सल्तनत काल - सल्तनत काल का इतिहास | saltanat kal

सल्तनत काल

उत्तर भारत में तुर्क राज्य की स्थापना के साथ ही भारतीय समाज में मुसलमानों के रूप में एक ऐसा तत्त्व आ गया जिसे हिन्दू समाज कालान्तर में भी आत्मसात् न कर सका। धर्म, नीति, विधि-विधान, खान-पान आदि अनेक दिशाओं में विजित ओर विजेताओं में इतना अन्तर था कि मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल तक समवन्यकारी शक्तियाँ इस अन्तर को मिटाने में बहुत कम सफल हो सकी।
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सल्तनतकालीन भारतीय समाज के मुस्लिम समाज में अनेक वर्ग थे, जैसे – सुल्तान और उसका दरबार, अमीर, उलेमा गुलाम और सामान्य मुसलमान।

मुस्लिम समाज

इस समय मुस्लिम समाज चार भागों में विभक्त था - शासक वर्ग, मध्यम वर्ग, उलेमा वर्ग तथा जन साधारण ।

शासक वर्ग
यह समाज का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वर्ग था। यह शासन का संचालन करता था। शासन का सर्वोच्च पदाधिकारी सुल्तान होता था, जिसके हाथ में शासन की समस्त शक्तियां निहित थी। डॉ. कुरैशी ने सुल्तान को वैधानिक सम्प्रभु तथा वास्तविक सम्प्रभु कहा है।
इस काल में सुल्तान मात्र औपचारिक रूप से खलीफा का प्रतिनिधि माना जाता था। व्यवहारतः वह निरंकुश एवं सर्वोच्च शासक था। उसका जीवन बड़ा भव्य था। उसके सिंहासन पर बैठने के समय उसके मंत्री व अधिकारी उसके समक्ष खड़े रहते थे। छात्र, दूरबास एवं सायबान प्रमुख राज्य चिन्ह माने जाते थे। कलाकार, भांडत संगीतज्ञ, नादिम, विदूषक आदि अपनी-अपनी कलाओं द्वारा सुल्तान का मनोरंजन करते थे। सर जांदार, सर आवदार, चाशनीगीर आदि पदाधिकारियों पर सुल्तान की सुरक्षा का दायित्व था।
इस काल में सुल्तान बड़े भोग-विलासी थे। बी.एन. लूनिया के शब्दों में, "भोग-विलास से परिपूर्ण जीवन मुगल राज दरबार तथा मुगल युग के लिए सम्मान की वस्तु थी। इस युग में भारतीय राजसभाओं तथा सामन्तों के जीवन में सबसे अधि क आकर्षक तत्त्व भोग-विलास की अतुलनीय भावना थी।

अमीर
इनका मुस्लिम समाज में दूसरा स्थान था। ये चार भागों में विभक्त थे- खान, मलिक, अमीर एवं सिपहसालार। सुल्तान की शक्ति अमीरों के समर्थन पर निर्भर करती थी। ये सुल्तान की शक्ति पर एक प्रकार से नियन्त्रण का काम करते थे। वस्तुतः ये मुगल शासन के आधार स्तम्भ थे तथा इनकी उपेक्षा कर शासन का सही ढंग से संचालन सम्भव न था।
इन अमीरों का राजनीति पर विशेष प्रभाव था। ये शसन कार्य में सुल्तान की सहायता करते थे तथा जनसाधारण का शोषण कर भोग-विलास का जीवन बिताते थें कभी-कभी ये अमीर षड्यन्त्र रचकर सुल्तान के स्थान पर स्वयं गद्दी पर बैठने का भी प्रयत्न करते थे। के.एम. अशरफ ने लिखा है, "सुल्तान अपने जीवन काल में ही इनकी उपाधिया वापस ले सकता था तथा इन्हें सदैव सुल्तान की कृपा पर निर्भर रहना पड़ता था।" सुल्तान साधारणतः अमीरों का समर्थन प्राप्त करने का प्रयत्न करता था। जहां सल्तनतकालीन अमीर स्वतन्त्र एवं षड्यन्त्रकारी थे, वहीं मुगलकालीन अमीरों ने शासन को स्थायित्व दिया।

उलेमा
इन्हें न्याय, धर्म एवं शिक्षा से सम्बन्धित उच्च पदों पर नियुक्त किया जाता था। डॉ. अशरफ ने इनके सम्बन्ध में लिखा है, "कुरान में उलेमा का स्थान साधारण रूप में मुसलमानों से पृथक् माना गया है, जो लोगों को उचित मार्गदर्शन कराते हैं।" ये इस्लाम का प्रचार, धार्मिक कार्य तथा शिक्षण संस्थाओं में अध्यापन का कार्य करते थे। ये कुरान, हदीस, फिक्र आदि में पारंगत होते थे।
सुल्तान प्रमुख राजनीतिक समस्याओं पर इनसे परामर्श लेता था। सल्तनतकाल में अलाउद्दीन के अलावा शेष सभी मुस्लिम शासकों पर इनका काफी प्रभाव रहा। वस्तुतः उलेमाओं का राजनीति में हस्तक्षेप घातक रहा, क्योंकि उन्होंने धार्मिक नीति अपनाने को प्रेरित किया। अगर इन्हें मध्ययुगीन धर्मान्धता का जनक कहा जाए, तो कदाचित् अनुपयुक्त न होगा।

मध्यम वर्ग
इसकी स्थिति शासक वर्ग एवं जनसाधारण के बीच की होती थी। इन्हें पर्याप्त सम्मान प्राप्त था। बर्नियर ने लिखा है कि अत्यधिक विलासी जीवन बिताने के कारण ही अमीर ऋणग्रस्त थे, जबकि मध्यम वर्ग विलासी एवं आडम्बर प्रेमी न होने के कारण समृद्ध था। इस वर्ग में व्यापारी आते थे, जिनके सम्बन्ध में डॉ. युसूफ हुसैन ने लिखा है, "गुजरात के व्यापारी भारत के समस्त समुद्र तट पर व्यापार करते थे, जो पूंजीपति व्यापारी थे।"

जनसाधारण
इसमें किसान, मजदूर, कारीगर, दुकानदार आदि शामिल थे। इसमें हिन्दू धर्म को छोड़कर मुसलमान धर्म स्वीकार करने वाले लोग आते थे। विजेता मुसलमानों ने इन भारतीय मुसलमानों को सदैव घृणा की दृष्टि से देखा। डॉ. श्रीवास्तव के अनुसार, "तुर्क जाति विभेदी नीति में विश्वास रखती थी और इसलिए उसने भारतीय मुसलमानों को अपनी जाति से नहीं, वरन सरकारी नौकरियों से भी वंचित कर रखा था। कुतुबुद्दीन से लेकर कैकबाद तक सल्तनत की यही कठोर नीति रही कि प्रशासन की सत्ता पर तुर्कों का ही अधिकार बना रहे।" इन धर्म परिवर्तित मुसलमानों के सम्बन्ध में डॉ. ए.एल. श्रीवास्तव ने लिखा है, "दीर्घकाल तक भारतीय मुसलमानों की स्थिति बहुत दयनीय रही। देश के शासन में उनका हाथ नहीं था ओर न शासक वर्ग में उनका स्थान था। अपने बहुसंख्यक हिन्दू देशवासियों से धन, सामाजिक स्थिति तथा स्वाभिमान की दृष्टि से वह कहीं अधिक नीचे था। उसको केवल यह सन्तोष खड़ा होकर मस्जिद में नमाज पढ़ सकता हूँ।" इस समय आर्थिक दृष्टि से भी जनसाधारण की स्थिति खराब थी। पैलसर्ट ने लिखा है, उनके मकान मिट्टी के बने हुए छप्पर की छतों के हैं। कुछ मिट्टी के घड़ों, पकाने के बर्तनों तथा दो चारपाइयों के अतिरिक्त उनके घर में सजावट के उपकरण या तो बहुत कम है या बिल्कुल नहीं हैं कड़ाके के जाड़े में वस्त्रों के अभाव में वे अत्यन्त दयनीय रातें व्यतीत करते हैं।" डॉ. श्रीवास्तव ने लिखा है, "निम्न श्रेणी के मनुष्य इतने निर्धन है कि वे साधारण सुख-सुविधा का उपभोग ही नहीं कर सकते थे। ये लोग आज के मजदूरों की तरह झोपड़ियों में रहते थे और सारे दिन परिश्रम करते थे। इनके पास जीवनोपयोगी वस्तुएं भी बहुत कम थी।' इस काल में जनसाधारण की स्थिति काफी दयनीय थी तथा उसका बहुत अधिक शोषण किया जाता था।

