भारतीय संस्कृति की विशेषताएँ | bhartiya sanskriti ki visheshta

भारतीय संस्कृति विशेषता

किसी समाज, देश अथवा राष्ट्र में निवास करने वाले मानव समुदाय के धर्म, दर्शन, ज्ञान, विज्ञान से सम्बन्धित क्रियाकलाप, रीति-रिवाज, खाने-पीने के तरीके, आदर्श संस्कार आदि के सामंजस्य को ही संस्कृति का नाम दिया जा सकता है या दूसरे शब्दों में मनुष्य अपनी बुद्धि एवं विवेक का प्रयोग कर विचार और कर्म के क्षेत्र में जो सृजन करता है वह संस्कृति कहलाती है.
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संस्कृति शब्द संस्कृत की 'कृ' धातु से 'क्तिन' प्रत्यय और 'सम' उपसर्ग को जोड़कर बना है. सम + कृ + क्ति = संस्कृति. वास्तव में संस्कृति शब्द का अर्थ अत्यन्त ही व्यापक है. कुछ विद्वान् संस्कृति को संस्कार का रूपान्तरित शब्द मानते हैं.
विभिन्न विद्वानों ने संस्कृति की परिभाषाएँ कुछ इस प्रकार दी हैं-
  • रेडफील्ड के अनुसार, "संस्कृति, कला और वास्तुकला में स्पष्ट होने वाले परम्परागत ज्ञान का वह संगठित रूप है, जो परम्परा के द्वारा संरक्षित होकर मानव-समूह की विशेषता बन जाता है."
  • ह्वाइट के अनुसार, "संस्कृति एक प्रतीकात्मक, निरन्तर, संचयी एवं प्रगतिशील प्रक्रिया है."
  • ई. बी. टेलर के अनुसार, "उन सभी वस्तुओं के समूह को जिनमें ज्ञान, धार्मिक विश्वास, कला, नैतिक कानून, परम्पराएँ तथा वे अन्य सभी योग्यताएँ सम्मिलित होती हैं तथा जिन्हें कोई मनुष्य समाज का सदस्य होने के नाते सीखता है, को संस्कृति कहते हैं,"
  • श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के शब्दों में, "संस्कृति जीवन की उन अवस्थाओं का नाम है, जो मनुष्य के अन्दर व्यवहार, लगन और विवेक पैदा करती है. यह मनुष्य के व्यवहारों को निश्चित करती है उनके जीवन के आदर्श और सिद्धान्तों को प्रकाश प्रदान करती है."
  • श्री जवाहरलाल नेहरू ने संस्कृति के सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट करते हुए कहा है कि "संस्कृति का अर्थ मनुष्य का आन्तरिक विकास और उसकी नैतिक उन्नति है, पारस्परिक सद्व्यवहार है और एक दूसरे को समझने की शक्ति है." वस्तुतः संस्कृति से आशय मानव की मानसिक, नैतिक, भौतिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं कलात्मक जीवन की समस्त उपलब्धियों की समग्रता से है.

भारतीय संस्कृति

"विश्व इतिहास में भारतीय संस्कृति का वही स्थान एवं महत्व है जो असंख्य द्वीपों के सम्मुख सूर्य का है." भारतीय संस्कृति अन्य संस्कृतियों से सर्वथा भिन्न तथा अनूठी है. अनेक देशों की संस्कृति समय-समय पर नष्ट होती रही है, किन्तु भारतीय संस्कृति आज भी अपने अस्तित्व में है. इस प्रकार भारतीय संस्कृति सृष्टि के इतिहास में सर्वाधिक प्राचीन है. भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता की अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने मुक्तकंठ से प्रशंसा की है और कहा है-"

भारतीय संस्कृति की विशेषताएं

भारत की भौगोलिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक परिस्थितियाँ अन्य देशों से भिन्न हैं. यही कारण है कि भारतीय संस्कृति अन्य देशों की संस्कृति से भिन्न है.
यहाँ की संस्कृति में धर्म, एवं ललित कलाओं के विशिष्ट बना देते हैं. आध्यात्म, साहित्य विद्यमान तत्व इसे संक्षेप में भारतीय संस्कृति में जो विशेषताएँ दर्शित होती हैं प्राचीन भारतीय संस्कृति के मूलभूत तत्त्व जो आज से हजारों वर्ष पूर्व तक भारतीय संस्कृति के महत्त्वपूर्ण अंग थे आज भी किसी न किसी रूप में भारतीय संस्कृति में विद्यमान है और भारतीय संस्कृति की इन्ही विशेषताओं को ध्यान में रखकर हम प्राचीन भारत की परिस्थिति का आकलन कर सकते है। "भारतीय संस्कृति में धर्म, अध्यात्मवाद, ललितकला ज्ञान, विज्ञान, विविध विद्याए, नीति, विधि-विधान, जीवन प्रणालियां और वे समस्त क्रियाएं और कार्य है जो उसे विशिष्ट बनाते हैं और जिन्होंने भारतीय के सामाजिक और राजनैतिक विचारों को, धार्मिक और आर्थिक जीवन को साहित्यक, शिष्टाचार और नैतिकता में ढाला है।"

इस प्रकार भारतीय संस्कृति की निम्नलिखित विशेषताएं हैं-
  • प्राचीनता
  • निरन्तरता
  • धर्म की प्रधानता
  • ग्रहणशीलता
  • सहिष्णुता
  • सर्वांगीणता
  • कर्म सिद्धान्त
  • शान्ति एवं अहिंसा का सिद्धान्त
  • विश्वबन्धुत्व की भावना का विकास
  • विभिन्नता में एकता

प्राचीनता
विश्व में न जाने कितनी संस्कृतियाँ तथा यूनान, सुमेर और रोम में उदित हुईं, किन्तु एक समय ऐसा भी आया जब ये संस्कृतियाँ न जाने कहाँ विलीन हो गईं. आज इन संस्कृतियों के अवशेष मात्र ही यत्र-तत्र प्राप्त होते हैं, जबकि भारतीय संस्कृति जिसका उद्भव चार-पाँच हजार वर्ष पहले माना जाता है, आज भी अपने अस्तित्व में है. इस प्रकार भारतीय संस्कृति विश्व की समस्त संस्कृतियों में प्राचीन संस्कृति है.
भारतीय संस्कृति के प्राचीन होने का अनुमान इतिहास से लगाया जा सकता है। सिन्धु नदी की घाटी में 'मोहनजोदड़ो' और पंजाब के 'हड़प्पा' नामक स्थानों पर खुदाई करके बहुत सी वस्तुएँ मिली हैं। इस सभ्यता को सिन्धु सभ्यता का नाम दिया गया है। यह सभ्यता इराक और मिस्र की सभ्यता से भी पुरानी है। इन सभ्यताओं पर भारतीय संस्कृति और सभ्यता का प्रभाव पड़ा था। स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता बहुत पुरानी है। जिस समय दूसरे देशों की सभ्यताएँ एवं संस्कृतियाँ घुटनों के बल पर चल रही थीं उस समय भारतीय संस्कृति युवा हो चुकी थी। मिस्र, यूनान और बेबिलोन की सभ्यताओं को बहुत पुराना माना जाता है, परन्तु वैदिक सभ्यता के समक्ष वे भी सिर झुकाती हैं।

