प्रदूषण क्या है? प्रकार, विस्तार, कारण, उपाय, उन्मूलन हेतु सुझाव | Pollution in Hindi

प्रदूषण

मानव और पर्यावरण का साथ सदा से ही रहा है परन्तु आज मानव पर्यावरण के सम्बन्ध एक खतरनाक मोड़ पर पहुँच गए हैं। मनुष्य अपनी प्रगति की धुन में पर्यावरण का शोषण इस ढंग से करता चला गया कि उसने इसे विषाक्त ही कर डाला और इस प्रकार अपने अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया। यह आज स्थानीय और राष्ट्रीय ही नहीं, वरन् अन्तर्राष्ट्रीय समस्या बन गई है। पर्यावरण और विकास के समन्वय में ही मानव का भविष्य छिपा है। पृथ्वी के उपग्रह को चन्द मिनटों में राख के ढेर में बदलने की क्षमता रखने वाले शस्त्रों के बाद यदि कोई बहुचर्चित विषय आज विश्व में है तो वह है- पर्यावरणीय प्रदूषण अतः प्रदूषण से समस्त जीवन अस्त व्यस्त हो गया है प्रत्येक व्यक्ति का जीवन इस भयावय स्थिति से दो चार हो रहा है। अतः प्रस्तुत लेख में समाज में व्याप्त प्रदूषण के प्रकार एवं व उसके विस्तार को संक्षेप में प्रस्तुत किया है।

प्रस्तावना

पर्यावरणीय प्रदूषण तो हमारा सदैव का साथी बन चुका है और हमें प्रतिपल भयावह स्थिति में रखता है। 1984 ई० में घटित भोपाल काण्ड, जहाँ एक कारखाने के गैस रिसाव ने सैकड़ों लोगों की जीवनलीला समाप्त कर दी और हजारों को अपंग बना दिया, इसका उदाहरण है। इसी प्रकार, रूस के एक देश में आणविक ऊर्जा से संचालित केन्द्र से गैस रिसाव ने भयावह स्थिति पैदा कर दी थी।
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सुन्दरलाल बहुगुणा, जो विश्वप्रसिद्ध पर्यावरणवादी हैं, ने अति सुन्दर शब्दों में इस समस्या के मूल को स्पष्ट करते हुए लिखा है, “सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह है कि पर्यावरणीय प्रदूषण में सबसे बड़ा योगदान हमारी विकास योजनाओं का है। जैसे-जैसे इन योजनाओं का विस्तार होता जाता है, उतनी ही तेजी से पर्यावरणीय प्रदूषण की समस्याएँ जटिल होती जाती हैं।" उद्योगों के विस्तार ने जंगलों के अन्धाधुन्ध कटान को प्रोत्साहित किया। पृथ्वी के गर्भ में छिपे खनिज का दोहन अनियोजित ढंग से चला।
इन कारखानों से निकले धुएँ ने वायुमण्डल को और अवशिष्ट पदार्थों ने बचे-खुचे जल को भी दूषित कर दिया। इस भाँति, जीवन को बनाए रखने वाली परिस्थितियों में असन्तुलन पैदा हो गया। इसलिए आज मानव जगत के सम्मुख सबसे बड़ा संकट पर्यावरणीय प्रदूषण का संकट है।

प्रदूषण क्या है

प्रदूषण को स्पष्ट करने से पहले यह उचित होगा कि हम पर्यावरण का अर्थ स्पष्ट कर दें। 'पर्यावरण' शाब्दिक दृष्टि से ‘परि आवरण' दो शब्दों से बना है। ‘परि' का अर्थ है-चारों ओर, और 'आवरण' का अर्थ है-ढकने वाला। इस भाँति, साहित्यिक दृष्टि से पर्यावरण का अर्थ उन तमाम भौतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक वस्तुओं और परिस्थितियों से है जो मानव जीवन को चारों ओर से घेरे हुए हैं और उसे प्रभावित करती हैं। मानव, व्यक्तिगत रूप से भी और संस्थागत रूप से भी, अपने पर्यावरण को एक अर्थ प्रदान करता है और उस अर्थ के अनुसार उसके प्रति प्रतिक्रिया करता है।
भौतिक दृष्टि से इस भूमण्डल के चारों ओर के ग्रह और उपग्रह, वातावरण, जलवायु तथा पृथ्वी की सतह की मिट्टी, जल, वनस्पति एवं पशु-पक्षी, पहाड़ तथा पृथ्वी के गर्भ में छिपा तेल, कोयला, लोहा और अन्य खनिज पर्यावरण में शामिल होते हैं। मनुष्य ने इन सभी को विशेष अर्थ प्रदान किया है, कहीं इन्हें पूजा है, कहीं इनका दोहन किया है तो कहीं इनमें संशोधन किया है। सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि से वे सभी विचार और वस्तुएँ पर्यावरण में सम्मिलित होती हैं जो मानव द्वारा निर्मित हैं ; जैसे रासायनिक पदार्थ, मशीनें, कल-कारखाने, सड़कें, बाँध, पुल, भवन, यातायात और संचार के साधन, भाषा, धर्म तथा परिवार-व्यवस्था आदि। इन सभी भौतिक एवं सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों से मिलकर बनता है मानव का ‘कुल पर्यावरण'। मनुष्य और उसके कुल पर्यावरण के बीच एक अन्तक्रिया चलती रहती है जो परस्पर प्रभावोत्पादक है। वैज्ञानिक दृष्टि से और प्रदूषण के सन्दर्भ में यदि पर्यावरण को परिभाषित किया जाए तो कहा जा सकता है कि पर्यावरण से आशय उस जैव-मण्डल से है जो पृथ्वी पर जीवनदायिनी शक्तियाँ एवं जीवन के आधारों को प्रदान करने वाली शक्तियों की व्यवस्था से सम्बन्धित है। इसमें जल, वायु, तापमान, प्राकृतिक साधन आदि सम्मिलित होते हैं।

