शाहजहाँ - शाहजहाँ का इतिहास (1592-1627 ई.) | shah jahan in hindi

शाहजहां का प्रारम्भिक जीवन

शाहजहां का जन्म 5 जनवरी, 1592 ई. को लाहौर में हुआ। उसकी माता सुप्रसिद्ध राजपूत रमणी जगत गोसाईं मोटा राजा उदयसिंह की सुपुत्री थी। इसका बचपन का नाम खुर्रम था। कुशाग्रबुद्धि और चतुर खुर्रम में बचपन से ही बड़प्पन के चिह्न दृष्टिगोचर होने लगे, अतः वह अपने पितामह अकबर का सर्वप्रिय प्रपौत्र हो गया। अकबर ने उसकी शिक्षा-दीक्षा स्वयं अपनी देखरेख में करानी आरम्भ की और उसे मुगल शासक वर्ग का सुयोग्य शासक बनाने में कोई कसर न उठा रखी। खुर्रम को प्रारम्भ से ही फारसी साहित्य में विशेष अभिरूचि थी, किन्तु तुर्की भाषा तथा साहित्य उसके चाव का विषय न था। उसने व्यावहारिक हिन्दी का भी यथेष्ट ज्ञान प्राप्त किया होगा। यद्यपि उसने अपने पिता की भांति अपनी आत्मकथा नहीं लिखी परन्तु फिर भी फारसी भाषा और साहित्य पर उसका अच्छा अधिकार था। इसके अलावा उसने इतिहास, राजनीति, भूगोल, धर्मशास्त्र आदि का भी अध्ययन किया। सैनिक-शिक्षा उसकी शिक्षा का आवश्यक अंग थी, अतः थोड़े ही समय में खुर्रम एक सुयोग्य सैनिक बन गया, जो आक्रमणात्मक तथा रचनात्मक शस्त्रों के प्रयोग में सिद्धहस्त हो गया। युद्ध-कला तथा सैन्य-संचालन में खुर्रम ने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। युवावस्था में पूर्णरूप से पदार्पण करने से पहले ही खुर्रम समस्त साम्राज्य का श्रेष्ठ सेनानायक माना जाने लगा। ऐसी अभूतपूर्व थी उसकी प्रतिभा।
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अपने पिता जहांगीर के राज्यकाल के आरम्भ में ही खुर्रम को उसका उत्तराधिकारी समझा जाने लगा क्योंकि उसका बड़ा भाई खुसरो पिता के प्रति अपने दुर्व्यवहार के कारण जहांगीर की दृष्टि में बराबर गिरता जा रहा था। 1607 ई. में जहांगीर ने इसे 8,000 जात और 5,000 सवार का मनसबदार बना दिया। 1608 ई. में हिसार फिरोजा की जागीर जो प्रायः मुगल युवराज को दी जाती थी, खुर्रम को दे दी गयी। 1610 ई. में उसका विवाह मुजफ्फरहुसैन सफव्वी की पुत्री से सम्पन्न कर दिया गया और अगले ही वर्ष उसे 10,000 जात और 5,000 सवार का मनसबदार बना दिया गया। 1612 ई. में जब वह बीस वर्ष का हुआ, उराका विवाह आराफखां की पुत्री अरजुगन्द बानो बेगग के साथ राग्पन्न हुआ। नूरजहां के बड़े भाई आराफखां के वंश रो स्थापित इस विवाह सम्बन्ध में खुर्रम, नूरजहां, एतमादुद्दौला और आसफखां के बीच घनिष्ठ सम्बन्धों का सूत्रपात हुआ। 'नूरजहां गुट' ने दस वर्ष तक राज्य किया। इस अवधि में खुर्रम को भावी सम्राट समझा जाने लगा और उसका मनसब बढ़ाकर 30,000 जात और 20,000 सवार कर दिया गया।
जहांगीर के राज्यकाल में खुर्रम को अनेक प्रमुख युद्धों का संचालन करना पड़ा। उसका शासनकाल खुर्रम की ही विजय-कीर्ति का इतिहास है। मेवाड़ विजय उसकी प्रारम्भिक सफलता थी। 1614 ई. में एक सुसज्जित सेना सहित वह राणा के विरूद्ध मोर्चा लेने भेजा गया। सफलता का सेहरा इसी के ऊपर था, राणा अमरसिंह ने आत्मसमर्पण कर दिया। खुर्रम ने भी उसके साथ सम्मानपूर्वक बरताव किया। मेवाड़ विजय ने खुर्रम की कीर्ति को चार चांद लगा दिये और वह साम्राज्य का प्रमुख स्तम्भ समझा जाने लगा। इसके बाद उसे दक्षिण का गवर्नर नियुक्त कर 'शाह' की उपाधि से विभूषित किया गया। राजकुमार ने अपनी कूटनीति तथा अथक परिश्रम से मलिक अम्बर को बालघाट लौटाने तथा अहमदनगर और दूसरे दुर्गों को समर्पित करने के लिए सहमत कर लिया। इससे मुगल दरबार में राजकुमार की कूटनीति का सिक्का बैठ गया। जहांगीर की प्रसन्नता का पारावार न रहा। उसने मुक्तहस्त से खुर्रम पर सम्मान की वर्षा की और गुजरात प्रान्त भी उसे सौंप दिया।
'नूरजहां गुट' के साथ मिले खुर्रम को दस वर्ष ही बीते थे कि उसका भाग्य-सितारा अचानक झिलमिलाने लगा। नूरजहां अपने दामाद शहरयार को उत्तराधिकारी घोषित करना चाहती थी, अतः खुर्रम की कीर्ति में उसे अपने लक्ष्य की असफलता का आभास होने लगा, इसलिए वह उससे द्वेष करने लगी। अतः वह नित्यप्रति उसको आघात पहुंचाने का प्रयत्न करने लगी जिससे तंग आकर खुर्रम ने विद्रोह कर दिया। शिकार की भांति उसका जोरों से पीछा किया गया और उसे घोर कष्टों का सामना करना पड़ा। 1626 ई. में वह अपने पिता की शरण लेने को बाध्य हुआ। उसे क्षमा कर दिया गया और फिर वही सम्मान प्राप्त हुआ जो पहले था।

सिंहासनारोहण

जहांगीर की मृत्यु के पश्चात् नूरजहां ने अपनी शक्ति को बनाये रखने का अंतिम प्रयास किया। उसने अपने भाई आसफखां को जो कि खुर्रम का श्वसुर और उसका पूर्ण समर्थक था, कैद करने का प्रयत्न किया। उसने अपने दामाद शहरयार को एकपत्र लिखा कि वह अपनी पार्टी को सुदृढ़ बनाने तथा अपनी सैनिक-शक्ति को बढ़ाने का पूर्ण प्रयत्न करे ताकि उत्तराधिकार-संघर्ष में विजय प्राप्त की जा सके। परन्तु आसफखां एक राजनीतिज्ञ था। वह एक क्षण में अपनी बहन के इरादों को भांप गया, इसलिए उसने साम्राज्ञी से मिलने से इंकार कर दिया। प्रत्युत्तर में उसने साम्राज्य के प्रमुख व्यक्तियों और सभासदों को खुर्रम की ओर कर खुसरो के पुत्र दावरबखा को सम्राट घोषित कर दिया ताकि गद्दी खाली न रहे। साथ ही उसने दक्षिण में शाहजहां को सूचना दी कि वह शीघ्रातिशीघ्र दिल्ली पहुंचे। इसी बीच खुर्रम के प्रतिद्वन्द्वी शहरयार ने अपने आपको सम्राट घोषित कर दिया और लाहौर स्थित शाही खजाने पर अधिकार कर लिया तथा वहां के अमीरों की सम्पत्ति जब्त कर ली। खुले हाथों खजाना लुटाकर उसने शीघ्र ही एक विशाल सेत्ता एकत्रित कर ली। आसफखां जो शाहजहां की ओर से युद्ध की तैयारी कर रहा था, लाहौर के पास शहरयार से जा जुझा। शहरयार परास्त हुआ। उसे बंदी बना लिया गया तथा उसकी आंखें निकलवा ली गयीं। इसी बीच शाहजहां भी तेजी से दिल्ली के लिए रवाना हुआ। मार्ग के प्रमुख सरदारों, विशेषतया मेवाड़ के राणा कर्ण, ने उसका भव्य स्वागत किया। रास्ते में से ही उसने अपने श्वसुर को गुप्त सूचना भेजी कि दावरबख्श सहित समस्त राजकुमारों को मौत के घाट उतार दिया जाये। शाहजहां के हृदयहीन श्वसुर ने इस आदेश का अक्षरशः पालन किया। 1628 ई. की फरवरी के आरम्भिक सप्ताह में वह आगरा के निकट आ पहुंचा और एक अत्यन्त शुभ घडी में शहर में प्रवेश किया तथा अत्यन्त हर्ष व उल्लास के साथ गद्दी पर बैठा। उसके नाम का खुतबा पढ़ा गया। आसफखां को 8.000 जात और 8000 सवारों का मनसब प्रदान कर साम्राज्य का वजीर नियुक्त किया गया। महाबतखां का मनसब बढ़ाकर 7,000 जात और 7,000 सवार कर दिया गया और उसको 'खानखाना' की उपाधि से विभूषित किया गया। नूरजहां को एक उचित पेन्शन दे दी गयी और उसने लाहौर के निकट शांतिपूर्वक जीवन व्यतीत करने का निश्चय किया। यही उसने अपने मृत पति की यादगार में एक मकबरा बनवाया और दान-दक्षिणा के अनेक कार्य करने के उपरान्त 1645 ई. में मृत्यु को प्राप्त हुई।

