आत्महत्या क्या है? अर्थ, कारण, प्रकार, विशेषताएं | aatmhatya

आत्महत्या

सन् 1897 में दुर्खीम की तीसरी महत्वपूर्ण पुस्तक 'आत्महत्या' फ्रेंच भाषा में 'Le Suicide' के नाम से प्रकाशित हुई। अब्राहम तथा मॉर्गन के शब्दों में, “यह पुस्तक सामूहिक चेतना से सम्बन्धित सामाजिक दबाव के एक ऐसे सिद्धान्त को प्रस्तुत करती है जिसमें अवधारणात्मक सिद्धान्त तथा आनुभाविक शोध के बीच एक विलक्षण समन्वय किया गया है। साधारणतया आत्महत्या को एक साधारण सी घटना समझा जाता है जो कुछ वैयक्तिक कठिनाइयों का परिणाम होती है। दुर्खीम ने इस सामान्य धारणा का खण्डन करते हुए आत्महत्या को एक वैयक्तिक घटना न मानकर इसे एक सामाजिक तथ्य के रूप में स्पष्ट किया।
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उन्होंने संसार के विभिन्न देशों से आत्महत्या सम्बन्धी व्यापक आँकड़ें एकत्रित करके यह बताया कि आत्महत्या की घटनाएँ भी एक तरह का सामाजिक प्रवाह है जो अधिक संवेदनशील लोगों को अपने साथ बहा ले जाता है। दूसरे शब्दों में, अन्य सामाजिक तथ्यों की तरह आत्महत्या भी सामूहिक चेतना तथा सामूहिक दबाव की ही उपज होती है। अपने इन विचारों के द्वारा एक ओर दुर्खीम मनोविज्ञान, जीव विज्ञान, वंशानुक्रम तथा भौगोलिक कारकों पर आधारित आत्महत्या सम्बन्धी विचारों का खण्डन करना चाहते थे तो दूसरी ओर, उनका उद्देश्य सांख्यिकीय प्रमाणों के आधार पर आत्महत्या के बारे में एक समाजशास्त्रीय विवेचना प्रस्तुत करना था।
अपनी पैनी दृष्टि और विश्लेषण की क्षमता की सहायता से उन्होंने यह स्पष्ट किया कि समाज ही व्यक्ति के जीवन को सामाजिक और नैतिक आधार पर नियन्त्रित करने वाला सबसे प्रमुख आधार है। जब कभी भी व्यक्ति पर समाज का नियन्त्रण शिथिल पड़ने लगता है, तब आत्महत्या की घटनाएँ भी बढ़ने लगती है। इस आधार पर भी आत्महत्या जैसे तथ्य को सामाजिक जीवन तथा सामाजिक घटनाओं से पृथक् करके नहीं समझा जा सकता। इस पुस्तक में दुर्थीम के विचारों का सार यह है कि विभिन्न समाजों में आत्महत्या की दर एक सामाजिक वास्तविकता है; आत्महत्या का सम्बन्ध सामाजिक व्यवस्था तथा सामाजिक संरचना से है; जब तक समाज के अस्तित्व की दशाओं में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं हो जाता, प्रत्येक समाज में आत्महत्या की घटनाएँ लगभग समान दर से घटित होती रहती है।

आत्म हत्या का अर्थ एवं विशेषतायें

'आत्महत्या' एक ऐसा सामान्य शब्द है जिसका अर्थ सभी लोग जानने का दावा कर सकते हैं। इस कारण साधारणतया इसे परिभाषित करने की आवश्यकता महसूस नहीं की जाती। इसके विपरीत, दुर्खीम यह मानते हैं कि आत्महत्या ऐसी सामान्य अवधारणा नहीं है जैसी कि साधारणतया समझ ली जाती है। दूसरे, सामाजिक तथ्यों की तरह आत्महत्या भी एक ऐसी सामाजिक घटना है जिसमे बाह्मता और बाध्यता का गुण होता है। इस दशा में यह आवश्यक है कि आत्महत्या से सम्बन्धित विभिन्न पक्षों को समझकर इसे भी समुचित रूप से परिभाषित किया जाये। वास्तविकता यह है कि 'सामान्य मृत्यु' तथा 'आत्महत्या' दो भिन्न दशाएँ है।
इस दृष्टिकोण से यदि आत्महत्या से सम्बन्धित उन तत्वों को ज्ञात कर लिया जाये जिनका सामान्य मृत्यु में अभाव होता है तो आत्महत्या के अर्थ को भली-भाँति समझा जा सकता है। इसे स्पष्ट करते हुए दुर्खीम ने लिखा है, "आत्महत्या शब्द का प्रयोग किसी भी ऐसी मृत्यु के लिए किया जाता है जो मृत व्यक्ति द्वारा किये जाने वाले किसी सकारात्मक या नकारात्मक कार्य का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष परिणाम होती है। इस कथन में स्पष्ट होता है कि आत्महत्या प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से मृतक द्वारा की गयी क्रिया का ही परिणाम होती है। दुर्खीम यह मानते हैं कि जब कोई व्यक्ति स्वयं अपने जीवन को समाप्त करता है तो इस क्रिया के कारण उस व्यक्ति के बाहर स्थित होते हैं। इस अर्थ में आत्महत्या कुछ बाहरी दशाओं के दबाव से उत्पन्न होने वाला एक ऐसा परिणाम है जिसे समझने के बाद भी व्यक्ति उससे बच नहीं पाता। इसके बाद भी यह ध्यान रखना आवश्यक है कि आत्महत्या' अपने जीवन को समाप्त करने के लिए मृतक द्वारा किये जाने वाले प्रयत्न का प्रत्यक्ष परिणाम है, अप्रत्यक्ष नहीं। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति किसी ऊँचे स्थान से जमीन पर यह समझकर नीचे कूद पड़े कि जमीन उससे केवल 10 फुट नीचे है लेकिन वास्तव में अधिक ऊँचाई पर होने के कारण कूदने से उसकी मृत्यु हो जाये तो यह उसकी क्रिया का प्रत्यक्ष परिणाम नहीं होगा। इस दशा में इसे एक दुर्घटना कहा जायेगा, आत्महत्या नहीं।