हिन्दू समाज

जातिप्रथा की जटिलता
प्राचीनकाल में हिन्दु समाज वर्ण-व्यवस्था और वर्णाश्रम धर्म पर टिका हुआ था। हिन्दुओं के समाज का प्रमुख आधार जाति–प्रथा था। इस काल में मुसलमानों को जिस प्रकार तुर्की रक्त को जाति के आधार पर श्रेष्ठ समझा जाता था उसी प्रकार की जाति व्यवस्था हिन्दुओं में भी संकीर्ण होती गयी। मध्यकाल में जाति-व्यवस्था प्रायः उस रूप में आ गई जो आजकल दिखाई पड़ती है। वंश परंपरा के अनुसार हिन्दुओं का व्यवसाय स्थिर होने लगा। खान-पान, धार्मिक विश्वास, भौगोलिक स्थिति, विवाह संस्कार आदि में विभिन्नता के कारण एक वर्ग के भीतर ही अनेक वर्ग बनने लगे। वर्ण संकरों की नई जातियाँ बनीं। पहले गोत्र का महत्व अधिक था, किन्तु अब गोत्र का उल्लेख बंद हो गया और लोगों का परिचय उपाधियों के द्वारा दिया जाने लगा।
इस्लाम धर्म अपनाने वाले हिन्दुओं को पुनः हिन्दू समाज और धर्म में वापस लिए जाने की व्यवस्था नहीं थी। यद्यपि इस काल में जातियों की जटिलता बढ़ी, फिर भी समाज में ब्राह्मणों का स्थान सर्वश्रेष्ठ रहा और उनका सम्मान होता रहा। छुआ-छूट की भावना पहले से और प्रबल हो गयी तथा अछूतों की स्थिति में और भी पतन हुआ।

हिन्दुओं की सामान्य स्थिति
देश की बहुसंख्यक जनता हिन्दू थी। सल्तनत युग में अधिकांश भूमि पर इन्हीं का अधिकार था। उनमें से बहुत अधिक समृद्धशाली भी थे। बर्नी ने इनकी समृद्ध स्थिति का वर्णन किया है। खुत, मुकद्दम, चौधरी आदि काफी सम्पन्न थे। प्रमुख व्यापार भी इन्हीं के हाथों में था। इनकी दशा कुछ काल तक अच्छी रही, परन्तु अलाउद्दीन के काल में इनकी स्थिति दयनीय हो गयी।
सल्तनत का राज्य लगभग साढ़े तीन सौ वर्षों तक स्थापित रहा। इस काल में विजय तथा दमन की प्रक्रिया हुई। परिणामस्वरूप लाखों हिन्दू मारे गये और उनकी स्त्रियों तथा बच्चों को गुलाम बनाकर बेच दिया गया। इस युग में राजनीतिक तथा सामाजिक दृष्टि से हिन्दू जनता को काफी कष्ट हुआ। उन्हें शासन के महत्वपूर्ण पदों से वंचित नहीं किया गया वरन् उनके साथ घृणापूर्ण दुर्व्यवहार भी किया गया। अपनी नारी जाति के सम्मान की रक्षा के लिए हिन्दुओ ने बाल विवाह जैसी कुप्रथा को अपना लिया। हिन्दुओं को धार्मिक स्वतंत्रता नहीं थी। इस काल में बड़ी संख्या में अनेक मंदिरों एवं मूर्तियों को नष्ट-अष्ट किया गया और उनके धार्मिक अनुष्ठानों पर तरह तरह के प्रतिबंध लगाये गये। उन्हें जजिया और तीर्थ यात्रा कर देना पड़ता था। इस प्रकार एक जाति के रूप में हिन्दुओं का काफी पतन हुआ।

जाति व्यवस्था

मध्यकाल में भी जाति व्यवस्था विद्यमान थी। इस काल में मुसलमानों में भी जाति भेद विद्यमान थे। तुर्क मुसलमान भारतीय मुसलमानों से घृणा करते थे तथा उन्हें उच्च पदों पर नियुक्त्त नहीं करते थे। सुन्नी लोग शिया मत बालों से घृणा करते थे। हिन्दू समाज में चारों वर्गों के अलावा अनेक जातियों व उपजातियों का विकास हो रहा था। ब्राह्मणों व क्षत्रियों को समाज में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त था। वैश्यों की स्थिति भी अच्छी थी। अलबरूनी का यह कथन भ्रामक लगता है, “वैश्यों को वैदिक मन्त्र सुनने की आज्ञा नहीं थी और यदि कोई वैश्य वैदिक मन्त्र का उच्चारण भी कर लेता था, तो उसकी जीभ काट दी जाती थी।" शद्रों की स्थिति काफी दयनीय थी। अतः इस्लाम धर्म प्रचारकों ने उन्हें इस्लाम स्वीकार करने के लिए प्रोत्साहित किया।

भोजन

हिन्दू एवं मुसलमान दोनों ही वर्गों के साधारण स्थिति वाले मनुष्यों में इतनी क्षमता नहीं थी कि वे उत्तम प्रकार का भोजन कर सकें अतः वे साधारण भोजन पर ही अपना जीवन निर्वाह करते थे। खिचड़ी इस वर्ग का मुख्य भोजन था। इसके सम्बन्ध में सभी विदेशी यात्रियों एवं इतिहासकारों ने लिखा है। वर्तमान काल के समान ही दक्षिण भारतीय लोगों का मुख्य भोजन चावल था। उच्च वर्गीय तथा मध्यवर्गीय लोग रोटी, चावल तथा विभिन्न प्रकार की सब्जियां बनाते थे। हिन्दु प्रायः निरामिष होते थे। मुस्लिम परिवारों में सामान्य रूप से गोश्त का प्रचलन था। मैण्डल्सों ने मुसलमानों के भोजन के विषय में लिखा है, "वे स्वतन्त्रतापूर्वक गाय तथा बछड़े का मांस, मछली, शिकार की जाने वाली चिड़या तथा भेड़-बकरी का मांस खाते थे।" इस मांस को स्वादिष्ट बनाने के लिए विभिन्न प्रकार के मसालों का प्रयोग करते थे।

मादक द्रव्य

मुसलमानों में इसका साधारण रूप से प्रयोग होता था। सम्भवतः मुसलमानों में कोई भी वर्ग ऐसा नहीं था जो मदिरा का सेवन न करता हो। स्त्रियां, शिक्षक, धार्मिक पुरुष गुप्त रूप से इसका सेवन करते थे तथा सिपाही एवं सैन्य अधिकारी प्रत्यक्ष रूप से मद्यपान करते थे। अलाउद्दीन खिलजी ही एक मात्र ऐसा शासक था जिसने मद्यपान का विरोध किया था अन्यथा अन्य किसी सुल्तान ने इसका विरोध नहीं किया। तम्बाक का प्रयोग सल्तनत काल में नहीं होता था।

वस्त्र

सल्तनत काल में विभिन्न वर्गों के लोग भिन्न-भिन्न प्रकार की पोशाक पहनते थे। साधारण मुसलमान व धनी मसलमानों की पोशाक में कोई विशेष अन्तर नहीं था। केवल मुसलमानों के वस्त्र ही उत्तम प्रकार के कपड़े के बने होते थे। दिल्ली के प्रारम्भिक सुल्तान सिर पर कूल्हा तथा लम्बी तारतार टोपी पहनते थे। जलालुद्दीन खिलजी के सम्बन्ध में इतिहासकारों का मत है कि वह पगड़ी पर कुल्हा बांधता था। शरीर पर ये कसा हुआ काबा पहनते थे। यह काबा मौसम के अनुसार मलमल अथवा ऊन का बना होता था। कालान्तर में पेशवाज तथा अंगरखे का भी प्रचलन हो गया। शीत ऋतु में कुर्ता के ऊपर कभी-कभी दगला भी पहना जाता था। यह एक प्रकार का लम्बा कोट होता था जिसमें सूती अथवा किसी अन्य प्रकार के वस्त्र का अस्तर लगा होता था।

श्रृंगार

सल्तनत काल में स्त्री तथा पुरुष दोनों ही शृंगार प्रेमी थे। स्त्रियां नेत्रों में काजल, मांग में सिन्दूर तथा हाथों में मेंहदी लगाती थी। शीश, नाक, कान, भुजा, अंगुली, कटि, आदि में तरह-तरह के आभूषण धारण किये जाते थे। चन्दनहार एवं तेल का भी प्रयोग होता था।

