सतत विकास क्या है? सतत विकास की परिभाषा | Sustainable development in hindi

सतत् विकास (Sustainable Development)

भूमिका (Introduction)
आज विश्व ने बहुत उन्नति की है। मानव ने तकनीकी उन्नति और उर्जा संसाधनों के उपयोग की सहायता से बहुत से आविष्कार और खोज की है, जिससे उसका जीवन अधिकाधिक आरामदायक हो गया है। आज हम तकनीक, खनिज पदार्थो और उर्जा संसाधनों के बगैर जीवन के विषय में सोच भी नहीं सकते। यह बड़े पैमाने पर लगभग हर क्षेत्र में प्रवेश कर गया है चाहे वह कृषि, उद्योग, यातायात, संचार और घरेलू हो। क्या आज हमने कभी यह सोचा है कि यह पृथ्वी पर जीवन को कैसे प्रभावित करता है? आज की स्थिति में हमारी पारिस्थितिकी भी खतरे में है। अगर हम इसी तरह से करते रहे तो अगले 100 वर्षों में अधिकतर खनिज और संसाधन समाप्त हो जाएगें। साथ ही इसने पारिस्थितिक मंडल के चारों घटकों को भी खतरे में डाल दिया है। ये हैं जलवायविक तंत्र, जल चक्र, पोषक चक्र और जैव विविधता। दिल्ली में यमुना जल का उदाहरण लीजिए। हमने इसके जल को इस सीमा तक प्रदूषित कर दिया है कि इस जल में दिल्ली में बहुत कम जलीय जीवन पाये जाते हैं। इस जल को साफ करने बाद भी इसका उपयोग नहीं किया जा सकता। इसने पौधों और उनके उत्पादों को भी प्रभावित किया है। तब यह प्रश्न उठता है कि ऐसे जल का क्या फायदा जिसे उपयोग नहीं किया जा सके। हालांकि यह नवीनीकरण योग्य है। यही हाल वायु, मृदा आदि का है। मानवीय लापरवाही और स्वार्थ के कारण ये प्राकृतिक संसाधन इस सीमा तक विकृत हो गए हैं कि इनका नवीनीकरण बहुत कठिन है।
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यह विकास पर ही प्रश्नचिन्ह लगा देता है। क्या इसका यह अर्थ है कि विश्व समुदाय को आगे विकास पर बिल्कुल पूर्ण विराम लगा देना चाहिए। यह बिल्कुल संभव नहीं है। यह पहेली पूरे विश्व को परेशान किए हुए है। इस महत्वपूर्ण समस्या को हल करने के लिए विवेकपूर्ण प्रयत्न किए गए। संयुक्त राष्ट्र ने नार्वे के तत्कालीन प्रधानमंत्री ग्रो हरलेम ब्रुटलेंड की अध्यक्षता में 1987 में एक समिति गठित की। इस कमीशन को संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण और विकास आयोग (UNCED) के रूप में जाना जाता है। इसे ब्रुटलेंड कमीशन के नाम से भी जाना जाता है। आयोग द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट का शीर्षक था "हमारा साझा भविष्य"। प्रारंभ में विश्व दो समूहो में विभाजित था-विकसित और विकासशील देश और इन्होंने आपस में एक दूसरे पर दोषारोपण करना शुरू कर दिया। विकसित देशों ने विकासशील देशों पर तीव्र जनसंख्या वृद्धि, गरीबी और प्रदूषण फैलाने वाली आदिम तकनीक के लिए दोष दिया। विकासशील देशों का तर्क था कि विकसित देशों की खर्चीली जीवन शैली ने उपलब्ध संसाधनों पर अत्यधिक दवाब डाल दिया है। लेकिन काफी जोरदार चर्चाओं और तर्को के बाद यह अनुभव किया गया कि कुछ ऐसे समान आधार होने चाहिए जिनकी भविष्य में रक्षा करने पर विश्व एकमत हो। यह अनुभव किया गया कि पारिस्थितिकी, अर्थशास्त्र और तकनीक में संतुलन होना चाहिए। इसलिए ब्रुटलेंड आयोग ने सतत् पोषणीय विकास को इस प्रकार परिभाषित किया- "भविष्य की पीढ़ियों की अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने की क्षमता से बिना समझौता किए वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं की पूर्ति।" दशकों पहले महात्मा गाँधी ने जिस रणनीति का सुझाव दिया उसे अब संसार में भी विकास के विशेषज्ञ अधिकाधिक स्वीकार करने लगे हैं। गाँधीजी की विकास की धारणा इस पर आधारित है कि प्रकृति लोगों की जरूरत को पूरा कर सकती है, उनके लालच को
नहीं।
सतत् टिकाऊ अथवा स्थाई विकास (Sustainable Development) वह विकास है जिसके अंतर्गत भावी पीढ़ियों के लिए आवश्यकताओं की पूर्ति की क्षमताओं से समझौता किए बिना वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा किया जाता है। अतः के बिना विकास और पर्यावरण सुरक्षा के साथ स्थाई संतुलन बनाए रखना ही निवर्हनीय या टिकाऊ विकास है। इसके पश्चात् पूँजी, कुशल श्रमिक एवं तकनीक आदि के प्रयोग के बावजूद यदि अधिकतम विकास का प्रयास किया जाए तो पर्यावरण को स्थाई रूप से क्षति पहुँचने लगती है। इस प्रकार विकास का यह स्तर लम्बे समय तक नहीं चल सकता। सतत् विकास की इस अवधारणा में पर्यावरण के अनुरूप विकास के साथ ही संसाधनों को भावी पीढ़ियों के लिए बचाए रखने पर भी ध्यान रखा जाता है। वर्तमान में यह विकास का एक भूमंडलीय दृष्टिकोण बन गया है। 1992 में पृथ्वी सम्मेलन में घोषित एजेंडा-21 (रियो घोषणा) में इसके प्रति पूर्ण समर्थन व्यक्त | किया गया। 2002 ई. जोहांसबर्ग सम्मेलन का मूल मुद्दा ही सतत् विकास था।

