दिया जा रहा है।
एक विकेंद्रीकृत विकास की प्रक्रिया के लिए संवैधानिक व्यवस्था पहले से ही 1990 के दशक में की गई है। यह सरकार 'समावेशी विकास' की जरूरत के प्रति आश्वस्त हो जाता है जो कि 2000 के दशक में किया गया था। आम जनता के विकास की प्रक्रिया में शामिल नहीं कर रहे हैं जब तक, विकास शामिल किए जाने के फैक्टर की कमी होगी, उस समय की सरकार द्वारा निष्कर्ष निकाला गया था। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना भारत में सुधारों की तीसरी पीढ़ी के लिए जरूरत के बारे में एक ही भावनाओं (केंद्र में राजनीतिक संयोजन बदल गया है, हालांकि) और विचार की पुष्टि करने के लिए चला जाता है।

4. चौथी पीढ़ी सुधार
भारतीय आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया से जुड़ी यह गैर-आधिकारिक अवधारणा है। वर्ष 2002 में ही विशेषज्ञों ने इस पीढ़ी के सुधारों की चर्चा की। यह पीढ़ी उन सुधारों की संकल्पना करती है, जिसमें भारतीय अर्थव्यवस्था पूर्णरूपेण सूचना तकनीक पर आधारित होगी।

सुधार पीढ़ियों का मूल्यांकन

भारत में आर्थिक सुधारों की विभिन्न पीढ़ियों को पूर्ण की समाप्ति अनुपूरक और सुधारों की अगली पीढ़ी के प्रारंभ के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। वस्तुतः वर्तमान में सभी पीढ़ियां एक साथ चल रही हैं, ताकि अर्थव्यवस्था में सुधार के लक्ष्य को वस्तुनिष्ठ किया जा सके। भारत में सुधार की विभिन्न पीढ़ियां यह भी पुष्ट करती हैं कि सुधार एक सतत प्रक्रिया है, जिसे बदलती परिस्थितियों के साथ बदलने की आवश्यकता होती है। सुधार अर्थव्यवस्था का लक्ष्य नहीं है बल्कि अर्थव्यवस्था का सुधार लक्ष्य है। सुधार साक्ष्य का एक साधन है।

आर्थिक सुधारों के प्रभाव

1991 में शुरू हुए सुधारों के दौरान देश के संपूर्ण आर्थिक वातावरण में परिवर्तन के साथ-साथ अर्थव्यवस्था संरचनात्मक परिवर्तनों से गुजरी है। आर्थिक सुधारों द्वारा अग्रांकित समष्टि संकेतकों पर प्रभाव पड़ा है-
  • सकल घरेलू उत्पाद : वित्तीय वर्ष 1991-92 को यदि असामान्य वर्ष माना जाय तो 1992-93 से 1999-2000 के बीच GDP वृद्धि दर औसतन 5 प्रतिशत रही।
  • औद्योगिक क्षेत्र : सुधार के आरंभिक वर्षों में उद्योगों पर विपरीत प्रभाव देखने को मिला एवं 1990-91 में 8.3 प्रतिशत उच्च वृद्धि दर के बाद औद्योगिक क्षेत्र की वृद्धि दर वर्ष 1991-92 में घटकर 0.6 प्रतिशत रह गई। 
  • राजकोषीय घाटा : आर्थिक सुधारों के तहत राजकोषीय घाटे को कम करने पर विशेष बल दिया गया। वर्ष 1990-91 में राजकोषीय घाटा 8 से 9 प्रतिशत के करीब था। सुधारोपरांत 1992-99 के बीच यह औसतन GDP का 5.7 प्रतिशत रहा। वर्ष 2000-01 में राजकोषीय घाटा 5.5 प्रतिशत रहा।
  • विदेशी व्यापार : विदेशी व्यापार एवं भुगतान संतुलन की दिशा में प्रगति हुई है। 1990-91 में कुल व्यापार (आयात + निर्यात) जहां GDP का 14.1 प्रतिशत था वहीं 1998-99 में यह बढ़कर 18.2 प्रतिशत हो गया।
भुगतान संतुलन की स्थिति में सुधार हुआ है। 1991 में भारत का विदेशी मुद्रा भंडार जहां एक दो सप्ताह के आयात के बराबर था वहीं सुधारोपरांत यह औसतन 6-8 प्रतिशत के आयातों के बराबर रहा।

