अनुसूचित जनजाति किसे कहते हैं? | anusuchit janjati

अनुसूचित जनजातियाँ

राज्यों का संघ भारत एक सम्पूर्ण प्रभुतासम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष एवं प्रजातन्त्रीय गणराज्य है जिसमें संसदीय प्रणाली की सरकार है। भारतीय गणराज्य उस संविधान की व्यवस्थाओं के अनुसार प्रशासित होता है जो 26 नवम्बर, 1949 ई० को संविधान सभा द्वारा स्वीकृत किया गया और 26 जनवरी, 1950 ई० को लागू हुआ। इसमें समानता तथा विचारों की अभिव्यक्ति को ही मौलिक अधिकारों में सम्मिलित नहीं किया गया है अपितु शोषण से रक्षा का अधिकार, धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार तथा अल्पसंख्यकों का अपनी संस्कृति, भाषा और लिपि के संरक्षण का अधिकार भी मौलिक अधिकारों में सम्मिलित किया गया है। जनजातियों को अपनी संस्कृति बनाए रखने तथा अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थिति ऊँची करने के लिए संविधान में अनेक धाराएँ सम्मिलित की गई हैं। अन्य शब्दों में यह कहा जा सकता है कि इन्हें संवैधानिक संरक्षण प्रदान किया गया है ताकि वे अपना सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक स्तर ऊँचा कर सकें तथा अपनी संस्कृति को बनाए रखकर भारत की मुख्य विचारधारा में सम्मिलित होकर भारतीय समाज के विकास में अपना योगदान दे सकें।
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संविधान के अनुच्छेद 341 तथा 342 के उपबन्धों के अन्तर्गत राष्ट्रपति द्वारा जारी किए गए 15 आदेशों द्वारा अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित जातियों का अलग-अलग उल्लेख किया गया है। 1991 ई० की जनगणना के अनुसार देश की कुल जनसंख्या में अनुसूचित जनजातियों तथा अनुसूचित जातियों का अनुपात क्रमश: 8:08 तथा 16.48 था। इनका कुल जनसंख्या में अनुपात 24.56 था।
2001 ई० की जनगणना के अनुसार देश की कुल जनसंख्या ने अनुसूचित जनजातियों तथा अनुसूचित जातियों का अनुपात क्रमश: 8:20 तथा 16-20 है। इसके अतिरिक्त, कुछ राज्य सरकारों ने भी अन्य पिछड़े वर्गों के नाम पर खानाबदोश तथा अर्द्ध-खानाबदोश जनजातियों एवं समुदायों का उल्लेख किया है। पंचवर्षीय योजनाओं में इन जनजातियों एवं जातियों के उत्थान को राष्ट्रीय नीति का एक मुख्य लक्ष्य माना गया है।

अनुसूचित जनजाति का अर्थ

प्रत्येक जनजाति अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में नहीं आती है। वैसे तो भारत सरकार के अधिनियम 1935 ई० में भी 'पिछड़ी जनजातियों' का सन्दर्भ मिलता है, किन्तु 26 जनवरी, 1950 ई० को भारतीय संविधान के लागू होने के पश्चात् ही जनजातियों एवं जनजातीय समुदायों को 'अनुसूचित जनजातियों' की विशिष्ट संज्ञा देने की आवश्यकता महसूस की गई। भारत सरकार के आदेश के अन्तर्गत तेरहवीं अनुसूची के अन्तर्गत असम, बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रान्त, मद्रास तथा बम्बई की कुछ जनजातियों को 'पिछड़ी जनजातियों' की श्रेणी में रखा गया था। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् 1950 ई० में जनजातीय समुदायों की पहचान कर 212 ऐसी जनजातियों की सूची तैयार की गई जिन्हें 'अनुसूचित जनजाति आदेश 1950 ई०' के अन्तर्गत सम्मिलित किया गया तथा इन्हें 'अनुसूचित जनजाति' माना गया। इस सूची में सभी जनजातीय समुदायों को अनेक कारणों से सम्मिलित नहीं किया गया यद्यपि वे सभी आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए थे। परिणामस्वरूप इस आदेश का काफी विरोध हुआ। इसे ध्यान में रखते हुए 'पिछड़ी जाति आयोग' का गठन किया गया जिसके अनुमोदन से पूर्व में बनाई गई सूची को संशोधित किया गया। इसके साथ ही ‘राज्य पुनर्गठन अधिनियम' लागू किया गया जिसके अन्तर्गत राज्य की सूचियों में भी परिवर्तन किया गया।
वस्तुत: भारत के संविधान के अनुच्छेद 342 के अनुसार, राष्ट्रपति को यह अधिकार है कि वह सार्वजनिक सूचना के द्वारा समय-समय पर जनजातियों अथवा जनजातीय समुदायों को सूचीबद्ध कर उन्हें अनुसूचित जनजातियों की श्रेणी में रखे। इस प्रकार, अनुसूचित जनजाति से अभिप्राय संविधान के प्रावधानों के अनुकूल सूचीबद्ध की गई जनजाति से है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 342 के खण्ड 1 में कहा गया है कि “अनुसूचित जनजातियाँ वे जनजातियाँ अथवा जनजातीय समुदाय या उनका कोई हिस्सा या इन जनजातियों का कोई समूह है जिन्हें राष्ट्रपति द्वारा सार्वजनिक सूचना द्वारा अनुच्छेद 342 (i) के अन्तर्गत रखा गया है।" भारत सरकार द्वारा तथा प्रदेश सरकारों द्वारा समय-समय पर विभिन्न जनजातियों को अनुसूचित श्रेणी के अन्तर्गत सम्मिलित किया गया है। इस सूची में अधिकांश जनजातियों को सम्मिलित किया गया है तथा उनके उत्थान हेतु संवैधानिक प्रावधान किए गए है।
अनुसूचित जनजातियों, अनुसूचित जातियों और अन्य कमजोर वर्गों का शैक्षिक तथा आर्थिक दृष्टि से उत्थान करने और उनकी सामाजिक असमर्थताओं को दूर करने के उद्देश्य से उन्हें संवैधानिक सुरक्षा एवं संरक्षण प्रदान किया गया है
मुख्य संरक्षण निम्न प्रकार हैं-
  1. अस्पृश्यता का पूर्णत: उन्मूलन तथा इसके किसी भी रूप में प्रचलन का निषेध (अनुच्छेद 17),
  2. इन जनजातियों और जातियों के शैक्षिक और आर्थिक हितों की रक्षा और उनका सभी प्रकार के शोषण तथा सामाजिक अन्याय से बचाव (अनुच्छेद 46),
  3. हिन्दुओं के सार्वजनिक एवं धार्मिक संस्थानों के द्वार समस्त हिन्दुओं के लिए खोलना (अनुच्छेद 25 ख),
  4. दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयों, होटलों तथा सार्वजनिक मनोरंजन स्थलों में प्रवेश अथवा पूर्ण या आंशिक रूप से राज्य निधि से पोषित अथवा साधारण जनता के उपयोग के लिए समर्पित कुओं, तालाबों, स्नानघाटों, सड़कों तथा सार्वजनिक समागम के स्थानों के उपयोग के बारे में किसी भी प्रकार की अयोग्यता, दायित्व, प्रतिबन्ध अथवा शर्तों को हटाना [अनुच्छेद 19(2)],
  5. किसी भी अनुसूचित जनजाति के हित में सभी नागरिकों को स्वतन्त्रतापूर्वक आने- जाने, बसने और सम्पत्ति अर्जित करने के सामान्य अधिकारों में कानून द्वारा कटौती करने की व्यवस्था [अनुच्छेद 19(5)],
  6. राज्य द्वारा पोषित अथवा राज्य निधि द्वारा सहायता प्राप्त किसी भी शिक्षण संस्था में प्रवेश पर किसी भी तरह के प्रतिबन्ध का निषेध [अनुच्छेद 29(2)],
  7. राज्यों को पिछड़े वर्गों के लिए उन सरकारी सेवाओं में, जहाँ उनका प्रतिनिधित्व अपर्याप्त है, आरक्षण सुनिश्चित करने का अधिकार देना तथा राज्यों के लिए यह अपेक्षित करना कि वह सरकारी सेवाओं में नियुक्तियाँ करने के मामलों में अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के दावों को ध्यान में रखें (अनुच्छेद 26 तथा 335),
  8. अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों को लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं में विशेष प्रतिनिधित्व देना (अनुच्छेद 330, 332, तथा 334),
  9. अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के कल्याण तथा हितों की रक्षा के लिए राज्यों में जनजाति सलाहकार परिषदों तथा पृथक् विभागों की स्थापना करना और केन्द्र में एक विशेष अधिकारी की नियुक्ति करना (अनुच्छेद 164 तथा 338 और पंचम अनुसूची),
  10. अनुसूचित जाति और जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन और नियन्त्रण के लिए विशेष उपबन्ध (अनुच्छेद 244 और पंचम तथा षष्ठम अनुसूची) तथा
  11. मानव का देह व्यापार तथा जबरदस्ती मजदूरी कराने का निषेध।
उन्हीं जनजातियों को अनुसूचित जनजाति के रूप में सूचीबद्ध किया जाता है जो अपेक्षाकृत अधिक पिछड़ी हुई हैं। अनुसूचित जनजातियों के अधिकतम दुर्गम स्थानों में रहने तथा विकास की मुख्य धारा से अलग हो जाने के कारण उनके कल्याण तथा विकास पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता ने ही इन्हें इस श्रेणी में रखा है। जून 1965 ई० में एक सलाहकार समिति का भी गठन किया गया जिसका उत्तरदायित्व सरकार को अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति की सूची में परिवर्तन तथा संशोधन सम्बन्धी सलाह देना है।
1950 ई० में 212 जनजातियों को ही अनुसूचित जनजाति के अन्तर्गत सूचीबद्ध किया गया था। अब यह संख्या बढ़कर लगभग 550 हो गई है। इस वृद्धि के दो प्रमुख कारण रहे हैं—प्रथम, अनेक नई जनजातियों को अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता प्राप्त होना तथा द्वितीय, जनजातियों के भेदों को जनजातीय दर्जा मिलना। अनुसूचित जनजातियों की संख्या अधिसूचनाओं के अनुसार घटती-बढ़ती रही है।
अगरिया, अंध, बिरहुल, बिरहोर, बियर, बिमार, भुंजिया, भैना, भूनिया, भिंझतार, भील मीना, मरिया, भूमिया, पटा, बैगा, भिलाला, भील व भिलाला, पटेलिया तथा बरेला, भील, धनवार, दामोर, गोंड या दरोई, गोंड तथा पठारी, गोंड, गडाबा गडवा, गरमिसा गहावार, हलवा या बलबी, कोल (दहैत), कोल, कोरकू, कमार, कवार, कोरवा, कोलम, कोर, करकू, खै, ससर, खरिया, कोंड या खोण्ड, मुण्डा, मीना, मोगिया, मवासी माझी, महावार, निहाल, नर, नगसिया, ओरों, परधान, पर्धी, पर्जा, पतिका, पाओ, पनिका, सहारिया, सेहारिया, सौर, सवर, सोनर, सओता आदि मध्य प्रदेश की प्रमुख अनुसूचित जनजातियाँ हैं।

