भारतीय समाज में महिलाओं की भूमिका | bhartiya samaj mein mahilaon ki bhumika

भारतीय समाज में महिलाओं की भूमिका

समाज में महिलाओं की भूमिका पर विचार करने पर हम पाते हैं कि सभ्यता के आरम्भिक काल से लेकर वर्तमान के वैश्वीकरण के दौर तक समाज में महिलाओं की भूमिका परिवर्तनशील रही है। इस परिवर्तनशील भूमिका के बावजूद महिलाओं की शारीरिक बनावट तथा बच्चों के जन्म देने की स्थिति के कारण उनकी भूमिका बच्चों के पालन अर्थात् परिवार में आरम्भिक काल से लेकर आजतक नि:संदेह पुरूष की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण बनी रही है।
bhartiya samaj mein mahilaon ki bhumika
सभ्यता के आरम्भिक अवस्था में महिलाओं की भूमिका प्रमुख रूप से पुरूष की यौन इच्छापूर्ति तथा बच्चों के पालन तक सीमित मिलती है। वहीं आज महिलायें समाज, राजनीति, अर्थव्यवस्था, सांस्कृतिक, पर्यावरणीय, विज्ञान, विकास व अनुसंधान, ग्रामीण, प्रदेशक, राष्ट्रीय तथा वैश्विक परिदृश्य पर प्रत्येक भूमिका में नजर आती है। महिलाओं की यह भूमिका व प्रगति यद्यपि गति में धीमी है तो भी यह समाज में उनके बदलते भूमिका (परिदृश्य) को स्पष्ट रूप से बताता है। महिलाओं की समाज में भूमिका को निम्नलिखित शीर्षकों से समझा जा सकता है।

