भूकंप किसे कहते है bhukamp kise kahate hain
भूकम्प का शाब्दिक अर्थ है- धरातल या भू-पटल का काँपना या हिलना। यह एक आकस्मिक अन्तर्जात प्रक्रिया है। भूकम्प की परिभाषा इन शब्दों में प्रस्तुत की जा सकती है- जब किसी ज्ञात अथवा अज्ञात बाह्य अथवा अन्तर्जात कारणों से पृथ्वी के भूपटल में तीव्र गति से कम्पन पैदा हो जाती है तो उसे भूकम्प कहते हैं। जिस प्रकार जब हम किसी तालाब में पत्थर फेंकते हैं, तो पानी की लहरें सभी दिशाओं में फैलने लगती हैं इसी प्रकार पृथ्वी के भीतर की चट्टानें जब हिलती हैं, तो कम्पन पैदा होते हैं जो चारों ओर फैलने लगते हैं।
पृथ्वी में कम्पन क्यों?
प्राय भ्रंश (Rift) के किनारे-किनारे ही ऊर्जा निकलती है। भूपर्पटी की शैलों में गहन दरारे ही भ्रंश होती हैं। भ्रंश की दोनों ओर की शैले विपरीत दिशा में गति करती हैं। जहाँ ऊपर के शैल खंड दबाव डालते हैं, उनके आपस का घर्षण उन्हें परस्पर बाँधे रखता है। किंतु अलग होने की प्रवृत्ति के कारण घर्षण का प्रभाव कम हो जाता है जिसके परिणामस्वरूप शैलखंड विकृत होकर अचानक एक-दूसरे के विपरीत दिशा में सरक जाते हैं।
परिणामतः ऊर्जा निकलती है जो सभी दिशाओं में गतिमान होती है।
भूकम्प विज्ञान (Seismology)
विज्ञान की वह शाखा जो भूकम्पों का अध्ययन करती है, भूकम्प विज्ञान या सिस्मोलाजी कहलाती है। भूकम्प के तरंगों को अंकित करने वाले यंत्र को भूकम्पलेखी या सीस्मोग्राफ कहते हैं। इस यंत्र की सहायता से भूकम्पीय लहरों की गति एवं उनके उत्पत्ति स्थान तथा प्रभावित क्षेत्रों के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।
भूपटल के नीचे जिस स्थान पर भूकम्प की उत्पत्ति होती है उसे भूकम्प उत्पत्ति केन्द्र के ठीक ऊपर धरातल पर स्थित स्थान भूकम्प अधिकेन्द्र (epicentre) कहलाता है। भूकम्पीय लहरों से सर्वाधिक प्रभावित अधिकेन्द्र एवं उसके आसपास के क्षेत्र होते हैं।
भूकम्प विज्ञान (Seismology) के क्रमिक विकास ने न केवल भूकम्पों की उत्पत्ति, स्वरूप आदि पर प्रकाश डाला है, वरन् भू-गर्भिक शैलों की आन्तरिक संरचना का भी पर्याप्त ज्ञान दिया है। वास्तव में भूकम्प का प्रमुख वैज्ञानिक कारण शैलों की प्रतिरोधक क्षमता से अधिक आकस्मिक विक्षोभ का होना है।
भूकम्प के कारण
- ज्वालामुखी क्रिया
- भ्रंश एवं संपीडन की क्रिया
- समस्थितिक समायोजन या भू-संतुलन
- प्रत्यास्थ प्रतिक्षेप सिद्धान्त
- प्लेट विवर्तनिकी
- अविवर्तनिक
ज्वालामुखी क्रिया
भूकम्पों के आने का एक प्रमुख कारण ज्वालामुखी उदभव है, क्योंकि पृथ्वी के भीतर से गर्म लावा और गैसों के निकलने से आस-पास की भू-पर्पटी पर दबाव पड़ता है और वहाँ कंपन उत्पन्न होता है।
