जीवन परिचय
फीरोज-तुगलक मुहम्मद तुगलक का चचेरा भाई था। उसके पिता का नाम मलिक रज्जब (ग्यासुद्दीन तुगलक का छोटा भाई) था। उसकी माता का नाम बीबी नैला था, जो अबोहर (पंजाब के वर्तमान जिला फीरोजपुर में स्थित है) के भट्टी राजपूत राय रणमल की पुत्री थी। इस प्रकार फीरोज की नसों में हिन्दू मुस्लिम खून का सम्मिश्रण था।
अतः अमीरों तथा सरदारों ने उसके चचेरे भाई फीरोज-तुगलक को सुल्तान का पद स्वीकार करने के लिए विवश किया। 23 मार्च, 1351 ई. को फीरोज-तुगलक राज्य सिंहासन पर बैठा। उस समय देश की राजनीतिक स्थिति बड़ी शोचनीय थी। शासन प्रबन्ध अस्त-व्यस्त ओर शिथिल हो चुका था और साम्राज्य का बहुत-सा भाग दिल्ली के अधिकार से निकल चुका था।
गुजरात, सिन्ध, बंगाल और दक्षिण के प्रदेश स्वतंत्र हो चुके थे। ऐसी परिस्थितियों में फीरोज के सम्मुख कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य थे, जैसे कि, प्रजा के असन्तोष और कष्टों को दूर करना, शासन को पुनः संगठित करना तथा तुगलक वंश के प्रति जनता में विश्वास उत्पन्न करना।
फीरोज-तुगलक के सैनिक अभियान
फीरोज तुगलक ने मुहम्मद तुगलक के समय साम्राज्य से अलग हुए प्रदेशों पर पुनः अधिकार करने के लिए अभियान किए, किन्तु अधिकांश में वह असफल रहा।
बंगाल अभियान (1353 ई. व 1359 ई.)
1353 ई. में फीरोज ने बंगाल के शासक हाजी इलियास पर आक्रमण किया, किन्तु कुछ समय बाद वह घेरा उठाकर लौट गया। इलियास के बाद 1359 ई. में उसका पुत्र सिकन्दर शासक बना, जो बड़ा अत्याचारी था। अतः फीरोज ने 1359 ई. में पुनः बंगाल पर आक्रमण किया, किन्तु सफलता नहीं मिली।
जाजनगर विजय (1360 ई.)
1360 ई. में फीरोज ने जाजनगर (उड़ीसा) तथा कुछ अन्य नगरों पर भी अधिकार कर लिया। उसने पुरी के विख्यात जगन्नाथ मन्दिर को ध्वस्त कर मूर्तियों को समुद्र में फिंकवा दिया।
नगरकोट विजय (1360 ई.)
फीरोज ने 1360 ई. में नगरकोट पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया तथा ज्वालामुखी के मन्दिरों को ध्वस्त किया। फरिश्ता के अनुसार, "सुल्तान ने ज्वालामुखी की मूर्तियों को तोड़ दिया, उनके टुकड़ों को गाय के मांस में मिलाया और उसके गन्ध के थैले बनाकर ब्राह्मणों के गले में लटकवा दिए तथा मूर्ति को विजय-चिन्ह के रूप में मदीना भेज दिया।"
थट्टा विजय (1362-66 ई.)