परिवार में महिला की भूमिका

परिवार के लिए महिला वह केन्द्र बिन्दु है, जिसके बिना परिवार की कल्पना बेमानी सी प्रतीत होती है। परिवार में महिला पत्नि, माँ, बेटी, बहन व अन्य रूप में होती है। जिसके उपर घर की व्यवस्था निर्भर करती है। यद्यपि पश्चिमी देशों (अमेरिका व यूरोप) में जहाँ परिवार अत्यन्त छोटे होते जा रहे है, विवाह की अनिवार्यता कम होती जा रही है, एक बच्चे की पॉलिसी अपनायी जा रही, जनसंख्या घट रही है, बाजार का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। वहाँ पर महिला एक नयी भूमिका - 'महिलामित्र (Girl friend)' की भूमिका में अधिक पायी जाती है। आजकल 'लिव इन रिलेशनशिप' की अवधारणा तेजी से विकास कर रही है तो भी जब बात परिवार की आती है और बेहतर सामाजिक व्यवस्था की तो उसमें महिला की भूमिका महत्वपूर्ण पायी जाती है।
किन्तु उपर्युक्त के अतिरिक्त परिवार में महिला की भूमिका का दूसरा पहलू यह देखने को मिलता है कि उनके कार्यों को पुरूषों की तुलना में कम महत्व मिलता है। यहाँ तक कि GDP में घरेलू कार्यों को शामिल नहीं किया जाता है। विश्व के अधिकांश समाजों में परिवार का मुखियाँ पुरूष ही होता है। महिलाओं की भूमिका कुछ भी हो किन्तु उनके अधिकांश निर्णय पुरूषों द्वारा लिये जाते है। अतः परिवार में महिलाओं की भूमिका उनकों पुरूषों के बराबर लोकतांत्रिक अधिकार (स्वतंत्रता, समानता, न्याय, निर्णय क्षमता. ......) दिलाने में असफल दिखायी पड़ती है, यद्यपि इसके अपवाद हो सकते है। किन्तु आज आवश्यकता महिलाओं को परिवार में उनकी भूमिका को सशक्त बनाने की है, ताकि उनका समग्र विकास हो सकें, न कि वे केवल बच्चे पैदा करने वाली बनकर रह जाये। किन्तु महिलाओं की भूमिका के पूर्व उनकी स्थिति पर भी विचार करना आवश्यक है।
वैदिककालीन संस्कृति स्त्रियों की उत्कृष्ट स्थिति की ओर संकेत करती हैं। वेदयुगीन स्त्रियां न केवल वैदिक वाड्मय का अध्ययन करती थीं, अपितु साथ-ही-साथ यज्ञों में भाग लेकर मंत्रोच्चारण भी करती थीं। वैदिक युग में बाल विवाह, पर्दा प्रथा जैसी कुरीतियों से नारी का जीवन दूर था। संपत्ति सम्बंधि अधिकार ही नहीं, बल्कि जीवनसाथी के चुनाव एवं उससे विच्छेद के संबंध में भी इस कालखंड की स्त्रियों को स्वतंत्रता प्राप्त थी। उत्तर वैदिक काल जो सामान्यतः ईसा से 600 वर्ष पूर्व से लेकर ईसा से 300 वर्ष बाद तक माना जाता है, महिलाओं की सामाजिक प्रस्थिति की दृष्टि से सम्मानीय था। भारतीय महिलाओं की सामाजिक प्रस्थिति की दृष्टि से सम्मानीय था। भारतीय महिलाओं की स्थिति महाकाव्य युगीन समाज में भी सम्मानीय था। महाभारत कालीन परिवार पितृसत्तात्मक था, परंतु 'वीरप्रसु' एवं 'जननी' होने के कारण माता का स्थान आदरणीय माना जाता था। भारतीय महिलाओं की प्रस्थिति में परिवर्तन का प्रथम चिन्ह धर्मशास्त्र काल में देखने को मिलता है। धर्मशास्त्र काल का प्रारंभ तीसरी शताब्दी से लेकर 11वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध का माना जाता है। इस काल में महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन आया। 'पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति योवेन। रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातंत्रययर्हयि' अर्थात् स्त्री जीवन के किसी भी पड़ाव पर स्वतंत्र रहने योग्य नहीं है। बाल्यपन में वह पिता के अधिकार में, युवावस्था में पति के वश में तथा वृद्धावस्था पुत्र के नियंत्रण में रहे। मनुस्मृति में यह भी उल्लेखित किया गया कि विवाह का विधान ही महिलाओं का उपनयन है, पति की सेवा ही गुरुकुल का वास है और घर का काम ही अग्नि की सेवा है।
धर्मशास्त्र-काल से स्त्रियों की स्थिति में जो गिरावट आयी वह मध्यकाल में और भी विकट हो गयी। मध्यकाल जिसे 16वीं शताब्दी से लेकर 18वीं शताब्दी में मध्य का माना जाता है, स्त्रियों के सर्वस्व अधिकारों के हनन का काल था। सबसे दुखद पहलू यह रहा है कि स्त्रियों से शिक्षा-दीक्षा के अधिकार (उपनयन) पूर्ण रूप से छीन लिये गये। उनके लिए जीवन का एकमात्र उद्देश्य सुनिश्चित कर दिया गया 'सेवा-कार्य'। इस काल में रक्त की पवित्रता की संकीर्ण धारणा ने इतना जोर पकड़ा कि अल्प आयु (4 से 6 वर्ष) में ही विवाह होने लगे। यह स्त्रियों की सामाजिक प्रस्थिति पर सबसे गहरी चोट थी। जिस देश में स्त्रियां शक्ति, लज्जा एवं संस्कृति की प्रतीक बनी थीं, उन्हीं का समूचा अस्तित्व खतरे में आ गया। भक्तिकालीन आन्दोलन के बाद से ही महिलाओं की स्थिति को सुधारने के प्रयास समाज सुधारकों द्वारा आरम्भ हुए। अंग्रेजी शासन में समाज सुधारकों के प्रयासों से कुछ अमानुषिक प्रथाओं के विरुद्ध कानून बने, जिससे स्त्रियों की स्थिति में सुधार हो सके, परंतु परिणाम उत्साहजनक प्राप्त नहीं हुए, क्योंकि पुरुष प्रधान भारतीय समाज किसी भी कीमत पर तथा कथित अपनी सत्ता को छोड़ने को तैयार नहीं था। स्वतंत्रता के पश्चात् भारतीय महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन आया। यद्यपि आधुनिक काल में सामाजिक परिवर्तन की नवीन शक्तियों ने स्त्रियों की सामाजिक स्थिति को प्रभावित किया, तथापि यह कहना अनुचित होगा कि उनकी स्थिति में सकारात्मक रूप से आमूल-चूल परिवर्तन आ गया।
स्वाधीनता के पश्चात् भारतीय संविधान में महिलाओं को समतुल्य स्थान प्रदान करने हेतु विशेष प्रावधान किये गये। महिलाओं की स्थिति पिछले 60 वर्षों में बहुत बदली है। यह बदलाव विशेषकर कुछ ऐसे क्षेत्रों में भी हुआ है, जहां पुरुषों का वर्चस्व था और अपने प्रयासों से महिलाओं ने उन लक्ष्मण रेखाओं को भी तोड़ा है, जो वर्षों से उनके लिए खींची गयीं थी।
आजादी से लेकर आज तक यदि हम भारतीय महिलाओं की उपलब्धियों की बात करें, तो शिक्षा जगत से लेकर भारतीय सैन्य शासन तक महिलाओं ने अपने कदम रखे हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य और कल्याण इन बिंदुओं पर ध्यान देने एवं महिला अधिकारिता पर केंद्र जो भारतीय महिलाओं की पीड़ा को सामने लाती हैं। स्वंतत्रता के छह दशक पूरे हो जाने के बावजूद भारतीय समाज का एक प्रमुख वर्ग स्त्रियों को सिर्फ घर की चारदीवारी के भीतर सीमित देखना चाहता है और जब उसे यह चारदीवारी टूटती दिखायी देती है, तो येनकेन प्रकारेण अपनी तथाकथित सत्ता को बनाये रखने के लिए स्त्री को दबाने का प्रयास करता है। इस सत्य का अनदेखा करते हुए कि स्त्री की उन्नति के बिना समाज और देश की उन्नति संभव नहीं है। महिलाओं की प्रस्थिति किसी भी समाज के विकास के निर्धारण का महत्त्वपूर्ण मापक होता है।
स्वतंत्रता के बाद से लेकर आज तक महिलाओं की स्थिति को सुधारने हेतु अनेक संवैधानिक उपायों एवं योजनाओं को क्रियान्वित किया गया। सातवीं पंचवर्षीय योजना में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा महिलाओं हेतु 27 लाभार्थी उन्मुख योजनाओं की संकल्पना शुरू हुई। वहीं आठवीं योजना (1992-97) में लैंगिक पदृिश्य और सामान्य विकासात्मक क्षेत्रों के द्वारा महिलाओं के लिए निधियों के निश्चित प्रवाह को सुनिश्चित करने पर बल दिया गया। योजना दस्तावेज में स्पष्ट रूप से उल्लेखित किया गया "विभिन्न क्षेत्रों के विकास के लाभ से महिलाओं को वंचित न रखा जाये और सामान्य विकास कार्यक्रमों के साथ-साथ महिलाओं के लिए विशेष कार्यक्रम भी चलाये जायें।" नौवीं पंचवर्षीय योजना में 'महिला घटक योजना' को एक प्रमुख कार्यनीति के रूप में अंगीकार किया गया तथा दसवीं पंचवर्षीय योजना में योजना के जेंडर भेद प्रभाव को स्थापित करने एवं जेंडर प्रतिबद्धताओं को बजट प्रतिबद्धताओं में परिवर्तित करने के लिए जेंडर बजटिंग के प्रति प्रतिबद्धता को बल दिया गया।
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के दृष्टिकोण पत्र में लैंगिक विभाजन की रेखा को समाप्त करने की कटिबद्धता दृष्टिगोचर होती है। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के दृष्टिकोण पत्र का दस्तावेज कहता है “यह एक महत्वपूर्ण विभाजन है, जो हमें लिंग आधारित समस्याओं पर तत्काल ध्यान देने के लिए बाध्य करता है। समाज को इस विकृति से मुक्त करने के लिए विशेष केंद्रित प्रयास किये जायेंगे और महिलाओं के आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक सशक्तिकरण के लिए उपयुक्त माहौल का निर्माण किया जायेगा।" लैंगिक विभेद को पाटने हेतु यह स्वागत योग्य कथन है। भारतीय महिलाएं वैदिक संस्कृति से लेकर आज तक विभिन्न पड़ावों से गुजरती हुई अपनी अनंत यात्रा को यथावत बनाये रखे हुए हैं। इस यात्रा के मध्य बहुत कुछ बदला, परंतु यदि कुछ नहीं बदला तो वह महिलाओं की सहिष्णुता, संघर्षशीलता एवं जीवटता। शायद यही कारण है कि विभिन्न अवरोधों के बावजूद भी महिलाएं अपनी पहचान बना रही हैं और उनकी विजय है।
भारतीय महिलाओं ने राष्ट्र के विकास, स्वतंत्रता आन्दोलन, शासन व सामाजिक अभियानों में अहम भूमिका निभायी है। रजिया सुल्तान, मीरा बाई, झांसी की रानी, एनी बेसेंट, लक्ष्मी सहगल, विजयालक्ष्मी पंडित, कस्तूरबा गांधी, इंदिरा गांधी जैसे सैकड़ों नाम महिलाओं को मजबूती प्रदान करने में बावजूद देश की परंपरावादी सोच व सामाजिक स्थितियों ने महिलाओं को आगे आने में रुकावटें खड़ी की हैं। लेकिन जैसे-जैसे महिलाओं में शिक्षा और जागरूकता बढ़ी देश में बदलाव की लहर आयी और वे स्वयं आगे बढ़कर महत्ती भूमिका निभाने लगीं। इसका प्रमुख कारण उनका सामाजिक-आर्थिक विकास है।
किन्तु वैदिकयुग से लेकर आजतक परिवार, कला व फैशन वर्ल्ड के केन्द्र में महिलायें ही बनी हुयी है। परिवार की तो कल्पना भी नारी के बगैर नहीं की जा सकती है। किसी कवि ने ठीक ही कहा है कि, "घरनी करके घर नीक करों, घर नीक न होत बिना घरनी के" इसी प्रकार "बिन घरनी घर भूत के डेरा" जैसे वाक्य भी प्रायः सुनने को मिलते है। जो कहीं न कहीं घर (परिवार) में नारी की केन्द्रिय स्थिति को ही बताती है। वहीं भारतीय दर्शन में पुरूष व प्रकृति की संकल्पना जिसमें प्रकृति (नारी रूपी) का वर्णन केन्द्रीय रूप में किया गया है। सभ्यता के आरम्भ से लेकर आज के आधुनिक वैश्वीकरण के दौर तक फैशन, कला जगत में नारी को केन्द्रीय स्थान मिला हुआ है। वैश्वीकरण ने पूँजीवाद व बाजारवाद को बढ़ावा दिया। बाजार ने विज्ञापन व फैशन जगत में नारी का भरपूर प्रयोग किया। यह प्रयोग आज भी निरंतर जारी है। इससे नारी की आर्थिक स्थिति में तो सुधार हुआ किन्तु उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा और गरिमा को ठेस पहुंची। इस बाजारवाद व विज्ञापन जगत ने नारी को एक उपभोग वस्तु का स्वरूप प्रदान किया। इसका खामियाजा नारी को समाज में अपने प्रति बढ़ती यौन हिंसा व शोषण के अन्य रूपों में भी देखने को मिलता है। विद्वानों का एक वर्ग ऐसा भी कहता है। अतः आवश्यकता नारी के आर्थिक के साथ सामाजिक स्तर को ऊँचा करने की है न कि केवल बाजार में एक आर्थिक वस्तु की तरह पेश करने की है।
यद्यपि सरकार व अन्य प्रमुख संगठनों द्वारा इस दिशा में निरन्तर प्रयास किया जा रहा है। 11वीं योजना तथा 12वीं योजना में समावेशी विकास तथा तीव्र समावेशी विकास के साथ अनवरतता को केन्द्रीय विषय बनाया गया है। यह महिला के विकास के बगैर सम्भव नहीं है। यद्यपि यह सत्य है कि समाज में महिलाओं की भूमिका में परिवर्तन की गति अत्यन्त धीमी है, तो भी यह महत्वपूर्ण है। आज आर्थिक क्षेत्रों में इंदिरा नूयी, चंदा कोचर......, राजनीतिक क्षेत्र में सुषमा स्वराज, सोनिया गाँधी, उमा भारती, मायावती, वसुंधरा राजे सिंधिया, जयललिता, ममता बनर्जी......, कला जगत में गीत-संगीत व फिल्मी जगत में लता मंगेशकर, ऐश्वर्यराय, माधुरी दीक्षित....., खेल जगत में सानिया मिर्जा, अंजु बॉबी जार्ज, एम.सी मैरीकॉम, सायना नेहवाल, ज्वाला गट्टा, स्वयं सेवी संस्थाओं में मेघा पाटकर....... जैसे प्रमुख नाम हैं। यद्यपि इनके साथ अन्य कुछ प्रमुख नाम भी है जो संख्या में कम होते हुए भी महिलाओं की समाज में बदलती भूमिका तथा उनकी नयी चेतना को बताती है। आज महिलाएँ शिक्षा, स्वास्थ्य, खेल, शासन, प्रशासन, मीडिया व कला जगत के क्षेत्र में निरन्तर आगे बढ़ रही है किन्तु उनके विकास की गति को बढ़ाने की आवश्यकता है। जिससे समाज में महिलाओं को समतुल्य स्थान मिल सके और समाज का संतुलित विकास हो सकें। समाज में महिलाओं की प्रमुख भूमिका निम्न प्रकार है-