वास्तव में, कुछ बाहरी दशाओं के प्रभाव से आत्महत्या मृतक द्वारा किया जाने वाला एक ऐसा विचारपूर्वक कार्य है जिसके परिणाम के प्रति व्यक्ति पहले से ही चेतन होता है। इस आधार पर दुर्खीम ने आत्महत्या को परिभाषित करते हुए लिखा है, 'आत्महत्या, शब्द का प्रयोग मृत्यु की उन सभी घटनाओं के लिए किया जाता है। जो स्वयं मृतक के किसी सकारात्मक या नकारात्मक कार्य का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष परिणाम होती है तथा जिसके भावी परिणाम को वह स्वयं भी जानता है। इस कथन के द्वारा दुर्खीम ने यह स्पष्ट किया कि आत्महत्या सदैव किसी सकारात्मक क्रिया का ही परिणाम नहीं होती बल्कि किसी नकारात्मक क्रिया के द्वारा भी आत्महत्या की जा सकती है। उदाहरण के लिए जहर खाकर या स्वयं को गोली मारकर की जाने वाली आत्महत्या एक सकारात्मक क्रिया का परिणाम है, जबकि घातक बीमारी के बाद भी दवा लेने से इन्कार करना अथवा भोजन न करके जीवन का त्याग कर देना आत्महत्या के लिए की जाने वाली नकारात्मक क्रिया है। आत्महत्या से सम्बन्धित किया जाने वाला कार्य चाहे सकारात्मक हो या नकारात्मक, पारिभाषिक रूप से जब तक उसके घातक परिणाम के बारे में कर्ता निश्चित रूप से चेतन न हो, तब तक उसे आत्महत्या नहीं कहा जा सकता। दुर्खीम के शब्दों में, "आत्महत्या केवल उसी अवस्था में विद्यमान होती है जब व्यक्ति उस घातक कार्य को करने के दौरान उसके परिणाम को निश्चित रूप से जानता हो, यद्यपि इस निश्चितता की मात्रा कुछ कम या अधिक हो सकती है।" यदि किसी घातक क्रिया के परिणाम के बारे में व्यक्ति निश्चित रूप से नहीं जानता तो उससे व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर भी इसे आत्महत्या नहीं कहा जायेगा। उदाहरण के लिए सर्कस में मौत की छलाँग लगाने वाला या विषैले साँपों के करतब दिखाने वाला व्यक्ति अपनी इन क्रियाओं का परिणाम केवल लोगों का मनोरंजन करना समझता है। इसके विपरीत, यदि मौत की छलाँग लगाने का साँप के काट लेने से व्यक्ति की मृत्यु हो जाये तो इसे आत्महत्या नहीं कहा जा सकता।

आत्महत्या की अवधारणा से इसके कुछ प्रमुख तत्व अथवा विशेषताएं स्पष्ट होती है जिन्हें सरल शब्दों में निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है :-

1. वैयक्तिक क्रिया का परिणाम - आत्महत्या का सबसे प्रमुख तत्व अथवा विशेषता यह है कि यह स्वयं आत्मघात करने वाले व्यक्ति की क्रिया का परिणाम होती है। दुर्खीम के अनुसार यह क्रिया सकारात्मक भी हो सकती है और नकारात्मक भी। उदाहरण के लिए अपने आपको गोली मारकर या किसी ऊँचे स्थान से कूदकर जान दे देना सकारात्मक क्रिया है, जबकि खाना खाने से इन्कार करके जीवन को समाप्त कर देना नकारात्मक क्रिया है।

