अनुसूचित जातियाँ क्या है? | anusuchit jati kya hai

अनुसूचित जातियाँ

अनुसूचित जातियाँ वे निम्न जातियाँ हैं जिन्हें सरकार ने विशेष अनुसूची में सम्मिलित किया है और जिन्हें विशेष सुविधाओं द्वारा सरकार अन्य जातियों के बराबर लाना चाहती है। 2001 ई० की जनगणना के अनुसार इनकी तथा अनुसूचित जनजातियों की संख्या कुल जनसंख्या का चौथाई भाग (24-40 प्रतिशत) है। यदि इनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है तो भारत प्रगति नहीं कर सकता।
anusuchit jati kya hai
भारत में अनुसूचित जातियों की कुल संख्या 166,636,000 (16-20 प्रतिशत) है। इसीलिए इनकी समस्याओं को न तो अनदेखा किया जा सकता है और न ही इन समस्याओं के समाधान के बिना देश का विकास सम्भव है।

अनुसूचित जातियों की समस्याएँ

अनुसूचित जातियों की निम्नांकित प्रमुख समस्याएँ हैं-

अस्पृश्यता की समस्या
अस्पृश्यता का इतिहास भारतीय समाज में जाति व्यवस्था के इतिहास से जुड़ा हुआ है क्योंकि यह जाति व्यवस्था के साथ ही हमारे समाज में एक गम्भीर समस्या रही है। अस्पृश्यता के नाम पर हजारों वर्षों तक निम्न जातियों को अनेक मानवीय अधिकारों से वंचित रखा गया तथा उन पर अनेक सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक व राजनीतिक निर्योग्यताएँ लगा दी गईं।
अनेक विद्वानों (जैसे डॉ० डी० एन० मजूमदार) ने अस्पृश्यता की परिभाषा ही अस्पृश्य जातियों की आर्थिक एवं राजनीतिक नियोग्यताओं के आधार पर दी है। निर्योग्यताएँ परम्परागत रूप से निर्धारित होती हैं और सामाजिक दृष्टि से लागू की जाती हैं। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् सरकार ने वैधानिक रूप से अस्पृश्यता एवं अस्पृश्यों की सभी निर्योग्यताओं को समाप्त कर दिया है तथा इसमें काफी सीमा तक सफलता भी मिली है। निर्योग्यताओं के कारण ही अनुसूचित जातियाँ सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से पिछड़ी रही हैं तथा आज भी अग्रणी जातियों से पिछड़ी हुई हैं।

अत्याचार एवं उत्पीड़न की समस्याएँ
अनुसूचित जातियों की दूसरी समस्या अत्याचार और उत्पीड़न की है। अस्पृश्यता के कारण इन्हें जिन सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ता था उसके कारण ये जातियाँ अनेक प्रकार के अत्याचारों और उत्पीड़न का शिकार हो गई हैं। लगभग सभी राज्यों में अनुसूचित जातियों पर उत्पीड़न और अत्याचार के समाचार निरन्तर मिलते रहते हैं। इनमें इनकी भूमि को अवैध रूप से छीन लेना, उनसे बेगार लेना तथा बँधुआ मजदूरों के रूप में काम लेना, महिलाओं से दुर्व्यवहार एवं शोषण, हत्याएँ, लूटमार तथा जमीन के खरीदने व बेचने में अनियमितताएँ इत्यादि प्रमुख हैं। इन्हें जिन्दा जला देने की घटनाएँ भी सुनने में आती हैं। बिहार में बेलची काण्ड इसका एक उदाहरण है। इन पर पुलिस द्वारा अत्याचार की अनेक घटनाएँ भी सामने आई हैं।
यद्यपि सरकार ने भूमिहीन अनुसूचित जातियों के लोगों को भूमि का वितरण, न्यूनतम वेतन में वृद्धि, गृहों का आबंटन, बँधुआ मजदूर प्रथा की समाप्ति जैसे उपायों से इनके उत्पीड़न और इन पर होने वाले अत्याचारों को काफी सीमा तक नियन्त्रित करने का प्रयास किया है, फिर भी कुछ प्रभावशाली व्यक्ति अपने व्यक्तिगत हितों के कारण इन जातियों के सामाजिक-आर्थिक सुधार में अनेक बाधाएँ उपस्थित करते रहे हैं। कई राज्यों में तो सरकार द्वारा आबंटित भूमि पर इन लोगों को कब्जा नहीं मिल पाया है। मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र व दिल्ली में ऐसी घटनाओं की सूचना अधिकारियों को दी गई है।
उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश तथा देहली में अनुसूचित जातियों के लोगों पर विविध प्रकार के अत्याचार एवं उत्पीड़न के समाचार मिलते रहे हैं। इनकी शिकायतों को, जोकि अनुसूचित जाति एवं जनजाति के कमिश्नर को प्राप्त होती हैं, सम्बन्धित सरकारों को प्रेषित कर दिया जाता है।
अनुसूचित जातियों पर होने वाले अत्याचार एवं उत्पीड़न को रोकने का दायित्व यद्यपि राज्य सरकारों का है, फिर भी केन्द्रीय सरकार कमजोर वर्गों पर अत्याचार रोकने के अनेक उपाय करती है तथा स्थिति के अनुसार कदम उठाती है। बड़े खेद की बात है कि इन पर होने वाले अत्याचारों की ठीक प्रकार से जाँच-पड़ताल भी नहीं हो पाती। उदाहरणार्थ-अनुसूचित जातियों व जनजातियों के कमिश्नर की २४वीं रिपोर्ट (1975-76 एवं 197677, भाग-1) के अनुसार 1975 ई० में 7,781 मामलों में 24.4% प्रतिशत मामलों में जाँच-पड़ताल के बाद कोई चार्ज शीट नहीं लगाई गई।
अनुसूचित जातियों पर अत्याचार रोकने एवं उत्पीड़न कम करने के लिए राज्य सरकारों को विशेष उपाय करने की जरूरत है तथा पुलिस फोर्स को इसके लिए स्पष्ट निर्देश दिए जाने अनिवार्य हैं। अगर कानून के रक्षक पुलिस वाले ही इस प्रकार के मामलों में संलग्न होने के दोषी पाए जाते हैं तो उन्हें कठोर दण्ड देने की आवश्यकता है। अत्याचार पीड़ित लोगों को उदार अनुदान देने एवं पुनर्वास की सुविधाएँ भी तुरन्त उपलब्ध की जानी चाहिए।