वास्तव में, पर्यावरण में एक लय और सन्तुलन है; जैसे जब तापमान बढ़ता है तो समुद्र से भाप बनकर बादल उठते हैं और उन स्थानों की ओर चलते हैं जहाँ तापमान बहुत अधिक हो गया है। इसी भाँति, तापमान की अधिकता से बर्फीली चोटियाँ पिघलती हैं और नदियों में पानी आता है। वर्षा का पानी पृथ्वी की तपिश बुझाता हुआ, झरनों एवं झीलों की गोद भरता हुआ फिर नदियों के माध्यम से समुद्र में आ जाता है। मनुष्य को भौतिक समृद्धि की चाह ने पर्यावरण की इस लय तथा सन्तुलन को बिगाड़ दिया है, इसमें व्यवधान उपस्थित कर दिया है। यह पर्यावरण असन्तुलन ही प्रदूषण का मूल स्रोत है।

इस प्रकार, प्रदूषण से आशय जैव-मण्डल में ऐसे तत्त्वों का समावेश है जो जीवनदायिनी शक्तियों को नष्ट कर रहे हैं। उदाहरणार्थ, रूस में चेरनोबिल के आणविक बिजलीघर से एक हजार कि० मी० क्षेत्र में रेडियोधर्मिता फैल गई जिससे मानव जीवन के लिए ही अनेक संकट पैदा हो गए। आज इस दुर्घटना के बाद लोग आणविक बिजलीघरों का नाम सुनते ही सिहर उठते हैं। इसी तरह रासायनिक खाद, लुगदी बनाने, कीटनाशक दवाओं के बनाने और चमड़ा निर्माण करने आदि के कुछ ऐसे दूसरे उद्योग हैं जो वायु प्रदूषण फैलाते हैं। इतना ही नहीं, कई उद्योग तो वायु प्रदूषण के साथ-साथ मिट्टी और पानी का भी प्रदूषण करते हैं।

प्रदूषण के प्रकार

पारिस्थितिकीय विज्ञान के अनुसार पृथ्वी को तीन प्रमुख भागों में बाँटा जा सकता हैस्थलमण्डल, वायुमण्डल तथा जलमण्डल। अतः प्रदूषण मुख्यतः इन्हीं तीन क्षेत्रों में होता है। प्रदूषण के अन्य स्रोतों में हम उन स्रोतों को भी सम्मिलित करते हैं जो अत्यधिक जनसंख्या वृद्धि, वैज्ञानिक आविष्कारों तथा रासायनिक व भौतिक परिवर्तनों के कारण विकसित होते हैं। इनमें ध्वनि, रेडियोधर्मिता तथा तापीय स्रोत प्रमुख हैं।

अत: पर्यावरणीय प्रदूषण के प्रमुख प्रकार निम्नांकित हैं-

1. मृदीय प्रदूषण - मृदीय प्रदूषण का कारण मृदा में होने वाले अस्वाभाविक परिवर्तन हैं। प्रदूषित जल व वायु, उर्वरक, कीटाणुनाशक पदार्थ, अपतृणनाशी पदार्थ इत्यादि मृदा को भी प्रदूषित कर देते हैं। इसके काफी हानिकारक प्रभाव होते हैं तथा पौधों तक की वृद्धि रुक जाती है, कम हो जाती है अथवा उनकी मृत्यु होने लगती है। अगर मृदीय स्वरूप, मृदीय संगठन, मृदीय जल व वायु तथा मृदीय ताप में अस्वाभाविक परिवर्तन लाने का प्रयास करते हैं तो इसका जीव-जन्तुओं पर अत्यन्त हानिकारक प्रभाव होता है।

2. जल प्रदूषण - जल में निश्चित अनुपात में खनिज, कार्बनिक व अकार्बनिक पदार्थ तथा गैसें होती हैं। जब इसमें अन्य अनावश्यक व हानिकारक पदार्थ घुल जाते हैं तो जल प्रदूषित हो जाता है। कूड़े-करकट, मल-मूत्र आदि का नदियों में छोड़ा जाना, औद्योगिक अवशिष्टों एवं कृषि पदार्थों (कीटाणुनाशक पदार्थ, अपतृणनाशक पदार्थ व रासायनिक खादं आदि) से निकले
अनावश्यक पदार्थ जल प्रदूषण पैदा करते हैं। साबुन इत्यादि तथा गैसों के वर्षा के जल में घुल कर अम्ल व अन्य लवण बनाने से भी जल प्रदूषित हो जाता है। भारत में जल प्रदूषण एक प्रमुख समस्या है।