मनोरंजन

चौगान इस युग के कुलीन परिवारों का मुख्य एवं प्रिय खेल था। आधुनिक युग में इसे 'पोलो' कहा जाता है। भारत में इसको लाने का श्रेय मुसलमानों को ही है। दिल्ली सल्तनत के प्रथम सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु चौगान खेलते समय घोड़े से गिरकर ही हुई थी। इसके अतिरिक्त दिल्ली के मुसलमानों का सर्वाधिक प्रिय मनोरंजन शिकार था और उन्होंने इसके लिए एक पृथक् विभाग की स्थापना की थी जिसका अध्यक्ष 'अमीर-ए-शिकार' कहलाता था। इस विभाग का उत्तरदायित्व किसी अमीर या योग्य व्यक्ति को सौंपा जाता था। 'शाही बाज' तथा अन्य शिकारी पशु-पक्षियों की रक्षा के लिए 'आरिजन-ए-शिकार', "खस्सारदन', 'हिमतरन', आदि अन्य अधिकारियों की भी नियुक्ति की जाती थी। विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षी भारी संख्या में एकत्रित किये जाते थे। दिल्ली के निकट ही चार वर्ग मील के क्षेत्र में 'शाही शिकारगाह' थी। हिरन, नीलगाय तथा जंगली सूअरों का विशष रूप से शिकार किया जाता था। बादशाह शेर का शिकार करता था। इतिहासकार अफीफ ने अपनी पुस्तक तारीख-ए-फिरोजशाही' में फिरोजशाह तुगलक के समय की शिकार पार्टियों का विस्तृत वर्णन किया है। इसी पुस्तक में अफीफ ने फिरोजशाह तुगलक द्वारा मछली के शिकार करने का भी सविस्तार वर्णन किया है।
'शतरंज भी कलीन वर्गों का प्रिय मनोरंजन था। जारसी ने अपने प्रसिद्ध महाकाव्य 'पदमावत' में राजा रत्नसेन एवं दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन के मध्य चित्तौड़ दुर्ग के अन्दर होने वाले शतरंज के खेल का विशद वर्णन किया है। 

दास प्रथा

मध्यकाल में हिन्दू एवं मुसलमान दोनो को ही दास रखने का बड़ा शौक था। हाट में दासों को पशुओं के समान बेचा जाता था। हिन्दू धर्मग्रन्थों में 15 प्रकार के दासों का वर्णन मिलता है तथा इनके साथ सव्यवहार होता था। मुस्लिम समाज में गृह कार्य का दायित्व दासों पर डाल दिया गया था। मुस्लिम समाज में चार तरह के दास थे-
  1. खरीदा हुआ,
  2. दान व उपहार में प्राप्त,
  3. युद्ध बन्दी व
  4. आत्मविक्रेता दास
सामान्यतः मुसलमान भी अपने दासों के साथ उदारता का व्यवहार करते थे। किसी उच्च अधिकारी का दास होने पर दास को अपनी योग्यता के बूते समाज में प्रतिष्ठा पाने का अवसर मिल जाता था। मुहम्मद गोरी के ताजुद्दीन यल्दोज, नासिरूद्दीन कुबाचा, कुतुबुद्दीन ऐबक आदि दास अपनी योग्यता के कारण एवं अपने स्वामी की उदारता के कारण उच्च पदों तक पहुंच पाए थे। नासिरूद्दीन खुसरों मलिक काफूर, खानेजहां मकबूल आदि भी इसी तरह के उदाहरण थें डॉ. पाण्डेय ने लिखा है, "भारत में तुर्कों की सफलता का प्रमुख कारण उनकी विशिष्ट दास प्रथा थी।' ईश्वरीप्रसाद के अनुसार, "पूर्वी मुसलमानी प्रदेशों में किसी राजा अथवा सेनापति का दास होना बड़े गौरव की बात समझी जाती थी ओर प्रायः दास तथा निम्न वंश में जन्म लेने पर भी वे उच्च वंश वाले नवाबों के समकक्ष त्था उनसे उत्तम समझे जाते थे।" लेनपूल के शब्दों में, "सुयोग्य राजा का पुत्र असफल हो सकता है, किन्तु मनुष्य के सच्चे नेताओं का दास बहुधा अपने स्वामी के बराबर ही निकल जाता है।"

स्त्रियों की स्थिति

सल्तनकाल में स्त्रियों की स्थिति निम्न बिन्दुओं में दर्शायी जा सकती है -

परिवार में नारी का स्थान
सल्तनकाल में स्त्रियों की दशा पुरुषों की अपेक्षा निम्न थी किन्तु फिर भी हिन्दू समाज में स्त्रियों का सम्मान था। स्त्री को गृहस्वामिनी के रूप में देखा जाता था। धार्मिक कार्यों में स्त्री की उपस्थिति अनिवार्य थी। पुत्रवती स्त्रियों का अत्यधिक सम्मान था। पति की सेवा एवं घर के कार्यों को करना स्त्री के कर्तव्य थे। इतना सब कुछ होते हुए भी स्त्रियों को पूर्ण स्वतन्त्रता नहीं थी। बचपन में वह माता-पिता, युवावस्था में पति एवं वृद्धावस्था में पुत्रों के अधीन रहती थी। जहां तक मुस्लिम परिवारों में स्त्री की दशा का सम्बन्ध है, अत्यन्त खराब कही जा सकती है। मुसलमानों में बहु-विवाह की प्रथा के कारण सहपत्नियों में गृह-कलह रहता था। इससे पारिवारिक जीवन कष्टकारी था। मुसलमान स्त्रियां पूर्णतः पति पर आश्रित थी। वह किसी से बात भी नहीं कर सकती थी। पति को, पत्नी को तलाक देने का पूर्ण अधिकार था।

विवाह
उच्च वर्ग के मुसलमानों में बहु-विवाह का प्रचलन था। वे प्रायः तीन या चार पत्नियां रखते थे। कुरान के अनुसार एक मुसलमान चार पत्नियों का अधिकारी होता है, परन्तु फिर भी निम्न में हिन्दुओं व मुसलमानों में अधिकतर एक ही विवाह का प्रचलन था। यथार्थ में मुसलमान निकाह के द्वारा 4 विवाह तथा मुताह के द्वारा अनेक विवाह कर सकता था। अधिकांश हिन्दू परिवारों में एक विवाह प्रथा प्रचलित थी। कुछ राजकुमारों के एक से अधिक चरित्रहीन होने के अतिरिक्त कभी भी जीवन–पर्यन्त तलाक नहीं देता था।" हिन्दुओं में विधवा विवाह का प्रचलन नहीं था, विधवा या तो पति के शव के साथ सती हो जाती थी या फिर पवित्रता का जीवन व्यतीत करती थी।

सती प्रथा
हिन्दुओं में सती प्रथा का प्रचलन था। हिन्दुओं के उच्च वर्ग में सती प्रथा का विशेष स्थान था। इनबतता ने इस सम्बन्ध में लिखा है, "पति की मृत्यु के उपरान्त पत्ती को अपने आपको जला डालना बडा ही प्रशंसनीय कार्य समझा जाता था, किन्तु यह अनिवार्य नहीं था। जब कोई विधवा अपने आपको जला डालती है तो उसके घर वालों का सम्मान बढ़ जाता है और वह पति भक्ति के लिए प्रसिद्ध हो जाती है। जो विधवा स्वयं को नहीं जलाती है उसे पीले वस्त्र धारण करने पड़ते हैं तथा उसे बड़ा दुःखी जीवन व्यतीत करना पड़ता है। हिन्दुओं में विधवा को अत्यन्त घृणा की दृष्टि से देखा जाता था। अतः जीवन भर की परेशानियों से बचने के लिए विधवाएं सती होना अधिक ठीक समझती थी। जो विधवा पति के शव के साथ सती होती थी उसे समरण या सगमन कहते थे। पति के दूरस्थ स्थान पर होने या स्त्री के गर्भवती होने पर वह पश्चात् में पति की किसी विशेष वस्तु के साथ सती हो जाती थीं। इसे अनुमरण या अनुगमन कहा जाता था। इनबतूता के अनुसार , "सती होने से पूर्व स्त्री को सुल्तान की आज्ञा लेनी पड़ती थी।" इब्नबतूता के इस कथन से ऐसा प्रतीत होता है कि सुल्तानों ने इस प्रथा पर प्रतिबन्ध लगाने के प्रयत्न किये होंगे। इससे यह लाभ अवश्य मिला होगा कि इच्छा के विरूद्ध स्त्री को सती नहीं किया जा सकता होगा।