विभिन्न व्यवसायों में महिला की भूमिका

समाज में विभिन्न व्यवसायों में महिलाओं की भूमिका पहले के तुलना में आज बढ़ी है। जिसका प्रमुख कारण आज का बदलता सामाजिक परिदृश्य तथा महिला सशक्तिकरण (Women Empowerment) से सम्बन्धित कार्यक्रमों के प्रभाव को माना जा सकता है। आज महिलाएं शिक्षक, डाक्टर, वकील, राजनीतिक, खिलाड़ी, वैज्ञानिक, प्रबन्धक, विश्लेषक, कई प्रमुख राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के प्रमुख, स्वयं सहायता समूहो के प्रमुख, अभिनेत्री, लेखिका.....आदि की भूमिका में पहले की तुलना में अधिक नजर आती है। किन्तु वहीं यह भी देखने को मिलता है कि महिलाओं के साथ व्यावसायिक स्तर पर भेदभाव आज भी किया जा रहा है। सैद्धान्तिक स्थिति कुछ भी हो किन्तु व्यावहारिक स्तर पर किये गये कई सर्वे यह बताते है कि विश्व के सभी भागों में महिलाओं के साथ यौन हिंसा, भेदभाव, शोषण की प्रक्रिया जारी है। जिसे खत्म करने की आवश्यकता है। जिसके लिए कठोर कानून के साथ उसे लागू किये जाने की आवश्यकता है।

कला व सांस्कृतिक कार्यो में महिलाओं की भूमिका

कला व सांस्कृतिक कार्यों में पुरूषों की तुलना में महिलाओं की अधिक प्रमुख भूमिका पायी जाती है। वर्तमान में सिनेमा, फैशन जगत, विज्ञापन जगत, कला के अन्य रूपों में महिला की भूमिका केन्द्रीय बनती जा रही है, किन्तु इसके साथ इसका नकारात्मक पहलू यह भी है कि उपर्युक्त के प्रभाव स्वरूप महिला की भूमिका मात्र एक उपभोग वस्तु (Only a Consumption Good) की बनती जा रही है। महिला की उपभोगवादी भूमिका के लिए बाजार सर्वाधिक जिम्मेदार है। जिसमें उपभोग वादी संस्कृति को तेजी से बढ़ावा दिया तथा महिला को एक उपभोग वस्तु के रूप में लोगों के सामने प्रस्तुत किया। अनेक विचारकों, समाज विज्ञानियों तथा विद्वानों की राय है कि इसमें महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों को बढ़ावा दिया है विशेषकर यौन अपराधों को। अतः आवश्यकता इस प्रवृत्ति को बदलने की है। वर्तमान में किये गये कई सर्वे बताते है कि प्रशासक, राजनीतिक तथा व्यावसायिक.......के रूप में महिलायें अपने कार्यों के प्रति अधिक समर्पित, ईमानदार व संवेदनशील रही है। यही कारण है कि भारत सरकार द्वारा समाज में महिलाओं की भूमिका विभिन्न व्यावसायों में बढ़ाने पर जोर दिया जा रहा।

