आयकर क्या है? - उद्देश्य, विशेषताएं, सिद्धान्त, प्रक्रिया, अवधारणाएं | income tax in hindi

आयकर

आयकर income tax केन्द्र सरकार द्वारा लगाए जा सकने वाले प्रत्यक्ष करों में से एक कर है। इसे प्रत्यक्ष कर इसलिए माना जाता है क्योंकि यह एक व्यष्टि, हिन्दू अविभाजित परिवार, फर्मों तथा निगमित निकायों द्वारा कर-निर्धारण वर्ष में गत वर्ष (लेखा/वित्तीय वर्ष) के दौरान अर्जित की गई आय पर करदाता द्वारा प्रत्यक्ष रूप में सरकार को देय होता है। अतः आयकर का अध्ययन करने वाले किसी भी छात्र को आय, गत वर्ष, कर निर्धारण वर्ष, कुल आय तथा भारत के उन व्यक्तियों के सम्बन्ध में जानना आवश्यक है, जिन पर आयकर का दायित्व होता है।
आयकर के सम्बन्ध में अध्ययन करने से पहले कर के सम्बन्ध में जानना आवश्यक है। किसी भी प्रकार की गतिविधि, आय अथवा उत्पादन पर सरकार द्वारा वसूल की जाने वाली राशि को कर कहते हैं।
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कर सरकार द्वारा दी जाने वाली किसी सुविधा से प्रत्यक्षतः सम्बन्धित नहीं होता है, यद्यपि इसका प्रयोग जनोपयोगी कार्यों में किया जाता है।
कर दो प्रकार के होते हैं-
  1. प्रत्यक्ष कर
  2. अप्रत्यक्ष कर

प्रत्यक्ष कर

इन करों को प्रत्यक्ष रूप से किसी आय अथवा सम्पत्ति के आधार पर वसूल किया जाता है। जैसे- आयकर, सम्पत्ति कर, निगम कर, उपहार कर आदि।

अप्रत्यक्ष कर

इन करों को वस्तुओं अथवा सेवाओं में मूल्य के आधार पर वसूला जाता है, जैसे- वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी), उत्पादन शुल्क, सीमा शुल्क आदि।
प्रत्यक्ष कर जिस व्यक्ति के द्वारा चुकाया जाता है वही उसका भार भी वहन करता है किन्तु अप्रत्यक्ष कर को जिस व्यक्ति के द्वारा चुकाया जाता है वह कर का भार अन्य व्यक्ति के ऊपर डाल सकता है। उदाहरण के लिए- वस्तु एवं सेवा कर का भुगतान किसी बिक्री पर विक्रेता या सेवा प्रदाता के द्वारा सरकार को किया जाता है किन्तु इसकी राशि बिल में जोड़ दी जाती है तथा क्रेता या उपभोक्ता द्वारा इसका वास्तविक भुगतान किया जाता है अर्थात् कर का भार विक्रेता द्वारा क्रेता को अन्तरित कर दिया जाता है। इस प्रकार उपभोक्ता या क्रेता अप्रत्यक्ष रूप से कर का भुगतान करता है।

आयकर के उद्देश्य

आयकर लगाये जाने के निम्नलिखित उद्देश्य होते हैं-

सरकार की आय का श्रोत
किसी भी देश में उसके व्ययों की पूर्ति, लोक कल्याण के कार्यों तथा राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए वृहद मात्रा में धन की आवश्यकता होती है। कर सरकार की आय का सबसे बड़ा श्रोत होता है। सरकार की करों से आय में आयकर का एक बड़ा भाग होता है।

राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति
देश की सरकार अपने विभिन्न कार्यक्रमों का संचालन करने के लिए आयकर का सहारा लेती है। यथा- प्रारम्भिक शिक्षा तथा उच्च शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार द्वारा विशेष उपकर लगाया गया है। पूर्व में करगिल युद्ध के समय भी इसी प्रकार धन उपलब्ध कराया गया था।

आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करना
सरकार आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करने के लिए अनेक उपायों को अपनाती है। आयकर की इन उपायों में विशेष भूमिका है। जिस क्षेत्र विशेष को प्रोत्साहित करना होता है, वहाँ कर में रियायतों की घोषणा कर दी जाती है। जैसे- विशेष आर्थिक क्षेत्र, मुक्त व्यापार क्षेत्र, निर्यात सम्बन्धी उद्योग आदि।

बचत व निवेश को नियन्त्रित करना
बचत एवं निवेश दो ऐसे यन्त्र हैं जिनके द्वारा देश की सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था को नियन्त्रित किया जा सकता है। सरकार अपनी आयकर नीति के द्वारा इन यन्त्रों को इस प्रकार संचालित करती है कि उसे व्यक्तिगत बचतों को प्रोत्साहित करने तथा उसे सुनियोजित स्थान पर निवेशित कराने में सफलता प्राप्त हो जाती है। मुद्रा स्फीति की दशा में बचतों को प्रोत्साहन दिया जाता है जबकि संकुचन की दशा में अधिकाधिक उपभोग को बढ़ावा दिया जाता है।

घरेलू उद्योगों को प्रोत्साहन
सरकार जिन उद्योगों को प्रोत्साहन देना चाहती है उन पर आयकर के अन्तर्गत विशेष रियायतें उपलब्ध कराती है। कुछ क्षेत्रों के उपभोक्ताओं को भी आकर्षित करने हेतु आयकर का प्रयोग किया जाता है। ढाँचागत उद्योग को प्रोत्साहन देने हेतु सरकार ने गृह ऋण को सुगम बनाया तथा आयकर के अन्तर्गत ऋण पर ब्याज की अदायगी तथा रकम वापसी के सम्बन्ध में धारा 80 के अन्तर्गत कटौती प्रदान की।

सामाजिक विषमताओं को कम करना
भारत में आयकर की दर प्रगतिगामी रखी गई है। इस व्यवस्था में धनवानों को अधिक कर चुकाना होता है तथा कम धनवानों को अपेक्षाकृत कम कर। निर्धन वर्ग को आयकर से मुक्त रखा गया है। अर्जित आयकर का प्रयोग निर्धनतम वर्ग के लिए सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए किया जाता है। आयकर का क्रम अमीर से गरीब की ओर तथा सुविधाओं का क्रम गरीब से अमीर की ओर रखा जाता है। इससे धनवानों के धन को निर्धन वर्ग से जोड़कर सामाजिक विषमताओं को कम किया जाता है।

