राज्यपाल की शक्तियाँ - राज्यपाल की शक्तियों की व्याख्या कीजिए | Rajyapal ki shaktiyan

राज्यपाल की शक्तियां

संघीय स्तर पर जिस प्रकार की शक्तियाँ राष्ट्रपति को प्रदान की गई हैं, उसी तरह की कार्यकारी, विधायी, वित्तीय और न्यायिक शक्तियाँ राज्य में राज्यपाल को प्राप्त हैं। परंतु राष्ट्रपति को प्राप्त कूटनीतिक, सैन्य या आपातकालीन शक्तियाँ राज्यपाल को उपलब्ध नहीं हैं।
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राज्यपाल की शक्तियों एवं कार्यों को निम्नलिखित आधार पर वर्णित किया जा सकता है-
  • कार्यकारी शक्तियाँ
  • विधायी शक्तियाँ
  • वित्तीय शक्तियाँ
  • न्यायिक शक्तियाँ
  • अध्यादेश जारी करने की शक्ति
  • वीटो शक्ति
  • विवेकाधीन शक्तियाँ

कार्यकारी शक्तियाँ

  • राज्य के समस्त कार्यकारी कार्य राज्यपाल के नाम पर किये जाते हैं तथा वह इस संबध में नियमों का निर्माण कर सकते हैं कि उनके नाम पर किये जाने वाले कार्यों के निष्पादित आदेशों एवं प्रपत्रों का प्रमाणन किस प्रकार होगा।
  • वह मुख्यमंत्री की नियुक्ति करता है तथा अन्य मंत्रियों की नियुक्ति मुख्यमंत्री की सिफारिश पर करता है। वे सभी मंत्री राज्यपाल के प्रसादपर्यंत तक पद धारण कर सकते हैं। लेकिन 94वें संविधान संशोधन, 2006 द्वारा चार राज्यों छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, झारखंड तथा ओडिशा में जनजातियों के कल्याण के लिये जनजाति कल्याण मंत्री की अनिवार्य नियुक्ति का प्रावधान किया गया है।
  • वह राज्य में महाधिवक्ता की नियुक्ति करता है जो राज्यपाल के प्रसादपर्यंत तक पद धारण कर सकता है।
  • वह राज्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति करता है, परंतु उन्हें विशेष परिस्थितियों में उसी प्रकार हटाया जा सकता है, जिस प्रकार उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाया जाता है
  • वह राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति करता है, परंतु उन्हें पद से हटाने का अधिकार राष्ट्रपति के पास है।
  • यदि किसी मंत्री द्वारा कोई निर्णय लिया गया है, परंतु मंत्रिपरिषद में उस पर चर्चा नहीं की गई, तो राज्यपाल मुख्यमंत्री से अपेक्षा कर सकता है कि वह उस विषय को मंत्रिपरिषद के समक्ष चर्चा के लिये रखे।
  • वह राज्य में स्थित विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति करता है, क्योंकि वह राज्य के समस्त विश्वविद्यालयों का कुलाधिपति होता है।

विधायी शक्तियाँ

  • राज्यपाल राज्य विधानमंडल का अभिन्न अंग होता है, उसे इससे पृथक् नहीं किया जा सकता है। वह राज्य विधानमंडल के सत्र को आहूत या सत्रावसान या उसका विघटन कर सकता है।
  • प्रत्येक चुनाव के पश्चात् एवं प्रतिवर्ष बजट सत्र (जो पहला सत्र होता है) के पहले राज्यपाल का अभिभाषण होता है।
  • यदि राज्य विधानसभा में आंग्ल-भारतीय समुदाय का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है, तो राज्यपाल आंग्ल-भारतीय समुदाय के एक व्यक्ति को विधानसभा में मनोनीत कर सकता है।
  • राज्यपाल विधानपरिषद (यदि वहाँ द्वि-सदनीय विधानमंडल है) में कुल सदस्यों के 1/6 भाग को मनोनीत कर सकता है। ये सदस्य ऐसे व्यक्ति होंगे जिन्हें कला, विज्ञान, साहित्य, समाज सेवा और सहकारी आंदोलन का ज्ञान हो या इनका व्यावहारिक अनुभव हो।
  • यदि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाए, जब विधानसभा अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का पद रिक्त हो, तो वह विधानसभा के एक सदस्य को कार्यवाही सुनिश्चित करने के लिये नियुक्त कर सकता है।
  • यदि विधानमंडल के किसी सदस्य की निरर्हता (Disqualification) संबंधी प्रश्न उठता है, तो वह निर्वाचन आयोग से विचार-विमर्श के पश्चात् उस पर निर्णय कर सकता है।
  • विधानमंडल से पारित कोई भी विधेयक अधिनियम तभी बन सकता है, जब उसे राज्यपाल की स्वीकृति मिल जाती है। साधारण विधेयक तथा धन विधेयकों के संबंध में निर्णय प्रक्रिया अलग-अलग है। जबकि संविधान संशोधन विधेयक पर निर्णय का अधिकार राष्ट्रपति के पास होता है।

