गुट निरपेक्षता
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सम्पूर्ण विश्व का दो गुटों-पूंजीवादी गुट तथा साम्यवादी गुट में बंट जाना एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। इसने अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में शीत-युद्ध की अवधारणा को जन्म दिया। अमेरिका तथा सोवियत संघ अपने-अपने धड़ों को मजबूत बनाने के प्रयास करने लगे जिससे तृतीय विश्वयुद्ध की सम्भावना प्रबल हो गई। तीसरी दुनिया के सामने अपने अस्तित्व का खतरा उत्पन्न हो गया। अब उनके सामने बड़ी चुनौती यह थी कि वे किस गुट में शामिल हों या न हों, नवोदित स्वतन्त्रता प्राप्त राष्ट्र फिर से पराधीनता की जंजीर में जकड़े जाने से भयभीत थे। इसलिए उन्होंने इन गुटों से दूर रहकर की अपनी स्वतन्त्रता को सुदृढ़ आधार प्रदान किया। उन्होंने गुटों से दूर रहकर अपनी निष्पक्षता का परिचय दिया, जिससे गुटनिरपेक्षता की नीति का जन्म हुआ।
भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पंडित जवाहर लाल नेहरू, मिश्र के कर्नर नासिर तथा युगोस्लाविया के नेता मार्शल टीटो ने 1961 में गुटनिरपेक्षता की नीति को सुदृढ़ आधार प्रदान किया। उन्होंने नवोदित अफ्रीकी तथा एशियाई देशों के सामने कुछ सिद्धान्त रखे जो गुटनिरपेक्षता देश को परिभाषित करने में पूर्ण समर्थ थे। उनके सिद्धान्तों को एशिया और अफ्रीका के नवोदित राष्ट्रों द्वारा सहर्ष स्वीकार करके गुटनिरपेक्षता के प्रति उन्होंने अपनी निष्ठा तथा गुटनिरपेक्षता की बढ़ती लोकप्रियता को दर्शाया।
गुटनिरपेक्षता का अर्थ
'गुटनिरपेक्षता' शब्द को सर्वप्रथम लिस्का द्वारा वैज्ञानिक अर्थ प्रदान किया गया, बाद में अन्य विद्वानों ने इसे अलग-अलग रूप में परिभाषित किया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा व्यवस्थित रूप दिया गया जिसको कर्नल नासिर तथा मार्शल टीटो ने भी स्वीकार कर लिया। जवाहर लाल नेहरू ने गुटनिरपेक्षता को परिभाषित करते हुए कहा है – “गुटनिरपेक्षता का अर्थ है अपने आप को सैनिक गुटों से दूर रखना तथा जहां तक सम्भव हो तथ्यों को सैनिक दृष्टि से न देखना। यदि ऐसी आवश्यकता पड़े तो स्वतन्त्र दृष्टिकोण रखना तथा दूसरे देशों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाए रखना गुटनिरपेक्षता के लिए आवश्यक है। इससे स्पष्ट होता है कि केवल आंख बंद करके विश्व घटनाक्रम को देखते रहना गुटनिरपेक्षता नहीं है। यह सही और गलत में अन्तर करते हुए सही का पक्ष लेने की भी नीति है। लेकिन गुटनिरपेक्ष देश वही हो सकता है जो गुटों से दूर रहकर ही अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाए।
गुटनिरपेक्षता का सरल अर्थ है कि विभिन्न शक्ति गुटों से तटस्थ या दूर रहते हुए अपनी स्वतन्त्र निर्णय नीति और राष्ट्रीय हित के अनुसार सही या न्याय का साथ देना। आंख बंद करके गुटों से अलग रहना गुटनिरपेक्षता नहीं हो सकती। गुटनिरपेक्षता का अर्थ है - सही और गलत में अन्तर करके सदा सही नीति का समर्थन करना।
जार्ज लिस्का ने इसका सही अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा कि सबसे पहले यह बताना जरूरी है कि गुटनिरपेक्षता तटस्थता नहीं है। इसका अर्थ है - उचित और अनुचित का भेद जानकर उचित का साथ देना।
गुटनिरपेक्षता का सही अर्थ स्पष्ट करने के लिए यह बताना जरूरी है कि गुटनिरपेक्षता क्या नहीं है?
(अ) गुटनिरपेक्षता तटस्थता नहीं है
तटस्थता शब्द का प्रयोग प्रायः युद्ध के समय किया जाता है। शान्तिकाल में भी यह एक प्रकार से युद्ध की मनोवृत्ति को प्रकट करती है। यह उदासीनता का दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है। यह एक प्रकार की नकारात्मक प्रवृति है। जबकि गुटनिरपेक्षता का विचार सक्रिय एवं सकारात्मक है। इससे विश्व समस्याओं का बिना गुटों के भी समाधान किया जा सकता है। इस तरह गुटनिरपेक्षता एक सक्रिय विचार है। गुट निरपेक्षता युद्धों में शामिल होकर भी बरकरार रहती है। भारत ने चीन और पाकिस्तान के साथ युद्ध करने पड़े फिर वह गुटनिरपेक्ष देश है। तटस्थता युद्धों में भाग लेने पर समाप्त हो जाती है। स्वीटज़रलैंड एक तटस्थ देश है क्योंकि वह न तो किसी युद्ध में शामिल हुआ है और न ही उसे किसी सैनिक संगठन की सदस्यता प्राप्त है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि गुटनिरपेक्षता तटस्थता की नीति नहीं है।
(आ) गुटनिरपेक्षता अलगाववाद या पृथकतावाद नहीं है
पृथकवाद का अर्थ होता है- प्रायः अपने को दूसरे देशों की समस्याओं से दूर रखना। अमेरिका ने प्रथम विश्व युद्ध से पहली इसी नीति का पालन किया। लेकिन गुटनिरपेक्षता अलगाववाद की नीति नहीं है। गुटनिरपेक्षता अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं में स्वयं रूचि लेने व सक्रिय भूमिका निभाने की नीति है। उदाहरण के लिए भारत ने शीत युद्ध में किसी गुट में शामिल न होकर भी इस समस्या के प्रति अपनी जागरूकता का परिचय दिया और दोनों गुटों में तनाव कम कराने के प्रयास भी किए।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि गुटनिरपेक्षता तटस्थतावाद तथा अलगाववाद की नीति नहीं है। यह एक ऐसी नीति है जो सैनिक गुटों से दूर रहते हुए भी उनके काफी निकट है।
(इ) गुट निरपेक्ष देश कौन हैं?
