मुहम्मद बिन तुगलक | muhammad bin tughlaq in hindi

मुहम्मद बिन तुगलक

खुसरो कां का वध करने के पश्चात गाजी मलिक ग्यासद्दीन तुगलक के नाम से शासक बना। इस प्रकार उसने तुगलक वंश की नींव डाली। तुगलक वंश के शासकों ने 1320 ई. से 1414 ई. तक शासन किया। इस वंश के महत्त्वपूर्ण शासक निम्नलिखित हुए -
  • ग्यासुद्दीन तुगलक (1320-1325 ई.)
  • मुहम्मद तुगलक (1325-1351 ई.)
  • फीरोज तुगलक (1351-1388 ई.)
  • फीरोज के उत्तराधिकारी (1388-1414 ई)
मुहम्मद बिन तुगलक, तुगलक वंश का प्रख्यात सुल्तान था इसे नये-नये आविष्कार करने का शौक था। इसने अपने शासन काल में अनेक सुधार एवं योजनाएँ की जैसे राजधानी परिवर्तन, मुद्रा सुधार, कृषि विभाग की स्थापना, दोआब में कर वृद्धि आदि लेकिन ये सभी योजनाएँ असफल रही क्योंकि इन योजनाओं को बनाने में तथा लागू करने में उसने सूझबूझ का साथ नहीं दिया और ना ही समय इन योजनाओं के अनुकूल था। फिर सुल्तान के भाग्य ने भी साथ नहीं दिया। परिणामस्वरूप ये सभी असफल हुए।

प्रारम्भिक जीवन एवं सिंहासनारोहण

पितृघाती राजकुमार जूना 1325 ई. में दिल्ली में सिंहासन पर बैठा। उसने मुहम्मद तुगलकशाह' की उपाधि धारण की और अगले छब्बीस वर्षों तक वह शासन करता रहा। वह एक सीमान्त शासक का पुत्र था। उसका पालन-पोषण एक सैनिक की भांति हुआ था। वह बड़ा महत्वाकांक्षी युवक था तथा दिल्ली के सिंहासन को प्राप्त करना चाहता था। 1320 ई. में जब उसका पिता गयासुद्दीन सुल्तान बना तो उसने स्वयं को युवराज घोषित करके 'उलुगखां' की उपाधि धारण की 1321 ई. में वारंगल की चढ़ाई में उसे कटु विफलता का अनुभव हुआ लेकिन दो वर्ष पश्चात् ही उसने वारंगल के राजा को पराजित करने में सफलता हासिल कर ली। 1325 ई. में उसने अपने पिता का वध करवा दिया क्योंकि वह अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु अधिक प्रतीक्षा नहीं कर सकता था। पिता के वध बाद चालीस दिन तक वह तुगलकाबाद में ही रहा, तदुपरान्त बड़े ठाट-बाट से उसने दिल्ली में प्रवेश किया और सिंहासन पर बैठा। उसके स्वागत के लिए राजधानी को भली-भांती सजाया गया। अतः मुहम्मद ने सुल्तान के रूप में अपना जीवन अत्यन्त अनुकूल परिस्थितियों में प्रारम्भ किया।
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राज्य प्राप्त करने हेतु निन्दनीय प्रयत्न करने के बाद भी सिंहासनारोहण के समय परिस्थितियां बिल्कुल उसके पक्ष में रही। एस.आर.शर्मा के शब्दों में, “वह अपने युग की सामरिक विजयों में पारंगत होने के अतिरिक्त फारसी कला का प्रखर छात्र, लेखन शैली का आचार्य, वाग्विलास के युग का एक प्रखर प्रवक्ता, एक दार्शनिक तर्कशास्त्री, यूनानी हेतु विद्या आध्यात्म-विज्ञान में निपुण, जिससे तर्क करने में बड़े-बड़े विद्वान भी डरते थे. गणित तथा विज्ञान में रूचि रखता था। समसामयिक लेखकों ने उसके निबन्ध चातुर्य तथा सुलेखन की प्रशंसा की है। अतः उसके व्यक्तित्व की छाप उसकी सामूहिक योजनाओं पर भी पड़ी तथा उसकी भयंकर विफलता के कारण उसे इस्लामी जगत का सबसे अधिक विद्वान मुर्ख की संदिग्ध उपाधि मिली।

मुहम्मद तुगलक की योजनाएं

मुहम्मद तुगलक अपनी योजनाओं के लिये प्रसिद्ध है। उसे योजनाएं बनाने का बड़ा शौक था। उसके जनकल्याण हेतु कई योजनाएं बनायीं, किन्तु दुर्भाग्य से वे सभी असफल रहीं तथा साम्राज्य को आघात पहुंचा। उसकी प्रमुख योजनाएं इस प्रकार थी -

गृह-नीति - राजस्व सुधार (1326-1327 ई.)
मुहम्मद तुगलक अत्यधिक परिश्रमी शासक था। सिंहासनारोहण के उपरान्त शीघ्र ही उसने राजस्व-व्यवस्था में सुधार करने के लिए अनेक अध्यादेश जारी किये। पहले के अनुसार प्रान्तों की आय तथा व्यय का लेखा तैयार करने की आज्ञा दी। उसने प्रान्तीय सूबेदारों को लेखा तैयार करने के लिए आवश्यक अभिलेख तथा अन्य समग्री भेजने सूबेदारों को लेखा तैयार करने के लिए आवश्यक अभिलेख तथा अन्य सामग्री भेजने का आदेश दिया।
दक्षिण, बंगाल, गुजरात आदि राज्य के दूरस्थ प्रान्तों से आय-व्यय सम्बन्धी संक्षिप्त लेखे दिल्ली भेजे गये और काम बिना किसी झंझट के चलता गया। सुल्तान ने यह परिश्रम इसलिए किया कि वह समस्त राज्य में एकसी राजस्व व्यवस्था कायम करना चाहता था। यह देखना चाहता था कि कोई गांव भूमि कर से न बच सके। चूंकि प्रान्तों में दूरियां थी अतः समय पर यह योजना नहीं हो सकी और असफल हो गई।

राजधानी परिवर्तन (1327 ई.)
1327 ई. में मुहम्मद तुगलक ने अपनी राजधानी दिल्ली से हटाकर दक्षिण के देवगिरि नगर को बनाने का निश्चय किया। देवगिरि का नाम बदलकर दौलताबाद रख दिया गया।

कारण
राजधानी परिवर्तन के कारणों के सम्बन्ध में इतिहासकारों ने भिन्न-भिन्न मत प्रकट किए हैं -
  • बरनी के अनसार दिल्ली की अपेक्षा देवगिरि साम्राज्य का अधिक केन्द्रीय स्थान था। अतः सुल्तान ने सुगमतापूर्वक शासन संचालन करने हेतु देवगिरि को अपनी राजधानी बनाया।
  • कुछ इतिहासकारों के अनुसार राजधानी को मंगोलों के आक्रमण से सुरक्षित रखने की दृष्टि से यह कदम उठाया गया था।
  • इब्नबतूता के अनुसार दिल्ली के लोग सुल्तान को गाली-गलौच से भरे पत्र डाला करते थे। अतः सुल्तान ने दिल्ली के लोगों को दण्ड देने के उद्देश्य से यह कार्य किया था।
  • ख्वाजा मैंहदी हुसैन के अनुसार दक्षिण में मुस्लिम संस्कृति को फैलाने के लिए सुतान ने यह प्रशासनिक कदम उठाया था।
  • मुहम्मद तुगलक के सुदूर भागों में विद्रोहों से निपटने के लिए दक्षिण में एक प्रभावशाली शासकी केन्द्र बनाना आवश्यक समझा और देवगिरि को दूसरी राजधानी बनाया।

