नियोजन क्या है, परिभाषा, महत्व, सिद्धांत, तत्व, विशेषताएं | niyojan kya hai

नियोजन क्या है

नियोजन का अर्थ है, भूत तथा वर्तमान से सम्बंधित सूचनाओं का विश्लेषण करना तथा सम्भाव्य भावी घटनाओं की समीक्षा करना जिससे काम करने का ऐसा रास्ता निर्धारित किया जा सके जो संगठन को अपने उल्लिखित उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायता दे अर्थात भविष्य मे घटित होने वाली घटनाओं का सामना करने के लिए एक श्रेष्ठ कार्यक्रम का पहले से ही चुनाव करना नियोजन है।
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न्यूमैन के अनुसार "सामान्यतः भविष्य मे क्या करना है इसका पूर्वनिर्धारण ही नियोजन है। इस दृष्टि से नियोजन मानवीय व्यवहार के अत्यन्त व्यापक रूप को अपने में सम्मिलित करता है।" नियोजन के इस अर्थ से इसकी निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती है-
  • नियोजन मौलिक रूप से एक निर्णय लेने की प्रक्रिया है।
  • नियोजन भावी कार्यक्रम की एक रूपरेखा होती है।
  • योजना के द्वारा योजना का केवल एक उपयुक्त जोखिम का चुनाव करता है।
  • नियोजन सभी प्रकार के क्षेत्रों में उपयोगी है, जैसे- खेल, चुनाव, अध्ययन तथा यद्ध।

नियोजन का अर्थ

नियोजन पूर्व में ही यह निश्चित कर लेना है कि क्या करना है - कब करना है तथा किसे करना है। नियोजन हमेशा कहाँ से कहाँ तक जाना है के बीच का रिक्त स्थान को भरता है।
यह प्रबन्ध के आधारभूत कार्यो में से एक है। इसके अन्तर्गत उद्देश्यों एवं लक्ष्यों का निर्धारण किया जाता है तथा उन्हें प्राप्त करने के लिए एक कार्य-विधि का निर्माण किया जाता है।

नियोजन का महत्व

  • नियोजन का निर्देशन की व्यवस्था करता है :- कार्य कैसे किया जाना है इसका पहले से ही मार्ग दर्शन करा कर नियोजन निर्देशन की व्यवस्था करता है।
  • नियोजन अनिश्चितता के जोखिम को कम करता है। नियोजन एक ऐसी क्रिया है जो प्रबन्धकों को भविष्य में झांकने का अवसर प्रदान करती है।
  • नियोजन अपव्ययी क्रियाओं को कम करता है:- नियोजन विभिन्न विभागों एवं व्यक्तियों के प्रयासों में तालमेल स्थापित करता है जिससे अनुपयोगी गतिविधियाँ कम होती है।
  • नियोजन नव प्रवर्तन विचारों को प्रोत्साहित करता है नियोजन प्रबन्धकों का प्राथमिक कार्य है इसके द्वारा नये विचार योजना का रूप लेते है।
  • नियोजन निर्णय लेने को सरल बनाता है :- प्रबन्धक विभिन्न विकल्पों का मूल्यांकन करके उनमें से सर्वोत्तम का चुनाव करता है।
  • नियोजन नियन्त्रण के मानकों का निर्धारण करता है :- नियोजन वे मानक उपलब्ध कराता है जिसके विरूद्ध वास्तविक निष्पादन मापे जाते है तथा मूल्यांकित किए जाते है। नियोजन के अभाव में नियन्त्रण अंधा है अत: नियोजन नियन्त्रण का आधार प्रस्तुत करता है।