आर्थिक समस्याएँ
निर्योग्यताओं के कारण इनका सामाजिक-आर्थिक तथा राजनीतिक स्तर भी काफी निम्न रहा है। इन्हें अपनी इच्छानुसार व्यवसाय चुनने का अधिकार नहीं था, इनसे बेगार ली जाती थी तथा वेतन भी न्यूनतम दिया जाता था। श्रम-विभाजन में भी इन्हें निम्न स्थान प्राप्त था जिनके कारण इनको योग्यता होने पर अच्छे कुशल कर्मचारी बनने का अवसर प्राप्त नहीं हो पाता था। इन लोगों को उच्च व्यवसाय करने की अनुमति नहीं थी तथा आज भी ग्रामीण भारत में इस प्रकार के प्रतिबन्ध देखे जा सकते हैं।
अनुसूचित जातियों के लोगों के आर्थिक स्तर को ऊँचा करने के लिए सरकार ने अनेक कदम उठाये हैं तथा संवैधानिक रूप से अनेक सुविधाएँ उपलब्ध की हैं। नौकरियों में आरक्षण सुविधाएँ, बैंकों से आसान शर्तों पर ऋण, आवासीय सुविधाएँ, कृषि मजदूरों के लिए न्यूनतम वेतन का निर्धारण, ग्रामीण क्षेत्रों में ऋण की वसूली न करना तथा बँधुआ मजदूरी की समाप्ति इस दिशा में उल्लेखनीय प्रयास हैं। परन्तु अभी भी इस दिशा में काफी कुछ किया जाना बाकी है तथा इसके लिए अनुसूचित जातियों के लोगों में जनचेतना बढ़ाया जाना अनिवार्य है ताकि वे सरकार द्वारा उपलब्ध सुविधाओं का लाभ उठा सकें तथा अपने आर्थिक स्तर में सुधार कर सकें।