आर्थिक सुधार का मूल्यांकन

भारत में आर्थिक सुधारों का प्रारम्भ (1985) से राजीव गांधी के कार्यकाल से ही प्रारंभ हो गया था जिसे एक रणनीति का रूप 1991 में नरसिंह राव एवं मनमोहन सिंह ने प्रदान किया। अतः 1991-96 तक जो आर्थिक सुधार का व्यापक दौर जिसमें संरचनात्मक समायोजक कार्यक्रमों (औद्योगिक सुधार, वित्तीय सुधार, राजकोषीय सुधार, विदेशी व्यापार या राजनीतिक सुधार) को शामिल किया गया प्रथम पीढ़ी के आर्थिक सुधार कहे गये। जबकि 1996 से अबतक के सुधार जिसमें विस्तारीकरण उपाय (प्रथम पीढ़ी के आर्थिक सुधार के आलावा), कृषि सुधार, बुनियादी ढांचागत पीढ़ी के आर्थिक सुधार, बुनियादी ढांचागत सुधार, श्रम सुधार को शामिल किया जाता है। द्वितीय पीढ़ी के सुधारों में जो समावेशी विकास का लक्ष्य निर्धारित किया इसकी झलक भी आठवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान अपनाये गये मानव संसाधन विकास में मिलता है।
समग्र गरीबी अनुपात 1993-94 में जो 36% था 2004-05 में कम होकर 27.5% ( तेन्दुलकर समिति के अनुसार 37.2% था ) वह 2009-10 में 29.8% हो गया तथा NSSO के 68वें दौर के अनुसार तेन्दुलकर फार्मूले पर आधारित गरीबी 21.9% हो गयी। आर्थिक सुधारों के बाद संगठित क्षेत्र में रोजगार की वृद्धि दर ऋणात्मक रही है। अतः 1993-2004 की अवधि में स्थिति रोजगारविहीन विकास रही थी। यद्यपि 2004-09 में निजी संगठित क्षेत्र में रोजगार वृद्धि 3.58% रही। हालांकि NSSO के 66 वें दौर के अनुसार बेरोजगारी घटकर 6.6% हो गयी किन्तु यह कमी रोजगार सृजन के कारण न होकर श्रमशक्ति में कम वृद्धि के कारण थी। अतः आवश्यकता रोजगार जनन वाले क्षेत्रों (कृषि, छोटे एवं माध्यम उद्यमों, खुदरा व्यापार, खाद्य प्रसंस्करण, स्वास्थ्य शिक्षा और सूचना तकनीकी) के विकास की है।
बेरोजगारी दर ( श्रमबल में 1000 व्यक्तियों में बेरोजगारों की संख्या) सामान्य स्थिति के अनुसार (पीएसएसएस) ग्रामीण क्षेत्रों में 16 एवं शहरी क्षेत्रों में 34 था। यह शहरी मिहलाओं में 57 एवं शहरी पुरुषों में 28 और ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुषों एवं मिहिलाओं दोनों में 16 था । चालू दैनिक स्थिति (सीडीएस) के अनुसार बेरोजगारी दर सामान्य स्थिति एवं साप्ताहिक स्थिति के अनुसार प्राप्त दरों से अधिक है। चालू साप्ताहिक स्थिति (सीडब्ल्यूएस) के अनुसार बेरोजगारी का दर ग्रामीण क्षेत्र में 33 एवं शहरी क्षेत्र में 42 था। चालू दैनिक स्थिति (सीडीएस) के अनुसार ग्रामीण क्षेत्र में 68 और शहरी क्षेत्रों में 58 था।
2004-05 और 2009-10 की अवधि के दौरान सामान्य स्थिति (पीएस+एसएस) में बेरोजगारी दर ग्रामीण क्षेत्रों के पुरुषों के लिए एक समान रहा, एवं शहरी पुरुषों के लिए प्रतिशत कमी हुयी। ग्रामीण महिलाओं के लिए भी यह वैसा ही रहा, जबकि शहरी महिलाओं के लिए 1 प्रतिशत बिंदु की कमी हुयी।
शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में 15 वर्ष या उससे अधिक के शिक्षित (माध्यमिक एवं उससे अधिक) व्यक्तियों में बेरोजगारी दर, जिनका शैक्षिक स्तर माध्यमिक स्तर से कम था, से अधिक था। सामान्य स्थिति (पीएसएसएस) के लिए शिक्षित में बेरोजगारी दर, ग्रामीण एवं शहरी प्रत्येक के लिए पुरुषों एवं का प्रतिशत 4 था जबिक ग्रामीण और शहरी महिला में प्रत्येक के लिए यह 12 प्रतिशत था।
युवाओं (15-29) में बेरोजगारी दर पूरे जनसंख्या की तुलना में बहुत अधिक था। सामान्य स्थिति (पीएसएसएस) के अनुसार युवाओं में बेरोजगारी दर ग्रामीण क्षेत्रों के पुरुषों एवं महिलाओं प्रत्येक के लिए 5 प्रतिशत था। जबिक शहरी पुरुष के लिए 8 प्रतिशत और शहरी महिलाओं के लिए 14 प्रतिशत था।
शिक्षित युवकों (15-29 वर्ष आयु के और शैक्षणिक स्तर माध्यमिक एवं उससे अधिक) में बेरोजगारी दर शहरी एवं ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में अपेक्ष्या अधिक था। सामान्य स्थिति (पीएस+एसएस) के अनुसार दरें ग्रामीण पुरुषों के लिए 8 प्रतिशत, ग्रामीण महिलाओं के लिए 18 प्रतिशत, शहरी पुरुषों के लिए 10 प्रतिशत एवं शहरी महिलाओं के लिए 23 प्रतिशत था।
सुधारों के बाद की समयावधि में क्षेत्रीय असमानताओं में भी वृद्धि हुयी। सामाजिक संरचना और मानवीय विकास के संदर्भ में भारत को अभी बहुत अधिक कार्य करना है। सुधारों के बाद की अवधि में यह बात लगभग स्वीकार कर ली गयी है कि विकास सम्बन्धित लक्ष्यों को पाना अत्यन्त कठिन होगा क्योंकि निजी क्षेत्र केवल लाभ के लिए कार्य करता है। सुधारों के बाद की अवधि में सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका कम हो रही है।