1362 ई. में फीरोज ने सिन्ध की राजधानी थट्टा पर आक्रमण कर दिया। वहां के शासक 'जाम' ने उसका डटकर सामना किया। इसी बीच अकाल तथा महामारी से शाही सेना की हालत बिगड़ गई। अतः सुल्तान ने दिल्ली से सैनिक सहायता प्राप्त कर जाम पर आक्रमण कर उसे परास्त कर दिया तथा अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश किया। सिन्ध पर आक्रमण से साम्राज्य को जन-धन की भारी हानि हुई तथा फीरोज की विवेकहीनता तथा अयोग्यता प्रमाणित हो गई।
फीरोज-तुगलक के सुधार अथवा शासन-प्रबन्ध
फीरोज-तुगलक एक शान्तिप्रिय शासक था जिसके शासन सुधारों के कारण ही मध्यकालीन भारत के इतिहास में उसका नाम विशिष्ट स्थान रखता है। उसके सभी मुख्य सुधारों को हम निम्नांकित अलग-अलग शीर्षकों में वर्णित कर सकते हैं -
दुखियों की सहायता
फिरोज तुगलक ने अपने चाचा मुहम्मद तुगलक के विवेकहीन कार्यों से दुःखी अनेक लोगों को सन्तुष्ट करने का प्रयत्न किया। उसने उन्हें राजकोष से सहायता दी और अनेक सरकारी ऋण माफ कर दिए। सुल्तान ने उन लोगों से यह भी लिखवा लिया कि उन्हें मृत सुल्तान (मुहम्मद तुगलग) के विरूद्ध कोई शिकायत नहीं है।
तत्पश्वात् इन क्षमा पत्रों को एक सन्दूक में बन्द करके मुहम्मद तुगलक की कब्र में रखवा दिया गया। फिरोज का यह काम अपने चाचा के प्रति महान कृतज्ञता का था।
राजस्व विभाग में सुधार
कृषकों और भूमि की दशा सुधारने के लिए फिरोज ने निम्नालिखित सुधार किए-
- किसानों द्वारा अकाल के समय मुहम्मद तुगलक से लिए गए ऋणों को माफ कर दिया गया।
- भूमि की अच्छी तरह जांच-पड़ताल करके मालगुजारी की दर इतनी घटा दी गई कि किसान बिना किसी कठिनाई के अपना कार्य करने लगे।
- सिंचाई के प्रबन्ध को इतना सुव्यवस्थित किया गया कि अधिकाधिक भूमि पर कृषि होने लगी।
- राजस्व विभाग के कर्मचारियों की वेतन वृद्धि कर दी गई ताकि वे रिश्वत से बचे रहें।
- नहरी सिंचाई वाले क्षेत्रों से उपज का दसवां भाग जल-कर के रूप में लिया जाने लग।
फिरोज के राजस्व और कृषि सम्बन्धी सुधारों के फलस्वरूप गांवों की हालत सुधर गई और कृषि को बड़ा प्रोत्साहन मिला। किसान समृद्धशाली हो गए, उन्हें खाने-पीने का अभाव नहीं रहा।
जागीर प्रथा को पुनः जीवित करना
फिरोज ने ग्रामीण तथा कृषि क्षेत्र में जहां इतने अच्छे सुः गार किए, वहा एक हानिकारक काम भी किया। अलाउद्दीन के शासन काल में समाप्त हो गई जागीर प्रथा के दोषों को दूर करने के लिए यह नियम बनाया गया कि जागीरदारों के घोड़ों और सैनिकों का प्रति वर्ष सरकारी निरीक्षण हुआ करेगा। यद्यपि यह नियम अच्छा था, किन्तु इसका पालन समुचित रूप से नहीं हो सका। प्राय: बूढ़े सैनिक अपनी मुसीबतों की कहानियां सुनाकर सुल्तान को द्रवित कर देते थे और अपने पदों पर बने रहने की आज्ञा प्राप्त कर लेते थे। जागीर प्रथा का पुनः प्रचलन साम्राज्य के लिए बड़ा हानिकारक सिद्ध हुआ। एक ओर तो इससे राज्य को हानि पहुंची और दूसरी और घूसखोरी तथा भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन मिला।
सिचाई प्रबन्ध (नहरों, कुओं, बांधों आदि का निर्माण)
कृषि को प्रोत्साहन देने और पैदावार बढ़ाने के लिए फिरोज ने 5 नहरों, लगभग 150 कुओं और 50 बांधों का निर्माण कराया। पहली और सबसे बड़ी नहर 150 मील लम्बी थी जो यमुना के पानी को हिसार तक ले जाती थी। 96 मील लम्बी दूसरी नहर सतलज से निकल कर घग्घर से मिलती थी और मार्ग के सारे प्रदेश को सींचती थी। तीसरी नहर सिरमौर की पहाड़ियों और हांसी के बीच के प्रदेश की सिंचाई करती थी। अन्य दो नहरें घग्घर व यमुना से निकलकर फिरोजाबाद तक पहुंचती थी।