अंतिम वृक्ष को काट दिये जाने के बाद...
अंतिम नदी को विषाक्त करने के बाद..... 
अंतिम मछली पकड़ लिये जाने के बाद......
हम पाएंगे कि पैसे को खाया नहीं जा सकता है।"
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सतत् विकास की आवश्यकता को बेहतर ढंग से निरूपित करती ये पक्तियाँ यह संदेश देती हैं कि आर्थिक प्रगति तभी संपोषणीय हो सकती है, जब पर्यावरण और विकास में बेहतर संतुलन हो। पर्यावरणीय संसाधनों के अतिदोहन से भले ही अल्पकालिक समृद्धि दिख जाती हो किंतु दीर्घकाल में यह विनाश को ही बुलावा देता है। यही कारण है कि आज सतत् विकास का मुद्दा राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय चर्चा का विषय बना हुआ है।
सतत् विकास एक प्रकार से समाज, पर्यावरण तथा अर्थव्यवस्था का संतुलित एकीकरण है। सतत् विकास इस तरह से होता है कि यह व्यापक संभावित क्षेत्रों, देशों और यहाँ तक कि आनेवाली पीढ़ियों को भी लाभ पहुंचाता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो हमें निर्णय करते समय समाज, पर्यावरण तथा अर्थव्यवस्था पर उसके संभावित प्रभावों का विचार कर लेना चाहिये। हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि हमारे निर्णय एवं कार्य दूसरों को प्रभावित करते हैं तथा हमारे कार्यों का भविष्य पर भी प्रभाव पड़ता है।
आर्थिक और औद्योगिक विकास इस तरह से होने चाहियें जिससे पर्यावरण को कोई भी ऐसी क्षति न हो जिसकी भरपाई न की जा सके। 
संक्षेप में सतत् विकास ऐसा विकास है जो आने वाली पीढ़ियों के हितों से समझौता किये बिना वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा करता है।
यह परिभाषा दो महत्त्वपूर्ण बातों को उजागर करती है- पहली, प्राकृतिक संसाधन न केवल हमारे जीविकोपार्जन के लिये जरूरी हैं, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के जीविकोपार्जन के लिये भी उतने ही आवश्यक हैं। दूसरी, वर्तमान में किसी भी प्रकार के विकास-संबंधी कार्यों को करते समय उसके भविष्य में आने वाले परिणामों को ध्यान में रखना आवश्यक है। संक्षेप में इस परिभाषा में 'आवश्यकता' और भावी पीढ़ियाँ, दो महत्त्वपूर्ण अवधारणाएँ हैं।

सतत् विकास की संकल्पना (Concept of Sustainable Development)

'सतत् विकास' की संकल्पना का वास्तविक विकास 1987 में "हमारा साझा भविष्य" (Our Common Future) नामक रिपोर्ट, जिसे 'द ब्रंटलैंड रिपोर्ट' (The Brundtland Report) के नाम से भी जाना जाता है, के आने के बाद हुआ एवं तभी से इस शब्द का व्यापक रूप से प्रयोग किया जाने लगा। संयुक्त राष्ट्र द्वारा गठित आयोग ने विकास के लिये परिवर्तन हेतु वैश्विक प्रारूप का प्रस्ताव पेश किया। ब्रंटलैंड रिपोर्ट ने हमारे रहन-सहन एवं शासन में पुनर्विचार की आवश्यकता पर ज़ोर दिया। मानवता के लक्ष्यों एवं आकांक्षाओं को प्राप्त करने के लिये पुरानी समस्याओं पर नए तरीके से विचार करने तथा अंतर्राष्ट्रीय सहयोग एवं समन्वय पर बल दिया। इस आयोग का औपचारिक नाम 'पर्यावरण एवं विकास पर विश्व आयोग' (The World Commission on Environment and Development) था। इसने मानव पर्यावरण एवं प्राकृतिक संसाधनों के क्षय या खराब होती स्थिति तथा सामाजिक-आर्थिक विकास के लिये उस क्षय के परिणाम की ओर ध्यान आकृष्ट किया था। आयोग की स्थापना करते समय संयुक्त राष्ट्र महासभा ने विशिष्ट रूप से दो विचारों की ओर ध्यान आकृष्ट किया था।
  • पर्यावरण, अर्थव्यवस्था तथा लोगों की भलाई अत्यधिक अंतर्संबंधित हैं।
  • सतत् विकास के लिये वैश्विक स्तर पर सहयोग आवश्यक है।
सतत् विकास की संकल्पना हमारे आस-पास के वातावरण के विभिन्न परिप्रेक्ष्यों में आवश्यक परिवर्तन लाती है और इसके परिणामस्वरूप उसी अनुरूप में हम सरकार से निर्णयों की आशा करते हैं। अक्सर सरकारें आर्थिक विकास को प्रभावित किये बिना विभिन्न प्राकृतिक एवं सामाजिक संसाधनों संबंधी प्रतिस्पर्धी मांगों के बीच संतुलन स्थापित करने का प्रयास करती हैं, लेकिन ऐसा संतुलन स्थापित करना सरकारों के लिये एक जटिल चुनौती होती है।
सतत् विकास की संकल्पना के अंतर्गत यह माना जाता है कि अकेले आर्थिक संवृद्धि पर्याप्त नहीं है। किसी कार्य के आर्थिक, सामाजिक एवं पर्यावरणीय आयाम अंतर्संबंधित होते हैं। एक समय में इन तीनों में से केवल एक पर विचार करने से निर्णय में त्रुटि हो सकती है तथा टिकाऊ परिणाम प्राप्त नहीं हो पाता है। केवल लाभ पर ध्यान केन्द्रित करने से सामाजिक एवं पर्यावरणीय हानि होती है जो दीर्घकाल में समाज को नुकसान पहुँचाती है।
संक्षेप में सतत् विकास से निम्नलिखित लाभ प्राप्त हो सकते हैं:
  • आर्थिक संवृद्धि का लाभ सभी नागरिकों को प्राप्त हो सकता है।
  • पर्यावरणीय संदर्भों में हानिकारक औद्योगिक एवं वाणिज्यिक क्षेत्रों या स्थलों को पारिस्थितिकी अनुकूल शहरी आवासीय परियोजनाओं में बदला जा सकता है।
  • प्रगतिशील औद्योगिक प्रक्रियाओं से ऊर्जा दक्षता तथा प्रदूषण में कमी लाने को बढ़ावा मिल सकता है।
  • नीति-निर्माण प्रक्रिया में नागरिकों एवं अन्य भागीदारों को शामिल किया जा सकता है।
अपनी अंतर्संबंधित प्रकृति के कारण सतत् विकास की प्रकृति रणनीतियों में समन्वय तथा अच्छे निर्णय लेने के संदर्भ में संस्थात्मक या भौगोलिक रूप से किसी देश की सीमा पार कर जाती है। उदाहरण के लिये आनुवांशिक रूप से संशोधित (Genetically Modified) फसलों को लेते हैं। आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों के लिये कृषि, पर्यावरण, व्यापार, स्वास्थ्य तथा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालयों की सहभागिता की आवश्यकता होती है। इसके लिये जरूरी होता है कि विभिन्न मंत्रालय साक्ष्यों की तुलना करें तथा एक ऐसी स्थिति पर सहमत हों जहाँ व्यावहारिक नीतियाँ तय की जा सकें। ऐसी नीतियाँ जिनसे कम-से-कम लागत पर अधिक-से-अधिक लाभ प्राप्त हो। इसके अलावा आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों के बीज वायु या पक्षियों द्वारा देश की सीमा पार कर सकते हैं। इससे इस मुद्दे में एक नया अंतर्राष्ट्रीय आयाम जुड़ जाता है।

सतत् विकास के उद्देश्य (Purposes of Sustainable Development)

