जलवायु किसे कहते हैं? (मौसम, विज्ञान, आपातकाल) | jalvayu kise kahate hain

जलवायु किसे कहते हैं?

किस विस्तृत क्षेत्र में वर्ष की विभिन्न ऋतुओं की औसत मौसमी दशाओं को उस क्षेत्र की जलवायु कहते हैं। औसत मौसम दशाओं की जानकारी एक बड़े क्षेत्र के अनेक वर्षों (लगभग 35 वर्ष) के एकत्र किये आंकड़ों की गणना के आधार पर की जाती है। उदाहरणार्थ राजस्थान की जलवायु गर्म और शुष्क है, केरल की उष्ण कटिबन्धीय वर्षा वाली जलवाय है. ग्रीनलैंड की शीत मरुस्थली जलवायु हैं, और मध्य एशिया की जलवायु शीतोष्ण महाद्वीपीय हैं। किसी प्रदेश की जलवायु अपेक्षाकृत स्थाई होती है।
किसी स्थान के तापमान, वायुदाब, पवन, आद्रता, वर्षण, धूप, मेघाच्छादन आदि के संदर्भ में थोड़े समय की वायुमंडलीय दशा को उस स्थान का मौसम कहते हैं।
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वर्ष की वह अवधि जिसमें मौसम दशायें लगभग समान होती हैं और जो पृथ्वी के अक्ष के झुकाव और उसके द्वारा सूर्य का परिक्रमण करने के परिणाम स्वरूप बनती हैं, को ऋतु कहते हैं।
किसी बड़े क्षेत्र के पिछले अनेक वर्षों के औसत मौसम की दशाए, जो अपेक्षाकृत स्थाई होती हैं, को उस क्षेत्र की जलवायु कहते हैं।

मौसम
तापमान, वायुदाब, पवन, आर्द्रता तथा वर्षण मौसम और जलवायु के प्रमुख तत्व हैं। ये एक दूसरे के साथ क्रिया एवं प्रतिक्रिया करते हैं। ये तत्व पवन की दिशा एवं गति, सूर्याताप की मात्रा मेघाच्छन्नता तथा वर्षण की मात्रा, आदि वायुमंडलीय दशाओं को प्रभावित करते हैं। इन वायुमंडलीय तत्वों को ही मौसम और जलवायु के अवयव कहा जाता है। इन अवयवों का भिन्न-भिन्न स्थानों और समयों पर अलग-अलग प्रभाव होता है। यह प्रभाव एक सीमित क्षेत्र तथा छोटी अवधि के लिए हो सकता है। हम प्रायः इस प्रभाव को मौसम के रूप में व्यक्त करते हैं, जैसे धूपवाला गर्मी, सर्दी, वर्षा, तूफान, आदि का मौसम। इनमें से मौसम का प्रत्येक रूप किसी न किसी अवयव की ओर संकेत करता है, जो किसी स्थान और समय विशेष में सर्वाधिक प्रभावशाली होता है। अतः किसी स्थान का छोटी अवधि के लिये एक या एक से अधिक जलवायु अवयवों के संदर्भ में वायुमंडल की दशा, उस स्थान का मौसम कहलाता है। एक ही समय में निकट स्थित दो स्थानों पर अलग-अलग मौसम हो सकता है।

मौसम पूर्वानुमान
आनेवाले मौसम की किसी विधि द्वारा पहले से जानकारी होना बहुत ही महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिये आप किसी दिन लम्बी पैदल यात्रा पर जाने की योजना बनाते हैं, परन्तु आपको यह मालूम नहीं कि उस दिन वर्षा होगी अथवा नहीं। आपको पहले से ज्ञात हो जाये कि उस दिन वर्षा नहीं होगी तो आप निश्चिन्त होकर अपनी योजना को कार्यरूप दे सकते हैं। इसी प्रकार किसान, नाविक, वायुयान चालक, पर्यटक और अन्य बहुत से लोग अपने-अपने हित के लिए पहले से यह जानने में रूचि लेते हैं कि आनेवाला मौसम कैसा होगा। इसलिए समाचार पत्र, मौसम का विवरण, मौसम का पूर्वानुमान और इस जानकारी को दर्शाने वाला मानचित्र रोजाना छापते हैं। मौसम उपग्रहों की मदद से अब मौसम के पूर्वानुमान की जानकारी अधिक विश्वसनीय मिल रही है। दूरदर्शन पर मौसम की दशाओं की जानकारी रोज दी जा रही है। जब कभी चक्रवात या खतरनाक मौसम के आने की सम्भावना होती है, तो रेडियो, दूरदर्शन और समाचार पत्रों द्वारा चेतावनी दी जाती है, जिससे लोग मौसम के खतरों से अपनी जान और माल की रक्षा कर सकें।
मौसम कार्यालय सारे देश में फैली अपनी अनेक बेधशालाओं द्वारा तापमान, पवन, मेघाच्छादन, वर्षा और अन्य वायुमंडलीय घटनाओं के बारे में आंकड़े एकत्र करता है। इसी प्रकार की जानकारी गहरे समुद्र में चलने वाले जलयानों से भी प्राप्त होती है। इन आंकड़ों के विश्लेषण एवं अध्ययन द्वारा अगले 48 घंटों या एक सप्ताह के मौसम के पूर्वानुमान की जानकारी दी जाती है। यह जानकारी यूनाइटेड किंगडम जैसे देश, जहाँ मौसमी परिवर्तन बहुत जल्दी-जल्दी होते हैं, के लिये अति उपयोगी हैं।

ऋतु
आप जानते हैं कि वायुमंडलीय दशाओं में विभिन्नताओं के अनुसार वर्ष को कई ऋतुओं में बाँटा जाता है। ऋतु वर्ष की वह विशिष्ट अवधि है, जिसमें मौसम की दशायें लगभग समान रहती हैं। ऋतु के बदलने के साथ मौसम दशायें भी बदल जाती हैं। अतः ऋतु वर्ष की वह लम्बी अवधि है, जिसमें मौसम संबंधी विशिष्ट दशायें होती हैं और जो पृथ्वी के अक्ष के झुकाव और उसके द्वारा सूर्य का परिक्रमण करने के परिणाम स्वरूप बनती हैं। प्रति वर्ष ऋतुओं का एक समान चक्र दोहराया जाता है।
शीतोष्ण कटिबन्धीय प्रदेशों में तीन-तीन माह की अवधि की चार ऋतुएँ मानी गई हैं। इनके नाम हैं- बसन्त, ग्रीष्म, पतझड़ और शीत। हमारे देश में तीन प्रमुख ऋतुएँ-शीत, ग्रीष्म और वर्षा हैं।

भारतीय मौसमविज्ञान विभाग द्वारा चार प्रमुख ऋतुएँ मानी गई हैं। इनके नाम हैं-
  1. शीत ऋतु (दिसम्बर से फरवरी)
  2. ग्रीष्म ऋतु (मार्च से मई)
  3. आगे बढ़ते मानसून की ऋतु या वर्षा ऋतु (जून से सितम्बर) और
  4. पीछे हटते मानसून की ऋतु (अक्टूबर से नवम्बर)।
उत्तर भारत में परम्परागत छ: ऋतुएँ मानी जाती हैं। इनके नाम हैं-
  • बसन्त ऋतु (चैत्र-वैशाख या मार्च-अप्रैल)
  • ग्रीष्म ऋतु (ज्येष्ठ-आषाढ़ या मई-जून)
  • वर्षा ऋतु (श्रावण-भाद्रपद या जुलाई-अगस्त)
  • शरद् ऋतु (अश्विन-कार्तिक या सितम्बर-अक्टूबर)
  • हेमन्त ऋतु (मार्गशीष-पौष या नवम्बर-दिसम्बर) तथा
  • शिशिर ऋतु (माघ–फाल्गुन या जनवरी-फरवरी)।
विषुवत वृत्त के ऊपर सूर्य की किरणें वर्ष भर लगभग लम्बवत् पड़ती हैं। अतः विषुवतीय प्रदेशों में तापमान सारे वर्ष एक समान रहता है। इस कारण विषुवतीय प्रदेशों में कोई ऋतु नहीं होती। तटीय भागों में समुद्र का प्रभाव ऋतुओं की भिन्नता को कम कर देता है। ध्रुवीय प्रदेशों में केवल दो ऋतुएँ होती हैं-लम्बी शीत ऋतु और छोटी ग्रीष्म ऋतु।