2. परिणाम के प्रति चेतना - दुर्खीम के अनुसार आत्महत्या मृतक द्वारा की जाने वाली क्रिया का प्रत्यक्ष परिणाम होती है। इस परिणाम के प्रति आत्मघात करने वाला व्यक्ति पूरी तरह चेतन होता है अर्थात् वह जानता है कि एक विशेष कार्य का परिणाम मृत्यु के रूप में होगा। यदि किसी खतरनाक कार्य के फलस्वरूप आकस्मिक रूप से व्यक्ति की मृत्यु हो जाये तो ऐसे कार्य में परिणाम के प्रति चेतना का अभाव होने के कारण उसे आत्महत्या नहीं कहा जा सकता।

3. स्वेच्छा का समावेश - आत्महत्या एक ऐसी क्रिया है जिसे व्यक्ति अपनी इच्छा से करता है। यदि किसी व्यक्ति को अपना जीवन स्वयं समाप्त करने के लिए कुछ लोगों के द्वारा बाध्य किया जाये तथा व्यक्ति की मृत्यु उसी बाध्यता का परिणाम हो तो ऐसी मृत्यु को भी आत्महत्या की श्रेणी में नहीं रखा जायेगा। इसका अर्थ है कि आत्महत्या के लिए व्यक्ति में एक स्पष्ट इरादे का होना आवश्यक तत्व है। इसी के द्वारा दुर्थीम ने यह स्पष्ट किया कि आत्महत्या तथा मृत्यु में एक स्पष्ट अन्तर है क्योंकि मृत्यु एक ऐसी दशा है जिसमें स्वेच्छा का अभाव होता है।

4. उद्देश्य का समावेश - प्रत्येक आत्महत्या के पीछे मृतक का कोई-न-कोई उद्देश्य अवश्य होता है, चाहे यह उद्देश्य प्रत्यक्ष हो अथवा अप्रत्यक्ष। दुर्खीम का यह मानना है कि आत्महत्या का उद्देश्य सदैव स्पष्ट नहीं होता लेकिन आत्महत्या का एक ऐसा सामाजिक आधार अवश्य होता है जो किसी व्यक्ति को आत्महत्या करने की प्रेरणा देता है। यह उद्देश्य व्यक्तिगत भी हो सकता है और सामूहिक भी। एक व्यक्ति यदि आत्महत्या के द्वारा परिवार को बदनामी या आर्थिक दिवालियेपन से बचाना चाहता है तो यह व्यक्तिगत उद्देश्य है, जबकि देश की रक्षा के लिए एक सैनिक द्वारा जान-बूझकर अपने प्राणों का बलिदान कर देना सामूहिक उद्देश्य का उदाहरण है। यदि कोई व्यक्ति बिना किसी उद्देश्य के एकाएक गहरी नदी में छलाँग लगाकर या रेलगाड़ी के आगे कूदकर अपनी जान दे दे तो इसे केवल एक मनोविकार ही कहा जायेगा।

5. आत्महत्या का कारण व्यक्ति से बाह्म - दुर्खीम ने इस बात पर विशेष बल दिया कि आत्महत्या का कारण व्यक्ति के अन्दर विद्यमान नहीं होता बल्कि कुछ बाहरी दशाएँ व्यक्ति को आत्महत्या करने की प्रेरणा देती है। आत्महत्या का कारण यदि व्यक्ति के अन्दर स्थिर होता तो विभिन्न अवधियों में आत्महत्या की दर में बहुत असमानता देखने को मिलती। इसके विपरीत, विभिन्न समाजों में थोड़े-बहुत अन्तर के साथ आत्महत्या की घटनाएँ एक निश्चित दर से घटित होती रहती है। इससे यह प्रमाणित होता है कि सामाजिक संरचना सम्बन्धी कुछ विशेषताएँ ही आत्महत्या के लिए अनुकूल दशाएँ उत्पन्न करती है। जब तक इन दशाओं में अधिक परिवर्तन नहीं हो जाता, तब तक आत्महत्या की दर में भी कोई परिवर्तन नहीं होगा।

6. एक सामाजिक तथ्य - दुर्खीम के अनुसार आत्महत्या की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि आत्महत्या एक वैयक्तिक घटना नहीं बल्कि एक सामाजिक तथ्य है। दूसरे शब्दों में, आत्महत्या का कारण वैयक्तिक न होकर सामाजिक होता है। किसी वैयक्तिक घटना को व्यक्ति की जीव-रचना, मानसिक दशाओं अथवा अनुकरण आदि के आधार पर समझा जा सकता है। इसके विपरीत, सामाजिक घटना का कारण समाज की संरचना तथा समाज के नैतिक संगठन में निहित होता है। दुर्खीम ने यूरोप के विभिन्न देशों से आत्महत्या सम्बन्धी आँकड़े एकत्रित करके यह स्पष्ट किया कि विभिन्न समाजों की सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक संरचना के अनुसार ही वहाँ आत्महत्या की दर में भिन्नता देखने को मिलती है तथा एक विशेष समाज में प्रत्येक वर्ष आत्महत्या की दर में अधिक भिन्नता नहीं पायी जाती। इसका तात्पर्य है कि सामाजिक दशाएँ ही आत्महत्या की दर को प्रभावित करती है। आत्महत्या इसलिए भी एक सामाजिक तथ्य है कि इसमें वाह्मता तथा बाध्यता की विशेषताएँ देखने को मिलती है।

