सल्तनत काल में राज्य का स्वरूप
दिल्ली सल्तनत एक धर्मतन्त्रिका राज्य था। इस्लाम ही राजधर्म था तथा उसी के अनुसार शासन संचालन करना पड़ता था। उच्च पदों पर भी मुसलमानों को ही नियुक्त किया जाता था। इस्लाम का प्रसार राज्य का कर्त्तव्य माना जाता था।
खलीफा की स्थिति
उस समय खलीफा काफी शक्तिशाली होता था। सैद्धान्तिक रूप से विभिन्न प्रदेशों के सुल्तान खलीफा के अधीन थे। जब कोई मुसलमान सेनापति किसी प्रदेश पर अधिकार कर लेता था, तब शासक बनने के लिए खलीफा की स्वीकृति जरूरी होती थी। दिल्ली के सुल्तान अपने सिक्कों पर खलीफा का नाम खुदवाते थे तथा उसके नाम से ही खुतबा पढ़ते थे।
सल्तनत काल में अलाउद्दीन खिलजी, फिरोजशाह तुगलक और सिकन्दर लोदी जैसे कुछ प्रमुख शासकों ने सुदृढ शासन-प्रबन्ध स्थापित किया। इस शासन व्यवस्था का मूल आधार ईरानी और अरबी शासन-प्रणालियां थीं, परन्तु फिर भी इसमें भारतीय संस्थाओं के चिन्ह स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होते थे।
सल्तनतकालीन शासन व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित थी।
केन्द्रीय सरकार
सल्तनत काल की केन्द्रीय सरकार भली-भांति संगठित थी। इसमें सुल्तान और उसके कुछ मन्त्री होते थे, जिनके केन्द्रीय विभाग नियमित रूप से कार्य करते थे। केन्द्रीय सरकार की कार्य-विधि और उसके प्रमुख अधिकारियों के नाम ईरानी शासन-प्रणाली से लिए गए थे।
सुल्तान
सुल्तान केन्द्रीय सरकार का मुखिया होता था। उसे ईश्वर का प्रतिनिधि समझा जाता था। सैद्धान्तिक रूप से सुल्तान से कुरान के नियमों के अनुसार राज्य करने की आशा की जाती थी, परन्तु व्यवहार में उसकी शक्तियों पर कोई ऐसा प्रतिबन्ध नहीं था, जो उसे इस्लामी कानून के अनुसार शासन करने पर विवश कर सकता। यही कारण था कि दिल्ली के कई सुल्तानों ने अपने व्यक्तिगत जीवन तथा शासन प्रबन्ध में कुरान की आज्ञाओं का पालन नहीं किया। सैद्धान्तिक रूप से सुल्तान का पद बहुत ऊँचा था, लेकिन व्यवहार में प्रजा उसे देवता तुल्य नहीं मानती थी और न ही उसका पद पैतृक था। कई बार सुल्तानों के अयोग्य सिद्ध होने पर उन्हें गद्दी से उतार दिय जाता था। सुल्तान को गद्दी से हटाने के लिए कोई संवैधानिक मार्ग नहीं था। उत्तराधिकार का कोई निश्चित नियम नहीं था। प्रायः षड्यन्त्र और तलवार ही इस सम्बन्ध में निर्णय करते थे। डॉ. ए.एल. श्रीवास्तव के शब्दों में – "सीजर की निरंकुश शक्ति और पोप की धार्मिक शक्ति दोनों का ही भारी मात्रा में समावेश था।" सुल्तान अपनी शक्ति तथा वैभव से जनता को प्रभावित करने के लिए शानदार दरबार लगाता था। उसके दरबार में आने-जाने के निश्चित नियम बने हुए थे। सुल्तान के महल में हजारों रानियों की सेवा के लिए अनेक दास-दासियां होती थी। शाही घराने पर राज्य का बहुत धन खर्च होता था।