सतत् विकास के अर्थ और अवधारणा से इतना तो स्पष्ट हो ही गया कि सतत् विकास मानव के अस्तित्व की बुनियादी शर्त है। मानव पृथ्वी पर तभी तक है जब तक अन्य पशु-पक्षी और पेड़-पौधे। स्वतंत्र रूप से हमारा पृथ्वी पर कोई अस्तित्व नहीं है। इसलिये हमें सतत् विकास के माध्यम से निम्नलिखित उद्देश्यों की पूर्ति करनी चाहिये-
  • गरीबी निवारण एवं सतत् आजीविका
  • पर्यावरण अनुकूल मानवीय गतिविधियाँ
  • ऊर्जा दक्षता
  • प्राकृतिक और मानव-निर्मित संसाधनों का संरक्षण
  • उत्पादन अवसरों का विकास
  • नवीकरणीय संसाधनों पर निर्भरता

सतत् विकास के मूलभूत विचार (Fundamental Ideas of Sustainable Development)

नवीकरणीयता (Renewability)
नवीकरणीय संसाधनों का उपयोग धारणीय आधार पर हो, ताकि किसी भी स्थिति में उपभोग की दर पुनर्सजन की दर से अधिक न हो।

प्रतिस्थापन (Substitution)
गैर-नवीकरणीय (Non-Renewable) संसाधनों की अपक्षय दर नवीनीकृत प्रतिस्थापकों से अधिक नहीं होनी चाहिये। सतत् विकास यह सुनिश्चित करता है कि गैर-नवीकरणीय संसाधनों का प्रतिस्थापन नवीकरणीय संसाधनों के माध्यम से किया जा सकता है। हालांकि, गैर-नवीकरणीय संसाधनों का पूर्ण प्रतिस्थापन लगभग असंभव है।

अंतर्निर्भरता (Interdependence)
एक संपोषणीय समाज वह होता है जो न तो ऐसे संसाधनों का आयात करता है जिससे संबंधित समुदाय वंचना का शिकार हो जाए और न ही अपने यहाँ उत्पन्न प्रदूषकों का अन्य समाजों में स्थानांतरण करता है। इस तरह परस्पर अंतर्निर्भरता से सभी समाजों को लाभ होता है।

अनुकूलनशीलता (Adaptability)
एक सतत् रूप से विकासशील समाज बदलते पर्यावरण के अनुसार खुद को बदलने की क्षमता रखता है। ऐसा वह नई-नई तकनीकों और शोध-आविष्कार आदि के माध्यम से करता है।

संस्थागत प्रतिबद्धता (Institutional Commitment)
इसके अंतर्गत वे सभी नीतियाँ, संवैधानिक प्रावधान, राजनीतिक इच्छाशक्ति, कानूनी रूपरेखा और वैधानिक संस्थाओं के बीच के आपसी समन्वय आते हैं, जिनके बिना सतत् विकास को वास्तविक रूप से संभव नहीं बनाया जा सकता। इसके अलावा शिक्षा के माध्यम से भी लोगों में सतत् विकास की ज़रूरत से संबंधित समझ विकसित की जा सकती है।

सतत् विकास के मानक (Parameters of Sustainable Development)

सतत् विकास हो रहा है या नहीं इसके लिये मुख्यतः चार मानक बनाए गए हैं-

(A) अंतर-पीढ़ीगत समता (Inter-Generational Equity)
इसका संबंध विभिन्न पीढ़ियों के बीच प्राकृतिक संसाधनों के विवेकपूर्ण और अनुकूलतम उपयोग से है। यह मुख्यतः नैतिकता का प्रश्न है जिस पर हमारी पिछली पीढ़ियों को सोचना पड़ा था, वर्तमान पीढ़ी को सोचना पड़ रहा है और भविष्य की हर पीढ़ी को सोचना पड़ेगा। सभी पीढ़ियों को यह समझना होगा कि मानव समुदाय सभी पीढ़ियों के परस्पर सहयोग से बनने वाला एक समरूपी समुदाय है। ऐसे तीन सिद्धांत हैं, जो अंतरपीढ़ीगत समता का आधार निर्मित करते हैं-

(i) विकल्पों का संरक्षण (Conservation of Options) प्रत्येक पीढ़ी को यह चाहिये कि वह प्राकृतिक और सांस्कृतिक संसाधनों का संरक्षण और परिवर्द्धन इस तरीके से करे कि आगामी पीढ़ियों के पास यह विकल्प मौजूद हो कि वह अपना विकास अपने तरीके से कर सके, न कि पिछली पीढ़ियों द्वारा उत्पन्न समस्याओं के समाधान में ही लगी रहें।

(ii) गुणवत्ता का संरक्षण (Conservation of Quality) प्रत्येक पीढ़ी को यह प्रयास करना चाहिये कि वह अपने पर्यावरण को गुणवत्ता को बनाए रखे। उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिये कि जिस दुनिया से वे जा रहे हैं, वह उस दुनिया से जरूर बेहतर हो जिसमें उन्होंने अपनी आँखें खोली थीं। यह न सिर्फ गुणवत्ता का संरक्षण है, बल्कि गुणवत्ता का परिवर्द्धन भी है।

(iii) अधिशेष का संरक्षण (Conservation of Excess) प्रत्येक पीढ़ी को अपनी पिछली पीढ़ियों से मिलो प्राकृतिक विरासत का अनुकूलतम उपयोग करना चाहिये और बचे हुए संसाधनों (जो निश्चित रूप से पर्याप्त मात्रा में हॉग) को आगामी पीढ़ियों के लिये संरक्षित कर देना चाहिये।

(B) अंतरा-पीढीगत समता (Intra-Generational Equity)
घरेलू और वैश्विक दोनों स्तर पर वर्तमान पीढ़ी के मानव समुदायों के बीच संसाधनों का उपयोग न्यायोचित और पारदर्शी तरीके से हो, यही संसाधनों के उपयोग का अंतरा-पीढीगत समता सिद्धांत है। समता की अवधारणा को इस संदर्भ में लाया गया है कि प्रत्येक मनुष्य स्वयं में एक संपूर्ण विश्व है। इसलिये सभी मनुष्यों की आवश्यकताएँ लगभग समान हैं। मानव अधिकारों और मूलभूत मानवीय आवश्यकताओं के पीछे यही तर्क काम करता है।

(C) लैंगिक असमानता (Gender Inequality)
सतत् विकास से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व मानवीय गतिविधियों के आधार पर संसाधनों के बेहतर प्रबंधन की आवश्यकता को माना जा सकता है। असमानता पर आधारित समाज में महिलाओं और पुरुषों के बीच श्रम का विभाजन जिस तरीके से किया गया है, उस तरीके से संसाधनों का विभाजन नहीं किया गया है। सामान्यतः महिलाओं को प्राकृतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संसाधनों पर उतना अधिकार नहीं दिया जाता, जितना उनके कार्य और महत्त्व के अनुपात में होना चाहिये। यह किसी भी दृष्टिकोण से संपोषणीय समाज नहीं कहा जाएगा। इसलिये सभी समाजों में संसाधनों का वितरण न केवल पुरुषों में समान रूप से हो बल्कि पुरुषों और महिलाओं में भी समान रूप से हो।