जौहर प्रधा
जौहर भारतीय वीरत्व की भावना का अमूल्य प्रतीक है। राजपूतों में जौहर प्रथा प्रचिलत थी। राजपूतों के रणभूमि में न्यौछावर हो जाने पर उनकी वीरांगनाएं स्वयं हंसते-हसते अग्नि को समर्पित हो जाती थी। ऐसा वे इसलिए करती थी क्योंकि वे शत्रु के हाथ में पड़कर अपने को अपमानित होने से मर जाना उचित समझती थी। इनबतूता ने रणथम्भौर के राजा हम्मीर देव के घराने के जौहर का उल्लेख किया है। अलाउद्दीन खिलजी से स्वयं की रक्षा के लिए चित्तौड़ की रानी पद्मिनी ने जौहर किया था। मुहम्मद तुगलक द्वारा लम्पिला पर आक्रमण करने पर वहां की नारियों ने जौहर किया था। इनबतूता इस घटना का उल्लेख करता है, “पराजय निश्चित समझकर राजा अन्य वीरों के साथ जीवन-मरण का युद्ध करने के लिए दुर्ग के बाहर चला गया, रानी ने स्नान कर शरीर पर चन्दन लगा लिया तथा अग्नि में प्रवेश कर गई। इसी प्रकार मन्त्रियों एवं उच्च पदाधिकारियों की स्त्रियां भी अग्नि में प्रवेश कर गई।

पर्दा प्रथा
सल्तनत काल में पर्दा प्रथा का प्रचलन अत्यधिक बढ़ गया था। रजिया बेगम इस प्रथा की अवहेलना कर बिना पर्दे के दरबार में जाती थी, किन्तु मुस्लिम समाज में इसका अत्यधिक महत्व था। फिरोज तुगलक ने तो "मुसलमान स्त्रियों को दरगाहों आदि के दर्शन के लिए जाने पर भी रोक लगा दी थी।" उच्च घरानों की स्त्रियां पालकियों में चलती थी जबकि निम्न वर्ग की मुस्लिम स्त्रियां सिर से पैर तक अपने को बुर्के से ढके रखती थी। हिन्दु स्त्रियां अपहरण के भय से केवल मुंह पर पल्ला डाले रहती थीं। किसानों की स्त्रियां तो बिना पर्दा डाले खेतों में कार्य करती थी। ग्रामीण स्त्रियों में पर्दे का रिवाज कम था। इस प्रकार माना जा सकता है कि मुस्लिम स्त्रियों में ही पर्दा प्रथा का विशेष महत्व था, हिन्दू समाज में नहीं।

बाल-विवाह
तुर्की सरदार किसी सुन्दर कल्या को देखते ही उठा ले जाते थे, अतः हिन्दुओं में बाल-विवाह की प्रथा जन्म ले चुकी थी।

स्त्री शिक्षा
सल्तनत युग में स्त्री शिक्षा की समुचित व्यवस्था नहीं थी। शिक्षा केवल सम्पन्न एवं उच्च घराने की स्त्रियों को ही प्राप्त थी। उच्च वर्ग एवं धन-सम्पन्न घरानों की स्त्रियों को नृत्य व संगीत की शिक्षा दी जाती थी। देवलरानी, रूपवती एवं पदमावती इस युग की विदुषी महिलाएं थी। रजिया एक कुशल प्रशासिका थी। इनबतूता ने लिखा है कि "जब वह हनोर पहुंचा तो उसे 13 विद्यालय लड़कियों के मिले।"
इस प्रकार स्पष्ट है कि सल्तनत काल में स्त्रियों की स्थिति पहले की अपेक्षा अधिक खराब हो गई थी।

सल्तनतकालीन आर्थिक स्थिति

तुर्कों के आक्रमण से पूर्व भारत एक समृद्धिशाली देश था। विदेशियों ने देश की अतुल सम्पत्ति को देखकर आक्रमण किये थे। भारत में शासन स्थापित करने से पूर्व मुसलमानों ने देश की सम्पत्ति को खूब लूटा था। महमूद गजनवी ने राजकोष तथा मन्दिरों को लूटा था। उसके लगातार आक्रमणों का देश की अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ा था। देश का व्यापार नष्ट हो गया था। महमूद गजनवी का एकमात्र उद्देश्य धन लूटना था। जब मुसलमान देश पर शासन करने लगे तब भी राज्य विस्तार की ओर ही उनका ध्यान गया। एक ओर साम्राज्य विस्तार की नीति का अनुगमन किया जा रहा था तो दूसरी ओर दरबार की शानो-शौकत में बेशुमार खर्च हो रहा था। इस स्थिति में सल्तनत युग में आर्थिक विपन्नता एवं शोषण का ताण्डव ही दृष्टिगोचर होता है। कृषक एवं मजदूर वर्ग का शोषण कर अमीर एवं राजपरिवार के लोग वैभवपूर्ण एवं विलासिता का जीवन व्यतीत कर रहे थे। अमीर खुसरों ने ठीक ही लिखा है, "सुल्तान के मुकुट का प्रत्येक मोती निर्धन किसानों की आंखों से गिरे हुए रक्त का सफेद किया हुआ कण है।'' सुल्तानों ने आर्थिक सुधारों की और कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। केवल बलबन एवं अलाउद्दीन खिलजी ने ही आर्थिक दशा सुधारने के लिए प्रयत्न किए। संक्षेप में, सल्तनत युग की अर्थव्यवस्था को निम्नलिखित बिन्दुओं में इंगित किया जा सकता है।

भू-राजस्व

दिल्ली के सुल्तानों ने अनेक पूर्ववर्ती परम्पराओं के जो कि हिन्दू शासकों के समय प्रचलित थी, ग्रहण किया। भू-राजस्व व्यवस्था सम्बन्धी परम्पराएं सल्तनत युग में भी जारी रही। उदाहरण के लिए, गांव की भूमि पर सुल्तान का पूर्ण अधिकार था और यदि वह चाहे तो भूमि किसी को भी अनुदान में दे सकता था। सल्तनतयुगीन भू राजस्व व्यवस्था के अन्तर्गत अग्नलिखित 4 प्रकार की भूमि आती थी -

मदद-ए-माशा
यह वह भूमि थी जो कि यदा-कदा प्रसन्न होकर सुल्तानों के द्वारा किसी को दान में दे दी जाती थी। इस प्रकार की भूमि पर राजस्व वसूल नहीं किया जाता था। अभ्यर्थी के पश्चात् उसका उत्तराधिकारी इस प्रदत्त भूमि का उपयोग करता था।

खालसा भूमि
प्रो. राधेश्याम के अनुसार, "यह एक अन्य प्रकार की भूमि थी जो कि दिल्ली के निकटवर्ती प्रदेश एवं दोआब में हुआ करती थी। इस प्रकार की भूमि राजस्व व्यवस्था के अन्तर्गत प्रत्यक्ष रूप से आ जाती थी।" खालसा भूमि से राजस्व वसूल करने के लिए पृथक् 'आमिल' रखे गये थे। इस प्रकार की भूमि से प्राप्त राजस्व को कारखानों के खर्च एवं सेना के वेतन में काम में लाया जाता था।

अक्ता
प्रो राधेश्याम के अनुसार, "अक्ता का अरबी में वास्तविक अर्थ भूमि सम्पत्ति के एक भाग से है जिसे कि राज्य की ओर से कोई व्यक्ति प्राप्त करता था। यह भूमि अमीरों को वेतन के स्थान पर अक्ता के रूप में दी जाती थी।" दिल्ली सल्तनत के प्रारम्भिक काल में समुचित प्रशासनिक व्यवस्था के अभाव के कारण प्रमुखतः दो लाभों को ध्यान में रखकर इस व्यवस्था का प्रयोग किया गया। प्रथम, सुल्तान दूरस्थ या निकटवर्ती प्रदेशों का प्रत्यक्ष रूप से शासन करने के दायित्व से बचा रहा। द्वितीय, राजस्व के स्रोत निर्धारित न होने के कारण सुल्तान अमीरों, सैनिकों, राजकीय अधिकारियों, आदि को वेतन देने के दायित्व से भी मुक्त रहा। किन्तु बलबन के शासन काल तक इस व्यवस्था में अनेक दोष आ गए थे। अतः बलबन ने इस व्यवस्था में परिवर्तन के लिए कदम उठाये।

बलबन के गद्दी पर बैठते समय अक्तादारों की स्थिति एवं बलबन की नीति
बलबन के गद्दी पर बैठते समय (1266 ई.) बहुत से अक्तादार वृद्ध हो चुके थे तथा वे सेना के साथ प्रस्थान करने में भी असमर्थ थे। वे घर पर ही बैठे रहते थे। सेना के साथ चलने में समर्थ अक्तादार भी दीवान-ए-अर्ज के मुन्शियों को घूस देकर सेना के साथ जाने से बच जाते थे। बलबन ने गद्दी पर बैठते ही इस सम्बन्ध में जो जांच-पड़ताल की उससे स्पष्ट होता है कि इल्तुतमिश के समय के अनेक अक्तादारों के वंशजों ने गांव के गांवों को अपनी मिल्कियत बना लिया था और इस मिल्कियत को वे इनाम समझते थे।