दिल्ली से देवगिरि
वास्तविक कारण जो भी रहे हों, पर यह निश्चित है कि दिल्ली के स्थान पर देवगिरि को राजधानी बनाने का आदेश जारी कर दिया गया। शाही परिवार के सदस्य, महत्त्वपूर्ण उच्च श्रेणी के सरदार तथा सरकारी कर्मचारी मय सामान के दौलताबाद (देवगिरि) पहुंच गए। सुल्तान ने दिल्ली से देवगिरि तक एक अच्छी सड़क बनवाई और उसके दोनों ओर छायादार वृक्ष लगवाये। उसके सड़कों पर धर्मशालाएं बनवाई।
सुल्तान ने सब लोगों को दिल्ली छोड़ने का आदेश दिया। बरनी के अनुसार “दिल्ली में एक भी आदमी को नहीं रहने दिया गया। अन्धे व लंगड़े को घसीटकर दौलतावाबद ले जाया गया...दिल्ली उजड़ गई। आदमी तो क्या वहां बिल्ली अथवा कुत्ते भी नहीं दिखाई देते थे।" इब्नबतूता ने लिखा है कि - "सुल्तान के आदेश पर खोज करने पर उसके गुलामों को एक लंगड़ा और एक अन्धा व्यक्ति मिले। लंगड़े को मार दिया गया और अंधे को घसीटकर दौलताबाद ले जाया गया, जहां उसकी केवल एक टांग ही पहुंच सकी।" यद्यपि सुल्तान ने 800 मील लम्बे मार्ग पर लोगों को हर प्रकार की सुविधाएं दी, तथापि थकावट, व विभिन्न कष्टों के कारण हजारों व्यक्ति मृत्यु का ग्रास हो गए। जो लोग सौभाग्य से बचकर दिवगिरि पहुंचे, वे अपने आपको निर्वासित समझते थे।

देवगिरि से पुन दिल्ली लौटना
दिल्ली के लोगों को देवगिरि की जलवायु पसन्द न आई। सुल्तान को अपनी गलती का अहसास होने पर उसने सबको पुनः दिल्ली जाने की आज्ञा दे दी। लोगों को पुनः अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। राजकोष का धन व्यर्थ में बरवाद हुआ और सुल्तान की योजना पूरी तरह असफल रही।

आलोचना
मुहम्मद तुगलक की राजधानी परिवर्तन से साम्राज्य को जन तथा धन की अपार हुई और सुल्तान के सम्मान को भी भारी क्षति पहुंची। दिल्ली की इतनी दुर्दशा हुई कि वह अपने प्राचीन वैभव को पुनः प्राप्त न कर सकी। यद्यपि मुहम्मद तुगलक की योजना असफल रही, तथापि यह योजना निराधार नहीं थी। शासन प्रबन्ध को दृढ बनाने की दृष्टि से सुल्तान ने देवगिरि को अपनी दूसरी राजधानी बनाया और स्थानान्तरण के समय उसने प्रजा को यथासम्भव सुविधाएं भी प्रदान की। इतना ही नहीं योजना साम्राज्य के हित में न समझने पर उसने दिल्ली को पुनः राजधानी बनाना स्वीकार कर लिया। राजधानी परिवर्तन कोई नई बात नहीं थी इल्तुतमिश ने लाळार के स्थान पर दिल्ली को राजधानी बनाया था। अकबर ने कुछ समय के लिए फतेहपुर सीकरी को राजधानी होने का सम्मान दिया था। संक्षेप में, योजना तो अच्छी थी, परन्तु सुल्तान ने इसे क्रियान्वित करने में बहुत गलती की। बरनी के अनुसार, "बिना किसी परामर्श के और अपनी इस योजना के लाभ और हानियों पर पूरी तरह विचार किए बिना वह दिल्ली पर तबाही लाया।"

दोआब में कर वृद्धि (1330 ई.)
1330 ई. में मुहम्मद तुगलक ने दोआब में भूमि कर बढ़ा दिया। बरनी के अनुसार भूमि कर 10 या 20 गुना, फरिश्ता के अनुसार तीन या चार गुना तथा डॉ. मेंहदी हुसैन के अनुसार दो गुना बढ़ा दिया गया।

कारण
बरनी के अनुसार सुल्तान ने दोआब की जनता को दण्ड देने तथा राजकोष में वृद्धि करने के लिए यह कदम उठाया था। बदायूंनी के अनुसार, "यह कर दोआब की विद्रोही हिन्दू प्रजा को दण्ड देने तथा उस पर नियन्त्रण रखने के लिए लगाया गया था।" आधुनिक इतिहासकारों का मानना है कि सुल्तान ने अपनी सैन्य शक्ति तथा शासन प्रबन्ध सुदृढ करने हेतु भूमिकर बढ़ाया था।

कर वृद्धि तथा अकाल से किसानों की शोचनीय दशा
कर वृद्धि के वर्ष में दुभाग्य से दोआब में अकाल पड़ गया, किन्तु सरकारी कर्मचारियों ने कठोरता से कर वसूल किया, इससे किसानों की दशा दयनीय हो गई और वे खेती छोडकर वनों में भाग गए। डॉ. ईश्वरीप्रसाद लिखते हैं, "दुर्भाग्य से यह योजना उस समय कार्यान्वित की गई जब दोआब में भयंकर अकाल पड़ रहा था और उसके प्रभावों के कारण जनता के कष्ट और भी अधिक बढ़ गए थे, किन्तु इससे सुल्तान सर्वथा दोषमुक्त नहीं हो जाता क्योंकि उसके पदाधिकारी बढ़ी हुई दर से अत्यन्त कठोरतापूर्वक कर वूसल करते रहे ओर अकाल की उन्होंने कोई परवाह न की...उपचार किया गया, किन्तु बहुत देर से।" बरनी का मानना है, "सुल्तान ने किसानों का जंगली पशुओं के समान शिकार किया। इस अतिश्योक्तिपूर्ण कथन के बावजूद यह स्वीकार करना पड़ेगा कि किसानों को कठोर दण्ड दिया गया। अतः दोआब में अराजकता फैल गई। वास्तविक स्थिति का ज्ञान होने पर सुल्तान ने कर वापस ले लिए। उसने ऋण, निःशुल्क भोजन, चारा देकर तथा सिंचाई हेतु कुओं, तालाबों एवं नहरों को बनवाकर किसानों को राहत पहंचाने का पूरा प्रयास किया, किन्तु कोई विशेष लाभ नहीं हुआ, क्योंकि तब तक काफी देर हो चुकी थी। डॉ. श्रीवास्तव के अनुसार, "परन्तु उनसे कोई लाभ नहीं हुआ, क्योंकि ये सहायता कार्य काफी देर से किए गए थे तथा सहायता का प्रयोग किसानों ने क्षुधापूर्ति के लिए किया।” दोआब उजड़ गया था और पुन: पहले जैसी समृद्धि प्राप्त न कर सका तथा जनता इस घटना को नहीं भूल सकी।
डॉ. ईश्वरीप्रसाद इस कदम को सही मानते हैं। प्रो. गार्डनर ब्राउन भी लिखते हैं, दोआब साम्राज्य का सबसे अधिक धनी तथा समृद्धिशाली भाग था। अतएव इस भाग से अधिक कर वसूल किया जा सकता था।" सुल्तान की कर वृद्धि की योजना उचित थी, किन्तु इसे सही ढंग से कार्यान्वित न करने के कारण यह असफल रही तथा किसानों व साम्राज्य को नुकसान पहुंचा।