नियोजन की विशेषताएँ

  • प्राथमिक कार्य (Primary Function) - प्रबंध. नियोजन का आधारभूत एवं प्राथमिक कार्य है। नियोजन संगठन, निर्देशन एवं नियन्त्रण की अगुवाई करता है यह प्रबन्ध के अन्य सभी कार्यो के लिए आधार प्रस्तुत करता है।
  • सर्वव्यापी कार्य (Pervasive Function) - नियोजन संस्था के प्रत्येक विभाग के प्रत्येक स्तर पर किया जाता है। संस्था के संगठन, अभिप्रेरणा एवं नियंत्रण की प्रक्रिया मे भी नियोजन आवश्यक है। इतना ही नहीं, उपक्रम के वित्तीय, उत्पादन, वितरण सामान्य प्रशासन जैसी क्रियाओ में भी नियोजन किया जाता है।
  • उद्देश्यपूर्ण (Purposeful) - नियोजन के द्वारा ही उद्देश्यों तथा उद्देश्यों की पूति के लिए कार्यो, साधनों, कार्यविधियों आदि का निर्धारण किया जाता है।
  • परस्पर आश्रित कार्य (Inter-Dependent Activey ) - नियोजन प्रबंध-प्रक्रिया की प्रथम क्रिया होने के उपरान्त भी यह परस्पर आश्रित क्रिया है।
  • एक प्रक्रिया (its is a process) - इस प्रक्रिया में प्रबंधक वातावरण का विश्लेषण करके भविष्य का पूर्वानुमान लगाकर संस्था के उद्देश्यों को निर्धारित करते है।
  • सतत प्रक्रिया (It Is a Continous Process) - नियोजन का एक प्रमुख लक्षण यह भी है कि यह प्रक्रिया निरन्तर रूप से चलती रहती है।
  • बौद्धिक प्रक्रिया (It Is An Interllectuel Process) - नियोजन प्रक्रिया में नियोजन मे नियोजन की समस्या के विश्लेषण, विकल्पों के निर्माण एवं मूल्यांकन तथा सर्वोत्तम विकल्प के चयन मे मानसिक एवं बौद्धिक क्षमताएँ महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
  • पदानुक्रम प्रक्रिया (Hierarchy Process) - नियोजन की एक विशेषता यह भी है पदानुक्रम प्रक्रिया है।
  • भविष्योन्मुख (Futuristic) - नियोजन करते समय भावी अवसरों एवं चुनौतियों दोनों को ध्यान में रखा जाता है। नियोजन वर्तमान में यह निश्चित करता है कि भविष्य में क्या करना है।
  • समयबद्ध ( Time-Bound) - यह भविष्य की निश्चित समयावधि के लिए होता है।
  • समायोजनीय (Adjustable) - नियोजन भावी परिस्थितियों के अनुसार समायोजनीय/समायोजन-योग्य होता है।
  • नियोजन का केन्द्र बिन्दु लक्ष्य प्राप्ति होता है - नियोजन का कार्य उद्देश्य निर्धारण से शुरू होता है एक बार उद्देश्य निर्धारित हो जाये तो अगला कदम उन उद्देश्यों को प्राप्त करना होता है।
  • नियोजन एक मानसिक अभ्यास है - नियोजन में रचनात्मक सोच एवं कल्पनाशीलता होती है अतः यह एक मानसिक क्रिया है।
  • कार्य-पथों के लिए प्रतिबद्धता (Commitment To Cources of Actions) - नियोजन में प्रबंध तदर्थ रूप से इस बात के लिए वचनबद्ध होते है कि वे भविष्य मे कुछ निश्चित कार्यो को निश्चित प्रक्रिया, कार्यक्रम के अनुरूप पूरा करेगे।
  • संसाधनों की प्रतिबद्धता (Commitment Of Resources) - नियोजन की एक विशेषता यह भी है कि इसमें संसाधनों (भौतिक, मानवीय, वित्तीय) का निर्धारण भी किया जाता है।
  • नियोजन मे निर्णयन सम्मिलित (Planning Involves Deision-Making) - निर्णयन से तात्पर्य उपलब्ध विकल्पों में से किसी श्रेष्ठ विकल्प का चयन करना है। नियोजन प्रक्रिया में भी सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चयन करना ही पड़ता है।
  • पूर्वानुमान नियोजन का आधार ( Forecasting Is The Basic Of Planning) - नियोजन में भविष्य मे किये जाने वाले कार्यो का निर्धारण किया जाता है।

