सामुदायिक विकास क्या है अर्थ, परिभाषा, उद्देश्य, विशेषताएं | samudayik vikas

प्रस्तावना

सामुदायिक विकास आधुनिक सदी की एक अत्यन्त प्रचलित व महत्वपूर्ण अवधारणा है। एक कार्यक्रम के रूप में इसका प्रसार विगत कई वर्षों से आरम्भ हुआ है।
आज सामुदायिक विकास को विशेष रूप से अविकसित देशों में अपनाया गया है। सामुदायिक विकास कार्यक्रम को जनता का समन्वित विकास करने के लिए स्वास्थ्य, शिक्षा और आर्थिक विकास से सम्बन्धित गतिविधियां जैसे कृषि, पशुपालन, ग्रामोद्योग और संचार साधन तथा समाज कल्याण कार्यक्रम के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

सामुदायिक विकास की अवधारणा

सामुदायिक विकास में दो शब्द समुदाय और विकास निहित है जिनके बारे में कुछ जानना जरूरी है।
समुदाय का अर्थ उन लोगों से है जो विशिष्ट क्षेत्रों में रहते हैं तथा जो हितार्थ सामान्य हों। पिछली तीन शताब्दियों ने समुदाय की अवधारणा में प्रमुख परिवर्तन देखे हैं। हम प्रमुख रूप से कृषि समाज और ग्रामीण समाज से शहरी औद्योगीकृत समाज की ओर बढ़े हैं तथा अब उत्तर-औद्योगिक समाज की अवधारणा विकसित हो रही है।
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विऔद्योगिकीकरण की इस बाद की अवधि में, सामुदायिक जीवन की कमी और नागरिक समाज संगठनों में ह्रास होता रहा हैं इससे परंपरागत परिवार के संबंधो में गिरावट, लोगों के समूहों के बीच अत्यधिक असमानता तथा लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए संस्थाओं का विकास हुआ है और ये आवश्यकताएं अब तक स्वयं समुदाय द्वारा पूरी की गई है।
अवधारणा के रूप में विकास का अर्थ है कि प्रगति अथवा बेहतरी के लिए परिवर्तन इस प्रकार से है ताकि लोगों के समूहों की सुरक्षा, स्वतंत्रता, गरिमा, आत्म-निर्भरता और आत्म-विकास में वृद्धि की जा सके। इसमें सामाजिक
और आर्थिक विकास की दोनों अवधारणाएं सम्मिलित होंगी।

शाब्दिक रूप से सामुदायिक विकास का अर्थ - समुदाय के विकास या प्रगति से है। सामुदायिक विकास को एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसके द्वारा स्वयं लोगों के प्रयासों को सरकारी प्राधिकारियों के प्रयासों के साथ मिला कर समुदायों की आर्थिक, और सांस्कृतिक दशाओं को सुधारा जा सके और इन समुदायों को राष्ट्रीय जीवन में समन्वित किया जा सके जिससे कि वे राष्ट्रीय प्रगति में पूर्णयता योगदान कर सकें।
सामुदायिक विकास उन लोगों द्वारा की जाने वाली सहयोगात्मक, सुविधा प्रदान करने वाली प्रक्रिया है (समुदाय, संस्थान अथवा शैक्षिक भागीदार) जिसका क्षमता निर्माण का सामान्य उद्देश्य है ताकि जीवन की गुणवत्ता पर सकारात्मक प्रभाव पड़े।
सामुदायिक विकास, सक्रिय और स्थायी समुदायों को विकसित करने की प्रक्रिया है जो सामाजिक न्याय और परस्पर सम्मान पर आधारित होता है। यह उन बाधाओं को दूर करने के लिए शक्ति संरचनाओं को प्रभावित करते है जो लोगों को उनके जीवन को प्रभावित करने वाले मुद्दों में भागीदारी करने से रोकते है। समुदाय कार्यकर्ता इस प्रक्रिया में लोगों की सहभागिता को सुविधाजनक बनाते है। वे संबंधो को समुदायों में और व्यापक नीतियों और कार्यक्रमों के साथ इन संबंधों को सक्षम बनाते हैं। विकास निष्पक्षता, समानता, जवाबदेही, अवसर, चयन, सहभागिता, पारस्पारिकता आदान-प्रदान और सतत् शिक्षा को अभिव्यक्त करता है।

सामुदायिक विकास में प्रयोग होने वाले उपागम निम्नलिखित है: 
  • परिसंपत्ति आधारित उपागम का प्रयोग करना जो क्षमताओं और मौजूदा संसाधनों पर आश्रित है;
  • समावेशी प्रक्रियाओं को प्रोत्साहित करना जिनमें समुदाय विविधता सम्मिलित है; और
  • सहयोगात्मक रूप से योजनाबद्ध और निर्देशित पहल के माध्यम से समदाय का स्वामित्व;

सामुदायिक विकास के उद्देश्य सामुदायिक विकास के उद्देश्य निम्नलिखित है:
  • स्वास्थ्य और कल्याण के लिए समान दशाएं और परिणाम सृजित करना।
  • पूरे समुदाय के स्वास्थ्य और समृद्धि में सुधार करना
  • समुदाय के प्रयासों को प्रोत्साति करना;
  • संलग्न लोगों के लिए स्थायी आत्म-निर्भरता को प्रोत्साहित करना;
  • निजी महत्व, गरिमा और मूल्य में वृद्धि करना; तथा
  • समुदाय की जागरूकता सृजित करना और समुदाय के मुद्दों का समाधान करना

सामुदायिक विकास के मूल्य

सामुदायिक विकास के सहज मूल्य होते हैं। इनका उल्लेख स्थायी निम्नलिखित रूप से किया जा सकता है: 
  • सामाजिक न्याय :- लोगों को मानव अधिकारों की मांग करने, उनकी आवश्यकताओं को पूरा करने तथा लोगों के जीवन को प्रभावित करने वाली निर्णय -निर्धारण प्रक्रियाओं पर नियंत्रण करने में सक्षम बनाना।
  • सहभागिता :- ऐसे मुद्दों में लोगो की भागीदारी को सुविधाजनक बनाना जो पूरी नागरिकता, स्वायत्ता और साझा शक्ति (सत्ता), कौशलों, ज्ञान तथा अनुभव पर आधारित उनके जीवन को प्रभावित करते है।
  • समानता :- उन व्यकितयों के दृष्टिकोणों और संस्थाओं तथा समाज के व्यवहारों को चुनौती देना जो लोगों के साथ भेदभाव करते हैं और उन्हें अलग-थलग रखते है।
  • अध्ययन अथवा सीखना :- ऐसे कौशलों, ज्ञान और विशेषज्ञता की पहचान करना जिन्हें लोग सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और पर्यावरणी समस्याओं पर नियंत्रण करने की कार्रवाई करके योगदान देते और विकसित करते हैं।
  • सहयोग: विविध संस्कृतियों और योगदान के पारस्परिक सम्मान पर आधारित कार्रवाई की पहचान करना और कार्यन्वित करना।