सुल्तान के पास प्रशासनिक, न्यायिक और विधायी सभी प्रकार की शक्तियां थी। पदाधिकारियों की नियुक्ति, पदोन्नती एवं विमुक्ति उसके हाथ में थी। वही राज्य का सर्वोच्च सेनापति था। सर्वोच्च न्यायाधीश होने के नाते वह महत्त्वपूर्ण मुकदमों के फैसले स्वयं करता था। संक्षेप में राज्य की समस्त शक्तियां सुल्तान के हाथों में केन्द्रित थी और वह पूर्ण रूप से निरंकुश था, परन्तु व्यावहारिक रूप में सुल्तान कुछ शक्तियों का सहयोग लेकर चलता था। वह मुस्लिम सैनिक वर्ग का सहयोग प्राप्त करने के लिए 'शरा' का पालन करता था। मुस्लिम धार्मिक वर्ग का भी वह आदर करता था। प्रजा के किसी भी शक्तिशाली वर्ग की इच्छा की अवहेलना भी वह प्रायः नहीं करता था।
मजलिस-ए-खलवत
सुल्तान की एक परामर्शदात्री सभा होती थी, जिसे मजलिस-ए-खलवत कहा जाता था। इस सभा में सुल्तान के हितैषी, मित्र तथा विश्वसनीय अधिकारी सम्मिलित होते थे। सल्तान प्रायः उनसे राज्य के महत्त्वपूर्ण मामलों के सम्बन्ध में परामर्श लेता था, लेकिन उसको मानने के लिए वह बाध्य नहीं था। फिर भी उनके परामर्श का शासन की नीति पर काफी प्रभाव पड़ता था।
मन्त्रिमण्डल
राज्य कार्य में सुल्तान की सहायता के लिए बड़े योग्य तथा अनुभवी व्यक्तियों का एक मन्त्रिमण्डल होता था। दास वंश के समय मन्त्रियों की संख्या चार रही, परन्तु बाद में दो अन्य पदाधिकारियों को भी मन्त्री पद प्रदान किया गया।
वजीर तथा दीवाने वजारत
राज्य का प्रधानमन्त्री वजीर कहलाता था। वित्त विभाग का मुख्याधिकारी भी वही होता था। उसका एक बहुत बड़ा कार्यालय था, जो 'दीवाने-वजारत' के नाम से विख्यात था। वजीर राज्य के आय-व्यय का हिसाब रखता था। राज्य के दूसरे विभागों की निगरानी रखता था और सैन्य विभाग की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति भी वहीं करता था। सुल्तान की ओर से उसे विशेष अधिकार प्राप्त होते थे। समकालीन लेखकों के अनुसार 'दीवाने वजारत इतना महत्त्वपूर्ण विभाग था कि सूबेदार से लेकर चपरासी तक प्रत्येक व्यक्ति को उससे काम पड़ता था। डॉ. एएल, श्रीवास्तव के अनुसार - "अपनी विस्तृत शक्ति के आधार पर वह बड़े मान का उपभोग करता था तथा विशाल जागीर की आय के रूप में भारी वेतन प्राप्त करता था। उसले कार्यालय दीवाने वजार में अनेक छोटे-मोटे अधिकारी काम करते थे, जिनमें 'नायब वजीर' तथा मुशरफ-ए-मुमालिक वजीर के मुख्य सहायक थे। नायब वजीर कार्यालय का अध्यक्ष होता था और मुशरफ-ए-मुमालिक प्रान्तों से प्राप्त धनराशि का लेखा रखता था। हिसाब की जांच करने के लिए मुस्तफी-ए-मुमालिक होता था।
अरजे मुमालिक तथा दीवाने आरिज
राज्य के सैन्य मंत्री को आरिजे मुमालिक कहा जाता था। उसके प्रमुख कार्य थे- सैनिकों की भर्ती करना और उनमें अनुशासन बनाये रखना, सैनिकों व घोड़ों का हुलिया रिकार्ड रखना, सैनिक अभियानों के आयोजन में सुल्तान को सहयोग देना, सैनिकों का निरीक्षण करना शाही आदेश पर अभियानों का नेतृत्व करना, फौज की साज-सज्जा का प्रबन्ध करना आदि।
दीवाने इन्शा तथा दरबारे-खास