नियोजन का प्रबंधन मे महत्व, आवश्यकता एवं लाभ

नियोजन वह आधारभूत प्रबंधकीय कार्य है जिसके द्वारा एक संगठन दिन-प्रतिदिन बदलते हुए वातावरण में अपने आपकों स्थायी बनाए रखता है। मिलर (Miller) ने ठीक ही कहा है कि 'योजना के बिना कोई भी कार्य केवल अटकलबाजी के समान ही होगा तथा उससे केवल संदेह ही उत्पन्न होगा।'
संक्षेप में, नियोजन की आश्यकता, महत्व एवं लाभों को निम्न शीर्षकों मे समझाया गया है-
  • उद्देश्यों की स्पष्ट व्याख्या- नियोजन करने के लिए सर्वप्रथम उद्देश्य निर्धारित करने पड़ते है।
  • उद्देश्यों की प्राप्ति मे सहायक- नियोजन वह प्रक्रिया है जो उन क्रियाओं एवं कार्यपथों (Courses of Action) को निर्धारित करती है जिनसे संस्था के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है।
  • अनिश्चितता मे कमी- प्रभावशाली नियोजन सूचनाओं के अभाव के कारण उत्पन्न होने वाले भ्रम के खतरे को कम कर देता है।
  • परिवर्तनों के लिए तैयारी- नियोजन परिवर्तनों का सामना करने की योग्यता में सुधार करता है।
  • मितव्ययिता को प्रोत्साहन- नियोजन से सभी कार्य व्यवस्थित रूप से पूर किये जाते हैं। फलतः कार्य मे दोहराव तथा अपव्यय नहीं होता है। इससे अंततः संस्था मे मितव्ययिता को प्रोत्साहन मिलता है।
  • प्रतिस्पर्धी क्षमता में वृद्धि- नियोजन के द्वारा नई वस्तुओं का निर्माण प्रारम्भ किया जा सकता है, संयंत्र की क्षमता में वृद्धि की जा सकती है, वस्तुओं के गुण एवं आकृति में परिवर्तन किया जा सकता है और इसके लाभ संस्था की प्रतिस्पर्धात्मक शक्ति में वृद्धि की जा सकती है।
  • सहयोग एवं समन्वय मे सुविधा- नियोजन के कारण संस्था के उद्देश्य स्पष्ट हो जाते है, नीतियाँ एवं नियम निश्चित हो जाते है, कार्यविधियाँ एवं कार्यक्रम भी तय रहते है।
  • उतावले निर्णयो पर रोक- नियोजन से हम उतावले निर्णयों एवं अटकलबाजी वाले कार्यो की प्रकृति को समाप्त कर सकते है।
  • नियंत्रण मे सुगमता- योजना एक ऐसा तंत्र है जिसके द्वार एक प्रबंधक अपने अधीनस्थों की कार्यक्षमता एवं कार्यों पर सुगमता से नियंत्रण कर सकता है।
  • कर्मचारियों को अभिप्रेरणा- नियोजन से लक्ष्यों के साथ-साथ पारिश्रमिक एवं पुरस्कारों की भी जानकारी हो जाती है।
  • अधिकारों के विकेन्द्रीकरण एवं प्रत्यायोजन में सुविधा।
  • नये एवं सृजनशील विचारों को प्रोत्साहन- एक अच्छा नियोजन नयें एव सृजनशील विचारों को प्रोत्साहित करता है। यह नवीन प्रवृत्तियों का विकास करता है। जिससे संस्था के उद्देश्यों की प्राप्ति मे भारी सफलता मिलती है।
  • प्रबंधक प्रक्रिया की सफलता मे योगदान- नियोजन अन्य प्रबंधकीय कार्यो का आधार है। नियोजन के बिना संगठन एवं अभिप्रेरण के लिए कोई भी नहीं होगा तथा नियंत्रण की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी।

अन्य लाभ
  • संस्था में विकास एवं सुधार होता है।
  • संकटों का पूर्वानुमान हो जाता है।
  • संस्था में कुशल संचार व्यवस्था स्थापित करने में मदद मिलती है।
  • प्रशिक्षण का आधार तैयार हो जाता है।
  • संस्था मे भवियोन्मुख विचारों का जन्म होने लगता है।

नियोजन की सीमाएँ

नियोजन बहुत ही लाभप्रद होता है किन्तु इसकी अनेक सीमाएँ भी है, इसमें अनेक बाधाएँ भी आती है जिसके कारण नियोजन का विरोध भी किया जाता है। नियोजन की प्रमुख सीमाएँ बाधाएँ निम्नानुसार है-

नियोजन दृढता उत्पन्न करता है - एक लक्ष्य को एक निश्चित समय में पाने के लिए योजनाएं तैयार की जाती है जो कि कार्य करने की विधि निर्धारित करती है इससे नियोजन में दृढता आती है।