ज्वालामुखीय उद्गार या विस्फोट से धरातलीय चट्टानें टूट जाती हैं और सैकड़ों/हजारों किलोमीटर तक भूकम्प का अनुभव किया जाता है। ज्वालामुखी प्रदेशों में ज्वालामुखीय विस्फोट न होने पर भी भूकंप आते रहते हैं। जिसका कारण भूगर्भ के पिघले पदार्थों का पूरी शक्ति से बाहर निकलने का प्रयास और ऊपरी कठोर चट्टानों द्वारा उन पिघले पदार्थों के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करना है। जापान में ज्वालामुखी क्रिया द्वारा निरंतर भूकम्प उत्पन्न होते रहते हैं।
भ्रंश एवं संपीडन की क्रिया
पृथ्वी के भीतर अधिक गहराई पर तापमान और दाब बहुत अधिक होता है। यह दाब प्रत्येक स्थान पर समान नहीं होता कभी-कभी यह दाब इतना अधिक बढ़ जाता है, जिसके कारण गहराई पर स्थित चट्टानें मुड़ने लगती हैं और अन्ततः टूट जाती हैं, चट्टानों के टूटे हुए भाग ऊपर अथवा नीचे की ओर सरक जाते हैं, इसे भ्रंश (जियोलोजिकल फॉल्ट) कहते हैं। एक विशाल भूकम्प के आने के बाद पृथ्वी को स्थिर होने में समय लगता है और काफी समय तक हल्के-हल्के झटके आते रहते हैं, जिन्हें बाद के झटके (आफ्टर शॉक) कहते हैं।
चाहे जिस कारण से हो पृथ्वी की सतह पर चट्टानें तनाव और संपीडन (Tension and Compression) के कारण चटक जाती हैं। ऐसी क्रियाओं के प्रभाव से पृथ्वी की परतों में अव्यवस्था आ जाती है और पृथ्वी की चट्टानें भ्रंश के प्रभाव से टूटती या खिसकती हैं अथवा पृथ्वी की सतह पर दरारें विकसित होती हैं। ये सभी तनाव (Tensional) सम्बंधी क्रियाएँ हैं। इसके प्रभाव से सम्बंधित क्षेत्रों में तेजी से चट्टानों के संचलन व विचलन के कारण भूकम्प आते हैं। जिस रेखा पर भू-पटल की चट्टानें चटकती या खिसकती हैं उसे भ्रंशरेखा कहा जाता है। प्रायः सभी बड़े भूकम्पों में कहीं-कहीं भ्रंश धरती की सतह पर दृष्टिगोचर होने लगते हैं, जैसे सन् 1960 ई. में सैन फ्रांसिस्को में हुए भूकंप में भ्रंश-रेखा के ऊपर धरती में लगभग 800 किमी. लंबी दरार (भ्रंश) पड़ गयी थी, जिसे सैन एण्ड्रियास भ्रंश (San Andreas Rift) कहते हैं। भ्रंश रेखाओं पर उत्पन्न होने वाले भूकम्प वहीं आते हैं जहाँ की भू-गर्भिक चट्टानें संतुलित नहीं हो पायी हैं ऐसे भाग दुर्बल क्षेत्र (Weak Zones) कहलाते हैं। विश्व के सभी नवीन पर्वत क्षेत्र (जैसे-हिमालय, आल्प्स, रॉकी, एण्डीज) दुर्बल क्षेत्र हैं और प्रमुख भूकम्प क्षेत्र बने हुए हैं।
समस्थितिक समायोजन या भू-संतुलन
अपरदन के विविध साधन महाद्वीपों के पदार्थों को काट-छाँटकर अधिकांशतः सागरों में निक्षेपित करते रहते हैं। इससे सागर की तली का भार अधिक हो जाता है। उन स्थानों की शैलें नीचे फँसती हैं। भूसन्तुलन स्थापित करने के लिए पर्वतीय क्षेत्रों में उत्थान की क्रिया होती है। इससे शैलों में विक्षोभ उत्पन्न होता है, जिससे भूकम्प आते हैं। हिन्दुकुश (1948), कांगड़ा (1905), चीन के कांसू प्रदेश (1920, 1927), असम (1897) में इसी प्रकार के भूकम्प उत्पन्न हुए थे।
