गुटनिरपेक्ष आंदोलन क्या है? | Non-Aligned Movement In Hindi | gut nirpeksh aandolan

प्रस्तावना

20 वीं शताब्दी ने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के क्षेत्र में अनेक परिवर्तन किये द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का नया रूप विकसित हुआ। द्वितीय युद्धोत्तर बाद विश्व में इतने अधिक तथा इतनी तीव्र गति से परिवर्तन हुए कि इसका राजनीतिक नक्शा ही बदल गया तथा पुरानी व्यवस्था का स्थान नयी व्यवस्था ने ले लिया। शक्ति सन्तुलन के स्थान पर विश्व दो ध्रुवों में बंट गया साम्यवादी तथा पूंजीवाद। इन दोनों गुटों के मध्य शीत युद्ध प्रारम्भ हो गया जिसके कारण सम्पूर्ण विश्व की शान्ति भंग हो गयी, किन्तु इस शीत युद्ध का एक सकारात्मक परिणाम गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के रूप में सामने आया।
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गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की उत्पत्ति का कारण कोई संयोगमात्र नहीं था, अपितु यह सुविचारित अवधारणा थीं। इसका उद्देश्य नवोदित राष्ट्रों की स्वाधीनता की रक्षा करना एवं युद्ध की सम्भावनाओं को रोकना था। इसने एक देश के दूसरे देश के साथ संबंधों की प्रकृति को परिवर्तित किया और नवीन स्वतन्त्र विकसित देशों को अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करने के लिए सक्षम बनाया। आज एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका के अधिकांश देश गुटनिरपेक्ष होने का दावा करने लगे हैं। 1961 के बेलग्रेड शिखर सम्मेलन में भाग लेने वाले गुटनिरपेक्ष देशों की संख्या 25 थी, वहां वर्तमान में निर्गुट आन्दोलन के सदस्यों की संख्या 118 हो गई है।

गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का उदय एवं विकास

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक क्षितिज पर गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का उदय द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् संयुक्त राज्य अमेरिका एवं पूर्व सोवियत संघ के पारस्परिक संघर्ष, संदेह और अविश्वास के वातावरण में शीत युद्ध के आगमन शक्ति शिविरों तथा सैनिक गुटों के निर्माण आदि के कारण हुआ। वस्तुत: शीत-युद्ध के राजनीतिक ध्रुवीकरण ने गुटनिरपेक्षता की समझ तैयार करने में एक उत्प्रेरक का कार्य किया। लम्बे औपनिवेशिक आधिपत्य से स्वतन्त्र होने के लम्बे संघर्ष के बाद किसी दूसरे आधिपत्य को स्वीकार कर लेना नवोदित राष्ट्रों के लिए एक असुविधाजनक स्थिति थी। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में वे एक ऐसी भूमिका की खोज में थे जो उनके आत्मसम्मान और क्षमता के अनुरूप हो। अत: आत्मसम्मान की अन्तर्राष्ट्रीय भूमिका के लिए सामूहिक पहल न सिर्फ वांछित थी, अपितु आवश्यक थी। स्वतन्त्रता और सामूहिकता की इस मानसिकता ने गुटनिरपेक्षता की वैचारिक और राजनीतिक नींव रखी।
भारत से पण्डित जवाहरलाल नेहरू, मिस्र से कर्नल नासिर तथा यूगोस्लोवाकिया से जोसिप ब्रॉज टीटो ने इस आन्दोलन को संगठित करने की पहल की। इन प्रथम निर्माताओं में नेहरू को विशेष रूप से याद किया जाता है क्योंकि वे इसके प्रमुख एवं प्रथम प्रतिपादक थे। उन्होंने सुसंगत तर्कसंगत एवं प्रभावपूर्व ढंग से इस आन्दोलन के निर्माण की दिशा में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

गुटनिरपेक्षता की अवधारणा : अर्थ एवं परिभाषा

गुट निरपेक्षता का अभिप्राय है कि शीत-युद्ध के दौर में दो महाशक्तियों के विद्यमान दो मुख्य विरोधी गुटों में से किसी एक में भी सम्मिलित होने से इंकार करना। गुट निरपेक्षता को इस प्रकार भी परिभाषित किया जा सकता है कि किसी भी देश के साथ सैनिक गठबंधन में शामिल न होना फिर चाहे यह संयुक्त राज्य अमेरिका के नेतृत्व वाला पश्चिमी देशों का गुट हो या पूर्व सोवियत संघ के नेतृत्व में साम्यवादी गुट । गुट-निरपेक्षता का सरल अर्थ है, "विभिन्न शक्ति-गुटों से तटस्थ या अलग रहते हुए स्वतन्त्र विदेश नीति और राष्ट्रीय हित के अनुसार न्याय का समर्थन करना।" इसका अर्थ अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में तटस्थता' नहीं है। गुट-निरपेक्ष देश विश्व की घटनाओं के प्रति उदासीन नहीं रहते बल्कि एक ऐसी स्पष्ट और रचनात्मक नीति का अनुसरण करते हैं जो विश्व शान्ति की स्थापना में सहायक हो। भारत सरकार की विदेश नीति के अनुसार "गुट निरपेक्षता का अर्थ है" अपनी स्वतन्त्र रीति-नीति । गुटों से अलग रहने से हर प्रश्न के औचित्य-अनौचित्य को देखा जा सकता है। एक गुट के साथ जुड़कर उचित-अनुचित का विचार किए बिना आँख मूंदकर पीछे-पीछे चलना गुट निरपेक्षता नहीं है।''तटस्थता' और 'गुट निरपेक्षता' पर्यायवाची शब्द नहीं हैं। इनमें केवल यह समानता है कि दोनों के अन्तर्गत शीत-युद्ध के समय संघर्ष से पृथक रहा जाता है, लेकिन आधारभूत अन्तर यह है कि जहाँ वास्तविक युद्ध छिड़ने पर तटस्थ राष्ट्र युद्ध से पृथक् रहता है, वहाँ गुट-निरपेक्ष देश युद्ध में किसी पक्ष की ओर से उलझ सकता है। न्याय का समर्थन करते हुए इसकी विदेश नीति सकारात्मक रूप से संचालित होती है।

गुटनिरपेक्षता के अग्रदूत पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, "मैं तटस्थ'"शब्द का प्रयोग नहीं करता क्योंकि उसका प्रयोग सामान्य रूप से युद्धकाल में होता है । शान्तिकाल में भी इससे एक प्रकार की युद्ध की मनोवृत्ति प्रकट होती है।" जार्ज लिस्का ने लिखा है कि, "किसी विवाद के सन्दर्भ में यह जानते हुए कि कौन सही है और कौन गलत है, किसी का पक्ष न लेना तटस्थता है, किन्तु असंलग्नता या गुट-निरपेक्षता का अर्थ है सही और गलत में भेद करना तथा सदैव सही नीति का समर्थन करना।'

शीत-युद्ध से पृथक्करण ही गुटनिरपेक्षता का सार तत्त्व है। यह नीति चुप्पी लगाकर बैठ जाने की या अन्तर्राष्ट्रीय मामलों से सन्यास लेने की नहीं है, बल्कि इसके अन्तर्गत स्वतन्त्र राष्ट्रों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किए जाते है और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में न्यायपूर्ण ढंग से सक्रिय भाग लिया जा सकता है।
1961 ई. में गुटनिरपेक्षता के तीन कर्णधारों- पण्डित नेहरू, नासिर और टीटो ने इसके निम्नलिखित पांच आधार स्वीकार किए थे-
  1. सदस्य देश स्वतन्त्र नीति पर चलता हो,
  2. सदस्य देश उपनिवेशवाद का विरोध करता हो,
  3. सदस्य देश किसी सैनिक गुट का सदस्य न हो,
  4. सदस्य देश ने किसी बड़ी ताकत के साथ द्विपक्षीय समझौता न किया हो, एवं
  5. सदस्य देश ने किसी बड़ी ताकत को अपने क्षेत्र में सैनिक अड्डा बनाने की स्वीकृति न दी हो।
संक्षेप में, गुटनिरपेक्षता से अभिप्राय है, अपनी स्वतन्त्र रीति-नीति। विदेश नीति में यह एक स्वतंत्र निश्चित घोषणा है।