उत्पादक कार्यों व बाजारीकरण में महिलाओं की भूमिका

समाज के उत्पादक कार्यों में आज भी महिलाओं की भूमिका पुरूषों की तुलना में सीमित पायी जाती है। ऐसा महिलाओं के प्रति होने वाले भेदभाव के कारण है। जहाँ घरेलू कार्यों को उत्पादक कार्यों के रूप में नहीं समझा जाता है। वही जहाँ पर परिवार में पुरूषों की आय अच्छी होती है। महिलाओं के बाहर जाकर कार्य करने को निरूत्साहित किया जाता है। अतः महिलायें घर से बाहर जाकर आय अर्जित करने में अपने को असमर्थ पाती है। वही विश्व के कुछ देशों में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद महिलाओं की संख्या कारखानों, फैक्ट्रियों तथ अन्य उत्पादक कार्यों में तेजी से बढ़ी है किन्तु महिला के प्रतिभेदभाव यहाँ भी पाया जाता है यद्यपि उनकी मात्रा कम हो सकती है। दूसरी ओर बाजारीकरण का मूल उपभोग में निहीत है। बाजार ने महिलाओं की भूमिका के विविधिकरण के साथ उनकों एक उपभोग वस्तु की तरह समाज के सामने प्रस्तुत किया।
अतः यह कह सकते है कि उत्पादक कार्यों में महिलाओं की भूमिका पहले की तुलना में बढ़ी है जिससे उनके विकास तथा सशक्तिकरण को बढ़ावा मिला है, किन्तु इसके साथ उनके प्रति अपराध भी बड़ा है जिससे उनमें असुरक्षा की भावना भी बढ़ी है। अतः आवश्यकता महिलाओं को पर्याप्त सुरक्षा तथा बेहतर कार्य वातावरण उपलब्ध कराने की है जिससे आधी आबादी की क्षमता का भरपूर उपयोग समाज को समृद्ध तथा सशक्त बनाने के लिए किया जा सके।

वैश्वीकरण के दौर में महिलाओं की भूमिका

यद्यपि वैश्वीकरण एक आर्थिक संकल्पना है तो भी इसके साथ सामाजिक व सांस्कृतिक परिवर्तन देखने को मिलते है। यूँ कि आर्थिक दृष्टिकोण में लोगों (महिला व पुरूष) को एक उत्पादक साधन समझा जाता है। अतः इसने महिला तथा पुरूषों की भूमिका में महत्वपूर्ण बदलाव किया अब महिलायें घरों से बाहर निकलकर राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय जगत में विभिन्न भूमिका में नजर आने लगी। कई महिलायें अब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रमुख पदाधिकारियों के रूप से प्रभावित किया तथा उनमें उदारता का प्रसार किया। जिसका सकारात्मक असर महिलाओं की भूमिका पर भी देखने को मिलता है। आज महिलायें सांस्कृतिक कार्यक्रमों, कला, साहित्य, सिनेमा, खेल व अन्य में भाग लेने के लिए एक देश से दूसरे देश में आसानी से आ जा रही है। जिससे विभिन्न समाजों व संस्कृतियों में लोगों को एक-दूसरे के प्रति विभिन्न समाजों व संस्कृतियों में लोगों को एक-दूसरे के प्रति बेहतर समझ पैदा होती है और 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की धारणा को बल मिलता है। किन्तु वही कई विद्वानों का तर्क है कि वैश्वीकरण ने महिलाओं की स्थिति पहले की तुलना में खराब की है। उनका तर्क है कि वैश्वीकरण के दौर में भी महिलाओं से भेदभाव जारी है। महिलाओं को पुरूषों की तुलना में विकास के अवसर कम मिलते है। वैश्वीकरण ने नगरीकरण और औद्योगिकरण को बढ़ावा दिया जिसमें महिलाओं की भूमिका तथा भागीदारी पुरूषों की तुलना में कम पायी जाती है। अतः प्रमुख सामाजिक समस्याओं, गरीबी, बेरोजगारी, असमानता तथा भूखमरी, शोषण आदि को बढ़ावा मिलता है। जिसका सबसे प्रमुख कारण अवसर की असमानता तथा महिलाओं का सशक्त न होना है। इसके साथ वैश्वीकरण ने महिला अपराधों को भी बढ़ावा दिया है।
अतः उपर्युक्त के विश्लेषण द्वारा हम पाते है कि जहाँ एक ओर समाज में महिलाओं की भूमिका में शिक्षक, डॉक्टर, वकील, खिलाड़ी, अभिनेत्री, लेखिका, वैज्ञानिक........में सकारात्मक रूप से पहले की तुलना में वृद्धि देखने को मिलती है तो वही दूसरी ओर, महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध खासकर यौन हिंसा, कार्यस्थल पर शोषण, असमानता, भेदभावपूर्ण व्यवहार......आदि भी जारी है। जिसे समाप्त करने की आवश्यकता है और महिला को पुरूषों के समान अधिकार व भूमिका दिलाने के लिए महिला सशक्तिकरण तथा उससे सम्बन्धित कार्यक्रमों को कठोरता से लागू किये जाने की आवश्यकता है। उपर्युक्त के द्वारा ही हम वर्तमान समाज में महिलाओं की भूमिका का सदुप्योग कर पायेंगें तथा महिला के विकास को बढ़ाकर समाज को संतुलन प्रदान कर सकेंगे।