पृथ्वी के ऊपर उठे हुए भाग (Uplifted land) एवं निचले भाग (Depressed Land) में समस्थितिक समायोजन हमेशा एक समान (Maintained) नहीं रहता है। महाद्वीपों से अपरदित मलबे बहकर समुद्र में निक्षेपित होते हैं। ये निक्षेपित मलबे बहकर समुद्र में निक्षेपित होते हैं। ये निक्षेपित मलबे पृथ्वी की संतुलन को बिगाड़ देते हैं। यह संतुलन भू-भाग के पुनः उठने से संतुलित हो जाता है। इस क्रम में पृथ्वी के कमजोर भाग में (Zone of weakness) भूकम्प की उत्पत्ति होती है। जैसे- हिन्दुकुश (1948) एवं कनाडा (1905) का भूकम्प इसी श्रेणी का भूकम्प था।
प्रत्यास्थ प्रतिक्षेप सिद्धान्त
भूगार्भिक शैलें रबड़ की भाँति लचीली होती हैं। तलाव होने पर वे एक सीमा तक खिंचती हैं तथा अधिक तनाव होने पर वे टूट जाती हैं। टूटे हुए भूखण्ड पुनः खिंचकर अपना स्थान ग्रहण करते हैं, इससे भूकम्प उत्पन्न होते हैं। टूटे हुए भूखण्ड पुनः खिंचकर अपना स्थान ग्रहण करते हैं, इससे भूकम्प उत्पन्न होते हैं। बिहार (1944), असम (1950), उत्तर प्रदेश (1956), के भूकम्प इसी कारण उत्पन्न माने गये थे।
प्रसिद्ध अमेरिकी भूगोलवेत्ता प्रो. एच. एफ. रीड (H. F. Read 1906) के अनुसार भूगार्भिक चट्टानें लचीली (Elastic) होती हैं, अर्थात रबर के समान उनमें तन्यता का गुण होता है। जब कभी अन्तर्जात बल वहाँ सक्रिय होते हैं तो उनमें दबाव उत्पन्न होता है। दबाव पड़ने पर चट्टानें अपने लचीले स्वभाव के कारण उसे सहन करती रहती हैं, एक सीमा के बाद वे अधिक दबाव सहन करने में असमर्थ हो जाती हैं और यह दबाव चट्टानों के लचीलेपन की सीमा (Limit of Elasticity) को पार कर जाता है तो चट्टानें खंडित हो जाती हैं, फलतः खंडित चट्टानों के मध्य दरार पड़ जाती है। दरार के दोनों ओर के चट्टान-खण्ड विपरीत दिशाओं में खिसक जाते हैं। इस क्रिया से चट्टानों का तनाव समाप्त हो जाता है और चट्टान के दोनों खंड पुनः अपनी पुरानी स्थिति को पाने के लिए भ्रंश के सहारे संचलित होते हैं। इस तरह के संचालन को ही भूकम्प कहते हैं। भूकम्प की उत्पत्ति के सम्बंध में प्रकट किया हुआ प्रो. रीड का यह मत प्रत्यास्थ प्रतिक्षेप सिद्धान्त कहलाता है।
प्लेट विवर्तनिकी
भूकम्प का एक दूसरा कारण विवर्तनिक भी है। पृथ्वी के पटल को प्लेटों का बना हुआ माना गया है, ये प्लेटें सरकती रहती हैं और कभी-कभी दूसरी प्लेटों से टकरा भी जाती हैं, अत: इन प्लेटों के टकराने से भी भूकम्प आते हैं।