मौसम और जलवायु के अन्तर को निम्नलिखित तालिका द्वारा स्पष्ट किया गया है।

मौसम जलवायु
1. मौसम में किसी सीमित क्षेत्र की वायुमण्डलीय दशाओं की लघु अवधि (प्रायः एक दिन या एक सप्ताह) का अध्ययन किया जाता है। 1. जलवायु में, बड़े क्षेत्र की लम्बी अवधि की मौसम संबंधी दशाओं के औसत का अध्ययन किया जाता है।
2. मौसम वायुमंडलीय तत्त्वों, जैसे तापमान अथवा आर्द्रता में से किसी एक से भी प्रभावित हो सकता है। 2. जलवायु वायुमण्डल के विभिन्न तत्त्वों के संयुक्त प्रभाव की देन है।
3. मौसम अक्सर बदलता रहता है। 3. यह लगभग स्थायी है।
4. इसका प्रभाव किसी देश के छोटे से भाग में अनुभव किया जाता है। 4. जलवायु के प्रभाव को किसी महाद्वीप के विशाल क्षेत्र में देखा जा सकता है।
5. किसी स्थान पर वर्ष में विभिन्न प्रकार के मौसमों का अनुभव किया जा सकता है। 5. किसी स्थान पर एक ही प्रकार की जलवायु होती है।

जलवायु विज्ञान

भौतिक भूगोल की एक शाखा है जिसके अंतर्गत सम्पूर्ण पृथ्वी अथवा किसी स्थान विशेष की जलवायु का अध्ययन किया जाता है। भौतिक पर्यावरण के विभिन्न घटकों में जलवायु महत्वपूर्ण घटक है। जलवायु को प्रादेशिक विभिनता की कुंजी कहते हैं। मानव एवं उसके भौतिक पर्यावरण के बीच होने वाली क्रिया प्रतिक्रिया के विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि मानव के क्रियाकलापों खान-पान रहन-सहन वेशभूषा बोलचाल एवं संस्कृति सभी पर जलवायु का स्पष्ट प्रभाव पड़ता है। मौसम एक अल्पकालिक वायुमंडलीय दशाओं का घोतक होता है जबकि जलवायु किसी स्थान विशेष की दीर्घकालीन वायुमण्डलीय दशाओं जैसे तापमान, दाब, पवन, आर्द्रता, वर्षा आदि का औसत होता है। हंबोलट ने पृथ्वी की अपने अक्ष पर झुकाव को क्लाइमा कहा, इसीलिए हंबोल्ट को जलवायु विज्ञान का पिता कहा जाता है।

जलवायु को प्रभावित करने वाले कारक

संसार के विभिन्न प्रदेशों में तापमान, आर्द्रता एवं वर्षण में अन्तर पाया जाता है। आप जानते हैं कि ये अन्तर विभिन्न जलवायु दशाओं में रहने वाले लोगों के रहन-सहन के तौर-तरीकों को प्रभावित करते हैं। विभिन्न जलवायु दशाओं को समझने से पूर्व हमारे लिये यह जरूरी है कि हम उन सभी कारकों को जानें जो किसी स्थान या प्रदेश की जलवायु को प्रभावित करते हैं।

(क) अक्षांश अथवा विषुवत वृत्त से दूरी
विषुवत वृत्त के निकटवर्ती स्थान दूरस्थ स्थानों की अपेक्षा अधिक गर्म होते हैं। इसका प्रमुख कारण विषुवत् वृत्त पर सूर्य की किरणें हमेशा लगभग लम्बवत् पड़ती हैं। शीतोष्ण और ध्रुवीय कटिबन्धों में सूर्य की किरणें तिरछी पड़ती हैं। हम पहले पढ़ चुके हैं कि किसी भी क्षेत्र में लम्बवत् किरणें तिरछी किरणों की अपेक्षा अधिक सकेन्द्रिक होती हैं। इसके अतिरिक्त तिरछी किरणों की अपेक्षा लम्बवत् किरणों को धरातल पर पहुँचने में वायुमण्डल की कम दूरी तय करनी पड़ती है। यही कारण है कि निम्न अक्षांशों में उच्च अक्षांशों की अपेक्षा तापमान ऊँचा रहता है। विषुवत् वृत्त के निकट होने के कारण मलेशिया में इंग्लैंड (विषुवत वृत्त से दूर) की अपेक्षा अधिक गर्मी पड़ती है।

(ख) समुद्र तल से ऊँचाई
हम सब जानते हैं कि पर्वतों पर मैदानों की अपेक्षा अधिक ठण्ड रहती है। शिमला अधिक ऊँचाई पर स्थित होने के कारण ही जालन्धर की अपेक्षा अधिक ठण्डा है यद्यपि दोनों नगर एक ही अक्षांश पर स्थित हैं। तापमान ऊँचाई बढ़ने के साथ घटता जाता है। प्रत्येक 165 मीटर की ऊँचाई पर औसतन 1° सेल्सियस तापमान कम हो जाता है। इस प्रकार ऊँचाई बढ़ने के साथ-साथ तापमान निरन्तर कम होता रहता है।

(ग) महाद्वीपीयता अथवा समुद्र से दूरी
जल बहत देर में गर्म होता है और बहत देर में ठंडा होता है। समुद्र तट के निकटवर्ती स्थानों की जलवायु सम होती हैं। समुद्र के इस समकारी प्रभाव के कारण तट के निकट के स्थानों का ताप परिसर कम और आर्द्रता अधिक होती है। महाद्वीपों के आन्तरिक भाग समुद्र के इस समकारी प्रभाव से वंचित रहते हैं। अतः वहाँ ताप परिसर अधिक और आर्द्रता कम होती है। उदाहरणार्थ मुम्बई और नागपुर दोनों नगर लगभग एक ही अक्षांश पर स्थित हैं, परन्तु समुद्र के प्रभाव के कारण मुम्बई में नागपुर की अपेक्षा नीचे तापमान रहते हैं और अधिक वर्षा होती हैं।

(घ) प्रचलित पवनों का स्वरूप
समुद्र की ओर से आने वाली पवनें (अभितट पवनें) नमी से युक्त होती हैं और वे अपने मार्ग में पड़ने वाले क्षेत्रों में वर्षा करती हैं। महाद्वीपों के आन्तरिक भागों से समुद्र की ओर आने वाली पवनें (अपतट पवनें) शुष्क होती हैं और वे वाष्पीकरण में सहायक होती हैं। भारत में ग्रीष्म कालीन मानसून पवनें समुद्र से आती हैं। अतः वे देश के अधिकांश क्षेत्र पर वर्षा करती हैं। इसके विपरीत शीतकालीन मानसून पवनें स्थल भाग से आने के कारण सामान्यतया शुष्क होती हैं।

(ङ) मेघाच्छादन
मेघ विहीन मरुस्थलीय भागों में दिन के समय वायु के अत्यधिक गर्म होने के कारण छाया में भी ऊँचे तापमान पाये जाते हैं। रात के समय यह गर्मी धरातल द्वारा शीघ्र विकिरित हो जाती है। अतः मरुस्थलों में दैनिक ताप परिसर अधिक होता है। इसके विपरीत बादलों से घिरे आकाश और भारी वर्षा के कारण तिरुवनन्तपुरम में ताप परिसर बहुत कम होता है।