पूँजी निर्माण
आयकर के द्वारा जनता को बचत की अनेक योजनाओं में धन निवेशित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। बचत की यह सूक्ष्म राशि सामूहिक स्तर पर डाकघर, सरकारी बैंकों, जीवन बीमा निगम तथा अन्य संस्थाओं के पास एकत्रित हो जाता है जो वृहद निवेश हेतु पूँजी निर्माण करती है। संस्थाओं द्वारा इसका प्रयोग औद्योगिक व व्यापारिक संस्थाओं को प्रारम्भ करने अथवा उन्हें मजबूत करने के लिए किया जाता है।

मूल्य स्थिरता
सरकार अर्थव्यवस्था में मूल्यों की स्थिरता लाने के उद्देश्य से भी आयकर को प्रयोग करती है। व्यक्तिगत स्तर पर उपभोग, बचत व निवेश को प्रभावित करने में आयकर की विशिष्ट भूमिका होती है। व्यक्तिगत स्तर का यह प्रभाव वृहद स्तर पर सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था को प्रभावित करता है।

आयकर के सिद्धान्त

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एडम स्मिथ के अनुसार कराधान के चार सिद्धान्त होते हैं। उक्त सिद्धान्त आयकर पर भी समान रूप से लागू होते हैं।

समानता का सिद्धान्त
समानता से आशय कर की समान धनराशि से न होकर समान भार से माना गया है। इसीलिए कर निर्धारण में धनिकों से अधिक तथा कम धनवानों से कम आयकर लिया जाता है। व्यक्तियों की करदान क्षमता के आधार पर ही कर का निर्धारण किया जाता है। इस प्रकार समानता का सिद्धान्त कर के माध्यम से समाज में समानता लाने का पक्षधर है।

सुनिश्चितता का सिद्धान्त
इस सिद्धान्त के अनुसार करदाता को उसकी करदेयता के सम्बन्ध में स्पष्ट जानकारी का होना आवश्यक है। कर निर्धारण का तरीका सरल, स्पष्ट तथा सुनिश्चित होना चाहिए। करदाता को वर्ष के प्रारम्भ में ही अपनी आय के आधार पर कर गणना का आधार, दर, भुगतान की तिथि आदि की जानकारी होनी चाहिए।

सुविधा का सिद्धान्त
सुविधा का सिद्धान्त एक प्रकार से सुनिश्चितता के सिद्धान्त का ही विस्तार है। इसमें यह अपेक्षा की जाती है करदाता को कर का भुगतान करने में जितनी आसानी होगी उतना ही कम कष्ट उसे करभार का होगा। श्रोत पर कर की कटौती इस दृष्टि से कर भुगतान को आसान बनाती है। कर के नकद भुगतान की अपेक्षा वेतन से कटौती करदाता को सुविधाजनक प्रतीत होती है।

मितव्ययिता का सिद्धान्त
कर के एकत्रीकरण में अनावश्यक धन का अपव्यय नहीं होना चाहिए। एकत्रीकरण में जितनी कम राशि व्यय होगी, वह एक प्रकार से कर की राशि में ही वृद्धि करेगी। दूसरे शब्दों में वसूली का व्यय जितना अधिक होगा कर का शुद्ध एकत्रीकरण उतना ही कम होगा। उपरोक्त के अतिरिक्त कर के सम्बन्ध में सरलता का सिद्धान्त, उत्पादकता का सिद्धान्त, लोचशीलता का सिद्धान्त, विविधता का सिद्धान्त आदि भी महत्वपूर्ण माने जाते हैं।

आयकर की प्रमुख विशेषताएं

आयकर की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

प्रत्यक्ष कर
आयकर एक प्रत्यक्ष कर है। यह करदाता की आय पर परिगणित किया जाता है तथा उसी के द्वारा चुकाया जाता है। आयकर के बोझ को करदाता द्वारा किसी अन्य पर नहीं डाला जा सकता है।

केन्द्रीय कर
करदाता द्वारा आयकर का भुगतान केन्द्र सरकार को करना होता है। इसकी गणना के नियम व परिनियम केन्द्र सरकार द्वारा बनाये जाते हैं तथा केन्द्र सरकार के आयकर विभाग के अधिकारी ही कर निर्धारण व वसूली आदि की कार्यवाही करते हैं।

शुद्ध करयोग्य आय के आधार पर गणना
आयकर की गणना शुद्ध कर योग्य आय पर की जाती है। इसके लिए विभिन्न श्रोतों से प्राप्त होने वाली आयों की पृथक गणना की जाती है तथा प्रत्येक के लिए निर्धारित नियमों के आधार पर आय ज्ञात कर कुल आय तथा तत्पश्चात निर्धारित छूट प्रदान करते हुए शुद्ध करयोग्य आय की गणना की जाती है। इसे कुल आय भी कहा जाता है। सकल आय में से धारा 80सी से लेकर 80यू तक की कटौतियों को घटाने के बाद इसे ज्ञात किया जाता है।

गतवर्ष की आय के आधार पर गणना
किसी कर निर्धारण वर्ष के लिए आय की गणना गतवर्ष की आय के आधार पर की जाती है। गतवर्ष से आशय 12 माह की उस अवधि से होता है जो कर निर्धारण वर्ष से ठीक पूर्व होती है। यह वो अवधि होती है जिसमें आय को अर्जित अथवा प्राप्त किया गया होता है। इसकी अवधि 1 अप्रेल से 31 मार्च होती है।