सांकेतिक मुद्रा चलाना
मुहम्मद तुगलक को नई-नई योजनाएं बनाने का शौक था अतः उसने मुद्रा नीति में भी परिवर्तन किये। मुहम्मद तुगलक ने अपने शासन के प्रारम्भिक वर्षों में सोने और चांदी के अनेक सुन्दर सिक्के चलाएं। उसने मुद्रा प्रणाली में सुधार किए तथा बहुमूल्य धातुओं के अपेक्षित मूल्य निश्चित किए। मुहम्मद तुगलक के सिक्कों में से अनेक अपनी बनावट और कलापूर्ण डिजाइनों के लिए प्रसिद्ध थे।
सन् 1330 ई. में मुहम्मद तुगलक ने अपने राज्य में पीतल तथा तांबे की सांकेतिक मुद्रा जारी करने का महत्त्वपूर्ण प्रयोग किया। इस योजना के मूल में निम्नांकित कारण थे -
  • बरनी आदि इतिहासकारों के अनुसार सुल्तान ने रजकोष की हानि को पूरा करने और व्यापार को पुनः व्यवस्थित तथा उन्नत करने के लिए पीतल और तांबे की सांकेतिक मुद्रा चलाई।
  • बहुत से आधुनिक इतिहासकारों का कहना है कि मुहम्मद तुगलक एक महत्त्वाकांक्षी शासक था जो नए-नए प्रदेश जीतना और शासन-व्यवस्था को कुशल बनाना चाहता था। इस इच्छा की पूर्ति के लिए उसने सांकेतिक मुद्रा चलाई 
  • कुछ इतिहासकारों के मतानुसार मुहम्मद तुगलक को नए-नए प्रयोग करने का बहुत शौक था और भारतीय मुद्रा के इतिहास में एक नया इकाई प्रारम्भ करने की लालसा से ही उसने तांबे के सिक्के चलाए।
  • एक यह भी मत है कि मुहम्मद तुगलक को चीनी व ईरानी शासकों से प्रेरणा मिली थी जिन्होंने तेरहवीं शताब्दी में अनेक देशों में सांकेतिक मुद्रा प्रचलित की थी। नवीनता के प्रेमी सुल्तान के मन में भी ऐसा ही प्रयोग करने की इच्छा उत्पन्न हो गई।
उपर्युक्त कारणों से मुहम्मद तुगलक ने एक ओदश जारी करके तांबे के सिक्कों को काननी मुद्रा घोषित कर दिया और मूल्य की दृष्टि से उन्हें सोने व चांदी के सिक्कों के बराबर रख दिया। लोगों से कहा गया कि वे इन सिक्कों का सोने व चांदी के सिक्कों की भांति प्रयोग करें। पर सुल्तान ने यह जबर्दस्त भूल कर दी कि सिक्कों के निर्माण पर राज्य का एकाधिकार स्थापित नहीं किया, अर्थात आज की भांति टकसाल पर राज्य का नियन्त्रण नहीं रखा। परिणाम यह हुआ कि थोड़े ही समय में घर-घर में नकली सिक्के बनना शुरू हो गया। उन दिनों राजकीय टकसाल में ढाले हुए सिक्कों की बनावट, डिजाइन आदि की दृष्टि से ऐसे नहीं होते थे कि लोग खुद उन्हें सरलतापूर्वक ढाल सकें। सुल्तान की इस भूल से राजकोष को भारी हानि पहुंची क्योंकि लोग अपना लगान और सूबेदार अपना वार्षिक कर नकली सिक्कों से चुकाने लगे। सोने और चांदी के सिक्के छिपाकर रखने लगे और तांबे के नए सिक्के ही प्रयोग में लाने की प्रवृत्ति फलती-फूलती गई। विदेशी व्यापारी भारतीय वस्तुओं को खरीदते समय तो सांकेतिक मुद्रा का प्रयोग करने लगे, लेकिन अपना माल बेचते समय उन्होंने तांबे के सिक्के लेने से इन्कार कर दिया। इन सब बातों का परिणाम यह हुआ कि देश का व्यापार चौपट हो गया ओर चारों ओर भंयकर अव्यवस्था फैल गई। केवल तीन-चार वर्षों में ही इस योजना से साम्राज्य को इतनी भारी हानि पहुंची कि सुल्तान घबरा गया। वह सांकेतिक मुद्रा को वापस लेने को बाध्य हो गया। उसने आदेश निकाला कि लोग राजकोष से पीतल व तांबे के सिक्कों के बदले सोने व चादी के सिक्के ले जाएं। इस आदेश का परिणाम यह हुआ कि लोगों ने राज्य को ठगा ओर राजकोष को भारी हानि पहुंचा कर अन्धाधुन्ध धन कमा लिया। कहा जाता है कि तांबे के इतने सिक्के इक्ट्ठे हो गए कि उनके बड़े-बड़े ढेर वर्षों तक शाही खजाने के सामने पड़े रहे।
मुहम्मद तुगलक की यह योजना पूरी तरह असफल हो गई, तथापि इसे सैद्धान्तिक रूप से निराधार कहना ठीक नहीं होगा। डॉ. मेहंदी हुसैन के अनुसार – "सुल्तान का प्रयोग सामूहिक रूप से अच्छा था और राजनीतिज्ञतापूर्ण था, परन्तु उसने इसे कार्य रूप देने में बहुत गलती की।" तांबे के सिक्के चलाने से पूर्व टकसाल पर राज्य का एकाधिकार स्थापित करना चाहिए था ओर प्रचलित तांबे के सिक्कों को राजकोष में जमा कर लेना चाहिए था। पर सुल्तान ने ऐसा नहीं किया।

कृषि विभाग का निर्माण
मुहम्मद तुगलक ने कृषि की उन्नति के लिए कृषि विभाग की स्थापना की। उसका नाम 'दीवाने कोही' रखा गया। राज्य की ओर से आर्थिक सहायता देकर कृषि के योग्य भूमि का विस्तार करना इस विभाग का उद्देश्य था। इस कार्य के लिए साठ वर्ग मील का एक भू-भाग चुनकर उसमें बारी-बारी से विभिनन फसलें बोयीं गयीं। इस योजना के अन्तर्गत सरकार ने दो वर्ष में लगभग सत्तर लाख रूपया व्यय किया। इस भू-भाग की देख-रेख के लिए बड़ी संख्या में रक्षक तथा पदाधिकारी नियुक्त किये गये। किन्तु अनेक कारणों से यह प्रयोग असफल रहा। पहला कारण असफलता का यह था कि प्रयोग के लिए चुना गया यह भू-क्षेत्र उपजाऊ नहीं था। दूसरा कारण यह था कि प्रयोग नितान्त नया था और इस सम्बन्ध में कोई पूर्व उदाहरण विद्यमान नहीं था। तीसरा तीन वर्ष का समय कम था और उसमें ठोस परिणाम की आशा करना व्यर्थ था। इतने अल्प समय में किसी भी ठोस परिणाम की आशा नहीं हो सकती थी। चौथा कारण यह था कि योजना के लिए निर्धारित किया गया धन सही अर्थ में प्रयोग नहीं किया गया क्योंकि उसमें से कुछ तो भ्रष्ट पदाधिकारी हड़प गये तथा खुद किसानों ने अपनी निजी आवश्यकताओं पर व्यय कर दिया। इस प्रकार मुहम्मद तुगलक का यह प्रयोग भी असफल रहा और उसे इस योजना को त्यागना पड़ी।