(1) साधारण विधेयकों के संबंध में
संविधान के अनुच्छेद 200 के अनुसार जब कोई विधेयक राज्य की विधानसभा द्वारा या विधानपरिषद वाले राज्य में विधानमंडल के दोनों सदनों द्वारा पारित कर राज्यपाल की अनुमति के लिये भेजा जाता है तो वह-

(क) विधेयक को स्वीकृति दे सकता है या

(ख) विधेयक पर स्वीकृति रोक सकता है या

(ग) विधेयक को अपनी सिफारिशों के साथ पुनर्विचार के लिये विधानमंडल के पास भेजा जा सकता है (किंतु यह धन विधेयक न हो)। यदि राज्य विधानमंडल द्वारा विधेयक को परिवर्तनों के साथ या बिना किसी परिवर्तन के पुनः राज्यपाल की स्वीकृति के लिये भेजा जाता है तो राज्यपाल को स्वीकृति देनी होती है।

(घ) परंतु, वह ऐसे विधेयकों को, जिनके विधि बन जाने से उच्च न्यायालय की शक्तियों का अल्पीकरण होगा, उन्हें राष्ट्रपति के विचार के लिये आरक्षित रख सकता है। इसके अतिरिक्त निम्नलिखित आधारों पर भी वह ऐसे विधेयकों को राष्ट्रपति के विचार के लिये आरक्षित कर सकता है-
  1. यदि विधेयक संविधान के उपबंधों के विरुद्ध हो।
  2. राष्ट्रीय हित के खिलाफ हो या राष्ट्रीय महत्त्व का हो।
  3. राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों के विरुद्ध हो।

(2) धन विधेयकों के संबंध में
धन विधेयक जब विधानमंडल से पारित होने के उपरांत राज्यपाल की स्वीकृति के लिये भेजा जाता है, तो उसके पास निम्नलिखित तीन विकल्प होते हैं-

(क) वह विधेयक को स्वीकृति दे सकता है या

(ख) वह विधेयक पर स्वीकृति रोक सकता है परंतु सामान्यतः ऐसा नहीं होता क्योंकि धन विधेयक राज्यपाल की पूर्व अनुमति पर ही विधानसभा में प्रस्तुत किया जाता है। या

(ग) वह विधेयक को राष्ट्रपति के विचार हेतु सुरक्षित रख सकता है, परंतु धन विधेयक को पुनर्विचार के लिये विधानमंडल के पास नहीं भेजा जाता है। विधेयक को राष्ट्रपति के विचार हेतु सुरक्षित रखने के पश्चात् राज्यपाल की भूमिका समाप्त हो जाती है। अब धन विधेयक पर निर्णय लेने का अधिकार राष्ट्रपति के पास होता है।

वित्तीय शक्तियाँ

  • वह यह सुनिश्चित करता है कि प्रतिवर्ष 'वार्षिक वित्तीय विवरण' (जिसे बजट भी कहा जाता है) को राज्य विधानमंडल के समक्ष रखा जाए।
  • राज्य विधानसभा में धन विधेयक को प्रस्तुत करने से पहले राज्यपाल की पूर्व सहमति आवश्यक है, तथा उसकी सहमति के बिना अनुदान की मांग नहीं की जा सकती है।
  • राज्य की आकस्मिक निधि से अग्रिम लेने का अधिकार राज्यपाल के पास होता है।
  • स्थानीय निकायों (पंचायत एवं नगरपालिका) की वित्तीय स्थिति का पुनर्विलोकन करने के लिये, राज्यपाल प्रत्येक 5वें वर्ष की समाप्ति पर वित्त आयोग का गठन करता है।
  • वह प्रत्येक वर्ष राज्य लेखों से संबंधित राज्य वित्त आयोग की रिपोर्ट तथा नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (CAG) की रिपोर्ट को राज्य विधानमंडल के समक्ष प्रस्तुत होना सुनिश्चित करवाता है।