निरन्तरता
प्राचीनता के साथ-साथ भारतीय संस्कृति में निरन्तरता की विशेषता भी देखने को मिलती है। यूनान, रोम और सुमेर की प्राचीन संस्कृतियाँ समय के धारा-प्रवाह में क्या मालूम कहाँ बह गईं और आज वहाँ निवास करने वाले लोगों के जीवन में उनका कोई उल्लेखनीय चि नहीं रह गया। उनके जीवन में उनकी अपनी ही पुरातन संस्कृति की कोई छाप देखने को नहीं मिलती। पर यह बात भारतीय संस्कृति पर लागू नहीं होती । भारतीय संस्कृति आज भी जीवित है, आज भी जनजीवन में वह जगमगा रही है। यह सच है कि हजारों वर्ष की यात्रा की छाप भारतीय संस्कृति के चेहरे पर सुस्पष्ट है और पहले वह जिस रूप में थी, बिल्कुल उस रूप में आज वह नहीं है, फिर भी आघात उसे बिल्कुल मिटा नहीं सका है। भारत के वर्तमान सांस्कृतिक प्रतिमान को देखकर इस देश के सुदूर अतीत की संस्कृति को समझा जा सकता है। प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक जीवन की ज्योति आज भी झिलमिला रही है। अनेक आक्रमण हुए हैं, अनेक राजसिंहासन बदल गए हैं; अनेक अधिनियम पारित किए गए हैं, पर आज भी परम्परागत संस्थाएँ, धर्म, महाकाव्य, साहित्य, दर्शन, संस्कार, रीति-रिवाज आदि जीवित हैं। समय या सरकार इन्हें पूर्णतया मिटा नहीं सकी है।

धर्म की प्रधानता
भारतीय संस्कृति की सबसे आधारभूत विशेषता धर्म को जीवन के आधार के रूप में स्पष्ट करना है। भारतीय संस्कृति एक धर्म-प्रधान संस्कृति है जिसमें सभी व्यक्तिगत, सामूहिक और सामाजिक क्रियाओं का निर्धारण धर्म के आधार पर किया गया है। धर्म के महत्व को स्पष्ट करने के लिए व्यक्ति द्वारा पाँच यज्ञों को पूरा किया जाना आवश्यक बताया गया । ये यज्ञ हैं – देव - यज्ञ, ऋषि यज्ञ, पितृ-यज्ञ, अतिथि-यज्ञ तथा जीव - यज्ञ । इसका तात्पर्य है के व्यक्ति जब तक देवताओं, ज्ञानवान ऋषियों, माता-पिता, अतिथियों तथा सामान्य जीवों के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करता, उसे एक धार्मिक व्यक्ति नहीं कहा जा सकता। इसी को पाँच ऋणों, अर्थात् देव ऋण, ऋषि ऋण, पितृ ऋण, अतिथि ऋण तथा जीव ऋण से उऋण होना कहते हैं।

ग्रहणशीलता
सहिष्णुता की विशेषता में सम्बद्ध दूसरी विशेषता यह है कि भारतीय संस्कृति में ग्रहणशीलता का भी गुण देखने को मिलता है। इसका तात्पर्य यह है कि भारतीय संस्कृति जड़ और स्थिर नहीं है, गतिशीलता उसकी एक उल्लेखनीय विशेषता है। भारतीय संस्कृति समय-समय पर आवश्यकतानुसार विदेशों से आए हुए शासकों के सांस्कृतिक तत्व से अपना अनुकूलन करके तथा उनके कुछ तत्वों को ग्रहण करके चिर- नूतन और चिर-सक्रिय बनी रही है। भारतीय संस्कृति ने मुस्लिम संस्कृति के अनेक तत्वों को ग्रहण किया है और पाश्चात्य संस्कृति से भी बहुत-कुछ लेने में उसे संकोच नहीं हुआ है। इसीलिए उसकी निरन्तरता, उसकी उपयोगिता व उसकी सक्रियता आज भी बनी हुई है। भारतवर्ष ने कितने ही विदेशी आक्रमणों को सहन किया है, कितने ही दबाव व प्रभाव उस पर डाले गए हैं और कितने ही सांस्कृतिक तत्वों का आगमन इस देश में हुआ है। यदि इन सबसे अनुकूलन करने की शक्ति का अभाव भारतीय संस्कृति में होता तो वह कब की नष्ट हो गई होती। परन्तु ऐसा नहीं हुआ। इस संस्कृति की अनुकूलनशीलता या ग्रहणशीलता ने इसे सभी परिस्थितियों में जीवित रहने की शक्ति प्रदान की है। इसी गुण के कारण भारतीय संस्कृति विभिन्न बाह्य आक्रमणों के बीच भी नष्ट नहीं हुई । वस्तुतः विदेशी आक्रमणकारियों को सुविधा देकर भारतीय समाज व संस्कृति ने उन्हें अपने निकट बुलाकर उनसे आन्तरिक सम्बन्ध स्थापित कर लिया और उन्हें बहुत कुछ देने के साथ-साथ उनसे आवश्यकतानुसार ग्रहण भी किया। वांछनीय सांस्कृतिक तत्वों (Elements) को ग्रहण करने में उसे कभी लेशमात्र भी संकोच नहीं हुआ। इसी ग्रहणशीलता के करण ही भारतीय संस्कृति में इतनी विशालता, व्यापकता तथा विविधता परिलक्षित होती है। भारतीय संस्कृति का अन्तर्निहित सिद्धान्त ग्रहण, संरक्षण एवं सृजन है, न कि बहिष्कार तथा विध्वंस।