आर्थिक उदारीकरण के 25 वर्षः एक मूल्यांकन
1991 से आरम्भ होकर 2016 में आर्थिक उदारीकरण ने अपने ढाई दशक पूरे किये। इस दौरान भारत ने आर्थिक सुधार की प्रक्रिया को चरणबद्ध नियंत्रित और आकलित तरीके से आगे बढ़ाया। इसके तहत अर्थव्यवस्था को इस प्रकार खोला गया ताकि उद्योग और घरेलू अर्थव्यवस्था को वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ सामंजस्य बिठाने में पर्याप्त समय मिल सके और घरेलू अर्थव्यवस्था वैश्वीकरण द्वारा सृजित संभावनाओं का अधिकतम लाभ उठा सके।
पिछले ढाई दशक में आर्थिक सुधार की उपलब्धियों पर गौर करें तो सकल घरेलू उत्पाद का आकार प्रति व्यक्ति आय, तीव्र आर्थिक संवृद्धि दर बढ़ता निवेश एवं बढ़ता विदेशी रिजर्व, बचत एवं निवेश की दरों में वृद्धि विभिन्न क्षेत्रकों की GDP में बदलता अंशदान बढ़ता अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, सेवा क्षेत्र का तीव्र विकास मानव विकास, साक्षरता व स्वास्थ्य से संबंधित आँकड़े - ये सब आर्थिक उपलब्धियों की ओर संकेत करते हैं। हालांकि असंतुलित विकास, अमीरी, गरीबी व बेरोजगारी का उच्च स्तर, अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रकों के बीच विकास की दृष्टि से बढ़ता असंतुलन इसकी सीमाओं की ओर इशारा करते हैं। इन्हीं सीमाओं की पृष्ठभूमि में 2000 के बाद से आर्थिक सुधारों पर विशेष जोर दिया जा रहा है और इन सुधारों में समावेशिता पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है, जो मौजूदा असंतुलन को कम कर सकें।

उदारीकरण, निजीकरण एवं वैश्वीकरण
भारत में सुधारों की प्रक्रिया को तीन अन्य प्रक्रियाओं अर्थात् उदारीकरण निजीकरण और वैश्वीकरण, जिसे एल. पी. जी कहा जाता है। स्पष्ट रूप में उदारीकरण सुधार की दिशा निजीकरण सुधार के मार्ग और वैश्वीकरण सुधार के अंतिम लक्ष्य के दर्शाता है।