(D) वहन क्षमता (Carrying Capacity)
हमारा कर्तव्य है कि हम अपनी आगामी पीढ़ियों को एक साफ व सुचार वातावरण प्रदान करें। इसलिये यह हमारा उत्तरदायित्व हो जाता है कि हम इस संपदा का उसकी प्रयुक्त होने की क्षमता अर्थात् वहन क्षमता (Carrying capacity) से अधिक शोषण न करें व उसके संतुलन को बनाए रखे।

सतत् विकास को हासिल करने के लिए सिद्धांत

सतत् विकास तभी संभव हो सकता है, जब उसे प्राप्त करने की सुनिश्चित रणनीति पहले से पता हो। पर्यावरण की गुणवत्ता को बनाए रखने के लिये किया गया कोई भी प्रयास सतत् विकास की ओर ही जाता है। यहाँ कुछ प्रमुख रणनीतियों की चर्चा की जा रही है, जिसके माध्यम से सतत् विकास को संभव बनाया जा सकता है-

पारिस्थितिकी मित्रवत् प्रौद्योगिकी
उत्पादन प्रक्रिया के प्रत्येक क्षेत्र में पारिस्थितिकी मित्रवत् प्रौद्योगिकी को अपनाकर निवर्हनीय विकास को स्वीकार करना।

परियोजना मूल्यांकन
विकास मार्ग के अन्तर्गत किसी परियोजना के मूल्यांकन में तीन E (ई) अर्थात् पर्यावरण सुरक्षा (Environmental Protection) पारिस्थितिकी संतुलन (Ecological Balance) एवं आर्थिक दक्षता (Economical Efficiency) पर अधिकतम जोर देना।
  • Environment Protection
  • Ecological Balance
  • Economical Efficiency

उत्पादन का विकेन्द्रीकरण
स्थाई विकास के लिए विकेन्द्रीकरण करके इस क्षेत्र में जन-सहभागिता को बढ़ाना।

संसाधन संरक्षण
भूमण्डलीय आधार पर समग्र जीवन-चक्र का प्रबन्धन करके संसाधनों का प्रभावी संरक्षण करना।

प्रभावशाली जवाबदेही तंत्र
पारिस्थितिकी संतुलन में किसी प्रकार के विक्षोभ उत्पन्न करने वाले के विरूद्ध सख्त कार्यवाही की जाए।

पारिस्थितिकी साक्षरता
इससे वैश्विक पारिस्थितिकी संरक्षण चेतना का विकास करना।
  • स्थाई विकास पर प्रभावी जनमत निर्माण में पर्यावरणविदों, सामाजिक कार्यकर्त्ताओं, गैर-सरकारी संगठनों की सहायता लेनी चाहिए।
  • संसार के सभी देशों द्वारा पर्यावरण के संबंध में वैश्विक संस्थाओं, संधियों व प्रोटोकालों को पूर्ण मान्यता दी जाए व उनका पूर्णतः अनुपालन हो।
भारत उन विकासशील देशों में आता है जहाँ पर्यावरण के सम्बन्ध में व्यापक जागृति आई है एवं स्थाई विकास हेतु सघन प्रयास किए गए हैं जिन्हें अधोलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत देखा जा सकता है-
  • वनारोपण व सामाजिक तथा कृषि वानिकी
  • मृदा संरक्षण व परती भूमि विकास कार्यक्रम
  • कृषि जलवायविक प्रादेशीकरण
  • वाटरशेड़ प्रबन्धन
  • शस्य क्रम एवं फसल चक्र
  • शुष्क कृषि विकास
  • जीवमण्डल विकास कार्यक्रम
  • राष्ट्रीय अभयारण्य
  • जलग्रस्त भूमि संरक्षण
  • मैंग्रोव संरक्षण
  • तटीय पारिस्थितिकी एवं मलिन बस्तियों में सधारक
  • प्रदषण नियंत्रण के लिए विभिन्न प्रकार के कानून

ऊर्जा के गैर-पारम्परिक स्रोतों का उपयोग
विभिन्न देश अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये अभी भी बड़े पैमाने पर थर्मल पावर प्लांट पर निर्भर हैं। थर्मल पावर प्लांट में जीवाश्म ईंधनों के जलने से बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड जैसी ग्रीनहाउस गैसें निकलती हैं, जो ग्लोबल वार्मिंग में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। यह पर्यावरण के साथ-साथ मानव जीवन पर भी संकट उत्पन्न कर रही हैं। इसका सीधा-सा समाधान यह है कि हम ऊर्जा के गैर-पारम्परिक अथवा नवीकरणीय स्रोतों पर अपनी निर्भरता बढ़ाएँ। इन स्रोतों में सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जल विद्युत ऊर्जा आदि प्रमुख हैं। हाल ही में भारत द्वारा पेरिस सम्मेलन के दौरान 'अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन' का निर्माण सतत् विकास की दिशा में उल्लेखनीय कदम है।

स्वच्छ घरेलू ईंधन
विश्व में अभी भी आधे से अधिक आबादी घरेलू ईंधन के रूप में लकड़ी, कोयले इत्यादि का उपयोग करती है, जो स्वास्थ्य और पर्यावरणीय दृष्टि से काफी हानिकारक है। इसलिये ईंधन के रूप में एल.पी.जी., सी.एन.जी. जैसे स्वच्छ ईंधनों के प्रयोग को बढ़ावा देने की आवश्यकता है, तभी प्रदूषण में कमी के साथ-साथ धारणीय विकास को सुनिश्चित किया जा सकता है। हाल ही में भारत सरकार द्वारा 5 करोड़ बीपीएल परिवारों को मुफ्त एलपीजी सिलेंडर देने के लिये 'प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना' प्रारंभ की गई, जो सतत् विकास के प्रति हमारी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करता है।

पारंपरिक ज्ञान एवं व्यवहार
लगभग हर एक क्षेत्र में कुछ ऐसे पारम्परिक तरीके मौजूद होते हैं. जो पर्यावरण अनुकूल होने के साथ-साथ सर्वसुलभ होते हैं। आवश्यकता केवल इस बात की है कि इन तरीकों की पहचान कर इन्हें बढ़ावा दिया जाए, ताकि विकास न केवल धारणीय हो बल्कि अधिक समावेशी भी हो। उदाहरण के लिये-खाद के रूप में रासायनिक उर्वरकों की जगह जैविक कम्पोस्ट का उपयोग। इसके अलावा नीम लेपित यूरिया, हर्बल और ऑर्गेनिक उत्पाद, आयुर्वेदिक दवाइयाँ पारम्परिक ज्ञान के ही प्रसंस्कृत रूप हैं।