न्यायिक शक्तियाँ

  • राज्य के उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के समय राष्ट्रपति द्वारा उस राज्य के राज्यपाल से परामर्श किया जाता है।
  • जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति, पदस्थापना एवं पदोन्नति राज्यपाल द्वारा राज्य के उच्च न्यायालय के परामर्श से की जाती है।
  • राज्य न्यायिक आयोग के पदाधिकारियों की नियुक्ति वह राज्य उच्च न्यायालय और राज्य लोक सेवा आयोग से विचार-विमर्श के उपरांत करता है।
  • राष्ट्रपति की तरह राज्यपाल को क्षमादान की शक्ति (जहाँ तक उस राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार है।) अनुच्छेद 161 के तहत प्राप्त है। वह विधि के विरुद्ध किसी अपराध के लिये दोषी ठहराए गए व्यक्ति के दंड को क्षमा, उसका प्रविलंबन विराम, लघुकरण, परिहार कर सकता है। राष्ट्रपति और राज्यपाल की क्षमादान की शक्तियों में निम्नलिखित अंतर है
क्षमादान के मामले में राष्ट्रपति व राज्यपाल की शक्तियों में 3 अंतर हैं-
  • राष्ट्रपति केंद्रीय विधियों के तहत घोषित अपराधों से संबंधित दंडों या दंडादेशों पर क्षमा आदि की शक्ति का प्रयोग कर सकता है जबकि राज्यपाल राज्य विधि से संबंधित अपराधों के मामलों में अपनी शक्ति का प्रयोग कर सकता है।
  • सैन्य अदालत या कोर्ट मार्शल द्वारा दिये गए दंड को माफ या कम करने की शक्ति सिर्फ राष्ट्रपति को है, राज्यपाल को नहीं।
  • राष्ट्रपति मृत्युदंड को माफ करने का अनन्य अधिकार रखता है, चाहे वह केंद्रीय विधि के तहत दिया गया हो या राज्य विधि के तहत। राज्यपाल के पास यह शक्ति नहीं है कि वह मृत्युदंड को माफ कर दे। वह अधिक से अधिक इतना ही कर सकता है कि उसे स्थगित कर दे या प्रविलंबित (Reprieve) अथवा लघुकृत (Commute) कर दे।

अध्यादेश जारी करने की शक्ति

राज्यपाल द्वारा अध्यादेश जारी करने का संबंध विधायी शक्ति से ही है। अनुच्छेद 213 के अनुसार इसका प्रयोग तभी किया जा सकता है जब विधानमंडल का कोई सत्र न चल रहा हो।
राज्यपाल की अध्यादेश जारी करने की शक्ति को निम्न बिंदुओं के अंतर्गत स्पष्ट किया जा सकता है-

1. यदि राज्यपाल को समाधान हो जाता है कि ऐसी परिस्थितियाँ विद्यमान हैं जिनके कारण तुरंत कार्यवाही आवश्यक है, लेकिन राज्य विधानसभा (विधानपरिषद वाले राज्यों में विधानमंडल) का कोई सत्र नहीं चल रहा है, तब ऐसी स्थिति में राज्यपाल अध्यादेश जारी कर सकता है। इसका वही बल और प्रभाव होता है जो राज्य के विधानमंडल द्वारा पारित अधिनियम का होता है।

2. अध्यादेश केवल उन्हीं विषयों पर जारी किया जा सकता है, जिन पर कानून बनाने की शक्ति राज्य विधानमंडल के पास है।