सहिष्णुता
सहिष्णुता एवं उदारता भारतीय संस्कृति की अन्य विशेषता है. प्राचीनकाल से ही भारत में अनेक धर्म अपने अस्तित्व में रहे हैं. इन विभिन्न धर्म के मानने वालों के मध्य परस्पर सहिष्णुता एवं उदारता बनी रही, जबकि अन्य देशों में धर्म के नाम पर अनेकानेक संग्राम हुए. यहाँ के अनेक राजाओं यथा अशोक ने सहिष्णुता की भावना को बढ़ावा दिया. इस प्रकार भारतीय संस्कृति में धार्मिक विद्वेष को कोई स्थान नहीं दिया गया है.
भारतीय संस्कृति की एक और उल्लेखनीय विशेषता इसकी सहिष्णुता है। इतिहास यह बताता है कि विश्व के अन्य धर्मों में सदैव धार्मिक सहिष्णुता का अभाव रहा है और धर्म के नाम पर भीषण संग्राम और रक्तपात हुए हैं। धर्म के नाम पर इतना अधर्म शायद ईश्वर के नाम पर भी एक अमिट कलंक बन गया है, पर उस कलंक पर लज्जा तक प्रकट करने का प्रयत्न भी नहीं हुआ है। यह बात भारत के सम्बन्ध में नहीं कही जा सकती। सभी के प्रति सहिष्णुता की भावना को बरतना भारत की अपनी एक अनोखी विशेषता है। इस सहिष्णुता की भावना का रहस्य “भारतीय संस्कृति के उस प्रमुख विचार में मिलता है जिसके अनुसार सर्वशक्तिमान् ईश्वर अव्यक्त, अचिन्त्य और मानव-बुद्धि से परे है और विभिन्न धर्म और उपासना पद्धतियाँ उस ईश्वर तक पहुँचने के भिन्न-भिन्न मार्ग हैं।” रास्ते अलग-अलग हैं, पर लक्ष्य सबका एक है। इसी दृष्टिकोण से प्रेरित भारतवासियों के लिए यह सम्भव हुआ है कि वे अपनी संस्कृति की छत्रछाया में मुस्लिम व अंग्रेजी संस्कृतियों को भी आश्रय प्रदान कर सकें। सबको स्नेह-आह्वान करना और सबको प्रीति का स्पर्श प्रदान करना भारतीय जीवन - विधि व दर्शन की प्रमुख विलक्षणता है।

सर्वांगीणता
भारतीय संस्कृति सर्वांगीण भी है। इसका तात्पर्य यह है कि मानव जीवन का सर्वांगीण विकास परम लक्ष्य था। इसी सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखकर ही वर्ण, आश्रम, पुरुषार्थ, विवाह, परिवार आदि की व्यवस्था एक विशेष ढंग से की गई थी और धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष को जीवन का सन्तुलित आधार निर्धारित किया गया था। अर्थ और काम में पूर्ण सामंजस्य स्थापित करने का आदेश इस कारण दिया गया कि शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक - तीनों प्रकार का विकास सम्भव हो सके। इनके विकास से ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है, यह विश्वास लोगों में भर दिया गया था। इसी प्रकार बौद्धिक तथा शारीरिक विकास के लिए ब्रह्मचर्य तथा गृहस्थाश्रम और आध्यात्मिक विकास के लिए वानप्रस्थ व संन्यास आश्रमों की व्यवस्था की गई थी। आधुनिक भारत में ये व्यवस्थाएँ नहीं हैं। पर उनके स्थान पर प्रजातान्त्रिक समाजवाद (Democratic Social- ism), भूदान यज्ञ, सर्वोदय आदि के सिद्धान्त व कार्यक्रम सर्वसाधारण के कल्याणार्थ ही आज क्रियान्वित किए जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त आज भी भारत में ब्राह्मण, जैन और बौद्ध धर्मों के वे उदात्त उपदेश प्रतिध्वनित हो रहे हैं जिनके अनुसार, "किसी को कष्ट न दो, दूसरों का कष्ट दूर करने के लिए तन, मन और धन से सदा तत्पर रहो, दूसरों की उन्नति के लिए सदैव प्रस्तुत रहो। भारत का विश्वास 'सर्वे सुखिन: सन्तु' में रहा है। जो कुछ सत्य, ' शिव और सुन्दर हो वह सबके लिए हो।"

कर्म सिद्धान्त
कर्म का सिद्धान्त भारतीय समाज व संस्कृति का मूलाधार है। यह सिद्धान्त इस धारणा पर आधारित है कि प्रत्येक कर्म का फल अवश्य मिलता है। कर्मफल मनुष्य के स्वभाव व चरित्र तथा उसकी शारीरिक व मानसिक स्थिति पर भी प्रभाव डालता है। कर्मों के कारण ही मनुष्य का पुनर्जन्म (Rebirth) होता है क्योंकि वह एक ही जन्म में कर्मफल नहीं भुगत सकता है। मनुष्यों में पाई जाने वाली भिन्नताएँ यथा धनी - निर्धन, सुख-दुखी आदि इन्हीं कर्मफलों का परिणाम है। पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर ही मनुष्य का आगामी जन्म होता है।
कर्म सिद्धान्त मनुष्य को बुरे कर्म करने से रोकता है। यह भाग्यवाद (Fatalism) को प्रोत्साहित नहीं करता है। यद्यपि वर्तमान में कर्म सिद्धान्त का स्वरूप विकृत कर दिया गया है किन्तु अपने मौलिक स्वरूप में यह भाग्यवाद एवं अनैतिकता के स्थान पर पुरुषार्थ एवं नैतिकता का उपदेश देता है। कर्म सिद्धान्त के अनुसार यद्यपि मनुष्य का वर्तमान जीवन होता है किन्तु वह अपने भावी जीवन को वर्तमान जीवन के कर्मों द्वारा सुधार सकता है। अन्य शब्दों में, मनुष्य का भविष्य व अगला जन्म वर्तमान कर्मों पर निर्भर करता है।

शान्ति एवं अहिंसा का सिद्धान्त
प्राचीन भारत के दो महत्त्वपूर्णधर्म जैन धर्म एवं बौद्ध धर्म ने सम्पूर्ण मानवता को शान्ति एवं अहिंसा का पाठ पढ़ाया तथा समस्त जीव एवं अजीव के प्रति अहिंसा एवं सहानुभूति की भावना रखने को कहा। आज वर्तमान में भारत की इसी अहिंसा एवं शान्ति नीति ने विश्व में भारत को अग्रणीय स्थान प्रदान किया। अशोक मौर्य ने भी समस्त जीवों के प्रति प्रेमभाव रखने का सन्देश दिया। समस्त विश्व में शान्ति एवं मित्रता बढ़ाने में जैन धर्म द्वारा प्रदत्त अहिंसा एवं शांति अखण्डित अस्त्र कहा जा सकता है।

विश्वबन्धुत्व की भावना का विकास
भारतीयों का एक नारा है-
  • सर्वेभवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
  • सर्वेभद्राणि पश्यन्तु मा कश्च्छि दुखभाग् भवेत।।
कहने का तात्पर्य सब सुखी हो तथा सभी स्वस्थ रहे इस प्रकार का सिद्धान्त भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है। भारतीय परम्परा में मनुष्य, जीव मात्र की सहायता करना, रक्षा करना एवं कल्याण करने को विशेष महत्त्व दिया गया है।