(च) समुद्री धाराएं
समुद्री जल में तापमान और घनत्व की समानता बनाये रखने में समुद्र का जल एक स्थान से दूसरे स्थान को गतिमान रहता है। समुद्री धाराएं जल की गतियाँ हैं जो उच्च तापमान से निम्न तापमान तथा निम्न तापमान से उच्च तापमान की ओर एक निश्चित दिशा में बहती हैं। गर्म धाराएं तटवर्ती भागों के तापमान को बढ़ाकर कभी-कभी वर्षा में सहायक होती हैं; जबकि ठण्डी समुद्री धाराएं तटवर्ती भागों का तापमान कम कर, कोहरा उत्पन्न करती हैं। उत्तरी अटलांटिक महासागर में बर्जन नामक बन्दरगाह (नार्वे) गर्म उत्तरी अंध महासागरीय प्रवाह के कारण जाड़े में बर्फ के जमने से बचा रहता है, जबकि कनाडा का क्यूबैक बन्दरगाह जाड़े के महीनों में ठण्डी लैब्राडोर धारा के प्रभाव में आकर बर्फ से जम जाता है। यद्यपि क्यूबैक बन्दरगाह अपेक्षाकृत निम्न अक्षांशों में स्थित है। समुद्र की ओर से आने वाली पवन गर्म धारा के ऊपर से गुजरते समय गर्म हो जाती है और आन्तरिक भागों के तापमान को ऊँचा कर देती है। इसी प्रकार ठण्डी धाराओं के ऊपर से गुजरने वाली पवनें ठण्डी होकर आन्तरिक भागो में तापमान को कम करके, कोहरा और धुंध उत्पन्न करती हैं।

(छ) पर्वत मालाओं की स्थिति
पर्वत मालायें हवाओं के रास्ते में प्राकृतिक अवरोध का कार्य करती हैं। समुद्र की ओर से आने वाली पवनें मार्ग में पर्वतों के आने पर ऊपर चढ़ने को बाध्य होती है। ऊपर चढ़ने पर तापमान गिरने लगता है और पवनाभिमुख ढालों पर भारी वर्षा करती हैं। फिर वे पर्वतों के दूसरी दिशा में नीचे उतरती हैं, जिसे पवनाविमुख ढाल कहा जाता है। पवनाविमुख ढाल वर्षा रहित होता है तथा वृष्टि छाया प्रदेश कहा जाता है। महान हिमालय वाष्प युक्त मानसूनी पवनों को तिब्बत जाने में रूकावट पैदा करते हैं और उत्तर की ओर से आने वाली ठण्डी हवाओं को भारत में आने से रोकते हैं। इसी कारण से भारत के उत्तरी मैदानों में भारी वर्षा होती हैं जबकि तिब्बत, एक स्थायी वृष्टि छाया प्रदेश बना हुआ है।

(ज) भूमि का ढाल एवं अभिमुखता
भूमि के मन्द ढाल पर सूर्य की किरणों का संकेन्द्रण होने के कारण ऊपर की वायु का तापमान बढ़ जाता है। तीव्र ढाल पर किरणों के फैलने के कारण तापमान कम होता है। इसके साथ ही सूर्य के सम्मुख पड़ने वाले पर्वतीय ढाल विमुख ढाल वाले क्षेत्रों से अपेक्षाकृत गर्म होते हैं। हिमालय पर्वतमाला के दक्षिणी ढाल उत्तरी ढालों की अपेक्षा अधिक गर्म हैं।

(झ) मिट्टी की प्रकृति और वनस्पति आवरण
मिट्टी का गठन, संरचना एवं संघटन उसकी प्रकृति को बताते हैं। ये गुण अलग-अलग मिट्टियों में बदलते रहते हैं। पथरीली या रेतीली मिट्टी गर्मी की सुचालक होती हैं; जबकि काली चिकनी मिट्टी गर्मी को जल्दी सोख लेती है। वनस्पति विहीन मिटिटयों से विकिरण तेजी से होता है। अतः मरुस्थल दिन में गर्म और रात में ठंडे होते हैं। वन विहीन क्षेत्रों की तुलना में वनों से ढके क्षेत्रों में ताप परिसर कम होता है।
इन प्रमुख कारकों के सम्मिलित प्रभाव के कारण उच्च अक्षांशों की पश्चिमी तटीय भूमियाँ पूर्वी तटीय भूमियों की अपेक्षा शीत ऋतु में गर्म रहती हैं। उपोष्ण कटिबन्धों के निकट निम्न अक्षांशों की पूर्वी तटीय भूमियाँ पश्चिमी तटीय भूमियों की अपेक्षा ग्रीष्म ऋतु में गर्म रहती हैं। महाद्वीपों के सीमान्तों पर सामान्यतया अनुसमुद्री जलवायु पाई जाती है। महाद्वीपों के आन्तरिक भागों में महाद्वीपीय जलवायु पाई जाती है।
किसी स्थान या क्षेत्र की जलवायु को प्रभावित करने वाले कारक हैं - अक्षांश या विषुवत वृत्त से दूरी, समुद्र तल से ऊँचाई, महाद्वीपीयता या समुद्र से दूरी, प्रचलित पवनों का स्वरूप, मेघाच्छादन, समुद्री धाराएँ, पर्वतमालाओं की स्थिति, भूमि का ढाल एवं अभिमुखता, मिट्टी की प्रकृति और वनस्पति आवरण।

जलवायु का वर्गीकरण

मौसम के प्रमुख तत्वों के विभिन्न प्रभाव तथा पृथ्वी के धरातल के विभिन्न स्वरूपों के कारण संसार के विभिन्न भागों में विभिन्न प्रकार की जलवायु पाई जाती है। अतः जलवायु के प्रकारों की संख्या बहुत ही अधिक है। संसार के इन विविध जलवायु प्रकारों को आसानी से समझने के लिये उन्हें कुछ प्रमुख जलवायु समूहों में वर्गीकृत किया गया है और प्रत्येक जलवायु समूह में कुछ प्रमुख सामान्य विशेषतायें पाई जाती हैं। यद्यपि वैज्ञानिकों द्वारा संसार के प्रमुख जलवायु प्रकारों के उचित अध्ययन के लिये उनके वर्गीकरण के कई प्रयास किये गये हैं। चूँकि जलवायु मौसम की विभिन्न दशाओं का सम्मिलित और सामान्य रूप होता है, अतः कोई भी वर्गीकरण आदर्श नहीं माना जाता। फिर भी, यूनानियों ने तापमान और सूर्यातप के वितरण के आधार पर संसार की जलवायु को वर्गीकृत करने का प्रथम प्रयास किया। उन्होंने संसार को पाँच अक्षांशीय ताप कटिबन्धों में बाँटा।
इन ताप कटिबंधों की सीमाओं का निर्धारण पृथ्वी पर सूर्य की किरणों से बनने वाले कोण के आधार पर किया गया है।
पाँच ताप कटिबंध निम्नलिखित हैं।
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(क) ताप कटिबन्ध