3. परंतु कुछ मामलों में राज्यपाल तब तक अध्यादेश जारी नहीं कर सकता जब तक कि राष्ट्रपति ऐसे अनुदेश न दें। यह उपबंध निम्नलिखित तीन स्थितियों में लागू होता है
  • ऐसे विषय जिन पर विधानमंडल में विधेयक लाने से पूर्व राष्ट्रपति की पूर्व मंजूरी अपेक्षित होती है। या
  • ऐसे विषय जो यदि विधेयक में होते तब राज्यपाल उनको राष्ट्रपति के विचार के लिये आरक्षित रखना आवश्यक समझता।
  • यदि उसमें ऐसे विषय हैं जो कि उस विधेयक को राज्य विधानमंडल द्वारा पारित करने के उपरांत भी तब तक विधिमान्य नहीं होता, जब तक राष्ट्रपति के विचार के लिये आरक्षित रखे जाने पर उसे राष्ट्रपति की अनुमति प्राप्त नहीं होती।

4. अध्यादेश की निरंतरता के लिये आवश्यक है कि राज्य का विधानमंडल सत्र शुरू होने के 6 सप्ताह की अवधि पूरी होने से पहले उसका अनुमोदन कर दे। जिन राज्यों में विधायिका द्वि-सदनीय है, वहाँ इसका अनुमोदन दोनों सदनों द्वारा किया जाना आवश्यक है। यदि इस अध्यादेश को विधानमंडल द्वारा खारिज कर दिया जाता है तो वह प्रवर्तन में नहीं रहता है।

5. राज्यपाल द्वारा अध्यादेश को किसी भी समय वापस लिया जा सकता है।

वीटो शक्तियाँ

राज्य विधानमंडल द्वारा पारित कोई विधेयक तभी विधि/कानून बन सकता है, जब राज्यपाल उस पर अपनी स्वीकृति प्रदान कर दे। हालाँकि कुछ परिस्थितियों में राज्यपाल अपनी वीटो शक्ति का प्रयोग कर विधेयक पर स्वीकृति रोक सकता है। हालाँकि संविधान के उपबंधों में वीटो शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है।
राज्यपाल विधेयक पर निम्नलिखित वीटो लगा सकता है-

आत्यंतिक वीटो
जब राज्यपाल किसी विधेयक पर स्वीकृति रोक लेता है, तो उसे आत्यंतिक वीटो कहा जाता है, परंतु यह निर्णय स्वतंत्र न होकर साधारणतः मंत्रिपरिषद की सिफारिश पर होता है। धन विधेयक पर इस वीटो का प्रभाव नहीं होता क्योंकि ऐसा विधेयक राज्यपाल की पूर्व सहमति से प्रस्तुत किया जाता है।

निलंबनकारी वीटो
जब राज्यपाल किसी विधेयक को अपनी सिफारिशों के साथ विधानमंडल को पुनर्विचार के लिये वापस भेजता है तो यह निलंबनकारी वीटो कहलाता है। यदि विधानमंडल उस विधेयक को राज्यपाल द्वारा सुझाए गए संशोधनों सहित या उसके बिना पुनः पारित कर राज्यपाल के समक्ष स्वीकृति के लिये भेजता है, तो राज्यपाल को स्वीकृति देनी पड़ती है (चूँकि धन विधेयक को पुनर्विचार के लिये विधानमंडल के पास नहीं भेजा जा सकता है, इसलिये धन विधेयक पर निलंबनकारी वीटो का प्रयोग नहीं हो सकता है)।

पॉकेट वीटो
इसे जेबी वीटो के नाम से भी जाना जाता है। संविधान में राज्यपाल के समक्ष आए विधेयक पर निर्णय लेने की कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है, जिस कारण वह विधेयक पर न तो स्वीकृति देता है, न ही अस्वीकृत करता है, बल्कि विधेयक को अनिश्चितकाल के लिये लंबित कर देता है। इसी शक्ति को पॉकेट वीटो के नाम से जाना जाता है। इसका प्रयोग धन विधेयक व राष्ट्रपति के विचार के हेतु विधेयक सुरक्षित रखने की स्थिति में किया जा सकता है।