गुट-निरपेक्षता को प्रोत्साहन देने वाले कारक

गुट-निरपेक्षता की नीति सैद्धान्तिक रूप में बहुत पहले से विद्यमान थी, लेकिन इसे व्यावहारिक रूप से साकार करने में भारत की उल्लेखनीय भूमिका रही। इसके पश्चात् कुछ और राष्ट्रों ने गुट निरपेक्षता की नीति को अपनाया, जैसे- इण्डोनेशिया, यूगोस्लाविया तथा संयुक्त अरब गणराज्य (मिस्र)। लेकिन छठे और सातवें दशक में एशिया और अफ्रीका के अनेक देश स्वतन्त्र हुए जिनमें से अधिकांश ने गुट-निरपेक्षता को राष्ट्रीय विदेश नीति के रूप में स्वीकार किया। वर्तमान में विश्व के अधिकांश देश इस नीति को स्वीकार कर चुके है।
गुटनिरपेक्षता के विकास तथा लोकप्रियता के पीछे निम्नलिखित कारणों का योगदान रहा है।

शीत-युद्ध
द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् अमरीका और सोवियत संघ जैसी महाशक्तियों में गम्भीर मतभेद उत्पन्न हुए। दोनों पक्षों में तीव्र तनाव, वैमनस्य और मतभेदों की इतनी विषम स्थिति उत्पन्न हो गयी कि वे परस्पर एक-दूसरे के विरूद्ध कटुवाग्बाणों और आरोपों की वर्षा करने लगे। यह कहना उचित होगा कि बारूद के गोले व गोलियों से लड़े जाने वाले सशस्त्र सैनिक संघर्ष के न होते हुए भी कागज के गोलों और अखबारों से लड़ा जाने वाला परस्पर विरोधी राजनीतिक प्रचार का तुमुल युद्ध छिड़ गया। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में इसी युद्ध को शीत-युद्ध की संज्ञा दी जाती है। शीत युद्ध के इस वातावरण में नवस्वतन्त्र राष्ट्रों ने किसी भी पक्ष का समर्थन न करके पृथक् रहने का निर्णय किया। शीत युद्ध से पृथक् रहने की नीति ही आगे चलकर गुटनिरपेक्षता के नाम से जानी जाने लगी।

राष्ट्रवाद की भावना
राष्ट्रीयता की भावना एशियाई, तथा अफ्रीकी देशों के स्वतन्त्रता आन्दोलन की मुख्य प्रेरणा थी। इन देशों के नागरिकों ने लम्बे संघर्ष के बाद स्वतन्त्रता प्राप्त की थी, अत: वे किसी भी स्थिति में अपनी राष्ट्रीय स्वतन्त्रता को खोना नहीं चाहते थे। गुटनिरपेक्षता की नीति के माध्यम से उनका विश्वास था कि वे बड़ी ताकतों के हाथों में खिलौना बनने से स्वयं को बचा सकेंगे।

उपनिवेशवाद का विरोध
नवोदित अफ्रो-एशियाई राष्ट्रों में यह भय विद्यमान रहा है कि बड़े राष्ट्रों के साथ सैनिक सन्धियों में बँध जाने पर वे फिर उनके दबाव में आ जाएंगे। साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद का कटु अनुभव होने के कारण राष्ट्रों में यह धारणा बन गई कि गुटों से निरपेक्ष रहकर ही वे अपनी राष्ट्रीय प्रतिष्ठा और गरिमा को अक्षुण्ण रख सकते हैं। इसके अतिरिक्त साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद के विरोध की मनोवृत्ति ने भी उन्हें ऐसा करने को प्रेरित किया।

आर्थिक कारक
गुटनिरपेक्षता का एक अन्य आधार आर्थिक है। प्रायः सभी गुट निरपेक्ष देश आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए थे और उनके रहन-सहन का स्तर नीचा था। अतः उनकी विदेश नीति का एक प्रमुख ध्येय त्वरित आर्थिक विकास को बढ़ावा देना था, परन्तु इसके लिए न तो इनके पास पूंजी थी, न तकनीकी कौशल था। अत: उन्होंने अपनी विदेश नीति को ऐसा मोड़ दिया कि उन्हें जो चीजें कोई शर्त रखे बगैर' जहाँ से भी मिल सकती हों मिल जाएं क्योंकि उन्हें इनकी नितान्त आवश्यकता थी। यहाँ भी इन्हें किसी भी गुट में सम्मिलित न होने का मार्ग सबसे अच्छा लगा। उन्हें साफ लगा कि अगर वे किसी एक गुट में शामिल हो गए तो उन्हें एक से अधिक स्रोतों से सहायता मांगने की अपेक्षित स्वतन्त्रता से वंचित होना पड़ेगा। सारांश में दोनों ही गुटों से सहायता प्राप्त करने की ललक ने भी उन्हें गुट-निरपेक्षता को अपनाया।

विश्व शान्ति की इच्छा
ये सभी देश यह अनुभव कर चुके थे कि जब तक विश्व में शान्ति स्थापित नहीं होती, तब तक उनका स्वयं का विकास नहीं हो सकेगा, अत: विश्व को तृतीय विश्व युद्ध की विभीषिका से बचाने तथा विश्व-शान्ति को अक्षुण्ण रखने की अदम्य इच्छा ने अनेक राष्ट्रों को गुट-निरपेक्षता की नीति को अपनाने के लिए प्रेरित किया।

संयुक्त राष्ट्र संघ का अस्तित्व
इन देशों को गुट निरपेक्षता अपनाने हेतु प्रोत्साहन संयुक्त राष्ट्र संघ के अस्तित्व से भी मिला। यह ऐसी संस्था थी जिसके माध्यम से वे अन्य महा-शक्तियों के समकक्ष स्तर से अपनी स्वतन्त्र विचारधारा विश्व के सम्मुख प्रस्तुत कर सकते थे।

नेतृत्व
द्वितीय विश्व युद्धोत्तर काल में गुट-निरपेक्ष देशों को विश्व स्तर के नेताओं का नेतृत्व प्राप्त करने का सौभाग्य मिला। पण्डित जवाहरलाल नेहरू, जोसिफ ब्रॉज टीटो, अब्दुल गामेल नासिर और डॉ. सुकर्ण ये सभी विश्व स्तर के नेता थे और इनके नेतृत्व में गुट निरपेक्ष आन्दोलन तीव्र गति से आगे बढ़ा। इनके नेतृत्व ने भी तृतीय विश्व युद्ध के राष्ट्रों को गुट निरपेक्षता की नीति अपनाने के लिए प्रेरित किया।

स्वतन्त्र विदेश नीति के संचालन की अभिलाषा
नवोदित एशिया और अफ्रीका के राष्ट्र गुटनिरपेक्षता की नीति के माध्यम से अपने को स्वतन्त्र शक्ति के रूप में स्थापित करना चाहते थे। उनका विश्वास था कि गुटनिरपेक्षता की विदेश नीति के फलस्वरूप आज ये किसी बड़ी शक्ति के उपग्रह मात्र की स्थिति में नहीं रहेंगे और न ही दूसरों के संकेत पर नाचने के लिए बाध्य होंगे। उपर्युक्त कारणों के कारण गुट निरपेक्षता की अवधारणा का अभ्युदय हुआ।

गुट-निरपेक्ष आन्दोलन की संस्थायें

गुट-निरपेक्षता एक आन्दोलन है। यह एक मनोदशा है। अत: इसके लिए किन्हीं स्थायी संस्थाओं का विकास नहीं किया गया। फिर भी गुटनिरपेक्ष देशों में समन्वय स्थापित करने के लिए, संयुक्त राष्ट्र संघ तथा अन्य अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर संयुक्त कार्यवाही करने के लिए तथा आन्दोलन की प्रगति और अन्तर्राष्ट्रीय विषयों एवं समस्याओं पर विचार-विमर्श करने के लिए तीन संस्थाओं का विकास हुआ है-
  1. समन्वय ब्यूरो,
  2. विदेश मन्त्रियों का सम्मेलन, तथा
  3. शिखर सम्मेलन।

समन्वय ब्यूरो
गुटनिरपेक्ष देशों में निरन्तर विचार-विमर्श करने और कार्य में समन्वय स्थापित करने के लिए यह एक उपयोगी एवं सक्रिय केन्द्र है। इसे गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की कार्यकारी भुजा कहा जाता है। इसका स्वरूप एक तैयारी समिति' की भांति है जो गुटनिरपेक्ष देशों के शिखर सम्मेलन के लिए मसविदे तैयार करता है, संयुक्त राष्ट्र संघ और अन्य अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर संयुक्त कार्यवाही एवं अगुआई करता है। समन्वय ब्यूरों में पहले 17 सदस्यों को सर्वसम्मति से नामजद किया जाता था। मार्च 1983 के नई दिल्ली शिखर सम्मेलन ने इसके सदस्यों की संख्या बढ़ाकर 66 कर दी है। इसमें 31 अफ्रीका के, 23 एशिया के, 10 लैटिन अमेरिका के और 2 यूरोप के सदस्य हैं। इसके सदस्यों का निर्वाचन होता है।