(i) उष्ण कटिबंध : ताप कटिबंधों में उष्ण कटिबंध सबसे अधिक विस्तृत है। यह पृथ्वी की सतह के लगभग आधे भाग को घेरे हुए है। उष्ण कटिबंध कर्क वृत्त (23½º उ.) और मकर वृत (23½º द.) के मध्य में स्थित है। इस ताप कटिबंध में वर्ष भर सूर्य की किरणें लगभग लम्बवत् पड़ती हैं।
उष्ण कटिबंध के विषुव कालों में अर्थात 21 मार्च और 23 सितम्बर की तिथियों को मध्यान्ह कालीन सूर्य विषुवत वृत्त पर ठीक सिर के ऊपर होता है। सूर्य 21 जून को कर्क वृत्त पर और 22 दिसम्बर को मकर वृत्त पर भी लम्बवत् होता है। विषुवत वृत्त पर दिन और रात की अवधि हमेशा बराबर रहती है, अर्थात 12 घंटे की रात और 12 घंटे का दिन। दिन या रात की अवधि विषुवत वृत्त से दूर जाने पर बढ़ती जाती है और यह कर्क या मकर वृत्तों पर बढ़कर अधिकतम 13 घंटे 47 मिनट तक की हो जाती है। विषुवत वृत्त पर ताप परिसर सबसे कम होता है और अयन वृत्तों (कर्क और मकर वृत्त) की ओर बढ़ता जाता है।

(ii) शीतोष्ण कटिबंध : शीतोष्ण कटिबंध उष्ण कटिबंध के दोनों ओर स्थित हैं। उत्तरी शीतोष्ण कटिबंध कर्क वृत्त (23½º उ.) से आर्कटिक वृत्त या उत्तर ध्रुवीय वृत्त (66½º उ.) के बीच स्थित है। दक्षिणी शीतोष्ण कटिबंध की स्थिति मकर वृत्त (23½º द.) और अन्टार्कटिक वृत्त या दक्षिण ध्रुवीय वृत्त (66½º द.) के बीच हैं। इस कटिबंध में सर्य की स्थिति ठीक सिर के ऊपर कभी नहीं होती। यहाँ शीत ऋतु में रात की अवधि दिन की अवधि से लम्बी होती है और ग्रीष्म ऋतु में इसके विपरीत होती हैं ध्रुवीय वृत्तों की ओर जाने पर दिन और रात की अवधि का अन्तर बढ़ता जाता है। ध्रुवीय वृत्तों पर ग्रीष्म ऋतु में दिन की अवधि (सूर्य के प्रकाश की अवधि) 24 घंटे होती है। जब उत्तरी गोलार्ध में ग्रीष्म ऋतु होती है तो दक्षिणी गोलार्ध में शीत ऋतु होती है।

(iii) शीत कटिबंध : शीतोष्ण कटिबंध के समान ही शीत कटिबन्ध भी दोनों गोलार्धा में हैं। उत्तरी शीत कटिबंध उत्तर ध्रुवीय वृत्त (66½º उ.) और उत्तर ध्रुव (90° उ.) के बीच स्थित है। दक्षिणी शीत कटिबन्ध दक्षिण ध्रुवीय वृत्त (66½º द.) से दक्षिण ध्रुव (90° द.) तक है। शीत कटिबन्ध में सूर्य की किरणें हमेशा तिरछी पड़ती हैं और उनका आपतन कोण बहुत छोटा होता है। ध्रुवों पर ग्रीष्म ऋतु में 6 माह का दिन (सूर्य के प्रकाश की अवधि) होता है और शीत ऋतु में यहाँ 6 माह की रात होती है। यह कटिबन्ध संसार का सबसे ठंडा प्रदेश है। यहाँ धरातल पर सदैव हिम की मोटी तह जमी रहती है।
सूर्यातप एवं तापमान के वितरण के आधार पर पृथ्वी की पाँच तप कटिबन्धों में बाँटा गया है।
पाँच ताप कटिबंधों के नाम हैं - उष्ण कटिबंध, उत्तरी शीतोष्ण कटिबन्ध, दक्षिणी शीतोष्ण कटिबन्ध, उत्तरी शीत कटिबन्ध तथा दक्षिणी शीत कटिबन्ध।

जलवायु के प्रकार

ताप कटिबंधों की संकल्पना सैद्धान्तिक है। यह पृथ्वी तल पर सूर्यातप के वितरण मात्र का ही वर्णन करती है। यह आप पहले ही जान चुके हैं कि सूर्य की किरणों के आपतन कोण के अतिरिक्त और भी कई कारक किसी स्थान की जलवायु को प्रभावित करते हैं। तापमान और वर्षा के संयुक्त प्रभाव और इनके वितरण को प्रभावित करने वाले अन्य कारकों को ध्यान में रखते हुये आधुनिक वैज्ञानिकों ने जलवायु प्रकारों के कई वर्गीकरण किये हैं। डब्ल्यू. कोपेन (1846–1940) का जलवायु वर्गीकरण अपने विविध रूपान्तरित प्रकारों के रूप में सबसे ज्यादा प्रयुक्त एवं लोकप्रिय है।
कोपेन का वर्गीकरण तापमान, वर्षण तथा उनकी ऋतुवत् विशेषताओं पर आधारित है। इसमें उन्होंने जलवायु और प्राकृतिक वनस्पति के बीच दृश्य संबंधों को भी जोड़ा है। कोपेन ने अपने वर्गीकरण में संसार को पाँच वृहद जलवायु वर्गों और उनको भी तेरह उपवर्गों में विभाजित किया है।
ये जलवायु वर्ग व जलवायु उपवर्ग इस प्रकार हैं :

जलवायु वर्ग

कूट अक्षर

जलवायु प्रकार

(A) उष्ण कटिबंधीय जलवायु (सभी ऋतु गर्म)

Af

(1) उष्ण कटिबंधी वर्षा वन

Aw

(2) सवाना जलवायु

Am

(3) मानसूनी जलवायु

(B) शुष्क जलवायु

BW

(4) मरुस्थलीय जलवायु

Bs

(5) स्टेपी जलवायु

(C) नम शीतोष्ण जलवायु या मध्य अक्षांशीय नम जलवायु (शीत ऋतु कम ठंडी)

Cs

(6) भूमध्यसागरीय जलवायु

Cw

(7) चीन तुल्य जलवायु

Cf

(8) पश्चिम यूरोपीय जलवायु

(D) आर्द्र मध्य अक्षांशीय जलवायु (शीत ऋतु बहुत ठंडी)

Dw

(9) टैगा जलवायु

Df

(10) शीतल पूर्वी तट की जलवायु

(11) महाद्वीपीय जलवायु

(D) ध्रुवीय जलवायु

Et

(12) टुन्ड्रा जलवायु

Ef

(13) हिमाच्छादित प्रदेश की जलवायु

  • डब्लू. कोपेन का जलवायु वर्गीकरण तापमान, वर्षण तथा उनकी ऋतुवत विशेषताओं पर आधारित है।
  • इस वर्गीकरण के अनुसार संसार को पाँच वृहद जलवायु वर्गों और तेरह जलवायु प्रकारों में उपविभाजित किया गया है।