खुरासान-विजय की योजना
मुहम्मद तुगलक भी अलाउद्दीन की भांति भारत की सीमाओं के वाहर के देशों को जीतने की महत्त्वाकांक्षा रखता था। अपने शासनकाल के प्रारम्भ में ही उसने खुरासान, इराक तथा ट्रान्स आक्सियाना को जीतने की योजना बनायी। इस योजना का कारण यह था कि कुछ खुरासानी अमीर सुल्तान की अपव्ययतापूर्ण उदारता से आकृष्ट होकर उसके दरबार में आ गये थे, उन्होंने उसे खुरासान की विजय के लिए उरोजित किया। तीन लाख सत्तर हजार की एक विशाल सेना एकत्र की गयी और एक वर्ष का वेतन अग्रिम रूप में उसे राजकोष से दिया गया। किन्तु योजना कार्यान्वित न की जा सकी और सेना बरखास्त करनी पड़ी क्योंकि सुल्तान ने अनुभव किया कि राज्य के आर्थिक साधनों पर अत्यधिक बोझ डाले बिना इतनी बड़ी सेना का रखना असम्भव है। खुरासान तथा भारत के बीच स्थित बर्फ से ढके हुए विशाल पर्वतों को पार करना तथा मार्ग के प्रदेशों की शत्रुतापूर्ण जनता से युद्ध करना सरल कार्य न था। इसके अतिरिक्त अब खुरासान की राजनीतिक स्थिति भी पहले से सुधर गयी थी, इसलिए योजना त्यागनी पड़ी।

धार्मिक नीति
अपने पूर्व शासकों की अपेक्षा मुहम्मद तुगलक की धार्मिक नीति अधिक उदार थी। उसने शरीयत की उपेक्षा की और बुद्धि को राजनीतिक, आचरण का आधार बनाने का प्रयत्न किया। उसने निश्चय किया कि राजनीतिक तथा शासन-सम्बन्धी विषयों में लौकिक विचारों की ही प्रधानता होनी चाहिए। उसने उलेमाओं को राजनीति में अलग रखा, किन्तु वास्तव में सुल्तान शरा को चुनौती नहीं देना चाहता था। वह सभी महत्त्वपूर्ण विषयों में उलेमाओं से परामर्श किया करता था, यद्यपि वह उनकी सलाह को स्वीकार तभी करता था जब वे तर्कसंगत एवं समयानुकूल होती थी। न्याय-शासन में उलेमाओं के एकाधिकार को सुल्तान ने समाप्त कर दिया। यदि उलेमा के विरूद्ध बगावत, राजविद्रोह अथवा धार्मिक संस्थाओं के धन को गबन करने का अपराध सिद्ध हो जाता था तो वह उन्हें कठोर दण्ड देता था, अतः अलाउद्दीन खिलजी की भांति वह भी शासन कार्य में उलेमाओं के हस्तक्षेप का विरोधी था। सर्वोच्च न्यायाधीश वह स्वयं था। बलबन की भाति उसका भी विश्वास था कि "सुल्तान ईश्वर की छाया' है। उसके सिक्कों पर 'अल सुल्तान जिल्ली अल्लाह' (ईश्वर की छाया, सुल्तान) खुदा रहता था। उसके कुछ सिक्कों पर इस प्रकार के छन्द मिलते हैं, "प्रभुत्व का अधिकारी प्रत्येक व्यक्ति नहीं होता, वह चुने हुए व्यक्ति को प्रदान की जाती है', सुल्तान ईश्वर की छाया है", "ईश्वर सुल्तान का समर्थक है', आदि। अतः अपने सिक्कों के द्वारा उसने जनता को सुल्तान के महत्व को समझाने का प्रयास किया तथा हर प्रकार से खलीफा के नाम का उल्लेख करना बन्द करवा दिया। उसने हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं का भी ध्यान रखा। डॉ. ईश्वरी प्रसाद के अनुसार, "उसमें धार्मिक कट्टरता एवं असहिष्णुता नहीं थीं सुसंस्कृति के कारण उसका दृष्टिकोण विस्तृत हो गया था। तर्कशास्त्रियों एवं दार्शनिकों से बातचीत करते-करते उसमें वह सहिष्णुता उत्पन्न हो गयी थी, जिसके लिए अकबर की इतनी प्रशंसा की जाती है। अपनी न्यायप्रियता, उदारता तथा व्यक्तिगत योग्यता के बावजद सुल्तान दिन-प्रतिदिन जनता में अप्रिय होता गया। उसका विचार था कि शायद शरा की उपेक्षा के कारण जनता में असन्तोष है, अतः उसने अपने शासन के अन्तिम दिनों में खिलाफत के प्रति अपनी नीति बदल दी। उसने मिन के खलीफा से अपने पद के लिए मान्यता प्राप्त करने हेतु प्रार्थना की। उसने सिक्कों में से अपना नाम हटवाकर खलीफा का नाम खुदवाया। समस्त राजाज्ञाएं अब सुल्तान के नाम पर नहीं, बल्कि खलीफा के नाम से जारी की। 1340 ई. में उसने मिस्र के खलीफा के वंशज गयासुद्दीन को आमन्त्रित किया, जिसकी स्थिति एक भिखारी की सी थी। सुल्तान ने उसके प्रति अत्यन्त नम्रता एवं सम्मानपूर्ण व्यवहार किया तथा बहुमूल्य वस्तुएं भेद स्वरूप अर्पित की, किन्तु इतना करने पर भी मुहम्मद तुगलक अपनी खोयी हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त नहीं कर सका।