शाहजहां के शासनकाल की घटनाएं

बुन्देलखण्ड का विद्रोह (1628 ई.)
बुन्देलखण्ड नरेश जुझारसिंह ने 1628 ई. में मुगलों के विरूद्ध विद्रोह कर दिया, किन्तु सम्राट ने इसे दबा दिया। शाहजहां ने क्षतिपूर्ति के रूप में भारी रकम वसूल की तथा जुझारसिंह को दक्षिण में मनसबदार बनाकर भेज दिया गया। पांच वर्ष पश्चात् उसने पुनः विद्रोह किया, किन्तु वह भी असफल रहा। वह गोंडवाना भाग गया, जहां उसका वध कर दिया। 1639 ई. में चम्पतराय नामक सरदार का विद्रोह भी दबा दिया गया।

खानजहां लोदी का विद्रोह (1629-30 ई.)
मुगलों के दक्षिणी प्रान्त के सूबेदार खानजहां लोदी ने विद्रोह कर दिया, जिसे शाहजहां ने दबा दिया। उसे दरबार में भेज दिया गया, किन्तु कुछ समय पश्चात् वह मुगल दरबार से दक्षिण में भाग गया तथा अहमदनगर के शासक से सांठ-गांठ करने लगा। मुगलों ने उसे धौलपुर नामक स्थान पर परास्त किया। वह बुन्देलखण्ड की ओर भागा, किन्तु मार्ग में मारा गया।

अकाल एवं महामारी (1630-32 ई.)
1630 ई. से 1632 ई. के मध्य गुजरात, खानदेश तथा दक्षिण के प्रदेशों में पड़े भीषण अकाल से हजारों लोग मारे गये तथा वस्तुओं के दाम अत्यधिक बढ़ गये। मिर्जा अमीर कजवीनी के अनुसार, "अकाल के दिनों में वस्तुओं के मूल्य सात गुना बढ़ गये। दुकानदार आटे में पिसी हुई हड्डियां मिलाकर बेचने लगे और लोग कुत्तों का मांस खाकर अपना पेट भरते थे।" अब्दुल हमीद लाहौरी के अनुसार, "भूख के कारण लोग एक-दूसरे को खाने लगे और उन्हें पुत्र के प्राणों की अपेक्षा उसका मांस अधिक प्रिय लगने लगा।"।
अकाल के बाद फैली महामारी से हजारों लोग मारे गए एवं गांव के गांव उजड़ गए। शाहजहां ने इस समय भूमि-कर का 1/3 भाग माफ कर दिया तथा पीड़ितों को मुफ्त रोटी देने के लिए जगह-जगह भोजन भण्डार खोले गए।

मुमताज महल की मृत्यु
शाहजहां की सबसे प्रिय बेगम मुमताज अथवा अरजमन्द बानों बेगम की 1631 ई. में चौदहवें बच्चे को जन्म देने के बाद मृत्यु हो गयी। शाहजहां ने उसे दिए वचन के अनुसार जीवन भर दूसरा विवाह नहीं किया। उसने मुमताज की याद में ताजमहल बनवाया, जो दाम्पत्य प्रेम की अनुपम मिसाल है।

पुर्तगालियों का दमन (1632 ई.)
भारत के पश्चिमी तट पर बसे पुर्तगाली अपनी व्यापारिक सुविष्ट ाओं का दुरुपयोग करते हुए लोगों को बलपूर्वक ईसाई बना रहे थे। अतः शाहजहां ने 1632 ई. में सेना भेजकर उन्हें बुरी तरह परास्त किया। चार हजार पुर्तगालियों को बंदी बना लिया गया। बर्नियर के अनुसार, “बादशाह ने पादरियों, साधुओं और बच्चों के प्रति क्रूरता का व्यवहार किया। विवाहिरा और अविवाहित सुन्दर स्त्रियों को शाही हरम में रख लिया और जो सुन्दर नहीं थी या जिनकी आयु अधिक थी, वे उमरावों को दे दी गयी। छोटे-छोटे बच्चों को खतना करवाकर उन्हें गुलाम बना लिया गया। प्रौढ़ों को भयभीत किया गया कि यदि वे इस्लाम धर्म स्वीकार नहीं करेंगे तो उन्हें हाथी के पैरों से कुचलकर मार दिया जाएगा, अतः विवश होकर उन्होंने अपना धर्म छोड़ दिया।” यह वर्णन अतिश्योक्तिपूर्ण है। शाहजहां की पुर्तगालियों के प्रति नीति न्यायसंगत थी।
अन्य विजयें-शाहजहां ने 1632 ई. में माओ तथा नूरपुर के विद्रोह में जागीरदारों का दमन किया तथा 1637-38 ई. में तिब्बत के शासक से विशाल धनराशि वसूल की।

शाहजहां की दक्षिण नीति

शाहजहां अपना साम्राज्य विस्तार करना चाहता था। वह सुन्नी होने के कारण दक्षिण के शिया मुसलमान राज्यों को नष्ट करना चाहता था। अतः उसने दक्षिण विजय का निश्चय किया। अहमदनगर विजय-अहमदनगर में मलिक अम्बर का पुत्र फतेह खां मंत्री था। वह अहमदनगर के शासक को अपने रास्ते से हटाना चाहता था। शाहजहां ने उससे सांठ-गांठ कर ली। फतेह खां ने सल्तान निजामशाह का वध करवा दिया तथा एक अवयस्क शहजादे को गद्दी पर बैठाकर उसने राज्य की शक्ति अपने हाथ में ले ली। अब मराठा सरदार शाहजी भौंसले तथा बीजापुर के शासक आदिल खां ने दौलताबाद के दुर्ग में उसे घेर लिया। फतेह खां ने शाहजहां द्वारा उसकी सहायता करने के लिए भेजी गई सेना पर ही आक्रमण कर दिया, किन्तु वह परास्त हुआ। फतेह खां ने साढ़े दस लाख रुपये में अहमदनगर का दुर्ग मुगलों को दे दिया एवं स्वयं मुगल मनसबदार बन गया। अहमदनगर के अवयस्क शासक को बंदी बनाकर ग्वालियर भेज दिया गया। अहमदनगर पर अधिकार करने के बाद भी मुगलों का बाहरी चौकियों पर नियंत्रण न था। शाहजी भौंसले ने आदिल खां की मदद से अहमदनगर को मुक्त कराने का असफल प्रयास किया। शाहजहां ने बीजापुर के शासक के साथ गठजोड़ कर अहमदनगर को आपस में बांट लिया।