गुटनिरपेक्षता का सही अर्थ जानने के लिए गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के तीन कर्णधारों – पंडित जवाहर लाल नेहरू, नासिर व टीटो के विचारों को जानना आवश्यक है। इन तीनों नेताओं ने 1961 में गुटनिरपेक्षता को सही रूप में परिभाषित करने वाले निम्नलिखित 5 सिद्धान्त विश्व के सामने रखेः
- जो राष्ट्र किसी सैनिक गुट का सदस्य नहीं हो।
- जिसकी अपनी स्वतन्त्र विदेश नीति हो।।
- जो किसी महाशक्ति से द्विपक्षीय समझौता न करता हो।
- जो अपने क्षेत्र में किसी महाशक्ति को सैनिक अड्डा बनाने की अनुमति न देता हो।
- जो उपनिवेशवाद का विरोधी हो।
इस सिद्धान्तों के आधार पर कहा जा सकता है कि ऐसा देश जो सैनिक गुटों से दूर रहकर स्वतन्त्र विदेश नीति का पालन करता हो और अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति जागरूक हो गुट-निरपेक्ष देश कहलाता है।
गुट निरपेक्षता की विशेषताएं
गुटनिरपेक्षता का जन्म विशेष तौर पर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद हुआ। भारत, मिस्त्र व युगोस्लाविया आदि देशों के सहयोग से इस अवधारणा का पूर्ण विकास हुआ। आज गुटनिरपेक्षता की अवधारणा एक पूर्णतया विकसित स्वयं विस्तृत रूप धारण कर चुकी है। इसको समुचित रूप में समझने के लिए इसकी विशेषताओं को जानना जरूरी है।
गुटनिरपेक्षता की महत्वपूर्ण विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
- यह सभी प्रकार के सैनिक, राजनीतिक, सुरक्षा-सन्धियों तथा गठबन्धनों का विरोध करने की नीति है। गुटनिरपेक्षता शीत युद्ध के दौरान उत्पन्न नाटो, सीटो एवं वार्सा समझौतों का विरोध करती है। गुटनिरपेक्षता की नीति का मानना है कि सैनिक गठबन्धन साम्राज्यवाद, युद्ध तथा नव-उपनिवेशवाद को बढ़ावा देते हैं। ये शीत युद्ध या अन्य तनावों को जन्म देते हैं। इन्हीं से विश्व शान्ति भंग होती है। अतः इनसे दूर रहना तथा विरोध करना आवश्यक है।
- गुटनिरपेक्षता शीत युद्ध का विरोध करती है। भारत जैसे गुटनिरपेक्ष देश शीत-युद्ध को अंतर्राष्ट्रीय शान्ति को भंग करने वाला तत्व मानते हैं। इसलिए गुटनिरपेक्षता शीत युद्ध से दूर रहने की नीति का पालन करती है। और शीत युद्ध के सभी तनावों को दूर करने का प्रयास करती है।
- गुटनिरपेक्षता स्वतन्त्र नीति का पालन करने में विश्वास करती है। उसका मानना है कि गुटबन्दियां राष्ट्रीय हितों के लिए हानिकारक हैं। इसीलिए भारत हमेशा से अपनी विदेश नीति में गुटनिरपेक्षता को आधार मानता रहा है।
- गुटनिरपेक्षता अलगाववाद या तटस्थता की नीति नहीं है। यह अतंर्राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति जागरूक रहने तथा उन समस्याओं के समाधान के लिए सहयोग देने की नीति है।
- गुटनिरपेक्षता शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व तथा आपसी सहयोग की नीति है। यह शक्ति के किसी भी रूप का खण्डन करती है। यह राष्ट्रों के बीच तनावों एवं संघर्षो को शान्तिपूर्ण ढंग से हल करने में विश्वास करती है।
- यह राष्ट्रीय हितों को प्राप्त करने का कूटनीतिक साधन नहीं है। यह युद्ध का लाभ उठाने के किसी भी अवसर का विरोध करती है। यह एक सकारात्मक गतिशील नीति है। यह विदेशों के साथ मधुर सम्बन्धों की स्थापना करके राष्ट्रीय हितों की प्राप्ति करने पर बल देती है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि गुटनिरपेक्षता शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व की भावना को विकसित करने, अंतर्राष्ट्रीय संघर्षों का विरोध करने व उनके समाधान का प्रयास करके विश्व में स्थायी शान्ति की स्थापना के प्रयास की नीति है। गुटनिरपेक्षता किसी समस्या के प्रति आंख बंद करके बैठ जाने या अलग रहकर जीने की नीति नहीं है बल्कि अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति जागरूक रहने की नीति है। यह एक गतिशील धारणा हे जो भारतीय विदेश नीति व अन्य तृतीय विश्व के राष्ट्रों की स्वतन्त्र विदेश नीति का आधार हैं यह किसी राष्ट्र की सम्प्रभुता को सुदृढ़ करने की नीति है।
गुटनिरपेक्षता को प्रोत्साहन देने वाले तत्व
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद गुटनिरपेक्षता की अवधारणा धीरे-धीरे विकसित होने लगी और गुटनिरपेक्ष आंदोलन का भी तेजी से विकास होने लगा। 1961 में संस्थापक देशों सहित इसकी संख्या 25 थी, लेकिन आज यह संख्या 115 है। धीरे-धीरे गुटनिरपेक्ष आन्दोलन एक महत्वपूर्ण आन्दोलन बन गया। विश्व में नवोदित स्वतन्त्र राष्ट्र एक-एक करके इसकी सदस्यता प्राप्त करते गए। उन देशों द्वारा गुटनिरपेक्षता की नीति को अपनाने के पीछे निम्नलिखित कारण हैं-
साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद का भय
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विश्व में गुटों का नेतृत्व करने वाले देश अमेरिका और सोवियत संघ तथा उनके मित्र राष्ट्र साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद के प्रमुख प्रेणता रहे थे। तृतीय विश्व के देश साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद के कष्टों को अच्छी तरह भोग चुके थे। यदि उन्होंने इन गुटों की सदस्यता स्वीकार की हो तो उन्हें पता था कि वे फिर से साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद के नए रूप में जकड़ लिए जायेंगे। उन्हें शीत युद्ध में घसीटकर पुरानी प्रक्रिया का अंग बना लिया जाएगा। इससे उनकी स्वतन्त्रता खतरे में पड़ जाएगी। इसीलिए नवोदित स्वतन्त्र अफ्रीका व एशिया के देशों ने किसी भी गुट में शामिल न होने का निर्णय लिया और गुटनिरपेक्षता की नीति में ही अपना विश्वास व्यक्त करके विश्व शान्ति का आधार सुदृढ़ किया। इसी नीति के आधार पर उन्होंने अपनी स्वतन्त्रता को बचाकर आत्म रक्षा का उपकरण बना लिया।
शीत युद्ध का वातावरण
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका और सोवियत संघ के बीच व्याप्त तनाव ने तृतीय विश्व के देशों ने विश्व शान्ति को बनाए रखने के लिए सोचने पर विवश कर दिया। शीत युद्ध की स्थिति में प्रत्येक महाशक्ति अपने को शक्तिशाली बनाने का प्रयास करने लगी। इस दौरान अमेरिका द्वारा परमाणु शक्ति हासिल कर लेने के बाद उसकी सर्वोच्चता स्थापित करने की भावना प्रबल हो गई। इससे सोवियत खेमे का चिंतित होना स्वाभाविक ही था। उसने साम्यवादी गुट को मजबूत बनाने के अथक प्रयास शुरू कर दिए। धीरे-धीरे दोनो महाशक्तियों में यह तनाव इतना अधिक बढ़ गया कि तृतीय विश्वयुद्ध का खतरा उत्पन्न हो गया। नवोदित स्वतन्त्र राष्ट्रों ने इस वातावरण को अपने लिए सबसे खतरनाक समझा। उन्होंने जागरूक राष्ट्रों के रूप में अपने उत्तरदायित्व को समझते हुए एक तीसरी शक्ति को मजबूत बनाने का विचार किए जो इस तनाव को कम कर सकें। इसलिए इन तृतीय विश्व के देशों ने पृथक रहकर विश्व शान्ति को बनाए रखने के लिए गुटनिरपेक्षता की नीति का ही विकास किया। अतः शीत युद्ध के वातावरण ने इस नीति के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
स्वतन्त्र विदेश नीति की इच्छा
स्वतन्त्र नवोदित राष्ट्रों के सामने अपने राष्ट्रीय हितों को प्राप्त करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में स्वतन्त्र विदेश नीति को आवश्यकता महसूस हुई। उनका मानना था कि यदि वे किसी गुट में शामिल होंगे तो इससे उनकी स्वतन्त्रता सीमित हो जाएगी और वे अंतर्राष्ट्रीय मंच पर स्वतन्त्र निर्णय नहीं ले सकेंगे। गुटबन्दी को स्वीकार करने का अर्थ होगा -स्वतन्त्रता का त्याग। इसलिए नवोदित स्वतन्त्र राष्ट्रों ने गुटनिरपेक्षता की नीति को ही आधार बनाकर अपनी स्वतन्त्र विदेश नीति के संचालन की इच्छा को पूरा किया।