मुहम्मद तुगलक की असफलताओं के कारण

मुहम्मद तुगलक के आदर्श बहुत उच्च थे। उसने राज्य कार्य में अत्यधिक रूचि ली नई-नई योजनाएं तैयार कर प्रजा के हित ओर समृद्धि की आकांक्षा की। उसने एक विशाल साम्राज्य का स्वामी होने के अनुरूप महत्त्वाकांक्षी सैनिक योजनाएं भी बनाई, लेकिन दुर्भाग्यवश वह एक असफल सुल्तान रहा जिसकी मृत्यु पर प्रजा को सन्तोष मिला और सम्भवतः प्रजा से सुल्तान की आत्मा को भी। मुहम्मद की विफलता के मूल में मुख्यतः निम्नलिखित चारित्रिक, प्रशासनिक, धार्मिक और राजनीतिक कारण निहित थे -
  1. मुहम्मद तुगलक के चरित्र में विराधी तत्त्वों का इतना विचित्र सम्मिश्रण था कि जनता उसे कभी नहीं समझ सकी। स्वयं उसकी भी यह गलती रही कि उसने प्रजा को अपने वास्तविक विचारों से परिचित कराने का प्रयत्न नहीं किया। उसके विलक्षण चरित्र ने एक ओर तो मुस्लिम और धार्मिक वर्ग को नाराज कर दिया तथा दूसरी ओर बहुसंख्यक गैर-मुस्लिम प्रजा भी उससे सन्तुष्ट नहीं रह सकी।
  2. मुहम्मद तुगलक ने जो भी प्रशासकीय योजनाएं तैयार की, वे अधिकतर असफल सिद्ध हुई। राजधानी परिवर्तन, सांकेतिक मुद्रा का चलन, दोआब में करारोपण आदि कार्यों की असफलता के कारण साम्राज्य को जन-धन की अपार क्षति हुई। लगभग प्रत्येक शाही कदम जनता के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ, अतः लोग उसके विरोधी बन गए।
  3. मुहम्मद तुगलक के स्वतन्त्र, उदार और सहिष्णुतापूर्ण विचार तत्कालीन युग के अनुरूप नहीं थे। वास्तव में सुल्तान अपने समय से आगे था और अपने प्रगतिशील विचारों के कारण रूढिवादी मुस्लिम सरदारों तथा मुस्लिम जनता में अप्रिय हो गया। उलेमा-वर्ग, जिसका मुस्लिम प्रजा पर बहुत प्रभाव था, सुल्तान से असन्तुष्ट रहा।
  4. सुलतान ने अपनी दानशीलता, प्रीतिभोज -प्रियता और उपहार देने की आदत के कारण राजकोष को जबरदस्त आर्थिक हानि पहुंचाई। प्रजा की समृद्धि भी नहीं हो सकी, अत: साम्राज्य पतन और विघटन की और अग्रसर हुआ।
  5. मुहम्मद तुगलक यद्यपि उदार और कोमल हृदय था, लेकिन क्रोध आने पर वह राक्षस जैसा व्यवहार करता था। अपने निर्दयतापूर्ण और अमानुषिक दण्डों के कारण उसने चारों ओर आतंक पैदा कर दिया। लोग उसे हत्यारा समझने लगे ओर स्थिति यह बन गई कि साधारण से अपराध पर भी लोगों को सनकी सुल्तान द्वारा प्राण दण्ड या अन्य कठोर दण्ड का भय सताने लगा ओर सुल्तान के सामने उपस्थित होने के बजाय उन्होंने बगावत का झण्डा खड़ा करना उपयुक्त समझा। सुल्तान के विरूद्ध जो अनेक विद्रोह हुए उनमें कुछ तो केवल सुल्तान द्वारा दण्डित किए जाने के भय के कारण हुए।
  6. प्रजा में सुल्तान की मौलिक और उपयोगी सुधार योजनाओं को समझने की क्षमता नहीं थी। परिणाम यह हुआ कि सुल्तान ओर प्रजा के बीच पारस्परिक विश्वास की भावना पैदा नहीं हो सकी। सुलतान को प्रजा का सहायोग नहीं मिला और उसकी प्रत्येक योजना असफल हुई।
  7. मुहम्मद तुगलक को वैसे योग्य ओर विश्वसनीय सलाहकार तथा सेनापति नहीं मिल सके जैसे अलाउद्दीन खिलजी को उपलब्ध थे। उसका कोई ऐसा हितैषी नहीं था जो उसे ठीक उसी तरह उसकी योजनाओं के दोष बताता जिस तरह अलाउल्मुल्क अलाउद्दीन को बताया करता था। मुहम्मद तुगलक के पास ऐसे शासन तत्र का अभाव भी रहा जो प्रजा के विचारों से उसे परिचित कराता। इस तरह न तो प्रजा सुल्तान को समझ सकी ओर न सुल्तान प्रजा की नब्ज पहचान सका।
  8. प्रतिकूल परिस्थितियों ने भी सुलतान की आशाओं और योजनाओं पर पानी फेर दिया। प्राकृतिक प्रकोपों, दुर्भिकक्ष, महामारी आदि ने प्रजा को अनेक कष्ट पहुंचाए और कई सैन्कि अभियानों को असफल बना दिया। इनसे साम्राज्य के कोष को भारी क्षति हुई।
  9. मुहम्मद तुगलक ने दक्षिण नीति में विवेक का परिचय नहीं दिया। अलाउद्दीन खिलजी ने दक्षिण पर आक्रमण तो किया था, लेकिन वहां के सुदूर प्रदेशों को साम्राज्य में मिलाने की कोशिश नहीं की थी। मुहम्मद तुगलक ने दक्षिण को साम्नाज्य का अंग बनाने की गलत नीति अपनाई जो असफल हुई।
  10. मुहम्मद तुगलक का यह भी दुर्भाग्य था कि उसके विश्वसनीय सुबेदारों और पदाधिकारियों ने ही उसके विरूद्ध विद्रोह कर साम्राज्य की सैनिक शक्ति और स्थिरता को भारी हानि पहुंचाई। अवध का सूबेदार ऐनुल्मुल्क मुल्तानी सुल्तान का मित्र और चोटी का अनुभवी अमीर था, पर उसने इस आदेश मात्र पर विदोह कर दिया कि उसे दक्षिण की शासन-व्यवस्था सम्भलने को कहा गया और इस आदेश के पीछे सुल्तान का कोई बुरा मंतव्य नहीं था। जिन विदेशी अमीरों पर सुल्तान ने भरोसा किया उनमें से अधिकांश ने सुल्तान के साथ धोखा किया।
  11. सुल्तान की असफलता का एक बड़ा कारण यह भी था कि उसने अपनी कठिनाइयों तथा सल्तनत के प्रति विद्रोहों आदि पर कभी शान्ति के साथ विचार-विमर्श नहीं किया और कठिनाइयों का ठोस मूल्यांकन कर उनके निवारण के लिए उचित कदम नहीं उठाया। मुहम्मद तुगलक का रवैया यह रहा कि इधर समस्या उठी ओर उधर निदान किया। इस बात पर विचार नहीं किया कि भविष्य में वैसी समस्या फिर न उठने पाए। इस प्रकार सुलतान की नीतियों में स्थायित्व और सही मूल्यंकन की कमी रही। संक्षेप में, इन्हीं सब कारणों से सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक एक असफल शासक सिद्ध हुआ।

मुहम्मद तुगलक की मृत्यु

जब मुहम्मद तुगलक तांगी का पीछा कर रहा था, तो मार्ग में वह बीमार पड़ गया ओर 20 मार्च, 1351 ई. को उसकी मृत्यु हो गयी। बदायूंनी के अनुसार, "सुल्तान को उसकी प्रजा से तथा प्रजा को उसके सुल्तान से मुक्ति मिल गई।" 

मुहम्मद तुगलक का चरित्र

मुहम्मद तुगलक अपनी ही किस्म का सुल्तान था तथा अन्य सुल्तानों से अलग था। उसका चरित्र विचित्र था। जहां बरनी तथा इसामी एवं कुछ आधुनिक इतिहासकार उसे रक्त पिपासु तथा निर्दयी मानते हैं, वहीं एलफिन्स्टन ने उसे पागल ठहराया है। कुछ भारतीय इतिहासकार उसके चरित्र को उज्जवल बताते हैं। इमें मुहम्मद तुगलक के चरित्र को समझने के लिए उसके चरित्र के दोनों पहलुओं का अध्ययन करना पड़ेगा।

मुहम्मद तुगलक के चारित्रिक गुण

उच्च जीवन
मुहम्मद तुगलक का व्यल्तिगत जीवन निर्मल, पवित्र तथा उच्च था। वह विलासी नहीं था। वह न तो स्वयं मद्यपान करता था और न ही प्रजा को उसने इसकी आज्ञा दी। वह औरंगजेब की तरह कट्टर सुधारवादी भी नहीं था। वह नृत्य एवं संगीत का आनन्द लेता था।