3. वायु प्रदूषण - वायु में गैसों की अनावश्यक वृद्धि (केवल ऑक्सीजन को छोड़कर) या उसके भौतिक व रासायनिक घटकों में परिवर्तन वायु प्रदूषण उत्पन्न करता है। मोटर गाड़ियों से निकलने वाला धुआँ, कुछ कारखानों से निकलने वाला धुआँ तथा वनों व वृक्षों के कटाव से वायु में ऑक्सीजन, नाइट्रोजन व कार्बन डाइऑक्साइड का सन्तुलन बिगड़ जाता है तथा यह मनुष्यों व अन्य जीवों पर प्रतिकूल प्रभाव डालने लगता है। दहन, औद्योगिक अवशिष्ट, धातुकर्मी प्रक्रियाएँ कृषि रसायन, वनों व वृक्षों को काटा जाना, परमाणु ऊर्जा, मृत पदार्थ तथा जनसंख्या विस्फोट इत्यादि वायु प्रदूषण के प्रमुख कारण हैं।

4. ध्वनि प्रदूषण - तीखी ध्वनि या आवाज से ध्वनि प्रदूषण पैदा होता है। विभिन्न प्रकार के यन्त्रों, वाहनों, मशीनों, जहाजों, राकेटों, रेडियो व टेलीविजन, पटाखों, लाउडस्पीकरों के प्रयोग से ध्वनि प्रदूषण विकसित होता है। ध्वनि प्रदूषण प्रत्येक वर्ष दोगुना होता जा रहा है। ध्वनि प्रदूषण से सुनने की क्षमता का ह्रास होता है, रुधिर ताप बढ़ जाता है, हृदय रोग की सम्भावना बढ़ जाती है तथा तन्त्रिका तन्त्र सम्बन्धी रोग हो सकते हैं। कुछ प्रकार की ध्वनियाँ सूक्ष्म जीवों को नष्ट कर देती हैं। इससे जैव अपघटन क्रिया में बाधा उत्पन्न होती है।

5. रेडियोधर्मी व तापीय प्रदूषण - रेडियोधर्मी पदार्थ पर्यावरण में विभिन्न प्रकार के कण और किरणें उत्पन्न करते हैं। इसी प्रकार, तापीय प्रक्रमों से भी कण निकलते हैं। ये कण व किरणें जल, वायु तथा मिट्टी में मिलकर प्रदूषण पैदा करते हैं। इस प्रकार के प्रदूषण से कैंसर, ल्यूकेनिया इत्यादि भयानक रोग उत्पन्न होते हैं तथा मनुष्यों में रोग अवरोधक शक्ति कम हो जाती है। बच्चों पर इस प्रकार के प्रदूषण का अधिक प्रभाव पड़ता है। नाभिकीय विस्फोट, आणविक ऊर्जा संयन्त्र, परमाणु भट्टियाँ, हाइड्रोजन बम, न्यूट्रान व लेसर बम आदि इस प्रकार के प्रदूषण के प्रमुख कारण हैं।

भारत में प्रदूषण का विस्तार

स्वतन्त्रता के बाद पश्चिमी विकास को एक आदर्श के रूप में मानकर हमारे देश में भी औद्योगीकरण और नगरीकरण योजनाबद्ध रूप में बड़ी तीव्र गति से प्रारम्भ हुआ। यह सच है कि आज लोगों के जीवन का रहन-सहन का स्तर बढ़ा है; कम-से-कम जनसंख्या के कुछ भाग का तो बढ़ा ही है। परन्तु उस विकास के द्वारा उत्पन्न पर्यावरणीय असन्तुलन और प्रदूषण के प्रभाव अब महसूस होने लगे हैं।
निम्नलिखित कुछ उदाहरणों से हम पर्यावरणीय प्रदूषण की गम्भीरता एवं विस्तार को प्रकट कर सकते हैं-

1. वनों का विनाश - बढ़ते हुए नगरीकरण और औद्योगीकरण की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वनों को बड़ी मात्रा में काटा गया। भारत में हिमालय के वन, जो उत्तरी भारत के पंजाब और दोआब जैसे अन्न के कटोरे के लिए पानी के स्रोत और उपजाऊ मिट्टी बनाने के कारखाने रहे हैं, एक अध्ययन के अनुसार अगले पचास वर्षों में समाप्त हो जाएँगे। वनों के कटने से पर्यावरणीय असन्तुलन इतना बढ़ गया है कि अब सूखे की स्थिति उपस्थित होने लगी है। वन बादलों को आकर्षित करते हैं तथा पानी के बहाव को नियन्त्रित करते हैं जिससे भूमि का कटाव रुकता है। वे बड़ी मात्रा में आक्सीजन प्रदान करते हैं। वनों के बढ़ते हुए अभाव ने जहाँ उनसे मिलने वाली बहुमूल्य सामग्री से हमें वंचित कर दिया है, वहीं भूमि का कटाव बढ़ा दिया है, उसकी उपजाऊ क्षमता को नष्ट किया है और अनेक रोगों को जन्म दिया है।