दीवाने इन्शा राज्य का पत्र विभाग था, जिसका मुखिया दरबारे-खास कहलाता था। विदेशी शासकों और राज्य के महत्त्वपूर्ण अधिकारियों को भेजे जाने वाले पत्र इस विभाग द्वारा तैयार किए जाते थे। यह विभाग महत्त्वपूर्ण आदेशों की नकलें भी रखता था।
दीवान-ए-रसालत
इस महत्त्वपूर्ण विभाग के कार्यों के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। डॉ. कुरैशी के मतानुसार इस विभाग का सम्बन्ध राज्य के धार्मिक मामलों के साथ था। इसके विपरीत डॉ. हबीब के मतानुसार इस विभाग का मुखिया विदेश मन्त्री होता था। इसका मुख्य कार्य बाहर के राजदूतों का स्वागत करना और अपने राजदूतों को बाहर भेजना था। अधिकांश आधुनिक इतिहासकार डॉ. हबीब के इस मत का समर्थन करते हैं।
सदरउसुदूर तथा मुख्य काजी
स्दरूसदूर धर्मार्थ विभाग का मुखिया था, जिसका मुख्य कार्य विद्वानों तथा निर्धनों को छात्रवृत्तियां तथा अनुदान दिलवाना था। वह यह भी देखता था कि प्रजा कुरान के नियमों के अनुसार जीवन व्यतीत कर रही है या नहीं। मुख्य काजी राज्य के विभाग का अध्यक्ष था। काजी ही न्याय–प्रबन्ध का निरीक्षण भी करता था।
प्रान्तीय और स्थानीय प्रशासन
शासन-प्रबन्ध की सुविधा के लिए दिल्ली साम्राज्य को भागों तथा उप-विभागों में विभक्त किया गया था। सम्पूर्ण राज्य प्रान्तों में विभाजित था। प्रान्त शासन की सबसे बड़ी इकाई थी। प्रारम्भ में इसे 'इक्ता कहा जाता था, परन्तु अलाउद्दीन के शासनकाल में इसे 'सूबा' कहा जाने लगा। अलाउद्दीन के साम्राज्य में कुल 11 सूबे थे, जबकि मुहम्मद तुगलक का राज्य 23 प्रान्तों में विभक्त था।
सूबेदार (प्रान्तपति)
प्रान्त अथवा सूबे के मुख्याधिकारी को सूबेदार कहते थे। उसके प्रमुख कार्य थे- प्रान्त में शान्ति एवं व्यवस्था बनाए रखना, शाही आदेशों को लागू करना, सुल्तान की आज्ञानुसार अभियान करना, सुल्तान को समय पर सैनिक सहायता देना।
प्रान्तीय सूबेदारों को काफी अधिकार दिए गए थे। प्रायः शहजादों को अथवा सुल्तान के निकट सम्बन्धियों या विश्वासपात्र सरदारों को ही सूबेदार के पद पर नियुक्त यिका जाता था। सूबेदारों पर नियन्त्रण बनाये रखने के लिए केन्द्रीय सरकार द्वारा कई कर्मचारी नियुक्त किए जाते थे। अपने शासन के खर्चे के लिए आवश्यक धन को रखकर शेष सारा धन उन्हें सुल्तान के पास भेजना पड़ता था। दूर के प्रान्तों में शासन करने वाले सूबेदारों को तो विशेष शक्तियां दी गई थी। इसके अतिरिक्त प्रत्येक प्रान्तीय विभाग केन्द्रीय विभाग से सम्बन्धित होता था और इसी के प्रति उत्तरदायी था।
परगना (आमिल तथा मुशरफ)
प्रान्तों को भी प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से परगनों में बांट दिया गया था। इनमें आमल व मुशरफ नामक प्रमुख अधिकारी होते थे। आमल परगने में शासन व्यवस्था बनाए रखता था। लगान सम्बन्धी कार्यों का उत्तरदायित्व मुशरफ पर था। इन अधिकारियों के अतिरिक्त एक खजान्ची, दो कारकून ओर एक कानूनगो आदि अन्य कर्मचारी भी होते थे। कई बार परगनों में चौधरी नामक कर्मचारी भी नियुक्त किया जाता था, जो किसानों की दशा के सम्बन्ध में अधिकारियों को सूचित करता था।