फिरोज ने इन नगरों की निगरानी के लिए कई अच्छे इन्जीनियर नियुक्त किए। उसने बंजर भूमि पर भी कृषि करवाई। फिरोज के इन कार्यों से कृषि उन्नत हो गई और अनाज का उत्पादन बहुत बढ़ गया। उसके समय में कोई अकाल नहीं पड़ा।
कर प्रणाली और वित्त विभाग में सुधार
फिरोज ने राज्य की वित्त व्यवस्था को सुधारने पर पर्याप्त ध्यान दिया। प्रजा के असन्तोष को दूर करने के लिए उसने प्रचलित 23 या 25 कष्टदायी करों को समाप्त कर दिया। केवल जजिया, खिराज, खम्स और जकात नामक चार करों को रहने दिया क्योंकि इनका लगाना इस्लामी कानून के अनुकूल था।
फिरोज द्वारा अधिकांश करों को हटा देने से राजकोष में धन की जो कमी हुई उसे अन्य साधनों से पूरा कर लिया गया। उदाहरणार्थ जल कर से, शाही बागों से और भूमि कर से राज्य की आय में पर्याप्त वृद्धि हो गई। व्यापार के उन्नत होने से भी राज्य की आय बहुत बढ़ी। करों का बोझ कम होने से प्रजा को बड़ी राहत मिली।
न्याय सुधार
फिरोज तुगलक ने न्याय व्यवस्था को पहले की अपेक्षा अधिक उदार बनाया। उसने कठोर सजाओं में कमी कर दी। हाथ-पांव काटने और अन्य अमानुषिक दण्डों को, जो इस्लाम के विरुद्ध थे, हटा दिया। फिरोज ने मुल्ला और मौलवियों को कानून की व्याख्या करने और न्याय करने का काम सौंप दिया। न्याय सम्बन्धी कानून व दण्ड व्यवस्था निश्चित कर दी गई। राज्य के सब महत्त्वपूर्ण स्थानों पर अदालतें (दारुल अदल) स्थापित की गई। न्याय के क्षेत्र में उदारता दिखाने से फिरोज लोकप्रिय हुआ। पर इस क्षेत्र में भी हिन्दुओं के साथ मुसलमानों की अपेक्षा अधिक कठोर व्यवहार किया जाता था।
सैनिक सुधार
फिरोज ने अलाउद्दीन खिलजी की भांति स्थायी सेना रखने की पद्धति को त्याग दिया। उसने सेना का संगठन, जागीरदारी पद्धति के आधार पर किया। साम्राज्य को विभिन्न भागों और उपभागों में बांट दिया गया जिनका प्रबन्ध भार सैनिक व असैनिक अधिकारियों पर डाला गया। इन्हें अपना व अपने सैनिकों का खर्च सरकार द्वारा दी गई भूमि की आय से पूरा करना होता था और बदले में वे आवश्यकता पड़ने पर सुल्तान को सैनिक सहायता देते थे। थोड़े से अनियमित सैनिकों को राजकोष से नकद वेतन भी मिलता था। फिरोज ने यह नियम भी बना दिया कि जब कोई सैनिक वृद्ध और सेवा के अयोग्य हो जाए तो उसके पुत्र, दामाद, गुलाम या अन्य रिश्तेदारों को उसके स्थान पर ले लिया जाएगा।
फिरोज का यह सैनिक संगठन बहुत दोषपूर्ण था। इससे भ्रष्टाचार बहुत अधिक फैला तथा सैनिक अनुशासन को गहरा धक्का लगा। इसके अतिरिक्त सैनिक-सेवा वंशानुगत हो गई। फौज में योग्यता व शारीरिक क्षमता का सिद्धान्त गौण हो गया। सुल्तान ने रिश्वत आदि को रोकने का कोई प्रयत्न नहीं किया, बल्कि अपने कुछ कार्यों से इसे स्वयं प्रोत्साहन दिया। सैनिक प्रबन्ध का एक गम्भीर दोष यह रहा कि केवल 80 या 90 हजार अश्वारोही ही राजधानी में रहते थे। शेष सेना अमीरों व अधिकारियों द्वारा जुटाई गई टुकड़ियों से मिलाकर बनी थी जिस पर केन्द्र सरकार का समुचित नियन्त्रण नहीं रह पाता था।
मुद्रा प्रणाली में सुधार
फिरोज के समय अधिकांशतः वे ही सिक्के चलते रहे जो मुहम्मद तुगलक के समय प्रचलित थे। पर निर्धन व साधारण जनता की सुविधा के लिए उसने कम मूल्य वाले कुछ छोटे-छोटे सिक्के भी चलाए जैसे - आधी जीतल और चौथाई जीतल के सिक्के । उसने तांबा व चांदी मिलाकर कुछ इस ढंग से सिक्के बनवाए कि जाली सिक्के नहीं बनवाए जा सकते थे और यदि बनवाए भी जाते तो उनसे विशेष लाभ नहीं हो सकता था। पुराने सिक्कों में भी उसने कुछ सुधार किया।