परिवार प्रेमी
मुहम्मद तुगलक को अपने परिजनों तथा मित्रों से बहुत प्रेम था। उसके मन में अपने पिता गयासुद्दीन के प्रति श्रद्धा थी, अतः उसने उसका नाम अपने सिक्कों पर अंकित करवाया। वह अपने गुरुजनों तथा स्त्रियों का सम्मान करता था। अपनी माता, मित्रों तथा अपने चचेरे भाई फीरोज से उसे अथाह प्रेम था।

धर्मपरायण
मुहम्मद तुगलक प्रतिदिन पांच बार नमाज पढ़ता था। उसका ईश्वर, हजरत मुहम्मद तथा खलीफा में पूरा विश्वास था। वह एक धर्मसहिष्णु शासक था। उसने हिन्दुओं के प्रति उदारता का व्यवहार किया। उन्हें उच्च पदों पर भी नियुक्त किया एवं सती–प्रथा के निषेध का प्रयत्न किया।

दानी
मुहम्मद तुगलक एक दानी सुल्तान था वह दिल खोलकर दान देता था। उसका कट्टर आलोचक बरनी भी उसकी दानशीलता से बहुत प्रभावित हुआ। वह दान देते समय कोई भेदभाव नहीं करता था। इनबतूता ने लिखा है, "सुल्तान इतना दानी था कि एक भिखारी को सारा राजकोष दे देने पर भी अपनी दानशीलता पर गर्व नहीं करता था। उसके चरित्र की सबसे बड़ी विशेषता उसकी दानशीलता और दयालुता थी।" यदि हम इस क्षेत्र में उसकी तुलना हर्ष से करें, तो अनुचित न होगा।

विद्वान
महम्मद तुगलक बहत बड़ा विद्वान भी था। वह गणित, ज्योतिष, इतिहास, भूगोल, चिकित्साशास्त्र आदि का बहुत बड़ा विद्वान था। वह शरीयत (मुस्लिम धार्मिक कामों में) का भी ज्ञाता था। वह अरबी तथा फारसी भाषा का प्रकाण्ड पण्डित था। बरनी लिखता है, "वह इतना विद्वान् था कि आसफ और अरस्तु भी उसकी योग्यता को देखकर चकित हो जाते।" मुहम्मद तुगलक एक अच्छा कवि भी था। उसकी लेखन शैली आश्चर्यजनक थीं वह एक कुशल वक्ता भी था। उसे संगीत से भी बड़ा प्रेम था। वह विद्वानों का बहुत बड़ा संरक्षक भी था।मुहम्मद तुगलक विद्वत्ता के क्षेत्र में हर्ष से भी दो कदम आगे था। वह अपने समय का महान् विद्वान् था। डॉ. ईश्वरीप्रसाद के अनुसार, "भारत की मुस्लिम विजय के बाद जितने भी बादशाह दिल्ली के सिंहासन पर बैठे, मुहम्मद तुगलक निःसंदेह उनमें सबसे अधिक विद्वान् था।" वून्जले हेग ने लिखा है
"मुहम्मद तुगलक दिल्ली के सिंहासन पर बैठने वाले असाधारण शासकों में से एक था।

योग्य सेनापति
मुहम्मद तुगलक योग्य सेनापति था। उसने गुर्सस्प के विद्रोह को दबाया तथा कम्पीदेव तथा बलाल तृतीय को भी परास्त किया उसने मुल्तान, लाहौर, बंगाल, अवध आदि के विद्रोह का दमन कर दिया। वह राजनीतिक परिस्थितियों के कारण ही दक्षिण के विद्रोह का दमन न कर सका। वह अन्त तक विद्रोह को कुचलने का प्रयत्न करता रहा।

सफल विजेता
मुहम्मद तुगलक एक महत्त्वाकांक्षी शासक था। उसने कई राज्यों पर विजय प्राप्त की। कश्मीर और राजस्थान को छोड़कर सम्पूर्ण भारत पर उसका अधिकार था। उसके साम्राज्य में 23 प्रान्त थे। उसके शासनकाल के अन्तिम दिनों में उसके साम्राज्य का विघटन होने लगा। ड्यू. पी.सरन के अनुसार, "मुहम्मद तुगलक के समय में ही दिल्ली साम्राज्य का विघटन आरम्भ हो गया ओर समस्त दक्षिण, गुजरात, सिन्ध, बंगाल आदि स्वाधीन हो गये, परन्तु साम्राज्य के इस प्रकार असंगठित होने के लिए केवल मुहम्मद तुगलक ही उत्तरदायी नहीं था।

न्यायप्रिय
मुहम्मद तुगलक एक न्यायप्रिय सुल्तान था। वह न्याय करते समय हिन्दू-मुसलमान, शिया-सुन्नी, सूफी सैय्यद, अमीर-गरीब आदि में किसी प्रकार का कोई भेद-भाव नहीं करता था। वह स्वयं भी अपराधी होने पर काजी के समक्ष उपस्थित होता था। एक बार एक व्यक्ति द्वारा उसके विरूद्ध मुकदमा करने पर सुल्तान ने दण्ड के तौर पर 21 कोड़े खाये थे। उसने काजियों, मुफ्तियों एंव अमीरों के मुकदमों के निर्णय हेतु विशेष प्रकार की अदालतें स्थापित की।

कुशल प्रबन्धक
मुहम्मद तुगलक एक कुशल प्रबंधक भी था। उसने मुस्लिप उलेमा वर्ग को शासन में हस्तक्षेप नहीं करने दिया। उसने कृषि तथा न्याय के क्षेत्र में कुछ सुधार किए। उसने राज्य की आय तथा व्यय का हिसाब रखने का भी उचित प्रबंध किया। उसके द्वारा बनायी गयी योजनाएं सैद्धान्तिक दृष्टि से बड़ी बुद्धिमत्तापूर्ण थीं, किन्तु दुर्भाग्य से उसकी योजनाएं असफल रहीं।

मुहम्मद तुगलक के चारित्रक दोष

मुहम्मद तुगलक एक कशल प्रबंधक भी था। उसने मुस्लिम उलेमा वर्ग को शासन में हस्तक्षेप नहीं करने दिया। उसने कृषि तथा न्याय के क्षेत्र में कुछ सुधार किए। उसने राज्य की आय तथा व्यय का हिसाब रखने का भी उचित प्रबंध किया। उसके द्वारा बनायी गयी योजनाएं सैद्धान्तिक दृष्टि से बड़ी बुद्धिमत्तापूर्ण थीं, किन्तु दुर्भाग्य से उसकी योजनाएं असफल रहीं।

निर्दयी
मुहम्मद तुगलक एक रक्तपिपासु तथा निर्दयी शासक था। उसने सैकड़ों व्यक्तियों को विभिन्न अपराधों के लिए अमानवीय दण्ड दिए। उसने अपने विद्रोही भतीजे गुर्सस्प की जीवित खाल खिंचवा दी तथा उसका मांस उसके परिजनों का खिलाया। डॉ. ईश्वरीप्रसाद के अनुसार "सुल्तान यद्यपि एक राक्षस की भांति दुष्ट नहीं था, तथापि वह निर्दयी अवश्य था।' इनबतूता लिखता है, "सुल्तान रक्तपात में निष्ठुर था और कोई ऐसा समय बहुत कम होता था, जब उसके द्वार पर किसी ऐसे मनुष्य का शव पड़ा हुआ न मिले, जिसकी हत्या की गयी हो मैं देखा करता था, जब उसके महल के द्वार पर बहुत से लोगों की हत्या होती रहती थी और उनके शव वहां पड़े रहते थे।" बरनी ने लिखा है - "सुल्तान ने निरपराध मुसलमानों का रक्त इतनी क्रूरता से बहाया कि सर्वदा उसके महल के दरवाजे से बहते हुए खून का दरिया देखा जाता था।"

