मद्यपान क्या है
मदिरा का अत्यधिक सेवन मद्यपान कहलाता है। ऐसा अनुमान है कि भारत में 21 प्रतिशत वयस्क पुरुष मद्यपान करते हैं। अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों में यह प्रतिशत 75 तक है। यद्यपि सम्पूर्ण भारत में महिलाओं में मद्यपान की दर पुरुषों की तुलना में कम है, तथापि उत्तर-पूर्वी राज्यों में महिलाओं में मद्यपान की दर भी अत्यधिक है। आदिवासियों तथा ग्रामीण एवं नगरीय क्षेत्रों के निम्न सामाजिक-आर्थिक स्थिति वाले लोगों में मद्यपान अधिक है। वैयक्तिक स्तर पर मद्यपान से शारीरिक क्षमता कम होती हैं तथा अनेक प्रकार की मानसिक स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। परिवार के स्तर पर मद्यपान पारिवारिक विघटन को प्रोत्साहन देता है तथा महिलाओं पर अत्याचार में वृद्धि करता है।
सामुदायिक स्तर पर भी मद्यपान की काफी सामाजिक एवं आर्थिक कीमत चुकानी पड़ती है। दुर्घटनाएँ एवं मृत्यु, मानव शक्ति अपव्यय, अपराध में वृद्धि तथा सामाजिक सुरक्षा, उपचार एवं पुनर्वास के लिए अधिक धन का व्यय ऐसे दुष्परिणाम हैं जो मद्यपान के कारण पनपते हैं। इसीलिए समाजशास्त्र में सामाजिक समस्याओं के अध्ययन में मद्यपान को सम्मिलित किया जाता है। इस लेख का उद्देश्य मद्यपान के विभिन्न पहलुओं की विवेचना करना है।
प्रस्तावना
मद्यपान (अतिमद्यपता) एवं मादक द्रव्य व्यसन ऐसी सामाजिक समस्याएँ हैं जो आज सभी देशों में चिन्ता का विषय बनी हुई हैं क्योंकि इनसे तीनों ही प्रकार के विघटनों—वैयक्तिक विघटन, पारिवारिक विघटन तथा सामाजिक विघटन को प्रोत्साहन मिलता है। इन्हें मुख्य रूप से वैयक्तिक विघटन के रूप में देखा गया है। भारत में मद्यपान एवं मादक द्रव्य व्यसन का प्रयोग इतना अधिक बढ़ गया है कि यह खतरा पैदा हो गया है कि आने वाले कुछ वर्षों में भारत इन पदार्थों का सेवन करने वाला सबसे पहला और बड़ा देश बन जाएगा। एक अनुमान के अनुसार केवल दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता तथा चेन्नई में जहरीली दवाओं की लाखों रुपये की खुदरा बिक्री रोज होती है। अकेले मुम्बई में एक लाख से अधिक नसेड़ी हैं और देश में हर वर्ष 50 हजार की दर से नसेड़ियों की वृद्धि हो रही है। इससे भारत में मद्यपान की समस्या की गम्भीरता का पता चलता है।
मद्यपान कोई नई बात नहीं है क्योंकि इसका प्रचलन आदिकाल से ही संसार के प्रत्येक देश में विविध रूपों में होता आया है। मद्यपान यद्यपि करता तो एक व्यक्ति है परन्तु इसे सामाजिक समस्या इसलिए कहा जाता है क्योंकि इससे वैयक्तिक विघटन के अतिरिक्त पारिवारिक विघटन एवं सामाजिक विघटन भी होते हैं। मद्यपान एक सामाजिक समस्या तब समझी जाती है, जबकि अत्यधिक मदिरा का उपयोग करके व्यक्ति व्यभिचारी या अपराधी कार्यों को करने लगता है। इतना ही नहीं, तलाक, पलायन, आत्महत्या, अपराध, कलह, भ्रष्टाचार, दुर्घटना व नैतिक पतन जैसी अनेक समस्याएँ इसके साथ जुड़ी हुई हैं। इसलिए इस समस्या का समाजशास्त्रीय दृष्टि से अध्ययन विशेष महत्त्व रखता है। अत्यधिक अथवा आदतन मद्यपान का व्यक्ति के मूल्यों, मनोवृत्तियों, स्वास्थ्य तथा जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव को समाजशास्त्रीय दृष्टि से देखने का प्रयत्न किया जाता है क्योंकि मद्यपान करने वाला व्यक्ति परिवार तथा समुदाय का भी सदस्य होता है। इसलिए इससे समाज की यह महत्त्वपूर्ण इकाइयाँ भी प्रभावित होती हैं। संसार में लाखों पुरुष तथा स्त्रियाँ आज ऐसी स्थिति में पहुँच चुके हैं जहाँ मद्यपान उनकी एक मूल आवश्यकता बन गया है।
मद्यपान की अवधारणा
आज समाज में मद्यपान ही एक समस्या नहीं है अपितु अन्य नशीले द्रव्यों (जैसे अफीम, गांजा, चरस, कोकीन, भांग, एल. एस. डी. अन्य नशा उत्पन्न करने वाली दवाएँ व जड़ी बूटियाँ इत्यादि) का प्रयोग इतनी अधिक मात्रा में होने लगा है कि प्रत्येक समाज में मादक द्रव्य व्यसन एक चिन्ता का विषय बना हुआ है। अमेरिका, यूरोप तथा एशिया के अनेक देश इससे प्रभावित हैं। प्रायः ऐसा देखा गया है कि अगर एक बार इस प्रकार के मादक द्रव्य व्यसन की व्यक्ति को आदत पड़ जाती है तो इसे छोड़ना बहुत कठिन होता है। मादक द्रव्य व्यसन व्यक्ति की वह स्थिति है जिसमें वह किसी औषधि का इतना अधिक सेवन करने लगता है कि वह सामान्य अवस्था में रहने के लिए भी उस पर आश्रित हो जाता है। अगर औषघि उसे नहीं मिलती तो वह बीमार सा अनुभव करता है। यह एक प्रकार से मादक द्रव्यों (नशीली दवाओं) के अत्यधिक सेवन की स्थिति है।
इलियट एवं मेरिल (Elliott and Merrill) ने उचित ही लिखा है कि मद्यपान का भी सामाजिक वितरण होता है। जटिल समाजों में विभिन्न समूहों को जिस प्रकार शिक्षा, व्यवसाय, धर्म, राष्ट्रीयता, प्रजाति इत्यादि कारकों द्वारा एक-दूसरे से अलग किया जा सकता है, ठीक उसी प्रकार इन समूहों में मद्यपान का उपयोग एक समान रूप से नहीं होता। वैयक्तिक असुरक्षा, जोकि एक समूह में पाई जाती है, जरूरी नहीं है कि वह किसी अन्य समूह में भी पाई जाए। इसीलिए ग्रामीण तथा नगरीय समुदायों तथा उन समुदायों के विभिन्न समूहों में इसका उपयोग एक समान नहीं होता है। कुछ समाजों में कम तेज मद्यपान का उपयोग किया जाता है।
मद्यपान का अर्थ एवं परिभाषाएँ
सरल शब्दों में मद्यपान का अर्थ मदिरा (शराब) का सेवन करना है। जो व्यक्ति मदिरा का सेवन करता है उसे मद्यसेवी कहते हैं। फेयरचाइल्ड (Fairchild) ने मदिरा सेवन की असामान्य तथा बुरी आदत को मद्यपान कहा है। इलियट एवं मैरिल जैसे अनेक विद्वानों ने यह मत व्यक्त किया है कि अधिक मात्रा में मदिरा का सेवन ही मद्यपान कहलाता है। कभी-कभी अथवा बहुत कम मात्रा में शराब पीना मद्यपान नहीं है। साथ ही, ऐसे विद्वानों ने मद्यपान को मदिरा सेवन की वह आदत बताया है जो मद्यसेवी की कमजोरी बन जाती है। वह मदिरा पर इतना अधिक आश्रित हो जाता है कि बिना उसके सेवन से उसे बेचैनी होने लगती है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन निपुण समिति (World Health Organization Expert Committee) ने मद्यपान को इन शब्दों में परिभाषित किया है, “मद्यपान नशे की वह दशा है जो किसी मादक पदार्थ के निरन्तर सेवन से पैदा होती है; जो कुछ देर तक या सदैव ही व्यक्ति को इस तरह नशे में चूर रखती है जो समाज और व्यक्ति दोनों के लिए हानिकारक होती है।” इस संगठन के अनुसार मद्यसेवी से अभिप्राय अधिक नशा करने वाले उस व्यक्ति से है जिसकी मदिरा पर इतनी अधिक निर्भरता बढ़ जाती है कि इसके कारण व्यक्ति का मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य विगड़ने लगता है।