अनुसूचित जनजातियों की विशेषताएँ

अनुसूचित जनजातियों की विशेषताओं को जनजातियों की सामान्य विशेषताओं से पृथक् करना एक कठिन कार्य है। फिर भी, अनुसूचित जनजातियों में पाई जाने वाली प्रमुख विशेषताएँ अग्रलिखित हैं-
  1. अनुसूचित जनजातियाँ आर्थिक दृष्टि से अधिक पिछड़ी हुई हैं। उनकी अर्थव्यवस्था अत्यन्त सरल तथा अविकसित होती है।
  2. अनुसूचित जनजातियों की आधे से अधिक (55 प्रतिशत) जनसंख्या पूर्वी तथा मध्य जनजातीय क्षेत्रों (पश्चिम बंगाल, बिहार, मध्य प्रदेश, उड़ीसा तथा आन्ध्र प्रदेश का कुछ भाग) तथा एक-चौथाई से थोड़ा अधिक (28 प्रतिशत) भाग पश्चिमी जनजातीय क्षेत्र (गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, गोवा, दादरा व नगर हवेली, दमन तथा दीव) में निवास करता है। 
  3. अनुसूचित जनजातियाँ शिक्षा की दृष्टि से पिछड़ी हुई हैं। 2001 ई० की जनगणना के अनुसार अनुसूचित जनजातियों की अखिल भारतीय साक्षरता दर 47.1 प्रतिशत है, जबकि साक्षरता का राष्ट्रीय औसत 64.8 प्रतिशत है। जनजातीय महिलाओं तथा सामान्य महिलाओं में साक्षरता के प्रतिशत में और अधिक अन्तर है। जनजातीय महिलाओं की साक्षरता का औसत केवल 34.8 प्रतिशत है, जबकि देश की सामान्य महिलाओं का साक्षरता का औसत 53.7 प्रतिशत है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए इनके शैक्षिक उत्थान हेतु अनेक योजनाएँ प्रारम्भ की गई हैं।
  4. अनुसूचित जनजातियों हेतु पंचायतों तथा स्थानीय निकायों से लेकर राज्य विधानसभाओं तथा लोकसभा तक आरक्षित स्थानों की व्यवस्था की गई है ताकि नीति निर्माण में इनकी समुचित सहभागिता सुनिश्चित हो सके।
  5. अनुसूचित जनजातियों को केन्द्र तथा राज्य सरकारों की सेवाओं में आरक्षण सुविधाएँ प्रदान की गई हैं। इन्हें नौकरियों में आयु सीमा में छूट, उपयुक्तता के मापदण्डों में छूट तथा अनुभव सम्बन्धी योग्यताओं में छूट प्रदान की गई है ताकि नौकरियों में इनका समुचित प्रतिनिधित्व हो सके।
  6. अनुसूचित जनजातियाँ स्वास्थ्य की दृष्टि से भी पिछड़ी हुई हैं। इसका प्रमुख कारण इन्हें आधुनिक चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध न हो पाना है।
  7. अनुसूचित जनजातियों के कल्याण एवं विकास हेतु राज्यों में कल्याण विभागों की स्थापना की गई है, जोकि जनजातीय कल्याण कार्यों की देख-रेख करते हैं। इनके विकास हेतु इनके बीच कार्य कर रहे गैर-सरकारी स्वैच्छिक संगठनों को भी अनुदान प्रदान किए जाते हैं। अनुसूचित जनजाति की महिलाओं और बच्चों के हित सुरक्षित करने के लिए केन्द्रीय कल्याण राज्यमन्त्री की अध्यक्षता में सलाहकार बोर्ड की स्थापना की गई है।
  8. पंचवर्षीय योजनाओं में अनुसूचित जनजातियों के विकास हेतु विशेष प्रावधान किए जाते हैं। विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में आदिवासियों के विकास तथा कल्याण से सम्बन्धित अनेक कार्यक्रमों तथा योजनाओं को स्थान दिया गया है। आदिवासी उपयोजना कार्यक्रम का लक्ष्य है-गरीबी को दूर करना। बीस सूत्री कार्यक्रमों में सर्वोच्च स्थान 'गरीबी के विरुद्ध संघर्ष' को दिया गया था। विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में पूरे देश में अधिकाधिक आदिवासियों को गरीबी की रेखा से ऊपर उठाने का लक्ष्य निर्धारित किया जाता है।
  9. आर्थिक शोषण अनुसूचित जनजातियों की एक प्रमुख समस्या है। इस समस्या के समाधान हेतु भारतीय जनजातीय विपणन विकास संघ की स्थापना की गई है ताकि इनका आर्थिक शोषण कम हो सके। वन से प्राप्त सामग्रियों के विपणन के सम्बन्ध में सहकारी समितियों की स्थापना की गई है। मध्य प्रदेश में अब नई तेंदू पत्तों की नीति से ठेकेदारों के आदमी आदिवासियों का शोषण नहीं कर पाएँगे, क्योंकि तेंदू पत्ता एकत्र कराने का कार्य सहकारिता के अन्तर्गत आ गया है। गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों के क्रियान्वयन की दृष्टि से सरकार के द्वारा समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम, ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारण्टी कार्यक्रम आदि को आदिवासी क्षेत्रों में लागू किया गया है।
  10. संविधान की पाँचवीं अनुसूची में अनुसूचित क्षेत्र वाले तथा राष्ट्रपति के निर्देश पर अनुसूचित आदिम जातियों वाले राज्यों में आदिम जाति के लिए सलाहकार परिषदों की स्थापना की व्यवस्था है। आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा, गुजरात, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, बिहार, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र तथा राजस्थान में ऐसी परिषदों की स्थापना की जा चुकी है। ये परिषदें आदिवासियों के कल्याण सम्बन्धी विषयों पर राज्यपालों को परामर्श देती हैं।
  11. अनुसूचित जनजातियों की समस्याओं के अध्ययन एवं उनके समाधान के कारगर उपायों की खोज करने के उद्देश्य से आदिवासी शोध संस्थान एवं प्रशिक्षण केन्द्रों की स्थापना की गई है। भारत में छठी पंचवर्षीय योजना के पूर्व भुवनेश्वर (1953 ई०), कोलकाता (1955 ई०), पटना (1959 ई०), पुणे, अहमदाबाद, शिलांग (1962 ई०), हैदराबाद (1963 ई०), उदयपुर (1968 ई०), कालीकट, लखनऊ (1971 ई०) तथा गुवाहाटी (1977 ई०) में ऐसे अनेक शोध केन्द्रों की स्थापना की गई है। इन विभिन्न शोध केन्द्रों ने आदिवासियों की समस्याओं के सन्दर्भ में 168 विविध सर्वेक्षणात्मक एवं शोधपूर्ण अध्ययन किए हैं।
  12. केन्द्र तथा राज्य सरकारों के द्वारा अनुसूचित जनजातियों के लिए बनाए गए संवैधानिक तथा कानूनी सुरक्षा उपायों को लागू करने पर विशेष ध्यान दिया जाता है तथा इसके प्रभावशाली क्रियान्वयन पर भी अधिक जोर दिया जा रहा है।