बलबन ने अक्तादारों को तीन श्रेणियों में बांटा : प्रथम श्रेणी में वे अक्तादार रखे जो कि वृद्ध हो चुके थे। इस प्रकार के अक्तादारों को 40 से 50 तनके वजीफे के रूप में देकर उसने गांवों को खालसा में मिला दिया। द्वितीय श्रेणी में वे अक्तादार रखे जो कि हृष्ट-पुष्ट एवं जवान थें उनके गांवों को जब्त कर उनका वेतन निर्धारित कर दिया गया। तृतीय श्रेणी में उन अनाथ एवं विधवाओं को रखा गया जो कि अक्ताएं रखती थी और अपने पिता या पति के दासों के द्वारा दीवाने अर्ज में अस्त्र-शस्त्र व घोड़े भेजते थे। बलबन ने इस प्रकार अनाथों व विधवाओं के जीवन-मरण को गांव की आय से निर्धारित करने के आदेश दिये। यह भी आदेश दिया गया कि उनके गांव उनसे लेकर राजस्व को राजकोष में जमा किया जाय किन्तु मलिक-उल-उमरा फरखुद्दीन कोतवाल द्वारा तृतीय श्रेणी के अक्तादारों द्वारा सिफारिश किए जाने पर बलबन को अपना आदेश वापस लेना पड़ा। यह ठीक है कि बलबन पूर्णतः अक्तादारी प्रथा का उन्मूलन न कर सका किन्तु उसने अक्तादारों को इस बात के लिए बाध्य अवश्य ही कर दिया कि वे अपनी अक्ताओं की आय से अपना व्यय निकालकर शेष धनराशि दीवान-ए-वजारत के पास जमा करें। उसने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक ख्वाजगी की नियुक्ति भी की जो कि अक्तादारों की आय–व्यय की जानकारी रखे और धनराशि को राजकोष में जमा कराये।

अक्तादारी प्रथा के सम्बन्ध में अलाउद्दीन खिलजी की नीति
अलाउद्दीन खिलजी ने अक्तादारी प्रथा में कतिपय परिवर्तन किये। उसने अक्ता का पूर्ण उन्मूलन करने की नीति न्हीं अपनाई। इसका कारण था साम्राज्य का विस्तार । अलाउद्दीन यह भली-भांति समझता था कि दूरस्थ प्रदेशों में केन्द्र द्वारा सीधा प्रशासन करने में पर्याप्त कठिनाई होगी। अतः उसने दूरस्थ प्रदेशों में अमीरों को अक्ताएं दी। किन्तु उसने दिल्ली के निकटवर्ती प्रदेशों से अक्कादारी तथा को समाप्त कर दिया। रुहेलखण्ड व दोआब का क्षेत्र इसी परिधि में था। उसने इसे खालसा में मिलाया। सनिकों को नगद वेतन दिया गया। इससे खालसा का राजस्व अब राजकोष में जाने लगा।
अलाउद्दीन ने जिन दूरस्थ प्रदेशों में अक्ताएं दी थीं उसने सभी प्रकार के करों की वसूली के लिए मुक्तियों एवं वलियों को नियुक्त किया। इन मुक्तियों व वलियों पर प्रशासन की ओर से कठोर नजर रखी जाती थी। सुल्तान हमेशा इस बात पर सचेत रहता था कि कहीं मुक्ति या वली राजस्व धन की सही जानकारी न दें। अतः मुक्ति या वली के सही जानकारी न दिये जाने पर कठोर दण्ड दिया जाता था। बरनी के अनुसार, "अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल में उसका मन्त्री शरफ पटवारियों के बहीखातों को जांच के उद्देश्य से मंगाता था। उसे यह अधिकार था कि राजस्व की चोरी करने वाले अधिकारियों को बन्दीगृह में डाल दे।"
अलाउद्दीन के पश्चात् अक्तादारी प्रथा पर केवल मुहम्मद तुगलक ही कुछ नियन्त्रण स्थापित कर सका अन्यथा कोई भी सल्तनत उत्तराधिकारी नियन्त्रण स्थापित करने में सफल न हो सका।

कृषि योग्य भूमि
जैसे-जैसे दिल्ली सन्तनत सृदृढ़ता को प्राप्त होती चली गयी वैसे-वैसे सल्तनत ने कृषक वर्ग से राजस्व वसूल करने की व्यवस्था को सुदृढ़ स्वरूप प्रदान करने का प्रयत्न किया। सल्तनत काल में कृषि योग्य भूमि से जो राजस्व कर वसूल किया जाता था उसे खिराज कहा जाता था और इस प्रकार की कृषि योग्य भूमि को खिराज शूगि कहा जाता था। प्रो. राधेश्याग ने लिखा है कि "ऐसा प्रतीत होता है कि 1206 ई. रो 1296 ई. तक खिराजी शूगि जो कि हिन्दू-मुसलमान कृषकों के हाथ में थी, पर कुल उत्पादन का 1/5 भाग भू-राजस्व के रूप में लिया जाता था। बलबन ने कृषकों को सन्तुष्ट रखने, कृषि उत्पादन की वृद्धि एवं उचित राजस्व की प्राप्ति पर बल दिया। मोरलैण्ड ने बलबन की नीति के विषय में लिखा है कि "बलबन ने कृषि प्रधान राज्य की ग्रामीण अर्थव्यवस्था के प्रमुख सिद्धान्त को निःसन्देह समझ ही लिया था।" मोरलैण्ड के इस कथन की सार्थकता बलबन द्वारा अपने पुत्र बुगरा खां से कहे गए इस आदेश से भी होती है कि "खिराज वसूल करते समय मध्यम मार्ग अपनाना। खिराज वसूली इतनी अधिक न हो कि जनता दरिद्र बन जाय ओर इतनी कम भी न ही कि धन की अधिकता जनता को विरोधी बना दे।"

कृषि योग्य भूमि सम्बन्धी अलाउद्दीन की नीति
अलाउद्दीन खिलजी ने कुल पैदावार का 1/2 भाग राजस्व कर के रूप में निर्धारित किया। राजस्व कर नकद एवं अनाज दोनों ही रूपों में लिया जाता था। अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अलाउद्दीन खिलजी ने राजस्व विभाग का पुनर्गठन किया। विभाग के अध्यक्ष की सहायता के लिए नायब-ए-वजीर एवं नायब-ए-मुमालिक की नियुक्ति की गई। अलाउद्दीन खिलजी ने हिसाब-किताब की देख-भाल के निए मुस्तौफी-ए-मुमालिक की नियुक्ति की, परगनों में आमिलों, मुहस्सिलों, मुशरिकों, सरहगों एवं नवीसन्दों की नियुक्ति की गई। नायब-ए-वजीर के कार्यालय में इन्हें अपनी रिपोर्ट देनी होती थी। पटवारी के बहीखाते एवं राजस्व कर वसूल करने वाले के हिसाब में असमानता क्षम्य नहीं थी। इतना होने पर भी कृषकों के पास जो रकम बकाया रह जाती थी उसे वसूल करने एवं उसका लेखा-जोखा रखने लिए मुश्तखराज विभाग खोला गया।
अलाउद्दीन खिलजी ने खिराज वसूल करने के लिए जो कठोर नीति अपनाई उसकी सफलता पर सन्देह है क्योंकि उसकी इस व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य कृषकों का शोषण रोकना था परन्तु क्या इस व्यवस्था ने कृषकों का शोषण रोककर उन्हें खुशहाल बनाया। यह ठीक है कि उसकी इस व्यवस्था ने सम्पन्न लोगों को भी कर देने पर बाध्य किया किन्तु कृषक वर्ग के लिए अपनी आय का 1/2 भाग कर के रूप में देना कष्टप्रद तो रहा ही होगा।

मुहम्मद तुगलक की कृषि सम्बन्धी नीति
अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र मुबारकशाह ने कोई नई राजस्व नीति नहीं अपनाई अपितु उसने अलाउद्दीन की नीति का ही अनुपालन किया, अतः योग्यता के अभाव में अलाउद्दीन खिलजी की नीति उसके पश्चात् असफल हो गई। किन्तु गयासुद्दीन तुगलक ने भू-राजस्व की नीति का आधार कृषकों के हितों की दृष्टि में रखकर निर्धारित किया, परन्तु उसके उत्तराधिकारी मुहम्मद तुगलक ने पिता से भिन्न नीति का अनुसरण किया। उसकी नीति का विवरण निम्नवत् है -