बीजापुर एवं गोलकुण्डा अभियान
अहमदनगर विजय के बाद शाहजहां ने बीजापुर एवं गोलकुण्डा के शासकों को अपनी अधीनता स्वीकार करने व वार्षिक कर चुकाने के आदेश दिये।
गोलकुण्डा के शासक कुतुबशाह ने उसकी अधीनता मानते हुए वार्षिक कर चुकाने, उसके नाम का खुतबा पढ़ने तथा सिक्कों पर उसका नाम अंकित करने का वचन दिया, लेकिन बीजापुर के शासक आदिलशाह ने इससे इंकार कर दिया। अतः मुगलों ने बीजापुर को घेर लिया। लम्बे संघर्ष के बाद 1636 ई. में दोनों में संधि हो गयी, जिसके अनुसार-
  • बीजापुर के शासक आदिलशाह ने मुगल सत्ता को स्वीकार कर लिया तथा बीस लाख रुपए वार्षिक कर देने का वचन दिया।
  • उसने मुगलों की अधीनता वाले गोलकुण्डा के शासक को परेशान न करने का वचन दिया।
  • आदिलशाह को बीजापुर का शासक बनाए रखा तथा उसे पचास लाख रुपये आय वाले अहमदनगर के पचास परगने दिये गये।

दक्षिण के सूबेदार के रूप में औरंगजेब की सफलतायें
शाहजहां ने अपने दक्षिण के साम्राज्य, जिसमें खानदेश, बरार, तेलंगाना, दौलताबाद आदि शामिल थे, का औरंगजेब को सूबेदार बनाया। उसे दो बार सूबेदार बनाया गया। प्रथम, 1636-44 ई. तक तथा द्वितीय 1653-57 ई. तक।
अपनी सूबेदारी के पहले काल में औरंगजेब ने नासिक के निकटवर्ती प्रदेशों पर विजय प्राप्त की तथा शासन व्यवस्था को सुदृढ़ बनाया। 1644 ई. में उसने सूबेदारी छोड़ दी, जब वह अपनी बीमार बहन को आगरा देखने आया।
1653 ई. में वह पुनः दक्षिण का सूबेदार बनाया गया। उसने वहां की खराब शासन-व्यवस्था एवं आर्थिक स्थिति को सुधारा। 1656 ई. में उसने गोलकुण्डा को वार्षिक कर न देने का आरोप लगाते हुए उस पर आक्रमण कर दिया। वस्तुतः वह इस शिया राज्य को नष्ट करना चाहता था, किन्तु सम्राट के आदेश से उसे घेरा उठाना पड़ा।
शाहजहां के आदेश पर औरंगजेब ने नवम्बर, 1656 ई. में बीजापुर पर आक्रमण कर दिया तथा बीदर व कल्याणी पर अधिकार कर लिया, किन्तु परिणाम निकलने से पहले ही सम्राट के आदेश पर युद्ध समाप्त हो गया। अतः दोनों पक्षों में संधि हो गयी, जिसके अनुसार
  1. बीजापुर के शासक ने मुगल आधिपत्य स्वीकार कर लिया एवं डेढ़ करोड़ रुपया क्षतिपूर्ति के रूप में देने का वचन दिया।
  2. उसने कल्याणी व बीदर पर सम्राट का अधिकार स्वीकार कर लिया।

मध्य एशिया विषयक नीति
मध्य एशिया में ट्रान्स आक्सियाना को मुगल अपनी मातृभूमि मानते हुए उस पर अधिकार बनाये रखना चाहते थे। बाबर ने अपने पूर्वज तैमूर की प्राचीन राजधानी समरचन्द पर अधिकार करने का कई बार प्रयत्न किया किन्तु विफल रहा। हुमायूं भी इस प्रयत्न में असफल रहा। अकबर और जहांगीर की भी यह इच्छा पूर्ण न हो सकी। शाहजहां ने भी अपने पिता व पितामह के स्वप्न को साकार करने हेतु अनुकूल अवसर की प्रतीक्षा करने लगा।

बलख व बदख्शा पर आक्रमण
बलख और बदख्शा बुखारा राज्य के प्रदेश थे और इमामकुली यहां का शासक था। 1639 ई. में इमामकुली के भाई नजर मुहम्मद ने गद्दी हथिया ली, किन्तु वह प्रजा में अलोकप्रिय होने के कारण ख्वारिज्म और खीवा में विद्रोह हो गया। इस विद्रोह का दमन करने इमामकुली ने अपने पुत्र अब्दुल अजीज को भेजा, किन्तु अब्दुल अजीज ने भी अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह कर अपने आपको बुखारा का शासक घोषित कर दिगा। इन आंतरिक झगड़ों का लाभ उठाने के लिये शाहजहां ने काबुल के गवर्नर को एक सेना भेजी जिसने काहमर्द दुर्ग पर अधिकार कर लिया, किन्तु इस पर मुगल अधिक समय तक अपना अधिकार बनाये नहीं रख सकें। मुगलों की इस कार्यवाही से आतंकित हो नजर मुहम्मद ने अपने पुत्र से समझौता कर लिया किन्तु साथ ही वह शाहजहां से भी सहायता की प्रार्थना करता रहा। शाहजहां ने अनुकूल अवसर देखकर बलख, बुखारा व समरकंद पर अधिकार करने का निश्चय कर स्वयं काबुल गया। शाहजहां चाहता था कि पहले वह नजर मुहम्मद की सहायता करे और फिर उससे उसके प्रदेश छीन ले। नजर मुहम्मद शाहजहां की इस चाल को समझ गया और मुगल सेना की प्रगति रोकने का प्रयास करने लगा। 1646 ई. में शाहजादा मुराद ने बलख पर धावा बोल दिया। नजर मुहम्मद भागकर फारस चला गया और बलख पर मुगलों का अधिकार हो गया। किन्तु मुराद वहां की खुश्क जलवायु में अधिक न ठहर सका। अतः शाहजहां ने औरंगजेब को बलख की ओर भेजकर स्वयं काबुल आ गया। अब्दुल अजीज एक सेना लेकर औरंगजेब से जा भिड़ा, किन्तु परास्त हुआ। औरंगजेब के सैनिक भी इस प्रतिकूल जलवायु में लड़ना नहीं चाहते थे, अतः औरंगजेब आक्सस नदी से आगे न बढ़ सका। इधर नजर मुहम्मद फारस के शाह से सहायता लेकर आया और मुगल चौकियों पर आक्रमण कर दिये । विवश औरंगजेब को ट्रान्स आक्सियाना से अफगानिस्तान की ओर लौटना पड़ा। शाहजहां ने औरंगजेब को कहलवाया कि नजर मुहम्मद के क्षमायाचना करने पर उसे क्षमा प्रदान कर दी जाय। नजर मुहम्मद ने अपने पोते को क्षमा याचना के लिये भेजा। औरंगजेब ने बलख का दुर्ग व नजर उसके पोते को सौंप कर स्वयं स्वदेश लौट गया। मार्ग में औरंगजेब ने उसे खूब परेशान किया।
बलख और बदख्शा पर शाहजहां के आक्रमण पूर्णतः असफल रहे, क्योंकि अत्यधिक जन-धन की क्षति उठाकर भी वह इन पर अधिकार बनाये न रख सका। हां, इस क्षेत्र में मुगल शक्ति की धाक अवश्य जम गई थी।