दास-प्रथा
फिरोज को दासों का बहुत शौक था, अतः उसके शासन काल में दास प्रथा को बहुत प्रोत्साहन मिला। फिरोज के सरकारी इतिहासकार हफीफ के अनुसार उस समय दासों की संख्या लगभग 1,80,000 तक पहुंच गई जिनमें 40,000 तो शाही महल में सुल्तान और उसके परिवार की सेवा में रहते थे। दासों की देखरेख के लिए एक अलग विभाग खोला गया। डॉ. ईश्वरीप्रसाद के अनुसार दास पद्धति के लिए पृथक कोष और दीवान थे तथा दासों को विभिन्न हस्तकलाओं की शिक्षा दी जाती थी। दासों की शिक्षा का प्रबन्ध भी किया गया था। फिरोज की दास–प्रथा साम्राज्य के लिए बहुत अधिक हानिकारक सिद्ध हुई। यद्यपि शिल्प-उद्योगों को लाभ पहुंचा, लेकिन राजकोष पर भारी बोझ पड़ा और दासों के षड़यन्त्रों ने फिरोज के दुर्बल उत्तराधिकारियों को विनाश के सन्निकट ला दिया।
सार्वजनिक निर्माण कार्य
फिरोज को नए-नए भवनों, नगरों और बगीचों के निर्माण का बड़ा शौक था। उसने अपने शासनकाल में फिरोजाबाद, झांसी और जौनपुर जैसे महत्त्वपूर्ण व सुन्दर नगर बनवाए। फरिश्ता के अनुसार - "सुल्तान ने अपने राज्य में 40 मस्जिदों, 30 मदरसों, 20 महलों, 100 स्नानघरों, 10 स्तम्भों और 150 पुलों का निर्माण करवाया।" फिरोज ने दिल्ली के चारों ओर फलों के लगभग 1200 बाग लगवाए जिनसे राज्य को दो लाख टांके प्रतिवर्ष आय होने लगी। फिरोज ने प्राचीन स्मारकों की रक्षा की ओर विशेष ध्यान दिया। उसने अशोक के समय के दो स्तम्भ मेरठ और खिज़ाबाद से उखड़वा कर दिल्ली के समीप गड़वा दिए।
शिक्षा व साहित्य को प्रोत्साहन
कला के समान ही फिरोज ने शिक्षा व साहित्य को प्रोत्साहन दिया और विद्वानों को संरक्षण दिया। जियादद्धीन बरनी नामक इतिहासकार उसी के दरबार में था जिसने 'तारीखे फिरोजशाही' की रचना की। फिरोज ने शिक्षा प्रसार में गहरी रूचि ली। उसके शासनकाल में राज्य में 30 मदरसे खोले गए जिनमें अध्यापकों को अच्छा वेतन दिया जाने लगा और छात्रों की समुचित सहायता का प्रबन्ध किया गया। फरिश्ता के अनुसार - "सुल्तान ने विद्वानों की देश के भिन्न-भिन्न भागों में रहकर लोगों को विद्या-दान देने के लिए प्रोत्साहन दिया। उसने ज्वालामुखी के स्थान पर एक लाइब्रेरी बनवाई जिसमें हिन्दुओं के 1300 ग्रन्थ थे। उनमें से एक गन्थ का फारसी में अनुवाद भी करवाया गया। इतिहास-प्रेमी होने के कारण सुल्तान में बरनी व हफीफ जैसे इतिहासकारों को संरक्षण भी दिया।" फिरोज ने नगरकोटे से प्राप्त संस्कृत के ग्रन्थों का फारसी में अनुवाद करवाया। चिकित्सा शास्त्र में भी उसे व्यक्तिगत रूचि थी।
अन्य लोक कल्याणकारी कार्य
फिरोज ने जनहित की दृष्टि से ओर भी अनेक कार्य किए जिनमें कुछ अधिक महत्त्वपूर्ण ये हैं -
- बेरोजगारी मिटाने के लिए या बेकारों की सहायता के लिए व्यवस्था की गई। अधिकारियों को आदेश दिए गए कि वे समय-समय पर बेरोजगारों की जांच-पड़ताल करें। सुल्तान ने बेरोजगारों को नौकरी या कुछ काम-काज देने के लिए एक अलग विभाग भी कायम कर दिया।
- रोगियों की सेवा-सुश्रुषा के लिए फिरोज ने अनेक अस्पताल खुलवाए जहां योग्य चिकित्सकों व दवाओं की मुफ्त व्यवस्था की गई। मरीजों को मुफ्त भोजन देने का प्रबन्ध किया गया।
- राजधानी में एक दान-विभाग अथवा 'दीवान-ए-खैरात' खोला गया जिसका मुख्य कार्य विधवाओं और अनाथों की देख-रेख करना तथा उन मुस्लिम लड़कियों की सहायता करना था जिनके माँ बाप गरीबी के कारण उनका विवाह नहीं कर पाते थे।