मन्त्री स्तर (विदेश मन्त्रियों) का सम्मेलन
इस सम्मेलन में गुटनिरपेक्ष देशों के विदेशमन्त्री भाग लेते हैं। सम्मेलन जहाँ गुटनिरपेक्ष देशों के शिखर सम्मेलन के लिए कार्यसूची तैयार करता है वहां गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की सदस्यता प्राप्त करने के इच्छुक देशों के आवदेन-पत्रों पर विचार-विमर्श एवं निर्णय भी लेता है । सम्मेलन अन्तर्राष्ट्रीय विषयों पर भी विचार-विमर्श करता है। तथा गुटनिरपेक्षता के सिद्धान्तों को व्यावहारिक रूप देने का भी प्रयास करता है। इस प्रकार के सम्मेलन समय-समय पर होते रहते हैं। जैसे- कार्टागेना में 18-20 मई, 1998 तक आयोजित मन्त्री स्तरीय गुट निरपेक्ष आन्दोलन के समन्वय ब्यूरो को बैठक डरबन में होने वाले 12 वें शिखर सम्मेलन की तैयारी में की गई थी। विदेश मन्त्रियों के सम्मेलन की असाधारण बैडक भी बुलाई जा सकती है। उदाहरण के लिए, नामीबिया के प्रश्न पर इस प्रकार की एक असाधारण बैठक नई दिल्ली में 19 से 21 अप्रैल, 1985 तक बुलायी गयी थी। विदेश मन्त्रियों का सम्मेलन, गुट निरपेक्ष आन्दोलन में महत्ती भूमिका का निर्वाह करता है।

शिखर सम्मेलन
शिखर सम्मेलन गुट निरपेक्ष राष्ट्रों की सबसे बड़ी सभा है। यह सम्मेलन प्रति तीन वर्ष बाद होता है जिसमें गुटनिरपेक्ष देशों के प्रधान या शासनाध्यक्ष भाग लेते है । शिखर सम्मेलन में प्राय: चार प्रकार के सदस्य भाग लेते हैं- पूर्ण सदस्य, पर्यवेक्षक सदस्य, पर्यवेक्षक गैर राज्य सदस्य और अतिथि। शिखर सम्मेलन में निर्णय सर्वसम्मति से होते हैं। इसमें मतदान नहीं होता है। पूर्ण सदस्य एवं पर्यवेक्षक सदस्य सम्मेलन की कार्यवाही में भाग लेते है ! अतिथि सदस्यों को सम्मेलन की गुप्त बैठकों में उपस्थित होने की आज्ञा नहीं होती है वे केवल औपचारिक समारोह में ही अर्थात् उद्घाटन और समापन समारोहों में ही भाग ले सकते हैं।

शिखर सम्मेलन गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के विकास का सर्वेक्षण करता है, अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं पर विचार-विमर्श करता है तथा घोषणाओं द्वारा राजनीतिक और आर्थिक कार्यक्रम की योजनायें निर्धारित करता है। अब तक कुल 13 शिखर सम्मेलन हुए है। पहला शिखर सम्मेलन सन् 1961 में यूगोस्लाविया को राजधानी बेलग्रेड में तथा 13 वां शिखर सम्मेलन 2001 में बांग्लादेश को राजधानी ढाका में सम्पन्न हुआ।
इन शिखर सम्मेलनों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित प्रकार से है-

प्रथम शिखर सम्मेलन : बेलग्रेड (1961)
1 से 6 सितम्बर, 1961 में ब्रेलग्रेड में गुटनिरपेक्ष देशों का प्रथम शिखर सम्मेलन राष्ट्रपति टीटो के सुझाव से आमन्त्रित किया गया। इसमें 25 देशों के शासनाध्यक्षों ने भाग लिया था।
इस सम्मेलन में मुख्य रूप से अग्र विषयों पर विचार-विमर्श किया गया-
  1. इस सम्मेलन द्वारा ऐसी अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं की ओर विश्व का ध्यान आकर्षित किया गया जिनसे विश्व युद्ध आरम्भ हो सकता था। ये समस्याएं थीं- बर्लिन की समस्या, संयुक्त राष्ट्र में साम्यवादी चीन की सदस्यता का प्रश्न तथा कांगो की समस्या।
  2. इस सम्मेलन द्वारा यह मांग की गयी कि प्रत्येक देश को अपनी इच्छानुसार अपने शासन का स्वरूप निर्धारण और संचार करने की पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए।
  3. सम्मेलन द्वारा हर प्रकार के साम्राज्यवाद को विश्व शान्ति के लिए हानिकारक घोषित किया गया।
  4. सम्मेलन द्वारा यह घोषणा की गयी कि बिना किसी भेदभाव के सभी देशों की प्रभुसत्ता का सम्मान किया जाना चाहिए और एक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र के आन्तरिक मामलों के सम्बन्ध में हस्तक्षेप की नीति का समर्थन करना चाहिए।
  5. दक्षिण अफ्रीका की रंगभेद नीति की भर्त्सना की गयी।
बेलग्रेड सम्मेलन के निर्णयों का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर बड़ा सकारात्मक प्रभाव पड़ा। सम्मेलन में शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति में पूर्ण विश्वास व्यक्त किया। इस सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने किया तथा उनकी राय को भावी महत्त्व दिया गया।

द्वितीय शिखर सम्मेलन : काहिरा (1964)
गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों का द्वितीय शिखर सम्मेलन 5 अक्टूबर से 11 अक्टूबर, 1964 ई. के मध्य काहिरा में आयोजित किया गया, जिसमें 47 देशों के प्रतिनिधि एवं 10 पर्यवेक्षक देशों ने भाग लिया। इस सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य गुटनिरपेक्षता के क्षेत्र को विस्तृत करना और इसके माध्यम से अन्तर्राष्ट्रीय तनाव को कम करना था।
सम्मेलन विश्व की विभिन्न समस्याओं के सम्बन्ध में निम्नलिखित विचार प्रकट किए गए-
  1. राष्ट्रों के अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को हल करने में शान्तिपूर्ण वार्ता का मार्ग ही अपनाना चाहिए।
  2. सम्मेलन के द्वारा पूर्ण निःशस्त्रीकरण की आवश्यकता पर बल दिया गया और मांग की गयी कि परमाणु परीक्षणों पर रोक लगायी जाए।
  3. दक्षिण रोडेशिया की अल्पमत गोरी सरकार को मान्यता नहीं दी जानी चाहिए।
  4. सम्मेलन ने दक्षिणी अफ्रीका सरकार की रंगभेद की नीति की घोर निन्दा की और विश्व के सभी राष्ट्रों का इस बात के लिए आह्वान किया कि वे दक्षिण अफ्रीका से कूटनीतिक सम्बन्ध विच्छेद कर लें।
  5. सभी प्रकार के उपनिवेशवाद का अन्त किया जाए। कम्बोडिया और वियतनाम में विदेशी हस्तक्षेप का अन्त किया जाना चाहिये।
  6. चीन को संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बनाया जाए।

तृतीय शिखर सम्मेलन : लुसाका (1970)
गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों का तीसरा शिखर सम्मेलन अफ्रीकी देश जाम्बिया की राजधानी लुसाका में 6 से10 सितम्बर, 1970 में हुआ। इस सम्मेलन में 54 राष्ट्रों ने भाग लिया। इसके अतिरिक्त 9 राष्ट्रों ने पर्यवेक्षक के रूप में भाग लिया। सम्मेलन की प्रमुख घोषणाएँ निम्नलिखित थीं-
  1. अमीर-गरीब देशों में खाई को पाटा जाय।
  2. सुरक्षात्मक आवश्यकताओं का विस्तार किया जाय।
  3. पुराने उपनिवेशवाद के साथ-साथ नव-उपनिवेशवाद की भी आलोचना की गई।
  4. गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों का स्थायी सचिवालय की स्थापना करने के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।