महिलाओं की समस्याएँ
भारत में महिलाएं लगभग प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों की तुलना में पिछड़ी हुई हैं। सामाजिक व शारीरिक दृष्टि से जहां इन्हें पुरुषों की तुलना में कमजोर माना जाता हैं, वहीं दूसरी तरफ गरीबी, बेरोजगारी आदि की समस्या का भी महिलाओं पर अपेक्षाकृत अधिक प्रभाव पड़ता है, क्योंकि इन समस्याओं का सीधा प्रभाव प्रथमतः महिलाएं ही झेलती हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य आदि के क्षेत्र में भी महिलाओं को कम अवसर मिलता है। महिलाओं के विरुद्ध हिंसा की समस्या, संचार माध्यमों में महिलाओं की बहुत सीमित या नगण्य भूमिका है। संसद और विधानमंडलों में महिलाओं का प्रतिशत लगातार 10 से नीचे रहा है, मंत्रिमंडल में सामान्यतः उनकी अत्यंत अल्प भागीदारी रही है। इसके अलावा उच्च सरकारी पदों में भी महिलाओं की संख्या (विशेषकर क्लास-I और क्लास-II के पदों पर) काफी कम रही है। इन तथ्यों को देखते हुए सरकार ने महिलाओं के विकास के लिए कई कदम उठाये हैं।
नौवीं पंचवर्षीय योजना से लेकर वर्तमान की 12वीं योजना तक सरकार द्वारा महिला सशक्तिकरण की दिशा में निरन्तर कदम उठाया जा रहा है। 'समावेशी विकास' की बात हो या 'महिला बैंक' या विभिन्न सेवाओं व क्षेत्रों में छूट द्वारा महिला भागीदारी को बढ़ाने की, उपर्युक्त सभी द्वारा महिलाओं को घर, समाज.........आदि में एक समतुल्य स्थान दिलाने तथा उनके सशक्तिकरण का प्रयास निरन्तर किया जा रहा है।
हमारे संविधान में देश के समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता के साथ गरिमापूर्ण जीवन को सरकार द्वारा सुनिश्चित करने की बात कही गयी है। अतः उपर्युक्त के सम्बन्ध में महिलाओं को कुछ 'संवैधानिक अधिकार' (Constitutional Rights of Women) दिये गये है। इसके अलावा संसद तथा राज्यविधानमंडलों के द्वारा कुछ ‘वैधानिक अधिकार' विभिन्न कानून द्वारा प्रदान किया गया है।
महिलाओं से सम्बन्धित कुछ प्रमुख संवैधानिक अधिकार निम्न है
  • अनु० [15(1)] राज्य द्वारा लिंगिक भेदभाव नही होगा।
  • अनु० [15(3)] राज्य महिलाओं के लिए विशेष उपबंध करेगा।
  • अनु० [16(2)] रोजगार के लिए लिंगिक भेदभाव न करना।
  • अनु० [23(1)] मानव की अवैध तस्करी व बालश्रम पर रोक।
  • अनु० (42) मातृत्व अवकाश अनु० [243 D(3)] पंचायत में 1/3 स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित।
  • अनु० [243 D(4)] पंचायत अध्यक्ष का 1/3 स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित।
  • अनु० [243 T(3)] नगर निकाय में 1/3 स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित इसके अलावा। 
  • अनु० 39(A), 39(D), 39(E), 42, 51A(E) तथा 243T(4) में भी महिलाओं को विशेष अधिकार दिये गये है।
महिलाओं को दिये गये कुछ वैधानिक अधिकार निम्न है-
  • घरेलू हिंसा से महिला सुरक्षा अधिनियम (2005)
  • अनैतिक व्यापार (निरोधक) अधिनियम (1996) 
  • सती आचरण निवारक अधिनियम (1987)
  • दहेज प्रतिषेध-अधिनियम (1961)
  • मातृत्व लाभ अधिनियम (1961)
  • गर्भ चिकित्सकीय समापन अधिनियम (1971)
  • गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम (1994)
  • समान पारिश्रमिक अधिनियम (1976)
  • मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम (1939)
  • भारतीय दंडसंहिता (1860) (दहेज, हत्या, बलात्कार)
  • महिलाओं के लिए राष्ट्रीय आयोग अधिनियम (1990)
  • आपराधिक प्रक्रिया संहिता (1973)
  • भारतीय इसाई विवाह अधिनियम (1972)
  • वैधानिक सेवा प्राधिकार अधिनियम (1987)
  • महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए राष्ट्रीय नीति (2001)
  • हिन्दु विवाह अधिनियम (1955)
  • कार्यस्थक पर यौन उत्पीड़न से महिलाओं को संरक्षण विधेयक, 2010 को सितम्बर 2012 में लोकसभा द्वारा पारित किया गया।
  • हिन्दु उत्तराधिकार अधिनियम (1956)।
  • न्यूनतम मजदूरी अधिनियम (1948)
  • राष्ट्रीय महिला सशक्तीकरण मिशन व सैंडर बजट
  • खनन अधिनियम (1952) तथा कारखाना अधिनियम (1948)
उपर्युक्त के अलावा सरकार द्वारा कई अन्य वैधानिक अधिकार भी महिलाओं के दिया गया है।

राष्ट्रीय महिला सशक्तिरकरण नीति (2001)
भारत के संविधान में प्रस्तावना, मौलिक अधिकारों, मौलिक कर्तव्यों और नीति-निर्देशक सिद्धांतों में महिलाओं को समानता का अधिकार प्रदान किया गया है। साथ ही, राज्यों को कहा गया है कि महिलाओं के साथ किसी भी तरह के भेदभाव को रोकने हेतु उचित कदम उठाये जायें।
यूं तो आजादी के बाद से ही महिलाओं की स्थिति में सकारात्मक बदलाव आने लगे, लेकिन सरकारी तौर पर पांचवीं पंचवर्षीय योजना (1974-78) में महिलाओं से जुड़े मुद्दों को विकास व कल्याणकारी योजनाओं के तहत उठाया गया। बाद में, संसदीय कानून, 1990 के द्वारा राष्ट्रीय महिला आयोग का गठन किया गया। वर्ष 1993 में 73वें और 74वें संविधान संशोधन के द्वारा पंचायतों और नगरपालिकाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था करके महिला सशक्तिकरण की दिशा में ऐतिहासिक कदम उठाया गया। इसके साथ ही भारत ने 1993 में महिलाओं से जुड़े एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता महिलाओं के प्रति सभी प्रकार के भेदभाव मिटाने वाला समझौता' (CEDAW: Convention on Elimination of All forms of Discrimination Against Women) पर हस्ताक्षर किया। साथ ही, महिलाओं से जुड़े मैक्सिको प्लान ऑफ एक्शन (1975), नैरोबी फॉरवर्ड लुकिंग स्ट्रेटजीज (1985), बिजिंग घोषण (1995) एवं यूएनजीए (UNGA) डॉक्यूमेंट जैसे अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व के समझौतों के विचारों और निर्णयों को अमल में लाना शुरू किया।
भारत सरकार ने नयी सहस्त्राब्दी के प्रारंभ में महिला सशक्तिकरण पर जोर देने के लिए वर्ष 2001 को 'नारी सशक्तिकरण वर्ष' के रूप में मनाने की घोषणा की थी। इसके पीछे की दृष्टि यह थी कि महिलाएं पुरुषों के समान कदम से कदम मिलाकर हर क्षेत्र में बढ़ सकें।
मानव संसाधन मंत्रालय और महिला एवं बाल विकास विभाग द्वारा तैयार 'राष्ट्रीय महिला सशक्तिकरण नीति 2001' को समस्त देश में लागू किया गया। इस नीति के प्रमुख लक्ष्य इस प्रकार हैं-
  • महिलाओं को पूर्ण रूप से सबल बनाने हेतु सकारात्मक आर्थिक एवं सामाजिक नीतियां बनाकर अनुकूल वातावरण निर्माण करना।
  • मानवाधिकार और मौलिक स्वतंत्रता के उपभोग के लिए राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और नागरिक जैसे सभी क्षेत्रों में सकारात्मक कदम उठाना।
  • देश के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक जीवन में भागीदारी और निर्णय करने हेतु समान सुविधायें मुहैया कराना।
  • स्वास्थ्य की देखभाल, प्रत्येक स्तर पर समान शिक्षा, कैरियर एवं व्यावसायिक/पेशेवर/वृत्तिमूलक मार्गदर्शन, रोजगार, समान मानदेय (Equal Remuneration), सामाजिक सुरक्षा, एवं सार्वजनिक कार्यालय आदि में महिलाओं को समान पहुंच प्रवेश उपलब्ध कराना।
  • महिलाओं के साथ भेदभाव को दरकिनार करते हुए विधिक व्यवस्था/पद्धति को सशक्त बनाना।
  • महिलाओं और पुरुषों की भागीदारी और संलग्नता के जरिये सामाजिक प्रवृत्तियों और सामुदायिक व्यवहार में बदलाव लाना।
  • विकास प्रक्रिया में लैंगिक परिदृश्य को मुख्यधारा में लाना।
  • लड़कियों, बच्चियों और महिलाओं के विरुद्ध हर प्रकार की हिंसा और भेदभाव का उन्मूलन करना।
  • सिविल सोसायटी, खासकर महिला संगठनों को सहभागी बनाना व उन्हें मजबूत करना। इस 'राष्ट्रीय महिला सशक्तिकरण नीति 2001 को केन्द्र सरकार ने 26 जून, 2003 को मंजूरी देकर लागू करने की घोषणा की। 