उदारीकरण
उदारीकरण शब्द की उत्पत्ति राजनीतिक विचारधारा 'उदारवाद' से हुई है, जोकि उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में हुई थी (यह वस्तुत: पिछली तीन शताब्दियों में विकसित हुई थी) । इस शब्द को कई बार मेटा विचारधारा (meta ideology) के रूप में व्यक्त किया जाता है जोकि कई विरोधी मूल्यों और मान्यताओं को अपनाने में सक्षम है। यह विचारधारा सामंतवाद के विघटन और बाजार या पूंजीवादी समाज की वृद्धि का परिणाम है जोकि एड्म स्मिथ की लेखनी में परिलक्षित हुई और जिसने अहस्तक्षेप के सिद्धांत के रूप में पहचान प्राप्त की।
उदारीकरण शब्द का अर्थव्यवस्था में वहीं अर्थ होगा, जोकि इसके मूल शब्द उदारवाद का है। अर्थव्यवस्था में बाजार समर्थक या पूंजीवादी समर्थक की ओर आर्थिक नीतियों का झुकाव ही उदारीकरण है। चीन में आज भी कुछ विशिष्ट उदारवादी लवणों का अभाव है। उदाहरण के लिए व्यक्तिवाद, स्वतंत्रता, लोकतांत्रिक प्रणाली इत्यादि फिर भी चीन को उदारवादी अर्थव्यवस्था कहा गया।

निजीकरण
1980 और 1990 के दशकों ने सरकारों, विशेषकर अमेरिका और इंग्लैण्ड में नई अधिकार वरीयताओं और आस्थाओं के प्रभाव के अंतर्गत रोलिंग बैंक' को देखा। जिन नीतियों के अंतर्गत 'रोल बैंक' किया जाता है उसमें विनियमन, निजीकरण और लोक सेवाओं, बाजार सुधारों को प्रारंभ करना सम्मिलित है। उस समय निजीकरण का प्रयोग राष्ट्र परिसंपत्तियों को निजी क्षेत्रों को हस्तांतरित करने के रूप में किया जाता था। निजीकरण शब्द की उत्त्पति उस समय हुई जब विश्व की अधिक से अधिक मुद्रा इस ओर गई. पहले पूर्व यूरोपीय राष्ट्र और बाद में विकासशील लोकतांत्रिक राष्ट्रों ने इसे अपनाया। परंतु इस अवधि में निजीकरण शब्द के अनेक अर्थ और अभिप्राय विकसित हुए। हम इन्हें निम्नानुसार देख सकते हैं
निजीकरण अपने सटीक अर्थ में विराष्ट्रीयकरण है अर्थात् परिसंपत्तियों का राष्ट्र स्वामित्व निजी क्षेत्र को हस्तांतरण है, जोकि 100 प्रतिशत तक है, ऐसे कड़े उपाय विश्व में केवल एक बार ही कहीं होते हैं, जिसमें कोई राजनीतिक गिरावट न हो। 1980 के दशक में थेचर शासन के दौरान इंग्लैण्ड में ऐसा हुआ था। निजीकरण के इस मार्ग को लगभग सभी लोकतांत्रिक प्रणालियों द्वारा अस्वीकार किया गया। 1990 के मध्य इटली स्पेन, फ्रांस और अमरीका ने ऐसे कदम उठाए। भारत ने कभी ऐसे निजीकरण में प्रवेश नहीं किया।
जिस अर्थ में निजीकरण का प्रयोग किया जाता है, वह विश्व भर में विनिवेश की प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में शेयरों को राष्ट्र स्वामित्व कंपनियों से निजी क्षेत्र को बेचना सम्मिलित है विनिवेश राज्य से निजी क्षेत्र को 100 प्रतिशत से कम स्वामित्व का अंतरण है।
तीसरे और अंतिम अर्थ में प्रयुक्त निजीकरण शब्द विश्व भर में काफी व्यापक है। मूलतः प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में आर्थिक नीतियां निजी क्षेत्र या पूंजी (अर्थव्यवस्था) के विस्तार को ही बढ़ावा देती हैं और इसे ही विशेषज्ञों और सरकारों द्वारा निजीकरण की प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया गया है। हम भारत से कुछ उदाहरण दे सकते हैं। उद्योगों के लाइसेंस समाप्त करना और विआरक्षण यहां तक कि सब्सिडी में कमी, विदेशी निवेश इत्यादि को स्वीकृति।