विभिन्न क्षेत्रों में अपने इन सुधारों के कारण फिरोज तुगलक ने बड़ी लोकप्रियता हासिल की और अपने को एक आदर्श शासक के निकट ला बैठाया। दुर्भाग्यवश अपनी अनुचित उदारता, दुर्बलता ओर प्रशासनिक अयोग्यता के कारण उसके सुधार स्थाई सिद्ध नहीं हुए और न ही शासन-प्रणाली को सुदृढ़ बना सके । यद्यपि सुधारों से कृषि और व्यापार को भारी प्रोत्साहन मिला और लोगों को भारी राहत मिली, लेकिन हिन्दू प्रजा, मुसलमानों की अपेक्षा बड़ी घाटे में रही। उसके अनेक सुधारों ने धीरे-धीरे एक ऐसी प्रतिक्रिया को जन्म दिया जो तुगलक वंश के लिए घातक सिद्ध हुई। फिरोज के अत्यधिक शराब पीने के व्यसन ने भी साम्राज्य को बड़ी हानि पहुंचाई। इस दुर्व्यसन के कारण फिरोज योग्य उत्तराधिकारियों का निर्माण नहीं कर सका और उसकी मृत्यु के कुछ वर्ष बाद ही तुगलक साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया।
धार्मिक नीति
अलाउद्दीन खिलजी और मुहम्मद तुगलक जैसे शासकों ने धर्म को राजनीति से पृथक रखा इसके ठीक विपरित फीरोज ने राजनीति को धर्म पर आधारित बना दिया। इसका मूल कारण एक तो उलेमाओं द्वारा उसके उत्तराधिकार का समर्थन करना और दूसरा उसका स्वयं का स्वभाव तथा धर्म के प्रति उसकी रूचि थी। डॉ. श्रीवास्तव ने एक अन्य कारण का उल्लेख करते हुए लिखा है कि "चूंकि फिरोज तुगलक एक हिन्दू स्त्री का पुत्र था अतः उसने यह दिखाना आवश्यक समझा होगा कि मैं शुद्ध तुर्की माता-पिता से उत्पन्न लोगों से कम अच्छा मुसलमान नहीं हूं। इसीलिए फीरोज ने राजनीतिक तथा शासनिक कार्यों में भी उलेमाओं से परामर्श लेना तथा उनकी सलाहानुसार शासन का संचालन करना स्वीकार कर लिया था। परन्तु उनका दृष्टिकोण संकुचित तथा संकीर्ण था। उनके प्रभाव के कारण भारत में इस्लाम का प्रसार करना, हिन्दुओं को बलात् मुसलमान बनाना, हिन्दू मन्दिरों और मूर्तियों को ध्वंस करना और हिन्दुओं पर नाना प्रकार के अत्याचार करना फीरोज के शासन के मुख्य ध्येय बन गए। फीरोज ने अपने आत्मचरित्र में लिखा है कि "मैंने अपनी काफिर प्रजा को पैगम्बर का धर्म स्वीकार करने में लिए बाध्य किया और यह घोषणा की कि जो भी अपने धर्म को छोड़कर मुसलमान बन जायेगा उसे जजिया से मुक्त कर दिया जायेगा।"
नगरकोट और जाजनगर पर फीरोज के आक्रमण उसकी धार्मिक नीति से प्रेरित थे। इन दोनों स्थानों पर उसने मन्दिर और मूर्तियों को ध्वस किया और पुजारियों को मौत के घाट उतार दिया। उसकी धर्मान्धता इस सीमा तक बह गई थी कि उसने हिन्दुओं के धार्मिक मेलों पर प्रतिबन्ध लगा दिया और नवीन मन्दिरों के निर्माण की मनाही कर दी गई। एक ब्राह्मण का उसने इस आरोप के कारण वध कवा दिया कि वह मुसलमानों को हिन्दू बनने के लिए प्रोत्साहित करता था वस्तुतः वह अपने आपकों केवल मुसलमानों का शासक समझता था।
फीरोज पर उलेमाओं का इतना अधिक प्रभाव था कि शिया तथा अन्य गैर सुन्नी मुसलमान जिन्हें उलेमा वर्ग कट्टर इस्लाम का दोषी मानता था फिरोज तुगलक के अत्याचार से नहीं बच पाये। शिया लोगों को भी कठोर दण्ड दिया तथा उनकी धार्मिक पुस्तकों को जलवा दिण। मुल्हीदियों और महदवियों के साथ भी उसने ऐसा ही किया। सूफी लोग भी उसकी संकीर्णता के शिकार होने से न बच सके। मजूमदार ने ठीक ही लिखा है कि "फीरोज इस युग का सबसे महान् धर्मान्ध सुल्तान था।"
क्या फिरोज तुगलक, तुगलक साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी था?