महिला सशक्तिकरण हेतु चलाये गये विशेष कार्यक्रम
देश में महिला सशक्तिकरण को मूर्त रूप देने के लिए महिलाओं के शैक्षिक, स्वास्थ्य एवं समाजिक स्तर में सुधार की अनिवार्यता को देखते हुए केन्द्र सरकार द्वारा विभिन्न कार्यक्रम चलाये जा रहें है। जिनका विवरण इस प्रकार है

उज्जवला
महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक अभिनव प्रयास करते हुए केंन्द्र द्वारा 4 दिसंबर 2007 को महिलाओं के लिए उज्जवला नामक योजना की शुरूआत की गयी। इस योजना के अंतर्गत महिलाओं की खरीद-फरोख्त पर रोकथाम व्यावसायिक तथा कार्यस्थल पर यौन शोषण की शिकार हुई महिलाओं के उद्धार, पुनर्वास तथा समाज की मुख्यधारा में उन्हें फिर से शामिल करने के लिए व्यापक कार्यक्रमों की घोषणा की गयी है। इसके अंतर्गत विभिन्न सरकारी तथा गैरसरकारी एजेंसियों के माध्यम से पीड़ित महिलाओं को शोषण स्थल से सुरक्षित रूप में मुक्त कराना, बुनियादी सुविधाओं सहित आवास उपलब्ध कराना, चिकित्सीय देखभाल, कानूनी परामर्श तथा सहायता के साथ-साथ जीविकोपार्जन में सहयोग करना शामिल है। इस योजना को समाज कल्याण विभाग, महिला एवं बाल विकास विभाग द्वारा सरकारी तथा गैर सरकारी संगठनों के माध्यम से लागू किया जाता है।

स्वाधार
यह योजना केन्द्र सरकार द्वारा 2 जुलाई 2001 से आरंभ की गयी। इसका उद्देश्य गंभीर परिस्थितियों में स्थित महिलाओं को समग्र व समन्वित सहायता प्रदान करना है। परिवार से अलग कर दी गयी महिलाएं, जेल से मुक्त करायी गयी महिलाएं/लड़कियां आदि इस योजना की पात्र है। इस योजना में भोजन, आवास/आश्रय, स्वास्थ्य सेवा, कानूनी मदद और समाजिक व आर्थिक पुनर्वास की सुविधाएं उपलब्ध करायी जाती है। यह योजना केन्द्र व राज्य सरकारों के सम्मिलित संसाधनों से पंचायतों एवं स्वयं सहायता समूहों तथा गैर-सरकारी संगठनों, के सम्मिलित संसाधनों से पंचायतों एवं स्वयं सहायता समूहों तथा गैर सरकारी संगठनों के माध्यम से चलायी जा रही है।

स्वावलंबन योजना
महिलाओं को प्रशिक्षण के माध्यम से रोजगार उपलब्ध कराना इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य है। इसमें मुख्यतः कंप्यूटर प्रोग्रामिंग, मेडिकल ट्रासक्रिप्सन, टेलिविजन मरम्मत, हथकरघा व लिपिकीय क्षेत्र में प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। 1979 में शुरू की गयी नोराड महिला प्रशिक्षण योजना को 1982 में स्वावलंबन नाम से शुरू किया गया। इस योजना के लक्ष्य समूह में गरीब और जरूरतमंद महिलाएं, समाज के कमजोर वर्ग की महिलाएं शामिल की जाती है। इस योजना के अंतर्गत गैर सरकारी संगठनों सार्वजनिक क्षेत्र के निगमों स्वायत्त संगठनों को आर्थिक सहायता उपलब्ध करायी जाती है।

सर्वशक्ति
यह योजना 1998 से शुरू की गयी थी। केन्द्र सरकार द्वारा प्रायोजित तथा विश्व बैंक अंतर्राष्ट्रीय कृषि विकास कोष के सहयोग से यह योजना बिहार, हरियाणा, गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, झारखड, छत्तीसगढ़ तथा उत्तरांचल में महिला विकास निगमों तथा स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से संचालित की जा रही है। इस योजना के अंतर्गत अब तक 57 जिलों के 1210 गांवों और शहरी बस्तियों में 17 हजार से अधिक स्वयं सहायता समूहों का गठन किया जा चुका है। महिलाओं में आत्मनिर्भरता और आत्माविश्वास बढ़ाने तथा स्वरोजगार की दिशा में उन्हें प्ररित करने में स्वयं सहायता समूह इस योजना के अंतर्गत काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहें है। पूर्व में संचालित इंदिरा महिला तथा महिला समृद्धि योजना को इस योजना में सम्मिलित कर दिया गया है। इस योजना के अंतर्गत अब तक 1200 से अधिक समूहों को पंजीकृत किया जा चुका है।

स्वयंसिद्धा
12 जुलाई 2001 को केन्द्र सरकार द्वारा शुरू की गयी स्वयंसिद्धा योजना स्वयं सहायता समूह आधारित योजना है। देश के 650 प्रखंडों में 116 करोड़ रूपये की लागत से शुरू किया गया है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत आत्मनिर्भर महिलाओं का स्वयं सहायता समूह गठित किया जाता है। ग्रामीण महिलाओं को इस कार्यक्रम के अंतर्गत स्वास्थ्य, शिक्षा, कानूनी अधिकार, आर्थिक गतिविधियों, घरेलू बचत इत्यादि के प्रति जागरूक किया जाता है। इसके अंतर्गत महिलाओं को लघु ऋण उपलब्ध कराकर स्वरोजगार हेतु भी प्रेरित किया जाता है।