कन्धार पर आक्रमण
जहांगीर के शासनकाल के अंतिम समय में फारस के शाह ने कन्धार पर अधिकार कर लिया था। अब शाहजहां ने पुनः उसे हस्तगत करने का निश्चय किया। 1629 ई. में फारस के शाह की मृत्यु के बाद फारस को गद्दी पर एक अल्पवयस्क बालक गद्दी पर बैठा। कन्धार में अलीमर्दानखां फारस के शाह की ओर से गवर्नर था। कुछ समय बाद फारस के मंत्री सारूतकी व अलीमर्दानखां की बीच तीव्र वैमनस्य हो गया। अतः अलीमर्दानखां ने कन्धार का दुर्ग मुगलों को समर्पित कर दिया। सम्राट ने अलीमर्दानखा को पुरस्कृत कर बाद में कश्मीर का गवर्नर बना दिया। उधर 1642 ई. में शाह अब्बास द्वितीय फारस का नया शासक बना। मध्य एशिया में मुगलों की असफलता से प्रोत्साहित होकर उसने कन्धार के निकट बिस्त के दुर्ग पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया। इस पर शाहजहां ने औरंगजेब को ससैन्य कन्धार की तरफ भेजा। लेकिन औरंगजेब के पहुंचने से पूर्व ही फारस की सेनाओं ने कन्धार पर आक्रमण कर दिया और फरवरी 1649 ई. में दुर्गरक्षक दौलतखां ने आत्मसमर्पण कर दिया। मई 1649 ई. में औरंगजेब ने कन्धार पहुंच कर दुर्ग को घेर लिया। मुगल सेना को भीषण क्षति उठानी पड़ी, फिर भी उसे सफलता नहीं मिली। विवश होकर, सम्राट के आदेशानुसार औरंगजेब दुर्ग का घेरा उठाकर लाहौर की तरफ लौट गया। 1652 ई. में शाहजहां ने कन्धार विजय का एक और प्रयत्न करने की दृष्टि से पुनः औरंगजेब को भेजा। इस बार औरंगजेब अपनी पूर्व विफलता को धो डालने के लिये विशेष सैनिक तैयारी के साथ कन्धार आया और मई 1652 ई. में कन्धार को घेर लिया, लेकिन फारस की तोपों के सामने मुगलों की एक न चली। अतः शाहजहां ने औरंगजेब को घेरा उठाकर लौट आने का आदेश दे दिया। अतः औरंगजेब पुनः विफल होकर लौटा और सम्राट ने उसे दक्षिण की सूबेदारी दे दी।
निरन्तर विफलताओं के बावजूद शाहजहां हतोत्साहित नहीं हुआ और इस बार यह कार्य शाहजादा दारा को सौंपा गया। दारा औरंगजेब की विफलताओं से खुश था और वह औरंगजेब को बता देना चाहता था कि वह कितनी सरलता से यह कार्य सम्पन्न कर सकता है। दारा ने इस बार अपने तोपखाने पर अधिक ध्यान दिया तथा 1653 ई. में उसने कन्धार के आस-पास के क्षेत्रों पर आक्रमण कर उसे पूर्णतः उजाड़ दिया, ताकि इस ओर फारस से कोई सहायता न आ सके। तत्पश्चात कन्धार पर इतनी भीषण गोलाबारी की कि दुर्ग की प्राचीरें हिल उठी। लेकिन फारस की तोपों ने मुगलों के तोपखाने की भी कुण्ठित कर दिया। सात महीने के संघर्ष के बाद अक्टूबर 1653 ई. में असफले मुगल सेनाएं वापिस लौट गई। इन आक्रमणों के कारण मुगल साम्राज्य की आर्थिक स्थिति भी खराब हुई और साम्राज्य को इससे कोई लाभ प्राप्त नहीं हुआ। इससे शाहजहां की प्रतिष्ठा को गहरा आघात लगा, जबकि फारस के शाह का हौसला बढ़ गया।

शाहजहां का शासनकाल मुगलकाल का स्वर्णकाल

शाहजहां का शासनकाल मुगलकाल का स्वर्णयुग कहलाता है। इस युग में सभी क्षेत्रों में उन्नति हुई।

राजनीतिक दृष्टि से स्वर्णकाल
राजनीतिक दृष्टि से शाहजहां का काल शांति तथा सुरक्षा का काल था एवं किसी प्रकार के विद्रोह का भय नहीं था। राजपूत मुगलों के हितैषी एवं मित्र थे एवं मेवाड़ भी उनकी अधीनता में था। कन्धार को छोड़कर सम्पूर्ण साम्राज्य सुरक्षित था। दक्षिणी भारत में भी मुगलों का वर्चस्व था। मराठे अभी शक्तिशाली नहीं बन पाये थे। पुर्तगालियों का दमन किया जा चुका था। इस प्रकार शाहजहां के काल में शांति व व्यवस्था थी तथा बाह्य आक्रगण व आंतरिक विद्रोह का भय नहीं था।

प्रशासनिक दृष्टि से स्वर्णकाल
शाहजहां का प्रशासन जनकल्याणकारी तथा अकबर के शासन-प्रबंध के नियमों पर आधारित था। शाहजहां ने प्रजा को सुखी बनाने का हर संभव प्रयत्न किया। फ्रांसीसी यात्री ट्रेवर्नियर के अनुसार, “सम्राट का शासन-प्रबंध पितृ-स्नेह से युक्त था और वह अपनी कार्यकुशलता के लिये विख्यात था।" विदेशी यात्री मनूची तथा खाफी खां ने उसके शासन-प्रबंध की बहुत प्रशंसा की है। वह योग्य व्यक्तियों को ही सरकारी पदों पर नियुक्त करता था तथा अपराधी अधिकारियों को दण्डित करता था। कुशल शासन-प्रबंध के कारण साम्राज्य की आर्थिक स्थिति अच्छी थी एवं प्रजा सुखी थी। तत्कालीन इतिहासकार खाफी खां ने लिखा है, "यद्यपि विजेता और व्यवस्थापक की दृष्टि से अकबर श्रेष्ठतम था, परन्तु अपनी भूमि और अर्थ व्यवस्था, शांति और व्यवस्था और राज्य के प्रत्येक विभाग के अच्छे शासन-प्रबंध की दृष्टि से ऐसे किसी बादशाह ने भारत में शासन नहीं किया, जिसमें शाहजहां की तुलना की जा सके।"

आर्थिक दृष्टि से स्वर्णकाल
शाहजहां के समय व्यापार–वाणिज्य का बहुत विकास हुआ। उसने किसानों की स्थिति में सुधार किया। अतः जिस परगने की आय अकबर के समय तीन लाख रुपये थी, वह बढ़कर दस लाख रुपये हो गयी। मोरलैण्ड के अनुसार, "शाहजहां का शासनकाल कृषकों के लिए सुख और शांति का समय था और केवल राजस्व विभाग की वार्षिक आय 21 करोड़ रुपये थी।' बलख, बदख्शा एवं कन्धार के अभियानों तथा भवन निर्माण पर अत्यधिक खर्च करने के बावजूद मृत्यु के समय उसके राज-कोष में 400 लाख रुपये थे। विदेशी यात्री बर्नियर के अनुसार, "बंगाल में जीवन रक्षक वस्तुओं की बहुलता थी, जिसके कारण विदेशी यात्री इस राज्य में बसना चाहते थे। चीनी, कपास तथा रेशमी कपड़े की कमी नहीं थी, बल्कि ये वस्तुएं विभिन्न देशों को निर्यात की जाती थी। विदेशी व्यापार साम्राज्य की आय का महत्वपूर्ण साधन था।"

सामाजिक दृष्टि से स्वर्णकाल
शाहजहां अपनी प्रजा को सुखी बनाने के लिये हर संभव प्रयत्न करता था। उसने दक्षिण के अकाल के समय किसानों का 1/3 भाग माफ कर दिया तथा पीड़ित व्यक्तियों के लिये मुफ्त भोजन की व्यवस्था की। वह निष्पक्ष न्याय का समर्थक था। ट्रेवर्नियर के अनुसार, "शाहजहां अपनी प्रजा को अपनी संतान के समान समझता था और उस पर एक सम्राट के समान नहीं, वरन् एक पिता के समान राज्य करता था। उसने विदेशियों से भी अच्छा व्यवहार किया। एस.आर. शर्मा के अनुसार, "यद्यपे साम्राज्य में धनवानों की अपेक्षा निर्धनों की संख्या कहीं अधिक थी, तथापि जनसाधारण के लिये जीवन रक्षक वस्तुओं का अभाव नहीं था।"