चतुर्थ शिखर सम्मेलन : अल्जीयर्स ( 1973)
गुटनिरपेक्ष देशों का चौथा शिखर सम्मेलन अल्जीरिया की राजधानी अल्जीयर्स में 9-10 सितम्बर, 1973 में हुआ। इस सम्मेलन में 75 देशों के पूर्ण सदस्य और है ने पर्यवेक्षक के रूप में भाग लिया था।
इसमें निम्नलिखित विषयों पर विचार किया गया-
  1. सम्मेलन में महाशक्तियों के मध्य तनाव-शैथिल्य का स्वागत किया गया।
  2. साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद और जातीय विद्वेष के उन्मूलन पर जोर दिया गया।
  3. यह निश्चय किया गया कि गुटनिरपेक्ष देशों को अपने आर्थिक साधनों का पूर्ण उपभोग करने का अधिकार है।
  4. गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों को विश्व की राजनीतिक तथा आर्थिक नीतियों के निर्माण में सक्रिय भाग लेने के लिए संगठित होकर विकसित राष्ट्रों पर दबाव बनाये रखना चाहिए।

पांचवां शिखर सम्मेलन : कोलम्बो (1976)
16 से 20 अगस्त, 1976 तक कोलम्बो में गुटनिरपेक्ष देशों का पांचवां शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में 88 देशों ने पूर्ण सदस्यों के रूप में, 16 ने पर्यवेक्षक गैर-राज्य तथा 7 ने अतिथि सदस्यों के रूप में भाग लिया। इस सम्मेलन में नयी अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था विकसित करने का संकल्प व्यक्त करते हुए, जो आर्थिक घोषणा पत्र जारी किया गया उसमें निम्नलिखित बातें कही गयीं-
  1. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की व्याख्या को इस तरह से पुनर्गठित किया जाए विकासशील देशों को बेहतर शर्तों पर व्यापार करने का मौका मिले और उनको अपने निर्यात का उचित मूल्य प्राप्त हो।
  2. श्रम के नए अन्तर्राष्ट्रीय विभाजन के आधार पर उत्पादन को नए सिरे से पुनर्गठित किया जाए।
  3. विश्व मुद्रा प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन किया जाए और मुद्रा सम्बन्धी सुधारों में विकासशील देशों की राय को वही प्रतिष्ठा आदर मिले जो विकसित देशों को मिलता है।
  4. यह भी प्रस्ताव किया कि हिन्द महासागर को एक शान्ति क्षेत्र घोषित किया जाये।
कोलम्बो में भारत ने प्रमुख भूमिका का निर्वाह किया और इसमें पारित प्रस्तावों में उसकी महत्ती भूमिका रही।

छठा शिखर सम्मेलन : हवाना (1979)
छठा शिखर सम्मेलन हवाना (क्यूबा) में 3 सितम्बर, 1979 को क्यूबा के राष्ट्रपति डॉ. फिदेल कास्त्रों के साम्राज्यवाद, नव-उपनिवेशवाद और अमरीकाा विरोधी भाषण के साथ शुरू हुआ। 94 देशों के राष्ट्राध्यक्षों अथवा विदेश मन्त्रियों ने भाग लिया।
सम्मेलन के घोषणा पत्र में कहा गया कि-
  1. गुटनिरपेक्षता का साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, नव-उपनिवेशवाद, नस्लवाद विदेशी प्रभुत्व, विदेशी कब्जे और हस्तक्षेप एवं चौधराहट के विरूद्ध संघर्ष से स्वाभाविक सम्बन्ध है।
  2. गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों से अपनी स्वतन्त्र विदेश नीति एवं एकता के लिए एकजुट रहने को कहा गया।
  3. सभी गुटनिरपेक्ष राष्ट्रो से अपील की गयी कि वे दक्षिण अफ्रीका के अश्वेत छापामार युद्ध का समर्थन करें।
  4. तेल निर्यातक देशों से अपील की गयी कि वे दक्षिण अफ्रीका को तेल की सप्लाई कतई न करें।
  5. मिस्र इजराइल के साथ अपने मतभेदों को दूर कर चुका था इसलिए कुछ इजराइल विरोधी देशों ने मिस्र को सम्मेलन से निकालने की मांग की। लेकिन इस प्रस्ताव पर मात्र बहस ही हुई।

सातवां शिखर सम्मेलन : नई दिल्ली (1983)
गुटनिरपेक्ष देशों के राष्ट्राध्यक्षों का सातवां शिखर सम्मेलन 6 से 12 मार्च 1983 को नई दिल्ली में प्रधानमंत्री श्रीमति इन्दिरा गांधी की इस अपील के साथ आरम्भ हुआ कि विश्व की महाशक्तियाँ आणविक हथियारों के प्रयोग की धमकी देना बन्द करें और केवल अपने स्वार्थ की चिन्ता छोड़कर सम्पूर्ण मानवता के भले की बात सोचें । तृतीय विश्व के इस सबसे विशाल सम्मेलन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि अनेक द्विपक्षीय मसलों पर पारस्परिक मतभेद होते हुए भी चुने हुए महत्त्वपूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय मसलों पर आम राय कायम हो पायी । सम्मेलन के 101 सदस्य देशों में से 93 देशों ने इसमें हिस्सा लिया।
सम्मेलन में एक आर्थिक घोषणा-पत्र को स्वीकार किया गया जिसमें सदस्य देशों के विकास के लिए आर्थिक सहायता जुटाने एवं पूंजी लगाने के कार्य में अन्तर्राष्ट्रीय योगदान के उपायों पर विचार किया जा सके। इसके साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा एवं वित्तीय प्रणाली के व्यापक पुनर्गठन की आवश्यकता पर भी बल दिया गया। इसके अलावा विकासशील देशों के बीच आर्थिक सहयोग के कार्यक्रम चलाने का सुझाव भी दिया गया।
राजनीतिक प्रस्ताव में दक्षिण अफ्रीका के अश्वेत लोगों के शोषण, उनके प्रति असमानता के व्यवहार व उनके अधिकारों के हनन की भर्त्सना करते हुए तथा उनके संघर्ष में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन द्वारा पूरा सहयोग दिए जाने की बात कही गयी। अफगानिस्तान समस्या का राजनीतिक हल खोजने और वहां से विदेशी सेनाओं की वापसी की मांग करते हुए राजनीतिक घोषणा में उस देश की स्वतन्त्रता एवं प्रभुसत्ता के प्रति पूरा सम्मान व्यक्त किया गया। कम्पूचिया के बारे वहां के नागरिकों को अपने देश की सरकार के बारे में निर्णय लेने व विदेशी हस्तक्षेप समाप्त करने की बात पर पुन: बल दिया गया।

आठवां शिखर सम्मेलन : हरारे (1986)
गुटनिरपेक्ष देशों का सात दिन का आठवां शिखर सम्मेलन 1-7 सितम्बर, 1986 को हरारे (जिम्बाब्वे) में सम्पन्न हुआ। सम्मेलन के समापन पर एक घोषणा-पत्र जारी किया किया। जिसमें सभी सदस्य देशों के बीच अधिक आर्थिक सहयोग तथा दक्षिण में अधिक तेज गति से विकास के लिए उत्तर दक्षिण सहयोग पर बल दिया गया। इस सम्मेलन ने समाचारों के वितरण पर पश्चिमी एकाधिकार को समाप्त करने के लिए नयी अन्तर्राष्ट्रीय सूचना तथा सम्पर्क व्यवस्था को कायम करने के लिए आह्वान किया। यह समझते हुए कि दक्षिण अफ्रीका के रंगभेद शासक उन अग्रिम पंक्ति के देशों के विरूद्ध जवाबी कार्यवाही करें जो उसके विरूद्ध प्रतिबंधों को लागू कर रहे थे, गुटनिरपेक्ष आन्दोलन ने साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद तथा रंगभेद के विरूद्ध प्रतिरोधात्मक कार्यवाही करने के लिए एक कोष की स्थापना का निर्णय किया। इसको संक्षेप में अफ्रीकी फण्ड (Action hor Kesistance Against Imperialism Colonialism and Aparthis) कहा गया। इस कोष को न केवल गुटनिरपेक्ष देश धन देंगे बल्कि अन्य देशों से भी धन देने को कहा जाएगा। सम्मेलन ने नामीबिया की स्वतन्त्रता सुनिश्चित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा का एक विशेष अधिवेशन बुलाए जाने की मांग की।