सामुदायिक विकास में धारणाएं

सामुदायिक विकास में कुछ अप्रत्यक्ष धारणाएं होती है। ये धारणाएं है:
  • व्यक्तियों, समूहों और स्थानीय संस्थाओं के समुदाय क्षेत्रों के अंदर सामान्य हित होते हैं जो उन्हें एक साथ बांधते हैं।
  • यह सामान्यता उन्हें एक साथ कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करती है।
  • विभिन्न समूहों के हित परस्पर-विरोधी नहीं होते।
  • राज्य, शीर्ष निकाय होता है जो संसाधनों के आवंटन में निष्पक्ष होता है और यह अपनी नीतियों के माध्यम से असमानताओं को नहीं बढ़ाता।
  • लोगों की पहल उनके सामान्य (साझा) हितों के कारण समुदायों में संभव हो पाती हैं सामुदायिक विकास कार्यकर्ता निम्नलिखित के लिए प्रतिबद्ध होते है;
  • संगठनों, संस्थाओं और समुदायों के अंदर भेदभाव और दमनकारी कार्यों को चुनौती देना।
  • पर्यावरण को संरक्षित करने वाले व्यवहार और नीति को विकसित करना।
  • समुदायो और संगठनों के बीच संबंधों और संपर्को को प्रोत्साहित करना।
  • समाज के अंदर सभी समूहों और व्यक्तियों के लिए पहुँच और चयन सुनिश्चित करना।
  • समुदायों के दृष्टिकोण से नीतियों और कार्यक्रामों को प्रभावित करना।
  • गरीबी और सामजिक बहिष्कार झेलने बाले लोगों के संबधित मद्दों को प्राथमिकता देना।
  • सामजिक परिवर्तन का संवर्धन करना जो दीर्धकालिक और स्थायी हो।
  • समाज में शक्ति-संबंधों की असमानता और असंतुलन को समाप्त करना।
  • समुदाय प्रेरित सामूहिक कार्रवाई का समर्थन करना।

सामुदायिक विकास का अर्थ एवं परिभाषा

‘सामुदायिक विकास’ आधुनिक युग का एक अत्यन्त लोक प्रचलित शब्द है। एक कार्यक्रम के रूप में इसका प्रसार विगत वर्षों में प्रारम्भ हुआ जिसे मुख्य रूप से अविकसित देशों में अपनाया गया। सामुदायिक विकास योजना की व्यवस्था के लिये अनेक प्रयत्न किये गये है। वास्तव में सामुदायिक विकास एक ऐसी योजना है जो आत्म सहायता व सहयोग के सिद्धान्तों के आधार पर स्वावलम्बी उपायों से सामाजिक और आर्थिक उन्नति पर बल देती है। विभिन्न संगठनों और विद्वानों ने सामुदायिक विकास की अनेक परिभाषाएं दी हैं। जिनमें कुछ प्रमुख निम्नलिखित हैं-

योजना आयोग के अनुसार -
“ जनता द्वारा स्वयं ही अपने प्रयासों से ग्रामीण जीवन में सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन लाने का प्रयास सामुदायिक विकास है।"

संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार -
“सामुदायिक विकास योजना एक विधि है जो समुदाय के लिये उसके पूर्ण सहयोग से आर्थिक और सामाजिक विकास की परिस्थितियों को पैदा करती है और पूर्णरूप से समुदाय की पहल पर निर्भर करती है।"

राष्ट्रीय सहयोग प्रशासन के अनुसार
“सामुदायिक विकास एक ऐसा अवसर है जिसके द्वारा सामुदायिक स्तर पर राजकीय कर्मचारी लोगों की पहल के आधार पर उनकी स्थिति सुधारने का प्रयत्न करते हैं।"

आई. सी. जैकसन के अनुसार
“सामुदायिक विकास किसी समुदाय को अपने आप काम करने के लिए प्रोत्साहित करने तथा भौतिक और आध्यात्मिक रूप से सामुदायिक जीवन को समृद्ध बनाने के लिए कदम उठाने को प्रेरित करता है।"

इन उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि सामुदायिक विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें सामुदायिक जनशक्तियों का प्रयोग उनके स्वयं के प्रयासों से एकत्रित करने, सम्बन्धित सरकारी एवं गैर-सरकारी कर्मचारियों द्वारा सामुदायिक आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थिति को उच्च करने तथा सामुदायिक जीवन को राष्ट्रीय जीवन में परिवर्तित करने जैसे कार्यो को सम्मिलित किया जाता है। मूलरूप से सामुदायिक विकास में दो बातें सम्मिलित है। प्रथम अपनी वर्तमान स्थिति को उठाने के लिये सदस्यों की विकास कार्यों में सहभागिता और द्वितीय विकास के लिए तकनीकी एवं अन्य आवश्यक साधनों की उपलब्धता। इस कार्य में न केवल समुदाय की आर्थिक, तकनीकी एवं वैज्ञानिक स्थितियों में ही परिवर्तन लाया जाता है बल्कि सामुदायिक मूल्यों एवं व्यावहारिक पद्धतियों में भी परिवर्तन लाया जा सकता है । परम्परा में जकड़े होने के कारण ग्रामीण लोग धीरे-धीरे ही आधुनिक बातों में विश्वास करते हैं। अतः आवश्यक है कि सदस्यों के विचारों, मनोवृत्तियों एवं भावनाओं में धीरे-धीरे परिवर्तन लाया जाये जिससे वे अपनी परम्परागत रूढ़ियों में अनुकुल परिवर्तन ला सकें और उपलब्ध सरकारी एवं गैर-सरकारी साधनों का उपयोग कर अपने व्यावहारिक जीवन को परिवर्तित कर सकें। इसके लिये शिक्षण, प्रशिक्षण, चलचित्र प्रदर्शनी, पोस्टर, बैनर, रेडियो, टेलीफोन आदि माध्यमों का सहारा लेना चाहिये जिससे सामुदायिक जीवन में आमूल परिवर्तन आ सके और सामुदायिक विकास सम्भव हो सके।

सामुदायिक विकास के मूल तत्व

सामुदायिक विकास के अध्ययनों से ज्ञात होता है कि इसके चार मूल तत्व हैं जो निम्नलिखित हैं-
  • नियोजित कार्यक्रम जिसे समुदाय की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर बनाया गया है।
  • विकास कार्यों में ग्रामीणों की सहभागिता और पहल।
  • विशेषज्ञ, सामग्री और साधन के रूप में सहायता।
  • समुदाय की सहायता के लिये विभिन्न विशेषज्ञों का सामंजस्य जैसे कृषि पशुपालन, जन स्वास्थ्य, शिक्षा, समाज सेवा आदि।

सामुदायिक विकास के उद्देश्य

अन्य विकास योजनाओं के समान सामुदायिक विकास कार्य के कुछ प्रमुख उद्देश्य हैं जिनकी पूर्ति के लिये समय-समय पर जरूरतमन्द समुदायों में विकासात्मक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। मूल रूपेण सामुदायिक विकास योजनाओं का मुख्य उद्देश्य सरकारी सहायता एवं जन सहयोग से ग्रामीण जीवन का सामाजिक एवं आर्थिक विकास करना है। इसके अतिरिक्त सामुदायिक विकास के कुछ प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित है-
  • कृषि उत्पादन एवं ग्रामीण उद्योगों में बढ़ोतरी कर पारिवारिक आमदनी को बढ़ावा देना।
  • जन सहयोग के माध्यम से लोक कल्याणकारी कार्यों जैसे सड़क निर्माण, विद्यालय भवन निर्माण आदि कार्यों को प्रोत्साहन देना।
  • स्वास्थ्य एवं सफाई को बनाये रखना तथा बढ़ावा देना।
  • शिक्षा, मनोरंजन एवं बाल प्रशिक्षण कार्यों को बढ़ावा देना।
  • ग्रामीण संस्कृति, रूढ़ियों, मूल्यों एवं कल्याणकारी कार्यों की विकसित करना।
  • स्थानीय सरकार को प्रोत्साहन देना।
  • सहकारिता एवं सहकारी कार्यों को बढ़ावा देना।
उपर्युक्त उद्देश्यों की पूर्ति के लिये समय-समय पर अनेक राज्यों द्वारा अनेक प्रकार की जरूरतमन्द विकास योजनाओं का संचालन किया गया, जिनका समय-समय पर मूल्यांकन भी कराया गया यद्यपि सहकारिता, उत्तम किस्म के बीज, खाद तथा उत्पादक मशीनों के प्रयोग में कुछ वृद्धि अवश्य हुयी लेकिन स्थानीय सरकार, जिसको सामुदायिक विकास कार्य की धुरी मानकर प्रोत्साहित किया गया था, के क्षेत्र में कोई सन्तोषजनक सफलता न मिल सकी। सन् 1956-57 में बलवन्त राय मेहता के नेतृत्व में स्थापित समिति के सुझाव तथा भूतपूर्व प्रधान मंत्री स्व. श्री राजीव गांधी द्वारा चयनित अध्ययन दल के सुझाव पर आज पंचायत राज को सामुदायिक विकास का मूल आधार मानकर इसे सम्पूर्ण राज्यों के तीन महत्वपूर्ण स्तरों (ग्राम, ब्लाक एवं जिला) पर स्थायी बनाया जा रहा है जिससे सभी जाति, वर्ग तथा महिला समूह के सदस्य भी चयनित होकर सामुदायिक विकास की आवश्यकता एवं कल्याण योजनाओं के निर्माण में हाथ बंटा सकें।