सन् 1964 में योजना आयोग द्वारा नियुक्त मद्यनिषेध पर स्टडी टीम की रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी। इस स्टडी टीम के अध्यक्ष पंजाब उच्च न्यायालय के निवर्तमान न्यायाधीश श्री टेकचनद थे। यह रिपोर्ट मद्यपान एवं मद्यनिषेध पर एक शास्त्रीय शोघ ग्रन्थ माना जाता है। इस रिपोर्ट में मद्यपान की परिभाषा इन शब्दों में की गई थी, “मद्यपान से आशय एक बीमारी, आदत या व्यसन से है जो व्यक्ति की शारीरिक-मानसिक व्यवस्था के टूटने से पैदा होता है। यह विघटन दीर्घकाल तक लगातार और आदतन मद्यपान के परिणामस्वरूप होता है।”
इसी भाँति, मार्क कैलर (Mark Keller) के अनुसार, “मद्यपान एक ऐसा दीर्घकालिक व्यवहार सम्बन्धी विकार है जिसमें व्यक्ति इतनी अधिक मात्रा में मदिरा सेवन करने लगता है कि उसकी मदिरा पीने की आदत उसके स्वास्थ्य तथा सामाजिक व आर्थिक कार्यों में हस्तक्षेप करने लगती है।"
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मद्यपान मदिरा सेवन की वह स्थिति है जो मद्यसेवी की आदत बन जाती है तथा जो उसके स्वास्थ्य और मानसिक जीवन को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती है। यह मदिरा के किसी भी रूप में निरन्तर उपयोग से उत्पन्न पाक्षिक या शाश्वत नशे की स्थिति है जो व्यक्ति और समाज दोनों के लिए अहितकर होती है। मद्यपान में मदिरा के साथसाथ उन पदार्थों का सेवन भी सम्मिलित है जो व्यक्ति में मादकता उत्पन्न करते हैं। इसीलिए किसी भी ऐसे पदार्थ का सेवन जो नशा पैदा करता है विस्तृत रूप से मद्यपान कहलाता है।
वस्तुत: मद्यपान से आशय व्यक्ति की उस व्याधिकीय दशा से है जो उसके द्वारा नशीले पेयों के लगातार एवं अत्यधिक सेवन से उत्पन्न होती है। इस दशा में व्यक्ति मद्यपान की आदत का शिकार हो जाता है। वह मद्यपान के लिए स्वयं को बाध्य समझता है। एक मानसिक रोगी की भाँति, दिन-प्रतिदिन विकृतियों की ओर बढ़ता हुआ भी तथा मदिरा की चाह को छोड़ना चाहते हुए भी वह इसे नहीं छोड़ सकता। मद्यपान अत्यधिक मदिरा व्यसन की स्थिति है जिसमें व्यक्ति मानसिक विकृति का शिकार होने के साथ-साथ आर्थिक दृष्टि से भी दरिद्र हो जाता है, सामाजिक प्रतिष्ठा खो बैठता है तथा नैतिक ह्रास के कारण एक प्रकार से विवेकशून्य हो जाता है। अत: मद्यपान उन लोगों की समस्या नहीं है जो कभी-कभी खुशी या गम के अवसर पर थोड़ी-सी मदिरा पी लेते हैं और बातचीत व हँसी-मजाक करके खाना खाकर सो जाते हैं। ऐसे लोगों के लिए मदिरा शारीरिक या मानसिक कमजोरी नहीं होती है।
उपर्युक्त विवेचन से मद्यपान की निम्नांकित विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं-
- मद्यपान अधिक मात्रा में मदिरा सेवन की आदत है।
- मद्यपान की आदत में व्यक्ति मदिरापान करने के लिए अपनी विवशता प्रकट करता है।
- मद्यपान व्यक्ति के लिए जीवन की वह स्थिति है जिससे मदिरा उसके जीवन के लिए एक समस्या बन जाती है और वह उसे आसानी से छोड़ नहीं पाता है।
- यह आदत कभी-कभी अथवा अधिकांशतः मदिरा सेवन करने वाले व्यक्ति के व्यवहार और कार्यक्षमता में गम्भीर दोष उत्पन्न कर देती है।
- मद्यपान की स्थिति में व्यक्ति शारीरिक व संवेगात्मक नुकसान उठाता है।
- मद्यपान एक मानसिक व शारीरिक बीमारी है जो अनेक प्रकार के रोगों और व्यवहार विवादों को जन्म देती है।
टेकचन्द स्टडी टीम ने मदिरासेवियों (मद्यसारिकों) की निम्न छह श्रेणियाँ बताई हैं-
- कभी-कभी पीने वाले,
- संयत पीने वाले (एक सप्ताह में तीन बार),
- अभ्यस्त, सामाजिक अथवा भोजन के साथ पीने वाले (हफ्ते में तीन बार से ज्यादा लेने वाले),
- अधिक (Heavy) पीने वाले (वे लोग जो इतना पीते हैं कि घर, समाज या व्यापार में भी कठिनाई में पड़ जाते हैं परन्तु वे इसे स्वेच्छा से छोड़ सकते हैं),
- व्यसनी पीने वाले (वे जो अपने आप मदिरा सेवन नहीं छोड़ सकते और जिन्हें उपचार की जरूरत है), तथा
- चिर-कालिक पीने वाले (वे लोग जो तन और मन से गिरावट की स्थिति में हैं)।
मद्यपान बनाम मादक द्रव्य व्यसन
मद्यपान मदिरा का अधिक सेवन है, तो मादक द्रव्य व्यसन उन नशीली औषधियों का प्रयोग है जिन पर व्यक्ति इतना अधिक आश्रित हो जाता है कि ऐसा करना न केवल उसकी आदत बन जाती है, अपितु उसके जीवन को प्रतिकूल रूप से प्रभावित भी करती है। इसीलिए मद्यपान एवं मादक द्रव्य व्यसन का परिणाम यद्यपि एक-जैसा होता है, तथापि दोनों में अन्तर भी है। मद्यपान आदिकाल से चली आ रही एक सार्वभौमिक समस्या है, जबकि मादक द्रव्य व्यसन औषधि विज्ञान में हुई प्रगति के परिणामस्वरूप विकसित एक आधुनिक समस्या है। चिकित्सा पद्धति के अतिरिक्त किसी भी मात्रा में शक्ति, आवृत्ति या प्रकार से किसी दवा का सेवन, जो शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं को क्षति पहुँचाए, मादक द्रव्य व्यसन कहलाता है। अन्य शब्दों में, यह नशीली दवाओं का दुरुपयोग है।