गांव (नम्बरदार, पटवारी, पंचायत आदि)
परगनों को गांवों में बांटा गया था। गांव ही राज्य की सबसे छोटी शासकीय इकाई थी। इसका प्रबन्ध नम्बरदार, पटवारी और चौकीदार करते थे। नम्बरदार गांव में शान्ति-व्यवस्था बनाए रखता था और भूमि-कर एकत्रित करने में सहायता देता था। गांव की पंचायतें शासन तथा न्याय-सम्बन्धी कार्य करती थीं। गांवों को अपने मामलों में काफी स्वतंत्रता प्राप्त थी।
स्थानीय शासन
स्थानीय शासन की भी विशेष व्यवस्था की गयी थी। सल्तनत के प्रान्त 'शिको' में विभक्त थे। 'शिक' का शासक 'शिकदार' कहलाता था। शिक' पुनः सरकारों में बंटे हुए थे सरकार परगनों में और परगने 'ग्रामों में बंटे हुए थे। प्रत्येक ग्राम का प्रबन्ध करने के लिए मुकद्दम से सहायता ली जाती थी। ‘पटवारी' मालगुजारी सम्बन्धी पत्र रखता था। परगने के प्रबन्ध के लिए 'चौधरी होता था। इसके अतिरिक्त अन्य कर्मचारी भी होते थे जो परगने के शासन में योग देते थे। इनमें से एक फसल का निरीक्षण करके लगान निश्चित करता था, एक लगान वसूल करता था और एक चपरासी का कार्य करता था। लेखक का कार्य करने वाले 'कारकून' कहलाते थे जो हिसाब-किताब रखते थे।
वित्तीय व्यवस्था
दिल्ली राज्य की आय के विभिन्न साधन थे, जिनमें भूमि-कर अधिक महत्वपूर्ण था।
भूमि-कर (उशर)
राज्य की आय का मुख्य साधन भूमि-कर था, जो उपज का पांचवां भाग होता था। अलाउद्दीन खिलजी तथा मुहम्मद तुगलक ने भूमि-कर को बढ़ाकर उपज का 1/2 भाग कर दिया था। राज्य की भूमि को चार भागों में बांट दिया गया था। कर निर्धारित करने के लिए राज्य के कई भागों में भूमि की पैमाइश को आधार बनाया जाता था, परन्तु कुछ भागों में बटाई-प्रथा भी प्रचलित थी।
खम्स
यह वह सम्पत्ति थी, जो युद्ध के दौरान की गई लूट से मिलती थी। सुल्तान लूट के 1/5 भाग का अधिकारी होता था और शेष 4/5 भाग सैनिकों को बाट दिया जाता था।
खिराज
यह वह कर था, जो हिन्दू जमींदारों से लिया जाता था। यह उपज का 1/2 भाग वसूल किया जाता था।
जकात
जकात एक प्रकार का धार्मिक कर था, जो अमीर मुसलमानों से लिया जाता था। यह उनकी सम्पत्ति का 2 1/2 प्रतिशत होता था। इस कर से प्राप्त राशि धार्मिक कार्यों में खर्च की जाती थी।
शर
मुस्लिम जमींदारों से शर नामक कर लिया जाता था, जो उपज का 1/10 भाग होता था।
जजिया
यह कर केवल हिन्दुओं से लिया जाता था, परन्तु ब्राह्मण इस कर से मुक्त थे। फिरोज तुगलक पहला शासक था, जिसने ब्राह्मणों से भी यह कर वसूल किया था। स्त्रियां, बच्चे, फकीर और अन्धे भी इस कर से मुक्त थे। हिन्दुओं से यह कर उनकी आर्थिक स्थिति के अनुसार क्रमशः 48,24,12 दिरहम वार्षिक लिया जाता था।
अन्य कर