पर्यावरण हितैषी नवीन तकनीकों के प्रयोग
आजकल कई ऐसी तकनीक और प्रक्रियाएँ हैं, जिनका प्रयोग कर न केवल हम अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कार रहे है बल्कि भविष्य के लिये भी संसाधनों को सुरक्षित कर रहे हैं। उदाहरण के लिये पेट्रोल के साथ इथेनॉल का प्रयोग गाड़ियों और कारखानों में करने से वायु प्रदूषण में कमी के अलावा जीवाश्म ईंधनों पर हमारी निर्भरता में भी कमी आ रही है। इसी तरह पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान में 'जैव उपचार (Bio-remediation)' का प्रयोग हो या जल की खपत को कम करने के लिये बायो-टॉयलेट्स; ये सभी सतत् विकास को ही संभव बना रहे हैं।

जनसंख्या वृद्धि को कम करना
जनसंख्या में वृद्धि से संसाधनों पर दबाव बढ़ता है, जिससे संवृद्धि पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जो सतत् विकास की दृष्टि से उचित नहीं है। इसलिये जनसंख्या वृद्धि पर प्रभावी नियंत्रण का होना सतत् विकास की एक आवश्यक शर्त है।

पारिस्थितिकी संरक्षण
सतत् विकास के लिये यह सबसे आवश्यक है कि वन संसाधनों, जैव विविधता तथा अन्य पर्यावरणीय घटकों का न केवल संरक्षण किया जाए बल्कि उसका परिवर्द्धन भी किया जाए। इस दिशा में अनेक क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रयास किये गए हैं, जिनका प्रभावी क्रियान्वयन सतत् विकास की गारंटी होगी।

स्थानीय, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शासन को मजबूत बनाना
संसाधनों के प्रभावी प्रबंधन के लिये सभी संबंधित पक्षों की भागीदारी अनिवार्य होती है। सतत् विकास के लिये स्थानीय एवं वैश्विक स्तर पर सहयोग अनिवार्य है। समुद्री एवं नदी तट संबंधी मुद्दे, सीमापार पर्यावरणीय प्रभाव, जैव संसाधनों का प्रबंधन, तकनीकी बँटवारा तथा सतत् विकास के अनुभवों की साझेदारी सामान्य चिंता के विषय हैं। विशेषकर विकासशील देशों को अपने अनुभवों में तालमेल बैठाना चाहिये तथा अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अपनी चिंताओं को मिलकर रखना चाहिये। सतत् विकास के संदर्भ में ऐसी व्यवस्था करने की आवश्यकता है, जहाँ घरेलू एवं वैश्विक अनुभवों के आदान-प्रदान हेतु अंतर्राष्ट्रीय सुविधा प्राप्त हो। विभिन्न पर्यावरणीय समझौतों के अंतर्गत विभिन्न देशों द्वारा की जा रही अनुपालन की निगरानी करने के लिये तंत्र विकसित करने की आवश्यकता है। फिलहाल विभिन्न उत्तरदायित्वों को निभाने वाली संस्थाओं की बहुलता है, लेकिन सहयोग एवं अनुपालन सुनिश्चित करने के लिये एक बेहतर शासन व्यवस्था की आवश्यकता है।

सतत् पोषणीय विकास के लिए अपनाई जाने वाली कार्यनीति

आर्थिक विकास का पुनरुत्थान
सतत् पोषणीय विकास द्वारा गरीबी को दूर करना चाहिए। गरीबी से पर्यावरण पर दवाब बढ़ता है, क्योंकि लोगों की जीवन शैली पर्यावरण का अवक्रमण कर देती है। उदाहरण के लिए ईंधन के लिए वनों का काटना अथवा अत्यधिक चराई द्वारा मरुस्थलों का बढ़ना। वे लोग असहाय हैं, क्योंकि उनके पास आजीविका के वैकल्पिक साधन नहीं है। गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले अधिकतर लोग अफ्रीका और एशिया में रहते हैं। इन लोगों को कुछ विकल्प जैसे कार्यकुशलता, प्रशिक्षण, शिक्षा आदि देने के लिए प्रयत्न किए जाने चाहिए ताकि ये अपनी आजीविका कमा सकें और गरीबी से बाहर आ सके। अन्यथा सतत् पोषणीयता अथवा सतत् पोषणीय विकास का उद्देश्य ही समाप्त हो जाएगा। क्योंकि जब तक गरीबी रहेगी, गरीब लोग अपने जीवनयापन के लिए प्रकृति पर निर्भर बने रहेंगे।

जनसंख्या का सतत् पोषणीय स्तर सुनिश्चित करना
आज हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती जनसंख्या वृद्धि की अधिकतम दर को हल करना है, विशेषकर अफ्रीका, दक्षिण एशिया और मध्य पूर्व में। जनसंख्या विस्फोट का जीवन की गुणवत्ता, शिक्षा की उपलब्धता, स्वास्थ्य, घर, स्वच्छ पेयजल, स्वच्छता और जीवनयापन के साधनों से सीधा सम्बंध है। तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या को अतिरिक्त सुविधाएँ देने में सरकार पर बहुत बोझ पड़ता है।

मनुष्य की आवश्यक आवश्यकताओं को पूरा करना
आर्थिक विकास की वृद्धि के पुनरुत्थान के लिए यह पहली शर्त है। यह सर्वविदित है कि जब तक मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताएँ पूरी नहीं होंगी, वह विकास प्रक्रिया में हिस्सा नहीं लेगा। मनुष्य की आवश्यक आवश्यकताओं में पर्याप्त भोजन, उचित आवास, स्वच्छ जलापूर्ति और स्वास्थ्य सेवाएँ सम्मिलित हैं। पर्याप्त और गुणवत्तायुक्त भोजन दिया जाना चाहिए ताकि उन्हें कुपोषण से बचाया जा सके और उनके शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र को विकसित किया जाए ताकि बीमारियों से उनका बचाव हो सके।

वृद्धि की गुणवत्ता को बदलना
विकास के दिक् विन्यास को बदलने की आवश्यकता है। जब हम वृद्धि या विकास कहते हैं तो हमारा अभिप्राय हमेशा आर्थिक विकास अथवा भौतिक विकास से होता है, परन्तु आवश्यकता इस बात की है कि विकास भौतिकवादी न हो, कम ऊर्जा की खपत हो और समान रूप से वितरित करने योग्य हो। आर्थिक और सामाजिक विकास एक दूसरे को आपस में सुदृढ़ करने योग्य हो। दूसरे शब्दों में, आर्थिक विकास को अच्छे सामाजिक विकास की ओर ध्यान देना चाहिए जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता आदि। साथ ही साथ सामाजिक विकास किसी क्षेत्र, प्रदेश और देश की अर्थव्यवस्था को बढ़ा सकता है।