स्थलमंडल दृढ़ एवं कठोर भू-प्लेटों से निर्मित है। इन प्लेटों के किनारों (रचनात्मक किनारा, विनाशात्मक किनारा एवं संरक्षी किनारा) पर अधिकांश भूकम्पीय घटनाएँ होती हैं। मध्य महासागरीय कटकों (mid oceanic ridge) के सहारे रचनात्मक किनारे स्थित होते हैं, जो विपरीत दिशाओं में खिसकते हैं एवं दबाव मुक्त होने पर कटक के नीचे स्थित शैलें पिघलती हैं। यह मैग्मा दरारों से बाहर आता है, तब भूकम्प उत्पन्न होता है। महासागरों में स्थित इन्हीं कटकों के सहारे विस्तृत पेटियों में ज्वालामुखी भूकम्प आते हैं।
भूकम्प आने के पहले वायुमंडल में रेडॉन गैसों की मात्रा में वृद्धि हो जाती है। अतः इस गैस की मात्रा में वृद्धि का होना उस प्रदेश विशेष में भूकम्प आने का संकेत होता है।
जिस स्थान से भूकम्पीय तरंगें उत्पन्न होती हैं उसे भूकम्प मूल (Focus) कहते हैं तथा जहाँ सबसे पहले भूकम्पीय लहरों का अनुभव किया जाता है उसे भूकम्प केन्द्र (Epi-centre) कहते हैं।
अविवर्तनिक
भूकम्प की उत्पत्ति के अविवर्तनिक (नॉन टेक्टोनिक) कारण भी होते हैं, जब ज्वालामुखी से उद्गार निकलते हैं तब भी पृथ्वी की सतह पर कम्पन होते हैं इसके अतिरिक्त चट्टानों के खिसकते, बम फटने अथवा भारी वाहनों और रेलगाड़ियों की तीव्र गति से भी कम्पन पैदा होता है, किन्तु इस प्रकार का भूकम्प बहुत हल्का होता है, तेज-से-तेज ज्वालामुखी भूकम्प एक मध्यम विवर्तनिक भूकम्प से हल्का होता है।
अन्य कारण
भूकम्प उत्पन्न होने के अनेक (Secondary) कारण भी हैं जिनका प्रभाव स्थानीय रूप से देखा जाता है।
किसी नदी पर बाँध बनाकर जलाशय में जल एकत्रित करने के कारण जल के भार से जलाशय के तल पर दबाव पड़ता है। इससे चट्टानों में विक्षोभ उत्पन्न होता है एवं स्थानीय स्तर पर भूकम्प आते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में सन् 1967 ई. में कोलोरैडो नदी पर निर्मित बाँध के कारण एवं भारत में सन् 1975 ई. में आया कोयना भूकम्प इसी प्रकार के हैं।
कुछ लघु एवं प्रभावकारी भूकम्प समुद्रतटीय भागों में शिलाखण्डों के टूटनें, गुफाओं के धंसने पहाड़ी क्षेत्र में भू-स्खलन, हिम-स्खलन तथा मृदा स्थानान्तरण से भी उत्पन्न होते हैं।
मैलेट जैसे कुछ विद्वानों का कहना है कि जब समुद्र का जल समुद्र-नितल में पड़ी दरारों से होकर भू-गर्भ में पहुँचता है तो वहाँ तुरंत भाप में बदल जाता है और वह बाहर आने के प्रयास में ऊपर की चट्टानों को तीव्र धक्का देता है जिससे भयंकर भूकम्प उत्पन्न हो जाता है। प्रायः देखा गया है कि अधिकतर भूकम्पों के केन्द्र पृथ्वी के गर्भ में होते हैं, अतः इस कथन की सत्यता पर विश्वास करना पड़ता है।