मद्यपान सामान्यतया सायंकाल एवं रात्रिकाल में अधिक किया जाता है, जबकि मादक द्रव्य व्यसन का कोई समय नहीं है। मादक द्रव्यों का प्रयोग अधिकांश व्यसनी दिन के समय में ही करते हैं। इसलिए उनमें अनेक ऐसे लक्षण पैदा हो जाते हैं जोकि मद्यपान के परिणामस्वरूप विकसित नहीं होते। इन लक्षणों में खेलकूद और दिनचर्या में अरुचि, भूख व वजन में कमी, लड़खड़ाते कदम, बेढंगी हरकतें, आँखों में लालिमा, सूजन व धुंधलापन, जुबान का लड़खड़ाना, उनींदापन या अनिन्द्रा, सुस्ती और अकर्मण्यता का होना, तीव्र उद्विग्नता, घबराहट, शरीर पसीने से तरबतर हो जाना, स्मरण शक्ति और एकाग्रता की क्षीणता, अकेलेपन की चाह खासकर शौचालय में अधिक समय बिताना, तथा घर से सामान/पैसा गायब हो जाना प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त, शरीर पर अनेक टीकों के ताजे निशान व कपड़ों पर खून के धब्बे, घर में सुइयों व अजीबो-गरीब पैकटों का पाया जाना भी मादक द्रव्य व्यसन के लक्षण हैं। मद्यपान में इस प्रकार की कोई वस्तु नहीं पाई जाती है।
मद्यपान का प्रचलन बड़ों की तुलना में बच्चों में कम पाया जाता है, जबकि मादक द्रव्य व्यसन की आदत अधिकतर 16 से 35 वर्ष की आयु वाले लोगों में अधिक पाई जाती है। निम्न आय वर्ग में मादक द्रव्यों के व्यसनी अधिक होते हैं। इस प्रकार के ज्यादातर व्यसनी बेरोजगार, श्रमिक, परिवहन मजदूर या विद्यार्थी होते हैं।
मदिरा सामान्यतया शराब की दुकानों अथवा ठेकों में उपलब्ध होती है। ये दुकानों एवं ठेके सरकार द्वारा अनुमोदित होते हैं। इसके विपरीत, मादक द्रव्य मुख्य रूप से फेरीवाले, दुकानदार और पानवाले गैर-कानूनी रूप से बेचते हैं। पान वाली दुकानों में तथा अंग्रेजी दवाएँ बेचने वाली दुकानों में ऐसे मादक द्रव्य सरलता से उपलब्ध हो जाते हैं।
मादक द्रव्य व्यसन का इतिहास काफी प्राचीन है तथा यूरोप, एशिया व सुदूरवर्ती पूर्वी और पश्चिमी देशों में इसका प्रयोग किसी ने किसी रूप में अवश्य होता रहा है। उदाहरणार्थ, भारत में मादक द्रव्यों का प्रयोग प्राचीन काल से ही होता आया है। हिन्दू ग्रन्थों में ‘सोमरस' नामक मादक द्रव्य तथा भांग का उल्लेख मिलता है। भांग को शिवजी का प्रिय पेय समझा गया है तथा शिवरात्रि वाले दिन अधिकतर लोग भांग पीते हैं। इस प्रकार, कई मादक द्रव्यों के प्रयोग को भारत में कुछ सीमा तक धार्मिक स्वीकृति भी मिली हुई है। होली के त्योहार पर भांग का प्रयोग बहुधा होता है। साधु-सन्त तथा महात्मा लोग गांजा, चरस तथा कोकीन का बहुधा प्रयोग करते हैं। भारत में अफीम का उपयोग भी अधिक हो गया है तथा कुछ लोग नींद के लिए इसे दवा के रूप में प्रयोग करते हैं। केवल भारत में ही नहीं, पूरे विश्व में अफीम, गांजे और चरस का प्रयोग काफी बढ़ गया है।
मादक द्रव्यों को उत्तेजक (कोकीन, डक्सीड्रीन, मेथेड्रीन आदि), निश्चेतक अफीम, गांजा, चरस आदि तथा मायिक या भ्रान्तिजनक (एल० एस० डी० आदि) में विभाजित किया जा सकता है। उत्तेजक द्रव्य खाने से नींद नहीं आती है और ऐसा लगता है की शरीर की ऊर्जा शक्ति बढ़ गई हैं; निश्चेतक द्रव्य खाने से उनींदापन महसूस होता है, चित्त प्रसन्न लगता है तथा उदासी की भावनाएँ दूर हो जाती हैं तथा मायिक द्रव्यों के प्रयोग से व्यक्ति दिन को सपने देखने लगता है तथा उसका सम्बन्ध वास्तविकता से टूट जाता है।
मद्यपान और मादक द्रव्य व्यसन दोनों वैयक्तिक विघटन के प्रमुख रूप माने जाते हैं। मद्यपान एक ऐसा दीर्घकालिक व्यवहार-सम्बन्धी विकार है जिसमें व्यक्ति इतनी अधिक मात्रा में मदिरा सेवन करने लगता है कि उसकी मदिरा पीने की आदत उसके स्वास्थ्य तथा सामाजिक व आर्थिक कार्यों में हस्तक्षेप करने लगती है। मादक द्रव्य व्यसन व्यक्ति की वह स्थिति है जिसमें वह किसी नशीली औषधि का इतना अधिक सेवन करने लगता है कि वह सामान्य अवस्था में रहने के लिए भी उस पर आश्रित हो जाता है। अगर वह औषघि उसे नहीं मिलती तो वह बीमार सा अनुभव करता है। यह एक प्रकार से मादक द्रव्यों (नशीली दवाओं) के अत्यधिक सेवन की स्थिति है। दोनों के कारणों एवं परिणामों में इतनी अधिक समानता है कि इस दृष्टि से भी इन दोनों में अन्तर करना एक कठिन कार्य है।
मद्यपान का परिमाण
मद्यपान भारत में एक समस्या है क्योंकि इसका दुरुपयोग सम्बन्धित व्यक्ति, उसके परिवार एवं समुदाय के लिए अनेक प्रकार की समस्याएँ विकसित कर देता है। महात्मा गांधी ने इस सन्दर्भ में कहा था कि, “मद्यपान को मैं चोरी और यहाँ तक कि वेश्यावृत्ति से भी अधिक बुरा मानता हूँ क्योंकि यह दोनों ही बुराइयाँ मद्यपान से पैदा होती हैं।" इसीलिए स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में मद्यनिषेध पर काफी जोर दिया गया। मदिरा के उत्पादन से सरकार को इतना अधिक आबकारी कर प्राप्त होता है कि इसे बन्द करना अत्यधिक कठिन है। इसके उत्पादन में होने वाली वृद्धि का अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि 1970 ई० में भारत में शराब का उत्पादन केवल ६० लाख लीटर था जो 1992-1993 ई० तक बढ़कर 887.2 मिलियन लीटर, 1999-2000 ई० में 1,654 मिलियन लीटर तथा 2007-2008 ई० में बढ़कर 2,300 मिलियन लीटर हो गया। दक्षिण-पूर्व एशिया में कुल शराब के उत्पादन में 65 प्रतिशत हिस्सा भारत का है। इतना ही नहीं, वैश्विक उदारीकरण के इस युग में विदेशी मदिरा भी काफी मात्रा में भारत में उपलब्ध है।
नशीले पदार्थों के शिकार केवल युवक ही नहीं हैं अपितु अब 12 से 14 वर्ष तक के बच्चे भी इसमें शामिल हो गए हैं। सन् 1986 में भारतीय चिकित्सालय अनुसन्धान परिषद् द्वारा किए गए सर्वेक्षण से हमें यह पता चलता है कि अब प्रतिभाशाली तथा अच्छे छात्र सामान्य तथा मन्द बुद्धि छात्रों की अपेक्षा इन पदार्थों का अधिक सेवन करते हैं। नशीले पदार्थों का सर्वाधिक सेवन परीक्षाओं के समय ही पाया गया है। अधिकतर छात्र इन पदार्थों का सेवन थकान दूर करने या तनाव कम करने के लिए करते हैं। कुछ छात्र यह सोचकर नशीले पदार्थों का प्रयोग करते हैं कि इन्हें लेने से याददाश्त तेज हो जाती है। सर्वेक्षण के अनुसार बड़े शहरों में या विद्यालयों में तथा विश्वविद्यालय में 25 प्रतिशत छात्र नशीले पदार्थों का सेवन करते पाए गए। यह लत सर्वाधिक 35 प्रतिशत दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों में पाई गई। यह प्रतिशत उन शिक्षण संस्थाओं में और अधिक है जहाँ शिक्षा का स्तर अपेक्षाकृत अच्छा है तथा जहाँ छात्रों को काफी अधिक छूट मिली हुई है। स्कूलों में नशीले पदार्थों का सेवन भी चिन्ता का विषय बनता जा रहा है। यह बात पब्लिक स्कूलों के छात्रों में अधिक पाई जाती है।