उपरोक्त करों के अतिरिक्त साम्राज्य में और भी व्यापारों सम्बन्धी अनेक कर थे, जैसे चुंगी कर आदि। हिन्दू व्यापारियों से चुंगी मुसलमान की अपेक्षा दुगुनी ली जाती थी। अलाउद्दीन खिलजी ने घरों, पशुओं और चराई पर भी कर लगा दिए थे। सारांश यह है कि सल्तनत काल में जनता पर कर भार बहुत अधिक था। इस तथ्य की पुष्टि फीरोज तुगलक के कथन से भी होती है। उसने लिखा है कि - "मैने पचास-साठ के लगभग गैर-कानूनी करों को, जो स्थानीय शासकों ने लगा रखे थे, हटा दिया है।"
सैन्य संगठन
भारत में मुसलमान विदेश से आये थे। उन्हें शासन स्थापित करने के साथ-साथ रक्षा की भी समुचित व्यवस्था करनी पड़ी, जिसके लिए उन्हें एक विशाल सेना रखनी पड़ी। इन्होंने हिन्दुओं के राज्यों को जबरदस्ती छीना था अतएव उनसे भी राज्य की रक्षा करनी होती थी। आये दिन देश में विद्रोह भड़क उठते थे। इन विद्रोहों को दबाने के लिए सुल्तानों को एक शक्तिशाली सेना का निर्माण करना पड़ा था। सीमा की सुरक्षा का प्रश्न भी सुल्तानों के सामने महत्वपूर्ण था। इन सभी कारणों से दिल्ली के सुल्तानों ने एक शक्तिशाली सेना का निर्माण किया था। अतः सैनिक व्यवस्था के लिए 'दीवाने अर्ज विभाग की स्थापना की गयी थी जिसका प्रधान आरिज-ए-मुमालिक' होता था। सेना में कई प्रकार के सैनिक रखे जाते थे। प्रथम प्रकार के सैनिक सुल्तान के सैनिक कहलाते थे। ये सैनिक केन्द्रीय सरकार से सम्बन्धित थे। दूसरे प्रकार के सैनिक प्रान्तीय गवर्नरों के अधीन थे। इनकी नियुक्ति गवर्नर या अमीर करते थे। ये सैनिक अमीर, सूबेदार अथवा गवर्नर के प्रति उत्तरदायी होते थे तथा सैनिक सुल्तान की आज्ञा पर युद्ध क्षेत्र में जाया करते थे। अन्य प्रकार के सैनिक हिन्दुओं के विरुद्ध युद्ध में भाग लेने जाते थे। ये लोग धर्म युद्ध में भाग लेते थे। ये लोग बी तथा तलवारों से युद्ध करते थे। अलाउद्दीन खिलजी के समय से तोपखाने का भी प्रयोग होने लगा था। किलों को उड़ाने के लिए मशीनें थीं तथा राज्य की ओर से अनेक दुर्ग भी बनाये गये थे। इन दुर्गों में सेनाएं रहती थीं तथा अस्त्र-शस्त्र तथा सैनिकों की आवश्यकता के अन्य पदार्थ भी एकत्रित रहते थे।सेना में इंजीनियर तथा कारीगर भी होते थे, जो युद्धकाल में सेना की सेवा करते थे। प्रत्येक सेना के साथ एक बरीदे लश्कर' होता था जो सभी घटनाओं की सूचना राजधानी में भेजता था।
न्याय विभाग
सल्तनत युग में सुल्तान न्याय विभाग का सर्वोच्च अधिकारी होता था। वह राज्य का रक्षक समझा जाता था तथा काजियों के द्वारा किये गये फैसलों के विरुद्ध अपील सुनता था। उसके सामने नये मुकदमे भी पेश होते थे। विद्रोहियों के मुकदमों का फैसला या तो स्वयं सुल्तान करता था या उसके सेनापति सैनिक अदालतों में उनके मुकदमों का निर्णय करते थे। मुहम्मद तुगलक ने विद्रोहियों के मुकदमों के लिए एक अलग अदालत खोल थी, जो 'दीवाने रियासत' कहलाती थी, क्योंकि उसके समय में आये दिन विद्रोह होते रहते थे। प्रान्तीय शासकों को मृत्यु दण्ड देने का अधिकार नहीं था अतः वे ऐसे बन्दियों को राजधानी में भेज देते थे। सबसे पहले मुकदमा 'हजीब के पास जाता था। यदि निर्णय सन्तोषजनक नहो तो 'काजी-ए-मुमालिक' की अदालत में पेश होता था और सबसे बाद में सुल्तान स्वयं उसकी सुनवाई करता था। जब सुल्तान मुकदमा सुनता था, तब 'काजी-ए-मुमालिक' कानूनी सलाह के लिए सुल्तान की बगल में बैठता था। दीवानी के मामले में पेशी 'दीवाने कजा' में होती थी। काजी-ए-मुमालिक इसका भी प्रधान होता था।