अनेक मानवीय क्रियाओं से भी लघु एवं कृत्रिम भूकम्पों की उत्पत्ति होती है। खान खोदने, सुरंग बनाने, विस्फोटों, रेल इंजनों एवं भारी वाहनों, विशाल कारखानों की मशीनों इत्यादि के द्वारा भी आस-पास के क्षेत्र में स्थानीय स्तर पर भूकम्प अनुभव किये जाते हैं।
भूकम्प का वितरण
- प्रशांत महासागर तटीय पेटी : विश्व में 68 प्रतिशत भूकम्प इसी पेटी में आते हैं, इसलिए इसे अग्नि वलय (Ring of Fire) कहते हैं। यह पेटी पश्चिम में अलास्का से क्यूराइल, जापान, मेरियाना और फिलीपाइन खाई तक है तथा चिली, कैलिफोर्निया और न्यूजीलैण्ड के समुद्रतटीय भाग सम्मिलित है।
- मध्य महाद्वीपीय पेटी : विश्व के 21 प्रतिशत भूकम्प इस पेटी में आते हैं। पिरेनीज, आल्पस, कॉकेशस और हिमालय, म्यांमार की पहाड़ियाँ, पूर्वी द्वीप समूह की श्रेणियाँ इन्हीं मेखला में आती हैं। भारत के भूकम्प क्षेत्र इसी पेटी में आते हैं। यह पेटी मैक्सिको से शुरू होकर अटलांटिक महासागर, भूमध्य सागर तथा कॉकेशस से होती हुई हिमालय पर्वत तथा सीमावर्ती क्षेत्रों तक फैली हुई है।
- मध्य अटलांटिक पेटी : इस पेटी में भूकम्प आने का मुख्य कारण सागरतल प्रसरण है। यह पेटी स्पिट वर्जेन तथा आइसलैण्ड से प्रारंभ होकर बोवेट द्वीप के साथ विस्तृत है।
- अन्य क्षेत्र : इसमें पूर्वी अफ्रीका की लंबी भू-भ्रंश घाटी, अदन की खाड़ी से अरब सागर तक का क्षेत्र तथा हिन्द महासागर की भूकम्पीय पेटी सम्मिलित की जाती है।
सुनामी
सुनामी जापानी शब्द है जिसका अर्थ होता है-“वे समुद्री लहरें जो समुद्र पर आती हैं।" इस प्रकार अन्तः सागरीय भूकम्पों द्वारा उत्पन्न लहरों को सुनामी कहते हैं। यह लहरें सागरीय तटों पर भारी विनाश करती हैं। इनकी गति 100-150 किमी. प्रति घंटा होती है। गहरे सागरों में सुनामी लहर की लंबाई सर्वाधिक होती है, परंतु सागर तट की ओर जाने पर और कम होती जाती है।
26 दिसम्बर, 2004 को हिन्द महासागर में आई सुनामी महान विनाशकारी साबित हुई। सुनामी लहरों की दृष्टि से प्रशान्त महासागर सबसे खतरनाक स्थिति में है।
- भूकम्प तीव्रता के मामले में सबसे विनाशकारी भूकम्प का उदाहरण है- 22 मई, 1960 का वालडिविया भूकम्प, चिली (तीव्रता 9.5)
- मृत्यु के मामले में सबसे विनाशकारी भूकम्प का उदाहरण है-23 जनवरी, 1956 का शांझी, चीन, भूकम्प (8,20,000 - 8,30,000 लोग मारे गए) (तीव्रता-8.0)
- सम्पत्ति नुकसान (क्षति) के मामले में सबसे विनाशकारी भूकम्प का उदाहरण है- वर्ष 2011 का तोहोकु (जापान) भूकम्प, तीव्रता-(9.0) 235 बिलियन डॉलर का नुकसान।
भूकम्प के प्रकार (Types of Earthquake)
गुटेनबर्ग तथा रिटर ने भूकम्प मूल (Focus) की गहराई के आधार पर भूकम्प को तीन भागों में विभाजित किया है-
- सामान्य भूकम्प- 0-50 किमी.
- मध्यवर्ती भूकम्प- 50-250 किमी.
- गहरे या पातालीय भूकम्प- 250-700 किमी.