अनुसूचित जनजातियों की समस्याएँ

अनुसूचित जातियों की तरह अनुसूचित जनजातियाँ भी विविध प्रकार की समस्याओं का शिकार हैं। इनकी कुछ समस्याएँ तो अनुसूचित जातियों से मिलती-जुलती हैं, जबकि कुछ इनकी अपनी विशिष्ट समस्याएँ हैं।
इनकी प्रमुख समस्याएँ निम्नांकित हैं-

भूमि अलगाव
जनजातियों की प्रमुख समस्या भूमि के स्वामित्व से विलग होना है। भूमि से अलगाव अंग्रेजों के शासनकाल में ही प्रारम्भ हो गया था जब जनजातीय क्षेत्रों में भी जमींदारी प्रथा तथा भारतीय रजवाड़ों की व्यवस्था को लागू किया गया था। तब पहली बार जनजातियों को महसूस हुआ था कि ये जंगल और भूमि उनके नहीं हैं, वे तो एक कृषक के रूप में उसमें खेती कर रहे हैं जिसके एवज में उन्हें लगान देना है। शान्ति और व्यवस्था की स्थापना होने से आस-पास के गाँव के लोग, जहाँ भूमि पर दबाव बढ़ रहा था, भी जनजाति आँचलों की ओर प्रवास करने लगे थे। शुरू-शुरू में तो कुछ ऐसे लोग पहुँचे; जैसे—कृषक, व्यापारी या कारीगर; जो वहाँ जनजाति में स्थायी रूप से बसने के लिए पहुंचे थे। प्रारम्भ में उनका स्वागत ही हुआ परन्तु धीरे-धीरे व्यापारियों को उन भोले-भाले आदिवासियों के आर्थिक शोषण का स्वर्णिम मौका जान पड़ा। वे साहूकार बन गए तथा भूमि के जटिल कानूनों व बहीखातों के रख-रखाव से अनभिज्ञ जनजाति के लोगों को लूटने का सिलसिला चल पड़ा और अपनी जमीनों से ही वे बेदखल होने लगे। कहीं-कहीं उन्हें औद्योगीकरण का भी सामना करना पड़ा। यह सच है कि मिलों की स्थापना के लिए ली जाने वाली भूमि की उन्हें क्षतिपूर्ति की रकम दी गई परन्तु एक तो वह रकम मनमाने ढंग से निर्धारित की गई और दूसरे, उनकी पुनर्स्थापना की कोई कारगर योजना लागू नहीं की गई। नकद रुपये के लाभकारी उपयोग से आदिवासी परिचित नहीं हैं; अत: वह रुपया अनुत्पादक चीजों पर शीघ्र ही खर्च हो जाता है और आदिवासी परिवार विकट परिस्थिति में पड़ जाते हैं। 
इसलिए सबसे प्राथमिक समस्या इस भूमि अलगाव को रोकने की है। इसके साथ ही, जनजाति परिवारों को उनकी भूमि पुनः वापस दिलाने का प्रोग्राम भी बनाया जाना चाहिए। भूमिहीन मजदूरों की दशा में परिणत हुए आदिवासियों की पुनर्स्थापना के लिए उन्हें आवश्यक भूमि दी जाए और कृषि की शुरुआत के लिए कुछ आर्थिक सहायता भी दी जानी चाहिए। इस दिशा में सहकारी समितियों का निर्माण करके भी सहकारी खेती का प्रयोग किया जाना चाहिए। 

झूम खेती की समस्या
कुछ क्षेत्रों में जनजातियाँ आज भी स्थानान्तरण पर आधारित खेती करती हैं जिसे 'झूम खेती' या ‘दह्या खेती' भी कहा जाता है। ऐसी खेती प्राय: वे जनजातियाँ ही कर रही हैं जो अभी बाहरी सम्पर्कों से सापेक्षिक रूप से दूर हैं। इस प्रकार की खेती में जंगल को काट दिया जाता है और गिरे हुए पेड़ों में आग लगा दी जाती है। जब अग्नि शान्त हो जाती है, राख ठण्डी हो जाती है तो उसमें बीज बोया जाता है। इस भाँति, वहाँ दो-तीन फसल उगाने के बाद ही जनजाति आगे बढ़ती है और फिर यही प्रक्रिया वहाँ दोहराई जाती है। स्पष्ट है कि इस प्रकार की खेती से ऐसी जनजातियों ने स्वयं अपने लिए आर्थिक समस्याएँ खड़ी कर ली हैं। इस प्रकार की खेती न केवल अनार्थिक है, बल्कि भूमि की उर्वरता को समाप्त करती है और वनों के अभाव से भूमि कटाव भी बढ़ जाता है। इन सबका अन्तिम परिणाम भुखमरी के रूप में सामने आता है। साफ जाहिर है कि इस प्रकार की खेती को बदलना होगा। इसके लिए सम्बन्धित जनजाति को स्थायी खेती के लिए आवश्यक ज्ञान और प्रेरणा प्रदान करनी होगी। साथ ही, उन्हें आवश्यक संसाधनों के लिए भी सहायता देनी होगी।