आत्महत्या व्यक्ति से वाह्म है क्योंकि इसका कारण व्यक्ति के अन्दर स्थित नहीं होता। साथ ही, यह इस दृष्टिकोण से भी बाध्यताकारी है कि समाज का एक विशेष नैतिक संगठन अथवा सामाजिक मूल्य ही व्यक्ति को आत्महत्या की प्रेरणा देते हैं।

आत्म हत्या के कारण

आत्महत्या की विवेचना में दुर्खीम ने अनेक उन कारणों का उल्लेख किया जिनके आधार पर समय-समय पर आत्महत्या की विवेचना की जाती रही थी। दुर्खीम से पहले मनोवैज्ञानिकों, जीववादियों तथा भौगोलिकवादियों ने यह स्पष्ट किया था कि व्यक्ति कुछ मानसिक, जैविकीय तथा प्राकृतिक दशाओं के प्रभाव से आत्महत्या करते हैं। इसी आधार पर आत्महत्या के विभिन्न प्रकारों, जैसे- उन्मादपूर्ण आत्महत्या, संवेगात्मक आत्महत्या, निराशापूर्ण आत्महत्या तथा प्रेतबाधा आत्महत्या आदि का भी उल्लेख किया गया। दुर्खीम ने ऐसे सभी कारणों की निरर्थकता को स्पष्ट करते हुए आत्महत्या की सामाजिक कारणों के आधार पर व्याख्या की। इसलिए यह आवश्यक है कि आत्महत्या के मनोवैज्ञानिक, जैविकीय तथा भौगोलिक कारणों पर दुर्खीम के विचारों को समझने के साथ उन सामाजिक दशाओं का विस्तार से उल्लेख किया जाये तो दुर्खीम के अनुसार आत्महत्या का वास्तविक कारण है।