जलवायु परिवर्तन

जिस प्रकार की जलवायु का अनुभव हम अब कर रहे हैं वह थोड़े बहुत उतार चढ़ाव के साथ विगत 10 हज़ार वर्षों से अनुभव की जा रही है। अपने प्रादुर्भाव से ही पृथ्वी ने जलवायु में अनेक परिवर्तन देखे हैं। भूगर्भिक अभिलेखों से हिमयुगों और अंतर-हिमयगों में क्रमशः परिवर्तन की प्रक्रिया परिलक्षित होती है। भू-आकृतिक लक्षण, विशेषतः ऊँचाईयों तथा उच्च अक्षांशों में हिमानियों के आगे बढ़ने व पीछे हटने के शेष चिह्न प्रदर्शित करते हैं। हिमानी निर्मित झीलों में अवसादों का निक्षेपण उष्ण एवं शीत युगों के होने को उजागर करता है। वृक्षों के तनों में पाए जाने वाले वलय भी आर्द्र एवं शुष्क युगों की उपस्थिति का संकेत देते हैं। ऐतिहासिक अभिलेख भी जलवायु की अनिश्चितता का वर्णन करते हैं। ये सभी साक्ष्य इंगित करते हैं कि जलवायु परिवर्तन एक प्राकृतिक एवं सतत प्रक्रिया है।
भारत में भी आई एवं शुष्क युग आते जाते रहे हैं। पुरातत्व खोजें दर्शाती हैं कि ईसा से लगभग 8,000 वर्ष पूर्व राजस्थान मरुस्थल की जलवायु आर्द्र एवं शीतल थी। ईसा से 3,000 से 1,700 वर्ष पूर्व यहाँ वर्षा अधिक होती थी। लगभग 2,000 से 1,700 वर्ष ईसा पूर्व यह क्षेत्र हड़प्पा संस्कृति का केंद्र था। शुष्क दशाएँ तभी से गहन हुई हैं।
लगभग 50 करोड़ से 30 करोड़ वर्ष पहले भू-वैज्ञानिक काल के कैंब्रियन, आर्डोविसियन तथा सिल्युरियन युगों में पृथ्वी गर्म थी। प्लीस्टोसीन युगांतर के दौरान हिमयुग और अंतर हिमयुग अवधियाँ रही हैं। अंतिम प्रमुख हिमयुग आज से 18,000 वर्ष पूर्व था। वर्तमान अंतर हिमयुग 10,000 वर्ष पूर्व आरंभ हुआ था।

अभिनव पूर्व काल में जलवायु
सभी कालों में जलवायु परिवर्तन होते रहे हैं। पिछली शताब्दी के 90 के दशक में चरम मौसमी घटनाएँ घटित हुई हैं। 1990 के दशक में शताब्दी का सबसे गर्म तापमान और विश्व में सबसे भयंकर बाढों को दर्ज किया है। सहारा मरुस्थल के दक्षिण में स्थित साहेल प्रदेश में 1967 से 1977 के दौरान आया विनाशकारी सूखा ऐसा ही एक परिवर्तन था। 1930 के दशक में संयुक्त राज्य अमेरिका के बृहत मैदान के दक्षिण-पश्चिमी भाग में, जिसे 'धूल का कटोरा' कहा जाता है, भीषण सूखा पड़ा। फसलों की उपज अथवा फसलों के विनाश, बाढ़ों तथा लोगों के प्रवास संबंधी ऐतिहासिक अभिलेख परिवर्तनशील जलवायु के प्रभावों के बारे में बताते हैं। यूरोप अनेकों बार उष्ण, आर्द्र, शीत एवं शुष्क युगों से गुजरा है। इनमें से महत्त्वपूर्ण प्रसंग 10 वीं और 11 वीं शताब्दी की उष्ण एवं शुष्क दशाओं का है, जिनमें वाइकिंग कबीले ग्रीनलैंड में जा बसे थे। यूरोप ने सन् 1550 से सन् 1850 के दौरान लघु हिम युग का अनुभव किया है। 1885 से 1940 तक विश्व के तापमान में वृद्धि की प्रवृत्ति पाई गई है। 1940 के बाद तापमान में वृद्धि की दर घटी है।

जलवायु परिवर्तन के कारण

जलवायु परिवर्तन के अनेक कारण हैं। इन्हें खगोलीय और पार्थिव कारणों में वर्गीकृत किया जा सकता है। खगोलीय कारणों का सबंध सौर कलंकों की गतिविधियों से उत्पन्न सौर्यिक निर्गत ऊर्जा में परिवर्तन से है। सौर कलंक सूर्य पर काले धब्बे होते हैं, जो एक चक्रीय, ढंग से घटते-बढ़ते रहते हैं। कुछ मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार सौर कलकों की संख्या बढ़ने पर मौसम ठंडा और आर्द्र हो जाता है और तूफानों की संख्या बढ़ जाती है। सौर कलंकों की संख्या घटने से उष्ण एवं शुष्क दशाएँ उत्पन्न होती हैं यद्यपि ये खोजें आँकड़ों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण नहीं हैं।
एक अन्य खगोलीय सिद्धांत 'मिलैंकोविच दोलन' है, जो सूर्य के चारों ओर पृथ्वी के कक्षीय लक्षणों में बदलाव के चक्रों, पृथ्वी की डगमगाहट तथा पृथ्वी के अक्षीय झुकाव में परिवर्तनों के बारे में अनुमान लगाता है। ये सभी कारक सूर्य से प्राप्त होने वाले सूर्यातप में परिवर्तन ला देते हैं। जिसका प्रभाव जलवायु पर पड़ता है।
ज्वालामुखी क्रिया जलवायु परिवर्तन का एक अन्य कारण है। ज्वालामुखी उद्भेदन वायुमंडल में बड़ी मात्रा में ऐरोसोल फेंक देता है। ये ऐरोसोल लंबे समय तक वायुमंडल में विद्यमान रहते हैं और पृथ्वी की सतह पर पहुँचने वाले सौर्यिक विकिरण को कम कर देते हैं। हाल ही में हुए पिनाटोबा तथा एल सियोल ज्वालामुखी उद्भेदनों के बाद पृथ्वी का औसत तापमान कुछ हद तक गिर गया था।
जलवायु पर पड़ने वाला सबसे महत्त्वपूर्ण मानवोद्भवी कारण वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों का बढ़ता सांद्रण है। इससे भूमंडलीय ऊष्मन हो सकता है।

भूमंडलीय ऊष्मन
ग्रीन हाउस गैसों की उपस्थिति के कारण वायुमंडल एक ग्रीनहाउस की भांति व्यवहार करता है। वायुमंडल प्रवेशी सौर विकिरण का पारेषण भी करता है किंतु पृथ्वी की सतह से ऊपर की ओर उत्सर्जित होने वाली अधिकतम् दीर्घ तरंगों को अवशोषित कर लेता है। वे गैसें जो विकिरण की दीर्घ तरंगों का अवशोषण करती हैं, ग्रीनहाउस गैसें कहलाती हैं। वायुमंडल का तापन करने वाली प्रक्रियाओं को सामूहिक रूप से 'ग्रीनहाउस प्रभाव' (Green house effect) कहा जाता है।
ग्रीनहाउस शब्द का साम्यानुमान उस ग्रीनहाउस से लिया गया है। जिसका उपयोग ठंडे इलाकों में ऊष्मा का परिरक्षण करने के लिए किया जाता है। ग्रीनहाउस काँच का बना होता है। काँच प्रवेशी सौर विकिरण की लघु तरंगों के लिए पारदर्शी होता है मगर बहिर्गामी विकिरण की दीर्घ तरंगों के लिए अपारदर्शी। इस प्रकार काँच अधिकाधिक विकिरण को आने देता है और दीर्घ तंरगों वाले विकिरण को काँच घर से बाहर जाने से रोकता है। इससे ग्रीनहाउस इमारत के भीतर बाहर की अपेक्षा तापमान अधिक हो जाता है। जब आप गर्मियों में किसी बंद खिड़कियों वाली कार अथवा बस में प्रवेश करते हैं तो आप बाहर की अपेक्षा अधिक गर्मी अनुभव करते हैं। इसी प्रकार जाड़ों में बंद दरवाजों व खिड़कियों वाला वाहन बाहर की अपेक्षा गर्म रहता है। यह ग्रीनहाउस प्रभाव का एक अन्य उदाहरण है।