सामुदायिक विकास कार्यक्रम और जवाबदेही

कार्यक्रमों का निर्माण करने और उन्हें निष्पादित करने में सामुदायिक विकास कार्यक्रम लोगों की सहभागिता पर आधारित होते है। इसका अर्थ विकास और अनेक स्थानीय संस्थाओं और स्वैच्छिक समूहों तथा समूह कार्य तकनीकों के प्रयोग और स्थानीय नेतृत्व एवं प्रशासन के विकास से भी है। यह प्रशासन, नौकरशाही दृष्टिकोण की अपेक्षा विकासोन्मुख होता है, तथा जीवन के विभिन्न पहलुओं में सुधार करने के लिए प्राकृतिक और मानव संसाधनों को जुटाने में सरकारी और गैर-सरकारी एजेसियों के साथ सक्रिय भागीदारी करते हैं।

इस प्रकार, सामुदायिक विकास कार्यक्रमों का उद्देश्य कुछ लक्ष्यों को प्राप्त करना है, जैसेः
  • समुदायों के साथ कार्य करके सामाजिक परिवर्तन और न्याय लाना;
  • उनकी आवश्यकताओं, अवसरों, अधिकारों और उत्तरदायित्वों की पहचान करना;
  • योजना, व्यवस्था करना और कार्रवाई करना;
  • कार्रवाई की प्रभाविता और प्रभाव का मूल्यांकन करना; तथा
  • ऐसे सभी उपाय करना जो उत्पीड़न को चुनौती देते हैं और असमानताओं पर नियन्त्रण करते हों।

सामुदायिक विकास कार्यक्रमों में जवाबदेही
सामुदायिक विकास कार्यक्रमों की सफलता, इस प्रकार से लक्ष्य प्राप्त करने के लिए, कार्यक्रमों के कार्यान्वयन में निहित है कि जवाबदेही से जुड़े मुद्दों का ध्यान रखा जाए। किसी भी सामुदायिक विकास कार्यक्रम में निगरानी और मूल्यांकन के अंतर्निहित घटक तथा पारदर्शी जवाबदेही की प्रक्रियाएं शामिल करनी पड़ती हैं। आगे बढ़ने से पहते जवाबदेही की अवधारणा को समझना भी जरूरी है।

जवाबदेही की अवधारणा
जवाबदेही की अवधारणा में दो तत्व शामिल है: उन लोगों की जवाबदारी जो नागरिकों को असफल होने की दशा में अधिकार प्रदान करते हैं और दंड की प्रवर्तनीयता अर्थात लागू करने का अधिकार देते है। (गोएत्ज् और जेकिन्स 2001)
जवाबदेही को राजनीतिक और प्रबन्धकीय जवाबदेही के रूप में जाता है। राजनीतिक जवाबदेही, निर्णयों (सामाजिक) की जवाबदेही से सम्बन्धित है जबकि प्रबन्धकीय जवाबदेही, स्वीकृत कार्यनिष्पादन के मानदंड के
अनुसार कार्यो को करने में जवाबदेही से सम्बन्धित है (निवेश, उत्पादन, वित्तीय आदि) दूसरे मामले में कुछ लेखक, राजनीतिक जवाबदेही, सामुदायिक जवाबदेही और नौकरशाही जवाबदेही की बात करते हैं।

विभिन्न प्रश्न जैसे – किसकी, किसके प्रति, कब और किन मुद्दों पर जवाबदेही, जवाबदेही के उद्देश्य और यह किस तरह संचालित होनी चाहिए कुछ ऐसे मुख्य आधार हैं जो उचित जवाबदेही के तन्त्र को उपयुक्त स्थान देते हैं।

जवाबदेही के तन्त्रों में, सार्वजनिक नीति निर्माण में, नागरिकों की भागीदारी, सहभागी बजटिंग और सार्वजनिक सेवा पर नागरिकों की निगरानी, नागरिक सलाह बोर्ड तथा समर्थन अभियान शामिल हैं।

जवाबदेही को एक समूह अथवा व्यक्ति की आवश्यकता पड़ती है जो इसके कार्यकलापों के व्यावसायिक अथवा वित्तीय खाते (अथवा स्पष्टीकरण) को किसी अन्य भागीदारी समूह अथवा व्यक्ति को प्रदान करता है। यह अपेक्षा की जाती है किसी संगठन अथवा संस्था की स्पष्ट नीति है कि, किसकी,किसके प्रति जवाबदेही है और किस लिए जवाबदेही है। इसमें यह अपेक्षा भी शामिल है कि जवाबदेह ठहराया गया समूह, सलाह और आलोचना स्वीकार करेगा तथा सलाह और आलोचना के प्रकाया में अपना संशोधन करेगा।

जवाबदेही की विशेषताएं एवं सिद्धान्त
जवाबदेही वैयक्तिक होती है - प्राधिकार केवल किसी एक व्यक्ति को प्रत्यायोजित किये जा सकते हैं।

जवाबदेही उध्वाधर होती हैं - उत्तरदायित्व और प्राधिकार पद्मवेक्षक से अधीनस्थ को प्रत्यायोजित किये जाते हैं। (पर्यवेक्षक अधनीस्थ को जवाबदेही ठहराता है)।

जवाबदेही तटस्थ होती है - यह न तो सकारात्मक और न ही नकारात्मक अवधारणा है, उत्कृष्ट परिणामों को मान्यता मिलती है परन्तु असफलता में प्रतिबन्ध शामिल हो सकते हैं जिनमें कार्य प्रणालियों को हटाना अथवा उनमें संशोधन शामिल हैं।
  • (क) उत्तरदायित्व और प्राधिकार का उल्लेख करना।
  • (ख) मार्गदर्शन और समर्थन प्रदान करना।
  • (ग) लक्ष्यों और मानदंडों के लिए परिणामों की उद्देश्यपरक तुलना करना।
  • (घ) उपयुक्त कार्रवाई करना।