संसाधनों के आधार को सुरक्षित रखना और बढ़ाना
इसके लिए नैतिक और आर्थिक तर्क हैं। नैतिक तर्क यह है कि हमें अगली पीढ़ी के लिए पोषण के लिए संसाधनों का संरक्षण करना चाहिए। इसके साथ ही हमें आर्थिक तर्क को भी समझना चाहिए। आर्थिक तर्क यह है कि हम गरीब व्यक्तियों से पर्यावरण को बचाने के लिए गरीब रहने को नहीं कह सकते। दूसरी ओर विकसित देशों में उपभोक्तावाद को चुनौती देने की आवश्यकता है। कहीं न कहीं उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की प्रक्रिया को आम आदमी की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने में आई असमानता को दूर करना होगा। सतत् पोषणीयता में चुनौती यह है कि हम विकास को कम किए बगैर और जीविकोपार्जन के लिए संसाधनों की उपलब्धता बनाए रखते हुए कैसे संसाधानों को संरक्षित रख सकते हैं।

तकनीक का पुनः अनुकूलन और जोखिम प्रबन्धन
ऊपर वर्णित पाँच कार्यनीतियों का आशय तकनीक के दो मुख्य तरह से पुनः अनुकूलन से है। प्रथम, नवप्रवर्तन की क्षमता को विकासशील देशों में अत्यधिक बढ़ाना। द्वितीय, विकसित देशों को तकनीक के हस्तांतरण के प्रयत्न करने चाहिए। इसलिए सभी प्रकार के तकनीकी विकास में पर्यावरणीय कारकों को ध्यान में रखना चाहिए। यह जोखिम प्रबन्धन के प्रश्न से गहराई से जुड़ा हुआ है जिसमें पर्यावरणीय प्रभाव को असरदार तरीके से कम से कम करना है।

निर्णय लेने में पर्यावरण और अर्थव्यवस्था को मिलाना
अर्थशास्त्र में पारिस्थितिकी को एक दूसरे का विरोधी नहीं मानना चाहिए बल्कि एक दूसरे से संबंधित मानना चाहिए। सतत् पोषणीय विकास के लिए अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में अर्थशास्त्र और
पारिस्थितिकी का गठबंधन आवश्यक है।

सतत् विकास हेतु भारत के प्रयास (India's Efforts for Sustainable Development)

भारत सतत् विकास को बढ़ावा देने के लिये अंतर्राष्ट्रीय समझौतों एवं अभिसमयों (conventions) का अनुपालन करने में कभी पीछे नहीं हटा है। भारत ने जलवायु परिवर्तन संबंधी संयुक्त राष्ट्र रूपरेखा अभिसमय (United Nation Framework Convention on Climate Change UNFCCC) पर हस्ताक्षर किया है। भारत ने जैव विविधता संबंधी अभिसमय (Convention on Biological Diversity -CBD) पर भी हस्ताक्षर किया है।
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में भारत न केवल अपने नागरिकों की जीवन गुणवत्ता में सुधार के प्रति प्रतिबद्ध है, बल्कि सतत् विकास के लिये अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के साथ मिलकर सक्रिय भी है। भारत में गरीबी निवारण के लिये कई लक्षित योजनाओं, कार्यक्रमों एवं नीतियों की शुरुआत की गई है। या तो प्रत्यक्ष रूप से रोज़गार सृजन, प्रशिक्षण या गरीबों के लिये परिसम्पत्तियों के निर्माण (Building-up Assets for Poor) पर ध्यान दिया जा रहा है या अप्रत्यक्ष रूप से मानव विकास विशेषकर शिक्षा, स्वास्थ्य एवं महिला सशक्तीकरण पर बल दिया जा रहा है। राष्ट्रीय पर्यावरण नीति, 2006 (National Environment Policy, 2006) स्वच्छ पर्यावरण के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाती है एवं सभी गतिविधियों से जुड़ी पर्यावरणीय चिंताओं को दूर करना चाहता है। भारत में धीरे-धीरे ही सही वन क्षेत्र में बढ़ोतरी हो रही है। पर्यावरण से जुड़ी चिंताओं को दूर करने में राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण अधिनियम, 2010 (National Green Tribunal, 2010) काफी महत्त्वपूर्ण साबित हो रहा है। केन्द्र एवं राज्य स्तर पर नीतियों में समन्वय एवं एकीकृत प्रयास करने के लिये संस्थागत व्यवस्था की गई है।
भारत में सतत् विकास को बढ़ावा देने के लिये कई नीतियाँ और कार्यक्रम बनाए गए हैं। आठ राष्ट्रीय अभियान ऐसे हैं, जो अपनी प्रकृति में बहुआयामी और दीर्घावधिक हैं और सतत् विकास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।
  • राष्ट्रीय सौर मिशन (National Solar Mission)
  • ऊर्जा दक्षता को बढ़ाने के लिये राष्ट्रीय मिशन (National Mission for Enhanced Energy Efficiency)
  • सतत् अधिवास पर राष्ट्रीय अभियान (National Mission on Sustainable Habitat)
  • राष्ट्रीय जल अभियान (National Water Mission)
  • हिमालय पारितंत्र को बनाए रखने के लिये राष्ट्रीय अभियान (National Mission for Sustaining the Himalayan Ecosystem)
  • 'हरित भारत' के लिये राष्ट्रीय अभियान (National Mission for a "Green India')
  • संपोषणीय कृषि के लिये राष्ट्रीय अभियान (National Mission for Sustainable Agriculture)
  • जलवायु परिवर्तन संबंधी रणनीतिक ज्ञान के लिये राष्ट्रीय अभियान (National Mission on Strategic Knowledge for Climate Change)
इसके अलावा भी सतत् विकास को सुनिश्चित करने के लिये कई अभियान और कार्यक्रम चलाए गए हैं जिनमें कुछ तो स्वतंत्र रूप से चलाए जा रहे हैं जबकि कुछ का संबंध उपर्युक्त योजनाओं से ही है। उदाहरण के लिये- मनरेगा, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अभियान (NFSM), राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (RKVY), इंटीग्रेटेड वाटरशेड मैनेजमेंट प्रोग्राम (IWMP) आदि। इसके बाद भी कई ऐसे उपाय किये जा रहे हैं, जो ऊर्जा ज़रूरतों को नवीकरणीय माध्यमों से पूरा करने का प्रयास कर रहे हैं। भारत में विभिन्न नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों से वर्ष 2022 तक 175 गीगावाट ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। सोलर पार्क, सूर्य मित्र योजना, स्मॉल विंड एनर्जी एंड हाइब्रिड सिस्टम (SWES) आदि कई प्रमुख पहले भारत सरकार ने की हैं जो सतत् ऊर्जा आपूर्ति की दिशा में उल्लेखनीय कदम सिद्ध हो रहे हैं।

मुख्य अंतर्राष्ट्रीय समझौते एवं अभिसमय (Major International Agreements and Conventions)