ग्रीनहाउस गैसें (GHGs)
वर्तमान में चिंता का कारण बनी मुख्य ग्रीनहाउस गैसें कार्बन डाईऑक्साइड (CO2) क्लोरो-फ्लोरोकार्बन्स (CFCs), मीथेन (CH4) नाइट्रस ऑक्साईड (N2O) और ओज़ोन (O3) हैं। कुछ अन्य गैसें जैसे नाइट्रिक ऑक्साइड (NO) और कार्बन मोनोक्साइड (CO) आसानी से ग्रीनहाउस गैसों से प्रतिक्रिया करती हैं और वायुमंडल में उनके सांद्रण को प्रभावित करती हैं। किसी भी ग्रीनहाउस गैस का प्रभाव इसके सांद्रण में वृद्धि के परिमाण, वायुमंडल में इसके जीवन काल तथा इसके द्वारा अवशोषित विकिरण की तरंग लंबाई पर निर्भर करता है। क्लोरो-फ्लोरोकार्बन अत्यधिक प्रभावी होते हैं। समताप मंडल में पराबैंगनी किरणों को अवशोषित करने वाली ओज़ोन जब निम्न समताप मंडल में उपस्थित होती है, तो वह पार्थिव विकिरण को अत्यंत प्रभावी ढंग से अवशोषित करती है। एक अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि ग्रीनहाउस गैसों के अणु जितने लंबे समय तक बने रहते हैं इनके द्वारा लाए गए परिवर्तनों से पृथ्वी के वायुमंडलीय तंत्र को उबरने में उतना अधिक समय लगता है। वायुमंडल में उपस्थित ग्रीनहाउस गैसों में सबसे अधिक सांद्रण कार्बन डाईऑक्साइड का है। CO2 का उत्सर्जन मुख्यतः जीवाश्मी ईधनों (तेल, गैस एंव कोयला) के दहन से होता है। वन और महासागर कार्बन डाईऑक्साइड के कुंड होते हैं। वन अपनी वृद्धि के लिए CO2 का उपयोग करते हैं। अतः भूमि उपयोग में परिवर्तनों के कारण की गई जंगलों की कटाई भी CO2 की मात्रा बढ़ाती है। अपने स्रोतों में हुए परिवर्तनों से समंजित करने के लिए CO2 को 20 से 50 वर्ष लग जाते हैं। यह लगभग 0.5 प्रतिशत की वार्षिक दर से बढ़ रही है। जलवायवी मॉडलों में जलवायु में होने वाले परिवर्तनों का आंकलन CO2 की मात्रा को पूर्व औद्योगिक स्तर से दुगुना करके किया जाता है।
क्लोरो-फ्लोरोकार्बन मानवीय गतिविधियों से पैदा होते है। ओजोन समताप मंडल में उपस्थित होती है, जहाँ पराबैंगनी किरणों ऑक्सीजन को ओज़ोन में बदल देती है। इससे पराबैंगनी किरणें पृथ्वी की सतह पर नहीं पहुँच पातीं। समताप मंडल में वाहित होने वाली ग्रीनहाउस गैसें भी ओज़ोन को नष्ट करती हैं। ओज़ोन का सबसे अधिक ह्रास अंटार्कटिका के ऊपर हुआ है। समताप मंडल में ओज़ोन के सांद्रण का ह्रास ओज़ोन छिद्र कहलाता है। यह छिद्र पराबैंगनी किरणों को क्षोभमंडल से गुज़रने देता है।
वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास किए गए हैं। इनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण 'क्योटो प्रोटोकॉल' है जिसकी उद्घोषणा सन् 1997 में की गई थी। सन् 2005 में प्रभावी हुई इस उद्घोषणा का 141 देशों ने अनुमोदन किया है क्योटो प्रोटोकॉल ने 35 औद्योगिक राष्ट्रों को परिबद्ध किया कि वे सन् 1990 के उत्सर्जन स्तर में वर्ष 2012 तक 5 प्रतिशत की कमी लायें।
वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों के सांद्रण में वृद्धि की प्रवृत्ति आगे चलकर पृथ्वी को गर्म कर सकती है। एक बार भूमंडलीय ऊष्मन के आरंभ हो जाने पर इसे उलटना बहुत मुश्किल होगा। भूमंडलीय ऊष्मन का प्रभाव हर जगह एक समान नहीं हो सकता। तथापि भूमंडलीय ऊष्मन के दुष्प्रभाव जीवन पोषक तंत्र को कुप्रभावित कर सकते हैं। हिमटोपियों व हिमनदियों के पिघलने से ऊँचा उठा समुद्री जल का स्तर और समुद्र का ऊष्मीय विस्तार तटीय क्षेत्र के विस्तृत भागों और द्वीपों को आप्लावित कर सकता है। इससे सामाजिक समस्याएँ उत्पन्न होंगी। विश्व समुदाय के लिए यह गहरी चिंता का एक और विषय है। ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करने और भूमंडलीय ऊष्मन की प्रवृत्ति को रोकने के लिए प्रयास आरंभ हो चुके हैं। हमें आशा है कि विश्व समुदाय इस चुनौती का प्रत्युत्तर देगा और एक ऐसी जीवन शैली को अपनाएगा जिससे आने वाली पीढ़ियों के लिए यह संसार रहने के लायक रह सकेगा। आज भूमंडलीय ऊष्मन विश्व की प्रमुख चिंताओं में से एक है, आइए देखें कि दर्ज तापमानों के आधार पर यह कितना गर्म हो चुका है।
तापमान के उपलब्ध आँकड़ें 19वीं शताब्दी के पश्चिमी यूरोप के हैं, इस अध्ययन की संदर्भित अवधि 1961-80 है। इससे पहले व बाद की अवधियों की तापमान की अंसगतियों का अनुमान 1961-90 की अवधि के औसत तापमान से लगाया गया है। पृथ्वी के धरातल के निकट वायु का औसत वार्षिक तापमान लगभग 14° सैल्सियस है। काल श्रेणी 1961-90 के ग्लोब के सामान्य तापमान की तुलना मे 1856-2000 के दौरान पृथ्वी के धरातल के निकट वार्षिक तापमान में असंगति को दर्शाती है।
तापमान के बढ़ने की प्रवृत्ति 20वीं शताब्दी में दिखाई दी। 20वीं शताब्दी में सबसे अधिक तापन दो अवधियों में हुआ है-1901-44 और 1977-99। इन दोनों में से प्रत्येक अवधि में भूमंडलीय ऊष्मन 0.4° सेल्सियस बढ़ा है। इन दोनों अवधियों के बीच थोड़ा शीतलन भी हुआ जो उत्तरी गोलार्ध में अधिक चिह्नित था।
20वीं शताब्दी के अंत में औसत वार्षिक तापमान का वैश्विक अध्ययन 19वीं शताब्दी में दर्ज किए गए तापमान में 0.6° सेल्सियस अधिक था। 1856-2000 के दौरान सबसे गर्म साल अंतिम दशक में दर्ज किया गया था। सन् 1998 संभवतः न केवल 20वीं शताब्दी का बल्कि पूरी सहस्राब्दि का सबसे गर्म वर्ष था।