महिला सामाख्या कार्यक्रम
इस कार्यक्रम के अंतर्गत महिलाओं को अपने अधिकारों एवं कर्त्तव्यों के प्रति जागरूक करने हेतु विभिन्न प्रकार की योजना तैयार की जाती है। इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य ऐसी योजनाएं बनाना तथा उसे कार्यान्वित करवाना है। जिनके माध्यम से महिलाओं को शिक्षित किया जा सके ताकि वे अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो सकें। महिलाओं को परंपरागत और रूढ़िवादी भूमिका से ऊपर उठकर एक समर्थ और निर्णय लेने वाली सशक्त नारी के रूप में स्थापित करने के उद्देश्य को लेकर चल रहे इस कार्यक्रम का मुख्य आधार शिक्षा का विस्तार है। भारत में यह कार्यक्रम नीदरलैंड सरकार के सहयोग से चलाया जा रहा है।

आशा योजना
फरवरी 2005 को केन्द्र सरकार द्वारा इस योजना की घोषणा की गयी। योजना के अंतर्गत ग्रामीण महिलाओं के स्वास्थ्य की देखभाल करने के लिए प्रत्येक गांव में स्थानीय स्तर पर एक आशा कार्यकत्री की तैनाती का प्रावधान है। योजना को राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के अंतर्गत प्रथम चरण में 15 राज्यों में मई 2005 से लागू किया गया है।

स्वर्णिम योजना
पिछड़े वर्ग की ऐसी महिलाएं जो गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले परिवार की है। उन्हें आर्थिक रूप से सक्षम बनाने के उद्देश्य से भारत सरकार द्वारा इस योजना का संचालन किया जा रहा है। इस योजना के अंतर्गत पिछड़े वर्ग की महिलाओं को 50 हजार रूपये तक का ऋण 4 प्रतिशत वार्षिक दर पर दिया जाता है। योजना के अंतर्गत महिला उद्यमियों को ऋण बपिसी हेतु 12 बर्ष की अवधि दी जाती है 

बालिका प्रोत्साहन योजना
वर्ष 2006-07 के वार्षिक बजट में घोषित इस योजना के अंतर्गत कक्षा 8 पास करने वाली बालिका को कक्षा 9 में नामाकित होने पर 3000 रूपये की एकमुश्त धनराशि दी जाती है।

इन्द्रागांधी इकलोती बालिका छात्रवृत्ति योजना
देश में बढ़ते लैंगिक असंतुलन को देखते हुए केन्द्र सरकार द्वारा इकलौती कन्या मुफ्त शिक्षा योजना शुरू की गयी है। वर्ष 2005-06 में शुरू इस योजना के अंतर्गत माता-पिता की इकलौती कन्या संतान को 6 से 12 कक्षा तक निःशुल्क शिक्षा तथा विश्वविद्यालय स्तर पर इंदिरा गांधी छात्रवृत्ति योजना के अंतर्गत छात्रवृत्ति दिये जाने का प्रावधान है।

अल्पावधि प्रवास गृह योजना
1969 में शुरू की गयी इस योजना के अंतर्गत बहिष्कृत अथवा परित्यक्ता महिलाओं के लिए पुनर्वास सुविधा उपलब्ध करायी जाती है। वर्ष 1999 से यह योजना केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड के अधीन है।

परिवार परामर्श केन्द्र
1984 से केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड के अधिन स्वैच्छिक संगठनों के माध्यम से चल रही इस योजना के अंतर्गत पारिवारिक असंयोजन की समस्या से जूझ रही महिलाओं/बालिकाओं को पुनर्वास सम्बंधि सहायता उपलब्ध करायी जाती है। इस तरह की सहायता पुलिस मुख्यालयों, महिला कारागार, विवाह पूर्व परामर्श केन्द्रों पर भी उपलब्ध करायी जा रही है।

बालिका समृद्धि योजना (Balika Samriddhi Yojna BSY)
स्वाधीनता की 50 वीं वर्षगांठ पर बालिकाओं की स्थिति में सुधार हेतु प्रधानमंत्री द्वारा बालिका समृद्धि योजना की घोषणा 15 अगस्त 1997 को की गयी, जबकि इसका क्रियान्वयन 2 अक्टूबर 1997 से प्रारंभ हुआ। बालिका समृद्धि योजना के अंतर्गत गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाले परिवार में कन्या के जन्म के समय 500 रूपये की एकमुश्त सहायता सरकार की ओर से प्रदान की जाती है। इसके अतिरिक्त कक्षा 1 से 10 तक 1000 रूपये प्रतिवर्ष सहायता सरकार द्वारा उपलब्ध कराया जाता है। इस योजना का लाभ 11 हजार रूपये वार्षिक आय से कम आयु वाले परिवारों को ही उपलब्ध करायी जाती है। बालिका समृद्धि योजना के अंतर्गत दी जाने वाली सहायता प्रति परिवार दो कन्याओं को ही उपलब्ध होगी। इस योजना के अंतर्गत आंगनवाड़ी केन्द्र किशोरी शक्ति योजना में 11 से 18 वर्ष की किशोरियों में पोषाहार साक्षरता तथा व्यवसायिक दक्षता के रूप में समग्र विकास किया जाता है। किशोरी पोषाहार कार्यक्रम में पोषाहार से वंचित किशोरियों (11 से 19 वर्ष) को उनकी वित्तीय स्थिति को ध्यान में रखें बिना प्रतिमाह 6 किग्रा. खाद्यान्न मुफ्त उपलब्ध कराया जाता है।

किशोरी शक्ति योजना
समेकित बाल विकास सेवा योजना के तीसरे फेज के अंतर्गत संचलित इस योजना में ग्रामीण तथा शहरी किशोरियों को स्वास्थ्य शिक्षा के साथ-साथ व्यावसायिक प्रक्षिशण भी दिया जाता है। इस योजना के दो 'प्रभाग बालिका मंडल योजना' तथा 'गर्ल टू गर्ल एप्रोच योजना' है। पथम योजना में 15-18 आयु वर्ग की बालिकाओं को शामिल किया जाता है।

राष्ट्रीय पोषाहार मिशन
15 अगस्त 2001 से चालू इस योजना के अंतर्गत गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाली गरीब महिलाओं को सस्ते दर पर खाद्यान्न उपलब्ध कराया जाता है।

कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय योजना
(KGBVY) इसकी शुरूआत जुलाई 2004 में प्रमुखतः अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अन्य पिछड़े वर्गो तथा अल्पसंख्यकों के बालिकाओं के लिए उच्च प्राथमिक स्तर के आवासीय विद्यालयों की स्थापना के लिए की गयी। इसका उद्देश्य लक्षित वर्ग में शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना तथा उनके बच्चों को शिक्षित करना है। अप्रैल 2007 में इसे सर्वशिक्षा अभियान में मिला दिया गया।