नवां शिखर सम्मेलन : बेलग्रेड (1989)
4 से 7 सितम्बर, 1989 को यूगोस्लाविया की राजधानी बेलग्रेड में नवां गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन सम्पन्न हुआ। बेलग्रेड शिखर सम्मेलन में इस आन्दोलन के 102 सदस्य देशों में से 98 ने भाग लिया। सम्मेलन में यह निश्चय किया गया कि भारत की अध्यक्षता में स्थापित अफ्रीकी कोष जैसे का तैसा बना रहेगा। नामीबिया के प्रश्न पर सम्मेलन ने अपनी 18 सदस्यीय समिति को अनुदेश दिया कि वह नामीबिया में स्वतन्त्रता के पश्चात हो रहे प्रथम चुनावों के समय वहाँ जाये और इस बात को देखे कि दक्षिणी अफ्रीका की नस्लवादी गोरी सरकार उसको असफल बनाने का प्रयत्न न करे।
सम्मेलन में विकासशील देशों के बीच सहयोग को बढ़ावा देने पर बल देते हुए उत्तर-दक्षिण सहयोग' (North- South Co-operation) की आवश्यकता पर बल दिया गया। बेलग्रेड घोषणा-पत्र में राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के अधिकार तथा उपनिवेशवाद की समाप्ति के आह्वान को दोहराया गया तथा भारत के 'धरती रक्षा कोष' की स्थापना सम्बन्धी प्रस्ताव का अनुमोदन किया गया। इसके अतिरिक्त मादक पदार्थों के प्रसार को रोकने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग, शान्तिपूर्ण प्रयोजनों के लिए परमाणु शक्ति के विकास की छूट, परमाणु कचरे को सुरक्षित रूप से दफनाने तथा दक्षिणी अफ्रीका में रंगभेद और जातीय पृथक्करण की समाप्ति की माँग की गयी।

दसवां शिखर सम्मेलन : जकार्ता (1992)
इण्डोनेशिया की राजधानी जकार्ता में 1 से 6 सितम्बर, 1992 तक गुटनिरपेक्ष देशों का दसवां शिखर सम्मेलन सम्पन्न हुआ। सम्मेलन में 108 राष्ट्रों ने भाग लिया। सोवियत संघ के पतन तथा शीत युद्ध के अंत के बाद इस सम्मेलन में यह आम सहमति रही कि इस आदोलन की अभी भी प्रासंगिकता है। सम्मेलन की समाप्ति के बाद 6 सितम्बर को जो घोषणा पत्र जारी किया गया उसे 'जकार्ता घोषणा पत्र' के नाम से जाना जाता है। इसमें आतंकवाद की निन्दा करने, अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद को समाप्त करने, सदस्य राष्ट्रों से आर्थिक मुद्दों को प्राथमिकता देने, अल्प विकास के विरूद्ध जेहाद छेड़ने तथा बोसनिया-हर्जेगोविना में हो रहे नरसंहार को रोकने का संकल्प व्यक्त किया गया। अन्तिम घोषणा में गुट-निरपेक्ष देशों के बीच एकता को बढ़ावा देने पर जोर दिया गया। दो महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किए गए- इसमें से एक का सम्बन्ध, विकसित और विकासशील देशों के बीच बातचीत के महायुद्ध से विकासशील देशों के लिए बेहतर व्यापार और सहायता शर्तों की मांग से था। साथ ही विकासशील देशों के बीच आपसी सम्बन्धों को बढ़ाने की आवश्यकता पर बल दिया गया। अन्य प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र संघ के व्यापक पुनर्गठन, विशेषकर इसके महत्त्वपूर्ण अंग, सुरक्षा परिषद के विस्तार के बारे में था।

ग्यारहवां शिखर सम्मेलन : कार्टागेना (1995)
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का 11 वां सम्मेलन अक्टूबर, 1995 में कार्टागेना (कोलोम्बिया) में आयोजित किया गया। शीत युद्ध की समाप्ति के पश्चात् इस सम्मेलन ने गुट रहित विश्व की परिवर्तित परिस्थितियों में अपनी उपयुक्त भूमिका तलाश करने का प्रयास किया। इस सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र का सुधार, अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा और नि:शस्त्रीकरण, विकास, मानवाधिकार, सामाजिक मुद्दों और दक्षिण-दक्षिण सहयोग के प्रश्न पर व्यापक विचार विमर्श हुआ। शिखर सम्मेलन की समाप्ति के बाद चार पृष्ठ का कोलम्बिया आह्वान' जारी किया गया, जिसमें सदस्य देशों ने मांग की कि कम आय वाले विकासशील देशों पर जो ऋण चढ़ा हुआ है उसे समाप्त किया जाए। इसके साथ ही गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने यह आह्वान किया कि विश्व बैंक तथा अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष में सुधार किया जाए क्योंकि इन वित्तीय संस्थाओं में विकासशील देशों को मतदान के व्यापक अधिकार नहीं है। निर्गुट देशों ने दक्षिण-दक्षिण सहयोग बढ़ाने एवं पूर्ण निःशस्त्रीकरण का लक्ष्य पाने का प्रयास शुरू करने का भी आह्वान किया। इस सम्मेलन का अधिकांश समय विश्व की ज्वलन्त आर्थिक समस्याओं पर विचार करने में व्यतीत हुआ। इसमें 113 सदस्य देशों में से 108 देशों ने भाग लिया।

बारहवां शिखर सम्मेलन : डरबन (1998)
गुट-निरपेक्ष आन्दोलन देशों का 12 वां शिखर सम्मेलन 2-3 सितम्बर, 1998 को डरबन (दक्षिण अफ्रीका) में सम्पन्न हुआ। शिखर सम्मेलन में संकेत दिया कि भविष्य में तृतीय विश्व का नेतृत्व अफ्रीका महाद्वीप के हाथों में होगा। ऐसे संकेत दिखाई दिये कि इस आन्दोलन की कमान दक्षिण अफ्रीका अपने हाथ में लेना चाहता है। उपनिवेशवाद तथा रंगभेद की नीति की कड़वाहट लम्बे समय तक झेल चुके दक्षिण अफ्रीका की मुखरता देखकर इस शिखर सम्मेलन में भाग लेने वाले सभी राष्ट्र हैरान थे। दक्षिण अफ्रीका ने राजनीति से अधिक इस सम्मेलन में आर्थिक मुद्दों पर जोर देने का प्रयत्न किया। गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के अध्यक्ष नेल्सन मण्डेला ने कश्मीर समस्या पर टिप्पणी करके द्विपक्षीय मुद्दे को अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर लाने का प्रयत्न किया, परन्तु भारतीय दबाव को देखते हुए मण्डेला को क्षमायाचना करनी पड़ी। इस शिखर सम्मेलन में जारी घोषणा-पत्र में इस बात पर जोर दिया गया कि परमाणु हथियारों का पूरी तरह उन्मूलन करके अणुमुक्त विश्व की रचना की जानी चाहिए।

तेरहवां शिखर सम्मेलन : कुआलालम्पुर (2003)
116 सदस्यीय गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का 13वां शिखर सम्मेलन 24-25 फरवरी, 2003 को कुआलालम्पुर (मलेशिया) में सम्पन्न हुआ। 24 फरवरी को तिमोर लेरन्टे (पूर्वी तिमोर) तथा सेंट विसेंट व ग्रेनाडा द्वीप समूह को गुटनिरपेक्ष आन्दोलन में विधिवत शामिल कर लिया गया, जिससे अब गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के सदस्य देशों की संख्या 114 से बढ़कर 116 हो गयी। इस अवसर पर स्वीकृत कुआलालम्पुर घोषणा-पत्र में बहुध्रुवीय विश्व को बढ़ावा देने तथा बातचीत व राजनयिक तरीकों से विश्व में शान्ति बनाए रखने पर जोर दिया गया। घोषणा पत्र में आन्दोलन में फिर से प्राण फूकने का कार्यक्रम भी घोषित किया गया। आन्दोलन ने इराक संकट के संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से तत्काल हल किए जाने पर जोर दिया तथा इराक पर खाड़ी युद्ध के समय से लागू प्रतिबन्ध हटाने की मांग की। घोषणा पत्र में सदस्य देशों से आतंकवादी गुटों व संगठनों के आर्थिक व कार्यकारी तन्त्र को ध्वस्त करने की अपील की गई।

घोषणा पत्र में कहा गया कि संयुक्त राष्ट्र के साथ-साथ आन्दोलन के सदस्यों के बीच बहुपक्षीय प्रक्रिया अनिवार्य तौर पर अपनानी चाहिए। आन्दोलन के नेताओं ने संयुक्त राष्ट्र को सुदृढ़ करने तथा बहुध्रुवीय विश्व को बढ़ावा देने का संकल्प व्यक्त किया ताकि अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद की चुनौती का सामना किया जा सके।

गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के शिखर सम्मेलन
स्थान वर्ष सदस्य देशों की संख्या
बेलग्रेड (यूगोस्लाविया) 1961 25
काहिरा (मिस्त्र) 1964 47
लुसाका (जाम्बिया) 1970 54
अल्जीयर्स (अल्जीरीया) 1973 75
कोलम्बो (श्रीलंका) 1976 88
हवाना (क्यूबा) 1979 94
नई दिल्ली (भारत) 1983 101
हरारे (जिम्बाब्वे) 1986 101
बेलग्रेड (यूगोस्लाविया) 1989 102
जकार्ता (इण्डोनेशिया) 1992 108
कार्टागेना (कोलम्बिया) 1995 108
डरबन (दक्षिण अफ्रीका) 1998 113
कुआलालम्पुर (मलेशिया) 2003 116

गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की उपलब्धियाँ

1961 के बेलग्रेड शिखर सम्मेलन से यह आन्दोलन विस्तृत या व्यापकता ग्रहण करता जा रहा है। प्रथम शिखर सम्मेलन में 25 देशों ने भाग लिया था और 2003 में कुआलालम्पुर में आयोजित 13 वें शिखर सम्मेलन में आन्दोलन के सदस्यों की संख्या 115 हो गयी है। सदस्यों की संख्या में वृद्धि के साथ-साथ इस आन्दोलन के कार्यक्षेत्र का भी काफी विस्तार हुआ है। यह सही है कि गुटनिरपेक्ष आन्दोलन अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की दिशा को नहीं बदल सका है तथापि इसने अपनी अनेक कमियों तथा असफलताओं के बाद भी विश्व शान्ति को अपना सकरात्मक योगदान दिया है, जिनका निम्नलिखित रूप से उल्लेख किया जा सकता है-

विश्व शान्ति में सहायक
गुट-निरपेक्षता मानव इतिहास का सबसे बड़ा शान्तिवादी आन्दोलन है। इसकी वाणी शान्ति की वाणी है, इसका लक्ष्य विश्व शान्ति है। इसमें शान्ति के आयामों को बढ़ावा दिया है। इसने तनाव को कम करने, संघर्षों को शान्त करने, युद्ध में रत देशों को सम्मेलन की मेज पर लाने और राष्ट्रों के तनावों तथा आपसी संघर्षों को कम करने में सक्रिय भूमिका निभाई है। इस आन्दोलन ने शीत युद्ध की रणनीति से अलग रहने का निर्णय लेकर शस्त्रीकरण की प्रवृति तथा तनावों और संघर्षों की राजनीति में कमी लाने में सफलता प्राप्त कर विश्व शान्ति को बनाए रखने में अपना सकारात्मक योगदान दिया है।

उपनिवेशवाद विरोधी मंच
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य उपनिवेशवाद का अंत करना था। साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद के विरूद्ध जनमत जाग्रत करने तथा उन्हें विलुप्त करने में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन निरन्तर एक मुख्य कारक रहा है।

रंगभेद का विरोध
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन ने रंग के आधार पर भेदभाव तथा अन्याय का कड़ा प्रतिवाद किया और दक्षिण अफ्रीका एवं नामीबिया में रंगभेद विरोधी आन्दोलन को पूरा समर्थन दिया। रंगभेद को जड़ से उखाड़ने के लिए एक "अफ्रीका कोष" की स्थापना की गयी। यह कोष अगली पंक्ति वाले अफ्रीकी देशों को आश्वासन देता था कि नस्लवाद के विरूद्ध लड़ाने में वे अकेले नहीं बल्कि 'गुटनिरपेक्ष' के सभी देश उनके साथ हैं।

निःशस्त्रीकरण की दिशा में प्रगति
शान्ति एवं निरस्त्रीकरण को बनाये रखने की दिशा में सभी गुट-निरपेक्ष आन्दोलन ने महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। विश्व में शान्ति के क्षेत्रों में होने वाले प्रसार के कारण कम से कम देश सैनिक गठबंधनों में शामिल हुए। इसने लगातार निरस्त्रीकरण के लिये प्रयास किये तथा हथियारों की दौड़ के अंत के लिए कहा कि विश्वव्यापी शांति तथा सुरक्षा को तभी प्राप्त किया जा सकता है जबकि प्रभावशाली अन्तर्राष्ट्रीय नियन्त्रण के अन्तर्गत सामान्य एवं पूर्ण निरस्त्रीकरण हो। इसने यह भी समझाया कि हथियारों की दौड़ उन महत्त्वपूर्ण संसाधनों को बर्बाद करती है जिनका प्रयोग सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए किया जाना चाहिये।

संयुक्त राष्ट्र संघ के स्वरूप को रूपान्तरित करना
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन ने संयुक्त राष्ट्र के चरित्र को परिवर्तित कराने में सफलता प्राप्त की और इसके फलस्वरूप इसके विभिन्न अंगों के माध्यम से संचालित होने वाले अंतर्राज्य संबंधों की दिशा में भी परिवर्तन हुआ। 1940 तथा 1950 के दशकों में संयुक्त राष्ट्र के विभिन्न अंगों में होने वाली कार्यवाहियों पर महाशक्तियों तथा उनके सहायक देशों का पूर्ण प्रभुत्व बना रहता था।
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के उद्गम ने इस स्थिति को बदल दिया। इसने साधारण सभा में न केवल एक नवीन बहुसंख्यक मत प्रणाली को विकसित किया अपितु एक ऐसे सामूहिक मंच का भी निर्माण किया, जिसके माध्यम से तृतीय विश्व दुनिया के देश अपने हितों को भी उठा सकते थे। आज तृतीय विश्व के देशों के मत का संयुक्त राष्ट्र में प्रतिनिधित्व इतना प्रभावशाली ढंग से किया जाता है कि यह कई बार विकसित देशों के विचारों से कहीं अधिक प्रभावशाली हो जाता है। इस प्रकार शान्ति, आर्थिक न्याय और सहअस्तित्व के पक्ष में एक ऐसे प्रबल विश्व जनमत का निर्माण हुआ जिसकी उपेक्षा महाशक्तियाँ नहीं कर सकती थीं।

शीत युद्ध को शस्त्र-युद्ध में परिणत होने से रोकना
गुटनिरपेक्ष देश दोनों गुटों और सर्वोच्च शक्तियों के बीच सद्भावना हेतु और सम्पर्क के माध्यम का काम करने को तत्पर रहे जिससे दूसरे शीत-युद्ध के काल में पक्षों के बीच गलतफहमियों को दूर करने का प्रयास किया। गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने शीत युद्ध को शस्त्र युद्ध या विश्व युद्ध में परिणत नहीं होने दिया।

नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मांग
आजकल गुट-निरपेक्ष राष्ट्र नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था (एन.आई.ई.डी.) की मांग कर रहे है। अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता तथा सार्वभौमिकता के बावजूद नये स्वतन्त्र देश आर्थिक रूप से असमान बने रहे। वे पूर्व की भांति ही कच्चे माल के उत्पादक देश बने रहे जो अपनी वस्तुओं को विकसित देशों को कम से कम मूल्य पर बेचते तथा उत्पादित वस्तुओं को उनसे उच्च मूल्य पर खरीदते । दुःख इस विषय का था कि वे दमनात्मक आर्थिक व्यवस्था के न केवल अतीत के भाग थे अपितु यह स्थिति अभी भी जारी थी और इसी के अन्तर्गत कार्य करना पड़ा रहा था। इस आर्थिक शोषण का अंत करने के लिए, जिसको नव उपनिवेशवाद भी कहा जाता है, गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के काहिरा में जुलाई 1964 में आयोजित 'आर्थिक विकास की समस्याओं पर सम्मेलन' में पहली बार आर्थिक विकास के रूप में उल्लेख हुआ था। गुटनिरपेक्ष देशों की इसी पहल के क्रियान्वयन के रूप में ही 1974 के आरम्भ में संयुक्त राष्ट्र महासभा का छठा विशेष अधिवेशन बुलाया गया था, जिसने 1 मई, 1974 को नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था स्थापित करने की घोषणा' और 'एक कार्यवाही योजना के ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित किए। इस तरह से नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के निर्माण में भी गुट निरपेक्ष देशों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही।