वैश्वीकरण
वैश्वीकरण की प्रक्रिया को हमेशा आर्थिक अर्थों में प्रयुक्त किया गया है जबकि इसने हमेशा राजनीतिक और सांस्कृतिक आयात ग्रहण किए हैं। एक बार जब आर्थिक परिवर्तन होते हैं तो इसके अनेक सामाजिक राजनीतिक प्रभाव होते हैं। वैश्वीकरण को सामान्यतः राष्ट्रों के मध्य आर्थिक एकीकरण में वृद्धि के रूप में परिभाषित किया जाता है जब अनेक राष्ट्रों का अभी जन्म भी नहीं हुआ था, तो विश्व के कई देश वैश्वीकरण अपना चुके थे अर्थात् अर्थव्यवस्थाओं के मध्य निकट संबंध थे। यह वैश्वीकरण 1800 से 1930 तक महान मंदी और दो विश्व युद्धों तक अबाधित रूप से चलता रहा, जिसने छंटनी और 1930 के दशक के प्रारंभ से अनेक व्यापार प्रतिबंध लगाए।
इस अवधारणा को आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) द्वारा पुनः 1980 के दशक के मध्य में बल प्रदान किया गया। अपना पूर्व परिभाषा में संगठन ने वैश्वीकरण को संकुचित और व्यापार जैसे अर्थ में परिभाषित किया था किसी ओईसीडी कंपनी द्वारा अपनी उत्पत्ति के देश के बाहर अपने लाभ हेतु क्रॉस बॉर्डर निवेश वैश्वीकरण है।
डब्ल्यू.टी.ओ. के लिए वैश्वीकरण का अर्थ "विश्व की अर्थव्यवस्थाओं का माल और सेवाओं, पूंजी और श्रम बल की आवंटित क्रॉस बॉर्डर आवाजाही की ओर झुकाव है।" इसका साधारण अर्थ है कि जो राष्ट्र डब्ल्यू.टी.ओ. के वैश्वीकरण की प्रक्रिया में हस्ताक्षरकर्ता हैं, उनके लिए विदेशी या देशज सामान और सेवाओं, पूंजी और श्रम जैसा कुछ भी नहीं होगा। विश्व समय के साथ एक समान और सपाट अवसर स्थल बन रहा है।
भारत डब्ल्यू.टी.ओ. के संस्थापक सदस्यों में से एक है और ऐसी किसी बाध्यता के बिना अपने आर्थिक सुधारों के माध्यम से वैश्वीकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा देने के लिए बाध्य है। यह अलग बात है कि स्वयं भारत में 1991 के बाद सुधारों की क्रिया ठीक वैश्वीकरण के बाद प्रारंभ हुई।
अब हम तीनों प्रक्रियाओं को एक साथ जोड़ सकते हैं। एलपीजी, जिसके साथ भारत ने अपनी सुधार प्रक्रिया की शुरूआत की। उदारीकरण की प्रक्रिया अर्थव्यवस्था की बाजार अर्थव्यवस्था की ओर दिशा को दर्शाती है, निजीकरण वह मार्ग है जिस पर यह अंतिम लक्ष्य अर्थात वैश्वीकरण को प्राप्त करने के लिए यात्रा करेगी।

वैश्वीकरण के लाभ
प्रत्येक राष्ट्र वस्तु के उत्पादन में विशिष्टता प्राप्त कर लेता है जिसका कि यह सबसे कम उत्पादन लागत पर निर्माण कर सकता है। इस प्रकार कम लागत पर उत्पादित वस्तुएँ समूचे विश्व से कम कीमतों पर उत्पादकों एवं उपभोक्ताओं को उपलब्ध करवायी जाती हैं। समूचे विश्व की गुणवत्तापूर्ण वस्तुएँ कम कीमत पर उपलब्ध होती हैं। उत्पादक समूचे विश्व में अपने उत्पाद बेच सकता है। अतः विस्तृत बाजार के उन्हें लाभ मिलते हैं। प्रौद्योगिकी का विस्तार होता है। संक्षेप में वैश्वीकरण से समाज के सभी लोग लाभान्वित होते हैं।

वैश्वीकरण एक रणनीति के रूप में?
वर्तमान में विद्वानों के एक वर्ग द्वारा वैश्वीकरण को विकसित देशों द्वारा प्रायोजित एक रणनीति के रूप में समझा जाता है। इनके अनुसार विकसित देशों द्वारा 80 के दशक में इन देशों में आई औद्योगिक शिथिलता, निर्यात में आई गिरावट, रोजगार में कमी, व्यापार के ठहराव की स्थिति से निकलने का प्रयास ही वैश्वीकरण के रूप में प्रकट हुआ।

अंतर्राष्ट्रीयकरण और वैश्वीकरण में अंतर

वैश्वीकरण एक आर्थिक संकल्पना है जबकि अंतर्राष्ट्रीयकरण मूलतः एक राजनीतिक संकल्पना है। किन्तु दोनों ही संकल्पनाएँ परस्पर संबद्ध हैं व परस्पर प्रभावित करती हैं।

वैश्वीकरण 80 के दशक में एक रणनीति के रूप में उभरा वहीं अंतर्राष्ट्रीयकरण एक औपचारिक प्रक्रिया के रूप में सभी देशों के साझे हितों की पूर्ति के रूप में है।

वैश्वीकरण का उद्देश्य सभी अर्थव्यवस्थाओं का विलय, वहीं अंतर्राष्ट्रीयकरण का उद्देश्य सहयोग व वार्तालाप के जरिये विश्व को जोड़ना।