दिल्ली विश्वविद्यालय के समाज कार्य विभाग के प्रोफेसर पी० एन० गोविल के अनुसार, नशे की लत बढ़ने का एक प्रमुख कारण शिक्षकों तथा छात्रों के बीच परम्परागत घनिष्ठ तथा वैयक्तिक सम्बन्धों का अभाव है। उनके अनुसार समाज का तेजी से बदलता परिवेश भी इसके लिए बहुत हद तक जिम्मेदार है। आजकल तो आप अगर समाज में अपनी इज्जत कराना
चाहते हैं तो आपको शराब और सिगरेट तो पीनी ही होगी। साथ ही, उनका कहना है कि मादक औषधियाँ आसानी से मिल जाती हैं। अधिकारियों की मिलीभगत तथा उसमें व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण ही ऐसा हो पाया है।
ऐसा अनुमान किया गया है कि मुम्बई नगर में 1 लाख 50 हजार व्यक्ति हेरोइन सेवन के आदी हैं। दिल्ली में इनकी संख्या 1 लाख और कोलकाता में 70 हजार है। एक संगोष्ठी में विशेषज्ञों ने यह विचार व्यक्त किया कि भारत में यदि यही प्रवृत्ति रही तो 21वीं शताब्दी के प्रारम्भ में यहाँ दो करोड़ व्यक्ति इस हेरोइन के शिकार हो जाएंगे। इसलिए इस मादक द्रव्य को सफेद प्लेग (White plague) भी कहा गया है।
दिल्ली में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार हाई स्कूल के दो छात्रों में से एक और कॉलेज के तीन छात्रों में से एक विद्यार्थी मादक द्रव्यों के सेवन का आदी हो चुका है। समाजशास्त्रीय दृष्टि से यदि देखें तो मुम्बई में एक अस्पताल द्वारा किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि जिन व्यसनियों को उपचार के लिए लाया गया उन चार में से एक श्रमिक वर्ग का था।
दिल्ली में 5,834 मादक द्रव्य वेचने वाले और सेवन करने वाले पकड़े गए जिनमें से 5,506 निम्न वर्ग, झुग्गी-झोपड़ियों से सम्बन्धित थे। एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी श्री गौतम कौल के अनुसार, पंजाब पुलिस में कम से कम पच्चीस प्रतिशत लोग मादक द्रव्यों के सेवन के आदी हैं। दिल्ली के आटो-रिक्शा चालाकों में 70-80 प्रतिशत मादक द्रव्यों का प्रयोग करते हैं। पिछले चार वर्षों से सम्बन्धित विभागों द्वारा पकड़े गए माल की मात्रा और उसके मूल्य के अनुमान से पता चलता है कि भारत मादक द्रव्य के व्यापार का महत्त्वपूर्ण मार्ग बन गया है। ऐसे द्रव्य भारत होते हुए यूरोप, अमेरिका व अन्य देशों को भेजे जाते हैं। सी. बी. ममोरिया (C. B. Mamoria) के अनुसार भारत की लगभग 12 प्रतिशत जनसंख्या इससे प्रभावित है परन्तु आजकल यह प्रतिशत कहीं अधिक हो गया है क्योंकि शिक्षण वर्ग में विशेषकर छात्रों तथा छात्राओं में इसका प्रयोग बहुत अधिक बढ़ गया है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार मद्यपान से पूरे विश्व में प्रतिवर्ष 2.5 मिलियन लोगों की मृत्यु होती है। यह मृत्यु के कारणों में आठवां सबसे कारण है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत में मद्यपान अभी भी अन्य देशों की तुलना में काफी कम है। सरकारी अनुमान के अनुसार भारत में 21 प्रतिशत वयस्क पुरुष तथा 2 प्रतिशत वयस्क स्त्रियाँ ही मद्यसारिक हैं।
भारत में लगभग 14 मिलियन ऐसे मद्यसारिक हैं जिन्हें अब सहायता की आवश्यकता है। गैर-सरकारी संगठनों द्वारा मद्यपान के परिमाण के बारे में लगाए गए अनुमान कहीं अधिक है। ऐसा माना जाता है कि भारत में 7.5 करोड़ लोग मद्यसारिक हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण संगठन द्वारा 2005-06 में संकलित आँकड़ों, जोकि सितम्बर 2007 में प्रकाशित हुए, से पता चलता है कि 32 प्रतिशत वर्तमान मद्यसारिकों में 4 से 13 प्रतिशत रोजाना पीने वाले हैं। यह प्रतिशत ग्रामीण एवं नगरीय जनसंख्या के लिए लगभग एक-जैसा (क्रमश: 32 प्रतिशत एवं 31 प्रतिशत) है।
ऐसा अनुमान है कि पिछले पाँच वर्षों में भारत में मदिरा सेवन में 171 प्रतिशत वृद्धि हुई है। पंजाब, आन्ध्र प्रदेश, गोवा तथा उत्तर-पूर्वी राज्यों में मद्यपान अधिक होता है। असम, अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, उत्तर-पूर्व, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा तथा आन्ध्र प्रदेश में महिलाओं में मद्यपान पुरुषों की तुलना में अधिक है। इस प्रकार, भारत में मद्यपान के प्रतिमानों एवं प्रवृत्तियों में तेजी से परिवर्तन हुआ है। मद्यसारिक बनने की आयु पहले की तुलना में कम हो गई है। भारत में अब 15 वर्ष तक की आयु के लड़कों में मद्यपान की आदत पड़ने लगती है। 1990 के दशक में हुए अध्ययनों में यह आयु 28 वर्ष थी। कम उम्र में पीने वाले 47-50 प्रतिशत लड़के अपने जीवन की किसी-न-किसी अवस्था में मद्यपान के आदी हो जाते हैं। 21 वर्ष से कम आयु में मद्यसारिक बनने वालो की संख्या 15 वर्ष में 2 प्रतिशत से बढ़कर 14 प्रतिशत हो गई है। केरल जैसे राज्य में मद्यपान प्रारम्भ करने की आयु दो दशकों में 19 वर्ष से घटकर 13 वर्ष हो गई है।
मद्यसारिक बनने की प्रक्रिया
व्यक्ति के मद्यसारिक बनने की प्रक्रिया को निम्नलिखित चार सोपानों में विभाजित किया जा सकता है-
- मद्यसारिक बनने की प्रक्रिया के प्रथम सोपान में मद्यपान वास्तविकता से बचने का मनोवैज्ञानिक प्रयास माना जाता है। व्यक्ति सोचता है कि मदिरा सेवन से उसका मूड ठीक हो जाएगा। इस अवस्था में मदिरा सेवन सामाजिक न होकर अवरोधनों (Inhibitions) एवं समस्याओं से बचने का एक साधन बन जाता है। इसी अवस्था में धीरे-धीरे अधिक मदिरा सेवन की आदत विकसित होने लगती है।