पृथ्वी शिखर सम्मेलन
1992 में 100 से भी अधिक देशों के शासनाध्यक्ष ब्राजील के रियो डी जेनेरियो शहर में पर्यावरण संरक्षण तथा सामाजिक-आर्थिक विकास से जुड़ी तत्कालीन समस्याओं का समाधान खोजने के उद्देश्य से मिले थे। सम्मेलन में भाग लेने वाले नेताओं ने जलवायु परिवर्तन अभिसमय तथा जैव विविधता अभिसमय पर हस्ताक्षर किये थे। इसी सम्मेलन के दौरान 21वीं शताब्दी में सतत् विकास की प्राप्ति के लिये 300 पृष्ठों की कार्य योजना भी अपनाई गई थी जिसे एजेंडा-21 कहा गया था। पृथ्वी शिखर सम्मेलन के दौरान हुए समझौतों के क्रियान्वयन की निगरानी एवं रिपोर्ट के लिये सतत् विकास आयोग का गठन किया गया था। इस बात पर भी सहमति हुई कि पृथ्वी शिखर सम्मेलन के 5 वर्ष के बाद 1997 में संयुक्त राष्ट्र महासभा के विशेष सत्र के दौरान इनकी समीक्षा की जाएगी। 1997 में संयुक्त राष्ट्र के विशेष सत्र के दौरान अनेक देशों, अंतर्राष्ट्रीय संगठनों तथा सिविल सोसाइटी द्वारा इनकी प्रगति की समीक्षा की गई थी। पर्यावरण एवं विकास संबंधी सम्मेलन के अंतर्गत निम्नलिखित कार्ययोजनाओं एवं घोषणापत्रों पर भी सहमति बनी थी
  • पर्यावरण एवं विकास संबंधी रियो घोषणापत्र
  • एजेंडा-21: सतत् विकास हेतु वैश्विक कार्ययोजना .
  • वनों के टिकाऊ प्रबंधन के लिये वक्तव्य सिद्धांत

रियो +10 (जोहांसबर्ग सम्मेलन), 2002
इसे 'पृथ्वी सम्मेलन-2002' के नाम से भी जाना जाता है। इसे सतत् विकास पर विश्व सम्मेलन' का नाम भी दिया गया।
इस सम्मेलन में एजेंडा-21 के पूर्ण क्रियान्वयन के लक्ष्य को फिर से दोहराया गया। इसके अलावा 'सहस्राब्दी विकास लक्ष्य' (MDG) और कुछ अन्य अंतर्राष्ट्रीय समझौतों को लागू करने का लक्ष्य रखा गया।

रियो +20 (रियो डी जेनेरियो, ब्राज़ील), 2012 (सतत् विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन)
1992 के ऐतिहासिक पृथ्वी सम्मेलन के ठीक 20 वर्षों बाद रियो डी जेनेरियो, ब्राज़ील में ही सतत् विकास पर संयुक्त राष्ट्र का सम्मेलन हुआ, जिसमें विश्व के नेताओं के साथ-साथ निजी क्षेत्रकों, गैर-सरकारी संगठनों और अन्य समूहों ने भी भाग लिया।
2012 के पृथ्वी सम्मेलन का फोकस मुख्यतः तीन तथ्यों पर था-
  1. गरीबी में कमी लाना।
  2. स्वच्छ ऊर्जा।
  3. सतत् विकास जिसमें सामाजिक-आर्थिक विकास के साथ पर्यावरण संरक्षण भी शामिल होता है ताकि भावी पीढ़ियों की जरूरतों से समझौता किये बिना वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहे। 
पूरे सम्मेलन की चर्चा मुख्यतः दो प्रश्नों पर केंद्रित रही। सतत् विकास के लिये एक हरित अर्थव्यवस्था (Green Economy) का निर्माण कैसे किया जाए और लोगों को गरीबी से निजात दिलाने के लिये किन विकल्पों का चयन किया जाए? तथा सतत् विकास के लिये अंतर्राष्ट्रीय समन्वय कैसे स्थापित किया जाए? इनमें से पहला प्रश्न मुख्यत: विकासशील देशों के संदर्भ में था। रियो +20 में उन सात क्षेत्रकों को चिह्नित किया गया जिनको प्राथमिकता देकर सतत् विकास की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति की जा सकती है। वे क्षेत्र हैं- रोजगार, ऊर्जा, संपोषणीय शहर, खाद्य सुरक्षा, जल, समुद्र और आपदा प्रबंधन इस सम्मेलन में विश्व व्यापार संगठन (WTO) से संबंधित मुद्दों पर भी चर्चा हुई। रियो +20 सम्मेलन के संपूर्ण दस्तावेज़ का प्रकाशन 'द फ्यूचर वी वांट' (The Future We Want) के नाम से हुआ। दस्तावेज़ में सतत् विकास लक्ष्यों (Sustainable Development Goals - SDGs) को विकसित करने को समर्थन प्रदान किया गया। यह स्वीकार किया गया कि SDGs वहाँ से शुरू होंगे, जहाँ MDGs (Millennium Development Goals) समाप्त होंगे। यूनेप (UNEP) को एक अग्रणी वैश्विक पर्यावरण संस्था बनाने पर ज़ोर दिया गया। इसके अंतर्गत इसकी वैश्विक सदस्यता बढ़ाने तथा इसे वित्तीय सहायता प्रदान करने आदि के लिये संकल्प लिया गया।

सतत विकास लक्ष्य (SDG)

2015 के पश्चात् विकास एजेंडा अंगीकृत करने के लिये न्यूयॉर्क में सितंबर 2015 में संयुक्त राष्ट्र महासभा की उच्चस्तरीय बैठक के तौर पर 70वाँ संयुक्त राष्ट्र शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया। नए एजेंडा के निर्णायक दस्तावेज़ को औपचारिक तौर पर अंगीकृत करने के लिये संयुक्त राष्ट्र के इस सतत् विकास शिखर सम्मेलन में दुनिया भर से 150 से अधिक देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने हिस्सा लिया।
एसडीजी (SDG) 2030: अब सहस्राब्दी विकास लक्ष्य (Millennium Development Goals-MDG) का स्थान सतत् विकास लक्ष्य (Sustainable Development Goals-SDG) लेंगे। संयुक्त राष्ट्र के इन महत्त्वाकांक्षी सतत् विकास लक्ष्यों का उद्देश्य अगले 15 सालों में गरीबी और भुखमरी को समाप्त करना और लिंग समानता सुनिश्चित करने के अलावा सभी को सम्मानित जीवन का अवसर उपलब्ध कराना है। 193 सदस्यीय संयुक्त राष्ट्र महासभा ने इस नई रूपरेखा 'अपनी दुनिया में बदलाव: टिकाऊ विकास के लिये 2030 का एजेंडा' को अंगीकार किया। इसमें अगले 15 साल के लिये 17 'लक्ष्य' और 169 'प्रयोजन" तय किये गए हैं।