सामुदायिक विकास की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

भारत गांवों का देश है। कृषि यहां की अर्थव्यवस्था का मूल आधार है। स्वतन्त्रता के पूर्व भारतीय ग्रामीण जीवन विभिन्न समस्याओं से ग्रस्त था। विदेशी (मुगल एवं अंग्रेजी) शासकों के आक्रमण तथा जमीदारों के शोषण ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर दिया जिससे कृषकों की स्थिति दयनीय हो गयी थी खेती करने के लिये पर्याप्त जमीन होते हुए भी आर्थिक रूप से उन्हें अपंग बना दिया गया जिससे दिन-प्रतिदिन उनकी स्थिति चिंताजनक होती गयी। यातायात के साधनों का अभाव था और कृषि तथा पशुपालन की स्थिति भी चिंताजनक थी। औद्योगिकीकरण एवं नगरीकरण ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को खोखला बना दिया था। किसानों को बाध्य होकर जमीदारों एवं पूंजीपतियों का सहयोग लेना पड़ा। अतः वे कर्ज के बोझ से लद गये। इन समस्याओं को दूर करने, बढ़ते हुए हुए शोषण को समाप्त करने, सुधारकों तथा समाज कार्यकर्ताओं का ध्यान आकर्षित हुआ जिनके सहयोग से समय-समय पर अनेक योजनायें बनाई गयीं तथा कार्यान्वित की गयी।

स्वाधीनता के पूर्व ग्रामीण उत्थान के लिये किये गये अनेक प्रयासों में स्वर्गीय महात्मा गांधी का वर्धा, रवीन्द्र नाथ ठाकुर का शान्ति-निकेतन, स्पेन्सर हैज का केरल, एफ0एल0 वायले का गुड़गांव तथा एस0के0 डे का नीलोखेड़ी में चलाये गये कार्यक्रम को महत्वपूर्ण स्थान है। महात्मा गांधी का विचार था कि प्रत्येक गांव को सबसे पहले पर्याप्त कपड़ा तैयार करने के लिये पर्याप्त रूई पैदा करनी चाहिए। उन्होनें खादी के प्रयोग, ग्रामोद्योग द्वारा आर्थिक उन्नति, धान कूट कर चावल तैयार करना, गुड़ बनाना, तेल पेरना, कपड़ा बुनना नीम का तेल बनाना, मूल और प्रौढ़ शिक्षा एवं प्राकृतिक चिकित्सा पर जोर दिया। ग्रामीण क्षेत्रों को आत्मनिर्भर देखने के लिये वे बराबर चिंतित तथा इच्छक थे। वे चाहते थे कि गांव की प्रत्येक वस्तु गांव से ही निर्मित की जाए और भारत का प्रत्येक गांव आत्मनिर्भर हो जाये। उन्होनें अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संघ की स्थापना की जिसका मुख्य कार्य निष्प्राण एवं आवश्यक कुटीर उद्योग-धन्धों को जीवित करना था।

श्री रवीन्द्र नाथ ठाकुर का नाम ग्राम पुनर्निर्माण के लिये सर्वदा स्मरणीय रहेगा। उनके विचार से ग्रामीण पुननिर्माण की प्रमुख समस्या गरीबी और बेकारी तक की सीमित नहीं थी बल्कि उनकी योजना का उद्देश्य ग्रामवासियों के जीवन में आनन्द और स्फूर्ति का संचार करना था। सन् 1914 में श्री ठाकुर ने बोलपुर में श्रीनिकेतन की स्थापना की जिससे ग्रामवासियों को अपनी समस्याओं को सुलझाने में काफी सहायता मिली। निकेतन के कर्मचारियों द्वारा ग्रामीण वासियों को उत्तम खेती करने की विधि सिखाने के साथ-साथ कृषि की उन्नत विधियों पर विचार-विमर्श तथा पशुओं की नस्ल सुधारने, उत्पादन को उचित मूल्य पर बेचने, स्वास्थ्य एवं सफाई रखने की आवश्यकता पर भी ध्यान दिया जाता था। मुख्य रूप से यह केन्द्र खेती, ग्रामीण उद्योग धन्धों, ग्राम-कल्याण, सहकारिता, स्काउट संगठन एवं शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करता था।

पूना की सर्वेन्ट्स आफ इण्डिया सोसाइटी ने ग्रामीण पुनर्निर्माण के लिये मद्रास, उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश में कृषि तथा प्रशिक्षण के लिये स्कूलों की स्थापना की। इस सोसाइटी के अन्तर्गत बीजों का वितरण, बालिका विद्यालय की स्थापना, मलेरिया निरोधक आन्दोलन तथा उद्योग-धन्धों को प्रोत्साहन आदि सम्मिलित था। सन् 1940 में ग्वालियर में स्थापित आदर्श सेवा संघ ग्रामीण जनता को कम्पोष्ट की खाद बनाने तथा प्रयोग करने, गहरा हल चलाकर खेती करने एवं उन्नत किस्म के बीजों का प्रयोग करने जैसे विषयों पर शिक्षित करता था।

सन् 1940 में ही डॅनियल हैमिण्टन ने बंगाल में एक आदर्श बस्ती बसाई। इसके पूर्व 1916 में एक साख समिति की स्थापना की।

सन् 1921 में वाई0एम0सी0ए0 के कुछ नेताओं ने त्रिवेन्द्रम से 25 मील दक्षिण सार्थनदम में ग्रामीण कल्याण की योजना प्रारम्भ की जिसका मुख्य उद्देश्य आध्यात्मिक, मानसिक, शारीरिक, सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से ग्रामीण जीवन को उच्च करना था। इसके अतिरिक्त स्वतन्त्रता पूर्व कुछ प्रान्तों में स्थापित ग्रामीण किसान सभाओं ने भी इस दिशा में सराहनीय भूमिका निभाई। इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य जनता के जीवन को ऊंचा उठाना, कृषि का वैज्ञानिक ढंग से प्रयोग करना, ग्रामोद्योग को प्रोत्साहन देना, साक्षरता का प्रसार करना, चिकित्सा, स्वास्थ्य एवं मनोरंजन की व्यवस्था करना तथा पंचायतों को पुनः विकसित करना था।

स्वतन्त्रता के पश्चात् ग्राम पुननिर्माण के क्षेत्र में राजकीय प्रयासों ने अनेक योजनाओं को जन्म दिया। इसमें श्री एफ0एल0 ब्रायेन के द्वारा बनाई गई गुड़गाव योजना का अपना विशेष महत्व है। इस योजना के मुख्य उद्देश्य ग्रामीण जीवन का उत्थान करना, पूरे जिले को कार्य क्षेत्र बनाना, विकास कार्यों को प्रोत्साहन देना व सुधार कार्य को जन आन्दोलन के रूप में विकसित करना आदि थे।

मद्रास के 34 फिरकों में प्रारम्भ की गयी सन् 1946 की फिरका योजना का अपना एक महत्वपूर्ण स्थान है। इस योजना का मुख्य उद्देश्य ग्रामीण जनता में आत्मविश्वास तथा आत्मनिर्भरता पैदा करना था। इस योजना के
अन्तर्गत जल की व्यवस्था, सफाई कार्यक्रम, पंचायत एवं सहकारी संस्थाओं को मजबूत बनाने के साथ-साथ उत्तम खेती, सिंचाई, पशु नस्ल सुधार और कुटीर उद्योग विकास जैसे कार्यों को भी सम्मिलित किया गया था। सन् 1949-50 में श्री एस0के0डे0 के नेतृत्व में संचालित नीलोखेड़ी की मजदूर मंजिल योजना का मुख्य उद्देश्य लोहा इस्पात, पेट्रोलियम, सीमेन्ट तथा इनसे सम्बन्धित उत्पादनों को छोड़ कर जीवन की अन्य सभी आवश्यकताओं की पूर्ति ग्रामवासियों द्वारा स्वयं पूरा कराना था।