विश्व समाज के लिए उन्मुक्त वातावरण का निर्माण
नवोदित कमजोर राष्ट्रों को महाशक्तियों के चंगुल से निकालकर उन्हें स्वतन्त्रता के वातावरण में अपना अस्तित्व बनाए रखने का अवसर गुटनिपरेक्षता ने प्रदान किया। गुटबन्दी की विश्व राजनीति के दमघोंटू विश्व समाज में गुटनिरपेक्षता ताजी हवा का झोंका लेकर आयी। यही ताजी हवा थी खुले समाज के गुणों की, मुक्त और खुली चर्चा के वरदान की, तीव्र मतभेद और रोष के समय भी सम्पर्क के रास्ते खुले रखने के महत्त्व की।शीत युद्ध के कारण जो विकृतियाँ पैदा हो गयी थी, गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने उन्हें दूर करने के अथक प्रयास किए, और इससे वर्तमान विश्व समाज कहीं अधिक खुला समाज बन गया। इस खुले समाज से विश्व में शान्ति, सद्भावना तथा सहिष्णुता का वातावरण बना।

विकासशील राष्ट्रों के मध्य आर्थिक सहयोग की बुनियाद
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि इस तथ्य में निहित है कि इसने विकासशील राष्ट्रों को स्वतन्त्र आर्थिक विकास को जारी रखना सिखाया। कोलम्बों शिखर सम्मेलन में तो एक आर्थिक घोषणा-पत्र स्वीकार किया गया जिसका मुख्य आधार यह था कि गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों के बीच अधिकाधिक आर्थिक सहयोग हो और इस आर्थिक सहयोग के लिए प्रत्येक सम्भव प्रयत्न किया जाए। गुटनिरपेक्षता आर्थिक सहयोग का एक संयुक्त मोर्चा है। यह तृतीय विश्व के विकासशील देशों में सहयोग का प्रतीक है। दक्षिण-दक्षिण संवाद' का आह्वान निर्गुट राष्ट्रों के मंच से ही हुआ है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि गुट निरपेक्ष आन्दोलन की उल्लेखनीय उपलब्धियाँ रही हैं।

गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के समक्ष चुनौतियाँ

गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के समक्ष समय तथा परिस्थियिों के साथ-साथ अन्य चुनौतियाँ उपस्थित हुई हैं तथा इसे उनके दबावों का भी सामना करना पड़ा है और इसकी एकता, सुदृढ़ता एवं प्रभावशीलता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की प्रमुख चुनौतियाँ निम्नलिखित प्रकार से है-

महाशक्तियों का दबाव
आरम्भ से ही महाशक्तियों ने गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के उदय को सद्इच्छा से नहीं देखा अत: यह आन्दोलन अमरीका और सोवियत संघ दोनों की आलोचना का पात्र रहा। आरम्भ में अमरीका इसे 'साम्यवाद की ओर झुकाव' कह कर और सोवियत संघ इसे अमरीका का पिछलग्गू' कह कर निन्दित करता था। द्वितीय महायुद्ध के बाद अमरीका की विदेश नीति साम्यवाद के परिरोधन या अवरोध पर आधारित होने से नाटो, सीटो, सेन्टो जैसे सैनिक गठबन्धनों पर बल दे रही थी और गुटनिरपेक्ष अवधारणा इन सैनिक गठबन्धनों के ठीक विपरीत है। अतः गुटनिरपेक्ष आन्दोलन लम्बे समय से अमरीका की आँख की किरकिरी रहा है। अमरीका ने गुटनिरपेक्ष अवधारणा को 'अनैतिक', 'पथ भ्रष्ट राष्ट्रों का दर्शन' और 'हानिकारक शक्ति' की संज्ञा दी है। अमरीका ने गुटनिरपेक्ष देशों को डराने-धमकाने, उनके विकास को अवरूद्ध करने, उन्हें अन्दर से खोखला करने तथा स्वतन्त्र नीति अपनाने वाले नेताओं एवं देशों को बदनाम करने की जी-तोड़ साजिशें की हैं। उदाहरणत: भारत जैसे गुटनिरपेक्ष देश के विरूद्ध अमरीका ने पाकिस्तान को सैनिक सहायता दी। इसी प्रकार हिन्द महासागर में महाशक्तियों की सक्रिय गतिविधियाँ इस क्षेत्र के गुटनिरपेक्ष देशों पर दबाव डालने की ही चेष्टा है।

गुटनिरपेक्ष देशों में पारस्परिक तनाव एवं वैमनस्य
गुट-निरपेक्ष देश आपस में ही संगठित नहीं है। उनमें तनाव, वैमनस्य और भयंकर विवाद उभरते रहे हैं। उदाहरणार्थ भारत और बंगलादेश दोनों ही गुटनिरपेक्षता के समर्थक हैं, किन्तु कोलम्बो शिखर सम्मेलन में बंगलादेश ने भारत के साथ गंगा के पानी के बँटवारे के प्रश्न को उठाकर विश्व के सामने अपने आपसी तनावों का ही प्रकटीकरण किया। 1999 के प्रारम्भ में पाकिस्तान ने कारगिल में घुसपैठिए भेजकर भारत के साथ तनावों को जन्म दिया। अन्य गुट निरपेक्ष देशों के बीच भी तनाव की स्थिति है।

परिभाषा विहीन आन्दोलन
गुट-निरपेक्षता की कोई सर्वसम्मत परिभाषा नहीं है। निश्चित परिभाषा के अभाव में गुटनिरपेक्षता के वास्तविक स्वरूप के आगे प्रश्न चिह्न लगा है। आन्दोलन स्वयं ही बहु-संलग्नता का अखाड़ा बन गया है। यह भेद मिटता चला जा रहा है कि गुट-निरपेक्ष होने के लिए सैनिक असंलग्नता आवश्यक है। बेलग्रेड सम्मेलन ने जो योग्यता सूची बनायी थी, वह अब अत्यधिक लचीली बन गयी है। उदाहरणातः 1970 में मलेशिया उस समय आन्दोलन का सदस्य बना जबकि ब्रिटेन के साथ उसकी प्रतिरक्षा सन्धि थी, 1973 में माल्टा को उस समय अल्जीयर्स सम्मेलन में भाग लेने दिया गया जब उसकी भूमि पर नाटो का सैनिक अड्डा बना हुआ था। साइप्रस, सऊदी अरब, मोरक्को आदि देश जो पश्चिमी शक्तियों के अड्डे बने रहे हैं उन्हें भी इस आन्दोलन में प्रवेश लेने में दिक्कत नहीं हुई।
कुछ राष्ट्र गुट-निरपेक्ष आन्दोलन को परिभाषा-विहीन बनाकर उसे चरित्र रहित करने की व्यूह रचना रच रहे हैं ताकि आन्दोलन में बिना किसी रूकावट के हर तरह के राष्ट्रों का प्रवेश हो जाये। अतः निश्चित परिभाषा के अभाव में आन्दोलन उन सदस्यों को निष्कासित या निलम्बित करने में असमर्थ है जिनका एक पाँव गुट-निरपेक्षता में और दूसरा गुट-सापेक्षता में है। संक्षेप में, गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को स्पष्ट परिभाषा की आवश्यकता है।

आर्थिक पिछड़ापन
आर्थिक दृष्टि से गुट-निरपेक्ष देश पिछड़े हुए है। अपने आर्थिक विकास के लिए इन देशों को महाशक्तियों पर निर्भर रहना पड़ता है। महाशक्तियाँ आर्थिक लालच देकर इन छोटे और कमजोर मुटनिरपेक्ष देशों का शोषण करती है। इन्हें आर्थिक सहायता का लुभावना मोह दिखाकर उन्हें अपने गुटों में बांधने का प्रयत्न करती है। इनका आर्थिक पिछड़ापन इसके मार्ग में अवरोध उपस्थित कर रहा है।

यह एक नैतिक आन्दोलन है
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन नैतिक अपील-सा लगता है। यह मानवता की रक्षा की आवाज बुलन्द कर सकता है, किन्तु शस्त्रों द्वारा शान्ति स्थापित नहीं कर सकता, आक्रमणों का प्रतिरोध नहीं कर सकता, यह किसी महाशक्तियों की चौधराहट का सामना नहीं कर सकता। अत: अन्तर्राष्ट्रीय क्षितिज पर इसका प्रभाव न्यून है।