गठबन्धन राजनीति का विरोध
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विश्व का पूंजीवादी और साम्यवादी दो गुटों में बंटवारा हो गया। दोनों गुट शीत युद्ध के वातावरण में अपनी-अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए सैनिक गठबन्धनों का निर्माण करने लगे। इस प्रक्रिया में नाटो, सीटो तथा वार्सा पैक्ट आदि सैनिक संगठनों का जन्म हुआ। अमेरिका ने नाटों तथा सीटो तथा सोवियत संघ ने वार्सा पैक्ट की स्थापना करके विश्व में तनावपूर्ण वातावरण में और अधिक बढ़ोतरी कर दी। इससे नवोदित स्वतन्त्र राष्ट्र ज्यादा भयभीत हो गए। वे इनसे दूर रहना चाहते थे ताकि उनके राष्ट्रीय हितों को कोई नुकसान न पहुंचे। उन्होंने इन संधियों या गठबंधनों को अंतर्राष्ट्रीय शान्ति व राज्यों की स्वतन्त्रता के लिए भयंकर खतरा मानकर इनका विरोध किया। वे किसी गठबंधन में शामिल होकर विरोधी गुट से दुश्मनी मोल लेना नहीं चाहते थे। यदि वे गठबन्धन की राजनीति के चक्रव्यूह में फंस जाते तो उन्हें अपने राष्ट्रों की समस्याओं का समाधान करने के अवसर गंवाने पड़ते। इसलिए उन्होंने गठबन्धन राजनीति से दूर रहने का ही निर्णय किया। इससे गुटनिरपेक्षता का आधार मजबूत हुआ।
राष्ट्रवाद पर अधारित राष्ट्रीय हित की भावना
नवोदित स्वतन्त्र राष्ट्रों में राष्ट्रवादी भावना प्रबल होने लगी। उन देशों के मन में राष्ट्रीय हितों में वृद्धि करने का विचार भी पैदा होने लगा। इसके लिए वे देश स्वतन्त्र विदेश नीति की स्थापना के प्रयास करने लग गए। स्वतन्त्रता के बाद ये राष्ट्र अपना ध्यान अपने आर्थिक विकास की ओर केन्द्रित करने लगे। इसके लिए उन्हें गए साधनों की आवश्यकता थी। उन्हें भय था कि यदि वे किसी गुट में शामिल हुए तो इससे उनकी राष्ट्रवाद की भावना को आघात पहुंचेगा और वे अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में स्वतन्त्र भूमिका अदा नहीं कर पाएंगे। इसलिए अपनी सुरक्षा और आन्तरिक पुनर्निर्माण की समस्या का समाधान करने के लिए उन्होंने गुटनिरपेक्षता की नीति पर ही चलने का निर्णय लिया। अत: कहा जा सकता है कि राष्ट्रवाद पर आधारित राष्ट्रीय हितों की प्राप्ति के लिए नवोदित स्वतन्त्र राष्ट्रों ने गुटनिरपेक्षता की नीति को ही प्रोत्साहन दिया।
आर्थिक विकास की आवश्यकता
नवोदित स्वतन्त्र राष्ट्रों के सामने आर्थिक विकास की समस्या सबसे प्रमुख थी। यद्यपि उनके पास प्राकृतिक साधन तथा मानव शक्ति तो थी लेकिन उनको प्रयोग करने के लिए उचित तकनीकी ज्ञान का अभाव था। यदि वे किसी एक गुट में शामिल हो जाते तो इससे दूसरे देशों से आर्थिक सहायता का मार्ग रूक जाता। इसलिए उन्होंने तकनीकी कौशल प्राप्त करने के लिए गुटों से दूर रहने का ही निर्णय किया। दूसरी बात यह थी कि आर्थिक विकास शान्तिपूर्ण वातावरण में ही सम्भव हो सकता था। यदि वे शीत-युद्ध का अंग बन जाते तो उनकी आर्थिक विकास का वातावरण नहीं मिल सकता था। इसलिए उन्होंने देश में शान्तिपूर्ण वातावरण व सुरक्षा के लिए गुट-राजनीति से दूर रहने का ही निर्णय किया। इससे गुटनिरपेक्षता का आधार सुदृढ़ हुआ।
अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में सक्रिय भूमिका अदा करने की भावना
सभी नवोदित स्वतन्त्र राष्ट्र चाहते थे कि बिना अपनी स्वतन्त्रता नष्ट किए और राष्ट्रीय हितों को नुकसान पहुंचाए बिना अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में भूमिका अदा की जाए। उन्हें यह पता था कि यदि वे किसी गुट में शामिल हुए तो उनकी भूमिका सीमित हो जाएगी। उन्हें गुट के नियमों के अनुसार ही नाचना होगा। अपने वैचारिक स्वरूप को मजबूती प्रदान करने के लिए गुटों से दूर रहना ही उन्हें अपने हित में समझा ताकि वे अंतर्राष्ट्रीय मंच पर विशेष भूमिका निभा सकें। उनकी इसी सोच में गुटनिरपेक्षता को सुदृढ़ बनाया। सभी नवोदित स्वतन्त्र राष्ट्र एक-एक करके गुटनिरपेक्ष आन्दोलन में शामिल होते गए।?
युद्ध का भय और विश्व शान्ति का विचार
शीत युद्ध के तनावों से भरे वातावरण ने तृतीय विश्व के देशों के मन में तीसरे युद्ध का भय पैदा कर दिया। बढ़ती सैनिक प्रतिस्पर्धा ने विश्व शान्ति को खतरा उत्पन्न कर दिया था। समस्त विश्व एक आतंक के संतुलन के वातावरण या सम्भावित मृत्यु के वातावरण में जी रहा था। नवोदित स्वतन्त्र राष्ट्रों को तृतीय विश्व युद्ध का आभास होने लगा तथा उन्होंने शीत युद्ध के तनावों को कम करके विश्व शान्ति के विचार को मजबूत बनाने के उद्देश्य से तीसरी शक्ति के रूप में गुटनिरपेक्षता को बढ़ावा देने का विचार किया। उनके प्रयासों के परिणामस्वरूप शीत युद्ध का तनाव कम हुआ और विश्व शान्ति को मजबूती मिली। इससे गुटनिरपेक्ष देशों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ने लगी।
गुटनिरपेक्षता का ऐतिहासिक विकास
आज विश्व के 115 देश जो विश्व का 2/3 हैं, गुटनिरपेक्ष आन्दोलन मे बढ़-चढ़कर भाग ले रहे हैं। जब द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हुआ, उस समय से ही गुटनिरपेक्षता के प्रयास तेज होने लगे थे। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद 10 वर्ष बाद 1956 में भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पंडित जवाहर लाल नेहरू, मिस्त्र के कर्नल नासिर तथा यूगोस्लाविया के मार्शल टीटो ने मिलकर ब्रियोनी में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की नींव रख दी। जब इसका पहला औपचारिक सम्मेलन 1961 में बेलग्रेड में हुआ तो इसके सदस्य देशों की संख्या 25 थी जो आज विशाल स्तर पर पहुँच गई है। इसकी बढ़ती लोकप्रियता के कारण एशिया व अफ्रीका के सभी नवोदित स्वतन्त्र राष्ट्र इसके सदस्य बनते गए और गुटनिरपेक्षता एक विचार से एक विशाल आन्दोलन में तबदील हो गई। इसके ऐतिहासिक विकास क्रम पर नजर डाली जाए तो यह बात प्रमुख रूप से उभरकर आती है कि सर्वप्रथम भारत, वर्मा, इंडोनेशिया, मिस्त्र, यूगोस्लाविया, घाना आदि देशों द्वारा इसे विदेश नीति के मूल सिद्धान्त के रूप में अपनाया गया।
1947 में नई दिल्ली में प्रथम एशियाई सम्मेलन में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के लिए आवश्यक सामग्री उपलब्ध करा दी गई। आगे चलकर 1955 में एशियाई - अफ्रीकी सहयोग सम्मेलन (बाण्डुंग सम्मेलन) ने इसकी शुरूआत के लिए मजबूत आधार प्रदान किया। इस सम्मेलन में शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व व सहयोग की भावना ने गुटनिरपेक्षता का महत्व अनुभव करा दिया। 1956 में नेहरू, नासिर तथा टीटो ने गुटनिरपेक्षता को अंतर्राष्ट्रीय आधार प्रदान कर दिया। गुटनिरपेक्ष देशों ने संगठित होकर 1961 में बैलग्रेड में एक शिखर सम्मेलन का आयोजन किया जो सैद्धान्तिक रूप से गुटनिरपेक्षता का प्रथम व्यवस्थित अंतर्राष्ट्रीय प्रयास था। उस समय से अब तक इसके 18 सम्मेलन हो चुके हैं।
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के शिखर सम्मेलन
गुट निरपेक्ष आन्दोलन के अब तक 18 शिखर सम्मेलन हो चुके हैं। इनका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार से है-
प्रथम शिखर सम्मेलन