(1) मनोवैज्ञानिक दशाएँ (Psychological Conditions)
मनोवैज्ञानिक दशाओं में विभिन्न विद्वानों ने स्वभाव सम्बन्धी विशेषताओं, मानसिक बीमारियों, संवेगात्मक अस्थिरता, उन्माद तथा पातक की भावना आदि को आत्महत्या के प्रमुख कारणों के रूप में स्पष्ट किया था। दुर्खीम के अनुसार इनमें से किसी भी कारण के आधार पर आत्महत्या की विवेचना नहीं की जा सकती।
  • (अ) स्वभाव सम्बन्धी विशेषताएँ - मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि कुछ व्यक्तियों का स्वभाव आत्महत्या के लिए अधिक अनुकूल होता है। जो लोग जीवन में बहुत अधिक आराम की कामना करते हैं, अधिक भावुक होते हैं. अधिक मनोरंजन पसन्द करते हैं तथा स्वभाव से अन्तर्मुखी होते हैं, उनके शान्त जीवन में थोड़ा भी व्यवधान पैदा होने से वे विचलित हो जाते हैं। आत्महत्या इसी दशा का परिणाम है। दुर्खीम ने अपने अध्ययन में यह पाया कि व्यक्तिगत स्वभाव तथा आत्महत्या के बीच कोई सह-सम्बन्ध नहीं है। आत्महत्या करने वाले व्यक्तियों में अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी दोनों तरह के स्वभाव वाले लोग होते हैं। दूसरी ओर, संवेग और भावना स्त्रियों के जीवन में अधिक होती है, जबकि आत्महत्या करने वाले लोगों में स्त्रियों की अपेक्षा पुरूषों का प्रतिशत अधिक है।
  • (ब) मनोविकार- मनोविकार इस तरह की मानसिक बीमारी है जो विभिन्न रूपों में आत्महत्या के लिए उत्तरदायी होती है। उदाहरण के लिए, व्यर्थ की चिन्ता से घिरे रहना, प्रत्येक दशा में निराशा अनुभव करना, स्नायुदोष का होना, स्वयं कोई निर्णय न ले पाना, बहुत जल्दी दुःखी या प्रसन्न हो जाना आदि विभिन्न प्रकार के मनोविकार है। यह मनोविकार जब व्यक्ति के जीवन को बहुत असन्तुलित बना देते हैं तो वह अपने जीवन को बेकार समझकर आत्महत्या की ओर मुड़ जाता है। दुर्खीम ने यह सिद्ध कि या कि मनोविज्ञान स्वयं आत्महत्या का कारण नहीं होते बल्कि स्वयं मनोविकार भी कुछ विशेष सामाजिक दशाओं का परिणाम होते हैं। इसका अर्थ है कि मनोविकार आत्महत्या के लिए प्रेरणा तो दे सकते हैं लेकिन आत्महत्या के वास्तविक कारण सामाजिक दशाओं में ही खोजे जा सकते हैं।
  • (स) संवेगात्मक अस्थिरता- मनोवैज्ञानिक यह मानते हैं कि आत्महत्या करने वाले लोगों में से अधिकांश लोग वे होते हैं जो स्थिर विचारों के नहीं होते, तर्क के आधार पर कोई निर्णय नहीं ले पाते तथा जिनकी सोच नकारात्मक होती है। ऐसे व्यक्ति सभी दूसरे लोगों को अपना विरोधी और आलोचक समझने लगते हैं। यही दशा उन्हें आत्महत्या करने की प्रेरणा देती है। दुर्खीम का कथन है कि मनोवैज्ञानिकों के अनुसार युवावस्था में संवेगात्मक अस्थिरता व्यक्ति में सबसे कम होती है लेकिन बच्चों और वृद्धों की तुलना में युवा वर्ग के लोग अधिक आत्महत्या करते हैं। इसका तात्पर्य है कि संवेगात्मक अस्थिरता आत्महत्या का प्रमुख कारण नहीं है।
  • (द) उन्माद - उन्माद एक ऐसा मानसिक विकार है जिसमें व्यक्ति अपनी किसी भी इच्छा के तनिक भी अपूर्ण रह जाने की दशा में एकाएक असामान्य व्यवहार करने लगता है। उसकी मानसिक स्थिति इतनी बिगड़ जाती है कि व्यक्ति असामान्य क्रियाएँ करने लगता है। अक्सर उन्माद की दशा में अकेला होने पर व्यक्ति आत्महत्या का शिकार हो जाता है। दुर्खीम के अनुसार उन्माद पूरी तरह एक वैयक्तिक और काल्पनिक विशेषता है जिसके आधार पर आत्महत्या की व्याख्या नहीं की जा सकती।
  • (य) पातक की भावना- यह एक ऐसी भावना है जो किसी कुकृत्य को करने के बाद व्यक्ति में स्वयं अपने प्रति घृणा की भावना उत्पन्न कर देती है। पातक की दशा में व्यक्ति हर समय अपने प्रति सशंकित रहने लगता है, वह अनिद्रा से घिर जाता है तथा उसमें इतनी अधिक हीनता पैदा हो जाती है कि धीरे-धीरे अकारण वह पूरे समूह को अपने विरुद्ध समझने लगता है। यही दशा उसे आत्महत्या की ओर ले जाती है। दुर्खीम पातक को एक मनोवैज्ञानिक दशा न मानकर एक सामाजिक दशा के रूप में देखते हैं क्योंकि पातक का कारण आन्तरिक नहीं बल्कि समाज की वाम दशाएँ होती है।
कुछ मनोवैज्ञानिक मद्यपान को भी एक मनोवैज्ञानिक कारण मानते हुए इसके आधार पर आत्महत्या की विवेचना करते हैं लेकिन दुर्खीम ने यह सिद्ध किया कि स्पेन तथा फ्रांस जैसे देशों में जहाँ शराब का सबसे अधिक सेवन किया जाता है, वहाँ यूरोप के अनेक दूसरे देशों की तुलना में आत्महत्या की दर कम है।