- मद्यसारिक बनने की प्रक्रिया के दूसरे सोपान में मद्यपान की आवश्यकता अधिक प्रबल हो जाती है। जो व्यक्ति किसी समस्या के तनाव से बचने के लिए मद्यपान करते हैं, वे इस अवस्था में दिन को भी पीना शुरू कर देते हैं। जैसे-जैसे मद्यपान की सहनशीलता बढ़ने लगती है, वैसे-वैसे व्यक्ति मनोवैज्ञानिक तनाव के कारण ही मदिरा का सेवन नहीं करता अपितु वह मदिरा पर आश्रित भी हो जाता है। यद्यपि इस सोपान में 'नियन्त्रण का लोप' (Loss of control) नियमित रूप में नहीं होता, तथापि नातेदार, परिजन, पड़ोसी, मित्र तथा सहकर्मी इस बात का अहसास करने लगते हैं कि उसने पी रखी है तथा सम्भवतः इसीलिए उसका अपने शरीर पर पूरा नियन्त्रण नहीं है। मद्यसारिक मद्यपान के बारे में अधिक उत्सुक रहता है तथा यदि वह इसे छोड़ना भी चाहे तो उसके लिए ऐसा सम्भव नहीं हो पाता। दूसरे सोपान में मदिरापान के शारीरिक लक्षण भी दिखाई देने लगते हैं। इन लक्षणों मे धुंधला दिखना, अस्पष्ट बोली, आँखे लाल होना, चेहरा पीला होना, आँखों के नीचे काले घेरे होना, सिर में भारीपन, अनिद्रा आदि प्रमुख हैं। मद्यसारिक अपनी समस्याओं का कारण मद्यपान न मानकर इसका दोष दूसरों को देने लगता है।
- मद्यसारिक बनने की प्रक्रिया के तीसरे सोपान में मद्यसारिक का अपने शरीर पर 'नियन्त्रण का लोप' अधिक स्पष्ट एवं दिखाई देने वाला लक्षण बन जाता है। यह वह अवस्था है जिसमें व्यक्ति एक बार पीना प्रारम्भ कर दे तो उसे लगता है कि उसे और पीना चाहिए। अन्य शब्दों में इस सोपान में मद्यसारिक का मद्यपान पर नियन्त्रण नहीं रहता। मद्यसारिक अधिक गम्भीर समस्याओं का शिकार हो जाता है जिससे उसके अन्य लोगों से सम्बन्ध तक बिगड़ने लगते हैं। वह आर्थिक एवं वैधानिक समस्याओं का शिकार भी हो सकता है। इस सोपान में मद्यसारिक अपने मित्रों एवं परिजनों से बचने का प्रयास करता है तथा उन क्रियाओं से दूर रहने का प्रयास करता है जो उसके लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रही हैं। इस सोपान में मद्यसारिक खाने, पानी, अपने स्वास्थ्य, आवास तथा व्यक्तिगत अन्तक्रिया जैसी आवश्यकताओं की उपेक्षा करने लगता है। वह पेशेवर स्वास्थ्य सहायता लेने का भी आधा-अधूरा प्रयास करता है।
- मद्यसारिक बनने की प्रक्रिया के चोथे सोपान में मद्यसारिक का अपने शरीर पर 'नियन्त्रण का लोप' चिरकालिक बन जाता है। उसके लिए कार्यस्थल एवं अन्य परिस्थितियों में अपने को संयमित रख पाना कठिन हो जाता है। इस सोपान में उसके हाथ एवं सम्पूर्ण शरीर काँपने लगता है। यह कँपकँपी मद्यसारिक में स्नायविक गड़बड़ (Nervous disorder) की द्योतक है। यह वह सोपान है जिसमें मद्यपान से व्यक्ति की मृत्यु भी हो सकती है।
मद्य दुरुपयोग के कारण
छोटी सी आयु से ही मादक द्रव्यों के सेवन के कारणों का जिक्र किया जाना बहुत आवश्यक है। इसके लिए निम्नलिखित प्रमुख कारण उत्तरदायी हैं-
- वैयक्तिक कारण- अधिकतर व्यक्ति व्यक्तिगत कारणों जैसे बुरी संगत में रहकर मनोरंजन के लिए, व्यावसायिक मनोरंजन के लिए, शारीरिक थकान को कम करने के लिए, असफल प्रेमी होने के कारण, कुरूप होने के कारण अथवा नीरस तथा निराशाओं से घिरे होने के कारण ही मद्यपान शुरू करते हैं। एक बार व्यक्ति इन कारणों से शराबी हो जाए तो बाद में उसके लिए शराब छोड़ना बड़ा कठिन हो जाता है।
- पारिवारिक कारण- मद्यपान में पारिवारिक स्थिति भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है क्योंकि अगर यह पहले से ठीक नहीं है तो बच्चों पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, अगर माता-पिता दोनों अथवा एक मद्यपान करते हैं और अनैतिक कार्यों में लगे हुए हैं, तो बच्चे अनैतिकता से कैसे बच सकते हैं। पारिवारिक जीवन से दु:खी व्यक्ति अथवा सौतेले माता-पिता द्वारा सताए व्यक्तियों में मद्यपान की प्रवृत्ति अधिक देखने को मिली है। साथ ही, प्राय: यह देखा गया है कि जिन परिवारों में कई पीढ़ियों से मदिरा सेवन होता है, उनमें बच्चे भी इसे पैतृकतावश अपना लेते हैं।
- आर्थिक कारण- आर्थिक दृष्टि से असन्तुष्ट व्यक्तियों में शराब सेवन अधिक पाया जाता है। गरीब तथा निम्न वर्ग के व्यक्ति शराब सेवन करते है। व्यवसाय में निराशा, असुरक्षा अथवा इसके फेल हो जाने पर अथवा कठिन व्यवसाय में लगे हुए होने के कारण (जैसे सैनिक जीवन) मद्यपान की आदत पड़ सकती है। ट्रक ड्राइवरों में शराब सेवन अधिक देखा गया है।
- सामाजिक एवं धार्मिक कारण- हमारी अनेक सामाजिक-सांस्कृतिक एवं धार्मिक प्रथाएँ भी मद्यपान को प्रोत्साहन देती हैं। उदाहरणार्थ, अनेक सामाजिक व धार्मिक उत्सवों (जैसे दीवाली, दशहरा, होली इत्यादि) तथा अन्य अवसरों (जैसे लड़के का जन्म, विवाह इत्यादि) के समय अधिकतर शराब का सेवन होता है तथा इन समयों पर इसे बुरा भी नहीं माना जाता। जहाँ पर मद्यपान निराशाओं तथा विफलताओं के समय छुटकारा दिलाने में सहायता देता है, वहीं पर खुशी के समय मद्यपान एक मान्य सी बात हो गई है।
- यौन सुख में उत्तेजना के लिए- कुछ लोग मद्यपान यौन सुख में उत्तेजना लाने के लिए करते हैं क्योंकि इससे यौन सम्बन्धी कामना अधिक जाग्रत होती है। वेश्यागामी पुरुषों एवं अधिक कामी पुरुषों में इसका अधिक सेवन किया जाता है। भारतवर्ष में राजाओं, नवाबों व जमींदारों का इतिहास अगर देखा जाए तो काम उत्तेजना हेतु मदिरा सेवन के अनेक उदाहरण मिलते हैं। अब्राहम ने मद्यपान एवं यौन प्रवृत्ति में प्रत्यक्ष सम्बन्ध बताया है।
- मनोवैज्ञानिक कारण- कुछ मनोवैज्ञानिक कारण भी मद्यपान को प्रोत्साहन देते हैं। उदाहरणार्थ, चिन्ता से मुक्ति की भावना मद्यपान को प्रोत्साहन देती है क्योंकि कुछ लोगों का विचार है कि मद्यपान द्वारा व्यक्ति अपनी निराशाओं, चिन्ताओं व गम को भूल जाता है। परन्तु आज यह एक भ्रामिक तथ्य माना जाता है क्योंकि मद्यपान से चिन्ता बढ़ सकती है। एल० पी० क्लार्क के अनुसार मस्तिष्क की विकृति का विकल्प शराबीपन है। आन्तरिक अपराधी भावना से बचाव अथवा असुरक्षा की भावना आदि के विचार भी मद्यपान को प्रोत्साहन देते हैं।
- दूषित पर्यावरण- गन्दी (मलिन) बस्तियों जैसे दूषित पर्यावरण तथा स्वास्थ्यपूर्ण मनोरंजन के साधनों का अभाव भी कई बार मद्यपान को प्रोत्साहन देता है। अगर व्यक्ति के चारों तरफ का पर्यावरण दूषित है तो वह उसकी बुराइयों से ज्यादा देर तक बचा हुआ नहीं रह सकता है।