2. कृषि का व्यापारीकरण - देश में हरित क्रान्ति एक गर्व का विषय बन गया है। उसके लिए संकर बीज, रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक और सिंचाई पर अधिकाधिक धन खर्च होने लगा। यह रासायनिक उर्वरक, जो पेट्रोलियम पदार्थों से प्राप्त होते हैं, मिट्टी की स्वाभाविक उपजाऊ क्षमता को कम करते हैं और फिर वे अनादिकाल तक उपलब्ध नहीं होंगे क्योंकि विश्व में पेट्रोल की मात्रा सीमित है। इसी प्रकार व्यापारिक कृषि के लिए बहुत अधिक जल की आवश्यकता होती है। इसलिए भूमिगत जल का पम्पों और ट्यूबवैलों से बड़े पैमाने पर खनन किया जा रहा है। भूमि के नीचे से जितने जल को हम खींच रहे हैं, उस अनुपात से उसकी पूर्ति नहीं हो रही है। पृथ्वी में जल का स्तर और नीचे जा रहा है। नीचे से जल खींचने के लिए बिजली की माँग बढ़ गई है। गाँव और शहर के बीच परस्पर प्रतिस्पर्धा और संघर्ष का वातावरण बन गया है। अनेक जगह घटित हो रहे किसान आन्दोलनों के पीछे यह पर्यावरणीय असन्तुलन भी उत्तरदायी है। सुन्दरलाल बहुगुणा ने इस समस्या पर प्रकाश डालते हुए बहुत उपयुक्त शब्दों का प्रयोग किया है, “कृषि के औद्योगीकरण से अब कृषि एक जीवन-पद्धति नहीं रह गई है, न ही वह संस्कृति जिसका अर्थ है 'प्रकृति का सुसंस्कार करना।' जब मिट्टी को नकद रुपये में बदलकर धनवान बनने का साधन बनाया जाता है तो इसका अर्थ होता है 'मिट्टी के साथ बलात्कार'। आज जो कुछ हमने प्राप्त किया है वह तो मिट्टी और पानी की स्थायी पूँजी का निरन्तर ह्रास करके पाया है। यह लाभ का धोखा है।"

3. विशाल बाँध परियोजनाएँ - आजादी के बाद से हमारे देश में लगभग 1500 बड़े बाँध बन चुके हैं। प्रारम्भिक आकलनों से औसतन 213 प्रतिशत अधिक दर से इनमें गाद भरी है। रामगंगा पर बने कालागढ़ बाँध में तो यह दर 400 प्रतिशत से अधिक है।
इन बाँधों के जो कुपरिणाम हुए हैं वे इस प्रकार हैं-
  1. केन्द्रित सिंचाई योजनाओं के कारण दलदल बनने और लवणीकरण की समस्याएँ पैदा हो गई हैं,
  2. सम्भावित भूकम्प के खतरे बढ़ गए हैं,
  3. एक बार गाद भर जाने के बाद ये बाँध फसल के लिए बिलकुल निरर्थक हो जाएँगे,
  4. इनसे सुरक्षा के खतरे बढ़ गए हैं तथा
  5. इन योजनाओं के निर्माताओं के लिए चाहे ये बाँध खुशहाली के प्रतीक हों या बिजली और सिंचाई के प्रतीक हों, परन्तु इन क्षेत्रों के निवासियों और पर्यावरण व सन्तुलित विकास की चिन्ता करने वालों के लिए ये सर्वनाश के प्रतीक हैं। उदाहरणार्थ, टिहरी बाँध के कारण 70,000 पर्वतीय लोग विस्थापित हो जाएँगे। बाँधों के नीचे बहुत बड़ा उपजाऊ भू-खण्ड, गाँव और नगर सघन वन डूब जाएँगे। इसी भाँति, नर्मदा बाँध लाखों आदिवासी और वनवासी लोगों को विस्थापन के लिए मजबूर करेगा जिन्हें इस विशालकाय बाँधों से न तो सिंचाई के लिए पानी ही मिलेगा और न उद्योगों के लिए बिजली। वास्तव में, इतनी बड़ी संख्या में मनुष्य का यह विस्थापन उनकी संस्कृतियों का ही विस्थापन होगा और चूँकि यह विस्थापन किसी दैवी आपदा के कारण नहीं है, इसे मानवता के प्रति एक जघन्य अपराध की ही संज्ञा दी जा सकती है।

4. प्रदूषण उत्पन्न करने वाले उद्योगों का विस्तार - कुछ ऐसे उद्योग हैं जो बहुत अधिक बड़े हैं जिनमें वायु और जल का प्रदूषण बढ़ा है। इनमें सबसे प्रमुख रासायनिक खाद, कीटनाशक, चमड़े के कारखाने, ताप बिजलीघर आदि हैं। वैसे तो सभी कारखाने धुआँ और स्राव दोनों ही उगलते हैं, लेकिन ये कारखाने तो सबसे अधिक खतरनाक हैं। भोपाल के गैस काण्ड का हम उदाहरण दे ही चुके हैं। पिछले वर्षों में दिल्ली में फैला हैजा और आन्त्रशोथ भी जल प्रदूषण का ही दुषपरिणाम था। इन कारखानों से वायुमण्डल में उगली जाने वाली गैस जीवशेषीय ईंधनों के विस्फोट से पैदा होती है। यही नहीं, इन कारखानों से जो बचा हुआ पानी और गन्दगी स्राव के रूप में बाहर निकलते हैं वह भी जल और वायु का प्रदूषण करते हैं। ये जीवन समर्थक शक्तियों के लिए खतरा बन जाते हैं।