गुटनिरपेक्ष देशों का पहला शिखर सम्मेलन सितम्बर 1961 में बैलग्रेड (युगोस्लाविया) में हुआ। इसमें 25 देशों ने भाग लिया। इससे गुटनिरपेक्ष देशों को एक स्वतन्त्र मंच मिल गया। इस सम्मेलन में शीत युद्ध के तनाव को कम करने के लिए निःशस्त्रीकरण पर विचार किया गया। इसमें विश्व के सभी भागों में किसी भी रूप में विद्यमान उपनिवेशवाद व साम्राज्यवाद की निन्दा की गई इस सम्मेलन ने विश्व के 25 देशों ने एक मंच पर एकत्रित होकर महाशक्तियों को अपनी उभरती शक्ति का अहसास करा दिया।
दूसरा शिखर सम्मेलन
यह सम्मेलन 5 से 10 अक्तूबर 1964 तक मिस्त्र की राजधानी काहिरा में हुआ। इस सम्मेलन में 47 देशों ने हिस्सा लिया। इस सम्मेलन में “शान्ति तथा अंतर्राष्ट्रीय सहयोग का कार्यक्रम" नामक शीर्षक से घोषणा पत्र प्रकाशित हुआ। इस सम्मेलन में झगड़ों को शान्तिपूर्ण तरीके से निपटाने की नीति पर बल दिया गया। इसमें परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि के विस्तार पर भी व्यापक चर्चा हुई। इसमें राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन का समर्थन किया गया। इस समय तक भारत के प्रधानमन्त्री नेहरू की मृत्यु हो चुकी थी इसलिए भारत का नेतृत्व लाल बहादुर शास्त्री ने किया। इस सम्मेलन में भारत की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं रही।
तीसरा शिखर सम्मेलन
यह सम्मेलन सितम्बर 1970 में लुसाका (जाम्बिया) में हुआ। इसमें 60 देशों ने भाग लिया लेकिन गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की सदस्य संख्या केवल 54 थी। इस सम्मेलन के घोषणा पत्र का शीर्षक था – “गुटनिरपेक्षता तथा आर्थिक प्रगति।" इस सम्मेलन में भारत का नेतृत्व श्रीमति इंदिरा गांधी ने किया। इस सम्मेलन में विकासशील राष्ट्रों के आपसी सहयोग पर चर्चा हुई। इस सम्मेलन में दक्षिणी अफ्रीका तथा पुर्तगाल की उपनिवेशवाद विरोधी तथा नस्लवाद के प्रति असहयोग की भावना पर भी विचार किया गया।
चौथा शिखर सम्मेलन
यह सम्मेलन 5 सितम्बर, 1973 तक अल्जीयर्स (अल्जीरिया) में हुआ। इस समय गुटनिरपेक्ष आन्दोलन में 75 देश सदस्यता ग्रहण कर चुके थे। लेकिन इस सम्मेलन में केवल 47 सदस्यों ने ही भाग लिया। इस सम्मेलन में शीत युद्ध के तनाव में आई कमी पर विचार किया गया और झगड़ों को शान्ति प्रक्रिया द्वारा हल करने पर जोर दिया गया। इस सम्मेलन में इजराईल को सारे छीने गए अरब प्रदेश वापिस लौटाने को कहा गया। इस सम्मेलन में नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के बारे में भी व्यापक चर्चा की गई।
पांचवां शिखर सम्मेलन
यह केवल 16 से 19 अगस्त, 1976 तक श्रीलंका की राजधानी कोलम्बो में हुआ। इस शिखर सम्मेलन तक गुटनिरपेक्ष देशों की संख्या 88 तक पहुंच गई। इस सम्मेलन में गुटनिरपेक्ष देशों ने एक समन्वय कार्यालय की स्थापना करने का निर्णय किया। इस सम्मेलन में नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना, सुरक्षा परिषद के निषेधाधिकार को समाप्त करने तथा तृतीय राष्ट्रों में परस्पर आर्थिक सहयोग में वृद्धि करने के उपायों पर भी विस्तारपूर्वक चर्चा की गई। इसमें गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की उपलब्धियों पर भी विस्तार से विचार हुआ।
छठा शिखर सम्मेलन
यह शिखर सम्मेलन 3 से 9 सितम्बर, 1979 तक हवाना (क्यूबा) में हुआ। इस दौरान गुटनिरपेक्ष देशों का आंकड़ा 94 पर पहुंच गया। इस सम्मेलन में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के सामने अपने अस्तित्व का खतरा उत्पन्न हो गया। इस सम्मेलन में कुछ देशों ने अमेरिकी गुट से तथा कुछ ने सोवियत गुट से जुड़ने की बात कही ताकि अधिक आर्थिक सहायता प्राप्त की जा सके। लेकिन भारत ने स्पष्ट तौर पर कहा कि गुटनिरपेक्षता तीसरी गुट नहीं है। अरब देशों ने मिस्त्र को इजराइल के साथ कैम्प डेविड समझौता करने के कारण गुटनिरपेक्ष आन्दोलन से बाहर निकालने की धमकी दी लेकिन मिस्त्र की सदस्यता समाप्त नहीं की गई। इस सम्मेलन में हिन्द महासागर को शान्ति क्षेत्र घोषित किया गया और नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मांग को भी दोहराया गया। इसमें गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को सुदृढ़ करने के लिए ठोस उपायों को अपनाने की बात भी की गई।
सातवां शिखर सम्मेलन
यह सम्मेलन 7 से 11 मई, 1983 तक भारत की राजधानी नई दिल्ली में हुआ। इस समय गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की सदस्य संख्या 101 हो चुकी थी। इस सम्मेलन में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन व भारत का नेतृव्य प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी ने किया। इसमें नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मांग को फिर से दोहराया गया। इसमें विकसित देशों की आर्थिक नीतियों की जोरदार निन्दा की गई। इस सम्मेलन में निःशस्त्रीकरण की आवश्यकता पर जोर दिया गया। इसमें हिन्द महासागर में सैनिक प्रतिस्पर्धा कम करने तथा डियागो गार्शिया मॉरिशीयस को वापिस करने पर बात हुई। इसमें ईरान और ईराक से युद्ध बन्द करने की प्रार्थना भी की गई। इस सम्मेलन में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के सदस्य देशों ने एकजुटता का परिचय देकर गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की बढ़ती लोकप्रियता को दर्शाया। एशिया व अफ्रीकी देशों की परस्पर एकता में वृद्धि करने की दृष्टि से यह सबसे महत्वपूर्ण सम्मेलन सिद्ध हुआ।
आठवां शिखर सम्मेलन
यह सम्मेलन 1 से 6 सितम्बर, 1986 तक जिम्बाब्वे की राजधानी हरारे में हुआ। इस सम्मेलन में कोई नया देश सदस्य नहीं बनाया गया, इसलिए गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की सदस्य संख्या 101 ही रही। इस सम्मेलन में जिम्बाब्वे के प्रधानमन्त्री राबर्ट मुंगावे को आगामी तीन वर्ष के लिए गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का अध्यक्ष बनाया गया। इस सम्मेलन में अफ्रीका के नस्लवादी शासन के अत्याचारों पर व्यापक ध्यान दिया गया। इस शासन के शिकार राष्ट्रों के आर्थिक विकास के लिए अफ्रीका कोष की स्थापना का फैसला किया गया। इसमें नामीबिया की स्वतन्त्रता के बारे में भी चर्चा हुई। इस सम्मेलन में घोषणा की गई कि गुटनिरपेक्ष आन्दोलन, साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, नस्लवाद तथा नव उपनिवेशवाद के खिलाफ एक
संघर्ष है। इस सम्मेलन में भारत का नेतृत्व प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने किया।
नौवां शिखर सम्मेलन
यह सम्मेलन सितम्बर, 1989 में यूगोस्लाविया की राजधानी बैलगेड में हुआ। इस समय गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की सदस्य संख्या 102 तक पहुंच गई थी। इसमें केवल 98 सदस्य की शामिल हुए। इस सम्मेलन में सारा ध्यान आर्थिक विषयों पर केन्द्रित किया गया। भारत का नेतृत्व इस सम्मेलन में प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने किया। इस सम्मेलन में पर्यावरण से संबंधित समस्याओं पर भी चर्चा हुई। इसमें अफ्रीका कोष को जारी रखने पर सहमति हुई। इससे निःशस्त्रीकरण के उपायों तथा विश्व अर्थव्यवस्था को और अधिक व्यापक आधार प्रदान करने की बात भी कही गई ताकि गैट (व्यापार एवं संरक्षण पर सामान्य समझौता) की समस्याओं का समाधान किया जा सके। इसमें अल्पविकसित देशों के ऋण माफ करने तथा गुटनिरपेक्ष तथा अन्य विकासशील देशों द्वारा ‘देनदार मंच' स्थापित करने की भी बात हुई।
दसवां शिखर सम्मेलन
