प्रत्यायोजन - अर्थ एवं परिभाषा, प्रकार, विशेषता, आवश्यकता, महत्त्व | delegation in hindi

प्रत्यायोजन

किसी भी संगठन की स्थापना करते समय उसके समस्त कार्यों और उत्तरदायित्वों का समावेश मुख्य कार्यपालिका में निहित कर दिया जाता है। मुख्य कार्यपालिका यद्यपि कार्य विभाजन के आधार पर इकाइयों और उप-इकाइयों का गठन तो करती है, किन्तु संगठन के प्रत्येक स्तर पर यह सम्भव नहीं है कि प्रत्येक स्तर पर आबंटित समस्त कार्य करने में अधिकारी सक्षम हो। प्रशासन के लगातार बढ़ते उत्तरदायित्व एवं कार्यों तथा कार्यो की तकनीकी कृति ने कार्य निष्पादन को अत्यंत कठिन बना दिया है।
प्रत्येक मानव की कार्य निष्पादन की एक निश्चित सीमा और क्षमता होती है। उससे आगे वह कार्य निष्पादित नहीं कर सकता। किन्तु सांगठनिक ढांचे में कार्य निष्पादन अति आवश्यक है, अतः उसे यह सुविधा तो होनी चाहिए कि कार्य को समय पर सम्पादित करने हेतु वह अपने कार्य अथवा कार्य के किसी भी हिस्से अथवा भाग को दूसरों को हस्तान्तरित कर सके। इससे कार्य निष्पादन सुविधाजनक बन जाता है, इसी का नाम प्रत्यायोजन है। प्रत्यायोजन के सिद्धान्त को कई नामों से जाना जाता है यथा- कार्यों का हस्तांतरण, भारार्पण आदि।

प्रत्यायोजन का अर्थ एवं परिभाषाएँ

प्रत्यायोजन अंग्रेजी शब्द 'Delegation' का हिन्दी रूपान्तरण है, जिसका मूल शब्द 'Delegare' है, जिसका अर्थ होता है, मनोनीत व्यक्ति अथवा दूसरों के विचारों या दृष्टिकोण को व्यक्त करने के लिए अधिकृत व्यक्ति ।
इस प्रकार प्रत्यायोजन वह क्रिया है, जिसके माध्यम से कोई भी व्यक्ति अपने कार्यों के लिए दूसरों को अधिकृत कर सकता है।
शास्त्रीय युग में प्रत्यायोजन का अर्थ, किसी उच्चाधिकारी द्वारा अधीनस्थ को सत्ता के हस्तांतरण से लगाया जाता था। यह हस्तांतरण सदैव के लिए नहीं होता था। केवल कार्य को समय पर सम्पादित करने हेतु इसका उपयोग किया जाता रहा है। यही कारण है कि मूने ने जब प्रत्यायोजन को परिभाषित किया तो उन्होंने अभिव्यक्त किया कि "उच्चाधिकारी द्वारा निम्न को विशिष्ट सत्ता का हस्तांतरण, प्रत्यायोजन कहलाता है। किन्तु नव शास्त्रीय युग में टैरी ने इस परिभाषा को थोड़ा व्यापक बनाते हुए स्पष्ट किया कि "एक कार्यपालिका अथवा संगठन की किसी एक इकाई से दूसरे को सत्ता प्रदान करना प्रत्यायोजन है।" उन्होंने इस परिभाषा को व्यापक इसलिए बनाया कि प्रत्यायोजन सदैव उच्चाधिकारी द्वारा अधीनस्थ को ही नहीं होता, बल्कि कई बार यह अधीनस्थ द्वारा उच्च को तथा समकक्षों के बीच भी होता है। नवशास्त्रीय युग में प्रत्यायोजन को और अधिक व्यापक बनाया गया तथा इसकी परिभाषाएँ भी व्यापक बनाई।
प्रत्यायोजन की विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई परिभाषाएँ इस प्रकार हैं-