विभिन्न तरीकों से आर्थिक शोषण
जनजाति के लोग बाह्य व्यक्तियों; जैसे जमींदारों, व्यापारियों एवं साहूकारों के द्वारा आर्थिक रूप से अनेक प्रकार से शोषित होते रहे हैं। ऐसा लगता है कि मानो ये नए आर्थिक बल उन्हें अपना दास समझते हैं। व्यापारी उनके जंगलों की बहुमूल्य उपज मिट्टी के भाव खरीद लेते हैं और उन्हें आधुनिक तड़क-भड़क वाली चीजें; जैसे खुशबूदार साबुन या लिपस्टिक भी ऊँचे दामों पर बेचते हैं। आर्थिक शोषण का एक और तरीका भी रहा है। खाद्यान्न की समस्या से पीड़ित इन कमजोर आदिवासियों को प्रलोभन देकर चाय के बागानों में और खानों में काम करने के लिए बड़ी संख्या में अपने क्षेत्र से बाहर भी ले जाया गया है। वहाँ मजदूरों के रूप में इनकी दशा दयनीय हो गई है। न तो ये एक समय सारणी में बँधे औपचारिक रूप से काम करने के आदी थे और न मजदूरी के तौर-तरीकों से परिचित थे। आधुनिक अर्थों में उनके कोई श्रम संघ भी नहीं थे। इसलिए इन नए कार्य-स्थलों पर उनसे जानवर की तरह कार्य लिया गया है और उनके स्वास्थ्य या विकास की पूर्णतया उपेक्षा की गई है। कानून भी प्राय: आर्थिक रूप से शक्तिशाली वर्गों का ही साथ देता है।
इस समस्या को हल करने के लिए यह आवश्यक है कि जनजातियों को न्यूनतम वेतन दिलवाया जाए और फैक्ट्री अधिनियमों व श्रम कल्याण सम्बन्धी कानूनों का कठोरता से पालन करवाया जाए। साथ ही, उनमें श्रम-संघों के विकास की प्रेरणा दी जाए और उन्हीं में से नेतृत्व के विकास को प्रोत्साहित किया जाए।
इसके अतिरिक्त, इस आर्थिक शोषण को दूर करने का एक उपाय यह भी हो सकता है कि जनजातीय क्षेत्रों में गृह एवं लघु उद्योगों की स्थापना का जोरदार अभियान चलाया जाए। इसके लिए आवश्यक प्रशिक्षण की व्यवस्था भी करनी होगी तथा खनिज पदार्थ एवं यन्त्रों के लिए सहकारी साख समितियों का निर्माण होना चाहिए। विपणन के लिए सहकारी विपणन समितियों का भी गठन किया जाना चाहिए। ये गृह उद्योग अगर जनजातीय कला-कौशल पर ही आधारित हों तो और भी अच्छा है।

ऋणग्रस्तता
आदिवासियों में ऋणग्रस्तता भी एक प्रमुख समस्या बन गई है। साहूकार और व्यवसायी उन्हें सरलता से कर्ज दे देते हैं। कर्ज में लिया हुआ धन अन्ततोगत्वा उनके लिए कभी न भर सकने वाला गड्डा बन जाता है। उनकी कई पीढ़ियाँ निरन्तर मजदूरी करके भी इस ऋण से मुक्ति नहीं पा पातीं। इसके एवज में पूरे जनजाति परिवार को साहूकार के खेतों और घरों में काम करना पड़ता है और उनका अनेक प्रकार से शोषण होता है।
ऋणग्रस्तता से मुक्ति जनजाति-विकास या कल्याण की पहली शर्त है, और ऐसा तभी हो सकता है जब सहकारी साख-समितियाँ बनाई जाएँ और सरकार इन ऋणों के निपटारे के लिए कोई ठोस प्रोग्राम बनाए। यदि मूल कर्ज से ज्यादा धन ब्याज में दे दिया गया हो तो कर्जे को समाप्त घोषित कर देना चाहिए और आदिवासियों को काम के लिए कानून के अनुसार उचित मजदूरी दिलाई जानी चाहिए।

बन्धुआ मजदूरी
उपर्युक्त वर्णन उन परिस्थितियों की ओर भी इशारा कर देता है जिनमें किसी आदिवासी को बन्धक मजदूर के रूप में काम करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। जमींदारी प्रथा, ऋणग्रस्तता, आदिवासियों की अज्ञानता आदि उन्हें बन्धक मजदूरी में बाँध देती है। बन्धक केवल मजदूर ही नहीं होता, बल्कि उसका पूरा परिवार ही मानो बन्धक हो गया होता है।
बन्धक मजदूरी भारत के वर्तमान कानूनों की दृष्टि से गैर-कानूनी है। इसलिए इस समस्या का हल कानूनों को ईमानदारी से लागू करना है। परन्तु साथ ही मुक्त मजदूरों के पुनर्वास के लिए वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था भी करनी होगी।

वनों के नए कानून और जनजातीय जीवन
सबसे पहले वनों पर जनजाति समाज का स्पष्ट और प्रभावी अधिकार था। डॉ० ब्रह्मदेव शर्मा ने वनों के सम्बन्ध में परिवर्तन प्रक्रिया का बड़े सुन्दर शब्दों में वर्णन किया है, "समय के साथ राज्य ने अपना कोई अधिकार जताए बिना वनों का आर्थिक दोहन प्रारम्भ कर दिया। धीरे-धीरे पैर जमाने पर राज्य ने कानूनी आधिपत्य प्रतिष्ठित किया, उनके आर्थिक दोहन को दीर्घकालीन आयाम दिया और उनको सघन भी किया। परन्तु उसके साथ ही आदिवासियों के द्वारा वन संसाधनों के उपयोग के अधिकार को भी स्वीकार किया। कालान्तर में अधिकारों को रियायतों का रूप दिया गया और अन्तिम चरण में संसाधनों में राज्य के स्वामित्व को औपचारिक रूप देकर नैगम स्वामित्व का आवरण दे दिया गया। अब उनका दोहन आय-व्यय, निवेश-उत्पादन इत्यादि के आधार पर ही सम्भव है जिसमें आदिवासी अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं का जिक्र और समावेश अनर्गल और क्षोभकारक ही बन जाता है।” स्पष्टत: इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप आदिवासी अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई है। उनके जीवन-यापन के साधन छिन गए हैं और जीवन अस्तित्व की विकट समस्या उपस्थित हो गई है।
इस समस्या का समाधान तभी हो सकता है जब वन विभाग आदिवासी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर सामाजिक वानिकी के कार्यक्रम बनाए। वनों के संरक्षण और वनों के उत्पादन में आदिवासियों को रोजगार दिया जाना चाहिए। साथ ही, वन उपज पर आधारित लघु उद्योग लगाने के लिए आदिवासियों को आवश्यक प्रशिक्षण
और प्रेरणा भी दी जानी चाहिए।

सामाजिक-सांस्कृतिक सामंजस्य सम्बन्धी समस्याएँ
मजूमदार एवं मदन ने जनजातियों के उन समस्याओं का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है जो बाह्य संस्कृति के साथ सम्पर्कों के कारण उत्पन्न हो रही हैं। वास्तव में, ये सामाजिक-सांस्कृतिक सामंजस्य की समस्याएँ हैं जो आदिवासियों के बाह्य बलों के साथ या उनके सम्पर्कों के परिणामस्वरूप पैदा होती हैं।
उनमें प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं-

नए सामाजिक संस्तरण का उदय
बाह्य समूह एक उन्नत और शक्तिशाली रूप में जनजातियों के सम्मुख आए हैं। इसलिए न केवल उनके मस्तिष्क में वरन् जनजाति के लोगों के मस्तिष्क में भी एक स्पष्ट श्रेष्ठता या निम्नता का संस्तरण बन गया है। इन बाह्य शक्तियों के मन में इन जंगली लोगों को सभ्य बनाने की तीव्र अभिलाषा भी है, चाहे वह बाह्य शक्तियाँ हिन्दू हैं या गैर-हिन्दू अथवा विशेषतः ईसाई। ईसाइयों ने उन्हें धर्म परिवर्तन के लिए प्रेरित किया है, पर हिन्दुओं को श्रेष्ठ समझकर जनजाति खुद हिन्दू जाति संरचना में प्रवेश पाने के लिए प्रयत्नशील रही है। लेकिन, प्रायः इस प्रयास में सफल होने पर भी जनजातियों को या उनके अधिकांश भाग को हिन्दू संरचना में निम्न श्रेणी ही मिली है। कहीं-कहीं तो वे अस्पृश्यता सम्बन्धी विचारों व तौर-तरीकों के शिकार हुए हैं जिन्हें समझ पाने में या जिनका सामना करने में वे असफल रहे हैं। इतना ही नहीं, वरन् खुद जनजाति समाज में भी संस्तरण की दीवार खड़ी हो गई है। उनका पहले से प्रभुताशाली वर्ग या जो सामंजस्य करने में पहले सफल हो गए और नई सुविधाओं का लाभ उठा पाए, वे ऊँची श्रेणी में गिने जाने लगे हैं। शेष अधिकांश जनजाति निम्न और कमजोर वर्ग के रूप में जीवन बिताने को मजबूर है। विकास सम्बन्धी कार्यक्रमों का लाभ भी जनजातियों का यह उच्च वर्ग ही उठा जाता है और कमजोर वर्ग पहले की भाँति उपेक्षित और शोषित रह जाता है।