आय के विभिन्न श्रोतों पर कर की गणना
आयकर की गणना के लिए आय के पॉच श्रोत निर्धारित किये गये हैं। ये हैं-
  • वेतन से आय,
  • मकान सम्पत्ति से आय,
  • व्यवसाय अथवा पेशे से आय,
  • पूँजी लाभ तथा
  • अन्य श्रोतों से आय।
वेतन से आय के अन्तर्गत सभी प्रकार के वेतनभोगियों को उनके नियोक्ता से प्राप्त वेतन, भत्ते, अनुलाभ व सुविधाओं के मूल्यों को सम्मिलित किया जाता है। इसके अतिरिक्त उनके अवकाश प्राप्ति, मृत्यु, छंटनी आदि अवस्था में पेंशन, अनुग्रह राशि व अन्य भुगतानों को भी सम्मिलित किया जाता है। मकान सम्पत्ति से आय के अन्तर्गत मकान के किराये से प्राप्त राशि को सम्मिलित किया जाता है चाहे यह किराया आवासीय भवन से हो अथवा व्यावसायिक भवन से। व्यवसाय व पेशे से आय की श्रेणी में सभी प्रकार की व्यापारिक व निर्माणी इकाइयों तथा पेशों (अधिवक्ता, सनदी लेखाकार, चिकित्सक आदि) की आय को सम्मिलित किया जाता है। पूँजी आय के अन्तर्गत किसी भी प्रकार की सम्पत्ति के मूल्य में होने वाली अल्पकालीन अथवा दीर्घकालीन वृद्धि से होने वाले लाभों को सम्मिलित किया जाता है। उपरोक्त चार श्रोतों के अतिरिक्त किसी भी अन्य मद से होने वाली आय को अन्य श्रोतों से आय की श्रेणी में रखा जाता है। इस श्रेणी में लाभांश, प्रतिभूतियों व बैंक खातों पर होने वाली ब्याज की आय, सम्पत्तियों को किराये पर देने की आय, उप किराया आय के अतिरिक्त लाटरी आदि से होने वाली आकस्मिक आय आदि को भी सम्मिलित किया जाता है। सांसदों व विधायकों के वेतन तथा अधोषित आय को भी अन्य श्रोतों की आय माना जाता है।
उपरोक्त समस्त आयों तथा उन पर आयकर की गणना का विस्तृत विवरण आगामी अध्यायों में प्रस्तुत किया गया है।

व्यक्ति, फर्म, कम्पनी आदि के लिए आयकर की पृथक गणना
आयकर की गणना के लिए व्यक्ति शब्द के अन्तर्गत किसी व्यक्ति, हिन्दू अविभाजित परिवार, कम्पनी, फर्म, व्यक्तियों के समूह, स्थानीय सत्ता तथा विधि द्वारा सृजित कृत्रिम व्यक्ति सम्मिलित होते हैं। आयकर की गणना के लिए व्यक्तियों, व्यावसायिक संस्थाओं व पेशेवरों तथा कम्पनी के लिए पृथक प्रावधान किये गये हैं तथा उन्हीं के आधार पर उन्हें कतिपय छूट भी प्रदान की गई हैं। अतः आयकर की गणना उनकी प्रास्थिति के आधार पर ही की जाती है।

कर की दरों में आय, आयु, लिंग के आधार पर भिन्नता
भारतीय आयकर नियमों में आयकर का निर्धारण करने के लिए भिन्न वर्गों के लिए भिन्न दर निर्धारित की गई हैं। आयकर को इस प्रकार खण्डों में बॉटा गया है कि व्यक्तिगत करदाताओं तथा व्यावसायिक करदाताओं के लिए कर की दरों में भिन्नता रखी गई है। व्यक्तिगत आयकर दाताओं में अधिक आय वाले निर्धारिती को कर का भार अधिक सहना होता है। इसे प्रगतिशील कर की दर के रूप में जाना जाता है। वयोवृद्ध निर्धारिती के लिए कर की दर में रियायत दी गई है। महिला करदाताओं को भी पूर्व में कर की दरों में कमी की गई थी जो वर्तमान में समाप्त कर दी गई है।
आयकर निर्धारण वर्ष 2018-19 के लिए कर की दरें निम्नवत हैं-
60 वर्ष से कम आयु के पुरूष एवं महिला वर्ग के व्यक्तिगत करदाताओं, अविभाजित हिन्दू परिवार, व्यक्तियों के समूह, अनिवासियों तथा न्यायिक कृत्रिम व्यक्तियों के लिए-
करयोग्य आय कर की दर
2,50,000 तक शून्य
2,50,000 से 5,00,000 तक 5 प्रतिशत
5,00,000 से 10,00,000 तक 20 प्रतिशत
10,00,000 से अधिक 30 प्रतिशत

60 वर्ष से अधिक किन्तु 80 वर्ष से कम आयु के पुरूष एवं महिला करदाताओं के लिए-
करयोग्य आय कर की दर
3,00,000 तक शून्य
3,00,000 से 5,00,000 तक 5 प्रतिशत
5,00,000 से 10,00,000 तक 20 प्रतिशत
10,00,000 से अधिक 30 प्रतिशत

80 वर्ष या अधिक आयु के पुरूष एवं महिला करदाताओं के लिए-
करयोग्य आय कर की दर
5,00,000 तक शून्य
5,00,000 से 10,00,000 तक 20 प्रतिशत
10,00,000 से अधिक 30 प्रतिशत

संयुक्त हिन्दू परिवार, व्यक्तियों के समूह आदि के लिए कर की दरें सामान्य व्यक्तियों के समान होती हैं चाहें उनके सदस्यों की आयु या लिंग कुछ भी हो। व्यावसायिक फर्मों में भी कर की दरों में भिन्नता है। साझेदारी फर्मों के लिए आयकर की दर 30 प्रतिशत है। भारतीय कम्पनी के लिए भी कर की सामान्य दर 30 प्रतिशत है किन्तु जिन कम्पनियों की वार्षिक बिक्री/सकल प्राप्तियाँ रू0 50 करोड़ से अधिक नहीं है उनके लिए यह दर 25 प्रतिशत होती है। विदेशी कम्पनियों के लिए आयकर की दर 40 प्रतिशत है।
इस प्रकार, विभिन्न प्रकार के करदाताओं के लिए कर की दर अलग-अलग होती है तथा इसे प्रत्येक वर्ष पुनरीक्षित किया जाता है। इसकी दरों के साथ ही करदाताओं के वर्गीकरण में भी समय-समय पर परिवर्तन होता रहता है।