परिवर्तनशील वातावरण में नियोजन प्रभावी नहीं रहता व्यवसायिक वातावरण परिवर्तनशील है यहां कुछ भी स्थायी नही है।

नियोजन रचनात्मकता को कम करता है - नियोजन उच्च प्रबन्ध द्वारा बनाई जाती है जो अन्य स्तरों की रचनातमकता को कम करता है।

नियोजन में भारी लागत आती है - धन एवं समय के रूप में नियोजन में ज्यादा लागत आती है।

नियोजन नष्ट करने वाली प्रक्रिया है - कभी कभी योजनाएँ तैयार करने में इतना समय लगता है कि उन्हें लागू करने के लिए समय नही बचता है।

नियोजन सफलता का आश्वासन नहीं है।

उद्देश्यों की अस्पष्टता (Ambguity of Objectives)- अस्पष्ट उद्देश्य नियोजन करने एवं उसके क्रियान्वयन करने में बहुत बड़ी बाधा बन जाते है।

अयथार्थ पूर्वानुमान ( Inaccurate Forecasts)- नियोजन पूर्वानुमानों पर आधारित होते है जो कई बार गलत या अयथार्थ सिद्ध हो जाते है।

गलत मान्यताएँ (Inaccurate Premises)- प्रत्येक नियोजन कुछ मान्यताओं पर आधारित होता है। किन्तु कभी-कभी वे मान्यताएँ समय के परिवर्तन के साथ-साथ अमान्य एवं गलत हो जाती है।

पहलपन की भावना की समाप्ति (Stifles Initiativc)- नियोजन कर्मचारियों की पहल करने की भावना का गला घोंट देता है। सभी सदस्यों को नियोजन के ढाँचे के भीतर निर्धारित नीतियों, व्यूहरचनाओं, प्रक्रियाओं, विधियों, नियमों के भीतर बँधकर कार्य करना होता है।

व्यावहारिक सोच का अभाव (Lack of Pragmatism)- कुछ प्रबंधकों की सोच बहुत ही पुरातन एवं कठोर होती है। उसमें व्यावहारिकता का अभाव होता है।

परिवर्तनों का विरोध (Resistance ot Changes) - मानव सामान्यतः परिवर्तनों को आसानी से स्वीकार नहीं करता है। 

विद्यमान उद्देश्यों एवं योजनाओं की लोचहीनता (Inflexibility of Existing Objectives And Plans )- कभी-कभी विद्यमान उद्देश्य एवं योजनाएँ (अर्थात नीतियाँ. कार्यक्रम कार्यविधियाँ) लोचहीन होती है या हो जाती है। उनमें परिवर्तन करना कठिन ही नहीं असम्भव भी हो जाता है। फलतः भावी नियोजन में भी कटिनाइयाँ उत्पन्न होती है।

नियोजन क्षमताओं/योग्यताओं का अभाव (Lack of Planning Capabilites Skills)- सभी प्रकार का नियोजन एक बौद्धिक प्रक्रिया है। अतः नियोजन करने हेतु वैचारिक, तकनीकी, मानवीय आदि योग्यता की आवश्यकता पड़ती है, किन्तु व्यवहार में सभी प्रबंधक समान रूप से योग्य एवं क्षमतावान नहीं होते है। फलतः सभी प्रबंधक व्यापक सोच-विचार के साथ नियोजन नहीं कर पाते है और वह असफल हो जाता है।

प्रबंधको का पक्षपातपूर्ण या पूर्वाग्रहपूर्ण व्यवहार (Biased Attitude of Managers)- सभी प्रबंधक सदैव विवेकपूर्ण व्यवहार नहीं करते है। वे कभी-कभी पक्षपातपूर्ण या पूर्वाग्रहपूर्ण व्यवहार भी करते है। इसका कारण है कि सभी की अपनी-अपनी पसंद, नापसंद, वरीयता, व्यक्तिगत रूचि होती है और नियोजन निष्प्रभावी एवं असफल हो जाता है।

अन्य क्रियात्मक योजनाओं के साथ समन्वय मे कमी (Lack of Coordination wiht other Funcional Plans)- कोई भी योजना तब तक सफल नहीं हो सकती है जब तक कि उसका अन्य क्रियात्मक योजनाओं के साथ उचित समन्वय नहीं होता है।

प्रबंधको का आपसी संघर्ष (Conflict Among Managers)- नियोजन मे समस्या तक भी उत्पन्न हो जाती है जब विभिन्न प्रबंधकों में आपसी संघर्ष उत्पन्न हो जाता है।