भारत की जलवायु

भारत की जलवायु को मानसूनी जलवायु कहा जाता है। एशिया में इस प्रकार की जलवायु मुख्यतः दक्षिण तथा दक्षिण-पूर्व में पाई जाती है। सामान्य प्रतिरूप में लगभग एकरूपता होते हुए भी देश की जलवायु-अवस्था में स्पष्ट प्रादेशिक भिन्नताएँ हैं। आइए, हम दो महत्त्वपूर्ण तत्त्व तापमान एवं वर्षण को लेकर देखें कि एक स्थान से दूसरे स्थान पर तथा एक मौसम से दूसरे मौसम में इनमें किस प्रकार की भिन्नता है।
गर्मियों में, राजस्थान के मरुस्थल में कुछ स्थानों का तापमान लगभग 50° से. तक पहुँच जाता है, जबकि जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में तापमान लगभग 20° से. रहता है। सर्दी की रात में, जम्मू-कश्मीर में द्रास का तापमान -45° से. तक हो सकता है, जबकि थिरुवनंथपुरम् में यह 22° से हो सकता है।
क्या आप जानते हैं-
  • कुछ क्षेत्रों में रात एवं दिन के तापमान में बहुत अधिक अंतर होता है। थार के मरुस्थल में दिन का तापमान 50° से. तक हो सकता है, जबकि उसी रात यह नीचे गिर कर 15 से तक पहुँच सकता है। दूसरी ओर, केरल या अंडमान एवं निकोबार में दिन तथा रात का तापमान लगभग समान ही रहता है।
अब वर्षण की ओर ध्यान दें। वर्षण के रूप तथा प्रकार में ही नहीं, बल्कि इसकी मात्रा एवं ऋतु के अनुसार वितरण में भी भिन्नता होती है। हिमालय में वर्षण अधिकतर हिम के रूप में होता है तथा देश के शेष भाग में यह वर्षा के रूप में होता है। वार्षिक वर्षण में भिन्नता मेघालय में 400 से.मी से लेकर लद्दाख एवं पश्चिमी राजस्थान में यह 10 सेमी से भी कम होती है। देश के अधिकतर भागों में जन से सितंबर तक वर्षा होती है, लेकिन कुछ क्षेत्रों जैसे तमिलनाडु तट पर अधिकतर वर्षा अक्टूबर एवं नवंबर में होती है।
सामान्य रूप से तटीय क्षेत्रों के तापमान में अंतर कम होता है। देश के आंतरिक भागों में मौसमी या ऋतुनिष्ठ अंतर अधिक होता है। उत्तरी मैदान में वर्षा की मात्रा सामान्यतः पूर्व से पश्चिम की ओर घटती जाती है। ये भिन्नताएँ लोगों के जीवन में विविधता लाती हैं, जो उनके भोजन, वस्त्र और घरों के प्रकार में दिखती हैं।

भारत की जलवायु को प्रभावित करने वाले कारक

अक्षांश
कर्क वृत्त देश के मध्य भाग, पश्चिम में कच्छ के रन से लेकर पूर्व में मिजोरम, से होकर गुजरती है। देश का लगभग आधा भाग कर्क वृत्त के दक्षिण में स्थित है, जो उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र है। कर्क वृत्त के उत्तर में स्थित शेष भाग उपोष्ण कटिबंधीय है। इसलिए भारत की जलवायु में उष्ण कटिबंधीय जलवायु एवं उपोष्ण कटिबंधीय जलवायु दोनों की विशेषताएँ उपस्थित हैं।

ऊँचाई
भारत के उत्तर में हिमालय पर्वत है। इसकी औसत ऊँचाई लगभग 6,000 मीटर है। भारत का तटीय क्षेत्र भी विशाल है, जहाँ अधिकतम ऊँचाई लगभग 30 मीटर है। हिमालय मध्य एशिया से आने वाली ठंडी हवाओं को भारतीय उपमहाद्वीप में प्रवेश करने से रोकता है। इन्हीं पर्वतों के कारण इस क्षेत्र में मध्य एशिया की तुलना में ठंड कम पड़ती है।

वायु दाब एवं पवन
भारत में जलवायु तथा संबंधित मौसमी अवस्थाएँ निम्नलिखित वायुमंडलीय अवस्थाओं से संचालित होती हैं :-
  • वायु दाब एवं धरातलीय पवनें
  • ऊपरी वायु परिसंचरण तथा
  • पश्चिमी चक्रवाती विक्षोभ एवं उष्ण कटिबंधीय चक्रवात
भारत उत्तर-पूर्वी व्यापारिक पवनों (Trade Winds) वाले क्षेत्र में स्थित है। ये पवनें उत्तरी गोलार्द्ध के उपोष्ण कटिबंधीय उच्च दाब पट्टियों से उत्पन्न होती हैं। ये दक्षिण की ओर बहती, कोरिआलिस बल के कारण दाहिनी ओर विक्षेपित होकर विषुवतीय निम्न दाब वाले क्षेत्रों की ओर बढ़ती हैं। सामान्यतः इन पवनों में नमी की मात्रा बहुत कम होती है, क्योंकि ये स्थलीय भागों पर उत्पन्न होती हैं एवं बहती हैं। इसलिए इन पवनों के द्वारा वर्षा कम या नहीं होती है। इस प्रकार भारत को शुष्क क्षेत्र होना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं है।
आइए देखें क्यों?
  • कोरिआलिस बल: पृथ्वी के घूर्णन के कारण उत्पन्न आभासी बल को कोरिआलिस बल कहते हैं। इस बल के कारण पवनें उत्तरी गोलार्द्ध में दाहिनी ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में बाईं ओर विक्षेपित हो जाती हैं। इसे फेरेल का नियम भी कहा जाता है।
भारत की वायु दाब एवं पवन तंत्र अद्वितीय है। शीत ऋतु में, हिमालय के उत्तर में उच्च दाब होता है। इस क्षेत्र की ठंडी शुष्क हवाएँ दक्षिण में निम्न दाब वाले महासागरीय क्षेत्र के ऊपर बहती हैं। ग्रीष्म ऋतु में, आंतरिक एशिया एवं उत्तर-पूर्वी भारत के ऊपर निम्न दाब का क्षेत्र उत्पन्न हो जाता है। इसके कारण गर्मी के दिनों में वायु की दिशा पूरी तरह से परिवर्तित हो जाती है। वायु दक्षिण में स्थित हिंद महासागर के उच्च दाब वाले क्षेत्र से दक्षिण-पूर्वी दिशा में बहते हुए विषुवत् वृत्त को पार कर दाहिनी ओर मुड़ते हुए भारतीय उपमहाद्वीप पर स्थित निम्न दाब की ओर बहने लगती हैं। इन्हें दक्षिण-पश्चिम मानसून पवनों के नाम से जाना जाता है। ये पवनें कोष्ण महासागरों के ऊपर से बहती हैं, नमी ग्रहण करती हैं तथा भारत की मुख्य भूमि पर वर्षा करती हैं।
इस प्रदेश में, ऊपरी वायु परिसंचरण पश्चिमी प्रवाह के प्रभाव में रहता है। इस प्रवाह का एक मुख्य घटक जेट धारा है।
जेट धाराएँ लगभग 27° से 30° उत्तर अक्षांशों के बीच स्थित होती हैं, इसलिए इन्हें उपोष्ण कटिबंधीय पश्चिमी जेट धाराएँ कहा जाता है। भारत में, ये जेट धाराएँ ग्रीष्म ऋतु को छोड़कर पूरे वर्ष हिमालय के
  • जेट धारा: ये एक संकरी पट्टी में स्थित क्षोभमंडल में अत्यधिक ऊँचाई (12,000 मीटर से अधिक) वाली पश्चिमी हवाएँ होती हैं। इनकी गति गर्मी में 110 कि॰मी॰ प्रति घंटा एवं सर्दी में 184 किमी प्रति घंटा होती है। बहुत-सी अलग-अलग जेट धाराओं को पहचाना गया है। उनमें सबसे स्थिर मध्य अक्षांशीय एवं उपोष्ण कटिबंधीय जेट धाराएँ हैं।
दक्षिण में प्रवाहित हाती हैं। इस पश्चिमी प्रवाह के द्वारा देश के उत्तर एवं उत्तर-पश्चिमी भाग में पश्चिमी चक्रवाती विक्षोभ आते हैं। गर्मियों में, सूर्य की आभासी गति के साथ ही उपोष्ण कटिबंधीय पश्चिमी जेट धारा हिमालय के उत्तर में चली जाती है। एक पूर्वी जेट धारा जिसे उपोष्ण कटिबंधीय पूर्वी जेट धारा कहा जाता है गर्मी के महीनों में प्रायद्वीपीय भारत के ऊपर लगभग 14° उत्तरी अक्षांश में प्रवाहित होती है।

पश्चिमी चक्रवातीय विक्षोभ
सर्दी के महीनों में उत्पन्न होने वाला पश्चिमी चक्रवातीय विक्षोभ भूमध्यसागरीय क्षेत्र से आने वाले पश्चिमी प्रवाह के कारण होता है। वे प्रायः भारत के उत्तर एवं उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों को प्रभावित करते हैं। उष्ण कटिबंधीय चक्रवात मानसूनी महीनों के साथ-साथ अक्टूबर एवं नवंबर के महीनों में आते है तथा ये पूर्वी प्रवाह के एक भाग होते हैं एवं देश के तटीय क्षेत्रों को प्रभावित करते हैं। क्या आपने आंध्र प्रदेश एवं उड़ीसा के तटों पर उनके द्वारा किए गए विनाश के बारे में पढ़ा या सुना है?