संकल्प, सहमति और क्षमता का अभाव
गुट निरपेक्ष देशों में वास्तविकताओं का सामना करने की न तो इच्छा है न संकल्प और मुद्दों (समस्याओं और विवादों) का समाधान निकालने में न सहमति है न क्षमता। उदाहरणतः आन्दोलन आन्तरिक हस्तक्षेप
और आधिपत्य को दूर करने की कसमें खाता है परन्तु उसने अफगानिस्तान में पूर्व सोवियत संघ के सैनिक हस्तक्षेप को प्रत्यक्ष निन्दा या भर्त्सना कभी नहीं की। अफगानिस्तान और खाड़ी युद्ध (1991) में गुट निरपेक्ष देशों' की भूमिका नगण्य या महत्त्वहीन ही रही है।
यह आन्दोलन शान्ति, सुरक्षा और स्वतन्त्रता को अक्षुण्ण बनाये रखने की बात करता है परन्तु उन्हें बनाये रखने के लिए उसमें न एकता है, न सम्बद्धता और न नैतिक या सैनिक शक्ति। उसके पास दूरदृष्टि रखने वाले नेतृत्व का अभाव हो गया है। पारस्परिक या द्विपक्षीय विवादों और राष्ट्रीय स्वार्थ हितो के कारण आन्दोलन एक 'विभाजित घर' की तरह है।

गुट सापेक्ष राष्ट्रों की बढ़ती संख्या
वर्तमान में चीन को भी गुट-निरपेक्ष आन्दोलन में पर्यवेक्षक का दर्जा दे दिया गया है। ऐसी स्थिति में जब सुरक्षा परिषद का एक स्थायी सदस्य इस आन्दोलन में रहेगा तथा पाकिस्तान, ईरान, फिलीपीन्स तथा रीओ सन्धि के सदस्य जैसे सैनिक गठबन्धन वाले राष्ट्र भी इस आन्दोलन में रहेंगे तो इस आन्दोलन का भविष्य क्या होगा, कहने की आवश्यकता नहीं है।
यदि मुर-निरपेक्षता की स्पष्ट परिभाषा नहीं की गयी और सदस्यता के लिए अर्हताएं निश्चित नहीं की गयी, तो ऐसे प्रश्नों का उत्तर देना धीरे-धीरे कठिन होता जाएगा। वर्तमान में इस आन्दोलन के साथ अनगिनत समस्याएं हैं।

गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का भविष्य

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की वर्तमान स्थिति में 'गुट निरपेक्ष आन्दोलन' की प्रासंगिकता और अस्तित्व को लेकर अनेक प्रकार के प्रश्न चिह्न लगाये जा रहे है। ये प्रश्न चिह्न उन्हीं पश्चिमी शक्तियों अथवा उनके पिछलग्गू देशों व लेखकों द्वारा लगाये जा रहे है जिन्होंने गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को प्रारम्भ में अनैतिक''अवसरवादी' करार दिया था अथवा उसे 'सोवियत शिविर का मोहरा' कह कर निन्दित किया था। उन्हीं शक्तियों ने शीत युद्ध की समाप्ति और सोवियत संघ के पराभाव के बाद अर्थात् 1990 के दशक के शुरू होते ही यह राग अलापना शुरू कर दिया कि एक-ध्रुवीय विश्व में गुटनिरपेक्षता के सेतु की राजनीति का कोई महत्त्व नहीं रहा, उनका यह भी
अभिमत रहा कि उपनिवेशवाद और नस्लवाद के राजनीतिक मुद्दे अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति से ओझल हो गये है और वर्तमान विश्व राजनीति में अहमियत राजनीतिक प्रश्नों या मुद्दों के स्थान पर आर्थिक मुद्दों और व्यापार की हो गयी है। अर्थात् अब विश्व द्विध्रुवीय नहीं है ऐसी स्थिति में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का कार्य करना मश्किल हो गया है।

पश्चिमी शक्तियों के उपर्युक्त कथन केवल अर्द्ध सत्य को प्रकट करते है पूर्ण सत्य को नहीं। वास्तविकता यह है कि 'गुटनिरपेक्ष' की प्रासंगिकता और महत्त्व पहले से कहीं अधिक है। यह श्रेय गुटनिरपेक्ष कूटनीति को है कि उपनिवेशवाद और नस्लवाद के राजनीतिक मुद्दे, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति से ओझल हो गए हैं परन्तु यह पश्चिमी राष्ट्रों का दुष्प्रचार है कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति से राजनीतिक मुद्दे ही समाप्त हो गए हैं। विश्व शान्ति, परमाणु अप्रसार और नि:शस्त्रीकरण जैसे मुद्दे आज भी पहले की भांति विद्यमान है और इनके स्थायी समाधान में इसकी प्रासंगिकता और भूमिका सुनिश्चित है। यह सत्य है कि वर्तमान बदलते परिदृश्य में गुटनिरपेक्षता के व्यवहार में परिवर्तन की व्यापक आवश्यकता है। चूंकि वर्तमान समय में विकासशील देशों के लिए ऐसे किसी परिवर्तन का आभास नहीं हो रहा है जिससे वे बड़ी आर्थिक शक्तियों के बीच प्रकट होने वाले मतभेदों से लाभ उठाने में सफल हो सकें। वर्तमान में तृतीय विश्व के देशों पर बाजारों को खोलने तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकारों के प्रश्न पर विकसित देशों की सभी मांगों को मानने के लिए दबाव डाला जा रहा है। लेकिन वास्तविकता यह है कि ऐसे समय में विकसित देशों में संरक्षणवाद की प्रवृत्ति बढ़ रही है। विकसित देशों की ओर से विकासशील देशों को हस्तांतरित की जाने वाली तकनीक पर कठोर प्रतिबन्ध लगाये जा रहे हैं । इसके अतिरिक्त कुछ अस्थायी प्रतिबन्ध भी हैं, जिनका उद्देश्य व्यापक विध्वंसक हथियारों के उत्पादन को रोकना है। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि नई व्यापार व्यवस्था विकासशील देशों के हितों को ठीक प्रकार से पूरा करने वाली नहीं है। अत: उत्तर के पूर्ण अभिभूत प्रभुत्व को रोकना है तो दक्षिण के विकासशील देशों को अपनी स्वतन्त्रता का दावा एवं एक साथ मिलकर कार्य करना होगा तथा दक्षिण-दक्षिण सहयोग को प्रोत्साहित कर आन्दोलन को और अधिक सुदृढ़ करना होगा।
आज निम्नलिखित क्षेत्रों में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की प्रासंगिकता नजर आती है-
  • नई अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की पुरजोर मांग करना,
  • आणविक नि:शस्त्रीकरण के लिए दबाव डालना,
  • दक्षिण-दक्षिण सहयोग को प्रोत्साहन देना,
  • एक-ध्रुवीय विश्व व्यवस्था में अमरीकाी दादागिरी का विरोध करना,
  • नव-औपनिवेशिक शोषण का विरोध किया जाए,
  • संयुक्त राष्ट्र संघ के पुनर्गठन के लिए दबाव डाला जाए,
  • उत्तर-दक्षिण देशों के बीच सार्थक वार्ता के लिए दबाव डालना,
  • इस प्रकार गुटनिरपेक्षता की प्रासंगिकता आज भी उतनी है, जितनी इसकी स्थापना के समय थी।

सारांश

गुटनिरपेक्ष आन्दोलन ने स्वतन्त्र विदेश नीति का सिद्धान्त देकर और नवोदित देशों को एक मंच उपलब्ध कराके सैनिक टकराव की दिशा में सम्भावित व्यापक रूझान को रोक दिया और शीत युद्ध का तनाव कम करने तथा शान्ति स्थापना की दिशा में प्रोत्साहन दिया। आपसी विचार-विमर्श द्वारा समझा-बुझाकर और जोरदार प्रचार करके इस आन्दोलन ने उपनिवेशवाद उन्मूलन की प्रक्रिया को भी गति प्रदान की। 1960 के बाद यह अनुभव किया गया कि राजनीतिक उपनिवेशवाद का तो उन्मूलन हो रहा है, लेकिन नव-स्वाधीन राष्ट्र आर्थिक दृधि से कमजोर है और औद्योगिक देशों पर निर्भर है जिससे लगता है निर्धन देशों पर धनी देशों की चौधराहट बराबर बनी हुई है। अत: नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था स्थापित करने की मांग की जाने लगी।
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को संस्था का रूप धारण किए चार दशकों से भी अधिक का समय हो चुका है। उसकी सदस्य संख्या 118 पर पहुंच गयी है, जो इस बात का सूचक है कि इस आन्दोलन का बल और प्रभाव बढ़ रहा है। मगर इस विस्तार से उसमें कमजोरियाँ भी आयी है। इससे इसकी सामहिक एकता में कमी आयी है और परिणामस्वरूप उसके निर्णयों एवं राजनैतिक प्रभाव कमजोर हुआ है। अत: आज गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को पुनः सक्रिय करने की महत्ती आवश्यकता है जिससे कि और अधिक समतावादी विश्व व्यवस्था की ठोस रूप में स्थापना की जा सके।

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