मनोवैज्ञानिक बाधाएँ (Phychological Barriers)- नियोजन करने तथा उसका क्रियान्वयन करने में मानसिक बाधाएँ भी आती है।
  • कुछ प्रबंधक यह सोचते है कि भविष्य की तुलना मे वर्तमान पर ही ध्यान देना चाहिए।
  • कुछ प्रबंधक यह सोचते है कि भविष्य मे जो कुछ होता है, वह होकर रहेगा। नियोजन से भविष्य को बदला जा सकता है।
  • अतः नियोजन अनावश्यक है।
  • कुछ प्रबंधक यह सोचते हैं कि नियोजन सदैव सही एवं सफल नहीं होता है। अतः नियोजन पर धन एवं समय व्यर्थ ही जाता है।
  • कुछ प्रबंधक अयोग्य एवं अव्यावहारिक व्यावहारिक होते है। वे नियोजन की बौद्धिक प्रक्रिया को परा करने के अयोग्य होते है। अतः उन्हे अपनी अकुशलता के उजागर होने का भय होता है। फलतः वे नियोजन के मार्ग मे बाधक ही बनते है। ऐसी मानसिक धारणाओं वाले प्रबंधक नियोजन की उपयोगिता को सीमित एवं बाधित कर देते है।

खर्चीला (Expensive)- नियोजन मे भारी खर्च करने पड़ते है। काफी समय, शक्ति एवं धन तथ्यों के संग्रह करने, जाँच करने आदि मे व्यय करना पड़ता है।

अपर्याप्त संसाधन (Inadequate Resources)- नियोजन के क्रियान्वयन हेतु पर्याप्त संसाधन (भौतिक, वित्तीय, मानवीय एवं सुचनात्मक संसाधन) उपलब्ध होने चाहिए। अपर्याप्त संसाधनों की दशा में श्रेष्ठतम नियोजन भी सफल नहीं हो पाता है।

प्रभावी नियोजन के आवश्यक तत्व

प्रभावी नियोजन के कुछ आधारभूत तत्व या लक्षण होते है। इन आधारभूत तत्वों को नियोजन की प्रभावशीलता के मापदण्ड भी कहा जा सकता है। संक्षेप में, प्रभावी नियोजन के मापदण्ड या आधारभूत तत्व निम्नानुसार है
  • स्पष्ट निर्धारित उद्देश्य (Well-Defined Objectives)- स्पष्ट उद्देश्य ही सभी नियोजनों के आधार स्तम्भ होते है। अतः एक अच्छा नियोजन वह होता है जिसके उद्देश्य स्पष्ट रूप से निर्धारित होते है। ये उद्देश्य पूर्णतया स्पष्ट एवं सारगर्भित हों।
  • विस्तृत (Comprehensive)- नियोजन विस्तृत होना चाहिए ताकि उसे समझने में किसी प्रकार की कठिनाई उपस्थित न हो। एक नियोजन मे वे सभी कार्य सम्मिलित किए जाने चाहिए जो कि सम्पूर्ण नियोजन को पूरा करने के लिए आवश्यक है।
  • लोच ( Elexible)- एक प्रभावशाली नियोजन का एक महत्वपूर्ण लक्षण यह भी है कि वह लोचशील हो। डेविस (Davis) के शब्दों में, "नियोजन लोचशील होता है जिसे बिना किसी भयंकर आर्थिक एवं कार्यक्षमता की हानी के बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन किया जा सके।"
  • संतुलित (Balanced)- प्रत्येक उद्देश्य के पूर्ति हेतु साधनों के प्रयोग मे पूर्ण रूप से सन्तुलन होना चाहिए।
  • समन्वित ( Intergrated)- नियोजन तभी सफल हो सकता है जबकि संस्था के विभिन्न विभागों के नियोजन समन्वित हो।
  • विश्वसनीय (Reliable)- नियोजन विश्वसनीय तभी होता है जबकि उसके बनाने में प्रयुक्त सूचना, आँकड़ें तथा अन्य तथ्य विश्वसनीयता को बढ़ा सकती है।
  • व्यावहारिकता ( Practicable)- यदि नियोजन अव्यावहारिक या असम्भव है या दोनों ही है तो प्रेरणा ही समाप्त हो जाती है। यदि वे बहुत ही सरल एवं सामान्य हैं तो असामान्य सफलता की आशा नहीं की जा सकती है।
  • मानव-मुखी (Human-Face)- नियोजन करने वाले, क्रियान्वित करने वाले तथा नियोजन से प्रभावित होने वाले सभी उससे लाभान्वित एवं संतुष्ट हो सकें, तभी उसे अच्छा नियोजन कहा जायेगा।