यह सम्मेलन 1 से 6 सितम्बर 1992 में इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता में हुआ। इसमें 108 सदस्य देशों ने भाग लिया। इसमें विकासशील देशों के बीच आपसी सहयोग बढ़ाने पर चर्चा की गई। इसमें भारत का नेतृत्व प्रधानमन्त्री नरसिम्हा राव ने किया। भारत द्वारा दिए गए राजनीतिक तथा आर्थिक विषयों पर सुझावों को इस सम्मेलन में स्वीकार किया गया। इसमें सोमालिया के झगड़े पर भी विचार-विमर्श किया गया। इस सम्मेलन में विकसित राष्ट्रों के विकासशील राष्ट्रों के मामलों में हस्तक्षेप न करने की चेतावनी भी दी गई। इसमें आतंकवाद को जड़ से उखाड़ने तथा उप-संरक्षणवाद का विरोध किया गया। इसमें तृतीय दुनिया के देशों के आर्थिक विकास के लिए नई अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक अर्थव्यवस्था का भी आह्वान किया गया।
ग्यारहवां शिखर सम्मेलन
यह सम्मेलन अक्तूबर, 1995 में कार्टेजीना (कोलम्बिया) में हुआ। इस समय गुटनिरपेक्ष आन्दोलन देशों की सदस्य संख्या 113 पर पहुंच गई, लेकिन इसमे केवल 108 राष्ट्रों ने ही भाग लिया। इसमें परमाणु शस्त्र विहीन क्षेत्रों की स्थापना तथा अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद के विषयों पर चर्चा की गई। इसमें द्विपक्षीय विवादों को गुटनिरपेक्ष आंदोलन में न घसीटने की भारत की प्रमुख मांग को स्वीकार कर लिया गया।
बारहवां शिखर सम्मेलन
यह शिखर सम्मेलन सितम्बर, 1998 को दक्षिणी अफ्रीका के डरबन शहर में हुआ। इस समय गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की सदस्य संख्या 114 हो चुकी थी। इस सम्मेलन में अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद को समाप्त करने तथा परमाणु शस्त्रों को 2000 तक पूर्ण रूप से समाप्त करने के बारे में एक अंतर्राष्ट्रीय बैठक बुलाने की मांग उठाई गई। इसमें संयुक्त राष्ट्र संघ के सिद्धान्तों में विश्वास व्यक्त किया गया। इसमें नई न्याययुक्त अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना की बात कही गई ताकि गरीब देशों को भी वैश्वीकरण की प्रक्रिया के लाभ प्राप्त हो सकें। इसमें मुद्रा कोष, विश्व बैंक, तथा विश्व व्यापार संगठन की भूमिकाओं की समीक्षा करने की आवश्यकता पर बल दिया गया।
तेरहवां शिखर सम्मेलन
यह सम्मेलन 20-25 फरवरी 2003 में मलेशिया के शहर कोलाल्मपुर में सम्पन्न हुआ।
चोदहवां शिखर सम्मेलन
यह सम्मेलन 15-16 सितम्बर 2006 में क्यूबा की राजधानी हवाना में हुआ।
पन्द्रहवां शिखर सम्मेलन
यह सग्गेलन 11-16 जुलाई 2009 में गिश्र के शहर शर्ग अल शेख में सम्पन्न हुआ। इस सम्मेलन का प्रमुख मुद्दा शान्ति और विकास के लिए अन्तर्राष्ट्रीय एकता था।
सोलहवां शिखर सम्मेलन
यह सम्मेलन 26–31 अगस्त 2012 में ईरान की राजधानी तेहरान में हुआ। इस सम्मेलन का मुख्य मुद्दा संयुक्त विश्व प्रबन्धन द्वारा शान्ति स्थापित करना था।
सतरहवां शिखर सम्मेलन
यह सम्मेलन 13-18 सितम्बर 2016 में वेजुएला देश के पोरलामार शहर में आयोजित किया गया। इस सम्मेलन का मूल मुद्दा विकास हेतु शान्ति, सम्प्रभुता एवं एकता था।
अठारहवां शिखर सम्मेलन
यह सम्मेलन 25-26 अक्तूबर 2019 में अजरबैजान देश के बाकू शहर में आयोजित हुआ। इस सम्मेलन का मुख्य मुद्दा वर्तमान विश्व की चुनौतियों के उत्तर हेतु बांण्डूग सिद्धान्तों को पुनः स्थापित करना था।
गुटनिरपेक्षता एवं भारत
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद गुट निरपेक्षता की नीति को अपनाने वाला प्रथम देश भारत है। नवोदित स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में भारत के सामने सबसे प्रमुख समस्या अपनी सुरक्षा व आर्थिक विकास की थी, वह उपनिवेशवादी, शोषण को अच्छी तरह पहचान चुका था, वह किसी भी शक्ति गुट के खिलाफ था, इसलिए उसने शक्ति गुटों से दूर रहकर ही अपनी भूमिका निभाने का निर्णय किया और गुट निरपेक्षता को ही अपनी विदेश नीति का प्रमुख आधार बनाया। भारतीय विदेश नीति के आधार के रूप में गुट निरपेक्षता निरन्तर विकास की ओर अग्रसर रही। 1949 में अमेरिकी कांग्रेस में नेहरू जी ने कहा था कि भारत अपने विदेशी सम्बन्धों में गुट निरपेक्षता की नीति का पालन करेगा, लेकिन वह अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति मूकदर्शक बनकर भी नहीं रहेगा। वह अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में गुट राजनीति से दूर रहकर भूमिका निभाने को प्राथमिकता देगा।
भारत ने अपनी स्वतन्त्रता के बाद अंतर्राष्ट्रीय स्थिति को तनावपूर्ण पाया। उसका विश्वास था कि किसी भी गुट के साथ शामिल होने से तनाव में और अधिक वृद्धि होगी। उसने अपने विश्व शान्ति के ऐतिहासिक विचार को ही आगे बढ़ाने का निर्णय किया। इसी पर उसकी राष्ट्रीय पहचान निर्भर हो। उसने महसूस किया कि उसके पास पर्याप्त आर्थिक साधन व मानवीय शक्ति है, इसलिए वह भी विश्व की महान शक्ति बन सकता है। इसलिए नेहरू जी ने गुटनिरपेक्षता को ही अपने राष्ट्रीय हितों के अनुकूल पाया। नेहरू जी ने मिस्त्र तथा युगोस्लाविया देशों के साथ मिलकर गुटनिरपेक्षता को सैद्धान्तिक धरातल पर प्रतिष्ठित किया। भारत ने इसे एक आन्दोलन का रूप देकर तीसरी दुनिया के देशों को एक सांझा मंच प्रदान किया। अब नवोदित विकासशील राष्ट्रों को अपनी विभिन्न समस्याओं पर विचार करने के लिए उचित अवसर प्राप्त हो गया।
एक गुटनिरपेक्ष देश के रूप में भारत की भूमिका को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है-
1. कोरिया संकट के समय भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ के उस प्रस्ताव का समर्थन किया जिसमें उत्तरी कोरिया को दक्षिणी कोरिया पर आक्रमण के लिए दोषी ठहराया गया था। भारत ने 1950 के अन्त में संयुक्त राष्ट्र की सेनाएं जब चीन की तरफ बढ़ने लगी तो भारत ने अमेरिका की आलोचना की। कोरिया संकट के समय भारत द्वारा स्वतन्त्र फैसला लेने की क्षमता को सर्वत्र सराहा गया। युद्ध की रागाप्ति के बाद वह तटस्थ राष्ट्रों के प्रत्यावर्तन आयोग का अध्यक्ष भी बन गया। इस युद्ध में उसकी गुट निरपेक्ष देश के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका रही। उसने आक्रमणकारी देश की आलोचना करने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई।
2. उसने 8 दिसम्बर 1951 को जापान-अमेरिका फ्रांसिसको शांति संधि की शर्तो पर आपत्ति करके अपने स्वतन्त्र दष्टिकोण का ही परिचय दिया, भारत ने इस सन्धि को अन्यायपूर्ण बताकर इस पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया।
3. भारत ने हिन्द चीन क्षेत्र में 1954 में अमेरिकी हस्तक्षेप की भी निन्दा की। भारत ने विश्व को स्पष्ट शब्दों में बता दिया कि यह साम्राज्यवाद की पुनः स्थापना का बिगुल है। इस संकट के समाधान के लिए भारत ने जेनेवा समझौते का स्वागत किया और भारत की सकारात्मक भूमिका के लिए प्रशंसा की गई।
4. 1954 में भारत ने पंचशील के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करके विश्व में अपनी विश्व शान्ति की स्थापना वाले देश के रूप में भूमिका को सिद्ध कर दिया। भारत को एक शांतिप्रिय देश मानने में किसी को कोई आपत्ति नहीं हुई। उसके पंचशील के सिद्धान्तों को विश्व शान्ति के लिए आधारभूत सिद्धान्तों के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। विश्व जनमत उसके पक्ष में हो गया। इस प्रकार गुटनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में भारत ने अपनी पहचान सुदृढ़ की।