मिलेट-"सत्ता के प्रत्यायोजन का अर्थ दूसरों को केवल कर्त्तव्य सौंपने से कुछ अधिक होता है। प्रत्यायोजन का अर्थ दूसरों को अधिकार सौंपना है, ताकि वे व्यक्ति अपने कर्त्तव्य सम्बन्धी विशिष्ट समस्याओं को सुलझाने में अपने निर्णय का प्रयोग कर सकें।"

एफ.जी.मूरे के अनुसार प्रत्यायोजन का अर्थ अन्य व्यक्तियों को कार्य का वितरण करना है और उसे करने हेतु अधिकार प्रदान करना हैं।"

हेमेन के अनुसार "अधिकार सत्ता के प्रत्यायोजन का अर्थ अधीनस्थों को निर्धारित सीमाओं में कार्य करने हेतु अधिकार प्रदान करने से है।

डगलस सी.बसिल का कहना है कि प्रत्यायोजन में अधिकार प्रदान करना या कुछ परिभाषित क्षेत्रों में निर्णयन का अधिकार तथा सौंपे गये कार्यों की निष्पत्ति के लिए अधीनस्थों को उत्तरदायी बनाना सम्मिलित है।" 

टिक्सबर्ग का मत है कि "जब संगठन के कुछ कार्य तथा इन कार्यों के संचालन हेतु आवश्यक अधिकार, एक या अधिक अधीनस्थ व्यक्तियों को सौंपे जाते हैं तो इसे प्रत्यायोजन कहते हैं।"

जॉर्ज आर.टैरी ने प्रत्यायोजन की प्रक्रिया को व्यापक अर्थो में वर्णित किया है, उसके अनुसार प्रत्यायोजन का अर्थ है-संगठन की एक इकाई से दूसरी इकाई या एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति को अधिकार सौंप देना।"

उपर्युक्त परिभाषाओं को यदि विश्लेषित किया जाए तो प्रत्यायोजन की सर्वमान्य परिभाषा यह उभर कर आती है कि निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु एक सांगठनिक इकाई द्वारा दूसरी इकाई को कर्त्तव्यों, उत्तरदायित्व एवं सत्ता का हस्तान्तरण, प्रत्यायोजन कहलाता है।

प्रत्यायोजन की विशेषताएँ

विभिन्न विद्वानों द्वारा जिस रूप में प्रत्यायोजन को परिभाषित और विश्लेषित किया गया है, उसके आधार पर प्रत्यायोजन की विशेषताओं को निम्न रूप में व्यक्त किया जा सकता है-
  1. प्रत्यायोजन एक सांगठनिक इकाई द्वारा दूसरी सांगठनिक अथवा सांगठनोत्तर इकाई को नीति, नियम एवं विनियम द्वारा निर्धारित सीमाओं में कार्य करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है।
  2. प्रत्यायोजन का दोहरा स्वरूप होता है। प्रत्यायोजन अपने कार्य एवं अधिकार सौंपता अवश्य है किन्तु बहुत से अधिकार अपने पास भी रखता है। इसलिए टैरी ने उदाहरण देते हुए स्पष्ट किया कि "जब आप दूसरे के साथ ज्ञान बाँटते हैं तब ज्ञान उन्हें तो मिलता है लेकिन आपके पास भी ज्ञान रहता है।"
  3. प्रत्यायोजन के दो पक्ष होते हैं- (1) प्रत्यायोजक (Delegator) जो अपने कार्य का हस्तांतरण दूसरों को करता है (2) प्रत्यायोजी (Delegater) जो दूसरों द्वारा हस्तांतरित कार्यों को प्राप्त करता है। इस प्रकार यह प्रत्यायोजक एवं प्रत्यायोजी के बीच की अनुक्रिया है।
  4. प्रत्यायोजन में परिवर्तन का तत्त्व भी निहित होता है। प्रत्यायोजित कार्य को घटाया-बढ़ाया या पुनः वापिस लिया जा सकता है।
  5. सांगठनिक उद्देश्य भी प्रत्यायोजन का प्रमुख आधार होते हैं अर्थात् प्रत्यायोजन सदैव सांगठनिक उद्देश्यों की दिशा में ही किया जाता है।
  6. प्रत्यायोजन में हस्तांतरित कार्यों, सत्ता एवं उत्तरदायित्वों की निश्चितता होती है।
  7. प्रत्यायोजन आदेश की एकता के सिद्धान्त को विलुप्त नहीं करता।
  8. प्रत्यायोजन में कोई भी व्यक्ति सभी कार्यों का प्रत्यायोजन नहीं कर सकता अर्थात प्रत्यायोजन आंशिक होता है।
  9. प्रत्यायोजन उत्तरदायित्व को दो भागों में विभाजित करता है - अन्तिम उत्तरदायित्व और क्रियात्मक उत्तरदायित्व।
  10. प्रत्यायोजन में केवल क्रियात्मक उत्तरदायित्व का हस्तांतरण होता है अन्तिम उत्तरदायित्व का नहीं, अन्तिम उत्तरदायित्व तो प्रत्यायोजन करने वाले का होता है।