वैश्वीकरण का प्रमुख प्रतिनिधित्व WTO करता है। अंतर्राष्ट्रीयकरण के हितों का प्रतिनिधित्व U.N. विश्व बैंक IMF जैसी संस्थाएँ करती हैं।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अंतर्राष्ट्रीयकरण में आर्थिक आयाम के अधिक शक्तिशाली होने से अंतर्राष्ट्रीयकरण वैश्वीकरण से आच्छादित हो रहा है।


विकसित देशों ने आई. एम. एफ. (IMF) तथा विश्व बैंक जैसी आर्थिक संस्थाओं पर अपने प्रभाव तथा दूर संचार तकनीक पर श्रेष्ठता के बल पर अल्पविकसित व विकासशील देशों की ओर रूख किया। 90 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में उरुग्वे दौर की वार्ताओं के उपरान्त जनवरी, 1995 को WTO की स्थापना की गई। वैश्वीकरण, यह इच्छा प्रकट करता है कि विभिन्न राष्ट्र राज्यों का WTO के ढांचे के अधीन एकीकृत कर देना चाहिए जैसे -
  • व्यापार अवरोधों को कम करना,
  • ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करना, जिसमें विभिन्न राज्यों में पूँजी का स्वतंत्र प्रवाह हो,
  • ऐसा वातावरण, जिसमें श्रम का निर्बाध प्रवाह हो
  • ऐसा वातावरण, जिसमें तकनीक का स्वतंत्र प्रवाह हो। 
  • किन्तु वैश्वीकरण के समर्थक श्रम के निर्बाध प्रवाह को नहीं मानते, क्योंकि इनसे उनका हित प्रतिकूल रूप से प्रभावित होता है।

वैश्वीकरण में विश्व व्यापार संगठन की भूमिका (कार्य)
WTO विश्व व्यापार के लिए मैत्रीपूर्ण वातावरण का निर्माण करता है, व्यापार के विभिन्न अवरोधों की समाप्ति कर वस्तुओं और सेवाओं के स्वच्छंद व्यापार को सुनिश्चित कराता है।
यह बहुपक्षीय व्यापार समझौतों के कार्यान्वयन, प्रशासन एवं परिचालन हेतु सुविधाएँ प्रदान करता है। व्यापार एवं प्रशुल्क से संबंधित किसी भी भावी मसले पर सदस्यों के बीच विचार-विमर्श हेतु सुविधाएँ प्रदान करता है।
विवादों के निपटारे से संबंधित नियमों और प्रक्रियाओं को प्रशासित करता है। व्यापार नीति समीक्षा प्रक्रिया से संबंधित नियमों एवं प्रावधानों को लागू करता है। वैश्विक आर्थिक नीति में अधिक सामंजस्य भाव लाने के लिए IMF और वर्ल्ड बैंक से सहयोग करता है। वैश्विक संसाधनों का अनुकूलतम प्रयोग करता है। वैश्विक व्यापार के अंतर्गत राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं को सुरक्षा प्रदान कर वैश्विक व्यापार के अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण करता है।

वैश्वीकरण की दिशा में भारत में प्रयास
  • विनिमय दर समायोजन परिवर्तनशील: अवमूल्यन 
  • पूँजी परिवर्तनीयता - विभिन्न चरण।
  • आयात-उदारीकरण
  • विदेशी मुद्रा के प्रति उदारवादी नीति।
  1. स्वतः अनुमोदन की अनुमति ।
  2. विदेशी पूँजी प्रवाह के विभिन्न स्त्रोत।
  • विदेशी कम्पनियों को घरेलू बाजार में ट्रेडमार्क के प्रयोग की अनुमति।

वैश्वीकरण एवं WTO के समझौते ( भारत के सम्दर्भ में)

सकारात्मक पक्ष
  • निर्यात के विस्तार व मात्रा में वृद्धि।
  • कृषि क्षेत्र के निर्यात की संवृद्धि की संभावनाएँ।
  • आयात उदारीकरण से आयातों का सस्ता होना और निर्यात को इससे बढ़ावा
  • अर्थव्यवस्था में खुलेपन से प्रतियोगिता को बढ़ावा इससे क्षमता व उत्पादकता को बल। 
  • मानव पूँजी का बड़ी मात्रा में निर्माण।