सांस्कृतिक दृष्टि से स्वर्णकाल
शाहजहां ने कला तथा साहित्य को उदारतापूर्वक संरक्षण दिया, जिससे इनका बहुत विकास हुआ। के.टी. शाह के अनुसार, "शाहजहां के समय में असाधारण सांस्कृतिक उन्नति का मुख्य कारण यह था कि सम्राट बड़ी उदारता से प्रत्येक कलाकार को संरक्षण प्रदान करता था और समय-समय पर पुरस्कारों द्वारा उन्हें प्रोत्साहन भी देता था।"

स्थापत्य कला
शाहजहां महान भवन निर्माता था। उसने दिल्ली, आगरा आदि स्थानों पर अनेक भव्य भवन बनवाये। पहले भवन लाल पत्थर के बनते थे, जबकि शाहजहां के समय में अधिकतर भवन संगमरमर के बने। उसके द्वारा निर्मित भवन पूर्ववर्ती भवनों से भव्य तथा कलात्मक हैं। पर्यो ब्राउन के अनुसार, "शाहजहां ने मुगल भवनों को लाल पत्थरों से निर्मित पाया और उन्हें संगमरमर के रूप में छोड़ा।"
शाहजहां ने अपनी बेगम मुमताजमहल की याद में आगरा में ताजमहल बनवाया, जो विश्व की सुन्दरतम इमारतों में गिना जाता है। लेखकों ने इसे 'दाम्पत्य प्रेम तथा अनुराग का द्वितीय स्मारक', 'काल के गाल पर अमिट आंसू', 'पत्थर द्वारा प्रेम की अभिव्यक्ति', 'संगमरमर में साकार स्वप्न' आदि कहकर इसकी प्रशंसा की जाती है। फ्रांसीसी यात्री ट्रेवर्नियर के अनुसार, "ताजमहल 22 वर्षों में बनकर पूरा हुआ, तथा इस पर तीन करोड़ रुपये खर्चा आया। पर्सी ब्राउन के अनुसार, "यमुना के तट पर, आकर्षक उद्यानों के मध्य स्थित इस द्वितीय भवन को देखकर ऐसी अनुभूति होती है, मानों प्रकृति और मानव ने मिलकर संजोया हो। शाहजहां ने आगरा में मोती मस्जिद बनवायी। निहालसिंह के अनुसार, मोती मस्जिद को बनाने वाले कलाकारों ने इसके पत्थरों द्वारा यह सूक्ष्म विचार प्रकट करने का प्रयत्न किया है, "आत्मा सांसारिक बन्धनों से मुक्त होने के लिये निरन्तर अभिलाषी है।' शाहजहां ने दिल्ली में लालकिला, जामा मस्जिद, दीवाने खास आदि बनवाये। उसने नाचते हुए मोर की शक्ल में एक करोड़ रुपये की लागत का प्रसिद्ध तख्तेताऊस बनवाया। अब्दुल हमीद लाहौरी के अनुसार, "इस सुनहरी तख्त में अस्सी लाख रुपये के हीरे जड़े हुए थे। उनमें एक ऐसा रत्न भी था, जिसका मूल्य एक लाख रुपये था।" इसे नारिदशाह अपने साथ ले गया था।

चित्रकला
शाहजहां स्वयं एक श्रेष्ठ चित्रकार था। उसके दरबार में मीर हाशम, चित्रमणी, अनूपचित्र, फकीरउल्ला आदि चित्रकार शोभा बढ़ाते थे। उसके उदार संरक्षण के कारण चित्रकला का बहुत विकास हुआ।

संगीतकला
शाहजहां संगीत प्रेमी तथा अच्छा गायक था। उसने रामदास, महापात्र, जगन्नाथ, जनार्दन भट्ट, लाल खां, सुखसेन आदि संगीतज्ञों को अपने दरबार में आश्रय दिया था। सर जे.एन सरकार के अनुसार, "सम्राट स्वयं एक अच्छा गायक था। गाते समय उसकी आवाज इतनी मधुर होती थी कि श्रोतागण आनन्द-विभोर हो उठते थे। शाहजहां के दरबार में कुछ गायिकाएं भी थीं, जो अपने संगीत द्वारा सम्राट तथा उसके दरबारियों का मनोरंजन करती थी।"

साहित्य
शाहजहां के समय हिन्दी एवं फारसी साहित्य का बहुत विकास हुआ। उसके दरबारी विद्वान सुन्दरदास ने 'सुन्दर श्रृंगार' नामक ग्रंथ लिखा। उसे शाहजहां ने कविराय एवं महाकविराय की उपाधियां प्रदान की थी। सेनापति कविन्द्राचार्य ने 'कविता रत्नाकर' नामक ग्रंथ लिखा। उसके दरबार में अब्दुल कासिम, शेख नजीरी, शेख बहलोल कादिरी आदि फारसी विद्वान् थे। इस काल में अनेक फारसी ग्रंथ रचे गये, जिनमें अब्दुल हमीद लाहौरी कृत 'बादशाहनामा' प्रमुख है। डॉ. बी.पी. सक्सेना के अनुसार, "शाहजहां का युग प्रयः उस समय से मिल जाता है, जिसे हिन्दी भाषा और साहित्य की प्रगति का सबसे गौरवमय युग कहा जाता है।"
इस प्रकार शाहजहां के शासनकाल में सभी क्षेत्रों में उन्नति हुई तथा साम्राज्य गौरव के चरम शिखर पर जा पहुंचा। एल.पी. शर्मा के अनुसार, "शाहजहां के युग में बहुत कुछ ऐसा था, जो कीर्तिमय था तथा उसमें अद्वितीय सम्पन्नता के अनेक ऐसे संशयरहित चिन्ह थे, जिसके कारण उसे साम्राज्य का स्वर्णकाल कहना न्यायपूर्ण है।" एलफिन्स्टन ने शाहजहां के काल के बारे में लिखा है, "शाहजहां का काल भारतीय इतिहास में सर्वाधिक समृद्धि का काल था।" विलियम हण्टर ने लिखा है, "शाहजहां के समय में मुगल साम्राज्य अपनी शक्ति और ऐश्वर्य की पराकाष्ठा पर पहुंच गया।" सर रिचर्ड बर्न ने लिखा है, "शाहजहां ने 31 वर्ष शासन किया था। उस समय उसके वंश का साम्राज्य प्रतिष्ठा और सम्पत्ति की चरम सीमा पर पहुंच गया।"