5. भारत ने 1954 में सीटो संगठन की सदस्यता अस्वीकार कर दी। पाकिस्तान इसका सदस्य बन गया। भारत ने इस पर आपत्ति की तो अमेरिका ने उसे आश्वस्त किया कि इससे भारत को कोई खतरा नहीं होगा। एक शान्तिप्रिय देश के रूप में भारत का चिन्तित होना स्वाभाविक ही था। इससे भारत का झुकाव सोवियत संघ की ओर बढ़ गया लेकिन भारत ने सोवियत संघ से कोई औपचारिक समझौता न करके गुट निरपेक्षता की ही नीति का पालन किया।
6. 1954 में नेहरू जी ने भारत-चीन समझौते द्वारा अपनी शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व की नीति को मजबूत आधार प्रदान किया।
7. 1955 में बाण्डुंग सम्मेलन में भारत ने एशियाई अफ्रीकी एकता पर बल दिया। इससे गुटनिरपेक्षता को व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ। तृतीय विश्व के देशों में एकता के प्रयास तेज हुए।
8. 1956 में स्वेज नहर संकट के समय भारत ने पश्चिमी राष्ट्रों की आलोचना की। उसने इजराइल तथा मिस्त्र के बीच गाजापट्टी में अस्थाई युद्ध विराम के लिए संयुक्त राष्ट्र सेना के लिए एक टुकड़ी भी भेजी।
9. भारत ने 1956 में ही हंगरी में सोवियत हस्तक्षेप पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की। इससे उसकी गुटनिरपेक्षता की कार्यप्रणाली पर आरोप लगाए जाने लगे। आलोचकों ने इसे अवसरवादी नीति कहा।
10. 1960 में कांगों संकट के समय भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रार्थना पर अपनी सेना भेजी। इस तरह उसने विश्व शांति के लिए अपना पूरा सहयोग दिया। उसने अपनी सक्रिय गुटनिरपेक्षता का पालन करके विकसित देशों को अपने प्रति सोचने को विवश कर दिया।
11. भारत ने 1961 के बेलग्रेड सम्मेलन तथा 1964 के कायरो सम्मेलन में शीतयुद्ध के तनाव को दूर करने के लिए निर्गुट देशों के साथ मिलकर विचार किया। भारत ने गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को अंतर्मुखी बनाने का विचार प्रस्तुत किया। इस तरह भारत ने गुट निरपेक्षता को ही मजबूत बनाने का प्रयास किए।
12. 1962 में भारत पर चीनी आक्रमण के समय गुट-निरपेक्ष देशों से कोई सहायता नहीं प्राप्त हुई। इससे उसकी गुट निरपेक्षता को गहरा धक्का लगा। लेकिन भारत को दोनों महाशक्तियों से ही सहायता प्राप्त हुई। अनेक देश ऐसा विश्वास करने लगे थे कि अब भारत गुटों की राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाने लगेगा लेकिन उनका अनुमान गलत निकला। भारत में आक्रमणकारी देशों के विरूद्ध शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व के आधार पर सम्बन्धों को सुधारने को प्राथमिकता दी।
13. 1965 में भारत-पाक युद्ध में भारत की गुट-निरपेक्षता की अग्नि परीक्षा फिर से हुई। भारत ने जिस तरह बिना किसी अन्य देश की सहायता के इस युद्ध में विजय प्राप्त की, इसने विश्व को यह दिखा दिया कि भारत के पास एक विश्व शक्ति बनने की योग्यता है। इस दौरान भी भारत ने अपनी गुटनिरपेक्षता की नीति का समुचित पालन किया।
14. 1968 में चेकोस्लोवाकिया में हुए विद्रोह को दबाने के लिए सोवियत संघ के हस्तक्षेप की भारत द्वारा आलोचना की जाने लगी। अनेक देशों ने मांग की भारत को इस नीति का त्याग कर ही देना चाहिए।
15. 1971 में भारत-पाक युद्ध में भारत ने पाकिस्तान को करारी मात दी। इस दौरान उसने अगस्त 1971 में सोवियत संघ के साथ एक मैत्री सन्धि भी की। भारत ने इस दौरान गुटनिरपेक्षता को नए सिरे से परिभाषित करके अपनी इस नीति को ओर अधिक सुदृढ़ बनाया। भारत ने कहा कि यह कोई सैनिक सन्धि नहीं है, जिसका युद्ध में प्रयोग किया जा सके।
16. 1977 में भारत में सत्ता परिवर्तन से यह आशा की जाने लगी कि भारत इस नीति का परित्याग करके किसी न किसी गुट के साथ अवश्य शामिल हो जाएगा। लेकिन नई सरकार ने भी अपनी पुरानी नीति को ही
17. व्यापक आधार प्रदान किया। 11 मार्च, 1983 को भारत को गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का अध्यक्ष बनाया गया, वह लगातार गुटनिरपेक्षता को सुदृढ़ बनाने की दिशा में कार्य करता रहा। 1990 में शीत युद्ध की समाप्ति पर इसकी प्रासांगिकता पर प्रश्न चिन्ह लग गया।
लेकिन भारत आज भी गुट निरपेक्ष देश के रूप में एक सक्रिय भूमिका निभा रहा है। भारत ने 2002 में अफगानिस्तान में अमेरिका द्वारा की गई आतंकवादी विरोधी कार्यवाही पर मिली-जुली प्रतिक्रिया की। आज भी भारत इस नीति को मजबूत बनाने के लिए निरन्तर प्रयासरत है। भारत गुटनिरपेक्षता को बदलते अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम के अनुसार परिभाषित करने की दिशा में काम कर रहा है। आज गुटों से दूर रहना गुट-निरपेक्षता की आवश्यक शर्त नहीं है, भारत का मानना है कि किसी सैनिक संधि में शामिल देश भी गुटनिरपेक्ष देश हो सकते हैं। आज गुटनिरपेक्षता को अधिक सार्थक व उपयोगी बनाने के लिए भारत दक्षिण-दक्षिण सहयोग में वृद्धि करने के लिए कार्यरत है। भविष्य में भारत का स्वरूप है कि गुट निरपेक्षता एक ऐसे सशक्त आन्दोलन के रूप में उभरे कि यह नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की गांग गनवा सके और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का निर्धारण नए सिरे से हो, ऐसी स्थिति में भारत की गुटनिरपेक्ष नीति का महत्व और बढ़ जाता है।
गुटनिरपेक्षता के पक्ष में तर्क
शीत युद्ध की समाप्ति के बाद गुटनिरपेक्षता की आवश्यकता को अप्रसांगिक कहा जाने लगा। अनेक विकसित राष्ट्रों ने इस पर आरोप लगाने शुरू कर दिए कि अब बदलते अंतर्राष्ट्रीय परिवेश में इसका कोई औचित्य नहीं रह गया है। लेकिन उनका यह आरोप निराधार है। आज विश्व के अनेक देशों में शीत-युद्ध जैसा ही तनाव है। ऐसी स्थिति में गुटनिरपेक्षता का महत्व स्वतः ही सिद्ध होता है। इसके पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं-
- गुटनिरपेक्षता शक्ति संतुलन के लिए आवश्यक है।
- गुट-निरपेक्ष देशों की संख्या निरंतर बढ़ रही है।
- यह संयुक्त राष्ट्र संघ के सिद्धान्तों में ही विश्वास करती है। इसलिए संयुक्त राष्ट्र संघ के उद्देश्यों को प्राप्त कराने में इसका सहयोग अनिवार्य है।
- यह शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति में विश्वास करती है। आज के अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में परमाणु युद्ध के भय के वातावरण में अधिक उपयोगिता है।
- यह शस्त्रीकरण का विरोध करती है और निःशस्त्रीकरण में विश्वास करती है। इससे विश्व शान्ति का आधार सुदृढ़ होता है।
- यह उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के किसी भी रूप की विरोधी है। इससे राष्ट्रवाद की भावना का विकास होता है और प्रत्येक देश को स्वतन्त्र विदेश नीति का निर्माण करने व संचालन करने में मद्द मिलती है।
- यह विश्व बंधुत्व की भावना पर आधारित है। इससे संकीर्ण राष्ट्रीय हित अंतर्राष्ट्रीय हितों के साथ मिला दिए जाते हैं। इससे विश्व संगठनों की भूमिका में वृद्धि होती है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि गुटनिरपेक्षता आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी शीत युद्ध के दौरान थी। संयुक्त राष्ट्र संघ के 2/3 राष्ट्र इसको स्वीकार कर चुके हैं। यह अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की नीति के अनुसार संचालित करने पर जोर देती है। इससे विश्व में अनावश्यक तनाव कम होते हैं और विश्व शान्ति का विचार सुदृढ़ होता है जो सम्पूर्ण मानव जाति के हित में है।