नकारात्मक पक्ष 
  • TRIPS के तहत प्रतिकूल रूप से प्रभाव।
  • प्रक्रिया पेटेंट से प्रोडक्ट पेटेंट लागू करने से क्षति।
  • कृषि क्षेत्र में पेटेंटिंग राइट का प्रतिकूल प्रभाव। 
  • सूक्ष्म जीवों के पेटेंट अधिकार के सन्दर्भ में आर्थिक क्षेत्र में प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि आर्थिक क्षेत्र में माइक्रो आर्गेनिज्म की भूमिका महत्वपूर्ण है। जैसे कृषि, औषधि, औद्योगिक जैव प्रौद्योगिकी क्षेत्र में।
  • कृषि क्षेत्र में समझौतों के अन्तर्गत "बाजार-सुलभता" पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
  • भारत में सेवा क्षेत्र अधिक विकसित नहीं है, साथ ही सेवा क्षेत्र की एक विशिष्ट सामाजिक भूमिका है न कि आर्थिक

WTO समझौते के तहत भारत में परिवर्तन
  • मात्रात्मक प्रतिबंधों की समाप्ति।
  • पेटेंट एक्ट में परिवर्तन।
  • आयात के अन्तर्गत 'टैरिफ' को कम किया गया है।
  • 'कॉपी राइट एक्ट' में संशोधन व इसकी अवधि 50 वर्ष किया गया है।
  • सेवा क्षेत्र को खोले जाने का प्रयास।

विश्व व्यापार संगठन में प्रमुख मुद्दे
  • श्रम मानक :  विकसित राष्ट्रों की तरफ से प्रस्तुत  संकल्पना। इसके अंतर्गत विकासशील अर्थव्यवस्थाओं पर आरोप है कि इन अर्थव्यवस्थाओं में श्रम का कोई मापदण्ड नहीं है। श्रमिकों के लिए कार्योनुकूल दशा के निर्माण में निवेश नहीं किया जाता। मजदूरी का कोई मानक स्तर नहीं है। बालश्रम का वृहद पैमाने पर प्रयोग किया जाता है। S इससे वैश्विक व्यापार प्रक्रिया में स्वरूप प्रतियोगिता बाधित होती है। अत: विकसित राष्ट्रों ने विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में श्रम मानकों की स्थापना की बात कही है ताकि वैश्विक व्यापार प्रक्रिया में स्वस्थ प्रतियोगिता को बढ़ावा दिया जा सके।
विकासशील राष्ट्रों ने यह विचार प्रस्तुत किया कि उनके क्षेत्रों में श्रम सस्ता है यह उनकी लाभप्रद स्थिति है जिसे विकसित राष्ट्र नकारना चाहते हैं। विकासशील राष्ट्रों ने यह विचार प्रस्तुत किया कि यह मुद्दा “गैर व्यापारी मुद्दा" है और इस पर वार्ता का उपर्युक्त मंच विश्व व्यापार संगठन नहीं वरन् विश्व श्रम संगठन है। अंततः विकासशील राष्ट्रों के दबाव के कारण इसे स्वीकार कर लिया गया कि इस पर चर्चा विश्व व्यापार संगठन में न होकर अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन में होगी।
  • पर्यावरण संबंधी मुद्दे :  यह मुद्दा व्यापार आदि को प्रोत्साहन देने के अंतर्गत पर्यावरण की सुरक्षा से जुड़ा हुआ है। पर्यावरणविदों का यह विरोध रहा है कि विश्व व्यापार संगठन के समझौतों के अंतर्गत जो वैश्वीकरण की प्रक्रिया चल रही है उससे पर्यावरण प्रतिकूल रूप से प्रभावित हो रहा है। दोहा विश्व व्यापार संगठन मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में पर्यावरण संबंधी मुद्दों के प्रगति का पुनर्विलोकन किया गया और उसे आगे बढ़ाये जाने की बात की गई। विश्व व्यापार संगठन की एक स्वतंत्र समिति है जो " व्यापार और पर्यावरण समिति" कहलाती है, जो इस मुद्दे के अंतर्गत भूमिका निभाती है।
  • सिंगापुर मुद्दे : प्रथम विश्व व्यापार संगठन मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में उभरे 4 मुद्दे सिंगापुर मुद्दे कहलाते हैं
  1. व्यापार एवम् निवेश,
  2. व्यापार एवम् प्रतियोगिता, 
  3. सरकार के द्वारा प्राप्तियों में पारदर्शिता
  4. व्यापार सुविधा जो कि कस्टम प्रक्रिया से संबंद्ध है।
यह मुद्दा विकसित व विकासशील देशों के बीच एक रूप में रहा है। विकसित राष्ट्र इसका क्रियान्वयन चाहते हैं जबकि विकासशील राष्ट्र इसके क्रियान्वयन का विरोध करते हैं। विकासशील राष्ट्र इससे पहले पिछले समझौतों के मुद्दों पर अमल करने की बात करते हैं। कानकुन सम्मेलन (2003) की विफलता का एक मुख्य कारण, सिंगापुरी मुद्दों पर विकसित व विकासशील देशों के बीच प्रतिरोध का होना भी था। जिनेवा वार्ता (2004) में इस मुद्दे पर गतिरोध समाप्त हुआ।