भूकम्पीय तरंगें
भूकम्प के समय जो ऊर्जा भूकम्प मूल से निकलती है, उसे प्रत्यास्थ ऊर्जा (Elastic Energy) कहते हैं। भूकम्प के दौरान कई प्रकार की भूकम्पीय तरंगें (Seismic Waves) उत्पन्न होती हैं जिन्हें तीन श्रेणियों में रखा जा सकता है:-
प्राथमिक अथवा लम्बवत् तरंगें (Primary or Longitudinal Waves)
इन्हें P-तरंगें भी कहा जाता है। ये अनुदैर्ध्य तरंगें हैं एवं ध्वनि तरंगों की तरह चलती हैं। तीनों भूकम्पीय लहरों में सर्वाधिक तीव्र गति P तरंगों की होती है।
यह ठोस के साथ-साथ तरल माध्यम में भी चल सकती है, परन्तु ठोस की तुलना में तरल माध्यम में इसकी गति मंद हो जाती है। S तरंगों की तलना में P तरंगों की गति 66% अधिक होती है।
अनुप्रस्थ अथवा गौण तरंगें (Secondary or Transverse Waves)
इन्हें S तरंगें भी कहा जाता है। ये प्रकाश तरंगों की भाँति व्यवहार करती हैं। ये सिर्फ ठोस माध्यम में ही चल सकती है और तरल माध्यम में प्रायः लुप्त हो जाती है। चूंकि ये पृथ्वी के कोर से गुजर नहीं पातीं, अतः 5 तरंगों के इस व्यवहार से पृथ्वी के कोर के तरल होने के सम्बंध में अनुमान लगाया जाता है। तरंगों की तुलना में इनकी गति 40% कम होती है।
धरातलीय तरंगें (Surface or Long Period Waves)
इन्हें L तरंगें भी कहा जाता है। ये पृथ्वी के ऊपरी भाग को ही प्रभावित करती है। ये अत्यधिक प्रभावशाली तरंगें हैं एवं सबसे लंबा मार्ग तय करती है। इनकी गति अत्यंत धीमी होती है एवं ये सबसे देर में पहुँचती है, परंतु इनका प्रभाव सर्वाधिक विनाशकारी होता है।
P और S लहरें युग्म में चलती हैं। P-S तरंग युग्मों की गति सर्वाधिक होती है; कुछ विद्वानों ने भूकम्पीय लहरों के अन्य युग्मों का भी पता लगाया है जिनमें Pg-Sg की गति सर्वाधिक कम होती है जबकि P*- S* की गति उक्त दोनों के मध्य होती है। इन तरंगों की गति तथा भ्रमण-पथ के आधार पर पृथ्वी के आंतरिक भाग के विषय में जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
भूकम्पलेखी (Seismograph)
जिन संवेदनशील यंत्रों द्वारा भूकम्पीय तरंगों की तीव्रता मापी जाती है उन्हें भूकम्प लेखी या सीस्मोग्राफ (Seismograph) कहते हैं।
इसके तीन स्केल (scale) हैं-
- रॉसी - फेरल स्केल (Rossy Feral Scale) : इसके मापक 1 से 11 रखे गए थे।
- मरकेली स्केल (Mercali Scale) : यह अनुभव आधारित स्केल है। इसके 12 मापक हैं।
- रिक्टर स्केल (Richter Scale) : यह गणितीय मापक (Logarithmic) है, जिसकी तीव्रता 0 से 9 तक होती है और रिक्टर स्केल पर प्रत्येक अगली इकाई पिछली इकाई की तुलना में 10 गुना अधिक तीव्रता व्यक्त करता है।
भूकंपीय छाया क्षेत्र
भूकम्प अधिकेंद्र (Epicentre) से 102° से 143° के बीच का क्षेत्र (जहाँ कोई भी भूकम्पीय तरंग अभिलेखित नहीं होती) दोनों प्रकार की तरंगों (S/P) के लिए छाया क्षेत्र है। 'S' का Shadow Zone 'P' से अधिक होता है। एक भूकम्प का Shadow Zone दूसरे से अलग होता है।