स्वर्णकाल के विपक्ष में तर्क

कुछ इतिहासकार शाहजहां के शासनकाल को स्वर्णयुग नहीं मानते हैं। एडवर्डस् एवं गैरेट के अनुसार, “विदेशी यात्रियों तथा भारतीय इतिहासकारों ने शाहजहां के सुन्दर भवनों और मुगल दरबार की सज्जा से प्रभावित होकर ही उसके शासनकाल की प्रशंसा की है।" बर्नियर के अनुसार, "देश के प्रमुख व्यक्ति अच्छे कानूनों से अनभिज्ञ नहीं थे, लेकिन उच्च पदाधिकारी उनकी उपेक्षा करते थे। देश के प्रमुख व्यक्तियों में अवसर से लाभ उठाने की प्रवृत्ति थी। प्रान्तीय सूबेदार दुराचारी, अत्याचारी और महत्वाकांक्षी थे। प्रजा में निराशा व्याप्त थी और उसका उत्साह मर चुका था। किसानों की बुरी तरह दमन किया जाता था। दरबार की शान बनाये रखने के लिये और प्रजा के दमन के लिये रखी हई विशाल सेना का खर्च उठाने के कारण देश बर्बाद हो गया था। प्रजा के जो कष्ट थे, उनका वर्णन करने के लिये काफी शब्द ही नहीं मिलते।"
  • एस.आर. शर्मा तथा डॉ. वी.ए. स्मिथ उसके शासनकाल को स्वर्णयुग मानकर अपशकुन का सूचक मानते हैं। 
  • शाहजहां के शासनकाल को स्वर्ण युग माने जाने के विपक्ष में निम्न तर्क दिये जाते है।
  • शाहजहां ने जहांगीर के शासनकाल में उसके विरुद्ध विद्रोह किया था।
  • शाहजहां द्वारा भवन निर्माण पर व्यय किये गये अपार धन से साम्राज्य की आर्थिक स्थिति दुर्बल हो गयी। एडवर्ड्स एवं गैरेट के अनुसार, "इन भव्य भवनों के निर्माण में जो अपार सम्पत्ति व्यय की गयी थी, वह अमीरों के धर को छीनकर, लूटमार कर, प्रजा पर अत्यधिक कर लगाकर इकट्ठी की गयी थी। मजदूरों से प्रायः जबरदस्ती काम लिया जाता था। इस प्रकार राजसी शान-शौकत के लिये जनसाधारण का अत्यधिक शोषण किया गया था।
  • शाहजहां के मध्य एशिया तथा कन्धार के असफल अभियानों से साम्राज्य के जन-धन की अपार क्षति हुई एवं मुगल गौरव को धक्का लगा।
  • शाहजहां के समय जनता की स्थिति खराब थी। उसके शासनकाल में पड़े अकाल में, "मनुष्य एक दूसरे को खाने लगे थे और पुत्र प्रेम की अपेक्षा पुत्र के मांस को अधिक अच्छा समझने लगे थे।" लाहौरी के अनुसार, "अंत में निर्धनता इस हद तक पहुंच गयी कि मनुष्यों ने एक-दूसरे का भक्षण करना आरम्भ कर दिया। मृतकों की संख्या इतनी अधिक थी कि सड़कों का आवागमन रुक गया और वे मनुष्य, जिनकी यातनाएं मृत्यु के रूप में परिणत न हुई तथा जिनमें चलने-फिरने की शक्ति थी, वे अन्य कस्बों तथा गांवों में चले गये।"
  • शाहजहां ने भोग-विलास के लिये धन प्राप्त करने हेतु प्रजा पर अत्यधिक कर लगाये। वी.ए. स्मिथ के अनुसार, "किसानों से उपज का आधा भाग कठोरता से वसूल किया जाता था। सड़कें बहुत सुरक्षित न थीं। प्रजा के सुख की दृष्टि से शाहजहां का शासन बहुत सराहनीय नहीं माना जा सकता।" जे.एन. सरकार के अनुसार, 'शाहजहां ठाट-बाट का शौकीन तथा आमोद-प्रिय होते हुए भी अत्यन्त परिश्रमी सम्राट था, तो भी उसके राज्यकाल में मुगल वंश की अवनति का बीजारोपण हुआ।"
  • शाहजहां ने हिन्दू मंदिरों को ध्वस्त किया, यात्रा कर लगाया तथा हिन्दुओं के साथ भेद-भाव किये। उसने शियाओं के साथ भी खराब व्यवहार किया। डॉ. ए.एल. श्रीवास्तव के अनुसार, "उसके शासनकाल में प्रतिक्रियावादी भावना के बीज बोये जा चुके थे, जो फलस्वरूप मुगल वंश व साम्राज्य के पतन का मूल कारण बने। उसकी धार्मिक कट्टरता तथा असहिष्णुता ने ही औरंगजेब की प्रतिक्रियावादी शासन को जन्म दिया था।'
अतः इन दोषों के आधार पर हम शाहजहां के शासनकाल को मुगलकाल का स्वर्ण युग तो नहीं कह सकते, किन्तु उसके शासनकाल को शानदार युग मानने से भी इंकार नहीं किया जा सकता।

शाहजहां के पुत्रों में उत्तराधिकार का संघर्ष
सितम्बर, 1657 ई. में शाहजहां गंभीर रूप से बीमार पड़ गया। ऐसे समय उसके चारों पुत्रों दारा, शुजा, औरंगजेब तथा मुराद में हए भयंकर उत्तराधिकार संघर्ष में औरंगजेब विजयी हुआ। उसने शाहजहां को कैद में डाल दिया तथा गद्दी सभी दावेदारों का सफाया कर गद्दी पर बैठ गया।

उत्तराधिकार युद्ध के कारण


शाहजहां का बीमार होना
सितम्बर 1657 ई. में शाहजहां ऐसा बीमार पड़ा कि उसके बचने की कोई आशा नहीं रही। अत: चारों पुत्रों ने गद्दी पर बैठने के लिये परस्पर खूनी संघर्ष शुरू कर दिया।

राजकुमारों का चरित्र
शाहजहां के चारों पुत्र परस्पर विरोधी थे और उनमें कोई प्रेम नहीं था।
सबसे बड़ा शाहजादा दारा उदार विचारों वाला एवं शाहजहां की आंखों का तारा था। मनूची के अनुसार, "दारा शिकोह शानदार व्यक्तित्व और कुशल स्वभाव वाला पुरुष था। वह असाधारण, स्वतंत्र विचारवाला, उदार एवं दयालु था।" दारा के हिन्दू एवं ईसाईयों के प्रति उदार होने के कारण कट्टर-सुन्नी उसे पसंद नहीं करते थे। दारा को अपनी शक्ति पर बड़ा घमण्ड था।
शाहजहां के दूसरे नम्बर का पुत्र शुजा साहसी, वीर एवं बुद्धिमान था, किन्तु कूटनीतिज्ञ एवं चतुर नहीं था। वह विलास प्रेमी था। वह शिया होने के कारण सुन्नियों में अप्रिय था।
शाहजहां के तीसरे नम्बर का पुत्र औरंगजेब सबसे येग्य, वीर, साहसी, कूटनीतिज्ञ,चतुर एवं कुशल सेनानायक था। इरविन के अनुसार, "उसका जीवन सादा और परिश्रमी था। जीवन में उसने शायद ही कभी अवकाश मनाया हो। वह उन असाधारण मनुष्यों में एक था, जिनका विश्वास होता है कि उनके बुरे से बुरे और स्वार्थमय कार्य ईश्वरीय प्रेरणा से होते हैं।" उसने शहजादे के रूप में कई अभियानों पर अपनी वीरता का परिचय दिया। बर्नियर के अनुसार, "वह एक मंजा हुआ शासक और महान् सम्राट था, जिसमें अद्वितीय निपुणता और विद्वत्ता भरी थी। औरंगजेब के कट्टर मुस्लिम होने के कारण मुस्लिम जनता उसे पसंद करती थी।
सबसे छोटा शहजादा मुराद वीर तथा साहसी था, किन्तु वह बहुत मूर्ख व अनाड़ी था और राजनीति के दांव-पेच नहीं समझता था। नह महापान एनं निलासिता का प्रेमी था। लेनमूल के अनुसार, "मुराद एक नीर नतगुतक, सिंह की तरह नीर, कूटनीति में मूर्ख, शासन कार्यों में पूर्ण निराश और लोड़ की धार पर अखण्ड विश्वास करने वाला व्यक्ति था। वह युद्ध क्षेत्र में साक्षातमय होता और शराबखाने में अपने साथियों में सबसे अधिक पीने वाला था।"
अतः चारों शहजादों के परस्पर विरोधी चरित्रों के कारण उनमें उत्तराधिकार युद्ध अनिवार्य था।

उत्तराधिकार का निश्चित नियम न होना
मुगलकाल में उत्तराधिकार का निश्चित नियम न होने के कारण पिता के विरूद्ध पत्र का विद्रोह एक सामान्य बात हो गयी थी। सम्राट का सबसे शक्तिशाली तथा योग्य पत्र तलवार के बल पर गद्दी पर बैठ जाता था। यद्यपि बड़े शहजादे की स्थिति दृढ़ होती थी, किन्तु अन्य शहजादों का भी गद्दी पर अधिकार होता था। अतः शाहजहां के पुत्रों में उत्तराधिकार युद्ध होना स्वाभाविक था।