आर्थिक सुधार- वर्तमान प्रयास

  • अटल बिहारी वाजपेयी प्रशासन ने जारी सुधारों से सबको अचंभित कर दिया जब यह छह साल के लिए भारत के मामलों की पतवार पर था. 1998-99 व 1999-2004 तक।
  • भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने होटल, वीएसएनएल मारुति सुजुकी और हवाई अड्डों . सहित सरकारी स्वामित्व वाले व्यवसाय का निजीकरण करना शुरू कर दिया और करों में कमी शुरू की, एक समग्र राजकोषीय नीति जिसका उद्देश्य घाटे और ऋणों को कम करना और सार्वजनिक कार्यों के लिए पहल बढ़ाना है। 
  • संयुक्त मोर्चा सरकार एक प्रगतिशील बजट है कि सुधारों को प्रोत्साहित करने का प्रयास किया गया लेकिन 1997 के एशियाई वित्तीय संकट और राजनीतिक अस्थिरता पैदा की आर्थिक स्थिरता ने।
  • 2011 के अंत में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए -2 गठबंधन सरकार ने खुदरा क्षेत्र में 51% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की शुरुआत की। लेकिन साथी गठबंधन दलों और विपक्ष के दबाव के कारण, निर्णय वापस ले लिया गया था हालांकि, दिसंबर 2012 में इसे मंजूरी दे दी गई।
  • 2015 के शुरुआती महीनों में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने 49% एफडीआई की अनुमति देकर बीमा क्षेत्र को आगे बढ़ाया।
  • भाजपा की अगुवाई वाली दूसरी राजग सरकार ने भी कोयला खदानों (विशेष प्रावधान) 2015 के विधेयक के माध्यम से कोयला उद्योग को खोला। इसने कोयले के खनन पर भारतीय केंद्र सरकार के एकाधिकार को प्रभावी ढंग से समाप्त कर दिया, जो 1973 में समाजवाद के राष्ट्रीयकरण के बाद से अस्तित्व में था। इसने क्षेत्र में निजी विदेशी निवेश के लिए रास्ता खोल दिया है, क्योंकि विदेशी कंपनियों के भारतीय हथियार कोयला ब्लॉक और लाइसेंस के साथ-साथ कोयले के वाणिज्यिक खनन के लिए बोली लगाने के हकदार हैं। इससे घरेलू और विदेशी खनिकों द्वारा अरबों डॉलर का निवेश किया जा सकता है।
  • संसद के 2016 के बजट सत्र में नरेंद्र मोदी ने भाजपा सरकार को दिवाला और दिवालियापन संहिता के माध्यम
  • से आगे बढ़ाया। संहिता कंपनियों और व्यक्तियों के दिवाला समाधान के लिए समयबद्ध प्रक्रियाएं बनाती है। इन प्रक्रियाओं को 180 दिनों के भीतर पूरा किया जाएगा। यदि दिवालियापन की समस्या को हल नहीं किया जा सकता है, तो उधारकर्ताओं की संपत्ति को लेनदारों को चुकाने के लिए बेचा जा सकता है। यह कानून विशेषज्ञों के अनुसार, व्यापार करने की प्रक्रिया को काफी आसान कर देता है, और माना जाता है कि जीएसटी के बाद 1991 के बाद से भारत में दूसरा सबसे महत्वपूर्ण सुधार है।
  • 1 जुलाई, 2017 को, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने अधिनियम को वस्तु और सेवा कर (भारत) के लिए मंजूरी दे दी। 2000 में अटल बिहारी वाजपेयी के प्रशासन के तहत भाजपा की अगुवाई वाली एनडीए सरकार के पहले कानून के प्रस्ताव के 17 साल बाद इसे मंजूरी दी गई थी। आजादी के 70 वर्षों में भारत का सबसे बड़ा कर सुधार और इसे सबसे महत्वपूर्ण समग्र सुधार माना गया 1991 के बाद से व्यापार करने में आसानी GST ने अप्रत्यक्ष करों की एक एकीकृत कर संरचना की जगह ले ली और इसलिए इसे नाटकीय रूप से देश की 2.5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के रूप में प्रदर्शित किया गया।

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