प्रत्यायोजन के तत्व तथा प्रक्रिया

प्रत्यायोजन में प्रत्यायोजन की एक निश्चित प्रक्रिया होती है, जिसमें सर्वप्रथम प्रत्यायोजी को कार्य अथवा कर्त्तव्यों का हस्तांतरण किया जाता है तत्पश्चात् कर्त्तव्यों को सम्पन्न करने हेतु निश्चित सत्ता सौंपी जाती है। सत्ता का उपयोग कर्त्तव्य सम्पादन हेतु ही किया जाए इसलिए प्रत्यायोजी का उत्तरदायित्व भी निश्चित किया जाता है।
इस आधार पर कहा जा सकता है कि प्रत्यायोजन में तीन तत्वों की प्रधानता होती है-
  1. कार्य अथवा कर्त्तव्य
  2. सत्ता का हस्तांतरण
  3. उत्तरदायित्व सौपना

प्रत्यायोजन की आवश्यकता और महत्त्व

सामान्यतः संगठन में अपेक्षा यह की जाती है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने आबंटित कार्यों को समय पर सम्पादित करे किन्तु अनेक कारणों से आज प्रत्यायोजन आवश्यक बन गया है जिसके निम्नलिखित कारण हैं

1. उच्चाधिकारियों के संचालकीय कार्यों में कमी
अधिकारों का प्रत्यायोजन करने से सबसे बड़ा लाभ यह है कि इससे उच्चाधिकारियों को संचालकीय कार्यों से मुक्ति प्राप्त हो जाती है। यदि उच्चाधिकारी संस्था के छोटे-छोटे कार्यों को करने में ही अपना समय व्यय कर रहे हैं तो नीति निर्धारण करने, नियोजन करने तथा समन्वय और नियंत्रण करने जैसे महत्त्वपूर्ण कार्यों को वे कैसे पूरा करेंगे।

2. संस्था की कार्यकुशलता में वृद्धि
प्रत्यायोजन से सभी अधिकारों के बँट जाने से कार्य भी बँट जाते हैं। विशेषज्ञों की सेवा भी प्राप्त हो जाती है तथा कम समय में काम भी पूरा हो जाता है इसके परिणामस्वरूप संस्था की कार्यकुशलता में वृद्धि होती है।

3. कार्य की मात्रा में अभिवृद्धि एवं मानवीय क्षमताएँ
प्रशासनिक कार्यों में उत्तरोतर वृद्धि हो रही है तथा निरन्तर संगठन में कार्यरत कर्मचारियों के कार्यों में वृद्धि उनके कार्य निष्पादन को प्रभावित करती है। चूँकि संगठन में कार्यरत व्यक्ति के कार्य निष्पादन की निश्चित सीमाएँ होती हैं उससे आगे कार्य निष्पादन सम्भव नहीं है परिणामस्वरूप उसके लिए अपने कार्यों का दूसरों को हस्तांतरण आवश्यक बन जाता है।