सामुदायिक विकास कार्यक्रमों का इतिहास

सामुदायिक विकास के प्रयासों का लंबा इतिहास स्वन्त्रता पूर्व समय का है। सेवाग्राम और मुंबई राज्य का सर्वोदय ग्राम विकास प्रयोग, मद्रास राज्य की फिरका विकास योजनाएं इटावा और गोरखपुर की प्रारम्भिक परियोजनाओं जैसे अनेक कार्यक्रम थे। ये प्रयास, विकास कार्यक्रम आरम्भ करने के लिए नई तकनीकों, नई पहलों और विश्वास के कारण थे। इनमें से कुछ कार्यक्रमों में ग्रामीण पुनर्निर्माण प्रयोग शामिल किए गए जिनके लिए राष्ट्रवादी चिन्तकों और समाज सुधारकों का चिन्तन और समर्थन शामिल था।

ग्रामीण जनजातीय और शहरी क्षेत्रों में सामुदायिक विकास कार्यक्रम
सरकार और स्वैच्छिक संगठनों द्वारा अनेक सामुदायिक विकास कार्यक्रम आरम्भ किए गए। इन सभी कार्यक्रमों का मूल्य लोगों की सहभागिता और विकास है। हम अब ग्रामीण, शहरी और जनजातीय क्षेत्रों में ऐसे ही कार्यक्रमों का अवलोकन करेंगे। ये कार्यक्रम केवल संकेतात्मक हैं तथा इनके निर्माण और कार्यात्मक पहलुओं की जानकारी देने का प्रयास किया गया है।

ग्रामीण सामुदायिक विकास कार्यक्रम
सामुदायिक विकास कार्यक्रम को भारतीय स्वतंत्रता - प्राप्ति से कुछ वर्ष पहले 1920 के दशक में तत्कालीन ग्राम विकास परियोजना से प्रेरणा और कार्यनीति प्राप्त हुई तथा ग्रेट ब्रिटेन और अमेरिका में विकसित सामुदायिक विकास परियोजना पर अन्तरराष्ट्रीय प्रभाव भी पड़े।

सर्वप्रथम प्रमुख ग्राम विकास कार्यक्रम अक्टूबर 1952 में 55 विकास खण्डों में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् आरम्भ किया गया जिसके निम्नलिखित प्रमुख उद्देश्य थे-
  • (क) ग्रामीण क्षेत्रों में भौतिक और मानव संसाधनों का सम्पूर्ण विकास प्राप्त करना।
  • (ख) स्थानीय नेतृत्व और स्वशासी संस्थाएं विकासित करना।
  • (ग) खाद्य और कृषि उत्पादन में तीव्र करके ग्रामीण लोगों के जीवन स्तर को उठाना।
  • (घ) लोगों के मन में उच्च मानकों के उद्देश्य का संचार करके परिवर्तन सुनिश्चित करना।
इन उद्देश्यों को संसार विकास जैसे लघु सिंचाई और मृदा संरक्षण कार्यक्रमों को सुदृढ़ करके, कृषि निवेश आपूर्ति प्रणालियों की प्रभावित को सुधार कर, और किसानों को कृषि विस्तार सेवाएं प्रदान करके, खाद्य और कृषि उत्पादन में तीव्र वृद्धि के माध्यम से प्राप्त करना था। इसमें कृषि पशुपालन, ग्रामीण उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, प्रशिक्षण अनुपूरक रोजगार, समाजकल्याण तथा ग्रामीण संचार विकसित करने के लिए व्यापक संचार थे।
परियोजना क्षेत्र को तीन विकास खंडों में बांटा गया था। प्रत्येक क्षेत्र में लगभग 100 गांव और लगभग 65000 लोगों की जनसंख्या थी। वे क्षेत्र जिनमें पूरी परियोजना को व्यावहारिक नहीं माना गया वहां शुरू में एक अथवा दो विकास खण्उ आरम्भ किए गए। बाद में, सामुदायिक विकास कार्यक्रम एवं राष्ट्रीय कार्यक्रम बन गया जिसमें देश के सभी ग्रामीण क्षेत्रों को सम्मिलित किया गया।

संगठन
सामुदायिक विकास परियोजनाओं को आरम्भ करने के लिए विशेषरूप से संगठनात्मक संरचना सृजित की गई। संगठनात्मक संरचना केन्द्रीय, राज्य जिला और खण्ड स्तरों पर मौजूद है। सितम्बर 1956 में, सामुदायिक विकास का एक नया मंत्रालय स्थापित किया गया। इसके बाद, देश के दस कार्यक्रम पर पूरा प्रभार कृषि और ग्राम विकास मंत्रालय को सौंपा गया। इस समय केन्द्र द्वारा पूरा प्रायोजित कार्यक्रम ग्राम विकास मंत्रालय का हिस्सा है। यह केन्द्रीय प्रायोजित कार्यक्रम 1969 में राज्य प्रायोजित कार्यक्रम हो गया।

मूल्याकंन
सामुदायिक विकास कार्यक्रम का मूल्यांकन एक समिति द्वारा किया गया जिसके अध्यक्ष बलवंतराय मेहता थे। समिति ने स्थानीय शासन की तीन-स्तरीय प्रणाली की सिकारिश की जिसे पंचायती राज कहा जाता है। निचले स्तर अथवा ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायतों, मध्य अथवा खण्ड स्तर पर पंचायत समितियों और शीर्ष स्तर अथवा जिला स्तर पर जिला परिषदों का निर्माण (स्थापना) किया जाना था। इसने प्रशासनिक विकेन्द्रीकरण की सिफारिश की और निर्वाचित निकायों को नियंत्रण प्रदान किया।
पंचायती राज संस्थाओं की तीन-स्तरीय संरचना, जनवरी 1958 में अस्तित्व में आई। बाद में इन उद्देश्यों को भारत में संविधान के 73वें संशोधन अधिनियम में सम्मिलित किया गया और इसका उद्देश्य पंचायती राज प्रणाली के माध्यम से लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण सुनिश्चित करना था।

सामुदायिक विकास कार्यक्रम की आलोचनाएं
  • यह लोगों का कार्यक्रम नहीं रहा।
  • ग्राम विकास के लिए इसने ब्लूप्रिंट दृष्टिकोण अपनाया है।
  • इसमें ऐसे असंख्य अप्रशिक्षित विस्तार कार्यकर्ता लगाए गए हैं जिनमें समन्वय और सहयोग का अभाव था।
  • खंड स्तर पर कार्यात्मक उत्तरदायित्व का अभाव था जिससे पर्याप्त भ्रम और अंतर-विभागीय ईष्या उत्पन्न हुई।
  • खंड स्तर पर कार्यात्मक उत्तरदायित्व का अभाव था जिससे पर्याप्त भ्रम और अंतर-विभागीय ईष्या उत्पन्न हुई। 
सामुदायिक विकास उपागम से विशिष्ट कार्यक्रमों की ओर परिवर्तन हआ जिसने यह बल दिया कि कौन सी कृषि विकास कार्यनीतियां (नई कृषि कार्यनीति में) विशेष क्षेत्रों पर ध्यान देंगी। इसने कार्यक्रम में सामुदायिक भागीदारी के स्वरूप को बदल दिया। इसके लिए लक्ष्य उपागम को अपनाया गया। इनकी पहचान, प्रशिक्षण और विकास, अनुसंधान वैज्ञानिकों तथा विकास अधिकारियों का उत्तरदायित्व हो गया और संघन कृषि विकास कार्यनीति में वैज्ञानिक, तकनीकी और प्रबंधकीय पहलुओं पर बल दिया गया।