कर पर अधिभार तथा उपकर का प्रावधान
सरकार आयकर पर निर्धारित दर के अतिरिक्त अधिभार (सरचार्ज) भी निश्चित कर सकती है। विशिष्ट करदाताओं से अतिरिक्त दरों पर आयकर प्राप्त किया जा सकता है। वर्तमान में रू0 50 लाख से अधिक आय वाले करदाताओं के लिए 10 प्रतिशत तथा 1 करोड़ से अधिक आय वालों के लिए 15 प्रतिशत अधिभार लगाया जाता है। इसके अतिरिक्त उपकर (सैस) की व्यवस्था भी निर्धारित है। उपकर कर की राशि पर किसी निश्चित दर पर किसी निश्चित उद्देश्य के लिए लगाए जाते हैं। इन्हें लगाने का उद्देश्य किसी कार्य विशेष के लिए धनराशि एकत्रित करना होता है। वर्तमान में शिक्षा के लिए 2 प्रतिशत तथा माध्यमिक व उच्च शिक्षा के लिए 1 प्रतिशत उपकर की व्यवस्था लागू है।

आवश्यक छूटों का प्रावधान
आयकर अधिनियम में कुछ विशिष्ट छूटों का भी प्रावधान किया गया है। धारा 80 की अनेक उपधाराओं में विभिन्न प्रकार की छूटों का प्रावधान किया गया है जो कि किसी करदाता को राहत प्रदान करती हैं। जीवन बीमा प्रीमियम, भविष्य निधि अंशदान, पारस्परिक निधि में निवेश आदि (80सी), स्वास्थ्य बीमा प्रीमियम (80डी), उच्च शिक्षा ऋण पर ब्याज (80ई), विशिष्ट संस्थाओं को दान (80जी) आदि अनेकों ऐसे कारण हैं जिनके लिए आयकर में छूट प्राप्त होती है। इनका विस्तृत विवरण सम्बन्धित अध्याय में दिया गया है। इसके अतिरिक्त आयकर में मानक कटौती जैसे प्रावधानों को भी समय-समय पर जोड़ा जाता रहा है।

करमुक्त आयों का प्रावधान
भारतीय आयकर कानूनों में कुछ आयों को करमुक्त श्रेणी में रखा गया है। कृषि आय (10.1), अविभाजित हिन्दू परिवार से प्राप्त आय (10.2), फर्म की आय में साझेदार का भाग (10.2ए), मुक्त व्यापार क्षेत्र व विशिष्ट व्यापार क्षेत्र में स्थापित उद्यमों की आय (10ए तथा 10एए), विशिष्ट प्रतिभूतियों पर प्राप्त ब्याज (10.15), घरेलू कम्पनी से प्राप्त लाभांश (10.34) आदि अनेकों ऐसी आयें हैं जिन्हें करमुक्त आय की श्रेणी में रखा गया है।

भारत में आयकर का संक्षिप्त इतिहास

भारत में कर का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है। महाकवि कालीदास ने मेघदूत में राजा दलीप के संदर्भ में लिखा है कि जिस प्रकार से सूर्य जमीन से नमी सोखकर इसे कई हजार गुना करके वापस कर देता है उसी प्रकार से राजा अपनी प्रजा से करों की वसूली करके इसे प्रजा के ही कार्यों में लगा देता है। कौटिल्य के इतिहास में भी सार्वजनिक वित्त तथा कराधान प्रणाली को पर्याप्त महत्व प्रदान किया गया है। अकबर काल में टोडरमल के राजस्व व भू सुधार सम्बन्धी अभिलेखों में कराधान को स्थान दिया गया है।
वर्तमान आयकर प्रणाली का अध्ययन करने के लिए इसे दो कालखण्डों में बॉटा जा सकता है

स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व का काल
भारत में प्रथम बार आयकर सन् 1860 में सर जेम्स विल्सन के द्वारा ब्रिटिश काल में लगाया गया। इसमें 1863, 1867, 1873 तथा 1880 में विभिन्न संशोधन किये गये। इसके बाद एक नया आयकर अधिनियम 1886 में लाया गया। इस अधिनियम में भी अनेक बाद संशोधन किये जाते रहे। विभिन्न राजनीतिक व वित्तीय संकटों को दृष्टिगत रखते हुए तथा राष्ट्रीय महत्व के अनेक विषयों को समाहित करते हुए सन् 1918 में आयकर अधिनियम 1918 लागू किया गया। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद चरमराई स्थिति को संभालने के लिए इसमें परिवर्तन अपरिहार्य थे। सन् 1918 के आयकर अधिनियम को भी शीघ्र ही नया स्वरूप देते हुए आयकर अधिनियम 1922 लागू किया गया जो कि कतिपय संशोधनों के साथ स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय तक भारत में लागू रहा।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद का काल
15 अगस्त 1947 को देश की स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी समय-समय पर गठित अनेकों समितियों के द्वारा दिये गये सुधारों के आधार पर आयकर सुधारों का सिलसिला जारी रहा। स्वतन्त्र भारत में प्रथम बार आयकर अधिनियम 1961 पारित किया गया जोकि 1 अप्रेल 1962 से लागू किया गया। यह अधिनियम सम्पूर्ण भारत में लागू है।
आयकर अधिनियम 1961 के बाद भी आयकर नियमों, वित्त अधिनियम, केन्द्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड व केन्द्र सरकार के निर्देशों के माध्यम से समय-समय पर अनेक सुधारों का क्रम जारी रहा। विभिन्न न्यायालयों के फैसलों ने भी इसमें सुधारों का मार्ग प्रशस्त किया। सन् 1987 में विभिन्न वार्षिक प्रणालियों के स्थान पर एक वित्तीय वर्ष अप्रेल-मार्च अपनाये जाने का फैसला लिया गया। सन् 1990 में सिक्किम को भी आयकर के दायरे में सम्मिलित कर लिया गया।

आयकर की प्रमुख अवधारणाएं

आयकर का अध्ययन करने के लिए निम्नलिखित अवधारणाओं की जानकारी प्राप्त करना आवश्यक है-

कर निर्धारण वर्ष
आयकर अधिनियम 1961 की धारा 2(9) के अनुसार कर निर्धारण वर्ष 1 अप्रेल से प्रारम्भ तथा 31 मार्च को पूर्ण होने वाली 12 माह की अवधि होती है। आयकर विभाग द्वारा जिस वर्ष में आयकर की गणना की जाती है वह कर निर्धारण वर्ष होता है। किसी कर निर्धारण वर्ष में उससे ठीक पूर्व के वित्तीय वर्ष अर्थात् गतवर्ष की आय पर कर का निर्धारण किया जाता है।