4. कार्यात्मक प्रक्रियाओं की जटिलता एवं विशिष्टीकरण की आवश्यकता
आज के तकनीकी युग में कार्यों की प्रकृति अधिक जटिल बनती जा रही है जो विशिष्टीकरण के आधार पर कार्य सम्पादन में प्रवृत्त करती है।

5. समय की बचत
प्रत्यायोजन के द्वारा कोई कर्मचारी अपने कार्य को दूसरों को हस्तांतरित कर अपने कार्य अवधि का बचाव कर सकता है। उच्चस्तर पर इस प्रकार संचित समय को नीति-निर्माण एवं नियोजन में लगाया जा सकता है जिससे संगठन लाभान्वित होता है।

6. मनोबल में वृद्धि
प्रत्यायोजन कर्मचारियों के मनोबल में वृद्धि भी करता है, क्योंकि इससे अधीनस्थों की स्थिति में सुधार होता है तथा उनके द्वारा सम्पादित कार्य को महत्त्व मिलने लगता है जिससे अंततः कार्मिकों को कार्य सन्तुष्टि प्राप्त होती

7. शैक्षणिक महत्त्व
प्रत्यायोजन का शैक्षणिक महत्त्व है क्योंकि यह उत्तरदायित्व में भागीदारी के अवसर प्रदान करता है।

8. प्रबन्धकीय विकास
आज का अधीनस्थ कल का उत्तराधिकारी भी हो सकता है। इस दृष्टि से देखें तो प्रत्यायोजन अधीनस्थों को विवेक के अनुसार कार्य करने के अवसर प्रदान करता है जिससे भावी उत्तरदायित्वों के निर्वहन में सहायता मिलती है।

9. विस्तृत भौगोलिक क्षेत्र
आधुनिक संगठन देश की सीमाओं को लाँघकर अन्तर्राष्ट्रीय आधार ग्रहण कर चुके हैं। संगठन के इस फैलते आकार ने प्रत्यायोजन को आवश्यक बना दिया है क्योंकि हर क्षेत्र की भौगोलिक भिन्नताएँ होती हैं और प्रत्यायोजन इस पर्यावरणीय परिपेक्ष्य में प्रशासकों को निर्णय लेने में सक्षम बनाता है।

10. लचीलापन एवं शीघ्रता
आज के युग में वही संगठन प्रगतिशील एवं जीवित रह सकता है जो परिवर्तित परिस्थितियों के अनुरूप अपने आप को बदलने की क्षमता रखता है। प्रत्यायोजन यह सुविधा प्रदान करता है।

11. कार्यकुशलता एवं मितव्ययता
प्रत्यायोजन सत्ता एवं कार्य के उत्तरदायित्व के विभाजन से आवश्यक व्यय पर नियंत्रण स्थापित कर मितव्ययता को बढ़ावा देता है।

12. उत्तराधिकार में सहायक
प्रत्यायोजन उत्तराधिकारी स्थापित करने में भी सहायक है क्योंकि प्रत्यायोजन के द्वारा प्रशासक भावी उत्तरदायित्वों के निर्वहन में पहले से प्रशिक्षित होता है।

प्रत्यायोजन के प्रकार


1. स्थायी और अस्थायी प्रत्यायोजन
जब किसी अधीनस्थ व्यक्ति या इकाई को स्थायीरूप में सत्ता एवं कार्य दे दिये जाते हैं तो स्थायी प्रत्यायोजन कहलाता है। सामान्य परिस्थितियों तथा कुशल कार्य संचालन की स्थिति में स्थायी प्रत्यायोजन भी हो सकता है। लेकिन जब किसी को कुछ समय के लिए प्रत्यायोजन किया जाता है तथा वापस ले लिया जाता है तो वह
अस्थायी प्रत्यायोजन कहलाता है।