- सुविधा से प्राप्य- शराब उन चीजों से बनती है जो आसानी से मिल जाती हैं। इसलिए यह हर जगह सरलता से मिल जाती है। यह भी इसके प्रसार का एक कारण है।
- निहित स्वार्थों द्वारा प्रयास- मय के विक्रय में अनेक कानूनी और गैर-कानूनी संगठन लगे हुए हैं क्योंकि इसमें लाभ का हिस्सा ज्यादा है। उनके प्रयासों द्वारा भी मद्यपान का प्रसार होता है। जहाँ पहले इक्का-दुक्का शराब की दुकानें दिखाई देती थीं अब खुद राज्य ने जगह-बेजगह ठेकों पर शराब की दुकानें खुलवा दी हैं।
मद्यपान की समस्याएँ
मद्यपान एवं मादक द्रव्य व्यसन का व्यक्ति, समाज तथा परिवार पर काफी गम्भीर प्रभाव पड़ता है। इससे वैयक्तिक, पारिवारिक व सामाजिक विघटन होता है और नाना प्रकार के अपराधों में वृद्धि हो जाती है। ममोरिया तथा अन्य विद्वानों ने मद्यपान (जोकि मादक द्रव्य व्यसन के लिए भी लागू होते हैं) के अनेक प्रभावों का वर्णन किया है जिनसे आर्थिक, सामाजिक जीवन प्रभावित होता है।
ये हैं-
- इससे अपराध, नियम अवहेलना तथा भ्रष्टाचार बढ़ता है,
- इससे व्यक्तियों का स्वास्थ्य प्रभावित होता है,
- इससे मानव मस्तिष्क प्रभावित होता है। जब तक मद्यपान अथवा मादक द्रव्य का प्रभाव रहता है मस्तिष्क ठीक तरह से काम नही करता,
- शिक्षा का नुकसान होता है,
- श्रमिक की क्षमता कम हो जाती है तथा इससे उत्पादन में नुकसान होता है,
- यह पारिवारिक खुशी की समाप्ति का मूल कारण है,
- वृद्धावस्था में इससे असहनीय स्थिति पैदा हो जाती है,
- आश्रितों तथा अन्त में सम्पूर्ण समाज को क्षति होती है,
- व्यसनी के शारीरिक क्षमता पर कुप्रभाव, विशेषतः यौन शक्ति का ह्रास होता है तथा
- मादक द्रव्यों का छह महीनों तक निरन्तर उपयोग व्यक्ति के मिजाज को चिड़चिड़ा बना देता है तथा वह शारीरिक रूप से जटिल कार्य करने के लिए सक्षम नहीं रहता।
इस भाँति, मादक द्रव्यों का सेवन अर्थव्यवस्था, कानून व्यवस्था, समाज एवं व्यक्ति के लिए इतना घातक है कि आज यह विश्व के सम्मुख सबसे बड़ी चुनौती बन गया है।
मद्यपान अनेक प्रकार की अन्य समस्याओं को भी जन्म देता है, जिनमें से प्रमुख निम्न प्रकार है-
1. मद्यपान तथा वैयक्तिक विघटन- इलियट तथा मैरिल का कहना है कि मद्यपान वैयक्तिक विघटन का सूचक भी है तथा कारण भी। सूचक इसलिए है कि मद्यपान से पहले उसने वैयक्तिक निराशाओं का सामना किया है। अगर मद्यपान न हो, तो हो सकता है वैयक्तिक निराशाएँ तथा असुरक्षा कोई दूसरा रूप धारण कर लें। मादक द्रव्य व्यसन वास्तविकता भुलाने का दूसरा तरीका हो सकता है। मद्यपान से व्यक्ति अपने पैसे का दुरुपयोग करता है, पत्नी व बच्चों का ख्याल नहीं रखता, पत्नी को पीटता है तथा अन्य स्त्रियों के साथ अनैतिक सम्बन्ध रखता है। ये सब वैयक्तिक विघटन के ही चिह्न हैं। मद्यपान करने वाला व्यक्ति प्राथमिक समूहों के प्रभाव से दूर होता चला जाता है। निवास स्थान तथा व्यवसाय में गतिशीलता, स्कूल अथवा कॉलेज शिक्षा को पूरा न करना, मनोरंजन के अन्य साधनों पर कम आश्रित होना, विवाह न करना अथवा पृथक्करण या तलाक होना इस बात की निशानी है कि मद्यपान करने वाले व्यक्ति पर प्राथमिक समूहों का प्रभाव बहुत कम होता है। शराब क्योंकि व्यक्तिगत परेशानियों को दूर करने का स्थायी साधन नहीं है, इसलिए शराब पीने से कुछ निकलने के बजाय उसका अपना विघटन शुरू हो जाता है। उसका अपना चरित्र तथा नैतिक पहलू कमजोर हो जाता है तथा अन्त में वह मानसिक रोगी बन जाता है।
2. मद्यपान तथा पारिवारिक विघटन- मद्यपान पारिवारिक विघटन का भी एक प्रमुख कारण है। पारिवारिक व्यक्ति के लिए शराब पीना कभी अच्छा नहीं हो सकता क्योंकि इससे पत्नी व बच्चों के प्रति त्याग कम हो जाता है। शराबी अपना समय, पैसा तथा शक्ति शराब में ही नष्ट कर देता है तथा परिवार के लिए उसके पास कुछ बचता ही नहीं। पहले तो अधिक मद्यपान करने वाला व्यक्ति विवाह ही नहीं करता (क्योंकि बोतल पत्नी का ही स्थानापन्न या विकल्प है) और अगर करता भी है तो मद्यपान से पति तथा पत्नी के सामाजिक कार्य बिगड़ने लगते हैं। दोनों के सम्बन्धों में तनाव बना रहता है। पत्नी से छुटकारे का एक ही तरीका रहता है तलाक क्योंकि बच्चों की देख-रेख भी बिलकुल नहीं हो पाती। इस प्रकार, मद्यपान केवल वैयक्तिक विघटन तक ही सीमित नहीं है अपितु परिवार भी इससे बुरी तरह से प्रभावित होता है।
3. मद्यपान तथा आर्थिक विघटन- यद्यपि कुछ व्यक्ति पैसा अधिक होने के कारण मद्यपान करते हैं, परन्तु अधिकतर शराबी अपने आर्थिक जीवन से असन्तुष्ट होने के कारण शराब का सेवन करने लगते हैं। जो थोड़ा बहुत पैसा वे कमाते हैं वह शराब में नष्ट हो जाता है और परिवार की आवश्यकताएँ पूरी नहीं हो पाती। शराबी घर का सामान, गहने इत्यादि गिरवी रखकर भी शराब पीने से नहीं चूकते। इस प्रकार, मद्यपान परिवार के आर्थिक जीवन को बिलकुल खोखला कर देता है।
4. मद्यपान तथा सामाजिक विघटन- मद्यपान व्यक्ति के बाद परिवार और फिर परिवार के बाद सामाजिक विघटन करता है क्योंकि मद्यपान करने वाला व्यक्ति अपनी सामाजिक भूमिकाओं का निर्वाह ठीक प्रकार से नहीं कर सकता है। इससे अनेक अन्य बुराइयों (यथा अपराध, जुआ, वेश्यावृत्ति आदि) को भी प्रोत्साहन मिलता है जो सामाजिक विघटन की प्रक्रिया को और तेज कर देती हैं।
5. मद्यपान, अनैतिकता तथा अपराध- शराबी व्यक्तियों का नैतिक पहलू काफी कमजोर हो जाता है और उनका मानसिक सन्तुलन भी ठीक नहीं रहता है। बस उसे दो ही बातों की आवश्यकता रहती है पैसा तथा शराब। पैसा अगर नहीं होगा तो शराबी का ध्यान गलत कार्यों की तरफ आकर्षित होता है और वह आत्महत्या, डकैती, बलात्कार इत्यादि अपराधों को करने
लगता है। एक बार अपराधी जीवन में फंस जाने के बाद वह उससे कभी निकल नहीं सकता। इस प्रकार, जहाँ पर मद्यपान अनैतिकता को प्रोत्साहन देता है वहीं पर इससे अपराधी प्रवृत्तियों को भी बढ़ावा मिलता है।