जेलों की उचित व्यवस्था नहीं थी और अधिकतर पराने किलों को ही जेल बनाया जाता था। जेलों का शासनप्रबन्ध भी उचित रीति से नहीं होता था और उसमें बहुत अधिक व्यभिचार व्याप्त था।
पुलिस विभाग
इस विभाग का प्रधान कोतवाल होता था। कोतवाल के पास अनेक सैनिक होते थे, जो रातभर नगर में पहरा देते थे और मार्गों की रक्षा करते थे। कोतवाल के पास एक रजिस्टर होता था, जिसमें नगरवासियों के नाम लिखे रहते थे। उसे नगर की प्रतिदिन की घटनाओं की सूचना मिलती रहती थी। उसके पास नगर में आने वालों तथा वहां से बाहर जाने वालों की भी सूचना रहती थी। दण्ड विधान कठोर था तथा प्रजा की जान व माल बिल्कुल सुरक्षित थे।
डाक विभाग
सल्तनतकाल में राजधानी दिल्ली का प्रान्तीय राजधानियों तथा प्रमुख नगरों के साथ सम्पर्क बनाये रखने तथा आवश्यक राजकीय पत्रों को लाने ले जाने के लिए डाक विभाग स्थापित किया गया था। डाक विभाग की देख-रेख में डाक-चौकियां कायम की गई और इन चौकियों पर डाक लाने-ले जाने वाले हरकारों को नियुक्त किया गया। ये हरकारे आगे की डाक चौकी के हरकारों से डाक के थैलों का आदान-प्रदान कर लिया करते थे। हरकारे बहुत ही तेज गति से दौड़कर अगली डाक चौकी तक जाया करते थे। डाक के माध्यम से राज परिवार तथा अन्य महत्त्वपूर्ण पदाधिकारियों के लिए खाद्य पदार्थ तथा फल भी मंगाये जाते थे। डाक चौकी पर घुड़सवार डाकियों भी व्यवस्था रहती थी। राज्य के प्रमुख मार्गों पर स्थित ये डाक –चौकियां राहगीरों के लिए विश्राम स्थल का भी काम करती थी।
सारांश
उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि दिल्ली सल्तनत का राजनीतिक संगठन उत्तम था। स्वयं सुल्तान के राजपरिवार का संगठन ही राज्य की रक्षा के लिए पर्याप्त था। राजपरिवार के पदाधिकारियों के द्वारा सुल्तान अमीरों पर पूर्ण नियन्त्रण रखता था। इतना ही नहीं, इन्हीं की सहायता राज्य विस्तार में भी प्राप्त होती थी। डॉ. कुरैशी के अनुसार, "राज दरबार राजनीतिक, सामाजिक, तथा सांस्कृतिक दृष्टिकोण से सल्तनत का हृदय था।" इसके अतिरिक्त सल्तनत काल के अन्य विभाग भी अपना-अपना कार्य सफलतापूर्वक करते थे। पुलिस, आदि का अच्छा प्रबन्ध था तथा जनता की जान माल की पूर्ण सुरक्षा थी। सुल्तानों के सैनिक संगठन के कारण ही विदेशी आक्रमणों से देश की रक्षा की जा सकी तथा इसी सेना के द्वारा ही आन्तरिक विद्रोह का सामना किया जा सका। अतः यह कहा जा सकता है कि सल्तनतकालीन राजसंस्था का संगठन उच्च कोटि का था, इसीलिए देश की सांस्कृतिक उन्नति इस युग में यथेष्ठ हुई। शासन-धर्म से प्रभावित था, इस कारण हिन्दुओं पर कुछ शासकों ने अत्याचार किये।