2. पूर्ण तथा आंशिक प्रत्यायोजन
पूर्ण प्रत्यायोजन वह होता है, जिसमें कोई शर्त नहीं होती और जिसे अधिकार सौंपे जाते हैं उसे निर्णय लेने और कार्यवाही करने की पूर्ण स्वतंत्रता होती है। यदि प्रत्यायोजन के साथ कुछ शर्ते जोड़ दी जाती हैं तो वह आंशिक प्रत्यायोजन कहलाता है।

3. औपचारिक और अनौपचारिक प्रत्यायोजन
जब संगठन के लिखित नियमों, उपनियमों, आदेशों या प्रक्रियाओं के अनुसार प्रत्यायोजन किया जाता है तो वह औपचारिक प्रत्यायोजन कहलाता है। दूसरी ओर संगठन की अनौपचारिक परम्पराओं, रीति-रिवाजों तथा आपसी सद्भाव के आधार पर होने वाला प्रत्यायोजन अनौपचारिक प्रत्यायोजन कहलाता है।

4. प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रत्यायोजन
प्रत्यक्ष प्रत्यायोजन वह होता है जिसमें अधिकार प्रदान करने वाले और अधिकार प्राप्त करने वाले के मध्य कोई अन्य व्यक्ति या स्तर नहीं हो जबकि अप्रत्यक्ष प्रत्यायोजन में उच्चाधिकारी तथा निम्नाधिकारी के मध्य कोई और व्यक्ति या स्तर होता है।

5. लिखित और मौखिक प्रत्यायोजन
जो प्रत्यायोजन विधिवत् तथा लिखित आदेशों में किया जाता है वह लिखित प्रत्यायोजन होता है जो प्रायः
औपचारिक महत्त्वपूर्ण तथा स्थायी भी होता है।
इसके विपरीत जो प्रत्यायोजन, मौखिक रूप से अथवा टेलीफोन पर दिया गया हो तो उसे अलिखित और मौखिक प्रत्यायोजन माना जाता है।

6. सामान्य और विशिष्ट प्रत्यायोजन
जब किसी एक अधिकारी द्वारा दूसरे अधिकारी को एक कार्य से संबंधित समस्त गतिविधियाँ या क्रियाएँ सौंप
दी जाती हैं तो वह सामान्य प्रत्यायोजन कहलाता है जबकि विशिष्ट प्रत्यायोजन में सम्पूर्ण कार्य न सौंप कर उस कार्य से सम्बन्धित कुछ विशिष्ट क्रियाएँ या गतिविधियाँ सौंप दी जाती है।

7. दिशा के आधार पर प्रत्यायोजन चार प्रकार का होता है-
  • उर्ध्वगामी (Upward) – नीचे से ऊपर की ओर किया जाने वाला प्रत्यायोजन अर्थात् अधीनस्थ स्तरों से उच्चस्तर की ओर, तल से शीर्ष की ओर किया जाने वाला प्रत्यायोजन उर्ध्वगामी प्रत्यायोजन कहलाता है।
  • अधोगामी (Downward)- शीर्ष से तल की ओर उच्च अधिकारी द्वारा अधीनस्थों को किया जाने वाला प्रत्यायोजन, अधोगामी प्रत्यायोजन कहलाता है।
  • क्षितिजाकार (Horizontal)- समान अधिकारियों के बीच एक ही स्तर पर परस्पर किया जाने वाला प्रत्यायोजन क्षितिजाकार प्रत्यायोजन कहलाता है।
  • बाह्य और पार्श्व प्रत्यायोजन (Outward or Sidewase Delegation)–संगठन की किसी इकाई द्वारा किसी अन्य संगठनेत्तर इकाई को किया जाने वाला प्रत्यायोजन बाह्य और निकटवर्ती पहचान वाले संगठन को किया जाने वाला प्रत्यायोजन पार्श्व प्रत्यायोजन कहलाता है।