द्विभाषा की समस्या
बाह्य सम्पर्क के कारण जनजातियों में द्विभाषावाद की समस्या उठ खड़ी हुई है। कहीं-कहीं तो जनजाति के लोग नई भाषा को सीखने में इतने उत्साह से आगे बढ़े कि अपनी भाषा के महत्त्व को ही भूल गए। यह सच है कि वे आदिवासी पड़ोसियों से बातचीत करने लगे, परन्तु हर भाषा के प्रतीक और उनके अर्थ अलग-अलग होते हैं। इस तरह, आदिवासियों के जीवन में एक शून्य (खालीपन) बन गया है और न तो वह बाहरी भाषा के मूल्य जीवन में ला पाए हैं और न अपनी ही भाषा के सन्दर्भो को सुरक्षित रख पाए हैं।

वस्त्र विवाद
अधिकांशतः आदिवासी न्यूनतम वस्त्रों का प्रयोग करते आए हैं। कहीं-कहीं तो वे नंगे रहते थे, परन्तु जब वे बाहरी समूहों को गर्दन के नीचे तक वस्त्रों से ढका देखते हैं और ये समूह उनकी नग्नता को तिरस्कार की दृष्टि से देखते हैं, तो वे स्वयं पर लज्जित महसूस करने लगे हैं और अपने को वस्त्रों से ढकने के लिए मजबूर हो गए हैं। परन्तु उन्होंने अभी आधुनिक स्वच्छता के नियमों से परिचय नहीं पाया है और न उसके महत्त्व को समझा है। परिणामत: उनके कपड़ों में बदबू आने लगती है और जूं तक पड़ जाती हैं जिनसे अनेक रोग होने लगते हैं।
इसलिए उन्हें शारीरिक सफाई विज्ञान से भी परिचय दिया जाना चाहिए और यथेष्ट मात्रा में साबुन इत्यादि उनके पास होना चाहिए। मजूमदार व मदन ने उचित ही लिखा है कि सिवाय बहुत ही ठण्डे क्षेत्रों के, कोई कारण नहीं है कि न्यूनतम वस्त्रों की प्रथा को समर्थन न दिया जाए। धूप व खुली हवा शारीरिक स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है और आर्थिक बोझ को भी कम करती है।

अनेक सामाजिक बुराइयों का प्रवेश
यह भी खेद का विषय है कि हिन्दू संस्कृति का अन्धा अनुकरण उनमें हिन्दू समाज की कुछ बुराइयों को भी फैला रहा है। उदाहरणार्थ-उनमें भी बाल विवाह होने लगे हैं तथा विधवा पुनर्विवाह पर रोक लगने लगी है। विवाह संस्कार अधिकतर तड़क-भड़क से किए जाने लगे हैं। कभी-कभी स्त्री-पुरुष को साथ रहने पर भी पति-पत्नी के रूप में मान्यता दे दी जाती है और जनजाति को एक भोज देने-मात्र से सामाजिक नियम के उल्लंघन का प्रायश्चित हो जाता है। यह सभी सरल सामाजिक दृश्यविधान वहाँ बदलता नजर आ रहा है।

सामाजिक संगठन में परिवर्तन
सांस्कृतिक सम्पर्कों से जनजातियों की कुछ महत्त्वपूर्ण संस्थाएँ बदलने लगी हैं। जैसे-कुछ जनजातियाँ युवागृह जैसी संस्था को छोड़ने लगी हैं। ये युवागृह बहुउद्देश्यीय थे। इनमें नई पीढ़ी अनौपचारिक रूप से शिक्षा ग्रहण करती थी और नृत्य, संगीत, खेल कूद द्वारा यहाँ व्यस्त जीवन की होता है। ऐसी संस्थाओं का ह्रास उनके सामाजिक संगठन में परिवर्तन कर रहा है।
उपर्युक्त सभी परिवर्तन ऐसे हैं कि जनजातियों में जो कुछ मौजूद रहा है उसमें ह्रास हो रहा है और जो कुछ उसकी जगह उन्हें मिल रहा है वह उनके परम्परागत विचारों, साधनों या व्यवहारों के साथ मेल नहीं खाता। इस समस्या का समाधान परसंस्कृतिकरण से उत्पन्न सामंजस्य को अधिक तार्किक, मानवीय और स्वाभाविक बनाने में निहित है। यह उचित होगा कि सामंजस्य के नए प्रतिमान तय करने में जनजाति के मुखियाओं और शिक्षित व्यक्तियों को ही निर्णय का मौका दिया जाए। उनके द्वारा निर्धारित सामंजस्य स्वीकार किया जाना चाहिए और उसे बल प्रदान किया जाना चाहिए।

धार्मिक संरचना में ह्रास
जनजातियों का धर्म और जादू-टोना उनके ऐतिहासिक परिस्थिति के साथ अनुकूलन का एक महत्त्वपूर्ण आधार है। वह अनेक पीढ़ियों के अनुभवों पर आधारित है। वह उनके जीवन चक्र को और सामाजिक जीवन की प्रमुख वार्षिक क्रियाओं को नियमित करता है। यही नहीं, महामारी या ऐसी ही आकस्मिक विषम परिस्थितियों और दुर्घटनाओं में उन्हें सहारा और आश्वासन प्रदान करता है। सभ्य समाजों के सम्पर्क में आकर, चाहे वह हिन्दू धार्मिक दर्शन हो अथवा ईसाई धर्म, जनजाति के लोग अपने धार्मिक विश्वासों और क्रियाओं में आस्था खोते जा रहे हैं। वे ऐसी नाव में सवार हो गए हैं मानो जीवन की उत्तुंग लहरों से जूझते हुए उनके माँझी की पतवार ही छूटकर बह गई हो। उनके आध्यात्मिक सहारे बिखर गए हैं और वे मूल्यों के संकट में पड़ गए हैं।
इस संकट का समाधान बाह्य धार्मिक प्रचारकों के हाथ में है। उन्हें याद रखना चाहिए कि प्रत्येक धर्म आस्था पर आधारित होता है। वह विश्वासों, संस्कारों और गाथाओं का एक समन्वित रूप है। कौन-सा धर्म अच्छा है और कौन-सा धर्म भ्रमपूर्ण है-यह बहस ही निरर्थक है। इसलिए जनजाति के मौलिक धार्मिक संगठन को सम्मान दिया जाना चाहिए और उसमें परिवर्तन को उद्विकासीय गति से विकसित होने का मौका मिलना चाहिए। यह आवश्यक रूप से एक दीर्घकालीन प्रक्रिया है जिसमें हस्तक्षेप के परिणाम घातक हो सकते हैं।