राजनीतिक समस्याएँ
अनुसूचित जातियों की समस्याओं में राजनीतिक समस्या भी प्रमुख स्थान रखती है। इन लोगों को केवल नौकरी में नियुक्ति एवं वेतन सम्बन्धी अधिकार ही नहीं थे अपितु राजनीतिक दृष्टि से राय देने का भी कोई अधिकार नहीं था। वोट देने तथा शिक्षा प्राप्त करने के अधिकारों से भी उन्हें वंचित रखा जाता था। यद्यपि स्वतन्त्रता के पश्चात् अनुसूचित जातियों की राजनीतिक निर्योग्यताएँ समाप्त हो गई हैं तथा उन्हें अन्य नागरिकों के समान अधिकार ही प्राप्त नहीं हैं अपितु राज्य विधान सभाओं एवं लोक सभा में आरक्षण सुविधाएँ भी प्रदान की गई हैं, फिर भी इन्हें चुनाव में डाँट-डपटने (Intimidation) तथा दबाव (Coercion) के अनेक मामले सामने आते रहते हैं। हरियाणा, बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब, पश्चिम बंगाल, नागालैण्ड तथा पाण्डिचेरि में अनेक ऐसी शिकायतें मिलती रहती हैं। बिहार में तो मतदान केन्द्रों के पास खुली उग्रता के अनेक मामले भी हुए हैं।
यद्यपि प्रजातन्त्रीकरण तथा राजनीतिकरण के परिणामस्वरूप अनुसूचित जातियों में नई चेतना के कारण अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता आई है तथा पंचायत से लेकर लोकसभा तक सुरक्षित स्थान व नौकरी की सुविधाओं एवं सुरक्षित स्थानों के कारण इनके आत्म विश्वास में वृद्धि हुई है, तथापि ऐसा देखा गया है कि अनुसूचित जातियों के सभी व्यक्ति, विशेष रूप से ग्रामीण अशिक्षित व्यक्ति अपने अधिकारों के प्रति सचेत नहीं हैं। इनमें भी एक सम्भ्रान्तजन वर्ग (Elite class) का उदय हो गया है तथा सभी सुविधाएँ इसी वर्ग को मिल रही हैं सामान्य लोगों को नहीं। इसका एक प्रमुख कारण अशिक्षा तथा अज्ञानता भी है।
राजनीतिकरण के कारण अनुसूचित जातियाँ अपने निम्न स्तर को ऊँचा उठाने के लिए संगठित हो गई हैं तथा सत्ता संरचना को प्रभावित करने अथवा इस पर प्रभुत्व जमाने के लिए अन्य निम्न जातियों से गठबन्धन करने लगी हैं। इनके परिणामस्वरूप अनुसूचित जातियाँ निश्चित रूप से राजनीति के प्रति अधिक जागरूक हैं तथा इसमें अधिक भाग लेती हैं और उन्हीं दलों या व्यक्तियों का समर्थन करती हैं जो उनके अधिकारों की रक्षा कर सकते हैं तथा उनके बीच उठते-बैठते व खाते-पीते हैं। राजनीतिकरण के कारण कुछ जातियों में अपने निम्न स्तर से बड़ी असन्तुष्टि-सी होने लगी है तथा बहुत से लोगों ने बौद्ध तथा ईसाई धर्म को भी ग्रहण कर लिया है। कुछ जातियों ने संस्कृतिकरण से अपना स्तर ऊँचा करने का प्रयास किया है। सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार ने इन जातियों के लिए संगठित होकर शक्ति प्राप्त करने के द्वार खोल दिए हैं। आइसक (Issacs) के अनुसार अनुसूचित जातियों में शिक्षा, व्यावसायिक गतिशीलता, आरक्षण की नीति इत्यादि से काफी परिवर्तन हुए हैं तथा इनसे उनकी सामाजिक-आर्थिक एवं राजनीतिक स्थिति पहले से कहीं अच्छी हुई है।
अनुसूचित जातियों में शिक्षा की वृद्धि द्वारा जनचेतना जगाने की आवश्यकता है ताकि वे अपने अधिकारों के प्रति सजग होकर सरकार द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं का पूरा लाभ उठाया करें। साथ ही डाँट-डपट व दबाव के मामलों को चुनाव के समय सख्ती से दबाया जाना चाहिए ताकि अनुसूचित जातियों के लोग बिना किसी डर के अपने मताधिकार का प्रयोग कर सकें। राज्य सरकारों तथा केन्द्रीय सरकारों को चुनाव आयोग की सहायता से इस दिशा में कड़े कदम उठाने चाहिए।