नियोजन प्रक्रिया

नियोजन भविष्य में किये जाने वाले कार्यों का निर्धारण करने की एक बौद्धिक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया को पूरा करने के लिए विभिन्न विद्धानों ने विभिन्न कदम उठाने या चरण लेने का सुझाव दिया है। टैरी ने आठ चरणों में वर्णन किया है। संक्षेप में, एक नियोजन प्रक्रिया मे निम्नलिखित चरण आवश्यक होते है-

वातावरण का विश्लेषण एवं मूल्यांकन (Analysis And Evaluation of The Environments)- नियोजन करने हेतु सर्वप्रथम प्रबंधकों को संस्था के बाह्य एवं आन्तरिक वातावरण का अध्ययन, विश्लेषण एवं मूल्यांकन करना पड़ता है।

संस्था का आन्तरिक मूल्यांकन (Internal Appraisal Of The Firm or Comany)- संस्था के बाह्य विपणन वातावरण का मूल्यांकन करने के बाद संस्था का आंतरिक मूल्यांकन किया जाता है। इस हेतु संस्था का 'स्वॉट अनालिसिस' (SWOT Analysis) किया जाता है। 'स्वॉट' (SWOT) परिवर्णी शब्द है जिसमें सम्मिलित शब्दों का अर्थ अग्रलिखित है-
  • S = Strenghts अर्थात शक्तियाँ या गुण या सकारात्मक बातें।
  • W = Weaknesses अर्थात कमियाँ या अवगुण।
  • O = Oportunities अर्थात अवसर।।
  • T = Threats अर्थात संकट या खतरे।

उद्देश्यों का निर्धारण करना (Setting Objectives)- नियोजन प्रक्रिया के अगले चरण के उद्देश्यों का निर्धारण किया जाता है।

नियोजन की मान्यताओं का निर्धारण (Establishing Planning Premises)- सभी सूचनाओं के विश्लेषण के बाद नियोजन की मान्यताएँ निर्धारित करनी चाहिए। मान्यताएँ वास्तव मे वे सीमाएँ हैं जिनके भीतर रहकर नियोजन करना होता है।

वैकल्पिक योजनाओं की खोज (Discovering Alternative Plans)- सामान्यतः किसी भी कार्य को करने या उद्देश्य को प्राप्त करने के अनेक विकल्प होते है।

विकल्पों का मूल्यांकन करना (Evalating Alternatives)- विविध विकल्पों की खोज के बाद उन विकल्पों का मूल्यांकन किया जाता है। मूल्यांकन हेतु मस्तिष्क के साथ-साथ तकनीकी यंत्रों/उपकरणों का भी उपयोग करना चाहिये।

समुचित  (Selecting Appropriate Alternative)- सभी विकल्पों का मल्यांकन कर लेने के बाद प्रबंधक किसी एक समुचित विकल्प का चयन करता है। यह विकल्प विद्यमान परिस्थितियों में प्रबंधक को सर्वश्रेष्ठ प्रतीत होता है।

कार्य योजनाओं का निर्माण (Formulating Action Plans)- संस्था के नियोजन के बाद उसके क्रियान्वयन के लिए आवश्यक कार्य योजनाओं का निर्माण किया जाता है।

संसाधन का आवण्टन अर्थात बजट निर्माण ( Allocating Resources ie Gudgeting )- नियोजन प्रक्रिया में अगले चरण में नियोजन के क्रियान्वयन हेतु आवश्यक संसाधनों का आवण्टन किया जाता है। प्रबंधन बजट तैयार करता है।

योजना का क्रियान्वयन (Implementing The Plan)- नियोजन की सफलता योजना के सफल क्रियान्वयन पर निर्भर करती है। इस हेतु उसे सम्पूर्ण विभाग का समुचित संगठन, निर्देशन एवं नियंत्रण करना होता है। उसे सही व्यक्तियों को सभी कार्य सौंपने होते है। अन्त में, उन सभी के कार्यो का समुचित नियंत्रण भी करना होता है ताकि नियोजन के उद्देश्यों की पूर्ति हो सके।