भारत के भूकंप क्षेत्र
- भारत के हिमालय क्षेत्र में अधिकांश भूकम्प आते है। गंगा के मैदान में भी भूकम्पों का प्रभाव दिखाई देता है।
- पिछले वर्षा तक दक्षिणी पठार के भूकम्प से मुक्त माना जाता था, किन्तु 1986 में महाराष्ट्र के कोयना बाँध क्षेत्र में आये भूकम्प ने इस धारणा को गलत सिद्ध कर दिया।
- भारत के भूकम्प क्षेत्र को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है।
हिमालय क्षेत्र
- यह क्षेत्र नवीन पर्वतीय क्षेत्र है। इस क्षेत्र में संतुलन की अवस्था अभी पूर्ण नहीं हो पायी है। जिसका कारण निर्माण कार्य का अभी जारी रहना है।
- इस प्रकार भूगर्भिक अव्यवस्था के कारण इस क्षेत्र में भूकम्म का उद्भव होता रहता है।
- यह भारत का सबसे बड़ा भूकम्प क्षेत्र है।
- इस क्षेत्र में भूकम्प का दूसरा महत्वपूर्ण कारण यूरेशियन तथा भारतीय प्लेटों का आपस में टकराव है।
मैदानी क्षेत्र
- इस क्षेत्र में अंतर्गत भारत का उत्तरी मैदानी भाग आता है। जिसमें गंगा, सिंधु, ब्रह्मपुत्र का मैदानी भाग सम्मिलित है।
- इस प्लेट पर हिमालय क्षेत्र की भूगर्भिक घटनाओं का प्रभाव अधिक पड़ता है जिसके कारण इस क्षेत्र में भूकम्पीय घटनाएं प्रेरित होती है।
- दूसरा कारण, इस मैदान का निर्माण जलोढ़ मिट्टी से होना है, जिसमें हिमालय के निर्माण के समय से ही कई दरारों का विकास हो गया था। इन दारारों के सहारे भी भूकम्पों का उद्भव होता है।
दक्षिण प्रायद्वीपीय क्षेत्र
- प्रायद्वीपीय क्षेत्र संसार के प्राचीनतम एवं कठोर स्थलखण्डों में आता है।
- इसी कारण इस क्षेत्र को संतुलन की दृष्टि से स्थित माना जाता है। तथा उपर्युक्त दोनों क्षेत्रों की तुलना में इस क्षेत्र में।
- भूकम्पीय घटनाओं का उद्भव कम होता है।
- इस क्षेत्र में भूकम्प प्रायः प्राचीन प्राकृतिक दरारों और भ्रंशों के सहारे उत्पन्न होते है।
- 1967 के कोयला भूकंप था 1993 में लातूर भूकम्प का कारण प्राकृतिक दरारें ही थी।
उत्तरी मैदानी क्षेत्र
- इस क्षेत्र में सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र का मैदानी क्षेत्र सम्मिलित किया जाता है।
भूकम्प से हानि
- भूकम्प से सड़क, रेलपटरी, पुल, बिजली के खम्भे आदि टूट जाते हैं।
- भूकम्प से मकान नष्ट हो जाते हैं, कल-कारखाना तथा खानों में आग लग जाती हैं।
- भूकम्प प्रभावित क्षेत्रों में भूस्खलन क्रिया तेजी से होती है जिससे बड़े-बड़े भूभाग धंस जाते हैं।
- गहरे समुद्री भागों में तीव्र भूकम्प आने के कारण सुनामी जैसी लहरें उत्पन्न होती हैं जिससे तटीय क्षेत्रों में जन-धन की हानि होती हैं।
भूकम्प से लाभ
- भूकम्पीय तरंगें पृथ्वी को पार कर जाती है जिससे हमें पृथ्वी के भीतर की जानकारी मिलती है।
- भूकम्प आने से बहुमूल्य खनिज पदार्थ पृथ्वी के आन्तरिक भाग से धरातल पर आ जाते हैं।