शिक्षा के विकास सम्बन्धी समस्याएँ
अनुसूचित जातियों को परम्परागत रूप से शिक्षा सुविधाओं से वंचित रखा जाता था तथा व्यावसायिक दृष्टि से इन्हें निम्न व्यवसाय ही करने पड़ते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि आज भी अनुसूचित जातियों में शिक्षा की दर अन्य जातियों की तुलना में कहीं कम है। अंग्रेजी शासनकाल तथा स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत सरकार ने इन जातियों के शैक्षिक स्तर को ऊँचा करने के लिए अनेक कदम उठाए हैं तथा विविध प्रकार की सुविधाएँ भी प्रदान की हैं। वजीफे, मुफ्त वर्दी, पुस्तकें व कापियाँ, छात्रावास सुविधाएँ एवं शिक्षा संस्थाओं व प्रशिक्षण संस्थाओं में इनके लिए आरक्षित स्थानों के प्रावधान के परिणामस्वरूप यद्यपि इनमें शिक्षा की वृद्धि हुई है, तथापि इस दिशा में अभी काफी कार्य करना शेष है। वास्तव में, इन लोगों को मनोवैज्ञानिक रूप से शिक्षा प्राप्ति के लिए तैयार किया जाना आवश्यक है। साथ ही उन्हें शिक्षा इस प्रकार की दी जानी चाहिए कि वे अपने रोजगार स्वयं स्थापित कर सकें अथवा प्रशिक्षण प्राप्त कर अपना कोई कार्य कर सकें। अनुसूचित जातियों में लड़कियों की शिक्षा की ओर ध्यान दिए जाने की भी विशेष आवश्यकता है।

अनुसूचित जातियों की समस्याओं का समाधान

सरकार अनुसूचित जातियों की समस्याओं के समाधान हेतु सतत प्रयासरत रही हैं। राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग, जोकि एक संवैधानिक संस्था है, को अनुसूचित जातियों के हितों को बढ़ावा देने तथा उनकी सुरक्षा के उपायों के लिए व्यापक अधिकार दिए गए हैं। अस्पृश्यता की प्रथा को समाप्त करने और अनुसूचित जातियों के लोगों पर अपराध और अत्याचार की बढ़ती हुई घटनाओं को रोकने हेतु नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 ई० और अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों (अत्याचारों की रोकथाम) अधिनियम, 1989 ई० के कारगर कार्यान्वयन के माध्यम से क्रमश: पी० सी० आर० अधिनयम, 1955 ई० के अन्तर्गत 22 विशेष न्यायालयों और पी० ओ० ए० अधिनियम, 1989 ई० के अन्तर्गत 113 विशेष न्यायालयों की सहायता से इसके कार्यान्वयन के प्रयास किए गए हैं। केन्द्र सरकार द्वारा प्रायोजित योजनाओं के अन्तर्गत दोनों कानूनों को लागू करने पर आने वाले खर्च का आधा हिस्सा राज्य सरकारें तथा शेष आधा हिस्सा केन्द्र सरकार वहन करती है। केन्द्रशासित प्रदेशों को इसके लिए शत-प्रतिशत केन्द्रीय सहायता दी जाती है। वर्ष 2006-07 में राज्यों तथा केन्द्रशासित प्रदेशों को 36.44 करोड़ रुपये जारी किए गए।
अनुसूचित जातियों के शैक्षिक विकास हेतु अस्वच्छ व्यवसायों में लगे लोगों के बच्चों के लिए मैट्रिक-पूर्व छात्रवृत्ति, अनुसूचित जाति/जनजातियों के छात्रों के लिए मैट्रिक के बाद छात्रवृत्ति, राजीव गांधी राष्ट्रीय फैलोशिप योजना, विदेश में उच्च शिक्षा के लिए छात्रवृत्ति तथा यात्रा अनुदान, कोचिंग एवं सम्बन्धित योजना, अनुसूचित जाति के लड़के और लड़कियों के लिए छात्रावास का प्रावधान किया गया है। इनके आर्थिक विकास हेतु राष्ट्रीय अनुसूचित जाति वित्त एवं विकास निगम की स्थापना की गई है जो निर्धनता रेखा के नीचे गुजारा करने वाले लोगों को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने हेतु रियायती ब्याज दर पर धन देता है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी वित्त एवं विकास निगम तथा राज्य अनुसूचित जाति विकास निगमों की भी स्थापना की गई है। मैला ढोने वालों की पुनर्स्थापना योजना के अन्तर्गत मार्च, 2009 तक 735.60 करोड़ रुपये व्यय किए गए। अनुसूचित जातियों के लिए काम करने वाले स्वयंसेवी संगठनों को भी आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई जाती है।
संविधान के अनुच्छेद 341 के अन्तर्गत पंजाब, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल के कुछ समुदायों को अनुसूचित जातियों के सदस्यों को उपलब्ध हो रहे फायदों के लिए पात्र बनाने हेतु इसमें शामिल करने के लिए संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश (संशोधन) विधेयक, 2002 ई० संसद द्वारा पारित हो चुका है। यह विधेयक सरदार सरोवर परियोजना के कारण मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र से विस्थापित और गुजरात में बसाए गए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से बेदखल लोगों के लाभों को बनाए रखने की समुचित व्यवस्था भी करता है।

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