5. आणविक एवं ताप बिजलीघर - हमने ऊपर भी लिखा है कि आणविक और ताप बिजलीघर मानव जीवन के लिए खतरे के प्रतीक हैं। देश में नागरिक अब इस खतरे को समझने लगे हैं। कर्नाटक के कारावाड जिले में और अन्य स्थानों में बनने वाले आणविक बिजलीघरों का विरोध किया जा रहा है। इस प्रकार, भारतीय विकास एक दोराहे पर पहुँच गया है। बिजली के बिना देश की तरक्की सम्भव नहीं, और बिजली के लिए सभी साधन खतराविहीन नहीं। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा नियुक्त कमीशन की रिपोर्ट 'हमारा साँझा भविष्य' के चेतावनी भरे निम्न शब्दों को हम उद्धृत करना चाहेंगे, “पर्यावरणीय खतरों और अनिश्चितता के कारण उच्च ऊर्जा का भविष्य चिन्ताजनक है और इससे कई शंकाएँ पैदा होती हैं। इससे वायुमण्डल में उगली जाने वाली गैसों के 'ग्रीन हाऊस' प्रभाव के फलस्वरूप मौसम में गम्भीर परिवर्तन की सम्भावना है.........आणविक रिएक्टरों से दुर्घटनाओं के खतरे, आणविक कचरे को ठिकाने लगाने और बिजलीघरों का जीवन काल समाप्त हो जाने के पश्चात् रिएक्टरों का क्रियाकर्म तथा इससे फैलने वाली रेडियोधर्मिता के खतरे परमाणु ऊर्जा के साथ जुड़े हुए हैं।"

6. बड़े पैमाने पर खनन - शीघ्र विकास की धुन में सारे विश्व में ही पृथ्वी से खनिज पदार्थों का खनन किया गया है। खनन उद्योग से पैदा होने वाले खतरों की तरफ लोगों का अब ध्यान गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ की उपर्युक्त रिपोर्ट में लिखा है, "अभी तक जीवशेषीय ईंधनों (कोयला, खनिज तेल, गैस आदि) के विस्फोट से पैदा होने वाली कार्बन डाइऑक्साइड को हटाने के लिए कोई तकनीक विकसित नहीं हुई है। कोयले के अधिकाधिक उपयोग में सल्फर डाइऑक्साइड और नाइट्रोजन की मात्रा में वृद्धि होगी। यह वायुमण्डल में जाकर तेजाब बन जाते हैं। आज जिस दर से उपयोग हो रहा है उस हिसाब से विश्व में गैस की आपूर्ति केवल दो सौ वर्ष तक और कोयले की तीन हजार वर्षों तक ही होगी।” इन सभी खनिजों की मात्रा पुन: बढ़ाई नहीं जा सकती और ये धरती में निश्चित मात्रा में हैं। इसलिए इनके आधार पर खड़े विकास के भवन का भविष्य एक प्रश्न चिह्न ही बनकर रह गया है।

हमारे देश में भी खनन विनाशकारी होता गया है। उदाहरण के रूप में, देहरादून जिले के मसूरी की पर्वतश्रेणियों में बड़ी मात्रा पर चूने का खनन किया गया। देहरादून की घाटी, जो देश में सबसे अधिक श्रेष्ठ बासमती पैदा करने वाली थी, इस खनन के कारण रेगिस्तान में बदलने लगी है। गाँवों में खेती चौपट हो गई है और पानी के स्रोत सूखने लगे हैं। नागरिकों ने छुटपुट आन्दोलन भी किए, परन्तु वे शक्तिशाली खनन ठेकेदारों के प्रभाव के सामने दबा दिए गए। तब सजग नागरिकों ने उच्चतम न्यायालय के द्वार खटखटाये। पाँच वर्षों के अनवरत कानूनी युद्ध और नागरिकों की ओर से मुकदमा लड़ने वाले प्रार्थियों ने जीवन की जोखिम उठाकर उच्चतम न्यायालय से न्याय पाया और इन खानों में से केवल चार को छोड़कर न्यायालय के आदेश से बाकी सभी खाने बन्द हो गई हैं। परन्तु देश के अन्य हिस्सों में खनन तो अभी चालू है। इसी प्रकार उड़ीसा में भारत ऐल्यूमिनियम कम्पनी द्वारा बाक्साइट खनन के विरुद्ध भी संघर्ष चल रहा है। वास्तव में, पर्यावरणीय सन्तुलन बिगड़ने से यह खनन वायु और जल दोनों की जीवन्त शक्तियों को कम कर देते हैं। पीने के जल की निरन्तर कमी होती जा रही है और शुद्ध जीवन्त जल तो मिलना ही दूभर हो गया है।

भारत में प्रदूषण के कारण

यद्यपि उपर्युक्त विवरण से ही पर्यावरणीय प्रदूषण के कारणों का पता चल जाता है तथापि हम यहाँ इसके मूल कारणों पर प्रकाश डालना चाहेंगे।