गतवर्ष
किसी कर निर्धारण वर्ष के लिए आयकर का निर्धारण गतवर्ष की आय के आधार पर किया जाता है। गतवर्ष से आशय 12 माह की उस अवधि से है जिसमें आय को अर्जित अथवा प्राप्त किया जाता है। कर निर्धारण वर्ष 1 अप्रैल से प्रारम्भ होकर 31 मार्च तक को पूर्ण होता है। कर निर्धारण वर्ष से तुरन्त पूर्व की 12 माह की अवधि को गतवर्ष कहा जाता है। उदाहरण के लिए कर निर्धारण वर्ष 2018-19 के लिए गतवर्ष 2017-18 (1 अप्रेल 2017 से 31 मार्च 2018) होगा।

व्यक्ति
आयकर अधिनियम की धारा 2(31) के अनुसार व्यक्ति में निम्न को सम्मिलित किया जाता है- व्यक्ति (अभय कुमार, मनस्वी पाठक आदि), हिन्दू अविभाजित परिवार, कम्पनी (भारतीय कम्पनी अधिनियम के अन्तर्गत गठित), फर्म (साझेदारी), व्यक्तियों का समूह (सहकारी समूह- नाफेड), स्थानीय निकाय (नगर पंचायत, नगर महापालिका, जिला परिषद, कैण्टोनमेन्ट बोर्ड, पोर्ट ट्रस्ट आदि), कृत्रिम वैधानिक व्यक्ति (विश्वविद्यालय, भारतीय रिजर्व बैंक आदि)। इस प्रकार आयकर की दृष्टि में वे सभी जीवित (पुरूष, स्त्री, अवयस्क आदि) व कृत्रिम इकाइयाँ (फर्म, कम्पनी, सहकारी संस्था आदि) व्यक्ति की श्रेणी में सम्मिलित हैं जो आय अर्जित करते हैं।

कर निर्धारिती
वह व्यक्ति जिसकी आय पर कर का निर्धारण किया जाता है, कर निर्धारण की प्रक्रिया की जाती है, आयकर पर ब्याज अथवा दण्ड का निर्धारण किया जाता है, उसे कर निर्धारिती कहते हैं। कर निर्धारण के माने गये अर्थात् डीम्ड निर्धारिती को भी निर्धारिती की श्रेणी में रखा जाता है। कर निर्धारण वर्ष 2006-07 से अतिरिक्त लाभ (फिज बेनिफिट) के निर्धारण से सम्बन्धित निर्धारिती की भी इस श्रेणी में रखा जाने लगा है। किसी अन्य व्यक्ति की आय पर आयकर देने के लिए उत्तरदायी व्यक्ति भी डीम्ड एसेसी या माने गये कर निर्धारिती कहलाते हैं।

आय का वर्गीकरण

आयकर का केन्द्र बिन्दु आय ही है किन्तु आयकर अधिनियम में इसकी कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं दी गई है तथापि उन मदों का विवरण दिया गया है जिन्हें आय की श्रेणी में रखा जाता है। वेतन, मजदूरी, किराया, ब्याज, आयगत तथा पूँजीगत लाभ, फीस, अनुदान, रायल्टी, वसूली आदि अनेकों मदों की आयों को इसमें सम्मिलित किया जाता है। यह आय मौद्रिक अथवा अमौद्रिक (अनुलाभ) प्रकृति की हो सकती है। आयकर की दृष्टि से नैतिक व अनैतिक किसी भी प्रकार से अर्जित आय को आयकर निर्धारण के लिए प्रयोग किया जाता है। आय नियमित हो सकती है अथवा अनियमित भी। आकस्मिक आय व उपहार भी आयकर निर्धारण के लिए आय में सम्मिलित किये जाते हैं। अध्ययन की दृष्टि से आय को पाँच विभिन्न शीर्षकों में बॉटा गया है

वेतन से आय
इस मद के अन्तर्गत वेतन से प्राप्त होने वाली आय को सम्मिलित किया जाता है। वेतन से आय में नियोक्ता द्वारा अपने कर्मचारी को दिया जाने वाला कोई भी भुगतान सम्मिलित हो सकता है। इसके अन्तर्गत वेतन या मजदूरी के साथ बोनस, कमीशन, भत्ते, वेतन के स्थान पर लाभ तथा अनुलाभों (मुफ्त मकान, बिजली, नौकर, बच्चों की शिक्षा आदि) के मूल्य को जोड़ा जाता है। कर्मचारी को सेवा निवृत्ति अथवा निष्कासन पर मिलने वाली राशि (अवकाश नकदीकरण, ग्रेच्युटी, पेंशन, एकमुश्त राशि, भविष्य निधि आदि) को भी इसी आय के प्रावधानों में रखा गया है।

मकान सम्पत्ति से आय
मकान के किराये से प्राप्त होने वाली आय को इस शीर्षक में रखा जाता है। सम्पूर्ण मकान अथवा उसके एक भाग को किराये पर उठाने अथवा उपकिराये पर दिये जाने से होने वाली आय को ज्ञात करने के लिए आयकर अधिनियम में विविध प्रावधान दिये गये हैं किन्तु मकान को पेइंग गेस्ट के रूप में किराये पर देना इस शीर्षक में करयोग्य नहीं है। इसी प्रकार, यदि भवन के साथ मशीन व फर्नीचर आदि भी इस प्रकार दिया जा रहा है जिसे अलग करना संभव नहीं है तो इसे भी मकान सम्पत्ति के आय में सम्मिलित नहीं किया जाता है। आयकर अधिनियम में स्वयं के रहने के मकान के सम्बन्ध में अनेक छूट प्रदान की गई हैं।

व्यापार अथवा पेशे से लाभ व आय
किसी भी प्रकार की व्यापारिक इकाई को होने वाले लाभों तथा पेशेवर फर्मों की आय को इस शीर्षक के अन्तर्गत रखा जाता है। व्यापारिक इकाइयों में उत्पादक, व्यापारिक, सेवा प्रदाता अथवा अन्य को सम्मिलित किया जा सकता है। इसमें एकल, साझेदारी, संयुक्त उपक्रम, कम्पनी आदि सम्मिलित हो सकती हैं किन्तु कुछ आयों को इस शीर्षक में सम्मिलित नहीं किया जाता है, जैसे- मकान को किराये पर देने से आय, अंश अथवा ऋणपत्रों से आय आदि। पेशेवर व्यक्तियों/संस्थाओ की आय को भी इसी शीर्षक में रखा गया है, जैसे- सनदी लेखाकार (चार्टर्ड एकाउन्टेन्ट), चिकित्सक, अधिवक्ता आदि ।