फिरोज तुगलक, पिछले सभी सुल्तानों के विपरीत, शान्ति पूर्वक गद्दी पर बैठा। उसे गद्दी के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ा। उसके राज्यारोहण का दरबार के लगभग सभी अमीरों ने स्वागत किया। साथ ही उसके शासनकाल में उसे गद्दी से हटाने की नियत से कोई विद्रोह भी नहीं हुआ। फिरोज तुगलक ने अपने शासनकाल में अपनी साम्राज्य को काफी सुव्यवस्थित भी किया तथा उसे प्रशासनिक सुधारों से आम जनता भी सन्तुष्ट थी। लेकिन यह सब होते हुए भी अनेक इतिहासकार फिरोज तुगलक को दिल्ली सल्तनत अथवा तुगलक साम्राज्य के पतन के लिए बहत अंशों तक उत्तरदायी ठहराते है। इसके समर्थन में उनके द्वारा निम्नलिखित मुख्य तर्क प्रस्तुत किए गए हैं -
अमीरों के प्रति उदारता के घातक परिणाम
साम्राज्य के अमीरों और सरदारों के प्रति फिरोज तुगलक की अत्यधिक उदार नीति तुगलक साम्राज्य और दिल्ली सल्तनत के लिए घातक सिद्ध हुई। समय के साथ अमीरों की क्षमता, कुशलता ओर स्वामिभक्ति का पतन होता गया और वे तुच्छ स्वार्थों के लिए साम्राज्य के हितों का बलिदान करने लगे। साम्राज्य की सैनिक शक्ति पर इसका विशेष रूप से बुरा प्रभाव पड़ा और दिल्ली सल्तनत की शक्तिशाली सेनाएं फिरोज तुगलक के शासन के समाप्त होते-होते निर्वीर्य होकर पुराना तेज और जौहर खो बैठीं।
उलेमा वर्ग के प्रति अत्यधिक उदार नीति की घातता
फिरोज तुगलक ने उलेमा-वर्ग के प्रति जो अत्यधिक उदार, सम्मान और समर्थन की नीति बरती तथा प्रशासकीय मामलों में उनके परामर्श को जो महत्त्व दिया, उसके परिणाम घातक सिद्ध हुए। उलेमा का प्रभाव बढ़ने से स्ल्तनत में धार्मिक पक्षपात और कटरता बहुत बढ़ गई जिससे आगे चलकर तुगलक साम्राज्य और दिल्ली सल्तनत को भारी आघात लगां। हिन्दुओं और गैर-मुसलमानों पर सुल्तान ने जो अत्याचार किए उनके मूल में उलेमा-वर्ग के कुटिल परामर्श की मुख्य भूमिका थी।
फिरोज की धर्मान्धता
फिरोज तुगलक की धार्मिक नीति तुगलक साम्राज्य और दिल्ली सन्तनत के लिए घातक सिद्ध हुई। हिन्दुओं और गैर-सुन्नी मुसलमानों पर उसने जो अत्याचार किए वे अन्ततोगत्वा सल्तनत के लिए कब्र साबित हुए । योग्य हिन्दू पदाधिकारियों को हटा दिए जाने से प्रशासन पर सुल्तान की पकड़ मजबूत न रह सकी।
सेना को निर्बल बनाना
अपने उदार विचारों के कारण फिरोज सैन्य व्यवस्था को सुदृढ नहीं बनाए रख सका। फिरोज की शिथिल और कायरतापूर्ण नीति के कारण सल्तनत की शक्तिशाली सेना अपनी क्षमता खोने लगी और अन्त में इतनी पंगु हो गई कि विशाल साम्राज्य की सुरक्षा का भार वहन नहीं कर सकी। सैनिकों की भर्ती में भी सुल्तान ने पैतृक अधिकार को मान्यता दे दी जिसके फलस्वरूप योग्य और युद्ध-निपुण पिता के आयोग्य और निर्बल पुत्र भी सेना में स्थान पाने लगे। फिरोज ने स्थायी सेना रखने की नीति को त्याग दिया। चूंकि केन्द्र में एक बड़ी स्थायी सेना नहीं रही, अतः सैनिक संगठन दुर्बल हो गया। सैनिकों और पदाधिकारियों के लिए जागीर देने की प्रथा पुनः चालू करने से सैनिक वर्ग में निष्क्रियता छाने लगी।
शासन का केन्द्रीकरण