दोआब में कर वृद्धि
पित् हत्या के अपने निन्दनीय कार्य पर परदा डालने के लिए मुहम्मद तुगलक ने राज्याभिषेक के समय जनता में खूब धन बटवाया जिसके परिणामस्वरूप राजकोष खाली हो गया। अतः उसने राजस्व में कर वृद्धि करने की आवश्यता महसूस की। इसके अतिरिक्त अपनी महान् विजय योजनाओं के लिए भी उसे धन की आवश्यकता थी। इसलिए उसने सिंहासन पर बैठने के कुछ समय बाद ही दोआब के धनी प्रान्त में राजस्व वृद्धि की योजना लागू की। भूमि कर बढ़ा दिया गया। लेकिन दुर्भाग्य से जिस समय दोआब में इस अतिरिक्त कर वृद्धि की योजना को कार्यान्वित किया गया, उस समय वहां अनावृष्टि के कारण अकाल पड़ गया। जनता ने इसका विरोध किया। लेकिन सुल्तान द्वारा नियुक्त कर्मचारियों ने कठोरतापूर्वक कर वसूल करने का कार्य जारी रखा । अतः किसानों को बाध्य होकर अपनी भूमि छोड़नी पड़ी। जियाउद्दीन बरनी के अनुसार, "रैयत की रीढ़ टूट गयी, अब महंगा हो गया ओर वर्षा कम हुई इसलिए चारों ओर दुर्भिक्ष फैल गया। यह अवस्था कई वर्ष तक चलती रही जिससे हजारों व्यक्तियों का जीवन नष्ट हो गया।" बरनी की जन्मभूमि को भी दुर्भिक्ष का सामना करना पड़ा इसलिए उसके वर्णन में कुछ अतिश्योक्ति हो सकती है, लेकिन अतिश्योक्ति का पुट अधिक नहीं है। डॉ. ईश्वरी प्रसाद के अनुसार, "दुर्भाग्य से यह योजना उस समय कार्यान्वित की गयी जबकि दोआब में भयंकर अकाल के कारण जनता के कष्ट बढ़ गये लेकिन इससे सुल्तान सर्वथा दोषमुक्त नहीं हो जाता क्योंकि उसके पदाधिकारियों ने अकाल की परवाह न करते हुए कठोरतापूर्णक कर वसूल किया उपचार तो किया गया परन्तु बहुत देर से।"

कृषि की उन्नति (कृषि विभाग का निर्माण)
मुहम्मद तुगलक ने कृषि की उन्नति के लिए कृषि विभाग की स्थापना की। उसका नाम दीवाने कोही' रखा गया। राज्य की ओर से आर्थिक सहायता देकर कृषि के योग्य भूमि का विस्तार करना इस विभाग का मुख्य उद्देश्य था। इस कार्य के लिए साठ वर्ग मील का एक भू–भाग चुनकर उसमें बारी-बारी से विभिन्न फसलें बोयी गयी। इस योजना के अन्तर्गत सरकार ने दो वर्ष में लगभग सत्तर लाख रुपया व्यय किया। इस भू–भाग की देख-रेख के लिए बड़ी संख्या में रक्षक तथा पदाधिकारी नियुक्त किये गये। किन्तु अनेक कारणों से यह प्रयोग असफल रहा। पहला कारण असफलता का यह था कि प्रयोग के लिए चुना गया यह भू-क्षेत्र उपजाऊ नहीं था। दूसरा कारण यह था कि प्रयोग नितान्त नया था और इस सम्बन्ध में कोई पूर्व उदाहरण विद्यमान नहीं था। तीसरा तीन वर्ष का समय कम था और उसमें ठोस परिणाम की आशा करना व्यर्थ था। इतने अल्प समय में किसी भी ठोस परिणाम की आशा नहीं हो सकती थी। चौथा कारण यह था कि योजना के लिए निर्धारित किया गया धन सही अर्थ में प्रयोग नहीं किया गया क्योंकि उसमें से कुछ तो भ्रष्ट पदाधिकारी हड़प गये तथा कुछ किसानों ने अपनी निजी आवश्यकताओं पर व्यय कर दिया। इस प्रकार मुहम्मद तुगलक का वह प्रयोग भी असफल रहा ओर उसे इस योजना को त्यागना पड़ा।

महम्मद तुगलक के पश्चात् की स्थिति
मुहम्मद तुगलक की मृत्यु के पश्चात् उसके उत्तराधिकारी फिरोजशाह तुगलक के सम्मुख जहां एक ओर राजकोष रिक्त था वहीं दूसरी ओर दोआब व उसके निकटवर्ती प्रदेशों में दुर्भिक्ष का ताण्डव नृत्य था। कृषक वर्ग जर्जरित स्थिति में था, फिरोजशाह ने सभी स्थानों के कृषकों के साथ समान नीति अपनाई । गृह कर व चराई कर को छोड़कर अन्य उपकरों को समाप्त कर दिया गया। कुल पैदावार का 4 प्रतिशत भू-राजस्व कर के रूप में निर्धारित किया गया। जिन गांवों में नहरों से सिंचाई होती थी वहां पर पैदावार का 1/10 भाग जल के रूप में लगाया गया। फिरोजशाह तुगलक की मृत्यु के पश्चात् तुगलक वंश का पतन हो गया ओर सैय्यद वंश के हाथों सत्ता आ गई। सैय्यदों के शासन काल में सुल्तान की शक्ति क्षीण हो गई ओर जमींदारों की शक्ति का विकास हुआ। सैय्यदों के पश्चात् लोदी वंश के शासन काल में भू-राजस्व की दर पैदावार का 1/4 बनी रही।

अलाउद्दीन खिलजी का बाजार नियन्त्रण

उद्देश्य
सल्तनत काल के इतिहास में अलाउद्दीन खिलजी का बाजार नियन्त्रण निःसन्देह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य था। यह ठीक है कि बाजार नियन्त्रण के पीछे उसका उद्देश्य राजनीति से प्रभावित था, किन्तु फिर भी अर्थव्यवस्था की दृष्टि से उसके महत्व को नकारा नहीं जा सकता अलाउद्दीन खिलजी अपने साम्राज्य की सुरक्षा के लिए एक विशाल सेना रखना चाहता था किन्तु वह इसके लिए राज्य के साधनों पर अत्यधिक बोझ नहीं डालना चाहता था। इधर आन्तरिक विद्रोह का दमन करने के साथ-साथ उसे उत्तर-पश्चिमी सीमा पर होने वाले मंगोलों के आक्रमण का सामना भी करना था। इस स्थिति में विशाल सेना की अनिवार्यता स्वयं–सिद्ध थी। अतः अलाउद्दीन को बाजार नियन्त्रण पर ध्यान देना पड़ा। उसका उद्देश्य था कि दैनिक आवश्यकताओं व सामान्य खाद्य पदार्थों को इतना गिरा दिया जाय कि प्रत्येक सैनिक के आम व्यक्ति अपना जीवन निर्वाह कर सके।

उद्देश्य की पूर्ति हेतु कार्य
अपने उक्त उद्देश्य की पूर्ति के लिए अलाउद्दीन खिलजी ने खालसा भूमि एवं अधीनस्थ सामन्तों की भूमि से राजस्व उपज के रूप में वसूल करना आरम्भ किया। यह घोषित किया गया कि अधिक-से-अधिक अनाज शासन द्वारा एकत्रित किया जाय। कोई भी व्यक्ति सरकारी परिषद के बिना सीधा कृषक से अनाज नहीं खरीद सकता था। जिन व्यापारियों को सरकारी परिषद प्राप्त थे वे ही कषकों से सीधे अनाज खरीद सकते थे। दिल्ली के सभी व्यापारियों के लिए शहना-ए-मण्डी नामक पदाधिकारी के कार्यालय में नाम लिखवाना अनिवार्य कर दिया गया। राज्य की ओर प्रत्येक वस्तु के लिए निर्धारित कर दिये गये। निश्चित मूल्य से अधिक मूल्य पर वस्तु विक्रय करने पर कठोर दण्ड की व्यवस्था थी। यदि तोल में सामान कम दिया जाता था तो उसके शरीर से उतना ही मांस काट लिया जाता था। दोआब पदाधिकारी इस बात की गारण्टी देते थे कि वे किसी स्थिति में अनाज की चोरी न होने देंगे कोई भी 10 मन से अधिक नाज एकत्रित नहीं कर सकता था। मण्डी की समस्त सूचना दीवाने रियासत तथा शहना-ए-मण्डी नामक पदाधिकारियों द्वारा सुल्तान तक पहुंचती थी। दास का मूल्य 100 से 200 टंका निर्धारित किया गया। गेंहू का मूल्य 7 1/2 जीतल प्रति मन, जौ 4 जीतल प्रति मन, धान 5 जीतल प्रति मन एवं चना 5 जीतल प्रति मन हो गया।