8. सशर्त और अशर्त प्रत्यायोजन
वह प्रत्यायोजन जो किन्हीं शतों पर आधारित बना दिया जाता है सशर्त प्रत्यायोजन कहलाता है तथा बिना किसी शर्तो पर आधारित प्रत्यायोजन, अशर्त प्रत्यायोजन कहलाता है।

9. सरल और जटिल प्रत्यायोजन
वह प्रत्यायोजन जिसको करने की प्रक्रिया अत्यंत सरल हो, सरल प्रत्यायोजन तथा जिसके प्रत्यायोजन में अनेक औपचारिकताओं का निर्वहन करना पड़ता है, जटिल प्रत्यायोजन कहलाता है।

प्रत्यायोजन के सिद्धान्त

  1. प्रत्यायोजन में अपेक्षित परिणामों के आधार पर कार्य का निर्धारण होना चाहिए।
  2. प्रत्यायोजन में आदेश की एकता के सिद्धान्त का उल्लंघन नहीं होना चाहिए।
  3. प्रत्यायोजन में केवल क्रियात्मक उत्तरदायित्व ही हस्तांतरित होना चाहिए। अन्तिम उत्तरदायित्व प्रत्यायोजक का ही होता है।
  4. प्रत्यायोजन में अधिकारों अथवा सत्ता का प्रत्यायोजन जिस मात्रा में किया जाए, उसी मात्रा में उत्तरदायित्व भी सौंपा जाना चाहिए।
  5. प्रत्यायोजन तभी प्रभावशाली एवं लाभप्रद सिद्ध होता है जबकि उसके नियंत्रण की प्रक्रिया भी संचालित हो।
  6. प्रत्यायोजन में अधिकारों की सीमाओं का स्पष्टीकरण होना चाहिए।
  7. प्रत्यायोजन में सम्प्रेषण खुला रहना चाहिए।
  8. प्रत्यायोजन में प्रत्यायोजी को प्रत्यायोजन के सभी पक्षों की पूर्ण जानकारी होनी चाहिए।
  9. प्रत्यायोजन पूर्ण नियोजित एवं व्यवस्थित होना चाहिए।
  10. प्रत्यायोजन में मूल्यांकन का तत्त्व भी निहित होता है। प्रत्यायोजित कार्य पूरा हो जाने के पश्चात् और यदि आवश्यक हो तो बीच में ही अधीनस्थों द्वारा निष्पादित कार्य की प्रत्यायोजक द्वारा समीक्षा की जानी चाहिए।
  11. प्रत्यायोजन नियमों, कानूनों एवं आदेशों के अनुसार ही होना चाहिए।

प्रत्यायोजन की बाधाएँ

सफल प्रत्यायोजन में कई बाधाएँ आती हैं। ये बाधाएँ प्रबन्धकों में प्रत्यायोजन के तकनीकी ज्ञान के अभाव में उत्पन्न हो सकती हैं या मानवीय प्रकृति के कारण उत्पन्न हो सकती है।

(अ) प्रत्यायोजनकर्ता या अधिकारी के कारण उत्पन्न होने वाली बाधाएँ

1. कड़ा निरीक्षण
प्रबन्धकों का सबसे बड़ा दोष यह है कि वे प्रत्यायोजन करके भी अपने अधीनस्थों पर कड़ा नियंत्रण रखते हैं। वास्तव में प्रत्यायोजन का लाभ तभी प्राप्त होता है जबकि अधीनस्थों को स्वतः निर्णय लेने का अधिकार प्रदान किया जाए।

2. निर्देशन योग्यता का अभाव
कभी-कभी प्रत्यायोजन के उद्देश्य इसलिए भी पूरे नहीं होते हैं कि प्रबन्धकों में निर्देशन की योग्यता का अभाव पाया जाता है।