अनुवर्तन (Follow-up)- नियोजन के इस चरण पर योजना के क्रियान्वयन का अनुवर्तन किया जाता है। इस चरण पर प्रबंधक योजना के क्रियान्वयन पर निगरानी रखता है योजना के परिणामों की नियोजन के लक्ष्यों से तुलना करता है।

उद्देश्यों का निर्धारण - नियोजन प्रक्रिया में पहला कदम उद्देश्यों का निर्धारण करना है। उद्देश्य पूरे संगठन या विभाग के हो सकते है।

कार्यवाही की वैकल्पिक विधियों की पहचान - उद्देश्य निर्धारण होने के बाद उन्हें प्राप्त करने के लिए विभिन्न विकल्पों की पहचान की जाती है।

विकल्पों का मूल्यांकन - प्रत्येक विकल्प के गुण व दोष की जानकारी प्राप्त करना। विकल्पों का मूल्यांकन उनके परिणामों को ध्यान में रखकर किया जाता है।

विकल्पों का चुनाव - तुलना व मूल्यांकन के बाद संगठन के उद्देश्यों तक पहुँचने के लिए बेहतरीन विकल्प चुना जाता है।

योजना को लागू करना - एक बार योजनाएं विकसित कर ली जाए तो उन्हें क्रिया में लाया जाता है।

अनुवर्तन - यह देखना की योजनाएं लागू की गई या नहीं। योजनाओं के अनुसार कार्य चल रहा है या नहीं।

नियोजन के प्रकार

  • समायावधि के आधार पर।
  • प्रकृति के आधार पर।
  • प्रबंधकीय स्तर के आधार पर।

समायावधि के आधार पर प्रकार (Type of Time Dimension)
समयावधि के आधार पर नियोजन तीन प्रकार का हो सकता है
  • दीर्घकालीन नियोजन (Long-Range Planning )
  • मध्यकालीन नियोजन (Medium-Range or Intermediate Planning)
  • अल्पकालीन या अल्पावधि नियोजन (Short-Range Planning)

दीर्घकालीन नियोजन (Long-Range Planning )
दीर्घकालीन नियोजन सामान्यतः पांच वर्ष से अधिक की अवधि का ही होता है। दीर्घकालीन नियोजन दीर्घकालीन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किया गया नियोजन है।

लाभ या गुण (Merits)
दीर्घकालीन नियोजन के प्रमुख गुण निम्नानुसार है-
  • वृहद् आकार के उपक्रमों की स्थापना आसानी से की जा सकती है।
  • राष्ट्रीय विकास योजनाओं में महत्वपूर्ण रूप से योगदान मिलता है।
  • भावी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वर्तमान मे प्रयास प्रारम्भ किये जा सकते है।
  • आर्थिक विका का गति चक्र चलता रहता है।

दोष या सीमाएँ
लम्बी अवधि की योजनाओं की सफलता साधनों की उपलब्धता पर निर्भर करती है। अतः साधनों की उपलब्धि में अनियमितता से योजना खटाई में पड़ जाती है।
परिवर्तनों की गति तथा तीव्रता मे अंतर आने पर नियोजन असफल हो जाता है।

मध्यकालीन नियोजन (Medium-Range or Intermediate Planning)
प्रायः एक वर्ष से अधिक तथा तीन वर्षों से कम अवधि के नियोजन को मध्यकाली नियोजन कहते है। ऐसा नियोजन संस्था या उसके किसी विभाग की विद्यमान क्षमता का पूर्ण उपयोग करने के लिए ही किया जाता है।

अल्पकालीन या अल्पावधि नियोजन (Short-Range Planning )
जो नियोजन बहुत ही कम अवधि के होते है, वे अल्पकालीन या अल्पावधि नियोजन कहलाते है। सामान्यतः अल्पकालीन नियोजन एक सप्ताह से लेकर एक वर्ष से कम अवधि के ही होते है। अल्पकालीन नियोजन दिर्घकालीन एवं मध्यकालीन नियोजन के उद्देश्यों की पूर्ति क लिए ही किया जाता है।

प्रकृति के आधार पर प्रकार (Type of The Basis of Nature)
नियोजन की प्रकृति के आधार पर यह निम्नांकित पांच प्रकार का हो सकता है-