विभिन्नता में एकता
भारतीय संस्कृति की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है - विभिन्नता में एकता। भारत अनेक जातियो, समुदायों, धर्मों में विभाजित होने के बावजूद एक है। भारत में अनेक भाषाएं बोली जाती है लेकिन उनमें भाषागत विभिन्नता होते हुए भी एकता विद्यमान है। डॉ. राधाकुमद मुखर्जी के अनुसार "भारतवर्ष विभिन्न प्रकार के सम्प्रदायों, रितिरिवाजो, धर्मों, संस्कृति, विश्वासों, भाषाओं, जातियों तथा सामाजिक व्यवस्थाओं का एक संग्रहालय है।" लेकिन इतनी विभिन्नताओं के होते हुए भी भारतीय संस्कृति में एकता स्पष्ट दिखाई देती है। यहां ब्राह्मण, राजपूत, महाजन, मुस्लिम, भील, संथाल, जैन आदि अनेक जातियों के लोग निवास करते हैं तथा अनेक धमों के अनुयायी मुख्यतः हिन्दू, जैन, बौद्ध, इसाई, इस्लाम, पारसी आदि भी रहते हैं लेकिन भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषता अनेकता में एकता है भारत की एकता की छवि निम्न बिन्दुओं से आंकी जा सकती है-

राजनीतिक एकता : भारत एक विशाल देश है यहां पर प्राचीनकाल से राजनीतिक सत्ता के लिये संघर्ष होता रहा है लेकिन इसके बावजूद भारतीयों में राजनीतिक एकता स्पष्ट दिखाई देती है। प्राचीनकाल में मौर्यकाल, गुप्तकाल, वर्धनवंश, चोल, चालुक्यों ने राजनीतिक एकता की परम्परा को बरकरार रखा। इसी तरह मराठा, पेशवाओं ने भारतीय राजनीति को एक करने का प्रयास किया। मुगलकाल में एक भाषा, एक सी राजव्यवस्था, एक कानून ने भारतीयों को राजनीतिक एकता के सूत्र में पिरायो और अंग्रेजी शासन के तहत यह एकता एकदम स्पष्ट हो गई। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद सविधान, शासन व्यवस्था आदि सभी में एकता दृष्टिपात होती है।

भौगोलिक एकता : यूं दूखने पर भारत का निर्माण बड़े-बड़े भूखण्डों, नदियों, पर्वतों, वनस्पतियों से हुआ है। इसकी भौगोलिक स्थिति पर नजर डाले तो यह उत्तर में हिमालय, दक्षिण में समुद्री जल सीमा से घिरा है लेकिन इतनी भौगोलिक विषमताओं के बावजूद यहां के निवासी स्वयं को भारतीय कहते हैं। विष्णुपुराण में तो स्पष्ट रूप से बताया गया है कि समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण का सारा प्रदेश 'भारत' है और इसके निवासी भारत की सन्तान है।

सांस्कृतिक एकता : विभिन्न जातियों एवं धर्मों के होने के बीच यहां की सांस्कृतिक एकता स्पष्ट दिखाई देती है। यहां के तीज त्यौहार, खान-पान, रहन-सहन, वस्त्राभूषण, कला साहित्य सभी भारत की सांस्कृतिक एकता का बखान करते हैं। भारत की संस्कृति बौद्ध, जैन, हिन्दू, मुस्लिम तथा वैदिक संस्कृतियों का सम्मिश्रण है। भारत में अनेक धर्मों के अनुयायी निवास करते हैं। अलग-अलग धर्म होने के बावजूद इनके नैतिक सिद्धान्तों में मूलभूत एकता है। एकेश्वरवाद, आत्मा का अमरत्व, कर्म, पुनर्जन्म, मोक्ष, निर्वाण, भक्ति, योग, बोधिसत्व और तीर्थकर आदि प्रायः सभी धर्मों की निधि है। नियम, शील, तप, सदाचार, सत्य, शांति, अहिंसा आदि सिद्धान्तों का सभी धर्मों में जोर है। यही नहीं सभी धर्मों के रिति-रिवाज अलग-अलग होने के बावजूद यहां के निवासी विभिन्न त्यौहारों- होली, दीवाली, ईद, रक्षाबन्धन आदि आपस में मिलजुल कर मनाते हैं जो भारतीय सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है। सांस्कृतिक एकता का एक पहलू यहां पर अनेक भाषाएं - मराठी, गुजराती, राजस्थानी, बांगला, पंजाबी, हरियाणवी होने के बावजूद हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा, दिया गया हैं में भी देखने को मिलता है। कला के प्रतिमानों में यहां सभी धर्मों से सम्बन्धित मन्दिर, स्तूप, चैत्य, मस्जिद, मूर्तियां, दरगाह है जो सांस्कृतिक एकता का महत्त्वपूर्ण अंग है।

समन्वयवादिता

भारतीय संस्कृति में समन्वयवादिता का गुण स्पष्ट रूप से दर्शित होता है. इमसें आध्यात्मिकता एवं भौतिकता का सुन्दर समन्वय मिलता है, जबकि विश्व की अन्य संस्कृतियों में समन्वयवादिता नहीं मिलती है. भारतीय संस्कृति में आत्मा के विकास के लिए आध्यात्मिकता तथा शरीर के विकास के लिए भौतिक समृद्धि के महत्व को बताया गया है. संक्षेप में कर्म और भाग्य, भोग और वैराग्य, निवृत्ति और प्रवृत्ति, आध्यात्मिकता और भौतिकता का समन्वय ही भारतीय संस्कृति का मूल आधार है.

प्राकृतिक अनेकता

भारत के सम्पूर्ण भू-क्षेत्र में, जलवायु की भिन्नता पायी जाती है. यहाँ के कई प्रदेश अत्यधिक ठण्डे हैं, तो कई अत्यधिक गर्म, कहीं अत्यधिक वर्षा होती है, तो कहीं बिलकुल भी नहीं, यहाँ कुछ भागों में वनों की अधिकता है, तो कुछ में रेगिस्तान की. यहाँ की इस प्राकृतिक अनेकता ने भारतवासियों के रंग-रूप में अनेकता उत्पन्न कर दी है.

नैतिकता

भारतीय संस्कृति में नैतिकता एवं सदाचार का स्थान हमेशा से सर्वोपरि रहा है. भारतीय संस्कृति में निर्धारित नैतिकता के मानदण्ड संसार के सभी मनीषियों की विचार कसौटी पर खरे उतरते हैं. वस्तुतः त्याग, तप, संयम, अहिंसा, सहनशीलता, बड़ों के प्रति आदर का भाव एवं शिष्टाचार नैतिकता का ही मार्ग है.

अहिंसा
अहिंसा भारतीय संस्कृति का सनातन गुण है. सभी जीवों के प्रति प्रेम की भावना अहिंसा को ही व्यक्त करती है. अहिंसा का अर्थ भय एवं निष्क्रियता नहीं, बल्कि साहसी एवं कर्मनिष्ठ व्यक्ति का दर्शन है. करुणा, मैत्री, विनय आदि अहिंसा के पालन में सहायक होते हैं.