अन्य कार्यक्रम और समुदाय घटक
इन कार्यक्रमों में परिवर्तन, समेकित ग्राम विकास कार्यक्रम के आरम्भ होने से हुआ तथा समन्वित ग्राम विकास कार्यक्रम ने परिसम्पत्ति सृजन अथवा मजदूरी रोजगार पर बल सहित विशिष्ट समूहों को लक्ष्य बनाते हुए ग्राम विकास की संकलपना की। वाद में छठी योजना में शुरू हुए समन्वित ग्राम विकास कार्यक्रम में, परिसंपत्ति सृजन ने समूह-उन्मुख उपागम ले लिया है जिसने भागीदारी और प्रबंध के लिए समूहों के सृजन पर बल दिया। समूह उपागम वानिकी (संयुक्त वन प्रबंधन), वाटरशैड, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन अथवा प्रारम्भिक शिक्षा गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों और मध्याहन भोजन योजना (मातृ-समितियां भी बननी चाहिए) से संबंधित सभी ग्राम विकास कार्यक्रमों का केन्द्र-बिन्द बन गए। इसके अतिरिक्त सहभागी प्रबंधन पर बल दिया गया और उपर्युक्त कार्यक्रमों में पड़ोसी समूहों की अनिवार्य आवश्यकता पर जोर दिया गया।

डी. डब्ल्यू. सी. आर. ए. (ग्रामीण क्षेत्रों में महिला एवं बाल विकास) स्व-सहायता समूह की अवधारणा को लोकप्रिय बनाने में सक्रिय रहा है और सरकार द्वारा तथा स्वैच्छिक एजेंसियों द्वारा शुरू किए गए कार्यक्रमों में सामुदायिक क्रिया और विकास स्वरूप और मात्रा आवश्यक परिवर्तन लाने में महत्वपूर्ण रहे हैं। कार्यक्रमों का समुदाय-स्वमित्व सरकारी उपेक्षा बन गया है और सरकारी कार्यक्रम के कार्यान्वयन के लिए वाहकों के रूप में पंचायतों को महत्व प्रदान किया गया है। यद्यपि अनेक मामलों में पंचायतों के पास पर्याप्त निधियां (धनराशियां) नहीं होती अथवा वित्तीय वर्ष में उनके पास धन आवंटन देर से पहुंचता है। यहां पर सदैव खतरा होता है कि स्थानीय जाति और वर्ग पूर्वाग्रह सामने आ सकते हैं और यथास्थिति बना रह सकता है।
बाद में, स्वर्ण जयंति ग्राम स्वरोजगार योजना आरम्भ की गई जिसमें ग्रामीण क्षेत्रों में असंख्य सूक्ष्म उद्यम स्थापित करने पर बल दिया गया। यह कार्यक्रम गरीबों की योग्यता और प्रत्येक क्षेत्र की क्षमता पर आधारित था। इसमें स्थायी आय-सृजन के लिए भूमि आधार और अन्य आधार पर बल दिया गया। इस कार्यक्रम में उन समूहों की अवधारणा का प्रयोग किया गया जिन्हें समुदाय प्रेरित पहलों को निर्मित करने के लिए प्रयोग किया जा सकता था।
स्वर्ण जयंती ग्रामीण स्वरोजगार योजना के अंतर्गत बने स्वरोजगार समूहों में 10-20 सदस्य हो सकते हैं और लघु सिंचाई के मामले में और विकलांग व्यक्तियों तथा दुर्गम क्षेत्रों अर्थात पर्यतीय, मरूस्थल और छितरी आबादी वाले क्षेत्रों के मामले में, यह संख्या न्यूनतम पांच हो सकती है। स्व-सहायता समूह-गरीबी की रेखा से नीचे रह रहे लोगों की उस सूची से भी लेने चाहिए जो ग्राम सभा द्वारा मंजूर की गई हो।
स्व-सहायता समूह विकास की तीन अवस्थाओं से गुजरते हैं, जैसे परिक्रामी निधि और कौशल विकास के माध्यम से समूह निर्माण, पूंजी निर्माण और आय सृजन के लिए आर्थिक कार्यकलाप आरम्भ करना।

समूह उपागम के बावजूद इन कार्यक्रमों को वास्तव में समुदाय प्रेरित विकास कार्यक्रम बनाने के सम्बन्ध में कुछ सीमाएं हैं। गांवों और लघु उद्यमों के लिए अनेक अन्य कार्यक्रम हैं जिनमें कुछ विशेष योजनाएं ग्रामीण क्षेत्रो में स्वरोजगार के संवध्रन के लिए अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए हैं। ये क्षेत्र मुख्य रूप से ग्रामीण समुदायों को सशक्त बनाने के लिए स्व-सहायता समूहों के निर्माण पर और आर्थिक कार्यकलाओं को शुरू करने के लिए उन्हें सक्षम बनाने का निर्भर करते हैं।

मजूदरी (दिहाड़ी) रोजगार कार्यक्रम जैसे संपूर्ण ग्रामीण रोजगार और हाल ही में शुरू किए गए राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम ने रोजगार के 100 दिन प्रदान किए हैं परन्तु इसमें स्वयं समुदाय बनाने और समूह बनाने का प्रावधान नहीं है। तथापि, गैर-सरकारी संगठन तथा कार्यकर्ता भागीदारी के कारण, ये कार्यक्रम समुदाय किया और विकास के लिए आंदोलनों का भी आकार ले रहे हैं तथा सरकार द्वारा सर्वाधिक की गई रोजगार योजनाओं में अपना उचित भाग मांग रहे हैं।

जनजातीय सामुदायिक विकास कार्यक्रम
जनजातीय समुदायों को 1954 के अन्त में सृजित, विशेष बहुउद्देशीय जनजातीय विकास परियोजनाओं के माध्यम से कुछ सहायता प्राप्त हुई। ये परियोजनाएं जनजातीय लोगों के हितों को पूरा नहीं कर सकीं क्योंकि योजनाओं की संख्या बहुत अधिक थी। बाद में समुदाय विकास खण्ड, जिनमें जनजातीय जनसंख्या का संकेन्द्रण 66 प्रतिशत और उससे अधिक था, जनजातीय विकास खण्डों में बदल गए। जनजातीय समुदायों की आवश्यकताओं को पूरा कर पाने में असफल होने के कारण जनजातीय लोगों के तीव्र सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए जनजाति उपयोजना कार्य-नीति विकास की गई, यह अभी भी चल रही है। इसके निम्नलिखित उद्देश्य है
  1. जनजातियों का सर्वांगीण सामाजिक-आर्थिक विकास करना और उन्हें गरीबी के स्तर से उपर उठाना।
  2. जनजातीयों को शोषण के विभिन्न रूपों से बचाना।
जनजातीय विकास खण्डों के अन्तर्गत योजना/कार्यक्रम और परियोजनाओं को समान्वित जनजातीय विकास परियोजनाओं के माध्यम से कार्यान्वित किया जाता है। ये समन्वित विकास योजनाएं उन खण्डों अथवा खंडों के समूहों में स्थापित की गई थीं जहां अनुसूचित जाति की जनसंख्या, कुल जनसंख्या का 50 प्रतिशत से अधिक है। भारत सरकार ने जनजातीय विकास तेज करने के लिए अक्टूबर 1999 में जनजातीय कार्यमंत्रालय बनाया इस मंत्रालय में वर्ष 2004 में जनजातीयों पर राष्ट्रीय नीति संबंधी प्रारूप प्रस्तुत किया। इस प्रारूप नीति में कहा गया है कि अधिकतर अनुसूचित जनजातियां गरीबी रेखा से नीचे रहती हैं, उनकी सक्षरता दर कम है, कुपोषण और रोगों से पीड़ित हैं तथा उन्हें विस्थापन का खतरा बना रहता है। इस प्रारूप में यह भी माना गया है कि अनुसूचित जातियां आमतौर पर अनेक प्रकार के स्वदेशी ज्ञान और बुद्धिमता का भण्डार हैं। राष्ट्रीय नीति का उद्देश्य प्रत्येक समस्या को ठोस ढंग से दूर करना है। गैर-सरकारी संगठन के अनेक जनजातीय सामुदायिक विकास के अनेक पहलू हैं और इन संगठनों ने जनजातीय समुदायों के मुद्दों, विशेषकर उनकी क्षमता निर्माण और सत्ता विकास पर कार्य किया है।