राजनीतिक संगठन में जटिलता
जनजातीय परिवेश राजनीतिक जटिलता का भी शिकार हो गया है। वहाँ परम्परागत जनजाति पंचायत, उसके मुखिया या देशमुख भी बने हुए हैं और प्रजातान्त्रिक विकेन्द्रीकरण पर आधारित पंचायतों के गठन के भी प्रयास किए जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त प्रशासन कर्मचारी; जैसे पटवारी, चौकीदार, थानेदार आदि भी जनजातीय जीवन को प्रभावित कर रहे हैं। इतना ही नहीं, वन अधिकारी और विकास अधिकारी भी जनजातियों के लिए समझ में न आने वाली राजनीतिक संगठन की जटिलता के प्रसार में में योगदान दे रहे हैं।
इसी प्रकार, उनकी परम्परागत पंचायती न्याय व्यवस्था में भी दरारें पड़ने लगी हैं। पढ़े-लिखे आदिवासी या समृद्ध आदिवासी परम्परागत पंचायत के फैसलों की उपेक्षा करने लगे हैं। अदालतों पर आधारित आधुनिक न्याय व्यवस्था की पेचीदगी उनकी समझ से बाहर हैं और वे भोले-भाले लोग इसमें फंस कर लुट जाते हैं।
देश में प्रजातान्त्रिक प्रणाली, जो बहुदलीय व्यवस्था पर आधारित है, भी जहाँ उनमें नई राजनीतिक चेतना पैदा कर रही है, वहीं पर राजनीतिबाजों के कुचक्र का उन्हें शिकार भी बना रही है। राजनीति उन्हें झूठे आश्वासन देती है, जो उनकी निराशाओं को बढ़ाते हैं और कई जगह चुनाव की राजनीति उनमें दंगे और विद्रोह को भड़काती है। इन सभी राजनीतिक प्रक्रियाओं से उत्पन्न जटिल समस्याओं का हल तभी प्राप्त हो सकता है जब हम जनजातिक्षेत्रों के लिए राजनीतिक ढाँचे को सरल बनाएँ। यह नया राजनीतिक ढाँचा ऐसा हो जो उनके परम्परागत तत्त्वों को अपने में शामिल कर सके। सार्वभौमिक मताधिकार तो सबको मिलना चाहिए,
लेकिन यह हो सकता है कि हम जनजातीय क्षेत्रों से प्रतिनिधियों के चुनाव की प्रक्रिया को कुछ भिन्न रूप में। लागू करें। परम्परागत न्याय व्यवस्था को अधिक शक्ति प्रदान की जानी चाहिए और सामान्य रूप से उनके निर्णयों का अदालतों में सम्मान किया जाना चाहिए, जब तक कि कोई स्पष्ट अन्याय का मामला न दिखाई देता हो। माननीय जजों को न्याय-अन्याय का निर्धारण करते समय सम्बन्धित जनजाति के इतिहास व परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए जनजाति की दृष्टि से ही प्रत्येक मामले को देखना चाहिए, न कि आधुनिक शिक्षा या कानून की दृष्टि से। इसी भाँति, प्रशासनिक व विकास कर्मचारी भी व्यावहारिक मानवशास्त्र की दृष्टि से विशेष प्रशिक्षण दिए जाने पर ही जनजातीय इलाकों में नियुक्त किए जाने चाहिए।

शैक्षिक समस्याएँ
जनजाति के लोग शिक्षा के महत्त्व को समझने लगे हैं और वे शिक्षा के अवसरों की। माँग भी कर रहे हैं। सरकार ने उनके लिए छात्रवृत्तियों या आरक्षित प्रवेश या छात्रावास सुविधाओं की नीतियों को अपनाया है। परन्तु हमें ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी बाहरी नई व्यवस्था को, चाहे वह कितनी भी अच्छी क्यों न हो, सीधे रूप से अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक समूह पर आरोपित नहीं किया जा सकता। आधुनिक स्कूलों की औपचारिक शिक्षा प्रणाली वहाँ सफल नहीं होगी। एक तो नितान्त गरीबी उन्हें आगे बढ़ने नहीं देती और वे बीच में ही पढ़ाई छोड़कर जाते हैं, दूसरे अक्षर ज्ञान पर आधारित सामान्य पाठ्यक्रम जनजातियों के बच्चों को आकर्षित नहीं कर पाते। यह शिक्षा उन्हें अपने जीवन के लिए सन्दर्भहीन लगती है। डॉ० ब्रह्मदेव शर्मा ने इस दिशा में बड़ा सुन्दर उदाहरण दिया है कि यहाँ स्कूल की एक अध्यापिका ने जनजातीय बालक की किसी गलती पर उसे डाँटा और उसके कान पकड़े। अगले दिन से बालक ने स्कूल जाना छोड़ दिया। जब उससे पूछा गया कि उसने ऐसा क्यों किया तो उसने कहा कि 'ढौंकी' (स्त्री) के हाथ से वहाँ पिटने नहीं जाएगा, यह तो उसका अपमान है, फिर वह मर्द काहे का है?
स्पष्ट है कि शिक्षा के पाठ्यक्रम व शिक्षण विधि दोनों में ही परिवर्तन करना होगा। शिक्षा व्यवस्था सम्बन्धित जनजाति के परिवेश के अनुसार हो और जनजाति की आवश्यकता को पूरा करने वाले पाठ्यक्रम हों तो सम्भवतः वे इसकी ओर आकार्षित हो जाएँ।

स्वास्थ्य-सम्बन्धी समस्याएँ
जैसा पहले कहा गया है कि सांस्कृतिक सम्पर्कों ने कुछ नई बीमारियों को आदिवासी क्षेत्रों में फैलाया है जिनसे लड़ने के लिए उनकी परम्परागत जादू-टोने और जड़ी-बूटियों पर आधारित चिकित्सा प्रणाली पर्याप्त नहीं है। उदाहरणार्थ, यौन रोग, टी० बी० आदि को वे नहीं समझ पा रहे हैं। आधुनिक चिकित्सा सम्बन्धी सुविधाएँ उन्हें या तो उपलब्ध हैं ही नहीं, और अगर हैं भी तो बड़ी दूर-दूर बिखरी हुई और नहीं के बराबर हैं। इस परिस्थिति ने जनजातियों में ऐसा नैराश्य भर दिया है कि वे जीने का उत्साह भूलने लगे हैं। स्वास्थ्य मानव की प्राथमिक आवश्यकता है। इसलिए यह जरूरी है कि उनकी परम्परागत चिकित्सा प्रणाली का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाए और जो जादू-टोने या जड़ी-बूटियाँ उपयोगी सिद्ध हों उन्हें चिकित्सा प्रणाली में सम्मिलित कर लिया जाए। साथ ही, कुछ प्राथमिक उपचार जैसे तरीकों का जनजाति के युवाओं को प्रशिक्षण दिया जाए और उन्हें चिकित्सा प्रणाली का एक अंग बनाया जाए। इस दिशा में ईसाई मिशनरियों के कार्य की प्रशंसा की जानी चाहिए।