इसके निम्नलिखित प्रमुख कारण हैं-

1. भौतिक विकास को अत्यधिक महत्त्व - सारे ही विश्व में पिछली शताब्दी से भौतिक विकास ही मानव के विकास का पर्याय बन गया है। विकास से आशय हम उपभोग की बढ़ती हुई दर से लगाते हैं। प्रति व्यक्ति आय, प्रति व्यक्ति बिजली का उपभोग, वार्षिक राष्ट्रीय उत्पादन की दर इस विकास के मापदण्ड बन गए हैं। विकास की प्रक्रिया में निरन्तर वृद्धि एक आवश्यक तत्त्व मानी जाती है। निरन्तर वृद्धि से आशय है कि जो वैभव आज की पीढ़ी को प्राप्त हो गया है कम-से-कम उतना वैभव, यदि अधिक सम्भव नहीं तो, अगली पीढ़ी को भी मिलना चाहिए। विकास का लक्ष्य वास्तव में अगली पीढ़ी को और अधिक भौतिक सुखों को प्रदान करना है। इस दृष्टिकोण के वास्तविक परिणाम दो हुए–एक, प्रकृति को उपभोग की जाने वाली वस्तु माना जाने लगा और उसका अधिकाधिक दोहन किया जाने लगा। द्वितीय, समाज का अर्थ केवल मनुष्यों का समाज ही माना जाने लगा। मनुष्य भूल गया कि प्रकृति के समक्ष वह अनेक जीव-जन्तुओं तथा पेड़-पौधों की भाँति ही एक प्राणी है। उसे सभी के साथ सन्तुलन बनाकर चलना है। अपने बढ़ते हुए भोग की लालसा ने मनुष्य को प्रकृति के प्रति कसाई बना दिया है। उसने न केवल पुनः पूरे न किए जा सकने वाले प्रकृति के भण्डारों को खाली किया वरन् पेड़-पौधों व जीव-जन्तुओं के लिए भी खतरा पैदा कर दिया। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि बीसवीं शताब्दी के अन्त तक वनस्पति और जीव-जन्तुओं की डेढ़ करोड़ प्रजातियाँ अपना अस्तित्व खो बैठेंगी।

2. विकास के लिए असन्तुलित कार्यक्रम - विकास के लिए जो योजनाएँ बनाई गईं वे असन्तुलनों से भरी पड़ी हैं। खेती योग्य भूमि बढ़ाने के लिए और उद्योगों की माँगों की आपूर्ति के लिए हम जंगल तो काटते चले गए, परन्तु उतने ही नए जंगल नहीं लगाए गए। हम बाँध तो बनाते चले गए पर यह अनुमान नहीं लगाया कि एक दिन जब ये बाँध गाद से भर जाएँगे तो इनका क्या उपयोग होगा। हमने प्रकृति की लय और गति में असन्तुलन पैदा कर दिया। खतरनाक उद्योगों से निकलने वाला स्राव कहाँ जाएगा और उससे क्या-क्या खतरे पैदा होंगे, यह अनुमान नहीं लगाया गया। जहरीली गैसों और रेडियोधर्मिता की रोकथाम कैसे की जाए इस पर विचार नहीं किया गया। इन असन्तुलित विकास कार्यक्रमों का स्वाभाविक परिणाम था-जल और वायु का प्रदूषण।

3. समाकलित जीवन दर्शन एवं शैली का अभाव - भोगवादी जीवन-पद्धति में विकास के नैतिक आधारों की पूर्ण उपेक्षा कर दी गई है। मनुष्य के जीवन की आवश्यकताएँ पूरी हों यह प्रयास तो किया ही जाना चाहिए, परन्तु मन की लालसाओं और तृष्णाओं का तो कभी अन्त नहीं होता। उनको बढ़ाते रहने में कहाँ तक बुद्धिमानी है। आज भी विश्व के करोड़ों लोग भूख से परेशान हैं। कुछ लोगों के भोग के लिए बड़ी संख्या में गरीबों को भूखे रखने को विकास का नाम दिया जा रहा है। आज से २५०० वर्ष पहले महात्मा बुद्ध ने मानवों को सन्देश दिया कि मानव-जीवन में दुःख का स्रोत तृष्णा है और तृष्णा को समाप्त करने से ही दुःख का निवारण हो सकता है। हमारे युग में भी महात्मा गांधी ने आवश्यकताओं को कम-से-कम करने का सन्देश दिया था। अंहिसा, असंग्रह, सत्य, स्वदेशी, कायिक श्रम, छुआछूत की भावना का त्याग, ब्रह्मचर्य, अस्वाद और निर्भयता जीवन-यापन के नियम बनाए जाने चाहिए। विकास की सही व्याख्या मनुष्य और समाज के जीवन में सुख, शान्ति और सन्तोष के रूप में की जानी आवश्यक है, अन्यथा पर्यावरणीय प्रदूषण और मानव के मानसिक प्रदूषण से छुटकारा नहीं मिल सकता। जब तक मनुष्य का प्रकृति के प्रति आक्रामक दृष्टिकोण नहीं बदलता तब तक सुख और शान्ति की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

अस्तु, पर्यावरणीय प्रदूषण के मूल कारणों के विश्लेषण के बाद उन उपायों पर भी विचार किया जाना चाहिए जो इस प्रदूषण को दूर करने के लिए हमारे देश में उठाए गए हैं।

प्रदूषण दूर करने के लिए अपनाए गए प्रमुख उपाय

हमारे देश में पर्यावरणीय प्रदूषण की रोकथाम के लिए एवं पर्यावरणीय सुरक्षा के लिए निम्नलिखित प्रमुख उपायों को अपनाया गया है-