परिणाम
अलाउद्दीन खिलजी की इस बाजार नियन्त्रण की नीति के जो परिणाम सामने आये इतिहासविद्वों ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। अनाज, कपड़ा व दैनिक आवश्यकता की वस्तुएं सस्ती हो गई। रहन-सहन का खर्च काफी गिर गया। अलाउद्दीन खिलजी ने यह नीति क्या पूरे साम्राज्य में लागू की या फिर केवल दिल्ली व उसे निकटवर्ती क्षेत्रों में ही लागू की? यह प्रश्न विचाराधीन है। यह प्रश्न आज भी विवादास्पद बना हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि सम्पूर्ण साम्राज्य की इस नीति का पालन न किया होगा केवल दिल्ली व उसके समीपवर्ती क्षेत्रों में ही यह नीति लागू की गई होगी। कुछ भी हो उसकी इस नीति ने सुल्तान के मुख्य उद्देश्य - मुद्रा-प्रसार को रोकने एवं रहन-सहन के खर्च को कम करने को पूरा कर दिया और सुल्तान एक विशाल सेना रखने में सफल हुआ।

व्यापार

इस काल में व्यापार बडा विकसित था। बहादुर व्यापारी समुद्र मार्ग से भी व्यापार करते थे। फादर मानसरेट ने लाहौर के सम्बन्ध में लिखा है, "लाहौर अपने फैलाव, आबादी और धनराशि में, व्यापारियों की संख्या में जो सारे एशिया से यहां एकत्रित होते हैं, सम्पूर्ण एशिया या यूरोप में अद्वितीय हैं, उसकी आबादी इतनी अधिक थी कि गलियों में लोगों के कन्धे एक-दूसरे से रगड़ खाते थे।"

आन्तरिक व्यापार
यह मुख्यतः वैश्य, मुल्तानी, मारवाडी व गुजराती लोगों द्वारा होता था। डॉ. लाल अलाउद्दीन के समय में बंजारों का घुमक्कड़ व्यापारियों के रूप में वर्णन करते हैं। व्यापार सड़कों तथा नदियों से होता था। डॉ. युसूफ हुसैन के अनुसार, "देश का आन्तरिक व्यापार अत्यन्त विकसित था तथा देश के सभी बड़े केन्द्रों में साहूकार तथा थोक व्यापारी थे, जो अत्यन्त धनवान थे।...एक स्थान से दूसरे स्थान पर धन भेजने के लिए व्यापारी हुण्डियों का प्रयोग
करते थे।" प्रत्येक प्रान्त एक-दूसरे की आवश्यकता को पूरा करता था। दैनिक आवश्यकताओं की वस्तुएं तथा व्यापारियों द्वारा गांव में घोड़ों पर तथा श्रेष्ठ वस्तुएं नगरों में मंडियों में बेची जाती थी। कपड़ा, अनाज व खाद्य पदार्थों का ही आन्तरिक व्यापार होता था। अलाउद्दीन ने वस्तुओं के दाम बहुत घटा दिए।

विदेशी व्यापार
मध्यकाल में विदेशी व्यापार बड़ा उन्नत था। यह जल व स्थल दोनों मार्गों से होता था। सरत, भडौंच, कालीकट, गोआ, कोचीन, सोनारगांव, चटगांव आदि प्रमुख बन्दरगाह थे। इनबतूता के अनुसार, "कालीकट, खम्भात व भडौंच उन्नतिशील व्यापार के केन्द्र थे, जहां से विदेशी व्यापारी जड़ी-बुटियां, गोंद, अदरक, काली मिर्च, नील ले आते थे और उनके बदले में घोड़ा, तांबा तथा सोना छोड़ जाते थे।" मध्य एशिया से होने वाले व्यापार के सम्बन्ध में डॉ. युसूफ हुसैन ने लिखा है, "जहांगीर के शासन काल में 14,000 जानवरों पर माल लादकर भारत से कन्धार को प्रतिवर्ष बोलन के दर्रे से भेजा जाता था।' रेशमी वस्त्र चीन व इराक से, कांच का सामान वेनिस से, शराब यूरोप से, दास अफ्रीका से तथा घोडे, सोना, चांदी, विलास की सामग्री आदि अन्य देशों से आयात किए जाते थे। खाद्य पदार्थ, सूती व रेशमी वस्त्र, छींट, नील, मसाले, शोरा, चीनी, अफीम आदि का निर्यात होता था। डॉ. श्रीवास्तव के अनुसार, "भारत का बाह्य जगत से घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध था। कृषि की उपज, सत्री तथा रेशमी वस्त्र, अफीम, नील व जस्ता आदि वस्तुएं विदेशों को भेजी जाती थीं।" बारबोसा ने कालीकट के सम्बन्ध में लिखा है, "मुसलमान अपनी वस्तुओं को हर स्थान के लिए जहाजों में लादते थे और हर मानसून में दस या पन्द्रह जहाज अदन और मक्का के लिए रवाना किए जाते थे।" डॉ. चौबे एवं श्रीवास्तव ने लिखा है, "भारत का भूमध्य सागर के देशों से व्यापारिक सम्बन्ध प्राचीन काल से था। इस्लाम के आगमन का मात्र यह प्रभाव पड़ा कि हिन्दू व्यापारियों का स्थान मुस्लिम व्यापारियों ने ले लिया।" 

कृषि एवं उद्योग धन्धे

अलाउद्दीन खिलजी के समय में कृषि व उद्योग-धन्धों की स्थिति निम्नवत् थी -

कृषि
सल्तनत काल में कृषि का उद्योग प्रधान था, अन्न का उत्पादन पर्याप्त मात्रा में होता था। वस्तुएं सस्ती बिकती थी। अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में धान 5 जीतल प्रति मन था। गेंहू 7 1/2 जीतल प्रति मन था। जौ चार जीतल प्रति मन था। 1388 ई. तक देश की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी। 14वीं शताब्दी के अन्तिम दिनों में आर्थिक कठिनाई उत्पन्न हो गई।
किसान दो फसलें उगाते थे। दाल, गेंहू, ज्वार, जौ, मटर, चावल, गन्ना और तिलहन मुख्य उपजें थी। कपास की खेती अधिक होती थी। मार्कोपोलो के कथनानुसार उस समय कपास के 6 कदम ऊंचे पौधे होते थे। फलों के बाग लगाये जाते थे। अंगूर, सेव, आम, नारंगी, छुआरा तथा अंजीर बहुत होता था। सुल्तानो को बाग लगाने का बहुत शौक था। फिरोज तुगलक ने दिल्ली के आस-पास 1,200 बाग लगवाये थे।

वस्त्र उद्योग
सल्तनत काल में वस्त्र उद्योग प्रमुख उद्योग था। वरथेमा ने बंगाल को समृद्धिशाली बतलाते हुए लिखा है, "बंगाल सूती कपड़े के लिए विश्व के धनी देशों में से एक स्थान था।" बंगाल के वृहद् मात्रा में रेशम का उत्पादन होता था। यहां पर ऊन पहाड़ी भेड़ों से प्राप्त होती थी। अमीर खुसरों, वरथेमा एवं बारबोसा ने बंगाल को सबसे बड़ा औद्योगिक केन्द्र बतलाया है। बंगाल के अतिरिक्त खम्भात भी महत्वपूर्ण वस्त्र उद्योग का केन्द्र था। यहां रेशम के वस्त्र तैयार होते थे।

धातु उद्योग
सोना, चांदी, पीतल, कांसा, लौह, आदि धातुओं की वस्तुओं का निर्माण सल्तनत काल में होता था। गुजरात के स्वर्णकार सोने व चांदी से तैयार माल पर नक्काशी के लिए प्रसिद्ध थे। सोने व चांदी के कार्य के लिए विशेष कारखाने थे। गुजरात एवं बंगाल में मूंगे का कार्य होता था। फतेहपुर सीकरी, बिहार एवं बरार कांच की वस्तुओं के निर्माण के लिए प्रसिद्ध था। हाथी दांत का कार्य भी होता था।

चीनी उद्योग
सल्तनत युग में चीनी या खांड का उद्योग अत्यन्त उन्नत था। इस उद्योग का प्रमुख केन्द्र बंगाल था।

चमड़ा उद्योग
चर्म उद्योग का प्रमुख केन्द्र गुजरात था। मार्कोपोलो के अनुसार, "चमड़े की चटाइयों पर सुन्दर पशु-पक्षियों के चित्र बनाये जाते थे।' चर्मकार जूते, मश्क एवं कृषि के कार्य आने वाली चमड़े की वस्तुओं का निर्माण करते थे।

काष्ठ उद्योग
सल्तनत काल में काष्ठ उद्योग भी उन्नति पर था। पलंग, खूटी, दरवाजे, खिलौने, आदि लकड़ी के बनाये जाते थे।

कागज उद्योग
सल्तनत काल में कागज उद्योग के लिए दिल्ली एवं गुजरात प्रसिद्ध थे। कागज विशेष रूप से सरकारी कार्य एवं पुस्तकें लिखने के लिए प्रयोग किया जाता था।