6. मद्यपान तथा शारीरिक पतन- मद्यपान से शरीर और मस्तिष्क में अनेक प्रकार के विकार उत्पन्न हो जाते हैं। अत्यधिक मद्यपान से शरीर कमजोर हो जाता है। इलियट तथा मैरिल के अनुसार, “मदिरा एक नियन्त्रक के रूप में कार्य करती है जिसके फलस्वरूप यह उसकी प्रतिक्रियाओं की गति को धीमा करती है, निर्णय की योग्यता को कम करती है और सीखे हुए व्यवहार पर उसका नियन्त्रण कम होने लगता है।"
टेकचन्द अध्ययन दल ने उचित ही टिप्पणी की है कि मदिरा-सेवन, वास्तव में, समस्याओं को जन्म देने वाला है जिनमें से प्रमुख इस प्रकार हैं- पारिवारिक समस्याएँ, धार्मिक समस्याएँ, उपचारात्मक समस्याएँ, औद्योगिक समस्याएँ, आर्थिक समस्याएँ, भ्रष्टाचार की समस्याएँ, कानून को लागू करने की समस्याएँ तथा यातायात की समस्याएँ।
वास्तव में, संयत मद्यपान भी दो रूपों में समस्यामूलक है-एक, यह आदमी में आदत निर्माण करने की प्रवृत्ति रखता है जो धीरे-धीरे सन्तुष्ट न हो सकने वाली भूख बन जाती है, और दूसरे, संयत पीने वाला एक झूठी सुरक्षा की भावना महसूस करता है। वह इस भ्रामक आत्मविश्वास में रहता है कि उसकी क्षमताओं पर इसका कोई असर नहीं हो रहा। अधिकतर दुर्घटनाएँ उन व्यक्तियों द्वारा की जाती है जो मदिरा के प्रभाव में तो होते हैं पर जिन्हें नशे की हालत में नहीं कहा जा सकता।
मद्यसारिकों का उपचार एवं नियन्त्रण
मद्यपान के दुष्परिणामों को ध्यान में रखते हुए समाज सुधारक शताब्दियों से इसके निषेध का प्रयत्न करते आ रहे हैं तथा इसके लिए अनेक प्रकार के धार्मिक एवं राजकीय निषेध लगाए जा रहे हैं। नशानिषेध या मद्यनिषेध का अर्थ ऐसी नीति या कानून है जिसके अन्तर्गत नशे के लिए मदिरा के सेवन पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाता है तथा केवल औषधि के रूप में उसके अत्यन्त सीमित सेवन की अनुमति दी जाती है। भारतीय संविधान के राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्तों (Directive Principles of State Policy) के अन्तर्गत राज्य को मद्यनिषेध की नीति अपनाने का निर्देश दिया गया है। अगर हम भारत में मादक पदार्थों के सेवन के इतिहास को देखें, तो यद्यपि उनका उल्लेख आदिकाल से मिलता है, फिर भी इन्हें घृणा की दृष्टि से देखा जाता था। अंग्रेजों ने आबकारी कर लगाकर मद्य को आय का एक साधन बनाया और इसका प्रचार होने लगा।
मद्यनिषेध का सर्वप्रथम प्रयास गांधी जी के द्वारा स्वतन्त्रता संग्राम के समय ही 1920 से किया गया था तथा 1921 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने नशाबन्दी के लिए प्रस्ताव पारित किया, 1930 में असहयोग आन्दोलन में मद्यनिषेध भी कार्यक्रम का एक हिस्सा था तथा 1937 से 1939 में पाँच प्रदेशों में कांग्रेस सरकारों द्वारा मद्यनिषेध के लिए अधिनियम पारित किए गए। महात्मा गांधी जी का कहना था कि मद्यपान जलते हुए अग्नि कांड या तूफानी नदी की ओर लपकने से भी अधिक खतरनाक है क्योकि शराब शरीर और आत्मा दोनों का नाश कर देती है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद संविधान के 47वें अनुच्छेद के अन्तर्गत स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले मादक द्रव्यों के निषेध को लागू करने की बात कही गई है। सन् 1954 में राज्यों में इस दिशा में हुई प्रगति की समीक्षा के लिए श्रीमन्नारायण की अध्यक्षता में Prohibition Enquiry Committee की स्थापना की गई जिसने 1945 में अपनी रिपोर्ट दी। इस कमेटी ने नशाबन्दी को ज्यादा प्रभावशाली और मजबूती से लागू करने के लिए कई सुझाव दिए,
जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं-
- 1 अप्रैल 1958 तक पूरे भारत में मद्यनिषेध कानून बन जाना चाहिए।
- 1958 के अन्त तक प्रत्येक राज्य सरकार की इस नीति का समर्थन तथा कार्यान्वित करने की योजना बना लेनी चाहिए।
- होटल, बार, मैस, क्लब, सिनेमा, पार्टी में तथा अन्य सामाजिक व धार्मिक उत्सवों पर पूर्ण नशाबन्दी होनी चाहिए।
- सरकारी कर्मचारियों के लिए नशाबन्दी नियम बना देना चाहिए।
- इसमें मद्यनिषेध के लिए अनेक सुझाव दिए गए जैसे कि शराब की दुकानों की संख्या में कमी की जानी चाहिए, सप्ताह में कुछ दिन शराब की दुकानें बन्द होनी चाहिए, कम शराब बेचने के लिए दी जानी चाहिए तथा दुकानें रिहायशी क्षेत्रों से दूर होनी चाहिए।
- अफीम की सप्लाई सरकार द्वारा 1959 तक बन्द कर दी जानी चाहिए।
- अन्य मादक द्रव्य बेचने वाली दुकानों में कमी की जानी चाहिए।
- जनजातियों में शिक्षा द्वारा नशाबन्दी लागू की जानी चाहिए।
- विदेशी राजदूतों में सार्वजनिक स्वागत समारोहों के समय शराब के प्रयोग को बन्द किया जाना चाहिए, तथा
- कानून तथा प्रशासन द्वारा नशाबन्दी लागू की जानी चाहिए।
योजना आयोग ने राज्य सरकारों को मद्यनिषेध से सम्बन्धित अधिनियम बनाने की सिफारिश की तथा 1963 में मुख्यमन्त्री सम्मेलन में इसे पूरी तरह व दृढ़ता से लागू करने का निश्चय किया गया। तत्पश्चात् आन्ध्र प्रदेश के अधिकतर जिलों, चेन्नई, गुजरात तथा महाराष्ट्र में पूर्ण नशाबन्दी लागू की गई है। अन्य प्रदेशों जैसे उड़ीसा, मध्य प्रदेश, मैसूर, पंजाब तथा उत्तर प्रदेश में आंशिक नशाबन्दी लागू की गई।
योजना आयोग ने 29 अप्रैल, 1963 को पंजाब हाईकोट के न्यायाधीश श्री टेकचन्द की अध्यक्षता में एक अध्ययन दल की नियुक्ति की जिसमें श्री एल० एम० श्रीकान्त तथा डॉ० ए० एम० खुसरो सदस्य थे। इस अध्ययन दल का कार्य अवैध रूप से शराब बनाने की सीमा का पता लगाना, वर्तमान मद्यनिषेध सम्बन्धी कानूनों की समीक्षा करना, मद्यनिषेध के आर्थिक पक्षों का अध्ययन करना, मद्यनिषेध की सरकारी नीति की सफलता का आकलन करना तथा ऐसे सुझाव देना था कि जिससे यह कार्यक्रम सफल हो सके। इस अध्ययन दल की रिपोर्ट 6 मई, 1964 में प्रकाशित हुई। दल ने 30 जनवरी, 1970 तक अथवा अधिक-से-अधिक 1975 तक समस्त देश में मद्यनिषेध लागू करने की सिफारिश की। इसके लिए चार चरणों का कार्यक्रम भी प्रस्तुत किया गया। पहले चरण में जिन राज्यों में मद्यनिषेध नहीं है वहाँ सबसे कम असर वाली शराब की खपत की अनुमति दी जाए। दूसरे चरण में देशी शराब की मदिरा शक्ति घटाकर 10 प्रतिशत कर दी जाए। अंग्रेजी शराब में यह प्रतिशत 14-29 से अधिक न रहने दिया जाए। इसी प्रकार, उत्तरोत्तर चरणों में शराब की खपत को धीरे-धीरे कम करके 1975 तक सम्पूर्ण देश में मद्यनिषेध लागू कर दिया जाए।