व्यापकता
भारतीय विचारकों ने मानव जीवन के प्रत्येक पक्ष पर गम्भीरता से विचार किया है. जीवन का बहुमुखी विकास भारतीय संस्कृति का प्रधान लक्ष्य रहा है. यही कारण है कि भारतीय संस्कृति का क्षेत्र अत्यन्त ही विशाल एवं व्यापक रहा है.

धर्म प्रधान और दर्शन प्रधान
आत्मा और परमात्मा के विषय में जितना भारतीय विचारकों ने मनन किया है. सम्भवतः उतना अन्य किसी ने नहीं, चूंकि भारतीय आध्यात्म और दर्शन में विशेष रुचि रखते आए हैं. इसलिए यहाँ दार्शनिकों को महत्व दिया जाता रहा है. इस सम्बन्ध में श्री अरविन्द ने लिखा है-" भारतीय सभ्यता में धर्म द्वारा क्रियाशील हुआ दर्शन और दर्शन द्वारा आलोकित धर्म-ही नेतृत्व करते आए हैं. शेष सभी वस्तुएँ-कला, काव्य आदि यथासम्भव अनुसरण करती रही हैं. निःसन्देह भारतीय सभ्यता की पहली विशेषता यही है... इसके पीछे तथ्य यह है कि भारतीय संस्कृति आरम्भ से ही एक आध्यात्मिक एवं अन्तर्मुखी, धार्मिक व दार्शनिक संस्कृति रही है और बराबर ऐसी चली आयी. वस्तुतः भारतीय संस्कृति में धार्मिकता एवं दार्शनिकता का प्राधान्य रहा है."

अवतारवाद एवं देववाद
अवतारवाद की भारतीय संस्कृति में अत्यन्त ही रोचक रूप में कल्पना की गई है. ऐसा विश्वास किया जाता रहा है कि जब-जब पृथ्वी पर अधर्म बढ़ा तथा धर्म की हानि हुई तब-तब अधर्म के विनाश हेतु ईश्वर ने अवतार लिया. राम, कृष्ण, वामन आदि दस अवतार माने गए हैं. भारतीय संस्कृति में देवताओं को भी महत्व दिया जाता रहा है. वैदिक काल में विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों को देवता माना जाता था. जैसे-अग्नि, वायु, वरुण, इन्द्र एवं उषा आदि इनके अतिरिक्त भारतीय संस्कृति में ब्रह्मा, विष्णु, महेश को क्रमशः सृष्टा, पालक एवं संहारक के रूप में सर्वोपरि माना गया है.

नारी सम्मान
भारतीय संस्कृति में नारी को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है तथा उसके जीवन की सार्थकता उसके मातृत्व में स्वीकार की गई है. वैदिक एवं संस्कृत साहित्य में माँ एवं पत्नी के महत्व का विशद् वर्णन किया गया है. वशिष्ठ सूत्र में माता को परिवार में वरिष्ठ स्थान प्रदान किया गया है. महाभारत एवं तैत्तरीय उपनिषद् में माता को ही सबसे बड़ा शिक्षक स्वीकार किया गया है. उनका ईश्वर की आद्यशक्ति के रूप में कल्पना कर स्मरण किया गया है. मैत्रेयी, गार्गी, अपाला, कुन्ती आदि अनेक नारी इस बात की द्योतक हैं कि भारतीय संस्कृति में सदा से ही नारी को सम्मान प्रदान किया जाता रहा है.

अनेकता में एकता
अनेकता में एकता भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषता है. भारतीय संस्कृति में भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक क्षेत्रों में विभिन्नता के साथ ही अखण्ड मौलिक एकता भी विद्यमान है. यद्यपि यहाँ विभिन्न धर्म एवं जातियों के लोग रहते हैं और इनके रहन-सहन के ढंग अलग-अलग हैं, किन्तु उनमें मनोवृत्तियों और भावनाओं की एकता विद्यमान है.

उपर्युक्त वर्णित विशेषताओं के अतिरिक्त भारतीय संस्कृति में आशावाद, अवसरानुकूलता, आत्मविश्वास की भावना, तप, सन्तोष, ज्ञान आदि अनेक तत्व विद्यमान हैं, जो भारतीय संस्कृति को अद्भुदता प्रदान करते हैं.

भारत की मौलिक एकता
भारत एक वृहद क्षेत्रफल वाला देश है. भारत एक वृहद् क्षेत्रफल वाला देश है. क्षेत्रफल की विशालता के कारण ही अनेक विद्वानों ने इसे उपमहाद्वीप की संज्ञा दी है. यह उपमहाद्वीप वर्तमान में भारत, पाकिस्तान तथा बांग्लादेश में बँटा हुआ है. क्षेत्रफल में भारत, इंगलैण्ड के क्षेत्रफल से बीस गुना अधिक है. विश्व की लगभग 16% जनता यहीं निवास करती है. यहाँ विभिन्न जातियों और धर्म के मानने वाले रहते हैं. यहाँ के निवासियों द्वारा लगभग 179 भाषाएँ बोली जाती हैं, जबकि स्थानीय भाषाओं की संख्या तो 500 से भी अधिक है. इसी संदर्भ में एक कहावत है कि "कोस-कोस पर बदले पानी चार कोस पर बानी' जो भारत में अनेकता की बात की पुष्टि करती है. वस्तुतः विशालता के कारण यहाँ की वनस्पति, जलवायु, जातीयता, भाषा, धर्म, राजनीति, समाज एवं आर्थिक क्षेत्रों में भी विविधता दर्शित होती है, किन्तु इस विविधता में भी एकता के तत्व विद्यमान हैं. वास्तव में सभी बड़े देशों में भेद तथा अभेद पाए जाते हैं. इस सम्बन्ध में डॉ. गुलाब राय ने उचित ही कहा है कि-"पहले तो प्रायः सभी देशों में जाति, भाषा और धर्मगत भेद हैं. संयुक्त राज्य अमरीका में ही कई जातियाँ हैं वहाँ भाषाएँ भी कई बोली जाती हैं, किन्तु एक केन्द्रीय भाषा सबको मिलाए हुए है."

भारत की मौलिक एकता तथा विविधता के सम्बन्ध में डॉ. बी.ए. स्मिथ ने लिखा है, "भारत की विभिन्नता में एकता निहित है, परन्तु मौलिक एकता उतनी स्पष्ट नहीं है जितनी बाह्य भिन्नता."