शिल्प
अमीर खुसरों लिखता है कि "उस युग में दिल्ली के भवन निर्माता एवं शिल्पकार सम्पूर्ण मुस्लिम जगत में सर्वश्रेष्ठ कलाकार थे।" शिल्पकारों को राजकीय संरक्षण प्राप्त था। अलाउद्दीन खिलजी ने 70 हजार कारीगरों को भवन निर्माण का प्रशिक्षण दिया गया। यही नहीं ईंटें बनाने व संगतराशी के कार्य भी कुछ लोग किया करते थे।

मूल्य
सल्तनत काल में वस्तुओं के मूल्य काफी कम थे। ये इस प्रकार थे

सल्तनतकालीन खाद्य पदार्थ

वस्तुएं

अलाउद्दीन खिलजी

मुहम्मद तुगलक

(कीमत जीतलों में प्रति मन दर से)

फीरोज तुगलक

गेंहूँ

7.5

12

8

जौ

4

8

4

चावल

5

14

-

दाल

5

-

4

मसूर

3

4

4

चीनी (सफ़ेद)

100

80

-

चीनी (साफ्ट)

60

64

120,140

भेड़ का मांस

10

64

-

घी

16

-

100


मुद्रा
मध्यकाल में सोने, चांदी तथा तांबे के बने सिक्कों द्वारा विनिमय होता था। कौड़ी का भी प्रचलन था। सल्तनत काल में मुद्रा के क्षेत्र में अनेक सुधर किए गए। इल्तुतमिश ने चांदी के टंके तथा दौकानी नामक छोटा सिक्का चलाया। मुहम्मद तुगलक ने सोने के स्थान पर तांबे की सांकेतिक मुद्रा चलाई, किन्तु कुछ भूलों के कारण उसकी यह योजना विफल रही। अपने नवीन प्रयोग के कारण उसे धनवानों का राजकुमार' लहा गया।

करारोपण

मध्यकाल में शासकों द्वारा मुख्य रूप से चार प्रकार के कर वसूल किए जाते थे
  1. खम्स,
  2. जजिया,
  3. खिराज व
  4. जकात । 
इन करों के अतिरिक्त लिए जाने वाले कर शासक की निरंकुशता के प्रतीक थे।

खम्स
'खम्स' शब्द का तात्पर्य है 1/5 अर्थात् सेना द्वारा लूटे गए धन का 1/5 भाग राजकोष में जमा किया जाए तथा 4/5 भाग सैनिकों में बांट दिया जाए। किन्तु मध्यकाल में मात्र फीरोज तुगलक ने शरीयत के अनुरूप इस नियम को लागू किया था अन्यथा अन्य शासकों ने तो 4/5 भाग राजकोष में रखकर 1/5 भाग ही सैनिकों में बांटा था।

जजिया
यह कर शासन की भेदभाव को नीति का प्रतीक था, क्योंकि यह मात्र गैर मुसलमानों से ही वसूल किया जाता था। सुल्तान इसकी वसूली को अपना पवित्र कर्तव्य मानते थे। कुछ इतिहासकारों ने इस कर को गैर धर्मावलम्बियों को दी जाने वाली सुविधाओं हेतु लिया जाने वाला शुल्क बताया है। डॉ. ईश्वरी प्रसाद के अनुसार "मुस्लिम धर्माचार्यों के गैर मुसलमानों (जिम्मियों) से इसलिए लिया जाता था कि उन्हें मृत्यु दण्ड नहीं दिया जाता था। जजिया अदा करके गैर मुस्लिम अपने प्राणों को खरीद लेते हैं।" प्रो, यू.एन.डे. का मानना है, "प्रारम्भ में जजिया मुस्लिम राज्य के अपमान के प्रतीक, सम्पत्ति की सुरक्षा के लिए क्षतिपूर्ति एवं सैनिक सेवा से मुक्ति के रूप में लिया जाता था...... परन्तु बाद में इसके क्षेत्र को विस्तृत कर दिया गया तथा इसमें मूर्तिपूजकों व काफिरों को भी सम्मिलित कर दिया गया।" डॉ. आर.एस. त्रिपाठी के शब्दों में, "जजिया केवल काफिरों पर उनके कुफ्र के दण्ड के रूप में लगाया जाता था।" डॉ. पाण्डेय ने लिखा है, "विधर्मी देशों पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् इस्लामी शासक का यह कर्तव्य था कि वह इन विधर्मियों को अपने संरक्षण में ले ले, जो राज्य में लगाए जाने वाले कर देने को प्रस्तुत हों, इनको जिम्मी कहते हैं। कुरान में इस्लाम स्वीकार न करने वाले व्यक्ति के लिए मृत्यु दण्ड की व्यवस्था की गई है, किन्तु मुहम्मद बिन कासिम ने सोचा कि बिना हिन्दुओं की सहायता के शासन कैसे होगा, अतः उसने 'जजिया की प्रथा का सूत्रपात किया। कालान्तर में जजिया वसूल करते समय उत्पीड़न का आश्रय लिया जाने लगा।
जजिया कर देने वाले व्यक्ति तीन श्रेणियों में विभक्त थे -
  1. उच्च श्रेणी
  2. मध्यम वर्ग
  3. निम्न श्रेणी

उच्च श्रेणी
जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी थी। ये 48 दिरहम वार्षिक जजिया देते थे।

मध्यम वर्ग
सामान्य आर्थिक स्थिति वाले लोग। ये 24 दिरहम वार्षिक जजिया देते थे।

निम्न श्रेणी
कम आय वाले लोग। इन्हें 12 दिरहम वार्षिक जजिया देना पड़ता था।

डॉ त्रिपाठी के अनसार, "धनी व्यक्ति वे हैं जिनके पास 10,000 या इससे अधिक दिरहम है। निर्धन व्यक्ति वे हैं जिनके पास 200 दिरहम से कम हैं। इन दोनों वर्गों के बीच में मध्यम वर्ग के मनुष्य हैं।' अबू युसूफ ने निर्धन का तात्पर्य मजदूरों से बताया है।

मुस्लिम धर्मशास्त्रों में जजिया को न्यायसंगत माना गया है, किन्तु इसे वसूले जाने के तरीके तथा उस दौरान किए जाने वाले अत्याचार व अपमान के कारण असन्तोष फैला।

खिराज
यह कर हिन्दू एवं मुसलमानों दोनों से लिया जाता था। भिन्न-भिन्न शासकों के समय में इसकी दर भिन्न-भिन्न शासकों के समय में इसकी दर भिन्न-भिन्न रही। इसे नकद अथवा अनाज दोनों रूपों में जमा करवाया जा सकता था। सामान्यतः यह उपज का 1/3 भाग होता था, किन्तु कुछ साम्राज्यवादी शासकों ने इसे 1/2 भाग कर दिया था, मगर यह इससे अधिक नहीं वसूला जा सकता था। कर की वसूली के सम्बन्ध में बरनी ने लिखा है, "वे खिराज जुजार कहलाते हैं और जब तहसीलदार उनसे चांदी मांगता है, तब वे बिना हिचक के बड़ी नम्रता तथा आदर के साथ सोना भेंट करते हैं।

जकात
यह मुसलमानों से लिया जाने वाला धार्मिक कर था, किन्तु यह बलपूर्वक नहीं लिया जाता था एवं अल्प वयस्क, दास, ऋणी, विक्षिप्त, और मुसलमान आदि से नहीं लिया जाता था। निसाव से कम होने पर इसे नहीं वसूला जाता था। कपड़ा, मकान, भोजन, पुस्तकें, सवारी, नौकर, फर्नीचर, कृषि के लिए पशु आदि इस कर से मुक्त थे।
इसके अलावा प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष सम्पत्ति पर लिए जाने वाले 'सदका' नामक कर का भी उल्लेख मिलता है। 20 दिरहम से कम कीमत की वस्तुओं पर कर नहीं लगता था। सोने पर 20 मिसकल तथा चांदी पर 200 दिरहम निसाब था। सदक करों में 'टिथे' नामक कर भी था, जो भूमि की वास्तविक उपज पर लगता था। यह विशेष परिस्थितियों में क्षमा कर दिया जाता था तथा इससे प्राप्त आय को धार्मिक कार्यों पर ही व्यय किया जाता था।

सारांश

इस प्रकार सम्पूर्ण विवेचन स्पष्ट करता है कि सल्तनत काल में दिल्ली के सुल्तान किसी निश्चित आर्थिक नीति का पालन नहीं कर सके। जहाँ तक कृषि, उद्योग-धन्धों एवं व्यापार का प्रश्न है तैमूर के आक्रमण ने इसे भयंकर आघात प्रदान किया था। फिर भी यह तो मानना ही होगा कि बलबन एवं अलाउद्दीन खिलजी जैसे शासकों ने जो नीतियां अपनाई वह तत्कालीन युग की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण थी।

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