(2) जैविकीय दशाएँ (Biological Conditions)
दुर्खीम ने अनेक ऐसी मानसिक और जैविकीय दशाओं का भी उल्लेख किया जिन्हें अक्सर आत्महत्या का कारण मान लिया जाता है। जीववादी यह मानते हैं कि एक विशेष शारीरिक रचना तथा वंशानुक्रम से प्राप्त होने वाली विशेषताएं भी आत्महत्या की प्रेरणा देती है। इस दृष्टिकोण से दोषपूर्ण आनुवंशिक विशेषताएं, असामान्य शारीरिक रचना तथा प्रजातीय लक्षण वे प्रमुख जैविकीय कारक है जिनका आत्महत्या से प्रत्यक्ष सम्बन्ध है।
  • (अ) दोषपूर्ण आनुवंशिक विशेषताएं - जीववादियों का विश्वास है कि माता-पिता के अच्छे और बुरे सभी गुणों का वाहकाणुओं के द्वारा उनकी सन्तानों में संरक्षण होने की सदैव सम्भावना रहती है। माता-पिता में यदि स्नायु दोष या विभिन्न प्रकार के मनोविकार होते हैं तो अक्सर यह दोष उनकी सन्तानों में भी आ जाते हैं। इससे बच्चों में भी आत्महत्या की प्रवृत्ति पैदा हो जाती है। दुर्खीम ने आनुवंशिकता अथवा पैतृकता के आधार पर आत्महत्या की प्रवृत्ति का खण्डन किया। उनके अनुसार आनुवंशिकता पूरी तरह एक जन्मजात और आन्तरिक विशेषता है जिसके आधार पर आत्महत्या जैसे वाह्य व्यवहार की विवेचना नहीं की जा सकती।
  • (ब) असामान्य शारीरिक रचना- जीववादी यह भी मानते हैं कि जिन व्यक्तियों की शारीरिक रचना असामान्य होती है, उनमें आत्महत्या की प्रवृत्ति अधिक देखने को मिलती है। इसका अर्थ है कि जो व्यक्ति बहुत अधिक भहे, मोटे, नाटे, अपंग अथवा विकलांग होते हैं, अक्सर अपने जीवन के प्रति उनमें अधिक रूचि नहीं होती। शारीरिक विकृतियाँ उनके विचारों को भी असन्तुलित बना देती है जिसका परिणम बहुधा आत्महत्या के रूप में देखने को मिलता है। दुर्खीम ने इस आधार को भी अस्वीकार करते हुए कहा कि असामान्य शारीरिक रचना तब तक आत्महत्या का कारण नहीं हो सकती जब तक व्यक्ति का जीवन शेष समाज से बिल्कुल अलग न हो जाये। इसका तात्पर्य है कि असामान्य शारीरिक रचना स्वयं आत्महत्या का कारण नहीं होती बल्कि सामाजिक दशाओं के सन्दर्भ में ही उनके प्रभाव को समझा जा सकता है।
  • (स) प्रजातीय लक्षण- अनेक विद्वानों ने प्रजातीय लक्षणों के आधार पर भी आत्महत्या की व्याख्या करने का प्रयत्न किया है। सामान्य निष्कर्ष यह दिया जाता है कि गोरी प्रजाति की तुलना में काली प्रजाति के लोगों में आत्महत्या की दर अधिक होती है। इससे प्रजातीय लक्षणों और आत्महत्या का सहसम्बन्ध स्पष्ट होती है। दुर्खीम ने इसकी आलोचना करते हुए कहा कि कुछ समय पहले तक जिन प्रजातीय समूहों में आत्महत्या की दर अधिक थी, उनकी सांस्कृतिक दशाओं में परिवर्तन हो जाने स अब उनमें आत्महत्या की दर कम होती जा रही है। इससे भी यह स्पष्ट होता है कि आत्महत्या का कारण जैविकीय दशाओं में नहीं बल्कि सामाजिक दशाओं में ही ढूँढ़ा जा सकता है।