यद्यपि पूर्ववर्ती मुस्लिम शासकों ने भी सत्ता का केन्द्रीयकरण किया था लेकिन वे अपने वजीर (प्रधानमंत्री) पर पूर्णतः निर्भर नहीं रहते थे। फिरोज तुगलक ने सत्ता का केन्द्रीयकरण करके अपनी सम्पूर्ण सत्ता अपने वजीर मकबूल को और बाद में उसके पुत्र जूनाशाह को सौंप दी। परिणाम यह निकला कि उन दोनों ने अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए महत्त्वपूर्ण पदों पर अपने समर्थकों को नियुक्त कर दिया। जूनाशाह ने तो सुल्तान और उसके शहजादा मुहम्मद में भी वैमनस्य उत्पन्न करा दिया। जिससे आगे चलकर तुगलक साम्राज्य को आघात पहुंचा।
दास-प्रथा को विनाशकारी प्रोत्साहन
फिरोज तुगलक की दास'-प्रथा साम्राज्य के लिए बहुत हानिकारक सिद्ध हुई। यद्यपि शिल्प-उद्योगों को लाभ पहुंचा, लेकिन राजकोष पर बहुत भार पड़ा और दासों के षड्यंत्रों ने फिरोज तुगलक के दुर्बल उत्तराधिकारियों के विनाश को सन्निकट ला दिया। जिस दास प्रथा को बलबन ने समाप्त कर दिया था, उस प्रथा को ही सबल बनाकर फिरोज तुगलक ने गुलामों अथवा दासों का एक ऐसा वर्ग पैदा कर दिया जो केवल अपने ही हितों की चिन्ता करने लगा और साम्राज्य के हित के प्रति बेखबर हो गया।
शासन में अव्यवस्था और भ्रष्टाचार का प्रसार
फिरोज तुगलक की अनुचित उदारता, दुर्बलता और प्रशासनिक अयोग्यता के कारण उसके सुधारों और अन्य कार्यों का साम्राज्य पर समूहिक प्रभाव अच्छा नहीं पड़ा।
फिरोज के अदूरदर्शी विजय-अभियान या उसकी दुर्बल विदेश नीति
फिरोज तुगलक ने जो थोड़े बहुत विजय अभियान किए वे भी अदूरदर्शी रहे। अपनी विजय योजनाओं में उसने धार्मिक कट्टरता ओर अदूरदर्शिता का परिचय दिया। जामनगर तथा कांगड़ा विजय से उसने हिन्दुओं को नाराज कर दिया तो सिन्ध पर आक्रमण कर उसने अपनी निर्बलता का परिचय दिया। दक्षिण के स्वतन्त्र मुस्लिम राज्यों पर आक्रमण कर उसने अपनी निर्बलता का परिचय दिया। दक्षिण के स्वतन्त्र मुस्लिम राज्यों पर आक्रमण न करके तुगलक ने अपनी राजनीतिक और सैनिक अदूरदर्शिता तथा निर्बलता को और भी स्पष्ट कर दी। बंगाल पर दो बार असफल आक्रमण कर लौटने ने उसकी धार्मिक कट्टरता, सैनिक निर्बलता का पर्दाफाश कर दिया। इन आक्रमणों में विपुल धनराशि भी व्यय हुई। इन सबका तुगलक साम्राज्य पर बहुत बुरा असर पड़ा। फिरोज की अदूरदर्शी
और दुबैल विदेश नीति के कारण उसके समय में ही दिल्ली साम्राज्य का विस्तार घटकर बहुत कुछ विन्ध्यपर्वत के उत्तरी भाग तक ही सीमित रह गया।
फिरोज के निर्बल उत्तराधिकारी
इस क्षेत्र में फिरोज की तुलना अन्तिम महान् मुगल सम्राट औरंगजेब से की जा सकती है। जिस प्रकार औरंगजेब ने अपने शहजादों को योग्य प्रशासक बनाने की ओर ध्यान नहीं दिया, उसी प्रकार सुल्तान फिरोज ने अपने उत्तराधिकारियों को प्रशासन के योग्य नहीं बनाया। परिणाम यह निकला कि वे अपने पिता के विशाल सामाज्य को सम्भाल नहीं सके। फिरोज के इस लोक से विदा होते ही दिल्ली में गद्दी के लिए गृह युद्ध शुरू हो गए जिसका अन्तिम परिसणाम यह निकला कि दिल्ली की गद्दी तुगलक सुल्तानों के हाथों से निकल कर सैय्यद वंश के हाथों में चली गई।