जल्दबाज तथा अहंकारी
मुहम्मद तुगलक जल्दबाज तथा अहंकारी भी था। उसने योजना के कार्यान्वयन में जल्दीबाजी से काम लिया, जिससे योजनाएं असफल हो गयी। वह जिद्दी भी था। वह जब कोई बात ठन लेता था, तो उसे पूरा करके ही छोडता था।

अदूरदर्शी तथा बुद्धिहीन
मुहम्मद तुगलक एक अदूरदर्शी तथा बुद्धिहीन शासक था। वह इतना अहंकारी था कि उसने अमीरों तथा सरदारों से कभी परामर्श नहीं लिया। डॉ. सरन के अनुसार "मुहम्मद तुगलक अत्यन्त उच्च विचारों तथा विलक्षण बुद्धि वाला था। वह अपने विचारों के अनुसार साम्राज्य को हर प्रकार से आदर्श बनाने की चेष्टा करता था, किन्तु उसमें न तो अवसर को और न ही मानव चरित्र को पहचानने की क्षमता थी। उसकी विद्वत्ता प्राय: उसके दुर्भाग्य का कारण बनी। उसके प्रतिकूल अलाउद्दीन खिलजी, जो कोरा लठ था, सौभाग्य से अपनी आकांक्षाओं में सदैव सफल हुआ, क्योंकि उसमें एक बड़ा गुण यह था कि वह अपने परामर्शदाताओं की सलाह से सब काम करता था।

उग्र स्वभाव वाला
सल्तान सहनशील तथा गम्भीर नहीं था। वह छोटी-सी बात पर क्रद होकर कठोर दण्ड दे देता था। वह प्रजा से अपने आदेशों के पालन की अपेक्षा करता था।, किन्तु उसने स्वयं ने प्रजा की भावना को कभी समझने का प्रयत्न नहीं किया, अतः वह असफल रहा।

क्या सुल्तान पागल था?

मुहम्मद तुगलक अपने समय के प्रकाण्ड विद्वानों में एक था। उसमें समझबूझ, योग्यता, बुद्धिमत्ता, दानशीलता और अनेक उच्च कोटि के गुण विद्यमान थे। गणित, ज्योतिष, इतिहास, भूगोल, चिकित्सा शास्त्र और शरियत (मुस्लिम धार्मिक कानून) का वह एक बड़ा भारी ज्ञाता था। फारसी भाषा पर भी उसका पूर्ण अधिकार था। बरनी ने लिखा है कि वह इतना विद्वान् था कि आसफ और अरस्तू भी उसकी योग्यता को देखकर चंकित हो जाते । दानी वह इतना था कि “कारू के खजाने को भी एक ही व्यक्ति को दे डालना चाहता था", भरा हुआ खजाना लुटा देता था। सुन्दर लिखावट लिखने में उसकी कोई बराबरी नहीं कर सकता था। महम्मद तुगलक का जीवन निर्मल था और उद्देश्य बहुत ऊँचे। ललित कलाओं और विशेषकर संगीत से उसे अधिक प्रेम था। उसका जीवन स्तर बड़ा ऊँचा था। वह सामान्य व्यसनों से मुक्त था। वह अत्यन्त उदार और नम्र स्वभाव का था तथा दान, भेंट, पुरस्कार आदि देने में मुक्तहस्त था।
मुहम्मद तुगलक व्यक्तिगत जीवन में एक आस्थावान मुसलमान था जो पांचों समय की नमाज पढ़ता था और धर्म के नियमों का पालन किया करता था किन्तु वह अन्धविश्वासी नहीं था ओर नियमों को अपनी बुद्धि की कसौटी पर कसता था। मुहम्मद तुगलक धर्मान्ध भी नहीं था। उसकी नीति हिन्दुओं के प्रति अन्य सुल्तानों जैसी नहीं थी। वह काफी मात्रा में सहिष्णु था।
मुहम्मद तुगलक महत्त्वाकांक्षी था। राज्य व्यवस्था सम्बन्धी तथा प्रशासनिक विशेषताएं उसमें स्वाभाविक रूप से पाई जाती थी। उसे साहस ऐसा मिला था कि सारे संसार को जीते बिना वह सन्तुष्ट नहीं हो सकता था। वह वीरता और पौरुष का स्वामी था। बाण और भाले चलाने, गेंद खेलने, घोड़ा दौड़ाने और शिकार खेलने में उसका सानी नहीं था। वह राजसी ठाट वाला बड़ा ही रूपवान ओर वीरतापूर्ण व्यक्ति था। स्वभाव में वह विलक्षण रूप से सरल, विनम्र और उदार था। वह अE यवसायी, हृष्ट-पुष्ट और परिश्रमी था। एक सुल्तान के रूप में उसकी न्यायप्रियता और उदारता की कहानियां विदेशों तक फैल गई थी। उसमें उत्साह और लगन की आजीवन कमी नहीं आई। -
महम्मद तुगलक में मौलिकता थी। नवाचारों का वह पुजारी था. अतः नई-नई योजनाएं बनाने और नए-नए कार्य करने के जोश में व्यावहारिकता की उपेक्षा कर देता था। मुहम्मद तुगलक अपने सुधारों और योजनाओं के द्वारा प्रजा की समृद्धि में वृद्धि करना, सल्तनत की नींव सदृढ़ करना और स्वयं को एक महान् शासक के रूप में प्रकट करना चाहता था। पर दुर्भाग्यवश व्यावहारिकता की कमी, प्राकृतिक प्रकोप, प्रशासन-यन्त्र की शिथिलता, अमीर वर्ग का असहयोग आदि विभिन्न कारणों से उसकी योजनाए असफल सिद्ध हुई। सुल्तान ने प्रशासकीय, आर्थिक और सैनिक सभी क्षेत्रों में 'अभिनव प्रयोग' व नवीन योजनाओं का प्रवर्तन किया, पर उसके भाग्य में यश नहीं था। यह मुहम्मद तुगलक का दुर्भाग्य ही था कि उस जैसे प्रतिभाशाली, मौलिक विचारों के धनी और ज्ञानी तथा अनुभवी शासक को महान्' के बदले 'पागल' की संज्ञा से विभूषित होना पड़ा।
मुहम्मद तुगलक के गुणों से तो यह लगता है कि वह गुणों में साक्षात् प्रतिभा था और उसमें कोई दोष नहीं थे। लेकिन उसका चरित्र तो विरोधाभासों का सम्मिश्रण था। उसके दोष ऐसे थे जो उसके गुणों को विफल कर देते थे।
जो सुल्तान दयालुता और उदारता में अपना सानी नहीं रखता था किन्तु उसी का दूसरा रूप घोर प्रजापीड़क अत्याचारी और हत्यारे का था। क्रोध और सनक में बहकर वह सम्भवतः 'मनुष्य के खून का प्यासा हो जाता था। उसके क्रोध से न मुसलमान बचता था न गैर-मुसलमान। कोई नहीं कह सकता था कि उसका क्रोध कब भड़क उठेगा या उसका दिमाग कब बिगड़ जाएगा। क्रोध में आकर वह एक दुष्ट और क्रूर व्यक्ति की भांति निर्दोष प्रजा को भी कठोर दण्ड दे देता था। इनबतूता के अनुसार, सुल्तान रक्तपात में निष्ठुर था और कोई समय ऐसा बहुत कम होता था जब उसके महल के द्वार पर किसी ऐसे मनुष्य का शव पड़ा हुआ न मिले जिसकी हत्य की गई थी। मैं देखा करता था जब उसके महल के द्वार पर बहुत से लोगों की हत्या होती रहती थी और उनके शव वहां पड़े रहते थे। नित्य सैंकड़ों लोग जंजीरों में जकड़ कर उसके सभकक्ष में लाए जाते थे। इनबतूता ने सुल्तान द्वारा अपने सौतेले भाई, सन्तों, अमीरों और जनसाधारण की हत्याओं का दिल दहलाने वाला वर्णन किया है और बताया है कि किस प्रकार सल्तान महम्मद सामुहिक हत्याएं किया करता था। एक बार उसने 350 मनुष्यों की एक साथ हत्या कराई और खून के पनाले बहा दिए।
मुहम्मद तुगलक विद्वान था पर उसे अपनी योग्यता का बड़ा घमण्ड था। वह हठी और जल्दबाज था। वह इतना सनकी था कि कभी-कभी तो उसकी सामान्य बुद्धि भी विक्षिप्त हो जाती थी। उसमें दूरदर्शिता का अभाव था। इब्नबतूता ने लिखा है – मुहम्मद तुगलक उपहार देने और खून बहाने का शौकीन था। उसके द्वार पर गरीब अमीर बन जाते थे ओर अमीर गरीब।
मुहम्मद तुगलक में अहंकार इतना था कि वह विश्व-विजय के स्वप्न देखता था पर उसमें व्यावहारिक ज्ञान की इतनी कमी थी कि वह किसी क्षेत्र में पूरा सफल नहीं हो सका। उच्चकोटि की कूटनीतिज्ञता भी उसमें नहीं थी। वह ऊँचे-ऊँचे सिद्धान्तों और नई-नई काल्पनिक योजनाओं में डूबा रहता था। मानव-प्रकृति को समझने की उसमें क्षमता नहीं थी। अपनी अस्थिर चित्तवृत्ति के कारण वह अपनी योजनाओं को सफल नहीं बना सका। लेनपूल ने लिखा है- 'मुहम्मद तुगलक के बहुत अच्छे विचार ओर इरादे होते हुए भी उसमें धैर्य, बुद्धि और सन्तुलन की कमी थी और इसलिए उसे असफलता मिली।" सुलतान मुहम्मद की योजनाएं सिद्धान्त के रूप में ठोस होती थी और उनमें कभी-कभी राजनीतिक सूझ भी होती थी, पर वे योजनाएं अव्यावहारिक सिद्ध हुई जिससे प्रजा और राज्य पर संकटों का पहाड़ टूट पड़ा। यह सब कुछ सुल्तान की चारित्रिक कमियों के कारण हुआ। अपनी नीति की असफलता ने उसे और भी क्रोधी तथा चिडचिड़ा बना दिया और वह दूसरों पर अकारण ही दुष्टता का अरोप करने लगा। वह अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठा और एक गड़बड़ी के बाद दूसरी गड़बड़ी करता गया। दुर्भाग्यवश सुल्तान कुछ दुष्ट चाहुकारों के प्रभाव में भी था जो सुल्तान की प्रशंसा करके उसे उकसाने और उसका अहित करने के अलावा उनका और कोई काम नहीं था। मुहम्मद तुगलक इस प्रकार गुणों और अवगुणों का सम्मिश्रण था। वास्तव में वह विचित्र विरोधी तत्त्वों का व्यक्ति था। कुछ इतिहासकारों ने उसे पागल कहा है, लेकिन इतना बड़ा आक्षेप एकाकी है। तुगलक की बदनसीबी यही थी कि वह एक "विचित्र बादशाह था कि जिसकी अस्थिर प्रवृत्ति के कारण उसके गुण अवगुणों में बदल जाते थे। इसीलिए वह अपने समकालीन व्यक्तियों के लिए अनबूझ पहेली रहा और आधुनिक इतिहासकारों के लिए भी उसका चरित्र-चित्रण कहना दुःसाध्य है।