- समुद्री भाग में भूकम्प आने से तटीय भाग नीचे धंस जाता है जिससे गहरी खाइयों का निर्माण होता है जिसके फलस्वरूप बड़े जलयान तटीय क्षेत्र तक पहुंचते हैं। इससे व्यापार में सहायता मिलती है।
भूकम्प से बचाव
भूकम्प एक अति तीव्रगामी, विनाशकारी प्राकृतिक आपदा है। इसके आने पर काफी जन-धन की हानि होती है। अधिकतर लोग भवन के मलवे के नीचे दबकर मर जाते हैं क्योंकि स्थानीय भवन/मकान भूकम्प विरोधी नहीं बनाये जाते हैं। भूकम्प से बचने के लिए निम्नलिखित उपाय अपनाएं-
- अगर आप ग्रामीण क्षेत्र में होते हैं तो भूकम्प के आने के समय-स्कूल भवन से तुरन्त बाहर भागकर खुले स्थान पर, भवन से दूर खड़े हो जाएं।
- यदि आप नगर, कस्बा क्षेत्र में हों तो किसी मेज, तख्त या अन्य ठोस वस्तु के नीचे छिप जाएँ। ध्यान यह भी रहे कि खिड़की, आलमारी या भारी वजनी वस्तु या पंखे के नीचे अथवा बगल में नहीं छुपना चाहिए।
- अगर मकान बहुमंजिली है, मकान से बाहर निकलकर सिर को हाथ से/तकिया से ढक लें। यदि आपके पास हैलमेट है तो उसे शीघ्र लगालें। ऐसे समय में लिफ्ट से नीचे नहीं उतरना चाहिए।
- अगर आप खुले क्षेत्र में हो तो तुरन्त पेड़, बिजली के तार व खम्भे, मकान से दूर जाकर खड़े हो जाएँ।
- अगर आप सड़क पर चल रहे हैं तो तुरन्त रुककर फ्लाई ओवर पावर लाइन और विज्ञापन बोर्ड से दूर खड़े हो जाएँ यदि कार से चल रहे हों तो कार छोड़कर बाहर खुली जगह पर दूर खड़े हो जाएँ।
- यदि आप सिनेमा हाल, स्टेडियम, आडिटोरियम में हैं तो वहाँ (पहले बूढ़ों, विकलांगों तथा छोटे बच्चों को जाने दें) से तुरन्त अपने सिर पर हाथ रखते हुए बाहर निकल कर दूर खड़े हो जाएँ।
भूकम्प महत्वपूर्ण तथ्य
- भूकम्प आने से पहले वायुमंडल में रेडॉन गैसों की मात्रा में वृद्धि हो जाती है।
- जिस जगह पर भूकम्प का कम्पन प्रारम्भ होता है उसे भूकम्प मूल कहते है।
- भूकम्प के दौरान जो ऊर्जा भूकम्प से निकलती है उसे प्रत्यास्थ ऊर्जा (Elastic Energy) कहा जाता है।
- समान भूकम्पीय तीव्रता वाले स्थानों को मिलाने वाली रेखा को सम भूकम्पीय रेखा या भूकम्प समाघात रेखा (Isoseirmal line) कहते है।
- एक ही समय पर आने वाले भूकम्पीय क्षेत्रों को मिलाने वाली रेखा होमोसीस्मल (Homoseismal lines) कहलाती है।
- भूकम्प केन्द्र पर भूकम्पीय लहरों का अंकन सिस्मोग्राफ (Seismograph) यंत्र से किया जाता है।
- भारत में पूना, दिल्ली देहरादून, कोलकत्ता, मुम्बई में भूकम्प लेखन यंत्रों (Seismograph) की स्थापना की गई है।
- कश्मीर से अरूणाचल प्रदेश तक फैला हिमालय क्षेत्र सर्वाधिक भूकम्प प्रभावित क्षेत्र माना जाता है।
- समस्त विश्व के 68% भूकम्प प्रशान्त महासागर के दोनों तटीय भागों में पाए जाते हैं इस क्षेत्र को प्रशांत महासागर का ज्वालवृत कहा जाता है।
- अन्तरसागरीय भूकम्पों के कारण उत्पन्न समुद्री लहरों को सुनामी कहा जाता है।