उपर्यक्त कारणों से निःसन्देह इस धारणा को बल मिलता है कि फिरोज तुगलक बहुत अंशों तक तुगलक साम्राज्य की समाप्ति के लिए उत्तरादायी था। तथापि सम्पूर्ण उत्तरदायित्व उस पर नहीं डाला जा सकता। तुगलक साम्राज्य मुहम्मद तुगलक के समय ही निर्बल बन चुका था। मुहम्मद तुगलक के निष्फल योजनाओं ने तुगलक साम्राज्य की नींव हिला दी थी। फिरोज की उदारता, अक्षमता और धार्मिक कट्टरता ने तुगलक साम्राज्य के पतन को और निकट ला दिया।
मृत्यु
फिरोज के अन्तिम दिन प्रसन्नतापूर्वक नहीं बीते। 1374 ई. में उसके उत्तराधिकारी पुत्र फतेखां की मृत्यु हो गयी थी, जिससे सुल्तान को भारी आघात पहुंचा। उसकी उम्र भी काफी हो चुकी थी, शोक के कारण शक्ति तथा निर्णय बुद्धि क्षीण होने लगी। 1387 ई. में उसका दूसरा पुत्र खाने जहां भी मर गया। अक्टूबर 1388 ई. में 80 वर्ष की अवस्था में उसका देहान्त हो गया।
मूल्यांकन
फिरोज एक पक्का मुस्लिम शासक था तथा इस्लामी कानून का पक्का पाबन्द था। उसके चरित्र तथा व्यक्तित्व के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद हैं। उसके समकालीन इतिहासकार बरनी तथा शम्सी-सिराज अफीक ने फिरोज को न्यायप्रिय तथा एक दयालु शासक होने का श्रेय दिया है।
आधुनिक इतिहासकार इलियट तथा एलफिंस्टन फिरोज की तुलना अकबर से करते हैं लेकिन दूसरी ओर वी.ए. स्मिथ फिरोज की अकबर से तुलना मूर्खतापूर्ण मानते है। डॉ. ईश्वरी प्रसाद का भी विचार है, "फिरोज उस विशाल हृदय तथा विस्तीर्ण मस्तिष्क वाले सम्राट अकबर की प्रतिभा का शतांश भी नहीं था, जिसने सार्वजनिक हितों के उच्च मंच से सभी सम्प्रदायों और धर्मों के प्रति शान्ति, सद्भावना तथा सहिष्णुता का सन्देश दिया।"
डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव का विचार है कि वास्तव में सत्य इन दोनों उग्र मतों के बीच में है। यद्यपि सभी विद्वान स्वीकार करते हैं कि फिरोज एक सच्चा मुसलमान था तथा धर्म-पालन तथा प्रजा के हित का सदैव ध्यान रखता था। निर्धनों, असहायों, अनाथों लडकियों तथा विधवाओं के लए उसने बहुत कुछ किया। बेरोजगार एवं रोगी व्यक्तियों का भी उसे ख्याल था। विद्वानों, शिक्षकों, विद्यार्थियों तथा शिक्षण संस्थाओं को उसने उदारतापूर्वक दान दिया, सार्वजनिक निर्माण कार्य किये तथा कृषि को प्रोत्साहन दिया. तथापि यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि उसके ये सब कार्य मात्र सुन्नी मुसलमानों तक ही सीमित थे। गैर-सुन्नी मुसलमानों के प्रति वह क्रूर एवं अत्याचारी था। उलेमाओं के प्रभाव में आकर उसने संकीर्ण धर्मान्धता का सहारा लिया तथा अपनी बहुसंख्यक हिन्दू जनता पर ही नहीं वरन् सुन्नी मुसलमानों पर भी घोर अत्याचार किये। डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है कि "फिरोज के सुधार हिन्दुओं का विश्वास प्राप्त करने में असफल हुए जिनकी भावनाएं उसकी धार्मिक असहिष्णुता के कारण कटु बन गयी थी। उन सभी ने मिलकर उस प्रतिक्रिया को जन्म दिया जो उस वंश के लिए घातक सिद्ध हुई, जिसका वह एक अयोग्य प्रतिनिधि
था।"
सारांश
कुल मिलाकर फिरोज न तो उच्च कोटि का आदर्श शासक था और न ही सफल शासक। डॉ. आर.पी. त्रिपाठी के शब्दों में, "विधता की कुटिल गति इतिहास के इस दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य से प्रकट हुई कि जिन गुणों ने फिरोज तुगलक को लोकप्रिय बनाया वे ही दिल्ली सल्तनत ही दुर्बलता के लिए जिम्मेदार सिद्ध हुए।"