प्रशासकीय नियोजन (Admnistrative Planning)
प्रशासकीय नियोजन वह नियोजन है जो संस्था की दीर्घकालीन नीतियों को निर्धारित करने के लिए किया जाता है। इस नियोजन से सम्पूर्ण संस्था की नीतियों एवं उद्देश्यों की रूपरेखा स्पष्ट हो जाती है। इस नियोजन से संस्था के स्वरूप एवं प्रकृति के बारे में भी सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त हो जाती है।

परिचालन नियोजन (Operational Planning)
व्यूहरचनात्मक या दिर्घकालीन नियोजन को क्रियान्वित करने के लिए ही परिचालन नियोजन किया जाता है। परिचालन नियोजन व्यूहरचनात्मक नियोजन के अनुरूप किया गया वह अल्पकालीन नियोजन है जिसके अंतर्गत यह निर्धारित किया जाता है कि संस्था के दीर्घकालीन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए निर्धारित व्यूहरचनाओं के अंतर्गत दिन-प्रतिदिन कौन-कौन से कार्य, किस प्रकार किये जाने है।
ऐसा परिचालन नियोजन संस्था के विद्यमान संसाधनों, उत्पादों, बाजार आदि के अनुरूप ही किया जाता है। यह नियोजन परिचालन प्रबंधकों/प्रथम पंक्ति प्रबंधकों द्वारा ही किया जाता है।

व्यूहरचनात्मक नियोजन (Strategic Planning)
व्यूहरचनात्मक नियोजन वह प्रक्रिया है जिसमें सम्पूर्ण संस्था के दीर्घकालीन उद्देश्यों तथा उन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए ऐसी व्यूहरचनाओं को निर्धारित किया जाता है जिससे संस्था गतिशील एवं प्रतिस्पर्धी वातावरण मे श्रेष्ठतम ढंग से उन उद्देश्यों को पूरा कर सके।

क्रियात्मक नियोजन (Fnctional Planning)
क्रियात्मक नियोजन संस्था के विभिन्न क्रियात्मक क्षेत्रों या विभागों के लिए किया जाता है। प्रत्येक क्रियात्मक नियोजन प्रत्येक विभाग का नियोजन है जो सम्बंधित विभाग के अधिकारियों एवं अधीनस्थों का मार्गदर्शन करता है तथा विभाग के उद्देश्यों की पूर्ति मे योगदान करता है।

परियोजना नियोजन (Project Planning )
परियोजना किसी भी बड़े कार्य या योजना के किसी विशिष्ट चरण को पूरा करने के लिए बनायी गई उपयोजना है। अतः परियोजना नियोजन एक उप-नियोजन है जिससने किसी नियोजन के किसी विशिष्ट चरण के अंतर्गत की जाने वाली क्रियाओं का नियोजन किया जाता है।
  • उद्देश्य :- नियोजन में सब से पहला कार्य उद्देश्यों का निर्धारण करना है। उद्देश्य प्रबन्ध का वह गन्तव्य स्थान है जहाँ उसे भविष्य में पहुंचना है।
  • व्यूह रचना :- व्यूह रचना से तात्पर्य है भविष्य के निर्णय जो लम्बे समय में संगठन के निर्देशन व विस्तार की व्याख्या करते है।
  • नीति :- नीतियाँ सामान्य कथन है जो विचारों का मार्ग दर्शन अथवा एक विशिष्ट दिशा में अग्रसर होने के लिए मार्ग प्रशस्त करती है विक्रय नीति के रूप में "हम उधार विक्रय नहीं करते" नीति का एक उदाहरण है।
  • कार्य विधि :- कार्य विधि से तात्पर्य दैनिक गतिविधियों के संचालन से है।
  • नियम :- विशिष्ट विवरण है जो बताते है क्या करना है उदाहरण धूम्रपान मना है" एक नियम है।
  • कार्यक्रम :- कार्यक्रम उद्देश्यों नीतियों, प्रक्रिया तथा नियमों का संयोग होते है। सभी योजनाएँ एक साथ मिलकर कार्यक्रम बनाती है।
  • बजट :- बजट अनुमानित परिणामों का विवरण है जिन्हें भविष्य के निश्चित समय अंतराल के लिए गणितीय शब्दों में व्यक्त किया जाता है।

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