सारांश

मुहम्मद तुगलक का चरित्र परस्पर विरोधी तत्त्वों का सम्मिश्रण था। ख्वाजा मेंहदी हुसैन तथा डॉ. ईश्वरीप्रसाद भी यही मानते हैं। जहां उसमें कई चारित्रिक गुण थे, वहीं उसके चारित्रिक दोषों की भी लम्बी कतार थी। बरनी ने लिखा है, "सुल्तान छोटे दर्जे के लोगों से घृणा करता था, परन्तु इस पर भी उसने उन्हें उच्च पद प्रदान किए। वह नन होते हुए घमण्डी भी था। कभी-कभी तो वह एक सामान्य व्यक्ति की भांति दण्ड भुगतने के लिए स्वयं काजी के सामने उपस्थित हो जाता था ओर कभी-कभी वह छोटे अपराध करने वालों को भी हृदय-वर्धक दण्ड देता था। वह बड़ा विद्वान् तथा प्रतिभाशाली था, किन्तु उसमें सामन्य बुद्धि का अभाव था। उसने धर्मपरायण होते हुए भी मुस्लिम धार्मिक वर्ग की अपेक्षा की। उसने राज्य में कई उलेमा को मृत्युदण्ड दिया। डॉ. श्रीवास्तव लिखते हैं “साधारणतया वह बहुत दयालु था, किन्तु कभी-कभी जब उसकी क्रो ग्नि प्रज्जवलित होने लगती थी, तब वह एक अत्यधिक क्रूर तथा अत्याचारी व्यक्ति की भांति व्यवहार करता था। इसलिए हम इस परिणाम पर पहुंचे बिना नहीं रह सकते कि मुहम्मद बिन तुगलक के चरित्र में विरोधी गुणों का मेल था।" डॉ. आर. सी. मजमदार ने लिखा है - "वह न तो रक्तपिपासु दैत्य था और न पागल जैसा कि कुछ व्यक्तियों ने कहा है. लेकिन उसमें विरोधी तत्त्वों का मिश्रण था, इसमें सन्देह नहीं है, क्योंकि असहनीय क्रूरता, तुच्छ सनक और परिस्थितियों को समझने का अपना अत्यधिक विश्वास आदि उसके चरित्र के ऐसे अवगुण थे, जो उसके हृदय और मस्तिष्क के अनेक गुणों के पूर्णतया विरोध में प्रतीत होते हैं। मुहम्मद तुगलक का चरित्र दो विरोधी तत्वों का सम्मिश्रण किन्तु उसके विचार मौलिक थे।
भारत के मध्ययुग में राजमुकुट धारण करने वालों में मुहम्मद तुगलक निःसन्देह विचित्र और विशिष्ट व्यक्ति था। उसमें विरोधी तत्त्वों का विचित्र सम्मिश्रण था, परन्तु उसके अनेक विचार मौलिक थे। बरनी के अनुसार, "ईश्वर ने सुल्तान मुहम्मद को एक अद्भुत जीव बनाया था। उसके विरोधाभासों और योग्यताओं को समझना आलिमों और बुद्धिमानों के लिए सम्भव नहीं है। उसे देख कर बुद्धि चकरा जाती है और उसके गुणों का अवलोकन कर चकित तथा स्तब्ध रह जाना पडता है।"

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