पूँजी लाभ
पूँजीगत सम्पत्तियों के हस्तांतरण पर होने वाले लाभ को पूँजी लाभ की श्रेणी में रखा जाता है। इसमें स्थाई अथवा अस्थाई, भौतिक अथवा अभौतिक, दृष्य अथवा अदृष्य सभी प्रकार की सम्पत्तियों को सम्मिलित किया जाता है। भूमि, भवन, मशीन, फर्नीचर, आभूषण, अंश, ऋणपत्र, व्यापारिक ख्याति, पट्टे, लाइसेन्स आदि के हस्तांतरण से होने वाली आय को पूँजी लाभ में सम्मिलित किया जाता है किन्तु व्यापारिक स्टॉक के अन्तरण से आय इसमें सम्मिलित नहीं होती है।

अन्य श्रोतों से आय
उपरोक्त चार शीर्षकों के अन्तर्गत सम्मिलित न होने वाली समस्त आय मदों को इस शीर्षक के अन्तर्गत सम्मिलित किया जाता है। इसके अन्तर्गत मुख्यतः लाभांश, ब्याज, मानदेय, रायल्टी, जुए या सट्टे का आय, सांसदों व विधायकों का वेतन, उपहार, घुड़दौड़, उपकिराया आदि से प्राप्त आय सम्मिलित की जाती है। आकस्मिक आय पर कर निर्धारण भी इसी शीर्षक के प्रावधानों के अन्तर्गत किया जाता है। कोई भी अज्ञात श्रोत से आय को भी इस शीर्षक के अन्तर्गत ही रखा जाता है।

सकल कुल आय
उपरोक्त वर्णित पॉचों मदों से प्राप्त आय के कुल योग को निर्धारिती की गत वर्ष की सकल कुल आय कहा जाता है। इसे ज्ञात करने के लिए प्रत्येक शीर्षक के अन्तर्गत आय का आकलन अलग-अलग किया जाता है। प्रत्येक शीर्षक में आय की गणना के लिए नियम निर्धारित हैं जिनके आधार पर किसी विशिष्ट आय को पूर्णतः या अंशत सम्मिलित करने या छूट देने का प्रावधान निर्धारित किया गया है। कुछ आयों को धारा 10 के अन्तर्गत करों से मुक्त रखा गया है, वे सकल कुल आय की गणना में सम्मिलित नहीं होती हैं।
यदि किसी व्यक्ति की आय केवल एक ही शीर्षक के अन्तर्गत है तो उक्त शीर्षक की आय ही उसकी सकल कुल आय होगी।

शुद्ध करयोग्य आय
सकल कुल आय ज्ञात करने के बाद उसमें से आयकर अधिनियम की धारा 80सी से लेकर 80यू तक की कटौतियों को घटाने के बाद आने वाली आय को शुद्ध करयोग्य आय कहा जाता है। इसे कुल आय भी कहते हैं। उपरोक्त कटौतियों को प्राप्त करने के लिए निर्धारिती को अपने आयकर विवरण में छूट हेतु दावा प्रस्तुत करना होता है तथा आवश्यक साक्ष्य भी देने होते हैं। इन छूटों के अन्तर्गत विशिष्ट प्रतिभूतियों, भविष्य निधि आदि में निवेश पर ब्याज (80सी), चिकित्सा व्ययों की प्रतिपूर्ति (80डी), विशिष्ट संस्थाओं को दिये जाने वाले दान (80जी), उच्च शिक्षा के लिए ऋण पर ब्याज (80ई), विज्ञान तथा उद्योगों के शोध व विकास हेतु संस्थानों, होटलों आदि के लाभ (80 आईबी) आदि के सम्बन्ध में छूट के प्रावधान हैं जिन पर आगामी अध्यायों में विस्तार से वर्णन किया गया है।

सकल कुल आय व शुद्ध करयोग्य आय में अन्तर
सकल कुल आय तथा शुद्ध करयोग्य आय (कुल आय) में अन्तर को निम्नप्रकार से प्रस्तुत किया जा सकता है-
अन्तर का आधार सकल कुल आय शुद्ध करयोग्य आय
क्षेत्र सकल कुल आय ज्ञात करने के लिए आय की पाँचों मदों की करयोग्य आय का योग किया जाता है। शुद्ध करयोग्य आय ज्ञात करने के लिए सकल कुल आय से छूटों को घटाया जाता है।
धारा 80 की छूट सकल कुल आय में धारा 80 के अन्तर्गत अनुमन्य छूटों को घटाया नहीं जाता है। शुद्ध करयोग्य आय धारा 80 की छूट प्रदान करने के बाद प्राप्त होती है।
आय का पूर्णांकन सकल कुल आय का पूर्णांकन नहीं किया जाता है। शुद्ध करयोग्य आय को 10 रूपये में पूर्णांकित जाता है।
सम्बन्ध सकल कुल आय शुद्ध करयोग्य आय के बराबर या अधिक होती है किन्तु कम नहीं हो सकती है। शुद्ध करयोग्य आय कभी भी सकल कुल आय से अधिक नहीं हो सकती।
कर का निर्धारण सकल कुल आय पर कर का निर्धारण नहीं किया जाता है। कर का निर्धारण सदैव शुद्ध करयोग्य आय की राशि पर किया जाता है।