(3) भौगोलिक दशाएँ (Geographical Conditions)
भौगोलिकवादी यह मानते हैं कि आत्महत्या तथा भौगोलिक दशाओं के बीच एक प्रत्यक्ष सम्बन्ध है। भौगोलिक दशाओं का सम्बन्ध एक विशेष प्रकार की जलवायु, ऋतु-परिवर्तन तथा मौसमी तापमान में होने वाले उतार-चढ़ाव से है। डी. गूरे, वैगनर, मॉण्टेस्क्यू, डेक्सटर तथा फेरी आदि वे प्रमुख भौगोलिकवादी हैं जो अनेक दूसरे मानव व्यवहारों की तरह आत्महत्या को भी भौगोलिक दशाओं का परिणाम मानते हैं। दुर्खीम के विचारों के सन्दर्भ में आत्महत्या तथा भौगोलिक कारकों के सम्बन्ध को जानने से यह स्पष्ट हो जायेगा कि भौगोलिकवादियों के कथन को उपयुक्त नहीं कहा जा सकता।
  • (अ) जलवायु तथा आत्महत्या - कुछ भौगोलिकवादी यह मानते हैं कि जलवायु तथा आत्महत्या के बीच एक प्रत्यक्ष सम्बन्ध है। यही कारण है कि जलवायु में परिवर्तन होने के साथ आत्महत्या की दर में भी परिवर्तन देखने को मिलता है। उनके अनुसार समशीतोष्ण जलवायु में आत्महत्याएँ अधिक होती हैं। इसके विपरीत, अधिक गर्म या अधिक ठण्डी जलवायु में आत्महत्या की घटनाएँ तुलनात्मक रूप से कम होती है। इस सम्बन्ध में दुर्खीम ने लिखा है, "आत्महत्या की दर में पायी जाने वाली भिन्नता की खोज जलवायु के रहस्यात्मक प्रभाव में नहीं बल्कि विभिन्न देशों में पायी जाने वाली सभ्यता की प्रकृति में करना आवश्यक है।" इसका तात्पर्य है कि भौगोलिकवादियों ने जिस समशीतोष्ण जलवायु को अधिक आत्महत्याओं का कारण मान लिया है, उसका कारण वास्तव में इस जलवायु में विकसित होने वाली कुछ विशेष प्रकार की सामाजिक-सांस्कृतिक दशाएं है। इटली का उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि यहाँ क विभिन्न भागों में समय-समय पर आत्महत्या की दर में काफी परिवर्तन होता रहा, जबकि वहाँ की जलवायु में किसी तरह का परिवर्तन नहीं हुआ। इससे यह प्रमाणित होता है कि आत्महत्या की घटनाओं की खोज सामाजिक और सांस्कृतिक दशाओं में ही की जा सकती है।
  • (ब) ऋतु-परिवर्तन-मॉण्टेस्क्यू ने ऋतु- परिवर्तन और आत्महत्या के सहसम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए लिखा कि यूरोप में गर्मी में आत्महत्या की दर सबसे अधिक होती है और इसमें भी मई व जून का समय सबसे अधिक घातक होता है। बसन्तु ऋतु में आत्महत्या की दर साधारण होती है तथा सर्दियों में इसमें बहुत कमी हो जाती है। इस प्रकार आत्महत्या की दर में होने वाला परिवर्तन ऋतु-परिवर्तन के साथ बहुत कुछ नियमित रूप में देखने को मिलता है। दुर्खीम ने ऐसे निष्कर्षों को अस्वीकार करते हुए यह तर्क दिया कि आत्महत्या की दर की भिन्नता ऋतु-परिवर्तन से सम्बन्धित नहीं है बल्कि व्यक्ति उस समय अपने जीवन को त्यागना अधिक पसन्द करते हें जब मौसम उनके जीवन को सबसे कम प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर रहा होता है। यह ऋतु परिवर्तन का सामाजिक सन्दर्भ है तथा यही सन्दर्भ कुछ सीमा तक आत्महत्या की दर से सम्बन्धित है।
  • (स) तापमान- फेरी जैसे एक प्रमुख भौगोलिकवादी ने यह निष्कर्ष दिया कि तापमान तथा आत्महत्या के बीच एक प्रत्यक्ष सम्बन्ध है। उन्होंने अपने अध्ययन में यह पाया कि गर्मियों में जब तापमान अधिक होता है, तब आत्महत्या की घटनाओं में भी वृद्धि हो जाती है। दुर्खीम ने ऐसे निष्कर्षों की आलोचना करते हुए लिखा कि तापमान के थर्मामीटर का आत्महत्या में कोई सम्बन्ध नहीं है। यह सच है कि जब तापमान अधिक होता है तो आत्महत्याएँ अधिक होती है लेकिन इसका कारण यह है गर्मियों के मौसम में व्यक्ति स्वयं को अधिक अकेला महसूस करता है जिसके फलस्वरूप आत्महत्या की दर में वृद्धि हो जाती है।
इस प्रकार दुर्खीम ने मनोवैज्ञानिक, जैविकीय तथा भौगोलिक दशाओं के आधार पर आत्महत्या की विवेचना को भ्रामक बताते हुए सामाजिक दशाओं को ही आत्महत्या की घटनाओं के लिए उत्तरदायी माना।

आत्म हत्या के प्रकार

दुर्खीम के अनुसार आत्म हत्या तीन प्रकार की होती है जो अग्रलिखित है -

1. परार्थवादी आत्म हत्या- इस प्रकार की आत्म हत्या तब होती है जबकि व्यक्ति पूर्णतया समूह द्वारा नियंत्रित होता है और व्यक्ति के व्यक्तित्व का कोई स्थान नहीं होता है। सच तो यह है कि यह उस स्थिति को व्यक्त करती है, जबकि व्यक्ति और समाज का सम्बन्ध अत्यधिक घनिष्ठ होता है और समाज या समूह व्यक्ति के व्यक्तित्व को पूर्ण रूप से निगल जाता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति जो कुछ भी करता है समाज या समूह की दृष्टि से करता है। इतना ही नहीं, समूह का अत्यधिक नियंत्रण व घनिष्ठ बन्धन उसे आत्म बलिदान के लिये भी बाध्य कर सकता है। परार्थवादी आत्म हत्या को स्पष्ट करते हुए 'पारसन्स' महोदय लिखते हैं "यह उस सामूहिक चेतना की अभिव्यक्ति है जो सामूहिक दबाव के अर्थ में व्यक्तित्व के दोषों को ठुकरा देती है।" वास्तव में परार्थवादी आत्म हत्या समूह के अत्यधिक नियंत्रण व घनिष्ठता के कारण होती है और उस स्थिति में व्यक्ति सामूहिक हित के लिये अपने जीवन को बलिदान करने के लिये भी तैयार हो जाता है। आदिम समाजों में इस प्रकार की आत्म हत्यायें देखने को मिलती है। भारत में पायी जाने वाली सती प्रथा और जापान की हारा-कीरी प्रथा इसी प्रकार के आत्म हत्या के उदाहरण कहे जा सकते हैं।