भारत के जलवायु प्रदेश

भारत की जलवायु मानसून प्रकार की है तथापि मौसम के तत्त्वों के मेल से अनेक क्षेत्रीय विभिन्नताएँ प्रदर्शित होती हैं। यही विभिन्नताएँ जलवायु के उप-प्रकारों में देखी जा सकती हैं। इसी आधार पर जलवायु प्रदेश पहचाने जा सकते हैं। एक जलवायु प्रदेश में जलवायवी दशाओं की समरूपता होती है, जो जलवायु के कारकों के संयुक्त प्रभाव से उत्पन्न होती है। तापमान और वर्षा जलवायु के दो महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं, जिन्हें जलवायु वर्गीकरण की सभी पद्धतियों में निर्णायक माना जाता है। तथापि जलवायु का वर्गीकरण एक जटिल प्रक्रिया है। जलवायु के वर्गीकरण की अनेक पद्धतियाँ हैं। कोपेन की पद्धति पर आधारित भारत की जलवायु के प्रमुख प्रकारों का वर्णन अग्रलिखित है। कोपेन ने अपने जलवायु वर्गीकरण का आधार तापमान तथा वर्षण के मासिक मानों को रखा है। उन्होंने जलवायु के पाँच प्रकार माने हैं, जिनके नाम हैं :
  1. उष्ण कटिबंधीय जलवायु, जहाँ सारा साल औसत मासिक तापमान 18° सेल्सियस से अधिक रहता है।
  2. शुष्क जलवायु, जहाँ तापमान की तुलना में वर्षण बहुत कम होता है और इसलिए शुष्क है। शुष्कता कम होने पर यह अर्ध-शुष्क मरुस्थल (S) कहलाता है; शुष्कता अधिक है तो यह मरुस्थल (W) होता है।
  3. गर्म जलवायु, जहाँ सबसे ठंडे महीने का औसत तापमान 18° सेल्सियस और -3° सेल्सियस के बीच रहता है।
  4. हिम जलवायु, जहाँ सबसे गर्म महीने का औसत तापमान 10° सेल्सियस से अधिक और सबसे ठंडे महीने का औसत तापमान -3° सेल्सियस से कम रहता है।
  5. बर्फीली जलवायु, जहाँ सबसे गर्म महीने का तापमान 10° सेल्सियस से कम रहता है।
कोपेन ने जलवायु प्रकारों को व्यक्त करने के लिए वर्ण संकेतों का प्रयोग किया है, जैसा कि ऊपर बताया गया है। वर्षा तथा तापमान के वितरण प्रतिरूप में मौसमी भिन्नता के आधार पर प्रत्येक प्रकार को उप-प्रकारों में बाँटा गया है। कोपेन ने अंग्रेजी के बड़े वर्णों S को अर्ध-मरुस्थल के लिए और W को मरुस्थल के लिए प्रयोग किया है। इसी प्रकार उप-विभागों को व्यक्त करने के लिए अंग्रेजी के निम्नलिखित छोटे वर्णों का प्रयोग किया गया है।
जैसे- f (पर्याप्त वर्षण). m (शुष्क मानसून होते हुए भी वर्षा वन), w (शुष्क शीत ऋतु), h (शुष्क और गर्म), c (चार महीनों से कम अवधि में औसत तापमान 10° सेल्सियस से अधिक) और g (गंगा का मैदान)। इस प्रकार भारत को आठ जलवायु प्रदेशों में बाँटा जा सकता है।
कोपेन की योजना के अनुसार भारत के जलवायु प्रदेश

जलवायु के प्रकार क्षेत्र
लघु शुष्क ऋतु वाला मानसून प्रकार गोवा के दक्षिण में भारत का पश्चिमी तट
शुष्क ग्रीष्म ऋतु वाला मानसून प्रकार तमिलनाडु का कोरोमंडल तट
उष्ण कटिबंधीय सवाना प्रकार कर्क वृत्त के दक्षिण में प्रायद्वीपीय पठार का अधिकतर भाग
अर्ध शुष्क स्टेपी जलवायु उत्तर-पश्चिमी गुजरात, पश्चिमी राजस्थान और पंजाब के कुछ भाग
गर्म मरुस्थल राजस्थान का सबसे पश्चिमी भाग
शुष्क शीत ऋतु वाला मानसून प्रकार गंगा का मैदान, पूर्वी राजस्थान, उत्तरी मध्य प्रदेश, उत्तर पूर्वी भारत का अधिकतर प्रदेश
लघु ग्रीष्म तथा ठंडी आर्द्र शीत ऋतु वाला जलवायु प्रदेश अरुणाचल प्रदेश
ध्रुवीय प्रकार जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड

क्या है जलवायु आपातकाल

‘जलवायु आपातकाल’ की घोषणा किन परिस्थितियों में की जा सकती है इसकी कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है, लेकिन ब्रिस्टल और लंदन सहित कई शहरों ने पहले ही जलवायु आपातकाल घोषित किया है। हमारे पर्यावरण में ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा बढ़ने के परिणामस्वरूप जलवायु आपातकाल की स्थिति उत्पन्न हो रही है। ये गैस हमारे प्लैनेट को लगातार गर्म कर रहे हैं जो एक वैश्विक आपदा के समान है। जब तक इन गैसों को शून्य स्तर पर नहीं लाया जाता तब तक इन गैसों का परिणाम ग्लोबल वार्मिंग के रूप में सामने आएगा जो मानवता तथा दुनिया के पारिस्थितिक तंत्रों के लिये विनाशकारी होगा। इस आपातकाल की नैतिक प्रतिक्रिया का लक्ष्य मानव तथा जीव-जंतुओं समेत सूक्ष्म जीवों के अधिकतम सुरक्षा पर आधारित होना चाहिये। अधिकतम सुरक्षा का मतलब है जल्द-से-जल्द ग्लोबल वार्मिंग को कम करना और ग्लोबल कूलिंग के लिये सकारात्मक प्रयास करना।
उल्लेखनीय है कि कार्बन उत्सर्जन को कम करने का वर्तमान लक्ष्य 2050 तक इसे 80% (1990 के स्तर की तुलना में) तक लाना है।

जलवायु आपातकाल की घोषणा क्यों

संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि जलवायु परिवर्तन से होने वाली तबाही को रोकने के लिये हमारे पास सिर्फ 11 साल का समय रह गया है। एक सरकार या निकाय द्वारा जारी की गई जलवायु आपातकाल की घोषणा जलवायु परिवर्तन के लिये एक स्पष्ट कार्ययोजना तथा समुदाय-व्यापी कार्रवाई के लिये एक शक्तिशाली उत्प्रेरक हो सकती है। जलवायु आपातकाल की घोषणा की उम्मीद तब की जा सकती है जब जलवायु परिवर्तन के कारण जीवन के लिये खतरे की स्थिति उत्पन्न हो जाती है तथा सरकारों द्वारा इसके लिये कोई समुचित कार्यवाही नहीं की जाती है। जलवायु परिवर्तन निश्चित रूप से सबसे गंभीर वैश्विक पर्यावरणीय संकट है जिसका हम सामना करते हैं।

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