शहजादों के पास स्वतंत्र साधन होना
उत्तराधिकार युद्ध से पहले दारा पंजाब एवं उत्तरी-पश्चिमी सीमाप्रांत का, शुजा बंगाल व उड़ीसा का, औरंगजेब दक्षिण एवं मुराद गुजरात का सूबेदार था। अतः ये शहजादे अपनी सेना एवं धन के बल पर युद्धलड़ सकते थे।

मुगल परम्परा
मुगल परम्परा में सत्ता प्राप्ति के लिए परिजनों का वध अनुचित नहीं माना जाता था। सफल शहजादा गद्दी के सभी दावेदारों, यहां तक कि अपने सगे भाइयों को भी मार देता था। अतः सभी शहजादे इस तरह मरने की अपेक्षा लड़कर मरना उचित समझते थे। शाहजहां के पुत्रों का भी यही विचार था।

दारा को उत्तराधिकारी नियुक्त करना तथा उसके अविवेकपूर्ण कार्य
शाहजहां ने दारा को अपना उत्तराधिकारी बना दिया। अपने पिता की बीमारी एवं अन्य महत्वपूर्ण समाचारों को गुप्तरखने के दारा ने प्रयास किये, क्योंकि उसे अपने भाइयों के विरोध का डर था। अत: उसने कुछ अविवेकपूर्ण कार्य किये। उसने आगरा से गुजरात, बंगाल तथा दक्षिण की ओर जाने वाले मार्ग बंद करवा दिए तथा दरबार में अपने भाइयों के प्रतिनिधियों को अपने पक्ष में कर लिया। उसके इन कार्यों से उसके भाई आशंकित हो गये और युद्ध की तैयारी करने लगे।

शाहजहां की दुर्बलता
शाहजहां अपनी कमजोरी के कारण झरोखे में दर्शन नहीं दे सका, अपनी मृत्यु की अफवाह का खण्डन नहीं कर सका और अपने पुत्रों के उत्तराधिकार युद्ध को न टाल सका। वह अपने सरदारों एवं __ अमीरों के सहयोग से भी कोई कदम नहीं उठा सका। अतः उसे इस खूनी संघर्ष को मूक दर्शक बनकर देखना पड़ा।

युद्ध की घटनायें
दारा के उत्तराधिकरी बनने का समाचार मिलने पर सभी शहजादे युद्ध की तैयारी में जुट गए। शुजा ने स्वयंग बंगाल का तथा मुराद ने स्वयं को गुजरात का स्वतंत्र शासक घोषित करते हुए अपने नाम के सिक्के चलाए । औरंगजेब ने कूटनीति का परिचय देते हुए ऐसी कोई घोषणा नहीं की। उसने सेना तैयार की एवं अपनी बहन रोशनआरा के माध्यम से राजधानी के समाचार प्राप्त करने लगा। उसने मुराद से एक गोपनीय संधि कर संघर्ष में विजयी होने पर साम्राज्य को आपस में बांट लेने का वचन दिया।

बहादुरगढ़ का युद्ध (1658 ई.)
शुजा ने विशाल सेना सहित आगरा की ओर कूच किया। बनारस के पास बहादुरगढ़ नामक स्थान पर वह दारा के पुत्र सुलेमान शिकोह एवं राजपूत सेनापति जयसिंह से परास्त हुआ और बंगाल की तरफ भाग गया।

धरमत का युद्ध (अप्रैल, 1658 ई.)
आपस में संधि करने के पश्चात् औरंगजेब तथा मुराद की संयुक्त सेना ने आगरा की तरफ कूच किया। दारा ने जसवंत सिंह राठौड़ एवं मीर कासिम खां के नेतृत्व में विशाल सेना उनके विरुद्ध भेजी। उज्जैन के निकट भरमत नामक स्थान पर हुए युद्ध में औरंगजेब तथा मुराद की विजय हई। जसवंत सिंह राजस्थान भाग गया और औरंगजेब तथा मुराद ने आगरा की ओर प्रस्थान किया।

सामूगढ़ का युद्ध (मई, 1658 ई.)
धरमत की पराजय के बाद दारा ने विशाल सेनाजुटाकर 29 मई, 1658 ई. को सामूगढ़ नामक स्थान पर औरंगजेब व मुराद से युद्ध किया, किन्तु वहपरास्त हुआ। दुर्भाग्यवश दारा पराजित हुआ था क्योंकि "दारा ने अपने हाथी के घायल हो जाने पर उससे उतरकर घोड़े पर सवार होने की गलती की।
सेना ने उसे मरा हुआ मान लिया। केवल इसी एक कार्य ने युद्ध के परिणाम को बदल दिया।" स्मिथ के अनुसार, “सामूगढ़ के युद्ध ने क्रियात्मक रूप से उत्तराधिकार सम्बन्धी युद्ध का निर्णय कर दिया और औरंगजेब को हिन्दुस्तान का स्वामी बना दिया।"

औरंगजेब का आगरा पर अधिकार (जून, 1658 ई.)
औरंगजेब ने आगरा को घेर लिया तथा यमुना नदी से किले व शहर को जाने वाली पानी की सप्लाई काट दी। विवश शाहजहां ने दुर्ग औरंगजेब को सौंप दिया। औरंगजेब ने शाहजहां को कैदखाने में डाल दिया, जहां 1666 ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। उसे ताजमहल में ही दफना दिया गया।

मुराद का वध
सामूगढ़ के युद्ध के पश्चात् मुराद को संदेह हो गया कि औरंगजेब पूरा साम्राज्य हड़पना चाहता है। अतः उसने बीस हजार सैनिकों को एकत्रित किया। चालाक औरंगजेब ने एक दाव में मुराद को बहुत शराब पिलायी तथा उसके सैनिकों को अपनी तरफ मिलाकर उसका वध कर दिया।

दारा व उसके पुत्रों का वध
सामूगढ़ में पराजय के बाद दारा मुल्तान, सिन्ध, काठियावाड़, गुजरात आदि स्थानों पर भटकता फिरा, किन्तु उसने साहस नहीं छोड़ा। उसने एक बार पीछा करती हुई मुगल सेना का सामना किया, किन्तु वह परास्त हुआ। अब उसने सिन्ध के सूबेदार मलिक जीवन के यहां आश्रय लिया, किन्तु उसने विश्वासघात करते हुए उसे तथा उसके पुत्र सिफर शिकोह को औरंगजेब के हवाले कर दिया। औरंगजेब ने दारा का फटे कपड़ों में गंदे हाथी पर जुलूस निकाला तथा उस पर इस्लाम छोड़ने का आरोप लगाकर उसका वध करवा दिया। उसके सिर को शाहजहां के पास भेजा गया तथा धड़ को दिल्ली में घुमाया गया। अंत में उसे हुमायूं के मकबरे में दफना दिया गया। उसके साथ उसके छोटे पुत्र सिफर शिकोह का भी वध कर दिया गया तथा कुछ समय बाद उसके बड़े पुत्र सुलेमान शिकोह को भी जहर देकर मरवा दिया गया।

शुजा का अंत
बहादुरगढ़ के युद्ध में परास्त होने के बाद शुजा पटना भाग गया था। औरंगजेब ने उसे इलाहाबाद के निकट परास्त किया, किन्तु वह अराकान भाग गया, जहां 1660 ई. में मग जाति के लोगों ने उसका वध कर दिया। इस प्रकार अपने भाइयों का सफाया करके तथा अपने बाप को कैद करके औरंगजेब 1658 में गद्दी पर बैठा।