आयकर निर्धारण की प्रक्रिया

किसी व्यक्ति पर आयकर निर्धारण करने के लिए निम्नलिखित प्रक्रिया अपनाई जाती है-
सर्वप्रथम, उपरोक्त वर्णित पाँचों शीर्षकों (वेतन से आय, मकान सम्पत्ति से आय, व्यापार एवं पेशे से आय, पूँजी लाभ तथा अन्य श्रोतों से आय) की आय को सम्बन्धित शीर्षकों के अन्तर्गत अनुमन्य छूट प्रदान करते हुए अलग-अलग ज्ञात किया जाता है। उपरोक्त विधि से ज्ञात पाँचों शीर्षकों की आय के योग को सकल कुल आय कहा जाता है। (इसमें मानी गई आयों को जोड़ा जाता है किन्तु पूर्णतः करमुक्त आयों को छोड़ दिया जाता है।)
सकल कुल आय में से धारा 80सी से 80 यू तक की कटौतियों को घटाकर कुल आय अथवा शुद्ध करयोग्य आय ज्ञात की जाती है। (कर चोरी रोकने के लिए धारा 60 से 65 तथा 68 से 69डी के आयकर के प्रावधानों के अनुरूप अन्य व्यक्तियों की आय को इसमें जोड़ दिया जाता है।)
यदि निर्धारिती की आय न्यूनतम करयोग्य आय की सीमा से अधिक है तो उस पर निर्धारित दरों के अनुसार आय की विभिन्न सीमाओं के आधार पर अलग-अलग दरों से आयकर ज्ञात किया जाता है। आयकर की राशि की गणना की जाती है। यह सकल आयकर कहलाता है। न्यूनतम आय की सीमा विभिन्न व्यक्तियों यथा- पुरूष, स्त्री, वृद्ध आदि के लिए अलग हो सकती है। व्यापार, पूँजी लाभ आदि के लिए अलग-अलग गणना की जाती है।
सकल आयकर में से अग्रिम चुकाये गये कर तथा उद्गम स्थान पर की गई कर की कटौती की राशि को घटा दिया जाता है। इस प्रकार शुद्ध देय आयकर की राशि ज्ञात कर ली जाती है। यदि आयकर दायित्व से अधिक धनराशि कर के रूप में जमा कर दी गई हो तो आधिक्य की राशि आयकर विभाग द्वारा वापस कर दी जाती है।

कृषि आय
भारत में कृषि आय को आयकर से मुक्त रखा गया है। इसके लिए कृषि आय तथा अकृषि आय से सम्बन्धित मानकों का पूर्ण होना आवश्यक है। इसके सम्बन्ध में आगामी इकाइयों में चर्चा की गई है।
आयकर अधिनियम 1965 की धारा 2(1ए) के अनुसार कृषि आय से आशय निम्न आय से है-
  • ऐसी भूमि पर प्राप्त किराया अथवा आय जो कि भारत में स्थित हो तथा उस पर कृषि सम्बन्धी गतिविधियाँ संचालित होती हों।
  • कृषि उत्पाद को बाजार में विपणन योग्य बनाने हेतु प्रसंस्करण आदि से आय ।
  • कृषि भूमि पर स्थित भवन में कृषि उत्पाद के संग्रहण अथवा निवासीय उपयोग से आय।
  • पौधशाला में पेड़ पौधे उगाने से आय ।
  • कृषि उत्पादों के विपणन से आय।

कृषि आय की विशेषताएं
कृषि आय की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
  1. कृषि आय भूमि से प्राप्त होनी चाहिए।
  2. कृषि भूमि भारत में स्थित होनी चाहिए।
  3. भूमि कृषि कार्यों के लिए प्रयुक्त होनी चाहिए।
  4. कृषि भूमि पर उसके स्वामी अथवा किरायेदार का हित होना चाहिए।
  5. मात्र कृषि कार्यों से सम्बन्धित होना कृषि आय होने का प्रमाण नहीं। पशु पालन व प्रजनन, डेयरी, मुर्गी पालन, चारा उगाना, लाख की खेती, खानों आदि से आय कृषि आय नहीं हैं।
  6. पौधशालाओं की आय भी कृषि आय है चाहे उस पर कृषि क्रिया की गई हो अथवा नहीं।

आकस्मिक आय
आकस्मिक आय से आशय उस आय से होता है जो कि निर्धारिती को सम्बन्धित गतवर्ष की अवधि में अकस्मात प्राप्त हो गई हो, जिसके प्राप्त होने का कोई पूर्वानुमान नहीं था तथा इसके पुनः प्राप्त होने की भी कोई सुनिश्चितता नहीं है। आकस्मिक आय के अन्तर्गत सामान्यतः निम्नलिखित आयों को सम्मिलित किया जाता है-
  1. लॉटरी से आय,
  2. घुडदौड से आय,
  3. वर्ग पहेली से आय,
  4. शर्त लगाने से आय,
  5. ईनाम आदि से होने वाली आय

आकस्मिक आय की विशेषताएं
  • आकस्मिक आय का कोई सुनिश्चित श्रोत नहीं होता है।
  • यह अकस्मात प्राप्त होती है।
  • इसका कोई पूर्वानुमान नहीं होता है।
  • इसके पुनः बार-बार प्राप्त होने की सुनिश्चित संभावना नहीं होती।
  • आकस्मिक आय पर अन्य श्रोतों से आय मद के अन्तर्गत आयकर का निर्धारण किया जाता है।
आयकर की दृष्टि से घुडदौड़ से आय की दशा में रू0 2,500 तथा अन्य दशा में रू0 5,000 तक की आकस्मिक आय कर से मुक्त होती है। शेष राशि को आयकर की गणना के लिए अन्य श्रोतों से आय शीर्षक में रखा जाता है। आकस्मिक आय पर 30 प्रतिशत की दर से आयकर लगाया जाता है। आकस्मिक हानियों को आकस्मिक लाभ से समायोजित करने का प्रावधान नहीं है। साथ ही यदि आकस्मिक आय को प्राप्त करने में कोई व्यय किया गया है तो उसे भी समायोजित नहीं करना है।