गुटनिरपेक्षता की उपलब्धियां
विभिन्न गुट-निरपेक्ष सम्मेलनों में अलग-अलग विषयों पर व्यापक चर्चा की गई और उनकी दिशा में सकारात्मक प्रयास भी किए गए। निर्गुट-शिखर सम्मेलनों के कुछ सकारात्मक परिणाम निकले जो निम्नलिखित हैं-
- अंतर्राष्ट्रीय सहयोग में वृद्धि - गुटनिरपेक्ष आन्दोलन में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देने की दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास किए। गुटनिरपेक्ष देशों ने आपसी झगड़ों को पारस्परिक सहमति से सुलझाने के प्रयास किए और महाशक्तियों को भी इसी आधार पर कार्य करने के लिए प्रेरित किया। इससे अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की भावना को बल मिला।
- शीत युद्ध को वास्तविक युद्ध में बदलने से रोकना - गुट निरपेक्ष देशों ने निरन्तर शीत युद्ध के तनाव को कम करने के प्रयास किए। इससे विश्व में तीसरे युद्ध के होने की सम्भावनाएं क्षीण हुई। गुट निरपेक्ष देशों ने गुटों की राजनीति से दूर रहकर किसी गुट को अधिक शक्तिशाली नहीं होने देने का भरसक प्रयास किया। इन देशों ने दोनों महाशक्तियों के चिन्तन में व्याप्त अविश्वास की भावना को दूर करने के पूरे प्रयास किए। इससे अंतर्राष्ट्रीय शान्ति की सम्भावनाएं प्रबल हो गई और शीत युद्ध में तबदील होने से बच गया।
- अंतर्राष्ट्रीय संघर्षो का टालना - गुटनिरपेक्ष देशों ने अंतर्राष्ट्रीय विवादों को शान्तिपूर्ण ढंग से हल करने के लिए सहयोग दिया। इन देशों ने या तो युद्ध को टाल दिया या उनका समाधान कराने में मदद की। इन्होंने हिन्द चीन संघर्ष, स्वेज नहर संकट, कोरिया संकट, आदि के दौरान न्यायोचित भूमिका निभाई। इससे गतिरोध कम हुआ और संघर्ष टल गए। स्वयं महाशक्तियों ने भी उनकी मध्यस्थ की सराहनीय भूमिका की प्रशंसा की। इन देशों ने अंतर्राष्ट्रीय शान्ति बनाए रखने के लिए हर सम्भव प्रयास किए।
- निशस्त्रीकरण को बढ़ावा - इन देशों ने अपनी सम्मेलनों में बार-बार परमाणु अप्रसार तथा शस्त्रों को नष्ट करने के प्रति अपनी वचनबद्धता को दोहराया। भारत के प्रधानमन्त्री ने विश्व शान्ति को मजबूत बनाने के लिए पंचशील का सिद्धान्त दिया, उनको विश्व के अधिकतर देशों द्वारा सराहा गया। उसके द्वारा रखे गए आणविक शस्त्रों के परीक्षण सम्बन्धी सुझाव 1963 में आंशिक परमाणु परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि के रूप में अपना लिए गए। इससे निःशस्त्रीकरण को बढ़ावा मिला।
- संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका में वृद्धि - गुटनिरपेक्ष देशों ने संयुक्त राष्ट्र संघ के सिद्धान्तों के आधार पर ही अपने अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का संचालन किया। इससे उनकी संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रति निष्ठा में वृद्धि हुई। सभी गुटनिरपेक्ष देशों ने संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता ग्रहण करके उसके प्रयासों को सफल बनाया। गुटनिरपेक्ष देशों ने संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच पर एकता का परिचय देकर विश्व शान्ति के उद्देश्यों को प्राप्त करने में संयुक्त राष्ट्र संघ की मदद की।
- नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मांग - गुट निरपेक्ष देशों ने विकसित देशों का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया कि वर्तमान विश्व व्यवस्था गरीब देशों के हितों की पोषक नहीं है। आज वैश्वीकरण की प्रक्रिया का लाभ प्राप्त करने के लिए इसका नए सिरे से गठन करने की आवश्यकता है। अपने काहिरा सम्मेलन में 1962 में प्रथम बार आर्थिक समस्याओं पर विचार करके अप्रत्यक्ष रूप से विकसित देशों को इस अन्यायपूर्ण साधनों के बंटवारे के प्रति चेता दिया और 1974 में संयुक्त राष्ट्र महासभा के अधिवेशन में नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था स्थापित करने की घोषणा का प्रस्ताव पास कराया। उनकी इस मांग ने विकसित राष्ट्रों को सोचने के लिए मजबूर कर दिया कि इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था की नए सिरे से समीक्षा करनी आवश्यक है।
- दक्षिण-दक्षिण सहयोग में वृद्धि - 1976 में कोलम्बो शिखर सम्मेलन में गुट-निरपेक्ष देशों ने पारस्परिक आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देने का आह्वान किया। इसी के चलते दक्षिण-दक्षिण सहयोग की शुरूआत हुई जो आज विकासशील देशों के पारस्परिक आर्थिक सहयोग में वृद्धि के लिए आवश्यक बन गया है। अब गरीब राष्ट्रों के पास आर्थिक विकास के लिए दक्षिण-दक्षिण सहयोग की बात प्रमुख मुद्दा बन गई है। यह गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की प्रमुख उपलब्धि कही जा सकती है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि गुट-निरपेक्ष देशों ने शीतयुद्ध के तनावों को कम करके तीसरे विश्वयुद्ध की सम्भावनाओं को क्षीण किया है। इसने अंतर्राष्ट्रीय संघर्षों को टालने में पूरी मदद की है। इसने निःशस्त्रीकरण के प्रयास करके विश्वशान्ति को मजबूत बनाया है। इसने नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मांग करके विकसित देशों को इस बारे में सोचने के लिए विवश किया है। लेकिन फिर भी आलोचक इसे अप्रसांगिक मानकर इसे महत्वहीन आंदोलन की संज्ञा देते हैं। उनकी आलोचना के कुछ ठोस आधार हैं।
गुटनिरपेक्षता का भविष्य
आज विश्व के सामने प्रमुख मुद्दा सुरक्षा और विकास का है। आलोचकों द्वारा गुटनिरपेक्षता को अप्रासांगिक बताना अनुचित है। आज संयुक्त राष्ट्र संघ के 2/3 देश इसकी सदस्यता ग्रहण कर चुके हैं। इसकी लोकप्रियता दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। यह नव उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद तथा शक्ति राजनीति विरोधी आन्दोलन से शुरू होकर आज सुदृढ़ तृतीय विश्व आंदोलन का रूप ले चुका है। यह शान्ति और समृद्धि का प्रमुख प्रोत्साहक बन गया है। यह तृतीय विश्व की एकता, स्वतन्त्र विदेश नीति, विकासशील राष्ट्रों के अधिकारों, अंतर्राष्ट्रीय सहयोग में वृद्धि व अंतर्राष्ट्रीय शान्ति का प्रमुख अभिनेता बन चुका है। यद्यपि इसकी कार्यकुशलता में तो कुछ कमी आई है लेकिन यह पूर्णतया महत्वहीन आन्दोलन नहीं हो सकता। आज गुटनिरपेक्ष देश अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद को समाप्त करने की दिशा में कार्यरत हैं। इसलिए गुटनिरपेक्षता विश्व राजनीति में एक नए विकल्प के तौर पर अपना स्थान बना चुकी है।