विविधता दर्शाने वाले तत्व

(1) भौगोलिक विविधता- भौगोलिक दृष्टि से भारत में विविधता दर्शित होती है. भारत की इस भौगोलिक विविधता के सम्बन्ध में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने अपने भाषण में स्पष्ट कहा है कि "यदि कोई विदेशी, जिसे भारतीय परिस्थितियों का ज्ञान नहीं है, सारे देश की यात्रा करे तो वह यहाँ की विभिन्नताओं को देखकर यही समझेगा कि यह एक देश नहीं, बल्कि छोटे-छोटे देशों का समूह है और ये देश एक-दूसरे से अत्यधिक भिन्न हैं, जितनी अधिक प्राकृतिक भिन्नताएँ यहाँ हैं उतनी अन्यत्र नहीं. देश के एक छोर पर उसे हिम मंडित हिमालय दिखाई देगा और दक्षिण की ओर बढ़ने पर गंगा, यमुना एवं ब्रह्मपुत्र की घाटियाँ, फिर विन्ध्या, अरावली, सतपुड़ा तथा नीलगिरि पर्वत श्रेणियों का पठार. इस तरह अगर वह पश्चिम से पूरब की ओर जाएगा तो उसे वैसी ही विविधता और भिन्नता मिलेगी, उसे वैसी ही विविधता और भिन्नता मिलेगी, उसे विभिन्न प्रकार की जलवायु मिलेगी-हिमालय की अत्यधिक ठण्ड, मैदानों की ग्रीष्मकाल की अत्यधिक गर्मी मिलेगी, एक तरफ असम का समवर्षा वाला प्रदेश है, तो दूसरी ओर जैसलमेर का सूखा क्षेत्र जहाँ बहुत कम वर्षा होती है. इस प्रकार भौगोलिक दृष्टि से भारत में सर्वत्र विविधता दिखाई पड़ती है.

(2) राजनीतिक विविधता- ऐतिहासिक अध्ययन से ज्ञात होता है कि मौर्य, गुप्त तथा अंग्रेजों के शासनकाल को यदि छोड़ दिया जाए, तो राजनीतिक दृष्टि से भारत कभी संगठित नहीं रहा. बल्कि भारत के विभिन्न भागों पर एक ही समय में कई नरेशों ने शासन किया. उदाहरणार्थ अगर उत्तर भारत पर हर्षवर्धन का शासन था, तो उसी समय बंगाल में पालवंशीय शासकों का तथा दक्षिण में चालुक्यों का शासन था. अतः कहा जा सकता है कि यहाँ राजनीतिक एकता का अभाव रहा है.

(3) सांस्कृतिक विविधता- भारत के अनेक क्षेत्रों में सांस्कृतिक विविधता दिखाई पड़ती है. यहाँ विभिन्न क्षेत्रों के व्यक्तियों में सांस्कृतिक भिन्नता मिलती है. लोगों का शारीरिक गठन, खानपान, रहन-सहन, वेशभूषा यहाँ तक कि मानसिकता भी अलग- अलग प्रकार की है. उदाहरणार्थ उत्तर भारत में अनेक जगह यथा-दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता आदि में सभ्य, शिक्षित एवं शिष्ट लोग मिलते हैं, तो असम तथा नगालैण्ड में अपेक्षाकृत कुछ कम सुसंस्कृत एवं शिष्ट लोग मिलते हैं.

(4) धार्मिक विविधता- भारत के विभिन्न भागों में अलग-अलग धर्म के यथा-हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी, बौद्ध तथा जैन धर्म के अनुयायी रहते हैं. प्रत्येक धर्म भी कई मतों में बँटा हुआ है. उदाहरणार्थ हिन्दू धर्म जिसे भारत का सर्वाधिक प्राचीन धर्म माना जाता है. वैष्णव, शैव, सनातन, आर्य समाज, राम भक्त, कृष्ण भक्त, कबीर पन्थी, नाथ पन्थी आदि अनेक मतों में विभाजित है. अतः विभिन्न धर्म तथा मतों के अनुयायिओं में धार्मिक विविधता दिखाई पड़ती है.

(5) भाषा की विविधता- भारत के विभिन्न प्रांतों में अनेक भाषाएँ अस्तित्व में हैं जो भिन्न-भिन्न प्रांतों को परस्पर अलग-सा कर देती हैं. साइमन कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार, यहाँ व्यवहार में लायी जाने वाली भाषाओं की संख्या लगभग 222 है. इसके अतिरिक्त भारत के विभिन्न भागों में लगभग 545 भाषाएँ व्यवहार में लायी जाती हैं. इन विभिन्न भाषाओं के कारण भारत में विविधता दर्शित होती है. वर्तमान में भारत के संविधान द्वारा 18 भाषाओं को मान्यता प्रदान की गई है. यह भाषाएँ हैं-हिन्दी, बंगाली, पंजाबी, गुजराती, मराठी, उड़िया, उर्दू, सिन्धी, असमिया, कश्मीरी, तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम, कोंकणी, मणिपुरी, नेपाली तथा संस्कृत. कुछ अन्य भाषाओं को भी इस सूची में सम्मिलित करने की माँग की जा रही है.

(6) आर्थिक विविधता- भारत में आर्थिक दृष्टि से भी विविधता व्याप्त है. यहाँ धन का असमान वितरण है. एक तरफ ऐसा वर्ग है, जो अथक परिश्रम के पश्चात् दो वक्त की रोटी लायक पैसा नहीं कमा पाता है. वही दूसरी तरफ ऐसा भी वर्ग है जिसकी आर्थिक स्थिति इतनी सुदृढ़ तथा आय इतनी अधिक है कि इस वर्ग के व्यक्तियों की गणना विश्व के धनाढ्य व्यक्तियों में की जाती है.

अतः उपर्युक्त वर्णन के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत में विविधता व्याप्त है. इसके पीछे अनेक विद्वान् तर्क देते हैं कि ऐसा इसलिए है, क्योंकि भारत एक राष्ट्र न होकर अफ्रीका की तरह भौगोलिक इकाई है. जहाँ अनेक छोटे-बड़े राज्य हैं, जिनमें कई क्षेत्रों में परस्पर भिन्नता है. सर जान स्ट्रेची भी भारत को एक राष्ट्र के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं. इस सम्बन्ध में उनका कहना है कि "भारत के सम्बन्ध में सबसे महत्वपूर्ण बात यह जाननी है कि न भारत था और न है. भारत जैसा कोई देश भी नहीं है, जिसमें यूरोपीय आदर्शों के अनुसार किसी प्रकार की भौगोलिक, राजनीतिक, सामाजिक अथवा धार्मिक एकता रही हो. भारतीय जनता जैसी कोई चीज भी नहीं है जिसके बारे में हम इतना सुनते हैं." भारत में विविधता के सम्बन्ध में डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी का कहना है कि "भारत को मतों तथा पंथों, प्रथाओं तथा संस्कृतियों, धर्मों तथा भाषाओं, विभिन्न जातियों तथा सामाजिक संस्थाओं का अजायबघर कहा जा सकता है, परन्तु यह मृतक वस्तुओं तथा भौतिक पदार्थों का नहीं, अपितु जीवित सम्प्रदायों तथा आध्यात्मिक व्यवस्थाओं का अजायबघर है."