टेकचन्द की अध्यक्षता वाले अध्ययन दल ने अपनी रिपोर्ट में निम्नलिखित सुझाव भी प्रस्तुत किए-
- मद्यपान की जाँच हेतु नवीन उपकरणों का प्रयोग किया जाए।
- उच्च आर्थिक स्थिति के लोगों में मद्यपान को प्रतिष्ठा का प्रतीक मानने वाली मनोवृत्ति दूर की जाए।
- स्प्रिट आदि पीने के दुरुपयोग पर रोक लगाई जाए।
- ताड़ी पर नियन्त्रण हेतु प्रचार किया जाए।
टेकचन्द की अध्यक्षता वाले अध्ययन दल पर राज्य सरकारों की भी राय मांगी गई थी। अधिकतर राज्यों ने यह मत प्रकट किया कि मद्यनिषेध के मामले में जल्दबाजी नहीं की जानी चाहिए तथा मद्यनिषेध के प्रत्येक पक्ष पर अधिक सावधानी से विचार करने की आवश्यकता है। इस प्रकार, अधिकतर राज्यों ने 1975 तक सम्पूर्ण मद्यनिषेध की नीति को स्वीकार नहीं किया।
1977 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता दल की सरकार ने पहली बार पूरे देश में मद्यनिषेध की नीति लागू की तथा इसके लिए राज्यों हेतु कुछ मार्गदर्शक सिद्धान्त भी बनाए गए। जनता दल की सरकार गिर जाने के पश्चात् 1980 में कांग्रेस सरकार के गठन के पश्चात् यह निर्णय लिया गया कि मद्यनिषेध लागू करने के स्थान पर प्रचार के साधनों के द्वारा मद्यपान और मादक द्रव्यों के विरुद्ध जनमत तैयार करना अधिक लाभप्रद है। इसके परिणामस्वरूप पूर्ण मद्यनिषेध की नीति पुन: असफल हो गई। यह भी निर्णय लिया गया कि जो राज्य अपनी इच्छा से मद्यनिषेध लागू करना चाहें, उन्हें आबकारी कर से होने वाली आय का 50 प्रतिशत हिस्सा केन्द्र सरकार द्वारा अनुदान के रूप में दिया जाएगा। यह आबकारी कर राज्यों की आय का प्रमुख स्रोत है जिसके कारण राज्य पूर्ण मद्यनिषेध की नीति लागू करने में संकोच करते हैं। इसका परिणाम यह है कि सभी सरकारी प्रयत्नों के बावजूद मद्यनिषेध पूरी तरह से लागू करना अभी भी सम्भव नहीं हो सका है।
जहाँ तक मादक द्रव्यों के विरुद्ध नीति का प्रश्न है इसके लिए युद्ध स्तर पर कार्य करना होगा। भारतीय सरकार ने समस्या की गम्भीरता को समझा है और नवम्बर 1985 में नया कानून पारित करके महत्त्वपूर्ण कदम उठाया है। मादक द्रव्य नियन्त्रण ब्यूरो को शीर्षक एजेन्सी के रूप में स्थापित किया गया है जिसके अन्तर्गत पुलिस, कस्टम एवं वित्त के सम्बन्धित विभाग कार्य करेंगे। मादक द्रव्यों को पकड़ कर ऊँचे पारितोषिक भी घोषित किए गए हैं जो इनके व्यापार में पहली बार पकड़ा जाएगा, उसे दस से बीस वर्ष की सजा और दो लाख रुपये तक जुर्माना दण्ड के रूप में दिया जा सकता है। दूसरी बार ऐसे अपराध में लिप्त पाए जाने पर पन्द्रह से तीस वर्ष तक की सजा का प्रावधान है। रेडियो, टेलीविज़न तथा चलचित्र आदि माध्यमों पर मादक द्रव्यों के सेवन से होने वाली बुराइयों को भी प्रदर्शित किया जा रहा है ताकि लोग इस बुराई की ओर आकर्षित न हों।
मादक द्रव्य सेवन जिस आयु समूह में फैल रहा है उसकी दृष्टि से निरोधात्मक उपायों पर अधिक जोर दिया जाना चाहिए जैसे माता-पिता या शिक्षकों को इस दिशा में अधिक जानकारी प्रदान की जानी चाहिए ताकि वे सचेत रहें और प्रत्येक बालक पर निगाह रख सकें। बच्चों को भी उचित ढंग से इस सम्बन्ध में ज्ञान दिया जाना चाहिए। शिक्षकों की इस मादक द्रव्य के उपयोग की रोकथाम में महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है और यह उनका नैतिक एवं सामाजिक दायित्व भी है, परन्तु निरोधात्मक कार्यक्रम के सम्बन्ध में हरबर्ट शैफर ने बहुत ही उचित लिखा है कि, “किसी भी निरोधात्मक प्रोग्राम के साथ लगी समस्याओं में से एक यह है कि लोग आमतौर से यह विश्वास नहीं करते कि अभिशाप उन्हें घेर लेगा। माता-पिता सदैव यह महसूस करते हैं कि मादक द्रव्य व्यसन उनके बच्चे को नहीं लगेगा और यदि ऐसा हो जाता है तो वे यह नहीं समझ पाते कि ऐसा कैसे हो गया।........निरोध का आशय है भविष्य और आशा के साथ काम किए जाना।” यह सच है कि निरोधात्मक कार्यक्रमों की उपलब्धियों को मापा जाना कठिन है, परन्तु इस पुरानी कहावत पर विश्वास रख कर इस दिशा में भरसक प्रयास करते रहना चाहिए कि उपचार से निरोध बेहतर है।
वर्तमान में भारत सरकार का कल्याण मन्त्रालय मद्यनिषेध की नीति को प्रभावशाली बनाने हेतु मादक द्रव्यों के दुष्परिणामों के बारे में जागरूकता विकसित करने तथा जो लोग इस व्यसन के शिकार हो चुके हैं, उनका व्यसन छुड़ाने तथा उनकी देखभाल करने हेतु विशेष केन्द्रों की स्थापना करने के विशेष कार्यक्रम चला रहा है। इसके लिए गैर-सरकारी संगठनों को आर्थिक सहायता भी दी जा रही है। अतः स्पष्ट है कि मद्यपान के दुष्परिणामों को देखते हुए हमारी सरकार ने मद्यनिषेध के लिए अनेक उपाय किए हैं। यद्यपि पूर्ण मद्यनिषेध (Total prohibition) व्यावहारिक नहीं हो सकता, फिर भी इसे काफी सीमित किया जा सकता है।
सार्वजनिक स्थानों पर बैठकर शराब पीना, शराब पीकर काम पर आना तथा शराब पीकर सफर करना इत्यादि कार्यों को गैर-कानूनी बनाकर मद्यपान काफी हद तक सीमित किया जा सकता है। मनोरंजन के अन्य साधनों जैसे सिनेमा, क्लबों इत्यादि का उचित विकास भी मद्यपान निषेध में सहायक रहा है। कार्यक्रम की सफलता के लिए ऐसे व्यक्तियों के उपचार की भी बृहत् व्यवस्था की जानी चाहिए। यद्यपि इस रोग का इलाज बहुत महँगा है परन्तु मानव जीवन से बढ़कर कोई कीमती नहीं है।
शब्दावली
- मद्यपान- मदिरा सेवन की असामान्य तथा बुरी आदत को मद्यपान कहते हैं। यह वह स्थिति है जो मनुष्य की आत्मा, मन और शरीर को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करके पतन की ओर ले जाती है।
- मादक द्रव्य व्यसन- मादक द्रव्य व्यसन देशी अथवा रासायनिक पदार्थों से बने मादक द्रव्यों का आदतन सेवन है जो व्यक्ति के जीवन को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है।