विवेकाधीन शक्तियाँ

संविधान राज्यपाल को विशेष तौर पर ऐसी शक्तियाँ देता है जिन्हें उसकी विवेकाधीन शक्तियाँ कहा जा सकता है। संविधान के अनुच्छेद 163 तथा 164 के आधार पर इन शक्तियों को समझा जा सकता है-
  • (i) अनुच्छेद 163(1) में कहा गया है कि जिन बातों में इस संविधान द्वारा राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने कृत्यों को अपने विवेकानुसार करे, उन बातों को छोड़कर राज्यपाल को अपने कृत्यों का प्रयोग करने में सहायता और सलाह देने के लिये एक मंत्रिपरिषद होगी, जिसका प्रधान मुख्यमंत्री होगा।
  • (ii) अनुच्छेद 163(2) में कहा गया है कि यदि कोई प्रश्न उठता है कि कोई विषय ऐसा है या नहीं जिसके संबंध में राज्यपाल से अपेक्षित है कि वह अपने विवेकानुसार कार्य करे तो राज्यपाल का अपने विवेकानुसार किया गया निर्णय अंतिम होगा और राज्यपाल द्वारा किये गए किसी कार्य की वैधता को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जाएगी कि उसे अपने विवेकानुसार कार्य करना चाहिये था या नहीं।
राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है- पहली, वे जो संविधान में स्पष्ट रूप में दी गई हैं और दूसरी वे जिनका उल्लेख व्यक्त रूप में नहीं किया गया है किंतु वे भी संविधान में अंतर्निहित हैं।

स्पष्ट रूप में दी गई विवेकाधीन शक्तियाँ
राज्यपाल को दो प्रकार की विवेकाधीन शक्तियाँ स्पष्ट रूप में दी गई हैं। पहली वे हैं जो संविधान के भाग-6 में शामिल अनुच्छेदों द्वारा दी गई हैं और दूसरी वे जो अनुच्छेद 371 तथा कुछ अन्य अनुच्छेदों के तहत कुछ विशेष राज्यों के राज्यपालों को दी गई हैं। इन दोनों का परिचय इस प्रकार है-

(i) भाग-6 द्वारा प्रदत्त शक्तियाँ
  • अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल विधानमंडल द्वारा पारित विधेयक को पुनर्विचार के लिये वापस भेज सकता है और यदि चाहे तो राष्ट्रपति के विचार के लिये आरक्षित रख सकता है।
  • वह केंद्र को सिफारिश कर सकता है कि राज्य का शासन संविधान के उपबंधों के तहत चलाना संभव नहीं रहा है, अतः राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाना चाहिये।
  • वह मुख्यमंत्री से प्रशासन संबंधी और प्रस्तावित विधानों से संबंधित विषयों पर जानकारी मांग सकता है।
  • अगर किसी मंत्री ने किसी विषय पर कोई निर्णय कर लिया है किंतु मंत्रिपरिषद ने उस पर विचार नहीं किया है तो राज्यपाल मुख्यमंत्री से अपेक्षा कर सकता है कि वह उस विषय को मंत्रिपरिषद के समक्ष विचार के लिये रखे।
  • यदि कोई भी दल या गठबंधन सरकार बनाने की स्थिति में न रहे तो राज्यपाल विधानसभा का विघटन (Dissolution) कर सकता है।