स्त्रियों की सामाजिक स्थिति में ह्रास
जनजातियों में स्त्रियों की स्थिति बड़ी विषम होती जा रही है। डॉ० ब्रह्मदेव शर्मा ने अनेक ऐसी परिस्थितियों का वर्णन किया है जहाँ जनजाति की भोली-भाली किशोरियाँ, जो समानता, स्वतन्त्रता व शिथिल यौन नैतिकता के पर्यावरण में पली हैं, कैसे इन सभ्य कहलाने वाले छोटे-मोटे अधिकारी, व्यापारी, तकनीशियन या श्रमिकों द्वारा छली जाती हैं। कभी धोखे से, कभी पैसे के बल पर, कभी केवल शक्ति प्रयोग से इन अल्हड़ बालाओं को वे अपनी अंकशायिनी बना लेते हैं। डॉ० शर्मा के शब्दों में ही “कभी-कभी तो मीठी गोलियाँ, नहाने के साबुन की टिकिया, पाउडर का डिब्बा आदि तक इन मासूम किशोरियों को फाँसने के लिए पर्याप्त होता है।” वे एक खुशहाल आरामदेह जिन्दगी के लिए आकर्षित होती हैं। परन्तु जब उन्हें पता चलता है कि सभ्य मनुष्य के लिए स्त्री एक “कमजोर वर्ग" है, परावलम्बी है और इस सभ्य मानव ने उसे कोई स्थायी सहारा नहीं दिया है तो उसका मोह जाल टूटता है। वह परिवार में साझेदारी, निर्णयों में समानता के मूल्यों पर आधारित सांस्कृतिक व्यवस्था से सम्बन्धित होती है। वह पाती है कि वह दोहरे पतन के जाल में फंस गई है। एक ओर तो वह साहब की केवल ‘रखैल' है जिसकी देह का मोल कुछ सिक्कों के सिवाय कुछ नहीं है, तो दूसरी ओर वह अपने समाज में स्वयं को तिरस्कृत और कभी-कभी बहिष्कृत पाती है। जनजाति समाज ऐसी स्त्रियों को प्राय: अपराधी मानते हैं जो किसी की पैसों के लिए रखैल बन जाए और सन्तान उत्पन्न करे। ऐसी महिलाओं का समाज में पुनर्वास एक कठिन समस्या बन जाता है।
इतना ही नहीं, कहीं-कहीं आदिवासी स्त्रियाँ वेश्यावृत्ति के लिए बाध्य अथवा प्रेरित की जाती हैं। जौनसार बाबर के 'कोलटा' लोगों में यह समस्या बड़ी गहन हो गई है। वहाँ बहुपति प्रथा वाला समाज है। किसी आदिवासी स्त्री का वेश्यागृह तक पहुँचने का घटनाक्रम प्राय: सुनिश्चित-सा है। डॉ० ब्रह्मदेव शर्मा के शब्दों में, "सबसे पहले इन परिवारों को गरीबी के कारण खाने-पीने, विवाह-शादी इत्यादि के अवसर पर ऋण लेना पड़ता है। एक बार ऋणी होने पर उनकी जीविका के परम्परागत साधन छिन जाते हैं, जमीन गिरवी रखनी पड़ती है अथवा उच्च समाज के किसी सदस्य के यहाँ उसे बन्धक मजदूरी स्वीकार करनी पड़ती है। दूसरे शब्दों में, वह अपने श्रम का भी मालिक नहीं रह जाता। ऋणी परिवार की महिला सदस्य को वेश्यावृत्ति के लिए मजबूर करने में उसके मालिक अथवा आँचल के किसी तगड़े आदमी की रुचि हो जाती है। ऋण की वसूली का तकाजा तेज होने लगता है। फिर उस स्त्री के विवाह-विच्छेद की औपचारिकता पूरी की जाती है और फर्जी तौर पर दूसरा विवाह भी रचाया जा सकता है। इस पूरी जालसाजी में खुमड़ी के मुखिया भी धन के लालच में सक्रिय सहयोग देते हैं। अन्त में स्त्री अकेली, या अपने असली या फर्जी परिवार के साथ वेश्यावृत्ति के लिए मैदानी इलाकों में चली जाती है।" अपने मूल्यों में आस्था खोया जनजाति का यह निचला वर्ग कभी-कभी खुद भी स्त्री को इस दिशा में प्रेरित कर देता है और वेश्यावृत्ति स्वयं में एक आदरणीय अथवा वांछनीय व्यवसाय के रूप में स्वीकृति प्राप्त कर लेती है।
जनजाति के लोग कहीं-कहीं नारी के इस प्रकार फँसाए जाने के विरुद्ध बड़ा रोष भी व्यक्त करते हैं, विशेषत: युवा वर्ग इसका प्रतिशोध भी लेना चाहता है। परन्तु परम्परागत न्याय व्यवस्था को वह ऐसे अपकारी व्यक्ति पर लागू नहीं कर सकता और नई व्यवस्था या तो उसकी पहुँच से बाहर है या ऐसे अपराधों के लिए जिम्मेदार सबल व्यक्ति दण्ड से बच निकलते हैं।
इस समस्या के सम्बन्ध में हम यह स्पष्ट कर देना चाहेंगे कि अधिकांशतः स्त्री के शोषण या वेश्यावृत्ति के मामले जनजाति के सबसे निम्न और कमजोर श्रेणियों की स्त्रियों में घटित होते हैं। उच्च और समर्थ श्रेणियों की स्त्रियों के साथ ऐसी घटनाएँ अपवाद ही हैं। ऐसा लगता है कि मानव का वर्ग भेद का इतिहास यहाँ भी अपने को दोहराता है और निर्बल वर्ग ही सबल वर्ग द्वारा हर प्रकार के शोषण का शिकार होता है। इसलिए इस समस्या का समाधान तभी हो सकता है जब इस निम्न वर्ग को रोजगार के अवसर दिए जाएँ और उन्हें ऋणग्रस्तता के चंगुल से बचाया जाए। इसके अतिरिक्त, ऐसी घटनाओं की रोकथाम और दण्ड की कानूनी प्रक्रिया में उचित संशोधन किए जाएँ।
स्त्रियों का यौन शोषण ही उनकी सामाजिक प्रस्थिति में ह्रास का एकमात्र कारण नहीं है बल्कि बाह्य सम्पर्कों के प्रभाव में आकर जो उन पर नई सामाजिक नैतिकता लादी जा रही है, वह भी उनकी परम्परागत प्रस्थिति में ह्रास का कारण है। उदाहरणार्थ-वे अब पुरुषों के साथ नृत्य आदि में भाग नहीं लेती अथवा उनमें पर्दे का समावेश होने लगा है। यदि उनका कार्य-क्षेत्र घर और रसोई तक ही सीमित किया जाने लगे तो स्वाभाविक ही हिन्दू स्त्रियों की भाँति उनकी सामाजिक प्रस्थिति भी पुरुषों की तुलना में नीची हो जानी है। यहाँ हम यह भी कहना चाहेंगे कि यौन नैतिकता में अत्यधिक शिथिलता या तलाकों की दर अधिक होना या ऊँचे वधू-मूल्य होना जैसी कुछ चीजें ऐसी भी हैं जिनमें धीरे-धीरे परिवर्तन वांछनीय ही होगा।

नशावृत्ति
मद्यपान यद्यपि जनजातियों में सामान्य जीवन का एक अंग रहा है तथापि आधुनिक आबकारी कानून के अन्तर्गत दृश्य कुछ बदल गया है। पहले वे अपने घरों में ही परम्परागत तरीकों से स्थानीय चीजों; जैसे मँडुआ अथवा मद्दुआ से शराब निकालते थे और प्रथा के अनुसार नियमित मात्रा में लेते थे। परन्तु अब घरों में शराब खींचना गैर-कानूनी है। शराब उन्हें ठेकों पर मिलती है। शराब के डेग्केदार एक नया शोषक तत्त्व बन जाता है और धीरे-धीरे आदिवासी इस शराब के आदी बन जाते हैं तथा शराब के लिए या शराब के प्रभाव में वे अनेक गलत कार्य करने के लिए भी तैयार हो जाते हैं।
इस समस्या के सम्बन्ध में हम यही सुझाव देंगे कि आबकारी के नियमों में संशोधन किया जाए। आदिवासी क्षेत्रों से शराब के ठेके हटाए जाएँ। जनजातियों को पूर्ववत् इस दिशा में अपने जीवन को नियन्त्रित करने का अधिकार मिले। हमें यह जानकारी मिली है कि उत्तर प्रदेश की ‘भोटिया' जनजाति के कई गाँवों में स्त्रियों ने शराबखोरी के विरुद्ध जबरदस्त आन्दोलन छेड़ा, ठेकों का घेराव किया, उनकी बोतलें तोड़ी, वहाँ प्रदर्शन किए और अपने अभियान में काफी सीमा तक सफलता भी प्राप्त की है।

अपराध व कानून सम्बन्धी समस्याएँ
कुछ जनजातियाँ अंग्रेजी शासनकाल से ही अपराधी जनजातियाँ मानी जाती थीं। चोरी, ठगी और डकैती करना जिनका व्यवसाय बन गया था। उत्तर प्रदेश की ‘बवरिया' जनजाति ऐसी ही भूतपूर्व अपराधी जनजाति है। उनके पुनर्वास का प्रयास किया जा रहा है। लेकिन दुःख इस बात का है कि अनेक जनजातियाँ कानून का उल्लंघन करने के लिए बाध्य हो गई हैं क्योंकि उनके जीवन निर्वाह के परम्परागत साधन उनसे छिन गए हैं। डॉ० ब्रह्मदेव शर्मा के शब्दों में, "ह्रासशील संसाधन, धनुष और बाण की सतत परम्परा और बढ़ती हुई आबादी ने कुछ आत्यन्तिक स्थितियों को जन्म दिया है जिनके कारण जीवन-धारण के लिए आदिवासियों को लूटमार के लिए बाध्य होना पड़ा।" उन्होंने भीलों का उदाहरण दिया है जो चोरी को पाप समझते हैं और अपने भरण-पोषण के लिए बाहुबल का प्रयोग करना अनिवार्य समझते हैं। इसलिए वे भारी जोखिम उठाकर भी डकैती डालते हैं। झाबुआ के अली-राजपुर क्षेत्र में राहजनी एक आम बात हो गई है। इसी प्रकार, कुछ आँचलों में गैर-कानूनी ढंग से जलाऊ अथवा बहुमूल्य लकड़ी काटकर बेचना आदिवासियों का धन्धा बन गया है। ऐसे मामलों में उच्च समाज के भ्रष्ट अधिकारियों और अपराधी तत्त्वों के साथ ऐसे आदिवासियों का गठबन्धन हो जाता है जो उन्हें अपराधों के लिए प्रेरित करते हैं।
स्पष्ट है कि यह समस्या जीवन के निर्वाह की समस्या के साथ जुड़ी हुई है। इसलिए जैसा कि पहले भी कहा गया है; रोजगार के नए अवसर, गृह व कुटीर उद्योग, वनों के नियमों में परिवर्तन से ही इस बीमारी का इलाज हो सकता है। 