महिला समृद्धि योजना
2 अक्टूबर 1993 को केन्द्र सरकार ने ग्रामीण महिलाओं में बचत की प्रवत्ति को प्रोत्साहित करके उन्हें आत्मनिर्भर बनाने तथा आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र बनाने के लिए महिला समृद्धि योजना का शुभारम्भ किया। इस योजना के अंतर्गत ग्रामीण क्षेत्र की प्रत्येक महिला समृद्धि योजना खाता अपने नाम से खोल सकती है। इस खाते में वह अपनी इच्छा और सामर्थ्य के अनुरूप कितनी भी मात्रा में धनराशि जमा कर सकती है। प्रतिवर्ष 300 रूपये तक की राशि पर सरकार 25 प्रतिशत राशि प्रोत्साहन के रूप में देती है। योजना के प्रारंभ से लेकर नवंबर 1995 तक 132 लाख खाते महिलाओं द्वारा देश के विभिन्न भागों में खोले जा चुके थे। जिसमें 135 करोड़ रूपये जाम किये गये थे।

इंदिरा महिला योजना
20 अगस्त 1995 को केन्द्र सरकार ने महिलाओं में जागरूकता लाने तथा उनको आय के संसाधन उपलब्ध कराने के लिए इंदिरा विकास योजना का सूत्रपात किया। इस योजना के अंतर्गत महिलाओं से संबंधित विभिन्न योजनाओं के बीच समन्वय स्थापित करने तथा महिला कोष के समुचित उपयोग सुनिश्चित करने का विशेष प्रावधान है। इसमें गांवों और शहरी झुग्गी बस्तियों में महिला समूह गठित किये जाते है। गठित महिला समूह आंगनबाड़ी स्तर पर गठित इंदिरा महिला केन्द्र के सहयोग से कार्य करते है। इंदिरा महिला योजना में सड़क निर्माण, विद्युतीकरण, गैर पारस्परिक ऊर्जा स्रोत बढ़ाना, सामाजिक वानिकी तथा शिक्षा और स्वास्थ्य कार्यक्रम भी सम्मिलित किया गया है।

महिला प्रशिक्षण एवं रोजगार सहायता कार्यक्रम
महिलाओं को रोजगार और प्रशिक्षण देने के लिए महिला प्रशिक्षण एवं रोजगार सहायता कार्यक्रम (STEP: Support to Training and Empoyment Programme) की शुरूआत 1986-87 में केन्द्र सरकार द्वारा की गयी थी। योजना का उद्देश्य अल्प आय वाली तथा साधनविहीन महिलाओं को प्रशिक्षण के 8 परंपरागतं क्षेत्रों कृषि, पशुपालन, मत्स्यपालन, डेयरी, हैडलूम, हस्तशिल्प, खादी और ग्रामोद्योग तथा रेशम कीट पालन में स्वरोजगार उपलब्ध करना है। यह योजना सार्वजनिक क्षेत्र के संगठनों राज्य निगमों, जिला ग्राम विकास अभिकरणों स्वैच्छिक सगंठनों के माध्यम से संचालित की जा रही है। दिंसबर 2006 तक इस योजना के अंतर्गत 18 हजार महिलाओं को लाभ पहुंचाया जा चुका है। योजना के अंतर्गत परियोजना लागत का 90 प्रतिशत केन्द्र सरकार एवं 10 प्रतिशत कार्यान्वयन एजेंसियों द्वारा वहन किया जाता है।

जननी सुरक्षा योजना
1 अप्रैल 2005 से शुरू की गयी जननी सुरक्षा योजना पूर्व में चल रहीं मातृत्व लाभ योजना का संशोधित रूप है। 2005-06 के बजट में इसे राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन योजना के एक उपांग के रूप में घोषित किया गया है। इसके अंतर्गत 19 वर्ष से अधिक उम्र की गर्भवती महिलाओं को प्रथम दो जीवित प्रसर्वो पर आर्थिक सहायता उपलब्ध करायी जाती है।

समेकित बाल विकास सेवा योजना
इस योजना का उद्देश्य बालकों का सर्वगीण विकास करना है। इस योजना के अंतर्गत 6 वर्ष तक के बच्चों को समुचित पोषण आहार उपलब्ध कराया जाता है। देश के विभिन्न हिस्सों में आंगनवाडी के माध्यम से इस योजना का लाभ पहुंचाया जा रहा है। इस योजना के अंतर्गत आंगनवाड़ी केन्द्रों पर निम्नलिखित सुविधाएँ प्रदान की जाती है- पोषण, आहार, स्वास्थ्य जांच, प्राथमिक स्वास्थ्य की देखभाल/परामर्श सेवाएं, टीकाकरण, पोषण तथा स्वास्थ्य शिक्षा, स्कूल पर्व औपचारिक शिक्षा।

विल योजना
इस योजना के अंतर्गत ग्रामीण किशोरियों तथा महिलाओं को साक्षर बनाया जाता है। इसके अतिरिक्त स्वास्थ्य शिशु देखभाल 'परिवार कल्याण' दैनिक गृह प्रबंध इत्यादि विषयों में महिलाओं को प्रशिक्षण भी प्रदान किया जाता है। शिक्षा के प्रति जागरूकता लाने के लिए गाँवों में वाचनालय सुविधा उपलब्ध करायी जाती है।

जीवन भारती महिला सुरक्षा योजना
8 मार्च 2003 से शुरू इस योजना के अंतर्गत भारतीय जीवन बीमा निगम द्वारा 18-50 वर्ष आयु की ग्रामीण महिलाओं को गंभीर बीमारियों एवं उनके शिशुओं की अपंगता आदि की स्थितियों में सुरक्षा कवच प्रदान किया जाता है।

वंदेमातरम् योजना
इस योजना के अंतर्गत प्रत्येक माह की 9 तारीख को नीजि चिकित्सकों द्वारा गर्भवती महिलाओं को चिकित्सीय परामर्श तथा गर्भावस्था के दौरान दी जाने वाली पोषक औषाधियों को उपलब्ध कराया जाता है।

सबला
इस योजना को 2010 में 200 जिलों में प्रारंभ किया गया। 11 से 18 वर्ष की किशोरियों को वर्ष के 300 दिन पोषणयुक्त राशन दिया जायेगा।
इस योजना में केन्द्र व राज्य 50:50 के अनुपात में वित्तीय भार वहन करेंगे। राजीव गांधी सशक्तिकरण योजना (सबला) में महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय के अलावा ग्रामीण विकास मंत्रालय के आजीविका मिशन तथा स्वास्थ्य मंत्रालय की ग्रामीण स्वास्थ्य योजना को जोड़ने से अब किशोरियों को पोषाहार के अतिरिक्त स्वास्थ्य एवं व्यवसायिक शिक्षा भी दी जायेगी।

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