विविधता में एकता
यद्यपि भारत में जलवायु, धर्म, भाषा आदि के आधार पर विविधता दिखाई देती है, परन्तु भारतीय संस्कृति में अनेक ऐसे तत्व पाए जाते हैं जो भारत को एक सूत्र में पिरोते हैं. यही कारण है कि अनेक विद्वानों ने भारत की विविधता में एकता है तथ्य को स्वीकार किया है. इस सम्बन्ध में इतिहासकार विंसेंट एडम स्मिथ ने ठीक ही कहा है कि "भारत की विविधता में एकता निहित है.".

डॉ. हरिदत्त वेदालंकार ने 'भारत का सांस्कृतिक इतिहास' में लिखा है, "भारतीय संस्कृति की एक बड़ी विशेषता यह है कि उसने (भारतीय संस्कृति) सब प्रकार की विविधताओं से परिपूर्ण इस देश में मौलिक एकता स्थापित की है."

भारत की विविधता में एकता के सम्बन्ध में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा है कि "स्वभावतः ही अगर कोई विदेशी इसे एक देश नहीं वरन छोटे-छोटे देशों का समूह समझे, तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? कोई भी व्यक्ति जो इन वक्तव्यों की तह में नहीं जाता, उसे ऊपर से ये विविधताएं ही दृष्टिगोचर होंगी, पर अगर बारीकी से देखा जाए, तो सहज ही ज्ञात होगा कि इन सभी अनेक तथ्यों में एकता है. एक ऐसा एक्य है जो इन्हें एक सूत्र में बाँधता है. ठीक उसी प्रकार जैसे एक रेशम के धागे में पिरोए गए भाँति-भाँति के जवाहरातों से मिलकर एक हार बनता है. उसमें हम किसी नगीने को हटा तो नहीं सकते. इन सभी नगों का अपना अलग-अलग सौन्दर्य एवं महत्व होता है. पर साथ ही वह एक-दूसरे की सुन्दरता बढ़ाते हैं. यह कोई काव्य कल्पना नहीं बल्कि माना हुआ सत्य है. अनेक धाराएँ हैं जो हजारों वर्षों से अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखती आयी हैं. उन सबके संगम से भारतीय सभ्यता रूपी नदी की सृष्टि हुई है जो इस महाद्वीप के एक छोर से दूसरे छोर तक बहती है." वस्तुतः भारत की विविधता में एकता निहित है. संक्षेप में निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत इसकी व्याख्या की जा सकती है

भौगोलिक एकता
अनेक भौगोलिक विभागों में विभक्त होते हुए भी भारत की प्राकृतिक सीमाएँ इस प्रकार की हैं जो भारत को अन्य देशों से पृथक् करती हैं, भारत के उत्तर में हिमालय पर्वत तथा इसके तीनों ओर सागर है. यही कारण है कि हमारा देश आदर्श प्राकृतिक सीमाओं से युक्त है. भारतवासी सदैव से ही एक देश स्वीकार करते आए हैं. भारत की इस आधारभूत एकता से प्रभावित प्राचीनकाल में चाणक्य ने भारत को हिमालय से समुद्रपर्यन्त सहस्त्र योजन विस्तृत चक्रवर्ती सम्राट का देश कहा है.

भारत में निवास करने वाली प्रजातियाँ
सर हरबर्ट रिजले के अनुसार भारत में सात प्रजातियाँ निवास करती हैं. ये प्रजातियाँ हैं-
  • (1) तुर्की-ईरानी (Turko-Iranian)
  • (2) इण्डो-आर्य (Indo-Aryan)
  • (3) सीथो-द्रविड़ (Seytho-Dravidian)
  • (4) आर्य-द्रविड़ (Arya-Dravidian)
  • (5) मंगोल-द्रविड़ (Mongolo-Dravidian)
  • (6) मंगोल (Mongol)
  • (7) द्रविड़ (Dravidian)

राजनीतिक एकता
यद्यपि यह सत्य है कि प्राचीनकाल में भारत में अनेक प्रकार की राजनीतिक विषमताएँ विद्यमान थीं और भारत अनेक छोटे-बड़े राज्यों में विभक्त था, परन्तु यह भी सत्य है विभिन्न कालों में यथा-मौर्यकाल,गुप्तकाल, सल्तनतकाल, मुगलकाल व ब्रिटिशकाल में भारत एक इकाई के रूप में शासित हुआ. इस विभिन्न कालों में सम्पूर्ण भारत पर एक ही राजा का शासन रहा, एक ही प्रकार की मुद्रा प्रचलन में रही, एक ही प्रकार की कानून व्यवस्था लागू रही. वर्तमान में भी भारत एक राजनीतिक इकाई के रूप में संगठित है.

भाषा सम्बन्धी एकता
भारत में अनेक भाषाओं के प्रचलन के बावजूद भी भारत में भाषा सम्बन्धी एकता पाई जाती है. प्राचीनकाल में जब भारत पर अशोक का शासन था तब सम्पूर्ण देश में प्राकृत भाषा का प्रचलन था. गुप्तकाल में संस्कृत सम्पूर्ण देश की भाषा थी. इसके पश्चात् यद्यपि अनेक प्रान्तीय भाषाओं का विकास हुआ, किन्तु इस सभी पर संस्कृत भाषा का स्पष्ट प्रभाव दिखाई पड़ता है. वर्तमान में भी प्रचलित तेलुगू, तमिल आदि पर भी संस्कृत भाषा का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है.

मैगस्थनीज द्वारा वर्णित जातियाँ
मैगस्थनीज ने तत्कालीन भारतीय समाज अर्थात् चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में निम्नलिखित जातियों का विवरण दिया है
(1) ब्राह्मण तथा दार्शनिक
(2) कृषक वर्ग
(3) ग्वाले तथा आखेटक
(4) व्यापारी तथा श्रमजीवी कारीगर एवं शिल्पी
(5) योद्धा अथवा सैनिक
(6) निरीक्षक तथा गुप्तचर
(7) मंत्री एंव परामर्शदाता, सभासद

धार्मिक एकता
प्राचीनकाल से ही भारत में अनेक धर्म यथा-ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन धर्म अपने अस्तित्व में रहे हैं. इसके अतिरिक्त यहाँ विदेशी धर्म यथा इस्लाम एवं ईसाई धर्म का भी अत्यधिक प्रचार-प्रसार हुआ. इन धर्मों से सम्बन्धित विभिन्न सम्प्रदायों की तो गणना करना अत्यन्त ही दुष्कर लगता है, किन्तु प्रायः प्रत्येक धर्म का आचारशास्त्र समान ही है, हाँ कर्मकाण्डों में अवश्य अन्तर दिखाई पड़ता है. सभी धर्म के अनुयायिओं में यद्यपि मतान्तर मिलते हैं, किन्तु वे सभी कहीं-नकहीं एक हो जाते हैं. इस प्रकार यहाँ धार्मिक विविधता में भी धार्मिक एकता दर्शित होती है.