सारांश

आयकर एक प्रत्यक्ष कर है। करदाता द्वारा आयकर का भुगतान केन्द्र सरकार को करना होता है। आयकर की गणना शुद्ध करयोग्य आय पर की जाती है। इसके लिए विभिन्न श्रोतों से प्राप्त होने वाली आयों की पृथक गणना की जाती है तथा प्रत्येक के लिए निर्धारित नियमों के आधार पर आय ज्ञात कर कुल आय तथा तत्पश्चात निर्धारित छूट प्रदान करते हुए शुद्ध करयोग्य आय की गणना की जाती है।
इसे कुल आय भी कहा जाता है। सकल आय में से धारा 80सी से लेकर 80यू तक की कटौतियों को घटाने के बाद इसे ज्ञात किया जाता है। किसी कर निर्धारण वर्ष के लिए आय की गणना गतवर्ष की आय के आधार पर की जाती है। गतवर्ष से आशय 12 माह की उस अवधि से होता है जो कर निर्धारण वर्ष से ठीक पूर्व होती है। यह वो अवधि होती है जिसमें आय को अर्जित अथवा प्राप्त किया गया होता है। इसकी अवधि 1 अप्रेल से 31 मार्च होती है।
आयकर की गणना के लिए आय के पॉच श्रोत निर्धारित किये गये हैं। ये हैं-1. वेतन से आय, 2. मकान सम्पत्ति से आय, 3. व्यवसाय अथवा पेशे से आय, 4. पूँजी लाभ तथा 5. अन्य श्रोतों से आय। वेतन से आय के अन्तर्गत सभी प्रकार के वेतनभोगियों को उनके नियोक्ता से प्राप्त वेतन, भत्ते, अनुलाभ व सुविधाओं के मूल्यों को सम्मिलित किया जाता है। इसके अतिरिक्त उनके अवकाश प्राप्ति, मृत्यु, छंटनी आदि अवस्था में पेंशन, अनुग्रह राशि व अन्य भुगतानों को भी सम्मिलित किया जाता है। मकान सम्पत्ति से आय के अन्तर्गत मकान के किराये से प्राप्त राशि को सम्मिलित किया जाता है चाहे यह किराया आवासीय भवन से हो अथवा व्यावसायिक भवन से। व्यवसाय व पेशे से आय की श्रेणी में सभी प्रकार की व्यापारिक व निर्माणी इकाइयों तथा पेशों (अधिवक्ता, सनदी लेखाकार, चिकित्सक आदि) की आय को सम्मिलित किया जाता है। पूँजी आय के अन्तर्गत किसी भी प्रकार की सम्पत्ति के मूल्य में होने वाली अल्पकालीन अथवा दीर्घकालीन वृद्धि से होने वाले लाभों को सम्मिलित किया जाता है। उपरोक्त चार श्रोतों के अतिरिक्त किसी भी अन्य मद से होने वाली आय को अन्य श्रोतों से आय की श्रेणी में रखा जाता है। इस श्रेणी में लाभांश, प्रतिभूतियों व बैंक खातों पर होने वाली ब्याज की आय, सम्पत्तियों को किराये पर देने की आय, उप बैंक खातों पर होने वाली ब्याज की आय, सम्पत्तियों को किराये पर देने की आय, उप किराया आय के अतिरिक्त लाटरी आदि से होने वाली आकस्मिक आय आदि को भी सम्मिलित किया जाता है। सांसदों व विधायकों के वेतन तथा अधोषित आय को भी अन्य श्रोतों की आय माना जाता है।
भारतीय आयकर नियमों में आयकर का निर्धारण करने के लिए भिन्न वर्गों के लिए भिन्न दर निर्धारित की गई हैं। आयकर को इस प्रकार खण्डों में बॉटा गया है कि व्यक्तिगत करदाताओं तथा व्यावसायिक करदाताओं के लिए कर की दरों में भिन्नता रखी गई है। व्यक्तिगत आयकर दाताओं में अधिक आय वाले निर्धारिती को कर का भार अधिक सहना होता है। इसे प्रगतिशील कर की दर के रूप में जाना जाता है। वयोवृद्ध निर्धारिती के लिए कर की दर में रियायत दी गई है।
भारत में कर का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है। प्राचीन ग्रंथों में भी राजाओं द्वारा आयकर वसूले जाने का उल्लेख मिलता है। भारत में आधुनिक रूप में आयकर प्रथम बार सन् 1860 में सर जेम्स विल्सन के द्वारा ब्रिटिश काल में लगाया गया। इस अधिनियम की नियमित समीक्षा की जाती है तथा प्रत्येक वर्ष इसमें आवश्यकतानुसार आवश्यक परिवर्तन किये जाते हैं। सन् 1860 के बाद एक नया आयकर अधिनियम 1886 में लाया गया। तत्पश्चात सन् 1918 में आयकर अधिनियम को नया स्वरूप दिया गया। पुनः सम्यक परिवर्तनों के साथ आयकर अधिनियम 1922 लागू किया गया जो कि कतिपय संशोधनों के साथ स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय तक भारत में लागू रहा।
स्वतन्त्र भारत में प्रथम बार आयकर अधिनियम 1961 पारित किया गया जोकि 1 अप्रेल 1962 से लागू किया गया। यह अधिनियम सम्पूर्ण भारत में लागू है।

शब्दावली

आयकर
किसी व्यक्ति की गतवर्ष की आय पर सरकार द्वारा वसूला जाने वाला कर।

प्रत्यक्ष कर
कर जो करदाता की आय पर परिगणित किया जाता है तथा उसी के द्वारा चुकाया व वहन किया जाता है।

अप्रत्यक्ष कर
कर जो करदाता द्वारा चुकाया जाता है किन्तु जिसका भार किसी अन्य को हस्तांतरित कर दिया जाता है।

सकल आय
विभिन्न पाँचों मदों से प्राप्त आयों का योग।

कुल आय
सकल आय में से धारा 80 की अनुमन्य छूट घटाने के बाद शेष राशि।

शुद्ध करयोग्य आय
कुल आय का ही अन्य नाम।

कर निर्धारण वर्ष
वह वर्ष जिसके लिये आयकर का परिकलन किया जाता है।

गत वर्ष
कर निर्धारण वर्ष से ठीक पूर्व का वर्ष जिसमें अर्जित व प्राप्त आय पर आयकर की गणना की जाती है।

व्यक्ति
आयकर अधिनियम में जिसकी आय पर आयकर की गणना की जाती है। इसमें व्यक्ति, फर्म, कम्पनी, संयुक्त हिन्दू परिवार आदि सम्मिलित है।

निर्धारिती
वह व्यक्ति जिसकी आय पर कर का निर्धारण किया जाता है, कर निर्धारण की प्रक्रिया की जाती है, आयकर पर ब्याज अथवा दण्ड का निर्धारण किया जाता है, उसे कर निर्धारिती कहते हैं।

माना गया निर्धारिती
वह व्यक्ति जिस पर किसी अन्य की आय पर आयकर देने का दायित्व है।

अधिभार
आयकर के ऊपर अतिरिक्त दर से वसूला जाने वाला कर ।

उपकर
किसी विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए आयकर के अतिरिक्त कर।

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