1. कानूनी उपाय - भारत सरकार ने कारखाना (संशोधन) अधिनियम 1987 पारित किया है जिसका उद्देश्य कारखानों में लगे श्रमिकों को सुरक्षा प्रदान करना एवं पर्यावरणीय प्रदूषण को नियन्त्रित करना है। इस अधिनियम के अनुसार, यदि किसी भी उद्योग में कुछ खतरनाक प्रक्रियाएँ लागू होती हैं तो उस उद्योग पर नियन्त्रण किया जाएगा। खतरनाक प्रक्रियाओं से आशय यह है कि उस उद्योग में खनिज पदार्थों के प्रयोग से या उत्पादित वस्तुओं अथवा अर्द्धनिर्मित वस्तुओं या कारखाने से होने वाले स्राव (Effluents) से वहाँ के श्रमिकों के स्वास्थ्य पर या वहाँ के सामान्य पर्यावरण पर बुरा प्रभाव पड़ता हो।
इसके नियन्त्रण के लिए तीन प्रकार की समितियों की स्थापना का प्रावधान किया गया है—मौका मुआयना समिति, जाँच समिति एवं सुरक्षा समिति। राज्य सरकारों को यह अधिकार दिया गया है कि वे उन कारखानों को अनुमति प्रदान करने से पहले विस्तृत जाँच कर लें जिनमें किसी भी प्रकार की खतरनाक प्रक्रियाओं के होने की सम्भावना है। इसी प्रकार, पर्यावरण (सुरक्षा) अधिनियम, 1986 भी पारित किया गया है। पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाने के लिए और प्रदूषित पर्यावरण के सुधार के लिए ही इस कानून में प्रावधान किया गया है।

2. सार्वजनिक हित में अभियोजन - देश के सर्वोच्च न्यायालय ने पर्यावरणीय सुरक्षा के क्षेत्र में लोकहित अभियोजन की अनुमति देकर एक क्रान्तिकारी कदम उठाया है। लोकहित अभियोजन वे मुकदमे होते हैं जो किसी भी जागरूक नागरिक की लोकहित में दिए गए प्रार्थना-पत्र से शुरू होते हैं। देहरादून में चूने की खानों के ठेकेदारों के खिलाफ ऐसे ही लोकहित मुकदमे का जिक्र हमने ऊपर किया है। इसी प्रकार का एक और प्रसिद्ध अभियोजन एम० सी० मेहता बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया है जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने कानपुर में कार्यरत चमड़ा उद्योग के सभी कारखानों को तब तक के लिए बन्द करने का निर्देश दिया था जब तक कि वे अपने यहाँ ऐसे प्राथमिक शुद्धि संयन्न न लगा लें जिनमें उनसे होने वाले स्राव गंगा नदी में डालने से पहले शुद्ध किए जा सकें।

3. जन शिक्षा - जन संचार माध्यमों द्वारा जनता में पर्यावरणीय सुरक्षा एवं प्रदूषण के प्रति जागरूकता लाने के प्रयास भी किए जा रहे हैं। पर्यावरणीय शिक्षा के नाम से एक पृथक् विषय स्कूलों और कॉलेजों के पाठ्यक्रमों में सम्मिलित किए जाने पर भी जोर दिया जा रहा है।

4. पर्यावरणीय सुरक्षा सम्बन्धी अनुसन्धान को प्रोत्साहन - पर्यावरणीय सुरक्षा के क्षेत्र में अनुसन्धानों को प्रोत्साहित किया गया है। वनों तथा पर्यावरण मन्त्रालय ने पर्यावरण सम्बन्धी संरक्षण और सुरक्षा के लिए अब तक लगभग 636 अनुसन्धान परियोजनाओं को समर्थन दिया जिन पर 27.96 करोड़ रुपये का व्यय होना है। इनमें से 262 प्रोजेक्ट, जिन पर 8-80 करोड़ रुपया खर्च हुआ, पूर्ण हो गए हैं। बाकी 345 प्रोजेक्ट अभी चलाए जा रहे हैं। इन अनुसन्धान परियोजनाओं को सरकारी, गैर-सरकारी, स्वशासी संस्थाओं और विश्वविद्यालयों के माध्यम से चलाया जा रहा है।

5. ऐच्छिक संघ - पर्यावरणीय सुरक्षा के क्षेत्र में देश के अनेक ऐच्छिक संघ भी क्रियाशील हैं जिनके सामाजिक कार्यकर्ता प्रदूषण के खिलाफ संघर्षरत हैं। गढ़वाल का 'चिपको आन्दोलन' इन ऐच्छिक संघों की सफलता का बहुत सटीक उदाहरण है।

6. संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रयास - वास्तव में, पर्यावरणीय प्रदूषण का एक अनिवार्य पक्ष अन्तर्राष्ट्रीय भी है। पर्यावरण तो सबका साँझा होता है इसलिए मानव का भविष्य भी साँझा है। इस सन्दर्भ में यह उल्लेखनीय है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस विषय पर विशेष कमीशन की नियुक्ति की थी जिसने पर्यावरणीय सुरक्षा के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए हैं।