जनजाति विद्रोह
अन्तिम रूप से, जनजाति आक्रोश और विद्रोह को भी हम एक समस्या के रूप में वर्णित करना चाहेंगे। वास्तव में, जनजातियों की समस्याएँ सांस्कृतिक संकट, आर्थिक बेरोजगारी और शोषण की समस्याएँ हैं। जब कोई जनजाति इसके कारण समझने में या उचित निदान खोजने में असफल और हताश हो जाती है तो अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए वह विद्रोह का रास्ता अपना लेती है। नागा और मिजो, टुण्ड्रा, सन्थाल गोंड और भील जनजातियों में विद्रोह का लम्बा इतिहास है। सबसे नवीनतम क्रान्ति नक्सलपन्थी क्रान्ति थी जो पश्चिम बंगाल के आदिवासियों में शुरू हुई। इसके प्रेरक कट्टर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट थे जिनका विश्वास था कि क्रान्ति बन्दूक की नली से ही होती है। यह क्रान्ति भारत के अनेक गाँवों एवं नगरों में पहुंची। यद्यपि यह सच है कि भारतीय प्रशासन इस क्रान्ति को कुचलने में सफल रहा है तथापि इसने यह सिद्ध कर दिया है कि शोषण से उत्पन्न आक्रोश बारूद के समान है जो किसी भी चिंगारी से विस्फोट में बदल सकता है।
स्पष्ट है कि यह समस्या अन्य समस्त समस्याओं का प्रतिफल है और इसका हल पुलिस व सेना की गोलियाँ नहीं है बल्कि जनजाति की समस्याओं और आकांक्षाओं को सही परिवेश में समझने और उसके निराकरण में है। यह निराकरण विकास की उन योजनाओं में निहित है जिनके निर्माण एवं क्रियान्वयन में जनजाति स्वयं अपनी भागीदारी की अनुभूति कर सके। इसका दायित्व न केवल हमारे राजनेताओं, प्रशासकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं पर है बल्कि मार्गदर्शन का कार्य मानवशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों पर भी है।
जनजातियों की समस्याओं और उनके समाधान के बारे में इतना जरूर कहा जा सकता है कि जनजातियों की समस्याएँ वस्तुत: मानवीय समस्याएँ हैं। ये पूँजीपति वर्ग व्यवस्था की स्वाभाविक समस्याएँ हैं। कुछ अंशों तक ये सभी अनुसूचित जातियों, जनजातियों और समाज के अन्य आर्थिक रूप से निर्बल वर्गों की समस्याएँ हैं। शक्तिशाली एवं सम्पत्तिशाली वर्ग निर्बलों का शोषण करता आया है। इस शोषण को रोकना है। कमजोर वर्गों को विकास के न केवल अवसर प्रदान करने हैं बल्कि उनमें विकास के लिए चाह और आवश्यक तैयारी भी करनी है। इस उद्देश्य की पूर्ति कैसे हो? या तो हमें कोई शान्तिपूर्ण, रचनात्मक और मानवीय रास्ता खोज निकालना चाहिए अन्यथा वर्ग संघर्ष और क्रान्ति ही इसका एकमात्र उपाय हो सकती है। क्या जनजातियों के समक्ष केवल यही एकमात्र मार्ग छोड़ देना उचित होगा?

अनुसूचित जनजातियों की समस्याओं के समाधान हेतु सरकारी प्रयास

अनुसूचित जनजातियों के सामाजिक-आर्थिक उत्थान एवं समस्याओं के समाधान हेतु सरकार सतत प्रयास कर रही है। भारत सरकार 1974 से राज्यों एवं केन्द्रशासित प्रदेशों को जनजातीय उपयोजना के लिए विशेष केन्द्रीय सहायता उपलब्ध कराती है। पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में यह सहायता राशि 119.31 करोड़ थी जो दसवीं पंचवर्षीय योजना में बढ़कर 2960-83 करोड़ रुपये हो गई। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में वर्ष 2006-07 को 631-80 करोड़ रुपये उपलब्ध कराए गए हैं। जंगल बाहुल्य गाँव के विकास के लिए भी केन्द्रीय सहायता दी जाती है। वर्ष 1998-99 में आदिम जनजाति समूहों के सर्वांगीण विकास के लिए केन्द्रीय क्षेत्र की एक योजना प्रारम्भ की गई है जिसके अन्तर्गत समन्वित जनजातीय विकास परियोजनाओं, जनजातीय शोध संस्थानों तथा गैर-सरकारी संगठनों को वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई जाती है।
अनुसूचित जनजाति के बालक/बालिकाओं हेतु छात्रावासों के निर्माण की योजना के अन्तर्गत दसवीं पंचवर्षीय पयोजना में 389 छात्रावासों का निर्माण किया गया है जिससे 24,379 छात्र-छात्राओं को लाभ मिला। इस पर 104 करोड़ रुपये खर्च किए गए। जनजातीय विद्यार्थियों में साक्षरता दर बढ़ाने हेतु दसवीं पंचवर्षीय योजना में 232 आश्रम विद्यालयों की स्थापना की गई जिससे 17,650 विद्यार्थी लाभान्वित हुए। इस पर 78.03 करोड़ रुपये खर्च किए गए। इन योजनाओं के अतिरिक्त अनुसूचित जनजाति छात्रों के लिए मैट्रिक-पश्चात् छात्रवृत्ति, जनजातीय क्षेत्रों में व्यावसायिक प्रशिक्षण, कम साक्षरता वाले इलाकों में जनजातीय बालिकाओं की शिक्षा हेतु भी सतत प्रयास किए गए हैं। राजीव गांधी राष्ट्रीय फैलोशिप तथा अनुसूचित जनजाति के विद्यार्थियों के लिए विदेश में उच्च शिक्षा हेतु राष्ट्रीय छात्रवृत्ति योजना का लाभ भी जनजातीय विद्यार्थियों को दिया जा रहा है। जनजातीय मामलों के मन्त्रालय ने 2007-08 से अनुसूचित जनजाति के छात्रों की उच्च कक्षा शिक्षा की एक नई योजना प्रारम्भ की है जिसका उद्देश्य चुनिंदा उत्कृष्ट संस्थानों में स्नातक तथा स्नातकोत्तर स्तर पर शिक्षा प्राप्त कर रहे मेधावी छात्रों को प्रोत्साहित करना है।
सन् 2001 में राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति वित्त तथा विकास निगम की अलग से स्थापना की गई है जो जनजातीय लोगों के आर्थिक विकास हेतु अनेक कार्यक्रम चला रहा है। निगम ने 31 मार्च, 2008 तक आय बढ़ाने वाले
कार्यक्रम के अन्तर्गत 937 योजनाओं/परियोजनाओं को मंजूरी दी है जिसमें उसका हिस्सा 466.59 करोड़ रुपये था। इनसे 1.73 लाख अजजा व्यक्तियों को स्व-रोजगार उपलब्ध कराया गया। ट्राइबल कॉपरेटिव मार्केटिंग डवेलपमेण्ट फेडरेशन ऑफ इण्डिया लिमिटेड अपनी दुकानों के माध्यम से जनजातीय उत्पादों के विपणन विकास में लगा हुआ है।
अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पारम्परिक वन्य निवासी (वन अधिकार को मान्यता) अधिनियम, 2006 के अन्तर्गत अजजा तथा अन्य वन्य निवासियों के वनों पर अधिकार को मान्यता दी गई है। अनुसूचित जनजातियों के लिए रोजगार, शिक्षा एवं निर्वाचित निकायों में आरक्षण सुविधाएँ यथावत् बनी हुई हैं। इनसे जनजातियों का विकास तो हो रहा है परन्तु उनकी समस्याओं का समाधान पूर्ण रूप से नहीं हुआ है। इस दिशा में अभी काफी प्रयास किया जाना शेष है।

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