जातीय एकता
यद्यपि यह सत्य है कि प्राचीनकाल से ही भारत अनेक जातियों यथा-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शंद्र, शक, हूण, कुषाण आदि का निवास-स्थल रहा है, तथापि इन सभी जातियों की संस्कृति ने एक-दूसरे को इतना प्रभावित किया कि वे परस्पर मिश्रित हो गईं. यही कारण है कि आज कोई भी जाति विशुद्ध रक्त होने का दावा नहीं कर सकती. इस प्रकार यह संकर जातीयता जातीय एकता को प्रमाणित करती है.

आर्थिक एकता
यद्यपि यह सत्य है कि भारत के विभिन्न भागों में अलग-अलग प्रकार की जलवायु पायी जाती है. परिणामस्वरूप कहीं अधिक उपज होती है तथा कहीं कम और यही तथ्य भारत की आर्थिक विविधता को स्पष्ट करता है, लेकिन इसके बावजूद भी कुछ अंशों में भारत में आर्थिक एकता पाई जाती है, क्योंकि प्राचीनकाल से ही भारत एक कृषि प्रधान देश रहा है और कृषि यहाँ का मुख्य व्यवसाय है. इसीलिए सम्पूर्ण भारत की आर्थिक समस्याएं भी एक जैसी ही हैं.

सांस्कृतिक एकता
यद्यपि भारत एक विशाल देश है. यहाँ के निवासी विभिन्न जातियों एवं धर्म के मानने वाले हैं, किन्तु फिर भी यह सांस्कृतिक एकता के सूत्र में बँधा हुआ है. आत्मसंयम, परोपकार, अतिथि सेवा, दया, अहिंसा, करुणा, सहनशीलता, विश्वबन्धुत्व, विश्वशान्ति आदि भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग हैं. इसके अतिरिक्त धार्मिक ग्रन्थोंगीता, रामायण, महाभारत का सम्मान, ब्राह्मण तथा गऊ का सर्वत्र सम्मान साथ ही पवित्र पारिवारिक बंधन, विवाहोत्सव, नामकरण संस्कार, पुनर्जन्म में विश्वास, मृतक संस्कार, अनेक समान रूप से सभी जातियों द्वारा मनाए जाने वाले त्यौहार यथा-होली, दीपावली, रक्षाबन्धन, विजयादशमी आदि अनेक ऐसे तथ्य हैं जो भारत की सांस्कृतिक एकता को स्पष्ट करते हैं. प्रो. हुमायूँ कबीर ने भारत की एकता के सम्बन्ध में ठीक ही कहा है कि "भारतीय सांस्कृतिक एकता की कहानी एकता और समाधानों का समन्वय है. यह प्राचीन परम्पराओं और नवीन मान्यताओं के पूर्ण सहयोग की उन्नति की कहानी है. इस संस्कृति का स्वरूप प्राचीनकाल में भी अपने अस्तित्व में रहा और वर्तमान में भी है और जब तक यह संसार है, इसका स्वरूप बना भी रहेगा, जबकि अनेक संस्कृतियाँ विलुप्त हो गईं. वहीं भारतीय संस्कृति और उसकी एकता अमर है."

सारांश

विद्यार्थियों ऊपर वर्णित भारतीय संस्कृति एवं उसकी विशेषताओं से पूरी तरह अवगत हो गये होंगे। भारतीय संस्कृति का मूल उद्देश्य व्यक्ति का, समाज का, राष्ट्र का सर्वांगीण विकास करना है। यह संस्कृति प्राचीनतम होने के बावजूद भी आज सुरक्षित है जहां विश्व की अन्य संस्कृतियां काल का ग्रास बनी या प्राकृतिक आपदाओं से नष्ट हो गई वहीं भारतीय संस्कृति किसी न किसी रूप में आज भी जीवित है। प्राचीन रीति रिवाज, धर्म, संस्कार, रहन-सहन, कला, साहित्य को आज भी उसी तरह माना जाता है। यद्यपि यह पूरी तरह से सुरक्षित नहीं है लेकिन इसके अंश आज किसी न किसी रूप में भारतीय समाज एवं मनुष्य में देखने को गिलते हैं। भारतीय संस्कृति का यदि वारीकी रो अध्ययन करे तो पता चलता है कि अतीत के रागी युगों और परिस्थितियों में उसकी अन्तधारा निर्बाध रूप से निरन्तर आगे बढ़ती रही आज भी सुरक्षित है यही कारण है कि इतनी प्राचीन होने के बावजूद यह निरन्तर गतिमान है। भारतीय संस्कृति के समन्चयात्मक एवं आध्यात्मिक दृष्टिकोण ने उसे सबल बनाया। अनेक भाषाओं, रीति-रिवाजो, परम्पराओं के होने के बावजूद इसमें एकता दृष्टिगत होती है। भारतीय संस्कृति ने विश्व बन्धुत्व की भावना एवं सहिष्णुता की नीति अपनाकर अनेक धर्मों एवं अनुयायियों को स्थान प्रदान कर रखा है जिसके कारण इसका विश्व संस्कृति में अलग पहचान बन गई है। यहीं नहीं विश्व को शान्ति एवं अहिंसा, ग्रहणशीलता का सिद्धान्त भी भारतीय संस्कृति की देन है। विश्व की अन्य संस्कृतियों में जहां स्वार्थ सिद्धि के लिये युद्ध होते हैं वहीं भारतीय संस्कृति ने "जीओं और जीने दो' का नारा देकर मानवता का पाठ पढ़ाया है। भारतीय संस्कृति की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता जिसके कारण भारतीय कोई गलत कार्य करते डरते हैं - वह है कर्मवाद । भारतीय विद्वानों के अनुसार व्यक्ति को अपने कर्मों के अनुसार फल भोगना पड़ता है और इसी कर्मवाद के सिद्धान्त को ध्यान में रखकर भारतीय कोई भी कार्य करते हैं तो उसके अच्छे बुरे फल का पहले अनुमान लगा लेते हैं यही कारण है अन्य देशों की तुलना में भारतीय अपराध कम करते हैं। यही कर्मवाद भारतीय संस्कृति की महत्वपूर्ण विशेषता है। समय के साथ भारतीयों ने भी प्राचीन संस्कृति के साथ नयी संस्कृति, आधुनिकीकरण को अपनाया है यह ग्रहणशीलता भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग है। भारतीय संस्कृति ने पहले भी मानव का पथ-प्रदर्शन किया था और आज भी स्वार्थ, द्वेष, वैमनस्य तथा हिंसा से पीड़ित मानवता के ऋण में यही भारतीय संस्कृति उपकारक सिद्ध हो सकेगी।

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