2. अहम् वादी आत्म हत्या- इस प्रकार की आत्म हत्या तब होती है जबकि व्यक्ति अपने आपको सामूहिक जीवन से अत्यधिक अलग अनुभव करने लगता है। यह परिस्थिति व्यक्तिगत विघटन के कारण होती है अथवा उस समय उत्पन्न होती है जबकि व्यक्ति के सम्बन्ध अपने समूह से पर्याप्त सीमा तक विघटित हो जाते हैं। इस स्थिति में व्यक्ति सामाजिक दृष्टि से गहरी निराशा का अनुभव करता है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति में व्यक्ति अपने-अपने स्वार्थों में अत्यधिक लिप्त हो जाता है और कोई किसी की परवाह नहीं करता है। ऐसे वातावरण में कुछ व्यक्तियों को अपने को एकाकी व उपेक्षित अनुभव करना स्वभाविक हो जाता है, क्योंकि यह सब कुछ सामाजिक जीवन से उत्पन्न गहरी निराशा के कारण होता है। सम्भवतया यही कारण है कि अविवाहित व परित्यक्त व्यक्ति पारिवारिक जीवन के मधुर सम्बन्धों का आनन्द नहीं ले पाते, अकेलेपन का अनुभव करते हैं और विवाहित व्यक्तियों की तुलना में कहीं अधिक संख्या में आत्म हत्या कर बैठते हैं। आधुनिक समाज में अधिकतर आत्म हत्या समाज द्वारा
उत्पन्न अति अहमवाद या अति व्यक्तित्व वाद के कारण होती है।

3. अस्वाभाविक या अप्राकृतिक आत्म हत्या- इस प्रकार के आत्म हत्यायें सामाजिक परिस्थितियों में एकाएक या आकस्मिक परिवर्तन होने के कारण होती है। इन आकस्मिक परिस्थितियों में कुछ व्यक्ति गहरी निराशा या अत्यधिक प्रसन्नता का अनुभव करने लगते हैं। व्यापार में एकाएक मन्दी आना, दिवालिया हो जाना, लाटरी का जीतना, भीषण आर्थिक संकट आदि इसी प्रकार की आकस्मिक परिस्थितियां है। सच तो यह है कि इन नवीन परिथतियों में अनेक व्यक्ति सामान्य जीवन की भांति अनुकूलन नहीं कर पाते हैं।
इसी स्थिति को अस्वाभाविकता कहा जाता है। इसको स्पष्ट करते हुये 'कोजर' और 'रोजनवर्ग' लिखते हैं "इसका अभिप्राय यही है कि अस्वाभाविक या अप्राकृतिक आत्म हत्यायें सामान्य सामूहिक जीवन में एकाएक परिवर्तन होने से उत्पन्न सामाजिक असन्तुलन होने के कारण होती है।" औद्योगिक समाज व्यवस्था में इस प्रकार की आत्म हत्यायें होती रहती है।

सार संक्षेप

प्रस्तुत इकाई में आत्म हत्या की अर्थ एवं विशेषताओं का विस्तृत वर्णन किया गया है जिसमें बताया गया है कि आत्म हत्या क्या है ? तथा इनकी विशेषतायें कौन-कौन सी होती है ? दुर्खीम ने लिखा है कि आत्म हत्या शब्द का प्रयोग किसी भी ऐसी मृत्यु के लिये किया जाता है जो मृत व्यक्ति द्वारा किये जाने वाले किसी सकारात्मक या नकारात्मक कार्य का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष परिणाम होती है। प्रस्तुत लेख में ही आत्म हत्याओं के कारणों पर वृहद प्रकाश डाला गया है एवं मनोवैज्ञानिक दशायें, जैवकीय दशायें, तथा भौगोलिक दशाओं के बारे में विस्तृत ब्यौरा प्रस्तुत किया गया है। लेख के अन्त में आत्म हत्या के प्रकारों का भी वर्णन किया गया है।

पारिभाषिक शब्दाबली
  • आत्म हत्या- आत्म हत्या शब्द का प्रयोग मृत्यु की उन सभी घटनाओं के लिए किया जाता है जो स्वयं मृतक के किसी सकारात्मक या नकारात्मक कार्य का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष परिणाम होती है तथा जिसके भावी परिणाम को वह स्वयं भी जानता है।
  • मनोवैज्ञानिक दशायें - इसमें स्वभाव सम्बन्धी विशेषताओं, मानसिक बीमारियों संवेगात्मक और स्थिरता, उन्माद तथा पातक आदि की दशायें सम्मिलित है।
  • जैविकीय दशायें - जैवकीय दशाओं में वे दोषपूर्ण आनुवांशिक विशेषतायें, असामान्य शारीरिक रचना तथा प्रजातीय लक्षण सम्मिलित है जिनका आत्म हत्या से प्रत्यक्ष सम्बन्ध है।
  • भौगोलिक दशायें - इसका सम्बन्ध एक विशेष प्रकार की जलवायु, ऋतु परिवर्तन तथा मौसमी तापमान में होने वाले उतार-चढ़ाव से है।

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