(ii) कुछ विशेष राज्यों के राज्यपालों की शक्तियाँ
अनुच्छेद 371 के विभिन्न खंडों तथा पाँचवीं व छठी अनुसूचियों में कुछ राज्यों के राज्यपालों को अभिव्यक्त रूप से विवेकाधीन शक्तियाँ दी गई हैं।
अनुच्छेद 371 के तहत दी गई शक्तियों को राज्यपाल का विशेष उत्तरदायित्व (Special Responsibility) कहा गया है। इन शक्तियों में निम्नलिखित तत्त्व शामिल हैं-
  • अनुच्छेद 371(2) के तहत यदि राष्ट्रपति आदेश देता है तो महाराष्ट्र का राज्यपाल विदर्भ, मराठवाड़ा या शेष महाराष्ट्र के लिये और गुजरात का राज्यपाल सौराष्ट्र, कच्छ या शेष गुजरात के लिये पृथक् विकास बोर्डों की स्थापना कर सकता है।
  • अनुच्छेद 371(क) के तहत नागालैंड के राज्यपाल को कुछ विशेष उत्तरदायित्व दिये गए हैं, जैसे- (क) राज्य में कानून और व्यवस्था बनाए रखने के संबंध में, विशेषतः तब तक जब तक नागा पहाड़ी त्युएनसांग क्षेत्र में आंतरिक अशांति समाप्त नहीं होती; (ख) त्युएनसांग जिले के लिये 35 सदस्यों की एक परिषद स्थापित करना तथा उसकी कार्यप्रणाली से संबंधित नियम बनाना; तथा (ग) शेष राज्य तथा त्युएनसांग जिले के बीच धन का समतामूलक आवंटन करना।
  • अनुच्छेद 371(ग) के अधीन मणिपुर के राज्यपाल को विशेष उत्तरदायित्व दिया गया है कि यदि राष्ट्रपति आदेश दे तो वह राज्य की विधानसभा में पहाड़ी क्षेत्रों से निर्वाचित सदस्यों की समिति बना सकेगा, उस समिति की कार्यप्रणाली के नियम बना सकेगा तथा राष्ट्रपति द्वारा अपेक्षा किये जाने पर पहाड़ी क्षेत्रों में प्रशासन के संबंध में राष्ट्रपति को रिपोर्ट देगा।
  • अनुच्छेद 371(च) के तहत सिक्किम के राज्यपाल को यह विशेष उत्तरदायित्व दिया गया है कि वह राष्ट्रपति द्वारा समय-समय पर दिये जाने वाले निदेशों के अधीन रहते हुए अपने विवेक से सुनिश्चित करेगा कि राज्य में शांति बनी रहे तथा राज्य की जनता के विभिन्न अनुभागों की सामाजिक व आर्थिक उन्नति सुनिश्चित हो
  • तथा समतामूलक हो।
  • अनुच्छेद 371(ज) के तहत अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल को यह विशेष उत्तरदायित्व दिया गया है कि राज्य में कानून और व्यवस्था को बनाए रखने के लिये उपयुक्त कार्यवाही करे।
  • पाँचवीं अनुसूची के तहत अनुसूचित क्षेत्रों पर अधिकारिता रखने वाले राज्यपालों को अधिकार दिया गया है कि वे वहाँ क्षेत्र की शांति और सुशासन के लिये विनियम बना सकेंगे।
  • असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम के राज्यपालों को यह विवेकाधीन शक्ति है कि वे इन राज्यों से होने वाले खनिज उत्खननों में जनजातीय ज़िला परिषद को दी जाने वाली रॉयल्टी की राशि निर्धारित करें।

अव्यक्त रूप में विद्यमान विवेकाधीन शक्तियाँ
ये वे शक्तियाँ हैं जो संविधान के किसी अनुच्छेद में स्पष्ट भाषा में नहीं लिखी हैं किंतु संविधान के विभिन्न उपबंधों में अंतर्निहित हैं। ये इस प्रकार हैं-
  1. अगर विधानसभा के चुनावों में किसी भी दल या चुनाव पूर्व गठबंधन को स्पष्ट बहुमत न मिला हो तो राज्यपाल ही निर्धारित करता है कि मुख्यमंत्री पद के लिये किस व्यक्ति को आमंत्रित किया जाए।
  2. यदि कार्यकाल के दौरान अचानक मुख्यमंत्री की मृत्यु हो जाती है और उसका कोई निश्चित उत्तराधिकारी नहीं है तो राज्यपाल को अपने विवेक से ही चुनना होता है कि किसे मुख्यमंत्री नियुक्त किया जाए।
  3. मंत्रिपरिषद को भंग करने के मामले में राज्यपाल को व्यापक रूप से विवेकाधीन शक्ति मिली हुई है। प्रायः निम्नलिखित स्थितियों में वह इस शक्ति का प्रयोग कर सकता है-
  • (क) यदि राज्यपाल को विश्वास हो जाए कि विधानसभा में मंत्रिपरिषद का बहुमत नहीं रहा है तो वह मुख्यमंत्री से कह सकता है कि वह विधानसभा का अधिवेशन बुलाकर बहुमत सिद्ध करे। यदि मुख्यमंत्री अधिवेशन बुलाने से इनकार कर दे तो राज्यपाल मंत्रिपरिषद को बर्खास्त कर सकता है।
  • (ख) अगर विधानसभा में मंत्रिपरिषद के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित हो गया हो किंतु फिर भी वह त्यागपत्र न दे तो राज्यपाल उसे बर्खास्त कर सकता है।
  • (ग) यदि मंत्रिपरिषद संविधान के विरुद्ध कार्य कर रही हो या न्यायालय ने मुख्यमंत्री को भ्रष्टाचार या किसी अन्य गंभीर आरोप में दोषी घोषित किया हो किंतु वह इस्तीफा देने को तैयार न हो तो मंत्रिपरिषद को बर्खास्त कर सकता है।

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