आज तृतीय विश्व के देशों के सामने सबसे बड़ा खतरा आर्थिक साम्राज्यवाद का है। बहुराष्ट्रीय निगमों के बढ़ते हस्तक्षेप से इन देशों के सामने अपनी स्वतन्त्रता को बचाने का खतरा उत्पन्न हो गया है। नव-औपनिवेशिक शोषण से बचाने के लिए गुटनिरपेक्ष देशों का आन्दोलन विकसित देशों पर दबाव बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। आज अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद जो तृतीय विश्व के देशों के आर्थिक विकास में बाधा है और राजनीतिक अस्थिरता को जन्म दे रहा है, उसे समाप्त करने में तृतीय विश्व के देश आपसी सहयोग देकर उसका सफाया कर सकते हैं। आज शस्त्र दौड़ में कमी लाने के लिए तृतीय दुनिया के देश एकजुट होकर प्रयास कर सकते हैं ताकि इन देशों में घातक हथियारों का जमावड़ा न हो, नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मांग को पुरजोर बनाने के लिए उत्तर-दक्षिण तथा दक्षिण-दक्षिण सहयोग में वृद्धि करने के लिए गुटनिरपेक्ष देश महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं। ये देश संयुक्त राष्ट्र संघ के पुनर्गठन के लिए विकसित देशों पर दबाव बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। आज अमेरिका की दादागिरी की नीति का विरोध करने का साहस गुटनिरपेक्ष आन्दोलन ही कर सकता है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि अंतर्राष्ट्रीय शान्ति को बनाए रखने, नव-उपनिवेशवाद का विरोध करने, निःशस्त्रीकरण को बढ़ावा देने और संयुक्त राष्ट्र संघ का प्रजातन्त्रीकरण करने के लिए दबाव डालने के साधन के रूप में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की महत्वपूर्ण आवश्यकता है। गुट निरपेक्ष देशों को अपनी भूमिका में वृद्धि करने के लिए आपसी झगड़ों व तनावों को सहयोग की नीति के आधार पर हल करने की जरूरत है। आज तीसरी दुनिया के देशों के पास भी पर्याप्त आर्थिक साधन व तकनीकी ज्ञान है। इसका सदुपयोग करने के लिए तकनीकी ज्ञान के विकेन्द्रीकरण की आवश्यकता है। यदि तृतीय विश्व के देश आपसी मतभेदों को भुलाकर सहयोग को बढ़ावा दें तो वे विकसित देशों के सामने एक चुनौती पेश कर सकते हैं।
यदि तृतीय राष्ट्र अपने इस उद्देश्य में सफलत हो जाते हैं तो गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का भविष्य उज्जवल होगा अन्यथा अन्धकारमय है। गुट निरपेक्ष आन्दोलन को सुदृढ़ बनाने के लिए गुटनिरपेक्ष देशों को इसकी सभी कमियों को दूर करना होगा ताकि यह एक सशक्त आन्दोलन बनकर उभरे।
गुटनिरपेक्षता की विफलताएं
आलोचकों का कहना है कि गुटनिरपेक्षता की नीति अप्रासांगिक है। गुटनिरपेक्ष देशों में भी आपसी तनाव है। वे इस स्थिति में नहीं हैं कि महाशक्तियों के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकें। न ही गुटनिरपेक्ष देशों के पास अंतर्राष्ट्रीय शान्ति को बढ़ावा देने का कोई बाध्यकारी साधन है। आज निरन्तर गुट सापेक्ष राष्ट्रों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है। ऐसी स्थिति में गुटनिरपेक्षता का काम करना कठिन हो जाता है।
इसलिए गुटनिरपेक्षता के विरूद्ध निम्न तर्क देते हैं-
1. आलोचकों का कहना है कि गुटनिरपेक्षता अव्यवहारिक नीति है। सिद्धान्त तौर पर तो गुटनिरपेक्ष राष्ट्र साम्यवादी तथा पूंजीवादी राष्ट्रों का विरोध करते हैं; लेकिन व्यावहारिक धरातल पर वे अपने को उनसे ज्यादा दूर नहीं पाते हैं। भारत द्वारा सोवियत संघ के प्रति झुकाव तथा उसके साथ किए गए समझौते इस बात का संकेत है कि यह नीति सिद्धान्त के अधिक पास तथा व्यवहार से अधिक दूर है। कई बात तो यह अपने मूलभूत सिद्धान्तों के ही विरूद्ध काम करने लगती है।
2. यह सुरक्षा की भी नीति नहीं है। इसके पास आक्रमणकारी देश को रोकने के लिए बाध्यकारी शक्ति का पूर्ण अभाव है। अब भारत पर 1962 में चीन ने आक्रमण किया तो इसकी सुरक्षा की पोल खुल गई। किसी भी देश ने चीनी आक्रमण के विरूद्ध भारत की सहायता नहीं की। इस प्रकार इसमें सुरक्षा की कोई गारन्टी नहीं है।
3. गुटनिरपेक्ष देशों के पास आर्थिक शक्ति का अभाव है। इन्हें आर्थिक मदद के लिए दूसरे विकसित देशों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। ऐसी स्थिति में सहायता प्रदान करने वाले देश के प्रति उसका भावनात्मक तनाव तो जुड़ ही जाता है। ऐसे में गुटनिरपेक्षता कहां रह जाती है।
4. आलोचकों का यह भी कहना है कि गुटनिरपेक्षता अवसरवादी नीति है। इसमें टिकाऊपन नहीं है। गुटनिरपेक्ष देश विदेशी सहायता प्राप्त करने के लिए दोहरे मापदण्ड अपनाते हैं उनका ध्येय अधिक से अधिक लाभ उठाने का है। इसलिए यह काम निकालने की नीति है।
5. स्वंय गुटनिरपेक्ष देशों में भी आपसी फूट व तनाव रहता है। गुटनिरपेक्ष देश सदैव एक दूसरे का शोषण करने की ताक में रहते हैं। ऐसी स्थिति में वे विकसित देशों के प्रति संगठित नहीं हो सकते। इस बुनियादी एकता के अभाव में गुटनिरपेक्षता की सफलता की आशा करना व्यर्थ है।
6. आलोचकों का कहना है कि गुटनिरपेक्षता-एक दिशाहीन आन्दोलन है। हवाना सम्मेलन (1979) में सभी गुटनिरपेक्ष देश तीन भागों में बंट गए थे। इनकी विचारधारा में मूलभूत अंतर स्पष्ट तौर पर उभरकर सामने आए। क्यूबा और वियतनाम ने साम्यवादी गुट की ओर झुकाव की बात कही। सिंगापुर तथा कायरो ने पश्चिमी गुट के साथ सहयोग करने की वकालत की। भारत जैसे देशों ने ही केवल गुट-निरपेक्षता को बनाए रखने में सहयोग दिया। इस प्रकार परस्पर विरोधी विचारों ने गुटनिरपेक्षता को एक दिशाहीन आन्दोलन बना दिया।
7. गुटनिरपेक्षता केवल आदर्शवाद का पिटारा है। इसका अपना कोई मौलिक सिद्धान्त नहीं हैं गुटनिरपेक्ष देश कई बार द्विपक्षीय मामलों को सम्मेलनों में उठाते रहते हैं। इसमें शामिल सभी देश पृथक तरह की विचारधारा रखते हैं। इसमें तानाशाही व लोकतन्त्रीय दोनों व्यवस्थाओं वाले देश एक साथ शामिल हैं। उनकी मौलिक विचारधारा में अन्तर होने के कारण गुटनिरपेक्ष आन्दोलन एक असफल आन्दोलन सिद्ध होता है।
8. इससे अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था में कोई प्रमुख परिवर्तन नहीं हुआ है। शीत-युद्ध के दौरान दोनों महाशक्तियों में आपसी तनाव में कमी गुटनिरपेक्ष देशों के प्रयासों से न होकर उनकी आपसी सूझ-बूझ का ही परिणाम था। 1962 में क्यूबा संकट के समय दोनों महाशक्तियों में टकराव का टलना उनकी आपसी सहमति थी। अरब-इजराईल युद्धों में भी गुट-निरपेक्ष देश विशेष भूमिका नहीं निभा सके। अनेक अफ्रीकी देशों ने अपनी मुक्ति अपने खूनी संघर्ष से प्राप्त की। इसमें गुटनिरपेक्ष देशों की कोई विशेष भूमिका नहीं रही। अतः गुटनिरपेक्षता कोई प्रभावी उपाय नहीं है। जो अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में अपनी उपस्थिति सिद्ध करा सके।
9. आलोचकों का यह भी कहना है कि यह नीति शीत युद्ध के दौरान तो ठीक थी, लेकिन अब जब शीत-युद्ध को समाप्त हुए भी एक दशक हो चुका है, इसको जारी रखना एक बेईमानी है।
मूल्यांकन
आज गुटनिरपेक्षता एक विश्वव्यापी आंदोलन का रूप ले चुकी है। इसका महत्व दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। इसका अपना एक इतिहास है। इसने अपने यात्रा काल में कुछ खोया है और कुछ पाया है। इसकी उपलब्धियों की सर्वत्र प्रशंसा की जाती है, लेकिन इसकी कमियों पर विचार किया जाता है। इसलिए यह विचार करना आवश्यक हो जाता है कि इसका क्या उपलब्धियाँ रही हैं और क्या कमियां हैं? इसी से इसके भविष्य का निर्माण किया जा सकता है।
सारांश
उपरोक्त वर्णन से यह स्पष्ट है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद महाशक्तियों के मध्य शीतयुद्ध से बचने हेतु तीसरी दुनिया के विकासशील देशों में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की स्थापना हुई। यह आन्दोलन मूल रूप से विश्व में शान्ति स्थापना के साथ विकासशील देशों के विकास का मार्ग प्रशस्त करने हेतु स्थापित हुआ। इसकी बढ़ती हुई सदस्य संख्या व 18 शिखर सम्मेलनों के आयोजन से इसकी उपयोगिता का पता चलता है। परन्तु शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद इसकी प्रासंगकिता पर प्रश्न उठने लगे उसका भी दोनों पक्षों के तर्कों के आधार पर अध्ययन प्रस्तुत है। क्योंकि इस आन्दोलन के स्थापकों एवं अग्रणीय नेताओं में भारत प्रमुख रूप से जुड़ा रहा है इसीलिए भारत की भूमिका का आंकलन भी विस्तारपूर्वक दिया गया है।