प्रदूषण के उन्मूलन हेतु सुझाव

प्रदूषण की समस्या के समाधान हेतु निम्नलिखित सुझाव दिए जा रहे हैं-

1. कानूनों का निष्ठापूर्वक पालन - कानून बनाने से ही समस्या हल नहीं हो जाती। सबसे अधिक आवश्यक है कि उनका कड़ाई से पालन कराया जाए। इसके लिए उपयुक्त अधिकारियों एवं कर्मचारियों की भी आवश्यकता है। इसके लिए एक अलग सेना का गठन किया जाए और कर्मचारियों की भर्ती और प्रशिक्षा विशिष्ट ढंग से की जाए।

2. जन जागरण एवं जन सहयोग - वास्तव में एक राष्ट्रीय पर्यावरण नीति के अन्तर्गत पर्यावरण के सम्बन्ध में जन शिक्षा के प्रसार की तीव्र आवश्यकता है। जब तक जन-मानस प्रकृति, मनुष्य और समाज के गहरे रिश्ते को नहीं समझेगा तब तक पर्यावरणीय प्रदूषण बना ही रहेगा। इसीलिए आवश्यक है कि पर्यावरण की सुरक्षा के लिए जन आन्दोलन चलाया जाए और उसमें जन सहभागिता को बढ़ाया जाए।

3. विकेन्द्रित विकास - समाज की रचना का आधार विकेन्द्रित व्यवस्था पर रखा जाना चाहिए। प्राणवायु, स्वच्छ और जीवन्त जन, खुराक, आश्रय तथा वस्त्र की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति आस-पास के क्षेत्र से हो सके, इसके लिए विकेन्द्रित विकास की योजनाएँ बनानी होगी। इस दृष्टि से हमें पुन: गांधी जी के ग्राम-स्वराज्य की अवधारणा की प्रासंगिकता को समझना होगा। सीधे-सादे शब्दों में, विकास के नियोजन की इकाई गाँवों को बनाना होगा। जब उपभोग घर-घर और गाँव-गाँव में होता है तो उत्पादन केन्द्रित ढंग से क्यों किया जाए? विकेन्द्रित उत्पादन से प्रदूषण की समस्या स्वतः हल हो जाएगी क्योंकि उच्च ऊर्जा प्रयोग करने वाले और अपनी बड़ी-बड़ी चिमनियों से धुआँ उगलने वाले कारखाने ही वहाँ नहीं होंगे। लघु उद्योगों के लिए आणविक या ताप बिजलीघरों की आवश्यकता भी नहीं है। इस व्यवस्था में ऊर्जा की प्राथमिकता भी बदल जाएगी। इसमें पशु शक्ति, बायोगैस, सौर ऊर्जा, पवन शक्ति, नदियों के सीधे बहाव से जल, विद्युत और लहरों की शक्ति से ही काम किया जा सकेगा।

4. समाकलित जीवन शैली - आज एक समाकलित जीवन दर्शन एवं शैली की आवश्यकता है। बहुत-से लोग, जिसमें विद्वान् भी शामिल हैं, कहते हैं कि विकेन्द्रीकरण और सादगी भारत जैसे गरीब देशों के लिए ही हो सकती है। परन्तु ऐसा नहीं है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण और विकास आयोग ने समृद्ध देशों को स्पष्ट चेतावनी दी है कि जब तक वे सादगी का जीवन नहीं बिताते, तब तक विश्व में न तो पर्यावरण की ही रक्षा हो सकती है और न विकास ही सम्भव है। यूरोप में अधिकांश देश पर्यावरणीय सुरक्षा के प्रति चिन्तित हैं। वहाँ कोई भी राजनेता आज पर्यावरण के कारक की उपेक्षा नहीं कर सकता। चुनावों में हुई पर्यावरणवादियों की विजय इस तर्क को सिद्ध करती है। यूरोप का हरित आन्दोलन पश्चिमी जगत के सामने एक नया रास्ता रख रहा है जिसे वे सीधा रास्ता कहते हैं। यह रास्ता वाम और दक्षिण दोनों ही पंथों से सर्वथा अलग है। इस आन्दोलन के घोषणा-पत्र को पढ़ने से ऐसा लगता है कि मानो वह गांधी के 'हिन्द स्वराज्य' का ही नवीन रूप हो।

पर्यावरणीय सुरक्षा और पर्यावरणीय प्रदूषण की रोकथाम सारे विश्व के सामने गम्भीरतम समस्याओं में से एक है। आज विश्व के सम्मुख तीन सबसे बड़ी चुनौतियाँ हैं-
युद्ध, भूख और पर्यावरणीय प्रदूषण। ये तीनों एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। इनमें से एक की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। इनके सफल समाधान पर ही मानव जाति का भविष्य टिका है। भारत इसका अपवाद नहीं है। भारत की इस दिशा में जिम्मेदारी और भी अधिक है क्योंकि यह आध्यात्मिक खोज और प्रयोगों का देश रहा है। पर्यावरणीय सुरक्षा के क्षेत्र में भी इसे अविलम्ब पहलकदमी करनी चाहिए।

शब्दावली
प्रदूषण- प्रदूषण से आशय जैव-मण्डल में ऐसे तत्त्वों का समावेश है जो जीवनदायिनी शक्तियों को नष्ट कर रहे हैं।

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