3. जवाबदेही का अभाव
कई बार अधिकारी अपने अधीनस्थों को उनकी क्रियाओं के लिए उत्तरदायी नहीं ठहरा पाते हैं।

4. अधिकारों का अपहरण
कई अधिकारी कई बार अधिकारों का प्रत्यायोजन करने के बाद पुनः अधिकार छीन लेते हैं।

5. अधिकार केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति
कई अधिकारी अधिकारों का प्रत्यायोजन करना ही नहीं चाहते हैं वे अपने आप को सर्वश्रेष्ठ कार्यकर्ता समझते हैं।

6. अधीनस्थों का भय
कुछ अधिकारी अपने अधीनस्थों के शक्तिशाली होने से डरते हैं, अतः ऐसे अधिकारी बहुत कम प्रत्यायोजन करते हैं।

7. अधीनस्थों में विश्वास का अभाव
कई अधिकारियों को विश्वासपात्र अधीनस्थ नहीं मिल पाते हैं। अतः उन्हें अपने अधिकारों का प्रत्यायोजन न करने के लिए विवश होना पड़ता है।

8. समन्वय की समस्या का जन्म
प्रत्यायोजन करने से प्रबन्धकों या अधिकारियों के सम्मुख एक सबसे बड़ी समस्या खड़ी होती है, वह है समन्वय की समस्या।

9. सभी कार्यों के श्रेय-प्राप्ति की इच्छा
प्रत्यायोजन नहीं होने का एक कारण यह भी है कि कई व्यक्ति संस्था के सभी कार्यों का श्रेय स्वयं ही लेना चाहते हैं। अतः सभी कार्य स्वयं करते हैं।

10. प्रथाएँ एवं परम्पराएँ
कई बार सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों, प्रथाओं, परम्पराओं आदि के आधार पर ही प्रत्यायोजन किया जाता है। परिणामस्वरूप जहाँ प्रत्यायोजन की प्रथाएँ एवं परम्पराएँ नहीं होती हैं वहाँ पर प्रत्यायोजन नहीं किया जा सकता है।

(ब) अधीनस्थों के कारण उत्पन्न बाधाएँ

1. अधीनस्थों में योग्यता का अभाव
योग्यता के अभाव में प्रत्यायोजन सम्भव नहीं होता है।

2. आत्मविश्वास का अभाव
अधीनस्थों में योग्यताएं होने के उपरान्त भी आत्मविश्वास के अभाव में अधीनस्थ प्रत्यायोजित अधिकारों का सदुपयोग नहीं कर सकते हैं।

3. अपर्याप्त प्रेरणा
प्रेरणाओं के अभाव में प्रत्यायोजित अधिकारों की सफलता संदिग्ध ही रहती है।

4. अपर्याप्त संचार व्यवस्था
अपर्याप्त संचार व्यवस्था होने से कई अधीनस्थ अधिकारों को स्वीकार नहीं करते है।

5. अपमान का भय
कई बार अधीनस्थ अपमान के भय के कारण भी प्रत्यायोजन को स्वीकार नहीं करते हैं।

(स) संगठनात्मक बाधाएँ
  • सुस्थापित विधियों एवं प्रक्रियाओं का अभाव प्रत्यायोजन में बाधाएँ खड़ी करता है।
  • अस्थायी और गैर बारम्बारिक कार्यों की प्रकृति उसके प्रत्यायोजन में बाधा खड़ी करती हैं।
  • संगठन का छोटा आकार तथा सीमित भौगोलिक फैलाव प्रत्यायोजन को असुविधाजनक बनाता है।
  • सुस्थापित संप्रेषण प्रक्रियाओं का अभाव तथा समन्वयकारी तकनीकों की कमी प्रत्यायोजन में सांगठनिक बाधाएँ खड़ी करता है।
  • संगठन द्वारा सम्पादित कार्य की प्रकृति भी प्रत्यायोजन को सुविधाजनक और असुविधाजनक बनाती हैं।

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