जनजातीय विकास से संबंधित अनेक पहलों में सहभागी उपागम अपनाए गए हैं, ताकि परियोजनाओं के लक्ष्यों को सफलता पूर्वक पूरा किया जा सके।

10-15 वर्षों में विकास मध्यस्थाताओं की प्रभावित को बढ़ाने के लिए लोगों की सहभागिता के महत्व की बढ़ती मान्यता के कारण क्षेत्रक कार्यक्रमों के कार्यान्वयन के लिए गांवों में जनसंख्याओं की व्यापक व्यवस्था की गई है। इनमें वन विभाग द्वारा, संयुक्त वन प्रबंधन समितियां, शिक्षा विभाग द्वारा, शिक्षा समितियां जिला ग्रामीण विकास एजेन्सियां, जन स्वास्थ्य विभाग द्वारा, जल एवं स्वास्थ्य समितियां, सिचाई विभाग द्वारा जल प्रयोग कर्ता संघ और महिला एवं बाल विकास द्वारा महिला मण्डल (महिला संघ) स्थापित किए जा रहे हैं।

सबसे सफल एक परियोजना आंध्र प्रदेश जनजातीय विकास परियाजना है। आंध्र प्रदेश जनजातीय विकास परियोजना ने स्थानीय स्तर के अनेक संस्थान स्थापित किए हैं, जिनमें स्व-सहायता समूह, समूहों के समूह स्तर संघ, प्रयोगकर्ता समूह/ग्राम विकास समितियां (जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, सिचाई, मृदा संरक्षण और खाद्यानन भण्डार)
और वी0टी0डी0ए0 के रूप में मॉडल संस्था शामिल हैं। वी0टी0डी0ए0 की समुदायों की प्राथमिकताओं और चिन्ताओं की अभिव्यक्ति के लिए एक मंच के आधार पर औरा दूसरे समुदायों को परियोजनाओं और कार्यक्रम वितरित या आवंटित करने के साधान के रूप में संकल्पना की गई थी।

वी0टी0डी0ए0 नेताओं और सदस्यों का चयन, उनके प्रतिनिधियों के रूप में समुदायों द्वारा किया गया और आमतौर पर इस चयन वृद्धों की परम्परागत परिषदों की मंजूरी की आवश्यकता पड़ी ताकि नए अज्ञैर पुरानों के बीच अनोपचारिक आधार पर संबंध बना रहे।

इसके अतिरिक्त, समुदाय समन्वय दलों की रचना की गई। इनमें समर्पित व्यावसायिकों के समूह थे जो उस सामाजिक लाभवंदी, जागरूकता निर्माण और आवश्यकताओं तथा प्राथमिकताओं की पहचान में सहायता करने के लिए जनजातीय गांवों में रहते थे जिनके इर्द-गिर्द विकास मध्यस्थताओं को निर्मित किया जा सकता था।

कुल मिलाकर, परियोजना ने आदिवासियों पर विशेष ध्यान के साथ बहु-भागीदार उपागम के लिए कार्यान्वयन के दौरान एक अन्तराल पैदा कर दिया है। इस परियोजना ने जनजातीय लोगों को अपने प्राकृतिक संसाधन आधार में सुधार करने और आजीविका के साधन में भागीदारी बनाया है तथा समुदाय के कार्यक्रम प्रबन्धन को शुरू किया है, उसे कार्यान्वित किया तथा उसकी निगरानी की है। थ्रिफट और क्रेडिट समूहों की स्थापना ने बचत की उनकी आदत में वृद्धि की है। कार्यक्रमों ने विभिन्न पहलुओं, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, आय सृजन कार्यकलापों, कृषि विकास, स्व-सहायता समूहों आदि पर बल दिया।

शहरी सामुदायिक विकास कार्यक्रम
शहरी सामुदायिक विकास कार्यक्रमों का संवर्धन सरकार अथवा स्वैच्छिक संगठनों या सदस्य संगठनों द्वारा भी किया जा सकता है। समुदाय की ऐसी पहल, शहरी सफाई के काम, शहरी आवास, शहरी स्वास्थ्य में देखी गई है। यह सभी सहायता अथवा पहल के तत्व में अपेक्षित है जो कुछ व्यक्तियों अथवा समूहों से मिलता है।
नीचे प्रस्तुत कुछ केस अध्ययन उस सीमा के सूचक हैं जिसके लिए समुदाय समूह नागरिकता का दावा करने और श्रेष्ठ रहन-सहन के लिए सक्रिए रूप से कार्य कर सकते हैं।
स्लम एंड शैक ड्वैलर्स इंटरनेशनल जैसे विश्वव्यापी संगठन और विभिन्न देशों के भागीदारों ने आवास और सफाई मुद्दों में एक अलग विश्व बनाया है। बैंगलौर के “स्लम जगाथू” जैसे संस्थाओं ने समुदाय जागरूकता पैदा करने और उन लोगों में नैतिक जिम्मेदारी उत्पन्न करने में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाई है जो शासन करते हैं जिसमें नौकरशाही और विधायिका भी शामिल है।

शहरी क्षेत्रों में कुछ सफल सामुदायिक कार्यक्रम नीचे प्रस्तुत किए गए हैं-

स्वर्ण जयंती शहरी रोजगार योजना
1997 में आरम्भ की गई इस योजना में शहरी स्वरोजगार कार्यक्रम और शहरी मजदूरी रोजगार कार्यक्रम दो घटक है। ये कार्यक्रम शहरी गरीबी उन्मूलन के लिए पहले से चल रहे विभिन्न कार्यक्रमों के बदले थे। यह योजना स्वरोजगार मुद्दों को सुलझाने के लिए सामूहिक उपागम पर आधारित है।

कुटुम्बाश्री कार्यक्रम
कुटुम्बाश्री कार्यक्रम महिलाओं की गरीबी उन्मूलन का एक सरकारी कार्यक्रम है जिसका प्रयोग अलापज्झा में शहरी परिवेश में सर्वप्रथम किया गया। इस योजना में एक वार्ड (क्षेत्र) में सभी पड़ौसी (निटकवर्ती) क्षेत्रों की महिला प्रतिनिधियों को एक क्षेत्र विकास सोसाइटी में समूहबद्ध प्रतिशत टी0आई0 जाता हैं, जिसका अध्यक्षता पंचायत सदस्य द्वारा की जाती है। पंचायत में सभी वार्डों की क्षेत्र विकास सोसायटी को पंचायत स्तर की विकास समिति में एकीकृत किया जाता है जिसकी अध्यक्षता पंचायत अध्यक्ष द्वारा की जाती है। दूसरे शब्दों में, यह गरीबी उन्मूलन का कार्यक्रम है जिसका उद्देश्य सरकारी छत्रछाया में लघु ऋण के लिए सभी गरीब महिलाओं को संगठित करना है। इसका परिवेश (निकटवर्ती) समूह उपागम में मूल है।