17 विकास लक्ष्य
Sustainable Development in Hindi
  • 1. गरीबी के सभी रूपों की पूरे विश्व से समाप्ति।
  • 2. भुखमरी की समाप्ति, खाद्य सुरक्षा और बेहतर पोषण एवं टिकाऊ कृषि को बढ़ावा।
  • 3. सभी आयु के लोगों में स्वास्थ्य, सुरक्षा और स्वस्थ जीवन को बढ़ावा।
  • 4. समावेशी और न्यायसंगत गुणवत्तायुक्त शिक्षा सुनिश्चित करने के साथ ही सभी को सीखने का अवसर देना।
  • 5. लैंगिक समानता प्राप्त करने के साथ ही महिलाओं और लड़कियों को सशक्त बनाना।
  • 6. सभी के लिये स्वच्छता और पानी के सतत् प्रबंधन को सुनिश्चित करना।
  • 7. सस्ती, विश्वसनीय, टिकाऊ और आधुनिक ऊर्जा तक पहुँच सुनिश्चित करना।
  • 8. सभी के लिये निरंतर समावेशी और सतत् आर्थिक विकास, पूर्ण और उत्पादक रोज़गार तथा बेहतर कार्य को बढ़ावा देना। 
  • 9. लचीले बुनियादी ढाँचे, समावेशी और सतत् औद्योगीकरण को बढ़ावा।
  • 10. देशों के मध्य और देश के भीतर असमानता को कम करना।
  • 11. सुरक्षित, लचीले और टिकाऊ शहर और मानव बस्तियों का निर्माण।
  • 12. स्थायी खपत और उत्पादन पैटर्न को सुनिश्चित करना।
  • 13. जलवायु परिवर्तन और उसके प्रभावों से निपटने के लिये तत्काल कार्रवाई करना।
  • 14. स्थायी सतत् विकास के लिये महासागरों, समुद्र और समुद्री संसाधनों का संरक्षण और उपयोग। 
  • 15. सतत् उपयोग को बढ़ावा देने वाली स्थलीय पारिस्थितिकीय प्रणालियों, सुरक्षित जंगलों, भूमि-क्षरण और जैव विविधता के बढ़ते नुकसान को रोकने का प्रयास करना।
  • 16. सतत् विकास के लिये शांतिपूर्ण और समावेशी समितियों को बढ़ावा देने के साथ ही सभी स्तरों पर इन्हें प्रभावी, जवाब देह पूर्ण बनाना ताकि सभी के लिये न्याय सुनिश्चित हो सके।
  • 17. सतत् विकास के लिये वैश्विक भागीदारी को पुनर्जीवित करने के अतिरिक्त कार्यान्वयन के साधनों को मजबूत बनाना।

महत्वपूर्ण तथ्य
  • सतत् विकास इस तरह किया गया विकास है जो आने वाली पीढ़ियों के हितों से समझौता किये बिना वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा करता है।
  • सतत् विकास पर्यावरण और प्रकृति, अर्थव्यवस्था एवं समाज, इन सभी में बेहतर तालमेल के साथ समग्रता-पूर्वक किया जा सकता है। 
  • वर्ष 1987 की 'हमारा साझा भविष्य' नामक रिपोर्ट (द ब्रंटलैंड रिपोर्ट) से सतत् विकास की आधुनिक अवधारणा प्राप्त की गई है।
  • संयुक्त राष्ट्र द्वारा गठित 'पर्यावरण एवं विकास पर विश्व आयोग' के माध्यम से मानव पर्यावरण एवं प्राकृतिक संसाधनों के क्षय के संबंध में ध्यान आकृष्ट किया गया।
  • गरीबी निवारण एवं सतत् आजीविका, पर्यावरण अनुकूल मानवीय गतिविधियाँ, ऊर्जा दक्षता, प्राकृतिक और मानव-निर्मित संसाधनों का संरक्षण, उत्पादन अवसरों का विकास एवं नवीकरणीय संसाधनों पर निर्भरता ये सभी सतत् विकास के उद्देश्य है।
  • नवीकरणीयता, प्रतिस्थापन, अंतर्निभरता, अनुकूलनशीलता एवं संस्थागत प्रतिबद्धता सतत् विकास के मूलभूत विचार हैं।
  • सतत् विकास के चार मानक हैं- अंतर पीढ़ीगत समता, अंतरापीढ़ीगत समता, लैंगिक असमानता एवं वहन क्षमता।
  • अंतर-पीढ़ीगत समता का आधार निर्माण तीन सिद्धांतों द्वारा किया जाता है- विकल्पों का संरक्षण, गुणवत्ता का संरक्षण एवं अधिशेष का संरक्षण।
  • ऊर्जा के गैर-पारंपरिक एवं नवीकरणीय स्रोतों का प्रयोग, स्वच्छ ईंधन, पर्यावरण हितैषी-तकनीक, पारिस्थितिकी संरक्षण, जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण, स्थानीय, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय शासन की मजबूती आदि सतत् विकास को प्राप्त करने की प्रमुख रणनीतियाँ हैं।
  • जलवायु परिवर्तन संबंधी संयुक्त राष्ट्र रूपरेखा अभिसमय (UNFCCC), एवं जैव विविधता संबंधी अभिसमय (CBD) पर हस्ताक्षर, राष्ट्रीय पर्यावरण नीति, 2006, एन.जी.टी. स्थापना, सौर ऊर्जा, ऊर्जा दक्षता, जल अभियान, हरित भारत आदि संबंधी राष्ट्रीय अभियान, सतत् विकास के संबंध में भारत के महत्त्वपूर्ण प्रयास हैं।
  • 1992 में रियो डि जेनेरियो (ब्राज़ील) में हुए प्रथम पृथ्वी शिखर सम्मेलन में 21वीं शताब्दी में सतत् विकास की प्राप्ति के लिये बनाई गई कार्ययोजना 'एजेंडा-21' कहलाती है।
  • पृथ्वी शिखर सम्मेलन (रियो, 1992) में एजेंडा-21 के अलावा पर्यावरण एवं विकास संबंधी रियो घोषणापत्र तथा वनों के टिकाऊ प्रबंधन के लिये वक्तव्य सिद्धांत पर भी सहमति बनी थी।
  • रियो+10 (जोहांसबर्ग सम्मेलन/पृथ्वी सम्मेलन 2002) 2002 में 'एजेंडा-21' के क्रियान्वयन का लक्ष्य दोहराने के साथ ही 'सहस्राब्दी विकास लक्ष्य' (MDG) को लागू करने का लक्ष्य भी निर्धारित किया गया।
  • रियो+20 (रियो, ब्राज़ील), 2012 में मुख्यतः तीन तथ्यों पर बल था गरीबी में कमी लाना, स्वच्छ ऊर्जा एवं सतत् विकास।
  • रियो+20 में सतत् विकास के संबंध में सात क्षेत्रकों का चयन किया गया रोजगार, ऊर्जा, संपोषणीय शहर, खाद्य सुरक्षा, जल, समुद्र और आपदा प्रबंधन।
  • 'द फ्यूचर वी वांट', रियो+20 सम्मेलन का संपूर्ण दस्तावेज है। इसमें सतत् विकास लक्ष्यों (SDG) को MDG की समाप्ति के साथ लागू करने की बात कही गई है।
  • 70वें संयुक्त राष्ट्र शिखर सम्मेलन (न्यूयॉर्क, 2015) में MDG के स्थान पर SDG, 2030 को लागू किया गया।

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