शाहजहां के अंतिम दिन

आगरा दुर्ग के शाह बुर्ज में आठ वर्ष तक शाहजहां ने बंदी जीवन व्यतीत किया। इस महल में रहते हुए वह प्रायः ताजमहल को देखा करता था। यद्यपि उसको सर्वसुखदायक सामग्री सुलभ थी तथा उसकी प्रिय पुत्री जहानआरा सदैव उसकी सेवा में रहती थी, फिर भी शंका के कारण बाहरी सम्पर्क का उसे अवसर नहीं दिया जाता था। उससे भेंट करने के लिए सरकारी आज्ञा प्राप्त करनी पड़ती थी। दारा, मुराद और शुजा की मृत्यु से वृद्ध पिता की हृदय वेदना तीव्र हो उठी। उसने अपना सारा समय ईश्वरीय प्रार्थना में लगा दिया। उसे केवल अपनी पुत्री जहानआरा की पितृभक्तिपूर्ण सेवाओं से संतुष्टि मिलती थी। जनवरी 1666 ई. में वह बीमार हुआ और 22 जनवरी 1666 ई. को 74 वर्ष की आयु में इस संसार को छोड़ चल बसा। कहा जाता है कि अपने अंतिम क्षण तक वह ताजमहल की ओर अपलक नेत्रों से देखता रहा। कठोर औरंगजेब अपने पिता की मृत्यु के बाद भी बैर को न भुला पाया और शाही ठाठ से उसका अंतिम संस्कार करने की अनुमति नहीं दी। साधारण नौकरों व हिजड़ों के द्वारा उसकी अर्थी उठवाकर ताजमहल में अपनी प्रियतमा मुमताज के पार्श्व में उसको दफना दिया गया।

शाहजहां का मूल्यांकन

शाहजहां के चरित्र और सफलताओं के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। वी.ए. स्मिथ के मतानुसार शाहजहां मनुष्य और शासक दोनों ही रूप में असफल रहा। किन्तु तत्कालीन भारतीय इतिहासकारों व यूरोपीय यात्रियों के मतानुसार शासक के रूप में शाहजहां महान था और पूर्णतया सफल था। किन्तु उपर्युक्त दोनों ही मत आशिक रूप से ही सत्य है।
शाहजहां आंशिक रूप से उदार, प्रगतिशील और अपने पिता व पितामह का योग्य उत्तराधिकारी था। स्मिथ के अनुसार वह अपने पिता का आज्ञाकारी पत्र नहीं था, क्योंकि वह कई वर्षों तक अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह करता रहा। किन्तु सत्य तो यह है कि यह परम्परा तो उसे पूर्वजों से प्राप्त हुई और फिर अपनी सौतेली मां नूरजहां के ईर्ष्यापूर्ण व्यवहार से वह विद्रोह करने पर विवश हुआ था। अतः इसमें शाहजहां को दोष देना अनुचित है। स्मिथ ने यह भी लिखा है कि ममताजमहल की मृत्यु के बाद भी अनेक पत्नियों को रखने के कारण वह आदर्श पति भी नहीं था। लेकिन मुगल राजकुमार तो सभी बहुपत्नीवादी थे और दाम्पत्य प्रेम के प्रति भक्ति की भावना नहीं रखते थे, लेकिन शाहजहां ने तो 20 वर्षों तक मुमताज के प्रति अपने प्रेम को अचल और पवित्र रखा था। यद्यपि वह व्यक्तिगत जीवन में सुशील, दयालु और सज्जन था किन्तु उसमें मैत्री और दया के भाव इतनी मात्रा में नहीं पाये जाते जितने बाबर, अकबर और जहांगीर में परिलक्षित होते हैं। शाहजहां कट्टर सुन्नी था, अतः अन्य धर्मों के प्रति असहिष्णु था, फिर भी उसने अपने पुत्र दारा की धार्मिक उदारता का कभी विरोध नहीं किया। शाहजहां को साहित्य व ललित कलाओं से अत्यधिक प्रेम था। दरबार में हो अथवा यात्रा में, वह सदैव कलाप्रेमियों से घिरा रहता था। हिन्दुओं को उच्च पद देने में उसने अपने पिता तथा पितामह का अनुकरण किया था।
शाहजहां अपने पिता की अपेक्षा अधिक योग्य सैनिक तथा सेनापति था। अपनी वृद्धावस्था तक वह युद्ध की योजनाएं बनाता रहा और सैन्य संचालन करता रहा। लेकिन फारस के शाह से कन्धार लेने के तीनों प्रयास निराशा तथा जन-धन व मानहानि में समाप्त हुए। उसकी मध्य एशिया विषयक नीति भी पूर्णतः असफल रही। इससे यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि शाहजहां के समय मुगल सेना की दशा इतनी अच्छी नहीं थी जितनी अकबर के समय थी। शाहजहां का राज्यकाल भारत के मध्ययुगीन इतिहास में स्वर्णयुग के नाम से प्रसिद्ध है। यह साम्राज्य की समृद्धि, वैभव और स्थापत्यकला की दष्टि से सत्य कहा जा सकता है। शाहजहां के काल की कला और साहित्य का विस्तृत वर्णन यथा स्थान पर आगे किया जायेगा।
शाहजहां उच्च कोटि का राजनीतिज्ञ व कुशल प्रबंधक था। उसने मनसबदारों का वेतन भी कम करने का प्रयास किया तथा उन्हें अपने पदानुसार सेना की एक निश्चित संख्या रखने के लिए भी बाध्य किया। उसने भूमि कर की दर 1/3 से बढ़ा कर 1/2 कर दी, जिससे राज्य की आय बढ़कर 4 करोड़ रुपये वार्षिक हो गयी। कृषकों पर भार अब अधिक हो गया, जिससे उनकी दशा खराब हो गयी। शाहजहां ने भी अपने पूर्वजों की भांति अंतिम न्यायाधीश का कार्य करना जारी रखा। वह दुष्ट मनुष्यों को कठोर दण्ड देने तथा निष्पक्ष न्याय करने के लिए प्रसिद्ध था। राय भारमल ने शाहजहां के न्याय प्रशासन का वर्णन करते हुए लिखा है, "यद्यपि वह देश इतना बड़ा है फिर भी फरियादें इतनी कम थी कि सप्ताह में केवल एक दिन बुधवार ... न्याय के लिए रखा गया था। ... यदि कोई व्यक्ति अपने मुकदमे के फैसले से संतुष्ट न होता तो वह सूबेदार अथवा सूबे के काजी के यहां अपील करता और मामले की पुन: जांच की जाती तथा फैसला बड़ी सावधानी और विवेक से किया जाता जिससे कहीं ऐसा न हो कि कोई सम्राट के सामने जिक्र कर दे कि न्याय नहीं हुआ है।" अतः अपनी धर्मान्धता तथा कर वृद्धि की नीति का अनुसरण करते हुए भी वह एक जनप्रिय शासक था।
शाहजहां के राज्यकाल में मुगल वंश की अवनति का बीजारोपण भी हुआ। उसकी धर्मान्धता तथा अनादरता औरंगजेब के कट्टर शासन की अग्रदूत थी। उसकी धन लोलुपता ने उसे जनता का भार बढ़ाने के लिए बाध्य किया। शाहजहां के दरबार का वैभव और शाही ठाठ जनता के शोषण पर आधारित थी। उसकी भेंट तथा उपहार स्वीकार करने की प्रथा ने एक प्रकार से रिश्वत को प्रोत्साहन दिया और राजकीय परिवार तथा अमीरों व सामन्तों में भी यह एक प्रथा का रूप धारण कर गई। इससे राज्य प्रबंध में भ्रष्टाचार फैल गया। उसकी विलासप्रियता ने जनता का नैतिक स्तर नीचा करने में योगदान दिया। एलफिंस्टन ने तो यहां तक लिखा है कि शाहजहां का अपनी लड़की जहानआरा से यौन सम्बन्ध था। डा. वी.ए.पी. सक्सेना ने इस आरोप का जबरदस्त खण्डन किया है। शाहजहां के चारित्रिक एवं प्रशासनिक दोषों पर पर्दा डालकर केवल ऊपरी तड़क भड़क के आधार पर शाहजहां के काल को स्वर्ण युग की संज्ञा देना उचित नहीं है।

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