यह कार्यक्रम गरीबी उन्मूलन के लिए अलापुज्झा में वर्ष 1993 ममें एक अलग ढंग से आरम्भ किया गया। इसका उद्देश्य स्थानीय सरकारों के नेतत्व मेमं समन्वित समदाय क्रिया के माध्यम से गरीबी दूर करना था। इसके लिए गरीबों को गरीबी के बहुआयामों और रूपों को नियंत्रित करने के लिए उपलब्ध सेवाओं और संसाधनों के मांग प्रेरित विलय के साथ स्व-सहायता को पूरी तरह मिलाना था। क्षेत्र स्तर पर, क्षेत्र विकास सोसाइटी के रूप में प्रतिवेशी समूह बुनियादी इकाई था और इन्हें नगर स्तर पर सामुदायिक विकास सोसाइटी बनाने के लिए एकीकृत किया गया था। अनेक विभागीय कार्यक्रम चलाए गए जैसे, जल-आपूर्ति और महिला प्रशिक्षण, आब सृजन इकाइयां प्रबंधकीय प्रशिक्षण अथवा क्षेत्र विकास सोसाइटी और सामुदायिक विकास सोसाइटी के निर्वाचित सदस्य के लिए प्रशिक्षण, स्वास्थ्य और शिक्षा शिविर, दोहरे पिट शौचालयों का निर्माण आदि अलापुण्झा के समुदाय आधारित संगठनों ने गरीबी उन्मूलन हेतु सहभागिता के लिए सहभागी उपागम की सफलता में योगदान किया। संबंधित प्रतिवेश के जोखिम परिवारों के 20-40 महिला सदस्यों के प्रतिवेश समूह, एक महिला को अपना नेता चुनते हैं और वह निवासी समुदाय स्वयंसेवक’ मनोनीत होती हैं। दूसरी महिला एन0एच0जी0 की अध्यक्ष निर्वाचित हुई तीन अन्य महिलाएं, समुदाय स्वयंसेविकाएं निर्वाचित हुई और इन स्वयंसेविकाओं निर्वाचित हुई और इन स्वयंसेविकाओं के विशिष्ट उत्तरदायित्व और कार्य होते हैं, स्वास्थ्य, ये बुनियादी संरचना और आय सृजन कार्यकलापों पर ध्यान देती हैं। एन0एच0जी0 की समिति में ये पांच निर्वाचित महिलाएं थी। एन0एच0जी0 सक्षम योजनाएं बनाती हैं जिन्हे लघ योजना के अन्तर्गत क्षेत्र विकास सोसाइटी में शामिल किया जाता हैं। इस लघ योजना का सामुदायिक विकास सोसाइटी द्वारा नगर योजना में समेकित किया गया, जो 1955 की ट्रावनकोरकोचिन, लाइब्रेरी, वैज्ञानिक और धर्मार्थ सोसाइटी अभिनियम के अन्तर्गत पंजीकृत सोसाइटी है। कुदम्बाश्री परियोजना ने अपनी अंतर्निर्मित सहभागी विशेषता के कारण प्रबल सफलता प्राप्त की है। इससे केरल सरकार ने समदाय वितरण सोसाइटी प्रणाली को सरकारी आदेश के माध्यम से केरल में सभी 57 कस्बों (नगरों) तक विस्तार कर दिया है। इस आदेश ने गरीब महिलाओं की सहायता करने के लिए पूरी परियोजना को वैधता प्रदान की है।

एस.पी.ए.आर.सी. (स्पार्क) के केस अध्ययन और महिला पटरी और मलीन बस्ती निवासी (महिला मिलन) के सहकारी समितियों तथा राष्ट्रीय मलीन बस्ती संघ के साथ इसके कार्य अनेक कार्यकलाप प्रदर्शित करते हैं। जिसमें हजारों-हजारों शहरी गरीब सम्मिलित हैं और इन्हें बहुत कम विदेशी धन मिला है।

गैर सरकारी संस्था ‘स्पार्क मुम्बई में पटरी निवासियों के साथ उनकी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए स्थान देने और उनकी समस्याओं पर चर्चा करने के लिए पहले कार्य कर रही थी। इसने बचत और ऋण के लिए महिला समूहों के निर्माण तथा महिला पटरी निवासी संगठन महिला मिलन की स्थापना की। महिला मिलन ने सामान्य संकटों से निपटने के रास्ते विकसित करने की चुनौती स्वीकार की। ये संकट थे-बेदरवाली, पुलिस उत्पीड़न और पानी और राशन कार्ड प्राप्त करना। विभिन्न समूहों के अनुभवों का विश्लेषण, सामूहिक और लगातार संगठन की शक्ति विकसित करने और प्राधिकारियों के साथ शक्ति (सत्ता) का सौदा करने के लिए किया गया। इसके पश्चात्, स्थानीय परिसंघों का एक समूह, राष्ट्रीय मलीन बस्ती निवासी परिसंघ (एन0एस0एफ0डी0) के बीच एक समझौता हुआ जो अनेक नगरों और महिला मिलन के अन्दर सक्रिय थे। इस गठबंधन ने प्रारम्भिक परियोजनाओं के साथ शिक्षा समुदायिक के लिए शैक्षिक और संगठनात्मक कार्यनीति विकसित करना आरम्भ किया। यह शिक्षा अल्प आय बस्तियों के बीच निरन्तर आदान-प्रदान के माध्यम से विस्तारित की गई, तब से इसका यह मुख्य कार्य है।

इस गठबंधन ने सुरक्षित मकानों (पट्टे के संबंध में) को बनाने की खोज आरम्भ की। यह अनेक कार्यकलापों के माध्यम से किया गया जिसमें सदस्यों का ज्ञान और विश्वास निर्माण अज्ञैर इन कार्यों को शामिल करना शामिल था। समुदाय द्वारा आरम्भ और संचालित किए गए सर्वेक्षणों और मानचित्रों के माध्यम से की गई झोपड़-पट्टी की गणना ने उनका समस्याओं की पहचान करने तथा उनकी प्राथमिकताओं को विकसित करने में सहायता की। इसने उनकी स्थिति का दृश्यात्मक निरूपण भी प्रस्तुत किया जिसने भौतिक-सुधारों के विकास के साथ-साथ बाहरी एजेंसियों के साथ बातचीत में सहायता की। समुदाय सदस्यों ने अपने घरों को विकसित करना सीखा - घर के लिए जमीन कैसे प्राप्त की जाती है इसे कैसे बनाया जाता है, लागत कम कैसे रखी जाती है, व्यावसायिकों का प्रबंध कैसे किया जाता है, नई सामग्रियां कैसे विकसित की जाती हैं, बुनियादी ढांचा किस प्रकार स्थापित किया जाता है और सरकारी एजेंसियों से किस प्रकार बातचीत की जाती है। उन्होंने सामूहिक माडल निर्माण के माध्यम से डिजाइनों को विकसित किया जिनमें प्रायः पूर्ण माडल विकसित करना शामिल था जिनकी चर्चा समुदाय के आदान-प्रदानों के माध्यम से की गई है। इस कारण 3500 से अधिक मकानों की स्थायी सामूहिक पट्टे (अवधि) के साथ निर्माण हुआ तथा 5000 लोग ऋणी हो गए थे।

सारांश

प्रस्तुत के अन्तर्गत सामुदायिक विकास के मूल तत्वों, अर्थों, परिभाषाओं तथा अवधारणा को समझाने का प्रयास किया गया है। इसके साथ-साथ सामुदायिक विकास के उद्देश्यों, सामुदायिक विकास कार्यक्रम एवं जवाबदेही के मध्य अन्तर तथा ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का भी वर्णन किया गया है।

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